Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन १ उद्देशक ८
७१ ........................................................ से निकला हुआ पानी नहीं समझना चाहिए। इसी प्रकार दाखों अर्थात् अङ्गरों का रस तथा दाखों एवं अङ्गुरों को मसला हुआ रस भी नहीं समझना चाहिए। उपरोक्त बीसों प्रकार की चीजों को धोया हुआ पानी ही समझना चाहिए।
नारियल जब बहुत कच्चा होता है तब उसमें पानी की मात्रा अधिक होती है और गिरी (गूदा) बहुत कम होती है टोपसी के भीतरी भाग में चिपी रहती है उस समय का पानी और गिरी सचित्त तो है ही परन्तु अनन्तकाय की शङ्का एवं सम्भावना भी रहती है। जोटी वाला सूखा नारियल भी जब तक पूरा गोला रहता है तब तक भी सचित्त ही रहता है। बाहर निकले हुए गोले में से बीज का भाग दूर हो जाता है तब वह अचित्त हो जाता है, उसके पहले वह सचित्त ही रहता है ऐसा समझना चाहिए। - से भिक्खू वा भिक्खूणी वा जाव पविढे समाणे आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइकुलेसु वां, परियावसहेसु वा, अण्णगंधाणि वा, पाणगंधाणि वा, सुरभिगंधाणि वा आघाय आघाय से तत्थ आसायपडियाए मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे 'अहो गंधो अहो गंधो' णो गंधमाघाइज्जा॥४४॥ ___ कठिन शब्दार्थ - आगंतारेसु - धर्मशालाओं (सरायों) में, आरामागारेसु - उद्यान गृहों (बंगलों) में, परियावसहेसु - परिव्राजकों के मठों में, आघाय - सूंघ कर, आसायपडियाए - गंध के आस्वादन की प्रतिज्ञा से, मुच्छिए - मूछित, गिद्धे - गृद्ध, गढिए - ग्रस्त, अज्झोववण्णे - आसक्त, णो - नहीं, गंधं - गंध को, आघाइजा - सूंघे। - भावार्थ - साधु या साध्वी धर्मशालाओं में, बंगलों में, गृहस्थों के घरों में या परिव्राजकों आदि के मठों में, अन्न एवं पानी की तथा सुगंधित पदार्थों की सुगंध को सूंघ सूंघ कर उस गंध में मूछित, गृद्धित और लोलुपी होकर 'अहा! कैसी सुंदर गंध है' इस प्रकार का विचार कर उस गंध को नहीं संघे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने साधु को भौतिक पदार्थों में किस तरह अनासक्त रहना चाहिए, इसका उल्लेख किया है। साधु को सुवासित पदार्थों की गंध की ओर आकर्षित नहीं हो कर अपने मन आदि योगों को अपनी साधना में लगाना चाहिये।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा सालुयं वा, विरालियं वा, सासवणालियं वा, अण्णयरं वा, तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं अफासुयं जाव लाभे संते णो पडिगाहिज्जा॥ .
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