Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन १ उद्देशक १०
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चाहिए। किन्तु मुनि उस आहार को लेकर आचार्य आदि के समीप जाये और पात्र को ऊँचा हाथ में खुला रख करके 'यह है, यह है' ऐसा कह कर सब पदार्थ दिखलावे और कुछ भी छिपाकर नहीं रखे। . यदि कोई साधु प्राप्त हुए आहार में से अच्छा-अच्छा (स्वादिष्ट) आहार खा कर और शेष बचे विरस-नीरस आहार को गुरु आदि को बतलावे तो वह दोष पात्र होता है (माया का सेवन करता है) अतः साधु को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु अपनी रसनेन्द्रिय के वश होकर सरस आहार को नीरस आहार से छिपा कर भी नहीं रखे और उसे गृहस्थ के घर में या मार्ग में खावे भी नहीं अपितु गृहस्थ के घर से जो भी आहार प्राप्त हुआ है उसे लोलुपता रहित होकर आचार्य आदि को दिखाए और उनके आदेशानुसार करे। अपने स्वाद एवं स्वार्थ के लिए किसी भी वस्तु को छिपा कर रखना मातृ स्थान का स्पर्श करना है यानी मायाचार का सेवन है। साधु को कपट का त्याग कर सदा सरल एवं निष्कपट जीवन जीना चाहिए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा अंतरुच्छुयं वा, उच्छुगंडियं वा, उच्छुचोयगं वा, उच्छुमेरगं वा, उच्छुसालगं वा, उच्छुडालगं वा, सिंबलिं वा, सिंबलिथालगं वा, अस्सिं खलु पडिग्गहियंसिं अप्पे सिया भोयणजाए बहुउज्झियधम्मिए तहप्पगारं अंतरुच्छयं वा जाव सिंबलिथालगं वा अफासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा॥
कठिन शब्दार्थ - अंतरुच्छुयं - ईख (इक्षु) के पर्व का मध्य भाग उच्छुगंडियं - गांठ वाला इक्षु खण्ड (गंडेरी), उच्छुचोयगं - पीले ईख के छिलके, उच्छुमेरगं - छिले हुए इक्षु की गंडेरी, उच्छुसालगं - ईख की शाखा, उच्छुडालगं - ईख का एक भाग अथवा पूरा ईख, सिंबलिं - मूंग आदि की भूनी हुई अचित्त फलियां, सिंबलिथालगं - वाल आदि की फली; अस्सिं पडिग्गहियंसि - इस पदार्थ को ग्रहण कर लेने पर, अप्पे - अल्प, भोयणजाएभोजन योग्य (खाद्य पदार्थ) हो, बहुउज्झिय धम्मिए - बहुउज्झित धर्मा-फैकने योग्य अंश ज्यादा हो।
भावार्थ - गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी ईख के पर्व का मध्य भाग, इक्षुखंड, पीले ईख के छिलके, छिले हुए इक्षु की गंडेरी, ईख की शाखा, छिले हुए ईख का अग्रभाग या एक भाग अथवा पूरा पूरा ईख तथा मूंग, वाल आदि की फलियाँ
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