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॥ श्रीजिनाय नमः ॥ श्रीगुणभद्राचार्यरचित आत्मानुशासन. ( हिंदी -भाव सहित ) मंगल और ग्रन्थ करनेकी प्रतिज्ञा. लक्ष्मीनिवासनिलयं विलीनाविलयं निधाय हृदि वीरम् । आत्मानुशासनमहं वक्ष्ये मोक्षाय भव्यानाम् ॥ १ ॥
अर्थ :- इस ग्रंथ के कर्ता श्रीगुणभद्रस्वामी कहते हैं कि मैं अनंत -ज्ञानादि आत्मस्वभावरूप अंतरंग अपूर्व - लक्ष्मीके धारी तथा छत्र चामर सिंहासन सभामंडप आदि बाहिरी अनुपम महिमाके धारी श्री महावीर अंतिम तीर्थकरको अथवा कर्मशत्रुओंके नाशक वरिको या अनुपम महिमाके धारी पांचों परमेष्ठियोंको अपने अंतःकरणमें धारण करके ' आत्मानुशासन' ग्रंथको करता हूँ । इस आत्मानुशासन - थके पढने सुननेसे भव्य - जीव, प्रतिबोध पाकर संसारदुःखोंके पार होंगे, क्योंकि इस ग्रंथमें आत्माके हितका उपदेश कहाजानेवाला है । इस ग्रंथको पढने सुनने की आवश्यकता :-- दुःखाद्विभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोहमप्यात्मन् । दुःखापहारि सुखकर मनुशास्मि तवानुमतमेव ॥ २ ॥
अर्थः - भव्य आत्मन्, तू दुःखसे अत्यंत डरता है और सुख चाहता है इसलिये सुन, मैं भी दुःखनाशक, सुखकारक तेरे अनुकूल ही उपदेश करता हूँ ।
भावार्थ:- बहुतसे मनुष्य यह समझा करते हैं कि धर्म धारण करना क्या है, मानो सुखको छोडकर कष्ट सहन करना है, क्योंकि
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व्रत, उपवास आदि करना और अनेक भोगोपभोग योग्य वस्तुओंका त्याग करना ही धर्म माना गया है । अतः ऐसे धर्मसे अनेक कष्ट अवश्य सहने पडेंगे । यही समझकर वे धर्मसे सदा पराङ्मुख बने
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