________________
८८
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध +++++++++++++++++++++++kterrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrror चाहिये और न ही अन्य साधुओं को देना चाहिए। आहार आदि कार्यों में माया छल कपट आदि का त्याग करके सरल भावों से साधना में संलग्न रहना चाहिये। ___ प्रस्तुत सूत्र में गण, संघ की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए सात पदवियों का उल्लेख किया है - १. आचार्य २. उपाध्याय ३. प्रवर्तक ४. स्थविर ५. गणी ६. गणधर और ७. गणावच्छेदक। मूल पाठ में आये पुरेसंथुया और पच्छासंथुया शब्दों का तात्पर्य दीक्षाचार्य एवं वाचनाचार्य से है। इसके सिवाय मंत्री, महामंत्री आदि पदवियाँ साधु को देना
और लेना उचित नहीं है क्योंकि मंत्री, महामंत्री, राष्ट्र सन्त आदि पदवियाँ राजनैतिक और सांसारिक है। ठाणाङ्ग आदि अन्य आगमों में भी उपरोक्त सात पदवियों का ही उल्लेख मिलता है।
से एगइओ मणुण्णं भोयणजायं पडिगाहित्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएइ 'मा मेयं दाइयं संतं दट्ठणं सयमाइए, आयरिए वा जाव गणावच्छेइए वा णो खलु मे कस्सइ किंचि वि दायव्वं सिया', माइट्ठाणं संफासे। णो एवं करिज्जा। से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा गच्छित्ता पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गहं कट्ट इमं खलु इमं खलु त्ति आलोएजा णो किंचि वि णिगूहिज्जा॥ ,
से एगइओ अण्णयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता भद्दयं भद्दयं भुच्चा विवण्णं विरसमाहरइ, माइट्ठाणं संफासे। णो एवं करिज्जा॥५७॥ ___ कठिन शब्दार्थ - मणुण्णं - मनोज्ञ, पंतेण - प्रान्त-नीरस (रूखा-सूखा), पलिच्छाएइआच्छादित कर देता है, दाइमं संतं - दिखाने पर, दट्ठणं - देखकर, सयं - स्वयं, आइए - ले लेवे, किंचि- कुछ भी, कस्सवि (इ) - किसी को भी, णो - नहीं, दायव्वं - देना पडे, उत्ताणए - ऊंचा करके, णिगूहिज्जा - छिपावे, भद्दयं - अच्छा, विवण्णं - विवर्ण, विरसं - विरस। ____ भावार्थ - यदि कोई साधु भिक्षा में मनोज्ञ स्वादिष्ट और सरस आहार लाकर मन में विचार करे कि इस मनोज्ञ आहार को आचार्यादि , या अन्य साधु ले लेंगे परन्तु मेरे को तो किसी को भी इसमें से कुछ भी नहीं देना है ऐसा सोचकर वह उस आहार को रूखे-सूखे आहार से छिपा कर (ढंक कर) फिर आचार्यादि को बताता है तो वह मातृ स्थान का स्पर्श करता है अर्थात् साधु आचार का उल्लंघन करता है। अतः साधु को ऐसा नहीं करना
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org