Book Title: Prabandha Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Jinvijay
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KIWA ६/५० सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला XXX ॥ ग्रन्थांक १ ॥ XX श्रीमेरुतुङ्गाचार्यविरचित प्रवन्धचिन्तामणि मूल्य, रू. ३-१२-० श्री डालचची सिंघी सिंघी जैन ज्ञानपीठ विश्व भारती शान्तिनिकेतन [विक्रमाब्द १९८९ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला 卐॥ ग्रन्थाङ्क १॥॥ TvNT DHULOM SRIDALCANDJI SINGH! TITERATULATION VIVA श्रीडालवरजा सिंचा PRATIMAHITY பேயாமார்பபார்க கமனாபபரியப்பா श्रीमेरुतुङ्गाचार्यविरचित प्रबन्धचिन्तामणि Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, कथात्मक-इत्यादि विविधविषयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर, राजस्थानी आदि भाषानिबद्ध बहु उपयुक्त पुरातनवख्यय तथा नवीन संशोधनात्मक साहित्यप्रकाशिनी जैन ग्रन्थावलि । कलकत्तानिवासी खर्गीय श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी की पुण्यस्मृतिनिमित्त तदीयसुपुत्र श्रीमान् बहादुरसिंहजी सिंघी द्वारा संस्थापित मुख्य सम्पादक जिनविजय मुनि अधिष्ठाता, सिंघी जैन ज्ञानपीठ. शान्तिनिकेतन ग्रन्थांक ? प्राप्तिस्थान संचालक, सिंघी जैन ग्रन्थमाला. शान्तिनिकेतन, बंगाल. स्थापनाब्द सर्वाधिकार संरक्षित. [वि० सं० १९८७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमरुतुङ्गाचार्यविरचित प्रबन्धचिन्तामणि विविधपाठान्तरयुक्त मूलग्रन्थ; तत्सम्बद्ध अनेक पुरातनप्रबन्ध; शिलालेख, ताम्रपत्र, ग्रन्थप्रशस्ति, तथा ग्रन्थान्तरस्थ विविधप्रमाण; हिन्दीभाषान्तर; तत्कालीन ऐतिहासिक, भौगोलिक, राजकीय, सामाजिक, धार्मिक आदि परिस्थिति विवेचक विस्तृत प्रस्तावना-इत्यादि बहुविधविषयसमन्वित सम्पादक जिनविजय मुनि जैनवाङ्मयाध्यापक, विश्वभारती. शान्तिनिकेतन प्रथम भाग विविधपाठान्तर-परिशिष्ट-पद्यानुक्रमादियुक्त मूलग्रन्थ प्रकाशक अधिष्ठाता, सिंघी जैन ज्ञानपीठ. शान्तिनिकेतन, बंगाल. विक्रमान्द १९८९] प्रथमावृत्ति, एक सहस्र प्रति. [१९३३ क्रिष्टाब्द Jain Education Interational Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAINA SERIES A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF MOST IMPORTANT CANONICAL, PHILOSOPHICAL, HISTORICAL, LITERARY, NARRATIVE ETC. WORKS OF JAINA LITERATURE IN PRĀKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSA AND OLD VERNACULAR LANGUAGES, AND STUDIES BY COMPETENT RESEARCH SCHOLARS. FOUNDED BY ŚRĪMĀN BAHADUR SINGHJI SINGHỈ OF CALCUTTA IN MEMORY OF HIS LATE FATHER ŚRI DĂLCANDJÍ SINGHÌ. GENERAL EDITOR JINAVIJAYA MUNI ADHISTHĀTĀ: SINGHĪ JAINA JÑANAPĪTHA, έANTINIKETA.N. NUMBER 1 TO BE HAD FROM SANCĀLAKA, SINGHI JAINA GRANTHAMĀLĀ SANTINIKETAN. (BENGAL) Founded ] All rights reserved [ 1931. A. D. Jain Education Interational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRABANDHA CINTAMANI MERUTUNGACARYA CRITICALLY EDITED IN THE ORIGINAL SANSKRIT WITH VARIANTS; SUPPLEMENTS OF SIMILAR PRABANDHAS; CORRESPONDING EPIGRAPHICAL RECORDS AND REFERENCES IN THE OTHER WORKS; HINDI TRANSLATION AND NOTES AND ELABORATE, CRITICAL AND HISTORICAL INTRODUCTION ETC. BY JINAVIJAYA MUNI SINGHI PROFESSOR OF JAINA CULTURE AT VISVABHARATI ŚĀNTINIKETAN. PART I TEXT IN SANSKRIT WITH VARIANTS, AN APPENDIX AND INDICES OF STANZAS PUBLISHED BY THE ADHISTHĀTĀ, SINGHI JAINA JÑANAPĪTHA SANTINIKETAN. (BENGAL) V. E. 1989 1 First edition, One Thousand Copies. [ 1933 A. D. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणि की संकलना। इस ग्रन्थका संकलन और प्रकाशन निम्न प्रकार, ५ भागों में पूर्ण होगा। आधार पर संशोधित विविध पाठान्तर समवेत - मूलग्रन्थ; १ परिशिष्ट; मूलग्रन्थ और परिशिष्टमें आये हुवे संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषामय पद्योंकी अकारादिक्रमानुसार सूचि पाठ संशोध नके लिये काममें लाई गईं पुरातन प्रतियोंका सचित्र वर्णन । ( १ ) प्रथम भाग. भिन्न भिन्न प्रतियोंके - (२) द्वितीय भाग. प्रबन्धचिन्तामणिगत प्रबन्धोंके साथ सम्बन्ध और समानता रखनेवाले अनेकानेक पुरातन प्रबन्धोंका संग्रहः पदानुक्रमसूचि विशेष नामानुक्रमः संक्षिप्त प्रस्तावना और प्रबन्ध संग्रहोंकी मूल प्रतियोंका सचित्र परिचय । (३) तृतीय भाग. पहले और दूसरे भागका संपूर्ण हिंदी भाषान्तर । (४) चतुर्थ भाग प्रबन्धचिन्तामणिवर्णित व्यक्तियोंके साथ सम्बन्ध रखनेवाले शिलालेख, ताम्रपत्र, पुस्तकप्रशस्ति आदि जितने समकालीन साधन और ऐतिह्य प्रमाण उपलब्ध होते हैं उनका एकत्र संग्रह और तत्परिचायक उपयुक्त विस्तृत विवेचन प्राकालीन और पात्कालीन अन्यान्य ग्रन्थोंमें उपलब्ध प्रमाणभूत प्रकरणों, उठेलों और अवतरणका संग्रह: कुछ शिलालेख, ताम्रपत्र और प्राचीन वादपत्रोंके चित्र । (५) पश्चम भाग प्रवन्धचिन्तामणिप्रधित सब बातोंका विवेचन करनेवाली विस्तृत प्रस्तावना - जिसमें तत्कालीन ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, धार्मिक और राजकीय परिस्थितिका सविशेष ऊहापोह और सिंहावलोकन कियाजायगा। अनेक प्राचीन मंदिर, मूर्तियां इत्यादिके चित्र भी दिये जायेंगे। THE SCHEME OF THE WORK OF PRABANDHACINTAMANI [The work will be completed in five parts. ] Part I. A critical Edition of the original Text in Sanskrit with various readings based on the most reliable MSS; An Appendix; An alphabetical Index of all Sanskrit, Prakrit and Apabhrams'a verses occurring in the text and the appendix; A short Introduction in Hindi describing the MSS. and materials used for preparing the text along with plates. Part II. A collection of many old Prabandhas similar and analogous to the matter in the Prabandhacintamuani; Indices of the verses and proper names; A short Introduction in Hindi describing the MSS. and materials used in preparing this Part, along with plates. Part III. A Complete Hindi Translation of Parts I and II. Part IV. A collection of epigraphical records, viz, stone inscriptions, copper plates, colcphons and Prasastis from the contemporary MSS; all available historical data dealing with the Persons described or referred to in the Prabandhacinta. mani along with a critical account in Hindi of the above, as also many plates. and a collection of authoritative references and quotations from other works. Part V. An elaborate general Introduction surveying the historical, geographical, social, political and religious conditions of that period; with plates. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदावुन्मीलितं येन ज्ञानचक्षुर्मदीयकम् । देवीहंसगुरोस्तस्य स्मृतये इदमर्प्यते ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तमणिग्रन्थगतप्रबन्धानाम् अनुक्रमणिका। प्रथमः प्रकाशः। । द्वितीयः प्रकाशः। १. विक्रमार्कप्रबन्धाः पृ० १-१० ७. भोज-भीमप्रबन्धः २५-५२ रोहणाचलगमनवृत्तान्त-साम्राज्यप्राप्तिः १-३ भोजदानवृत्तान्तानि ... ... २५-२९ कालिदासोत्पत्तिप्रवन्धः ... ३-५ भोज-भीमविरोधवृत्तान्तम् ... ३०-३४ सुवर्णपुरुषसिद्धिप्रवन्धः... ... माघपण्डितप्रबन्धः ... ... ३४-३६ विक्रमादित्यसत्त्वप्रबन्धः ... धनपालपण्डितप्रबन्धः ... ... ३६-४२ सत्त्वपरीक्षाप्रबन्धः ... ... शीतापण्डिताप्रबन्धः ... ... ४२-४३ विद्यासिद्धिप्रबन्धः ... ... मयूर-बाण-मानतुङ्गाचार्यप्रवन्धः ४४-४५ सिद्धसेनसूरिसमागमवर्णनम् ... पणस्त्री-गोपयोः प्रबन्धः ... ४५-४६ पृथिव्या अनृणीकरणवृत्तम् ... अनित्यताश्लोकचतुष्टयप्रवन्धः ... ४६ [पृथ्वीरसप्रबन्धः] ... ... वस्तुचतुष्टयप्रबन्धः ... ... ४७ विक्रमार्कनिर्गर्वताप्रबन्धः ... बीजपूरकप्रबन्धः विक्रमार्कमृत्युवृत्तान्तम् ... ‘एको न भव्यः' प्रबन्धः २. सातवाहनप्रबन्धः इक्षुरसप्रबन्ध: ... ... ... अश्ववारप्रवन्धः ... ... ... ३. शीलवते भूयराजप्रबन्धः ११ गोपगृहिणीप्रवन्धः ... ... ४. वनराजादिप्रबन्धः १२-१५ कर्णनृपतिवर्णनम् ... ... ___चापोत्कटवंशावलिः ... ... १४-१५ भोजमृत्युवर्णनम् ... ... ५. मूलराजप्रबन्धः तृतीयः प्रकाशः। मूलराज-सपादलक्षीयनृपयुद्धवृत्तम् १६-१७ ८. सिद्धराजादिप्रबन्धः ५३-७६ कन्थडितापसवृत्तान्तम् ... ... भीमदेवपुत्रमूलराजवृत्तम् ... ५३ लाखाकोत्पत्ति-विपत्तिप्रबन्धः ... कर्णनृपतिमयणल्लदेवीवर्णनम् ... मूलराजान्वयविचारः ... ... जयसिंहदेवजन्मकथनम् ... ६. मुञ्जराजप्रबन्धः २१-२५ लीलावैद्यप्रबन्धः... ... ... . मुञ्जराजजन्मवृत्तम् ... ... मत्रिसान्तूदृढधर्मताप्रबन्धः ... सिन्धुलनृपवर्णनम् ... .... मयणल्लदेवीयात्रावर्णनम् ... भोजजन्मादिवृत्तान्तम् ... ... २२ जयसिंहदेवकृतधारायुद्धवर्णनम् मुञ्ज-तैलपदेवयुद्धवृत्तम् ... ... २२ जयसिंहदेव-हेमसूरिसमागमः ... मुञ्जकारागारदशावर्णनम् ... जयसिंहस्य रुद्रमहाकालपासादकरणम् ६१ Trur ur 9 vvro ४७ १८ २१ ५० २१ २३ प्रबन्ध.2 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणि ६६-६९ सहस्रलिङ्गसरोवरकरणम् ... ६२-६४ जयसिंह-नवघणयुद्धवृत्तम् ... ६५ सूनलदेव्या वाक्यानि ... ... रैवतकोद्धारप्रबन्धः ... ... जयसिंहस्य शत्रुञ्जययात्रा ... देवमूरिचरितम् ... ... ... वसाह आभडप्रबन्धः ... ... सर्वदर्शनमान्यताप्रबन्धः ... चणकविक्रयिवणिजः प्रबन्धः ... षोडशलक्षप्रसादप्रबन्धः ... वाराहीयचप्रबन्धः ... ... उञ्झावास्तव्यग्रामणीनां प्रबन्धः । माङ्गप्रबन्धः ... ... ... म्लेच्छागमनिषेधप्रबन्धः ... कोल्लापुरप्रबन्धः ... ... कौतुकीसीलणप्रवन्धः ... ... जयचन्द्रराज्ञा समं गूर्जरप्रधान स्योक्तिप्रत्युक्तिप्रवन्धः ... पापघटप्रबन्धः ... ... ... सान्तुमत्रिबुद्धिप्रबन्धः ... ... वण्ठकर्मप्राधान्यप्रवन्धः... ... जयसिंहस्तुतिश्लोकाः ... ... चतुर्थः प्रकाशः। कुमारपालादिप्रबन्धः ७७-९८ कुमारपालपूर्वजकथनम् ... ... सिद्धराजकृतकदर्थनावर्णनम् ... कुमारपालराज्यप्राप्तिः ... ... कुमारपाल-अर्णोराजयुद्धवर्णनम् । चाहडकुमारप्रवन्धः ... ... बइकारसोलाकप्रबन्धः ... ... आम्बडप्रबन्धः ... ... ... कुमारपाल हेमसूरिसमागमवर्णनम् हेमसूरिचरित्रम् ... ... ... हेमसूरिदर्शितं कुमारपालस्य सोमे श्वरदेवप्रात्यक्ष्यम् ... ... ८४-८५ कुमारपालस्य जैनधर्माङ्गीकरणम् मन्त्रिबाहडकारितशत्रुञ्जयोद्धारप्रवन्धः । राजपितामह आम्रभटप्रवन्धः ... कुमारपालाध्ययनप्रवन्धः हरडइप्रबन्धः ... ... ... उर्वशीशब्दप्रबन्धः ... ... उदयचन्द्रप्रबन्धः ... ... अभक्ष्यभक्षणप्रायश्चित्तप्रबन्धः ... यूकाविहारप्रवन्धः ... ... सालिगवसहि-उद्धारप्रबन्धः ... बृहस्पतिप्रबन्धः आलिगप्रबन्ध: ... ... ... पामराशिप्रबन्धः चारणयोः प्रबन्धः ... ... तीर्थयात्राप्रबन्धः ... ... सुवर्णसिद्धिनिषेधप्रबन्धः ... राजघरदृचाहडप्रबन्धः ... ... कुमारपालकथितलवणप्रसादराण__ कप्रबन्धः ... ... ... हेमाचार्य-कुमारपालयोर्मृत्युवर्णनम् अजयदेवस्य राज्योपविशनम् ... मत्रिकपर्दिप्रबन्धः ... रामचन्द्रमरणप्रबन्धः ... ... अजयदेवमरणवर्णनम् ... ... अजयदेवान्वयवृत्तम् ... ... वीरधवलवर्णनम् ... ... १०. वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः ९८-१०५ वस्तुपाल-तेजःपालयोर्जन्मादि___ वृत्तान्तम् ... ... ... ९८-९९ शत्रुञ्जयादितीर्थयात्रावर्णनम् ...१००-१०१ अर्बुदगिरौ विमलवसहिकास्थापनम् १०१ शंखसुभटेन सह युद्धकरणम् ... १०२ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्लेच्छपतिना सह मन्त्रिणो मैत्री अनुपमाया औदार्यवर्णनम् वीरधवल - लवणप्रसादयोः ग्रामसङ्ग्रामवर्णनम् . अनुपमाया मरणे तेजःपालस्य शोकवृत्तम् वस्तुपालस्य मृत्युवृत्तम् ... ११. प्रकीर्णकप्रबन्धः पञ्चमः प्रकाशः । विक्रमपात्रपरीक्षाप्रबन्धः पश्च नन्दप्रबन्धः मल्लवादिप्रबन्धः शिलादित्योत्पत्ति- रङ्कोत्पत्ति-वलभीभङ्गप्रबन्धः पुखराज - तत्पुत्री श्रीमाताप्रबन्धः गोवर्द्धननृपप्रबन्धः पुण्यसारप्रबन्धः कर्म सारबन्धः .. अनुक्रमणिका । १०३ १०४ १०४ १०५ १०५ १०६ - १२८ १०७ १०७ १०७ १०८ ११० १११ १११ ११२ लक्ष्मणसेन - उमापतिधरयोः प्रबन्धः जयचन्द्रप्रबन्धः तुङ्गसुभटप्रबन्धः परमर्दि - जगदेव - पृथ्वीपतीनां प्रबन्धः कौङ्कणोत्पत्तिप्रबन्धः वराहमिहिर प्रबन्धः नागार्जुनोत्पत्ति-स्तम्भन कतीर्थाव तारप्रबन्धः भर्तृहरि-उत्पत्तिप्रबन्धः - वैद्य वाग्भटप्रबन्धः क्षेत्राधिपोत्पत्तिप्रबन्धः ... वासनाप्रबन्धः कृपाणिका प्रबन्धः जिनपूजायां धनदप्रबन्धः ११ ११३ ११४ ११७ ११८ ११८ ११९ १२० १२१ १२२ १२३ १२३ १२३ १२४ १२५ ग्रन्थकारस्य प्रशस्तिः परिशिष्टम् - कुमारपालस्य अहिं साया विवाहसम्बन्धप्रबन्धः १२६ - १२८ प्रबन्धचिन्तामणेः पद्यानुक्रमणिका १२९-१३६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैन ग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः ॥ WRIGH अस्ति बङ्गाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा । मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ॥ निवसन्त्यनेके तत्र जैना ऊकेशवंशजाः । धनाढ्या नृपसदृशा धर्मकर्मपरायणाः ॥ श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको बहुभाग्यवान् । साधुवत् सच्चरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः ॥ बाल्य एवागतो यो हि कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्यां धृतधर्मार्थनिश्चयः ॥ कुशाग्रया स्वबुद्धयैव सद्वृत्त्या च सुनिष्ठया । उपार्ज्य विपुलां लक्ष्मीं जातो कोट्यधिपो हि सः ॥ तस्य मनुकुमारीति सन्नारीकुलमण्डना । पतिव्रता प्रिया जाता शीलसौभाग्यभूषणा ॥ श्रीबहादुरसिंहाख्यः सद्गुणी सुपुत्रस्तयोः । अस्त्येष सुकृती दानी धर्मप्रियो धियां निधिः ॥ प्राप्ता पुण्यवताऽनेन प्रिया तिलकसुन्दरी । तस्याः सौभाग्यदीपेन प्रदीप्तं यगृहाङ्गणम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्रसिंहोऽस्ति ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः । सः सर्वकार्यदक्षत्वात् बाहुर्यस्य हि दक्षिणः ॥ नरेन्द्रसिंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः । सूनुवीरेन्द्रसिंहश्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति त्रयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः । विनीताः सरला भव्याः पितुर्मार्गानुगामिनः ॥ अन्येऽपि बहवश्चास्य सन्ति स्वस्रादिबान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धोऽयं ततो राजेव राजते ॥ अन्यच्च सरस्वत्यां सदासक्तो भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् । तत्राप्येष सदाचारी तच्चित्रं विदुषां खलु ॥ न गर्यो नाऽप्यहंकारो न विलासो न दुष्कृतिः । दृश्यतेऽस्य गृहे क्वापि सतां तद् विस्मयास्पदम् ॥ भक्तो गुरुजनानां यो विनीतः सज्जनान् प्रति । बन्धुजनेऽनुरक्तोऽस्ति प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश - कालस्थितिज्ञोऽयं विद्या - विज्ञानपूजकः । इतिहासादिसाहित्य-संस्कृति-सत्कलाप्रियः ॥ समुन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्ष हेतवे । प्रचारार्थं सुशिक्षाया व्ययत्येष धनं घनम् ॥ गत्वा सभा समित्यादौ भूत्वाऽध्यक्षपदाङ्कितः । दत्त्वा दानं यथायोग्यं प्रोत्साहयति कर्मठान् ॥ एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया । करोत्ययं यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः ॥ अथान्यदा प्रसङ्गेन स्वपितुः स्मृतिहेतवे । कर्तुं किञ्चिद् विशिष्टं यः कार्यं मनस्यचिन्तयत् ॥ पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग् - ज्ञानरुचिः परम् । तस्मात्तज्ज्ञानवृद्ध्यर्थं यतनीयं मया वरम् ॥ विचार्यैवं स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रद्धास्पदस्वमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् ॥ जैन ज्ञानप्रसारार्थं स्थाने शान्तिनिकेतने । सिंघीपदाङ्कितं जैनज्ञानपीठमतिष्ठिपत् ॥ श्रीजिनविजय विज्ञो तस्याधिष्ठातृसत्पदम् । स्वीकर्तुं प्रार्थितोऽनेन ज्ञानोद्धाराभिलाषिणा ॥ अस्य सौजन्य-सौहार्द-स्थैयौदार्यादिसद्गुणैः । वशीभूयाति मुदा येन स्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ यस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा ग्रन्थमाला प्रकाश्यते ॥ विद्वज्जनकृताह्लादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किश्चित् प्रास्ताविक। प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थके बारेमें जितनी ज्ञातव्य बातें हैं उन सबका निर्देश, बहुत कुछ विस्तारके साथ, हम 'आगेके भागोंमें-चौथे पांचवें ग्रन्थमें-करना चाहते हैं इस लिये यहां पर अन्य कोई विशेष वातका उल्लेख न कर, सिर्फ इस ग्रन्थकी प्रस्तुत आवृत्तिके जन्मका थोडासा पूर्वेतिहास बतलाना, और उसके साथ इस ग्रन्थके, इतः पूर्व, जो संस्करण और भाषान्तर आदि हुए हैं उनका परिचय देते हुए, जिन पुरातन हस्तलिखित पोथीयोंका आश्रय लेकर हमने इसका संशोधन और सम्पादन किया है उनका परिचय मात्र कराना आवश्यक समझते हैं। प्रस्तुत आवृत्तिकी जन्मकथा. प्रबन्धचिन्तामणि जैसे ऐतिहासिक महत्त्व रखनेवाले अनेक ग्रन्थ, और ऐसे ही उपयोगी अन्यान्य अगणित ऐतिहासिक साधन, जैन भण्डारोंमें पडे पडे सड़ रहे हैं लेकिन उनका ठीक ठीक परिचय विद्वानोंको न मिल सकनेके कारण वे अभी तक प्रकाशमें नहीं आये । इस वस्तुका खयाल हमें पाटणके पुरातन जैन भण्डारोंका अवलोकन करते समय, आजसे कोई १८-२० वर्ष पहले हुआ । विद्यमान जैन साधुसमूहमें जिस ज्ञाननिमग्न स्थितप्रज्ञ मुनिमूर्तिका दर्शन और चरणस्पर्श करनेसे हमारी इस ऐतिहासिक जिज्ञासाका विकास हुआ उस यथार्थ साधुपुरुष-पूज्यपाद प्रवर्तक श्रीमत्कान्तिविजयजी महाराज-की वात्सल्यपूर्ण प्रेरणा पाकर हमने यथाबुद्धि इस विषयमें अपना अध्ययन-अन्वेषण-संशोधन-सम्पादनादि कार्य करना शुरू किया। हमारा संकल्प हुआ कि जैन भण्डारोंमें इतिहासोपयोगी जितनी सामग्री उपलब्ध हों उसे खोज खोज कर इकट्ठी की जाय और आधुनिक विद्वन्मान्य पद्धतिसे उसका संशोधन और सम्पादन कर प्रकाशन किया जाय । हमारे इस संकल्पमें, उक्त पूज्यवरके गुरुभक्त और ज्ञानोपासक शिष्यवर्य श्रीमान् चत्तुरविजयजी महाराज तथा प्रशिष्यवर श्रीमान पुण्यविजयजीकी सम्पूर्ण सहकारिता प्राप्त होने पर, हमने उन्हीं स्वाध्यायनिरत ज्ञानतपस्वी प्रवर्तकजीके पुण्यनामसे अंकित-प्रवर्तक श्रीकान्तिविजय जैन इतिहासमाला-नामक ग्रन्थावलिका प्रारंभ किया और भावनगरकी श्री जैन आत्मानंद सभा द्वारा उसे प्रकाशित करने लगे। विज्ञप्तित्रिवेणी, कृपारसकोष, शत्रुजयतीर्थोद्धारप्रवन्ध, जैन ऐतिहासिक गूर्जर काव्यसंचय और प्राचीन जैनलेखसंग्रह इत्यादि ग्रन्थ उस समय प्रकट हुए और विद्वानोंने उनका अपूर्व ऐतिहासिक महत्त्व समझ कर उस प्रयत्नको खूब सराहा । हमने अपना यह संशोधन कार्य, संवत् १९७१-७२ में, जब हमारा निवास बडौदे में था, प्रारंभ किया था । उन्हीं दिनोंमें, बडौदा राज्यकी ओरसे प्रकाशित होने वाली गायकवाडस् ओरिएन्टल सीरीझ' का प्रकाशन कार्य भी शुरू हुआ था । उस सीरीझके उत्पादक स्वर्गीय साक्षररत्न श्रीचिमणलाल डाह्याभाई दलाल एम्. ए. हमारे घनिष्ठ मित्र थे । पाटणके जैन भण्डारोंका व्यवस्थित पर्यवेक्षण करनेमें तथा उन भण्डारोंमेंसे अलभ्य-दुर्लभ्य ग्रन्थोंकी प्राप्ति करनेमें भाई दलालजीको जो यथेष्ट सुविधा मिली थी वह उक्त पूज्यप्रवर प्रवर्तकजी ही की सुकृपाका फल था। इस लिये उनका और हमारा एक प्रकारका सतीर्थ जैसा सम्बन्ध था। समानशील और समव्यसनी होने के कारण, वे प्रतिदिन घंटों, बडौदेके जैन उपाश्रयमें आकर बैठते-उठते और हम उनके और वे हमारे का थे। इस सहयोगके परिणाममें, कितनेएक जैन ऐतिहासिक ग्रन्थ 'गायकवाडस् ओरिएन्टल सिरीझ' द्वारा भी प्रकट करनेका उन्होंने निश्चय किया और उनमेंसे, मोहराजपराजय नाटक का सम्पादन कार्य उक्त पूज्यवरके प्रधानशिष्य श्रीचतुरविजयजी महाराजने, कुमारपालप्रतिबोध नामक विशाल प्राकृत ग्रन्थका सम्पादन हमने और वसन्तविलास, नरनारायणानन्द, हम्मीरमदमर्दन आदि ग्रन्थोंका सम्पादन कार्य स्वयं दलालजीने अपने हाथ में लिया । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमानुसार बडौदासे हमारा प्रस्थान हुआ और संकल्पित कार्यमें विशृंखलता उत्पन्न हुई। 'प्राचीनजैनलेखसंग्रह द्वितीय भाग,' 'कुमारपालप्रतिबोध' और 'जैनऐतिहासिक गूर्जरकाव्यसंचय' का जो कार्य अपूर्ण था वह तो किसी तरह पूरा किया गया लेकिन और विशेष कार्य कुछ न हो सका। उसी समय पूनाके सुप्रसिद्ध 'भाण्डारकर प्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिर' ( Bhandarkar Oriental Research Institute ) की स्थापना हुई । बडौदासे प्रस्थान कर हम जब बम्बईमें चतुर्मास रहे थे तब, इस 'संशोधनमन्दिर के मुख्य उत्पादक और प्राणप्रतिष्ठापक स्वर्गीय प्रो० गुणे और श्रीमान् डॉ० बेल्वलकर आदि सज्जनोंका एक डेप्युटेशन बम्बईके जैनसमाजकी मुलाखात लेनेको आया और प्रसङ्गवश हमारा परिचय पा कर उन सजनोंने हमको पूना आनेका निमश्रण दिया। चतुर्मासके बाद हम घूमते घूमते पूना पहुंचे। वहां उस संस्थाके उद्देश्यादिका विशेषावलोकन कर तथा उसके अधिकारमें आनेवाले राजकीय प्राचीनग्रन्थसङ्ग्रहका विशाल साहित्यभण्डार-जिसमें हजारों जैनप्रन्थोंका भी समावेश होता है-का दिग्दर्शन कर उस संस्थाके विकास में हमने भी यथाशक्ति योग देनेका प्रयत्न किया। उसके परिणाममें हमारी स्थिति पूनामें निश्चित हुई । वहां, इस प्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिरके काममें योग देनेके साथ 'भारत जैन विद्यालय' नामक संस्थाका भी एक विशाल आयतन खडा किया गया । सन् १९१८ में, पूनाके उक्त संशोधनमन्दिरके उपक्रमसे भारतीय पुराविदोंकी परिषद्का प्रथम अधिवेशन (First Oriental Conference) हुआ। उसमें सम्मीलित होने वाले कुछ विद्याप्रिय और साहित्योपासक जैनमित्रोंको प्रेरित कर, हमने फिर अपने उसी संकल्पको कार्यमें प्रवृत्त करनेका एक नया आयोजन किया । जैन साहित्य संशोधक समिति नामक एक समिति का प्रतिष्ठापन कर कुछ परिचित स्नेहिगणकी सहायतासे जैन साहित्य संशोधक नामका बृहदाकार त्रैमासिक पत्र तथा ग्रन्थमाला प्रकाशित करनेका प्रारंभ किया। परंतु यथेष्ट साहाय्यादि प्राप्त न होनेसे यथेप्सितरूपमें वह कार्य आगे न बढ सका । पूनेमें रहते समय, हमें स्वर्गीय लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी आदि महापुरुषोंका भी साक्षात् परिचय हुआ और हमारे जीवनमार्गमें विशिष्ट परिवर्तन घटित हुआ । जिस वेषकी चर्याका आचरण हमने मुग्धभावसे बाल्यकाल ही में स्वीकृत किया था उसके साथ हमारे मनका तादात्म्य न होनेसे, हमारे मनमें, अपनी जीवनप्रवृत्तिके विषयमें एक प्रकारका बडा भारी आन्तरिक असन्तोष बढता जाता था। अन्तरमें वास्तविक विरागता न होने पर भी केवल बाह्यवेषकी विरागताके कारण लोकों द्वारा वंदन-पूजनादिका सन्मान प्राप्त करने में हमें एक प्रकारकी वंचना प्रतीत होती थी । इस लिये गुरुपदके भारसे मुक्त हो कर किसी सेवक पदका अनुसरण करनेका हम मनोरथ कर रहे थे और अपनी मनोवृत्तिके अनुकूल सेवाका उपयुक्त क्षेत्र खोज रहे थे। सन् १९२० में, देशकी मुक्तिके लिये महात्माजीने असहयोग आन्दोलनका मंगलाचरण किया और उसीके अनुसन्धानमें, राष्ट्रीय शिक्षणके प्रचार निमित्त, अहमदाबादमें गूजरातविद्यापीठकी स्थापनाका आयोजन हुआ। मित्रोंकी प्रेरणा और महात्माजीकी आज्ञासे प्रेरित होकर हम पूनासे अहमदाबाद पहुंचे और वहां, अपनी मनोवृत्तिके अनुरूप कार्यक्षेत्र पा कर, एक सेवकके रूपमें, गूजरातविद्यापीठकी सेवामें सम्मीलित हुए। विद्यापीठने, अन्यान्य विद्यामन्दिरों के साथ प्राचीन साहित्य और इतिहासके अध्ययन और संशोधनके लिये पुरातत्त्वमन्दिर नामक एक विशिष्ट संस्थाका निर्माण किया और उसके मुख्य-आचार्य-पद पर हमारी नियुक्ति कर हमको अपने अभीष्ट क्षेत्रमें कार्य करनेका परम सुयोग दिया । पुरातत्त्वमंदिरके सञ्चालनमें हमें अध्यापक श्रीयुत रामनारायण पाठक, अ० श्रीरसिकलाल परीख, पंडितप्रवर श्रीसुखलालजी आदि सहृदय मित्रोंका प्रारंभ ही से हार्दिक सहचार मिला और इनके सहकार और सहविचारसे शीघ्र ही एक पुरातत्त्वविषयक ग्रन्थावलि प्रकट करनेकी योजना हाथमें ली गई । 'गूजरातपुरातत्त्व मन्दिर' एक राष्ट्रीय संस्था थी इस लिये उसका कार्यक्षेत्र राष्ट्रीय दृष्टिको Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ले कर निश्चित करना आवश्यक था । अत एव उस संस्थाके द्वारा ऐसे साहित्यका निर्माण और प्रकाशन करना समचित था जो किसी एक ही सम्प्रदाय या साम्प्रदायिक साहित्यका पोषक न हो कर समूचे भारतीय संस्कृतिका पोषक हो । तदर्थ जैन, बौद्ध, वैदिक और इस्लामिक साहित्यको भी उसके कार्य क्षेत्रमें सम्मीलित किया गया और उसी दृष्टिसे पुरातत्त्वमन्दिर ग्रन्थावली का प्रकाशन चालू किया गया । कुछ प्रासंगिक पुस्तकोंके सम्पादनके अतिरिक्त, हमने अपने लिये तो वही पुराना संकल्पित कार्य, मुख्य रूपसे मनमें निश्चित कर रखा था; और उसीके अनुसन्धानमें सबसे पहले हमने इस प्रबन्धचिन्तामणि की एक सुसम्पादित आवृत्ति तैयार करनेका और उसके साथ, इसीकी पूर्तिरूप, प्रबन्धकोष, कुमारपालप्रवन्ध, वस्तुपालचरित्र, विमलप्रबन्ध आदि ग्रंथ; तथा शिलालेख, ताम्रपत्र, ग्रन्थप्रशस्तिः-इत्यादि अन्यान्य प्रकारके गूजरातके इतिहासके साधनभूत संग्रह की संकलना करनेका उपक्रम किया। __ प्रबन्धचिन्तामणिका जो संस्करण, आजसे ४५ वर्ष पहले, शास्त्री रामचन्द्र दीनानाथने प्रकाशित किया था, वह यद्यपि उस जमानेके मुताबिक ठीक था, लेकिन आधुनिक दृष्टि से वह बहुत ही अपूर्ण और अशुद्ध है । उसकी पाठशुद्धि ठीक नहीं है, मौलिक और प्रक्षिप्त पाठोंका उसमें कोई पृथक्करण नहीं है और कई पद्योंका-विशेषकर प्राकृत पद्योंका-रूप बडा विकृत कर दिया है । कुछ तो पुरातन लिपिविषयक अज्ञानता, कुछ ऐतिहासिक ज्ञानविषयक अल्पज्ञता, कुछ सांप्रदायिक परंपराविषयक अनभिज्ञता और कुछ प्राकृतादि भाषा विषयक अपरिचितताके कारण उनके संस्करणमें बहुतसी त्रुटियां रह गईं, जिससे ग्रंथका सुस्पष्ट स्वरूप समझने में कठिनाई पडती है । इस लिये सबके पहले हमने इस ग्रंथकी पाठशुद्धि करनेके लिये जैन भण्डारोंमेंसे पुरानी प्रतियां प्राप्त करनेका प्रयत्न किया। यथालभ्य प्रतियां मिल जानेपर ग्रंथकी प्रेसकापी तैयार की गई और कुछ हिस्सा छपनेके लिये प्रेसमें भी दे दिया गया । छपनेका कार्य प्रारंभ हो कर ग्रन्थके दूसरे प्रकाश तकका हिस्सा जब मुद्रित हो चुका था, तब, कईएक कारणोंको ले कर, हमारा युरोप जानेका इरादा हुआ। सोचा था कि वहां बैठे बैठे भी इस ग्रंथका मुद्रणकार्य चालू रह सकेगा और युरोपसे लौटते तक ग्रन्थ पूरा हो जायगा तो फिर तुरन्त आगेका काम प्रारंभ कर दिया जायगा । इस लिये हमने इसकी प्रतियां भी वहां (जर्मनीमें) जा कर मंगवा लीं। लेकिन युरोपके सामाजिक और औद्योगिक वातावरणने हमारे मनको अपने आजीवनअभ्यस्त विषयसे विचलित कर दिया। इन पुरानी बातोंकी खोज-खाज करनेके बदले वहांके जो वर्तमान राष्ट्रीय, सामाजिक और औद्योगिक तंत्र हैं उनका विशेषावलोकन कर किसी एक सजीव प्रवृत्तिमें संलग्न होनेके तरंग हमारे मनमें ऊठने लगे और उसी दिशामें कुछ कार्य करनेके विचारोंसे मन व्यस्त रहने लगा। सबब इसके, वहां पर बैठ कर जो, इस ग्रंथका मुद्रणकार्य समाप्त कर देनेका संकल्प यहांसे करके निकले थे, वह पूरा नहीं हो पाया। ___ सन् १९२९ के डीसेंबरमें हम वापस भारत आये । उस समय, लाहोर काँग्रेसके प्रोग्रामके मुताबिक देशमें नये विचारोंकी क्रान्तिसूचक लहरें उठ रही थीं। एक तो स्वयं युरोपसे मस्तिष्कमें कुछ नये विचार भर कर लाये थे और दूसरा यहां पर भी उसी प्रकारका भिन्नकार्यसूचक प्रक्षुब्ध वातावरण घनीभूत हो रहा था । गूजरात विद्यापीठमें भी विद्याका वातावरण न होकर सत्याग्रही युद्धका ही वातावरण गूंज रहा था। इस लिये इस ग्रन्थके, उस अधूरे पडे हुए कार्यको तत्काल हाथमें लेनेकी कोई इच्छा नहीं होती थी। आखिरमें सत्याग्रह-संग्राम छिड ही गया और देशके सब ही सेवकोंकी तरह, हम भी यथाक्रम ६ मासके लिये नासिकके शान्तिदायक समाधिविधायक कारागरमें जा पहुंचे। सचमुच ही नासिकके सेंट्रल जेलखाने में जो चित्तकी शान्ति और समाधि अनुभूत की वह जीवनमें अपूर्व और अलभ्य वस्तु थी। वह जेलखाना, हमारे लिये तो एक परम शान्त और शुचि विद्या-विहार बन गया था। उसकी स्मृति जीवनमें सबसे बडी सम्पत्ति मालूम देती है । स्वनामधन्य सेठ जमनालालजी बजाज, कर्मवीर श्रीनरीमान, देशप्रेमी सेठ श्रीरणछोडभाई, साहित्यिकधुरीण श्रीकन्हैयालाल मुंशी आदि जैसे परम सज्जनोंका घनिष्ठ सम्बन्ध रहनेसे और सबके साथ कुछ न कुछ विद्या-विषयक चर्चा ही सदैव चलती रहनेसे, हमारे मनमें वे ही Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराने साहित्यिक संकल्प, वहां फिर सजीव होने लगे। सहवासी मित्रगण भी हमारी रुचि और शक्तिका परिचय प्राप्त कर, हमको उसी संकल्पित कार्यमें विशेष भावसे लगे रहनेकी सलाह देने लगे। मित्रवर श्रीमुंशीजी, जो गूजरातकी अस्मिताके सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि हैं और जो गूजरातके पुरातन गौरवको आबाल-गोपाल तक हृदयंगम करा देनेकी महती कला-विभूतिसे भूषित हैं, उनका तो दृढ आग्रह ही हुआ कि और सब तरंग छोड़ कर वही कार्य करने ही से हम अपना कर्तव्य पूरा कर सकते हैं। अन्यान्य घनिष्ठ मित्रोंका भी यही उपदेश हमें वहां बैठे बैठे वारंवार मिलने लगा और जेलखानेसे मुक्त होते ही हमें वही अपने पुराने बही-खाते टटोलनेकी आज्ञा मिलने लगी। संवत् १९८६ के विजयादशमीके दिन, मित्रवर श्रीमुंशीजीके साथ ही हमें जेलसे मुक्ति मिली। कर अहमदाबाद पहुंचे। यद्यपि जेलखानेके उक्त वातावरणने मनको इस कार्यकी तरफ बहुत कुछ उत्तेजित कर दिया था, तो भी देशकी परिस्थितिका चालू क्षोभ, रह रह कर मनको अस्थिर बनाता रहता था । अखिरमें श्रीमान् बाबू बहादुरसिंहजी सिंधीका, शान्तिनिकेतन आ कर जैन साहित्यके अध्ययन-अध्यापनकी व्यवस्था हाथमें लेनेका आग्रह पूर्ण आमंत्रण मिलनेसे, और हमारे सदैवके सहचारी परमबन्धु पण्डित प्रवर श्रीसुखलालजीकी भी तद्विषक वैसी ही आज्ञा होनेसे, हम शान्तिनिकेतन आ पहुंचे। यहां विश्वभारतीके ज्ञानमय वातावरणने हमारे मनको एकदम उसी ज्ञानोपासनामें फिर स्थिर कर दिया और हमारी जो वह चिर संकल्पित भावना थी, उसको यथेष्ट समुत्तेजितकर दिया। साथ ही में, उस संकल्पको कार्यमें परिणत होनेके लिये, जिस प्रकारकी मनःपूत साधन-सामग्रीकी अपेक्षा, हमारे मनमें गूढ भावसे रहा करती थी, उससे कहीं अधिक ही विशिष्ट सामग्री, सच्चरित्र, दानशील, विद्यानुरागी श्रीमान् बहादुरसिंहजी सिंघीके उत्साह, औदार्य, सौजन्य और सौहार्द द्वारा प्राप्त होती देख कर, हमने बडे आनन्दसे इस सिंघी जैन ज्ञानपीठके संचालनका भार उठाना स्वीकार किया। यद्यपि, प्रारंभमें हमने इस स्थानका, जैनवाङमयका अध्ययन-अध्यापन करानेकी दृष्टि से ही स्वीकार किया; लेकिन हमारे मनस्तलमें तो वही पुराना संकल्प दटा हुआ होनेसे, यहां पर स्थिर होते ही, वह संकल्प फिर सहसा मूर्तिमान होकर हमारे हृदयांगणमें नाचने लगा, और वही पुरानी ऐतिहासिक-सामग्री, जिसको हमने आज तक, मुँजीकी पुँजीकी तरह बडे यत्नसे संचित रख कर बन्दी बना रखी है, हमारे मानसचक्षुके आगे खडी हो कर, कटाक्षपूर्ण टकटकी लगा कर ताकने लगी । हमारा व्यसनी मन फिर इस कामके लिये पूर्ववत् ही लालायित और उत्सुक हो उठा। प्रसङ्ग पाकर हमने अपने ये सब विचार ज्ञानपीठके संस्थापक श्रीमान् बहादुरसिंह बाबूसे कह सुनाये; और 'ज्ञानपीठ' के साथ एक 'ग्रन्थमाला भी स्थापित कर जैन साहित्यके रत्नतुल्य विशिष्ट ग्रंथोंको, आदर्शरूपसे तैयार करकरवा, प्रसिद्धि में लानेका प्रयत्न होना चाहिए, इस वारेमें सहज भावसे प्रेरणा की गई। इन बातोंको सुनते ही सिंघीजीने, उसी क्षण, बडे औदार्यके साथ, अपनी सम्पूर्ण सम्मति हमें प्रदान की और ऐसी 'ग्रंथमाला' के प्रारंभ करनेका और उसके लिये यथोचित द्रव्यव्यय करनेका यथेष्ट उत्साह प्रकट किया। इसके परिणाममें, सिंघीजीके स्वर्गीय पिता साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघीकी पुण्यस्मृति निमित्त इस सिंघी जैन ग्रन्थमाला का प्रादुर्भाव हो कर, आज इसका यह प्रथम 'मणि'-केवल मणि' ही नहीं 'चिन्तामणि-पाठकोंके करकमलमें समर्पित हो रहा है। इस ग्रंथके पूर्व संस्कारणादिका परिचय. विदेशीय विद्वानोंमें, सबसे पहले इस ग्रन्थका परिचय, किन्लॉक फार्बस साहबको हुआ जिन्होंने गूजरातके इतिहासका रासमाला नामक सबसे पहला और अनेक बातोंमें अपूर्व ग्रन्थ लिखा । रासमाला के लिये ऐतिहासिक सामग्री इकट्ठी करनेका उपक्रम, जब फार्बस साहबने शुरू किया तब, प्रारम्भही में उन्हें वीरचन्द भण्डारी नामक एक शिक्षित जैन गृहस्थका अमूल्य सहकार मिल गया, जिसकी सहायतासे उन्हें गूजरातके पाटणके किसी जैनयतिजीके पास, प्रस्तुत ग्रन्थकी एक प्रति प्राप्त हो गई । रासमालाके पूर्वभागके प्रणयनमें प्रबन्धचिन्तामणिसे बहुत कुछ सहायता ली Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई है इतना ही नहीं लेकिन उसका सारा ही सारभूत ऐतिहासिक कलेवर प्रायः इसी ग्रन्थके आधार पर खड़ा किया गया है। ___ फार्बस साहबको जो पोथी पाटणसे मिली थी वह उन्होंने बम्बईकी ‘फार्बस साहित्य सभा'को भेट दे दी लेकिन पीछेसे वहांसे लुप्त हो गई। बम्बई सरकारने जब, अपना पुरातन साहित्यके अन्वेषण और संग्रह-करणका कार्य शुरू किया, तब डॉ० व्युल्हर और प्रो० पीटर्सनको इस ग्रन्थकी प्राप्ति करनेकी बडी उत्कंठा हुई । बहुत कुछ परिश्रम करनेके बाद, सन् १८७४ में भटनेरके जैनग्रन्थभण्डारमें; इस ग्रन्थकी १ प्रति डॉ० ब्युल्हरके देखनेमें आई, जिसकी तुरन्त नकल करवा कर उन्होंने लंडनकी इन्डिया ऑफिस लाईब्रेरीको भिजवा दी । सन् १८८५ में, प्रो० पीटर्सनको इसकी १ प्रति प्राप्त हुई जिसके बारेमें, उन्होंने, अपनी पुस्तकविषयक खोज वाली दूसरी रीपोर्ट (पृ० ८६-८७) में इस प्रकार, इस पर, उल्लेख किया है "इस प्रकार जल्दीमें किये गए इन उल्लेखोंके अंत में, कहना चाहिए कि-वर्षके आखिरी भागमें, मेरुतुङ्गरचित प्रबन्धचिन्तामणि ग्रंथकी १ प्रति प्राप्त करने में मैं सफल हुआ हूं। यह महत्त्वका ऐतिहासिक ग्रन्थ बडा उपयोगी है। अपने ग्रन्थसंग्रहमें इस ग्रन्थकी वृद्धि करनेका बहुत समयसे हमारा प्रयत्न रहा।" इत्यादि । ___ यह प्रति बम्बई सरकारके ग्रन्थसंग्रहमें-जो वर्तमानमें, पूनाके भांडारकर प्राच्यविद्यासंशोधन मंदिरमें, सुरक्षित है-अद्यापि विद्यमान हैं। ___ इसके सिवा, डॉ० व्युल्हरको एक और प्रति, ऊमाशंकर याज्ञिक नामके गूजरातके किसी शास्त्री द्वारा प्राप्त हुई, जिसकी भी नकल करवा कर, उन्होंने उक्त इन्डिया ऑफिस लाइब्रेरीमें भिजवा दी। ___ पीटर्सन साहब द्वारा प्राप्त हुई उक्त पूनावाली प्रतिको देखकर, गूजरातके पं० रामचन्द्र दीनानाथ शास्त्रीको, जो पीटर्सन साहबके निरीक्षणमें सहायक रूपसे काम करते थे, इस ग्रन्थको मुद्रित कर प्रकाशित करने की इच्छा हुई । प्रयत्न करनेसे उनको, उक्त प्रतिके सिवा, दो-तीन अन्य प्रतियां भी जैन उपाश्रयोंमेसे मिल गई थीं जिनका आनय ले कर उन्होंने आपना संस्करण, विक्रम संवत् १९४४ में, प्रकट किया । रामचन्द्र शास्त्रीने इस ग्रन्थका गूजराती भाषान्तर भी तैयार किया और उसको भी सं० १९४५ में छपवाकर प्रसिद्ध किया। ___ इतिहासकी दृष्टिसे इस ग्रंथका बडा महत्त्व होनेसे, इसका इंग्रेजी भाषामें अनुवाद करनेकी आवश्यकता डॉ. व्युल्हरको मालूम दी; इस लिये उन्होंने, संस्कृत ग्रंथोंके इंग्रेजीमें अनुवाद करनेवाले सिद्धहस्त विद्वान् प्रो० सी. एच्. टॉनी. एम्. ए. को, इसका अनुवाद करनेकी प्रेरणा की । तदनुसार टॉनी साहबने बडे उत्साहसे इस ग्रंथका सम्पूर्ण इंग्रेजी अनुवाद तैयार किया, और कलकत्ताकी एसियाटिक सोसायटी ऑव बंगालने उसे प्रकाशित किया। टॉनी साहबका मुख्य आधार, उक्त रामचन्द्र शास्त्रीद्वारा प्रकाशित आवृत्ति पर ही रहा, परंतु उन्होंने उपर्युक्त डॉ० ब्युल्हरवाली तथा प्रो० पीटर्सनवाली हस्तलिखित प्रतियोंका भी कुछ कुछ पुनरुपयोग किया और कहीं कहीं ठीक अर्थानुसन्धान प्राप्त करनेकी चेष्टा की। टॉनी साहबके मुकाबलेमें, रामचन्द्र शास्त्रीका गूजराती भाषान्तर सर्वथा निरुपयोगी और असम्बद्धप्राय मालूम देता है। प्रस्तुत आवृत्तिके सम्पादनमें प्रयुक्त सामग्री. जिन प्रतियोंका उपयोग हमने इस आवृत्तिमें किया है उनका संकेतपूर्वक परिचय इस प्रकार है। (१) A अहमदाबादके डेलाका उपाश्रय नामक प्रसिद्ध जैन उपाश्रयमें सुरक्षित जैन ग्रंथभण्डारकी संपूर्ण प्रति । [डिब्बा नं. ३०; प्रति नं. ३४ ] इसको हमने A अक्षरसे संकेतित किया है । इस प्रतिके ५३ पत्र हैं जो दोनों तरफ लिखे हुए हैं। प्रतिके अन्तमें इस प्रकार संक्षिप्त पुष्पिका लेख है-"सं० १५०९ वर्षे फागुणसुदि ९ वार रवौ प्रबन्ध.3 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठता लषीः ॥ छ । उनमो विना [य] काय ॥” लिपिकार कोई अजैन पठता नामक मालूम देता है। लिपि जैननागरी है और अक्षर सुवाच्य तथा सुन्दर है । पाठ भी प्रायः शुद्ध है। (२) B अहमदाबादके उसी उपाश्रयकी दूसरी अपूर्ण प्रति । [डिब्बा नं. ५१, प्रति नं. ३५] इसका निर्देश हमने B अक्षरसे किया है। यह प्रति थोडी सी अपूर्ण है । इसके कुल ७१ पत्र हैं । अन्तके दो-एक पत्र नष्ट हो गये हैं, जिससे प्रस्तुत आवृत्तिके पृष्ठ १२१ की ५ वीं पंक्तिके पश्चात्से लेकर अन्ततकका ग्रंथभाग इसमें अनुपलब्ध है। इस प्रतिका यह अन्तभाग प्रायः तीन सौ वर्ष पहले ही नष्ट हो गया मालूम देता है । क्यों कि इसके विद्यमान अन्तके पन्न (७१) की अन्तिम पंक्तिके नीचे यह पद्य लिखा हुआ है संविमेनान्तिषदा तपगणपतिविजयसेनसूरीणाम् । श्रीरामविजयकृतिना चित्कोशे प्रतिरियं मुक्ता ॥ ___ इस पद्यका अर्थ यह है कि-तपागण (तपागच्छ ) पति आचार्य विजयसेनसूरिके संविग्न शिष्य श्रीरामविजयने यह प्रति ज्ञानकोश (ग्रन्थभण्डार) में रक्खी । तपागच्छीय पट्टावलियोंके अनुसार विजयसेनसूरिका स्वर्गवास विक्रम संवत् १६७१ में हुआ, अतः उनके शिष्य रामविजय प्रायः उसी समयमें विद्यमान होने चाहिये यह स्वतः सिद्ध है। अन्तिम पत्र अनुपलब्ध होनेसे इस प्रतिके लिखे जानेके समयके बारेमें कोई निश्चित विचार नहीं किया जा सकता; तो भी प्रतिकी स्थिति देखते हुए मालूम होता है कि यह प्रति भी करीब ५०० वर्ष जितनी पुरानी जरूर होगी। इस प्रतिका पाठ यद्यपि अशुद्धिबहुल है; तो भी कहीं कहीं इसका लेख बहुत शुद्ध और उपयुक्त मिल जाता है । इस प्रतिका किसीने पीछेसे कहीं कहीं संशोधन भी किया है और कई जगह पत्रोंके पार्श्वभागमें कुछ श्लोकादि भी लिख दिये हैं। (३) P पाटणके सागरगच्छके उपाश्रयमें संरक्षित ग्रन्थभण्डारकी संपूर्ण प्रति । पत्र संख्या ८४ । प्रथम पत्र और अन्तिम पत्रका एक-एक पार्श्व बिल्कुल कोरा । इस प्रतिका नामनिर्देश हमने P अक्षरसे किया है। अन्तमें लेखकादिका सूचन करनेवाला कोई उल्लेख नहीं है । पत्रादिकी अवस्था देखते हुए कमसेकम ३-४ सौ वर्षकी पुरानी तो यह होगी ही। लेकिन, जिस आदर्श परसे यह प्रति नकल की गई है वह आदर्श बहुत पुरातन मालूम देता है । सम्भवतः ताडपत्रमय हो । क्यों कि इस प्रतिमें बहुतसी जगह विनष्टीभूत शब्दांश या पंक्त्यंश सूचित करनेके लिये इस प्रकारकी अक्षरशून्य रेखायें रख दी गई हैं जिनका तात्पर्य यह है कि जिस आदर्श परसे यह नकल की गई है उसमें ये शब्द जीर्ण-शीर्णादिके कारण नष्ट-भ्रष्ट होगये होने चाहिए । इस प्रतिके पाठभेदादिके संबंधमें आगे पर लिखा गया है। (४) Po पूना, भांडारकर प्राच्यविद्यासंशोधन मंदिरमें सुरक्षित, राजकीय ग्रंथसंग्रह-जो पहले डेक्कन कॉलेजमें रक्षित होनेसे, डेक्कनकॉलेज-संग्रह कहलाता था-की वह प्रति जिसका जिक्र ऊपर पीटर्सन साहबके उल्लेखके साथ हुआ है । इसका संग्रह नंबर ६१७, सन् १८८५-८६ है । पत्र संख्या ८१ । इसके अन्तमें कोई लेखकादिका नाम नहीं है । प्रति बहुत पुरातन नहीं मालूम देती । अनुमानतः २००-२५० वर्ष जितनी पुरातन होगी । इसका सूचन हमने Po अक्षरसे किया है। (५) D शास्त्री रामचन्द्र दीनानाथने सं० १९४४ में, बम्बईसे इस ग्रंथका जो संस्करण प्रकट किया उसको हमने D संज्ञासे निर्दिष्ट किया है। ___Da. Db. De. Dd. रामचन्द्र शास्त्रीने अपने संस्करणमें मुख्यतया ऊपर नं. ४ में उल्लिखित पूनावाली प्रतिका ही उपयोग किया है। लेकिन कुछ और भी त्रुटित और खंडित ऐसी दो-तीन प्रतियां उनको मिलीं थीं जिन परसे उन्होंने कुछ पाठभेद संग्रह करनेका अव्यवस्थित उद्योग किया था और इन प्रतियोंकी उन्होंने A. B. C. D आदि संज्ञायें Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला] [प्रवन्धचिन्तामणि C आवर्जितमम्बासर्वदायाचामानिनिम्यारमधीनदातकृतथानाशिवझविजविनयचर्मरवाणापलबन्योनायाचवकराकीनाथा वामितकलावंतंगधंसनपप्लिनविष्यविविधानूरखाबाहायधीमताधीमानाक्षाबंधाचंतनीयवरमाकरारुसमदायोपबंध वितामविहिबायाधमादकपघामाचारधाशेधसादाद्यामिहयधनध्यापणापबंधातामळियानारतामानिरामबधमादावदाशन वानामगावधानारायणनिचितामिनावधानाहालक्षदासनसनांपmanaमदतानामिबहाशेवमासधायाथामामांसवंयवाद। हसिबलावासावरायाध्ययमुसंबदायानहाएमवीरवारविद्ययावाव्याद्यसमलनियागारकरावावमीवाशादायवातावासबागलावकमा किया माधावाटससवमयसम्पराज्ञापबामहापाखिलमावतवायाकिवितदादणाणाक्षभिवातादावामुघनशनमामानागारसममाहासका नावालकमलासिकमविक्रमादियानमाविकममामजयवासालामनराडादाशिवायनायसवानिरवायायरधालसमाना कदावि माधवसहायारावासावनसिबमा सधनदासाबमवरनामसिनमारकमावस्यामायावधम्यश्नावसमायसनरमावास्यनिर्वयाविनापाहावय। जामध्यमध्याम्पमा परापावणाप्रवलनार्टकस्ताननमस्टज्यादा वामत्यताश्यमूळातनवायायाधावामनमानामाविमनस्मा सूममानवरायविकामासाहयकारवधमझमखानकएकरयान महादायरमरवमनाबनामषदाराधनविकमाविबायकावयास मागावाटकाबरटेकशालादानवमाधवमाचारवशवयाबानमवाचानिनाम्याललाटकरवामनावत्या दिवानकावधारामा निकालाकातनवनियार्थयाविटामिायामावाददायमानमयादा लक्ष्यल्पवनधारामातामहमावशदादाबायकमगामदयालहरकाका नाaamanानाशालाममाजाऊशाममुकवायूपतामहालासमा विश्वयनारमावस्यकामलकराजमायचाखमाकर। Naugराह गरिटानदारिबाबणाराहादावहादिवामिकाकरवानाकिनायिकदीय सकलानाकापकनावयतनमानार्दन पारमानवातवारसा जमण्यवानिमाकपतमानमवाधवनकुशवाहातमसममराजमादारसमायावासावाधावादारावल इतराधिमाविवनिमकादाशितया निदाधायदण्यराब्यसाधबनकायसरखापायाकासघातदिनाभाककमयसबसमध्यानाविवादवादिगाओं कारातापातानकावासदनमयामक्षितविचानाविध्यानमानाब्धानिमाबादाबमामायालायाममसिहायनिवासकावमयत खगरायशवनारपतमायोनिमनायलकानाळपटकमाझदिनानिायाब्धमायायाधुरामा सत्यक्षमाणाitaliनागवायादि शिवजीकमारायावदानातावादानियसमायवातायनहाररावधर्ममयम्वदनायवमाकानातयातरूयामकवकरालावतानमालाकिरयानाम RamaAILI A mon- २मयमाएका मानप्रबबजनज कनभरिशदानेनारगनकाररुमसुरजश्यबाजार काजजन्यकरम मापुरHRASnian कामपसमा मारणामबापने वालमारसबागप्रहलालमार कायम SHLENTRAक्षणाचनमःसवेज्ञायामानानिनियामरामधीलवानवतावासारानाथाहारसूक्तियजनस्वON वाईमा कपासपल सल्यानीयम्पकावकरकिरकमयामिलेकलावंत गुरुवषयमानावहयावावधान स्वावाबाधक्षयीमतश्रामचंगसाबधाधतानानासारनाकामहरुसंबदायासबंबदितामा आ बिहिबीमारियाधम्मीदवनातावादात विद्यमाहामिदव्यवसाधयाणवंगाणबधानतामा मात्र नियघतानामवानरामापूधमादावलतवान्नायची नवानकधाराणामबाणविलासितांना नोटानबीमन्नापबंधवितामणियबम हतानामिनावबंधास्वशियावामानासर्वच्छवश्ययाकन दिसिन्नतावानयोधतम्वाप्पमुदाया। हाइनवञ्चविचारविधयात्विाध्याय समजाने या परवानावनासायीदायिनितिन दादीनानविकमार्कोवामानामृतमवनवलपारा जिन्नधासंक्षिष्या विविधूलमपितकानि विनदाादानधादियौनदाशसुषनिष्ठानामि निभा निमारविसमसाहासकनिधिदिव्यलक्षणलक्षित कमविक्रमादियारणसंशमा विक्रमनामाराजपुत्रयो सादामनराजन्प्रदाशिवायसुतपस्वातिरपायरधनियलसमाणकदाचिन्हमात्रमित्रसहाया राहणाचलपतिपताम्वतिवनदासान्नमवरनानिषवरनगारऊलालस्पातायाचिम्पपलालसमायुमार सहमानवनियाविमापावानखनामधामध्यमस्पघातापुण्यश्रावणाप्नवैलिलाटकरतालनमाया यालेनमित्कदारयनधातियातितिसातगातायावास्यास्नानिलसातमितिममतम्मासम्यगवगम्या NiudsmarTEST H पानामा श्रीसर्वनायाशीना निर्जिन पाखपरामधीलवानहानी मात्रस्यावरिधिमयबजस्वी शाणामुपलकल्यानाया। स्थान्कय करायायामितकलाचि संघरचंदचपलामायफानविनयविधिश्नमुखाबादमयीमती।श्रीमसगनभय बंधयक्षत नात्यछविमरनाकरा मरूपसदा यामापक्वचितामणिमुदिधी-माधीघाघरालाक्षक्षिततिहानेश्चमाहाय्यमिव्यधनश्राप maगाणाधबधचिंतामणिमिमयाधानारतमिबासिरामा पघमावेनिनिर्मिनियामायाप्तवान्नकशापुराणा प्राणानाचा मिनघावक्षनालिस्त वामन्नसतानवधचिंतामणि धमहननामिाहवाबंक्षावधियाध्यमानानवेत्यवत्रा यदिनि नत्ता । वा यामतवायत्रमसंप्रदायाहारनवर्वाचनविधिया। अंत्योयाद्यासमजनियरिंगारकपशवनामाविशयी दायधन्दा । तनिरिदोहीतालविक्रमाकीपाजामामृत सेवनवन्न म्यराज्ञःप्रबंधासविण्याचेविपलमपितघमिकिंचिन्नदादी। मानवादिअवतिदारावतिष्टाननगारसमसाहासेकनिधिदिव्यलक्षागपालचिताऋतविक्रमादितिमीरगसप्त मसकनकलाकलापनिलयानहरिबंधुर्विक्रमनामा राजपवित्रताधिनजगत्रयासमजानापुनराजन्मदा ध्यापनाताप्पनातिविस्तासन्परावातिरप्यपायिरवनिपालनमानःकदाचितहमानमहायारावरणाचलपतिप्रताल तत्रहामानवबरनामनिवरनगारअलालम्पालायविश्रम्पपनातसमायतहमानगवानयाचिताप्रावातत्ररखनामध्यमध्या सपातःपुण्यावागावललाटकरतालनसम्ट नपादादिवमित्यदास्यवधात पातिातसतिगीतायघापाप्यारन्नानिलरते महतास मिमत्तम्मासम्पविक्राम राताइन्धकारयितुमक्षमतमस्त्रासुपेकररमानिसदादायास्त्र वमनाईदनिामाध्यपदाराशतवि A. B. P. प्रतिके आदि पत्र.. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला ] [प्रवन्धचिन्तामणि म विकार तितदनवियागाराममाकलथी/टHIGHalkaमतिपतिबाचितवानायाकन्यायाइसरालाकाकासगसमतवालयाला नाष्ठति काहतसादालनादश्वागतम्तमानयजानिमायामःसामावलायमामवाशिणामवितवयताधिनयामतानमालाता निबारकायातिनकापतिशाकारादकन्यामिश्विङववागायनारायशयाधिशयालिवनमाईलापतिाबानामधाबामनियदान यादायवातमापसंवदानाका घसंचारमादिशक्षितायलामबलवतिमावगमतगडाराटाचव्यवबालकावादकणपाणिव हदानकका सम्पकालवारासमंधाप्तादादरयाकिंयमाणलवणावता गायकनक्किादाविरतिळानकारपोदायमानधवनमालामा विधावत्रमश्विनकीकन्यादानन्याहतापांपाछाममहादिवास्याहादिमश्चतिर हिंसाध्याडियादातदातारामलनयनाथ चमचासदबाडिएक्विरितनवांगावदामादानावाटोनीयावटिण्डधाकानकपदीपात्यनामाताविनावियानयरलवाताधकम्ता स्वादकायातहतलाकशामाकाशततादाायागनासपकानातवालामाकारदल0ileयतकालिदास निवालानालाहटाकमावटिकायादानाननमहातत्यसिनामंगलवण्यदायनीकृतारिखंगला हामझातलकजाणा दतादवाकरामावस्या कन्यानवयंडानराश नकालामवतम्यामवधकारयातामायाप्यभावामान विदारानकारयामासानतामादिसास्वतधन्यादिमायायासनतिमिमालावलीकासवनिम्वदनायविसमाव विगताविपदमादनिनवावरुणाचानुपलक्मिातिनादि का सुंदरिमारिशमननयानतातभाताव्याकिदानवधरानावनम। तार्किकमाता काताहमावार्यनरावणवान्दावादगन्मांधतायकमाणालातराणातनादाखवाहितिवन जिनसैवरथाक्रमावालदस्यमयपतिदास्यक्तियलिमिाना निगवयिविरत विक्षनांविश्वपथनपरतव्यावमाकाविवरखवरकरि बादायस्तविवपकानपकतातधीरानवतामाबाशाखसमायरायांचाकाअधादियादिव्यामाथिाकमारपालतिडावननिमहा। नदसुखमन्वयवबुवावधणियावतकातवियामविदांतारमछाकायदावालीकालयकायावादनतस्पधियासावमधमादने। लतान्यनुस्मताकलिमलिनङनपशिलवान वयानमामनवावातिचाकमारामावियाहियायमबाघ धमा प्रतवनका णामारीकापनबारशिपवतानबाणवणाझााउनामावताकायामाइक रेट। का ३०३५ सा पत्र नवगणयकतपादालपक्कतलकवाककलावित्पन्नवटवानिपतंश्चमणाषिजन/ स्तोमायनिकिामवादितपनियातायावहतानीमावदयननधाउधमज्ञतविनानिम्नचिरमिपञहस्सायदानववधाक्षिक दालादाकननानिनिधना नान्यज्यतत्पदालयागमनूगामानयानडवितदनुवादादकौसिदिमासाद्यश्रीपानाधपुरतः मामालारसासमन्ताणलदायापलाक्षतःनिवतावनितामधमानभकाटिवधानवतानिनन्सुस्वादाकविय स्यालेसमदविजयदनाादीपिकालावदिनापानाममाघसुखात्मदानिशायिनवायाचनाधबिंबग्नमयभिमयि यक्वाकारवयाँप्रामादिन्य-संहारवनीदाहादनंतरसम्म रणजावितायोगस्याडरितत्रसमाइतमिबिबिताछ वविद्यमानकांतात्यसायाचिकास्पधनपतिना/सायानया नदेिवतातिशयावसवलितहाजिनबिंबममातिदिी व्यवावानिमायनाविकांसवपक्षियामसायरामती खुनि सदानितमहत्यनिजायापरिवितानातलानान् क्षयंशतपासादन्यवानतिमतियावर्षनागा नवामध्यसमिहायथ्यहन्यासडादिन्याहाटविन्यास नयमलारससाधनायथावातवाहनामकपमावालवालिकानाधानानशमिहतरामालिसा भारयतिसम15वंशयान्वयवायात्यानसातबबुब्धासानागासुनवाचतादायधानामनाहांधनासा मिलायाकाशिवधरसस्पयधावाहनातनिावदयन्तस्याश्ववचनागावगतान मायामासानिधकदाक्वियानिजागनायाराममननातानावादातानबुधराज्यरित्यधनागानिसम नमानीकितावनतस्यरसस्थानकयायधावायायमनागाननालाक्तातचनामदाननपगितामा निमायनिजासयानदसलवणारमवताकवताधष्मासायनातायाताम्मन्कारामितिरसवतीपयतिसहिड साहित्यनकोतिहास घसरल शास्वरचनात्यरिकामालावरणास्याटवीनत्पावदिकायामानानलमुदाशननच मा स्मगलरातमगलान्यदाकाहानिलकैक्षप्रमाणरुदलीकरामाचनकन्यामुखममानराशादनासकालामतम्यापबधका रयिवानत्यिवाय ग्यानावामानामाविहानाकारयामामलिनामा हिसामपत्याहिं माया पारान्नलिलिमा विनमालाक्य नहीपरानावदनायपिउआसमापमुपागनाचिरदग्निादत्तिनविरुप्पाबाउपलक्षिततानत्यत्तिबाधाका इरिमारियस्मिननयातिलानक्षताजियाकिदानवपराताद नमऊत्ताकि कध्यताकघ्यवादमाचायागरापराध युगवान्तकहरतोदरान्मासुत्नायिकुमाश्यालपतिकादराणातलादानघता तिनरिणातरनन रावत न्यादितिसतश्रीऊमारपालादरम्पसत्यप्रतिक्षस्या पितस्यलिगिाना गिराबयिरत्नाविरक्ततावित सातापरतवत्पा माझा विवरप्रवराकरियातायाएकातपशकुमाताधारान्तदाऽतिप्रतिदावममार पापयाचाकानयात्राऊमारपाल हिमादिदायमुपास्समा नाकममानमहानदेजावन्नपित्तवनवडदेवावर पणियावतमाखनासामासानचालीकमलं कुर्वनितस्मिन्साझहिमास्वप्रियस्थप्रामादललितानिमन्ताकलिमलि नजनपरि निहाशातनत्र मिनायनसहमगमनेननवता तेत्तदानपात्रपामृतपानवनासत्ता 10 A. B.P. प्रतिके अंतिम पत्र, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खीं थीं। इन प्रतियोंके पाठोंको भी हमने कहीं कहीं संगृहीत किया है और उनका क्रमानुसार Da. Db. Do. Dd. इत्यादि अक्षरोंसे निर्देश किया है। (६) Pa पाटणके संघके भण्डारकी [डिब्बा नं. ५०, प्रति नं. ८ ] एक प्रति जिसमें सिर्फ प्रबन्धचिन्तामणिगत 'मुंजभोजप्रबंध लिखा हुआ है । वास्तवमें यह प्रति है तो राजशेखरसूरिरचित 'प्रबन्धकोष' की, लेकिन इसके अन्तमें प्रबन्धचिन्तामणिका उक्त प्रबन्ध भी लिखा हुआ है। इस प्रतिकी कुल पत्र संख्या १०५ हैं जिसमें १ से ९१ पत्र तक प्रबन्धकोष लिखा हुआ है और शेषके पत्रोंमें उक्त प्रबन्ध है। यह प्रति विक्रम संवत् १४५८ में लिखी गई थी। इसके अन्तका पुष्पिका लेख इस प्रकार है "इति श्रीमेरुतुङ्गाचार्यविरचिते प्रबन्धचिन्तामणौ श्रीभोजराजश्रीभीमभूपयो नावदातवर्णनो नाम द्वितीयः प्रकाशः ॥ छ । ग्रं० ४६४ ॥ श्रीः ॥ छ ॥ संवत् १४५८ वर्षे प्रथम भाद्रपदशुदि ११ एकादश्यां तिथौ बुधवारे श्रीसागरतिलकसूरिणा स्खशिष्यपठनार्थ श्रीअणहिलपुरपत्तने प्रबन्धानि राजशेखरसूरिविरचितानि आलिलिखे ॥" ___ यह प्रति प्रायः सुद्ध और बहुत सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई है । इसका उपयोग हमने मुंज और भोजप्रबन्धवाले भागमें किया और इसे Pa अक्षरसे सूचित किया है। (७) Pb पूनाके उक्त राजकीय संग्रहमें, नं. ४५०, सन् १८८२-८३, की एक प्रति है जिसमें सिर्फ इस ग्रंथका द्वितीय प्रकाश-भोज-भीमभूपवर्णन नामका-लिखा हुआ है । इसके प्रान्तमें लेखक आदिका कुछ निर्देश नहीं है। अनुमान ३०० वर्ष जितनी पुरातन होगी । इसके कुल पत्र १९ हैं जिनमें १२ वां पत्र अप्राप्त है । इसका पाठ साधारण है लेकिन प्रबन्धान्तर्गत वर्णनोंका क्रम-विपर्यय और न्यूनाधिक्य बहुत अधिक पाया जाता है। इसका सूचन हमने Pb के संकेतसे किया है।। (८) इस ग्रन्थके आदिके दो प्रकाशवाली १ प्रति, पाटणके तपागच्छके भण्डारमेंसे मिली [डिब्बा नं. ५७, प्रति. नं. ५७] जिसके कुल १६ पत्र हैं। यह प्रति सं० १५२० की लिखी हुई है । इसका अन्तिम पुष्पिका लेख इस प्रकार है "संवत् १५२० वर्षे श्रावणशुदि १३ दिने तपागच्छनायक श्रीलक्ष्मीसागरसूरिशिष्य पं० ज्ञानहर्षगणिपादानां सा० सोनाकेन भा० रूडी प्रमुख कुटुंबयुतेन श्रीसिद्धांतभक्त्या लिखापितं ॥ छ ॥ श्रीसंघस्य कल्याणमस्तु ॥ छ ॥ श्रीः॥" इस प्रतिका पाठ प्रायः A आदर्शके समान है इस लिये इसको हमने कोई खास संज्ञा नहीं दी और सम्पादनमें कोई विशेष सहायता भी इससे नहीं ली गई। (९) पाटणके ऊपरवाले ही भण्डारमेंसे, पत्र संख्या १७ की एक प्रति | डिब्बा नं.६६, प्रति नं. ११२] जिसमें, उपर्युक्त Pa आदर्शकी समान, सिर्फ मुंज-भोजप्रबन्धका हिस्सा लिखा हुआ है । इसका पाठ भी ऊपरवाले नं. ८ में सूचित आदर्शके समान ही पाया गया; इस लिये इसका भी कोई नामनिर्देश करना आवश्यक नहीं समझा । (१०) प्रो. सी. एच्. टॉनीने जो इस ग्रंथका इंग्रेजी भाषांतर किया है उसमें उन्होंने, मूल ग्रंथके पाठका संशोधन करनेका भी कुछ प्रयत्न किया है। और शास्त्री रामचन्द्रकी मुद्रित आवृत्तिके साथ, पूनावाली प्रतिका तथा लंडनकी इन्डिया ऑफिसकी डॉ० ब्युल्हरवाली प्रतियोंका भी उपयोग कर कुछ पाठभेद, अपनी पुस्तककी पाद-टिप्पनीयोंमें उद्धृत किये हैं। लेकिन वे सब पाठभेद् प्रायः हमारे इन संगृहीत आदर्शोंमें आ जाते हैं इस लिये हमने उनका पृथक् संकेतके साथ कोई निर्देश करना उपयुक्त नहीं समझा। प्राप्त आदशौँका वर्गीकरण. ___ इस प्रकार हमारे पास जो यह आदर्श-सामग्री उपस्थित हुई उसका परीक्षण करने पर हमें इसके ४ वर्ग मालूम दिये । १ ला वर्ग, A. आदर्शका है जिसकी समानता प्रायः Po, D, Da और D आदर्शोंमें पाई जाती है। Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ रा वर्ग, B आदर्शका है जिसकी समानता Db और D आदर्शोके साथ है । ३ रा वर्ग, Pa और Pb का; और ४ था वर्ग, P का है। - इन वीमेंसे पहले और दूसरे वर्गमें तो परस्पर विशेष करके कुछ शब्दों और प्रतिशब्दोंका ही पाठभेद है और कुछ थोडेसे पद्योंकी न्यूनाधिकता मिलती है । ३ रा वर्ग, भोजप्रबन्धवाले प्रकरणों में कुछ विशेष रूपसे भेद प्रदर्शित करता है । इसमें भी Pa आदर्शकी अपेक्षा Pb आदर्श अधिक भिन्न है। इसमें कई प्रकरण, अन्यान्य आदर्शोंकी अपेक्षा आगे-पीछे लिखे हुए मिलते हैं इतना ही नहीं परंतु वे न्यूनाधिकरूपमें भी मिलते हैं । P सञ्ज्ञक आदर्शकी विशेषता. ४ था वर्ग जो P आदर्शका है वह एक विषयमें सबसे भिन्नता और विशिष्टता रखता है । इस आदर्शमें सिद्धराज, कुमारपाल, वस्तुपाल-तेजपाल और अन्यान्य व्यक्तियोंके प्रशंसात्मक जो पद्यसमूह-सोमेश्वरदेव रचित कीर्तिकौमुदी नामक काव्यमेंसे-तत्तत्स्थलों पर, उद्धृत किया गया है वह अन्य किसी भी आदर्शमें उपलब्ध नहीं है। इन पद्योंकी संख्या कोई सब मिला कर १२० है । इतनी बडी पद्यसंख्याका इसमें प्राप्त होना; और, दूसरे सब आदों में उसका सर्वथा अभाव मिलना; एक बहुत बड़ी समस्या उपस्थित करता है। क्या ये पद्य स्वयं ग्रंथकारने, छे, उद्धृत किये हैं या किसी अन्य लेखक द्वारा ये प्रक्षिप्त हैं ?। ग्रंथकार स्वयं यत्र तत्र ऐसे बहुतसे पद्योंका अवतरण करने में खूब अभ्यस्त हैं, यह तो, उनके इस ग्रंथका अवलोकन मात्र करने ही से, निर्विवादरूपसे, मान लेना पडता है । सोमेश्वरदेवकी कीर्तिकौमुदीमेंसे भी इसी प्रकार उद्धृत किये हुए दो-एक अन्य पद्योंका अवतरण, (देखो पृ० ४८, और ६३) और और आदर्शों में भी दिखाई देनेके कारण, ग्रंथकारके सन्मुख कीर्तिकौमुदी काव्य भी रखा हुआ होगा, इस बातको मान लेनेमें भी कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती । तो क्या ये सब पद्य भी उन्होंने ही अवतारित किये हैं। अगर उन्हों ही ने किये हैं तो फिर, केवल इस आदर्शको छोड कर, और और आदर्शों में भी ये क्यों नहीं मिलते ?। कोई विशेष साधन जब तक प्राप्त नहीं हो सकता, तब तक इस प्रश्नका निश्चित उत्तर देना अशक्य है । तो भी एक अनुमान जो हमें हो रहा है उसे पाठकोंके जाननेके लिये यहां निर्दिष्ट कर देते हैं। जैसा कि हम ऊपर, इस P प्रतिका परिचय देते हुए लिख आये हैं, कि यह प्रति, जिस आदर्श परसे उतारी गई है वह आदर्श बहुत पुराना होना चाहिए । अतः आदर्शके प्राचीन होने में तो हमें विश्वसनीय आधार प्राप्त होता है। इस प्राचीनत्वसे हमारा अभिप्राय स्वयं ग्रंथकारके समसामयिकत्वसे है। यदि यह प्रति, जैसा कि हम अनुमान करते है, ३-४ सौ वर्ष जितनी पुरानी है; तो, इसका मूल आदर्श, जो उस समय जीर्ण दशामें विद्यमान होना चाहिए, कमसे कम वह भी ३-४ सौ वर्ष जितना पुरातन होना चाहिए । यदि यह बात ठीक हो तो उस प्राचीन आदर्शका समय उतना ही पुरातन हो जायगा जितना ग्रंथकार मेरुतुङ्गाचार्यका है। मेरुतुङ्गाचार्यको प्रबन्धचिन्तामणिकी रचना समाप्त किये आज ६२८-२९ वर्ष हुए। हमारे अनुमानके मुताबिक उक्त प्राचीन आदर्शको भी इतने वर्ष तो सहज हो सकते हैं । इससे हम यह अनुमान करनेके लिये अनुप्रेरित होते हैं कि, इस आदर्शका जो मूल आदर्श होगा वह खयं मेरुतुङ्गाचार्यका, वह आदर्श होगा, जिसे या तो उन्होंने सबसे पहले तैयार किया हो; या सबसे पीछे तैयार किया हो । सबसे पहले तैयार करनेका तात्पर्य यह, कि पहले पहल ग्रंथकारने, जब ग्रंथकी रचना की, तब उन्होंने प्रसंगप्राप्त कीर्तिकौमुदीके ये सब पद्य, ग्रन्थगत वर्णनमें बहुत उपयुक्त समझकर, विपुलताके साथ उद्धृत कर लिये लेकिन पीछेसे ग्रंथका पुनः संशोधन करते समय, इतने पद्योंका, एक साथ एक ही ग्रंथमेंसे उद्धरण न जंचा हो इस लिये उन्हें छोड कर, उस संशोधित आवृत्तिकी, और और नकलें करवाई गई हों और उन्हींका सर्वत्र प्रचार किया गया हो । वह मूल प्रथमादर्श कहीं भण्डारमें ज्यों का त्यों पड़ा रहा हो, जिसके नाशकालमें, इस विद्यमान P. आदर्शके लेखकने उसका पुनरवतार कर, इस रूपमें, उसे चिरजीवी बना दिया हो । दूसरा विकल्प जो Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ यह कि-या सबसे पीछे इस आदर्शकी सृष्टि हुई हो; तो उसका कारण यह हो सकता है कि पहला आदर्श जो ठीक तैयार हुआ उसकी अनेक नकलें तैयार हो कर सर्वत्र प्रचारमें आगई हों; और फिर पीछेसे बहुत कुछ समय के बाद, ग्रंथकारने ग्रंथके कलेवरको विशेष पुष्ट बनानेके लिये, ये सब पद्य अपनी कोईएक प्रतिमें प्रविष्ट कर उसका एक नवीन और परिवर्द्धित संस्करण बनाना चाहा हो; लेकिन उसका कोई विशेष प्रचार न होकर वह ज्यों कि त्यों भण्डारहीमें पडी रही हो और उपर्युक्त अनुमानानुसार, P आदर्शके लेखकने उसका यह पुनरवतार कर लिया हो । इन दोनों विकल्पोंमेंसे कौन विकल्प विशेष बलवान् हो सकता है इसके लिये भी हमें कुछ कल्पना हुई है, लेकिन उसका यहां पर विवेचन करना ज्यादह गौरवरूप हो जायगा, इस लिये आगेके भाग में यथाप्रसङ्ग उसका भी दिग्दर्शन करा दिया जायगा । इससे एक यह खास बात भी सूचित होती है, कि दोनों विकल्पोंमेंसे यदि कोईएक विकल्प भी ठीक हो सकता है, तो उस परसे, इस P आदर्शका मूलादर्श स्वयं ग्रंथकारका एक आदर्श था, यह प्रमाणित हो सकता है । इस P आदर्शकी नकल उतारने वालेने, पुरातन आदर्शकी लिपिको ठीक ठीक नहीं समझने के कारण, अक्षरांतर करने में बहुत भूलें कीं हैं जिससे इसका पाठ बहुत कुछ अशुद्ध बन गया है; तो भी जहां अन्य आदर्शों में भ्रष्ट पाठ मिलता है या अयथोपयुक्त शब्द दिखाई देते हैं, वहां इस प्रतिमें बहुत शुद्ध पाठ और समुचित शब्द उपलब्ध हो हैं । यह बात भी इस आदर्श के विशिष्ट संशोधित होनेकी सूचना देती है । पाठभेदोंके संग्रह करनेकी पद्धति. पाठभेदोंके संग्रह करनेकी हमारी पद्धति यह है, कि व्याकरण या भाषाकी दृष्टिसे जो शब्द शुद्ध मालूम देते हैं उन्हीं शब्दों का हम संग्रह करते हैं । सर्वथा अशुद्ध शब्दोंका या व्याकरणकी दृष्टिसे अपरूप पाठका, जैसा कि पश्चिमीय विद्वान् करते रहते हैं, हम संग्रह नहीं करते | अर्थानुसन्धानसे असंगत मालूम देने पर भी यदि व्याकरण की दृष्टि से शब्दप्रयोग शुद्ध मालूम देता है तो उसे हम पाठभेदके रूपमें संगृहीत कर लेते हैं। हां, जहां कहीं पाठमें बहुत कुछ गडबडी मालूम दे और अर्थसंगति ठीक न लगे, वहां हम, ऐसे सर्वथा अशुद्ध शब्दोंको और भ्रष्टरूपोंको भी पूर्णरूप से संग्रहीत कर लेते हैं । देश्य विशेषनामोंके शुद्ध अशुद्ध सब ही रूपोंका संग्रह करना आवश्यक समझते हैं । हमारे इस संस्करणमें मुख्य आधारभूत A, B और P आदर्शके आदि और अन्तके पत्रोंका हाफटोन चित्र बनाकर इस पुस्तकके साथ लगाये जाते हैं, जिससे पाठकगण, इन पुरातन आदशोंकी अक्षाराकृति - आदिका दर्शन भी प्रत्यक्षतया कर सकेंगे । इस ग्रंथकी सम्पूर्ण संकलना कैसी होगी; और कौन कौन भागमें क्या क्या विषय रहेंगे; इसके लिये एक पृथकू पृष्ठपर पूरा विवरण दे दिया गया है जिसके अवलोकनसे पाठकोंको आगेके भागोंका किंचित् विषय-परिचय हो सकेगा । अन्तमें, अहमदाबाद के डेलाके भण्डारके तथा पाटणके भण्डारोंके संरक्षोंका, जिनके द्वारा हमको यह सामग्री प्राप्त हो सकी है, कृतज्ञतापूर्ण उपकार मान कर, इस 'किंचित् प्रास्ताविक' को पूर्ण करते हैं । वि० सं० १९८८, सांवत्सरिक पर्व. विश्वभारती. शान्तिनिकेतन । } जिन विजय Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासम्पादकप्रशस्तिः॥ खस्ति श्रीमेदपाटाख्यो देशो भारतविश्रुतः । रूपाहेलीति सन्नानी पुरिका तत्र सुस्थिता ॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीननृपतेः समः । श्रीमच्चतुरसिंहोत्र राठोडान्वयभूमिपः ॥ तत्र श्रीवृद्धिसिंहोऽभूत् राजपुत्रः प्रसिद्धिमान् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाग्रणीः ॥ मुज-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन्महाकुले । किं वर्ण्यते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः ॥ पत्नी राजकुमारीति तस्याभूदु गुणसंहिता । चातुर्य-रूप-लावण्य-सुवाक्सौजन्यभूषिता ॥ क्षत्रियाणीप्रभापूर्णां शौर्यदीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्ट्वैव जनो मेने राजन्यकुलजा त्वियम् ॥ सूनुः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरतिप्रियः । रणमल्ल इति ह्यनद् यन्नाम जननीकृतम् ।। श्रीदेवीहंसनामात्र राजपूज्यो यतीश्वरः । ज्योतिर्भेषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः ॥ अष्टोत्तरशताब्दानामायुर्यस्य महामतेः । सचासीद् वृद्धिसिंहस्य प्रीतिश्रद्धास्पदं परम् ॥ तेनाथाप्रतिमप्रेम्णा स तत्सूनुः खसन्निधौ । रक्षितः, शिक्षितः सम्यक् कृतो जैनमतानुगः ॥ दौर्भाग्यात्तच्छिशोर्खाल्ये गुरु-तातौ दिवंगतौ । मुग्धीभूय ततस्तेन त्यक्तं सर्व गृहादिकम् ॥ तथा चपरिभ्रम्याथ देशेषु संसेव्य च बहून् नरान् । दीक्षितो मुण्डितो भूत्वा कृत्वाऽऽचारान् सुदुष्करान् ॥ ज्ञातान्यनेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्थवृत्तिना येन तत्त्वातत्त्वगवेषिणा ॥ अधीता विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः । अनेका लिपयोऽप्येवं प्रत्न-नूतनकालिकाः ॥ येन प्रकाशिता नैका ग्रन्था विद्वत्प्रशंसिताः । लिखिता बहवो लेखा ऐतिह्यतथ्यगुम्फिताः ॥ यो बहुभिः सुविद्वद्भिस्तन्मण्डलैश्च सत्कृतः । जातः स्वान्यसमाजेषु माननीयो मनीषिणाम् ॥ यस्य तां विश्रुतिं ज्ञात्वा श्रीमद्गान्धीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात्स्वयमन्यदा॥ पुरे चाहम्मदाबादे राष्ट्रीयशिक्षणालयः । विद्यापीठमिति ख्यातः प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ॥ आचार्यत्वेन तत्रोचैर्नियुक्तो यो महात्मना । विद्वजनकृतश्लाघे पुरातत्त्वाख्यमन्दिरे ॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूष्य तत्पदं ततः । गत्वा जर्मनराष्ट्रे यस्तत्संस्कृतिमधीतवान् ॥ तत आगत्य सँलग्नो राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्प्राप्तः येन खराज्यपर्वणि ॥ क्रमात्तस्माद् विनिर्मुक्तः प्राप्तः शान्तिनिकेतने । विश्ववन्धकवीन्द्रश्रीरवीन्द्रनाथभूषिते ॥ सिंघीपदयुतं जैनज्ञानपीठं यदाश्रितम् । स्थापितं तत्र सिंघीश्रीडालचन्दस्य सूनुना ॥ श्रीबहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यर्थं निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च यस्तस्य पदेऽधिष्ठातृसज्ज्ञके । अध्यापयन् वरान् शिष्यान् शोधयन् जैनवाङ्मयम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा ग्रन्थमाला प्रकाश्यते ॥ विद्वजनकृताहादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमेरुतुङ्गाचार्यविरचितः ॥ प्रबन्धचिन्तामणिः ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमेरुतुङ्गाचार्यविरचितः प्रबन्धचिन्तामणिः। ॥ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥ श्रीनाभिभूर्जिनः पातु परमेष्ठी भवान्तकृत् । श्रीभारत्योश्चतुर्दारमुचितं यचतुर्मुखी ॥१ नृणामुपलतुल्यानां यस्य द्रावकरः करः। ध्यायामि तं कलावन्तं गुरुं चन्द्रप्रभं प्रभुम् ॥२ गुम्फान्विधूय विविधान्सुखबोधाय धीमताम् । श्रीमेरुतुङ्गस्तद्गद्यबन्धाद् ग्रन्थं तनोत्यमुम् ॥३ रत्नाकरात्सद्गुरुसम्प्रदायात्प्रबन्धचिन्तामणिमुद्दिधीर्षोः। श्रीधर्मदेवः शतधोदितेतिवृत्तैश्च साहाय्यमिव व्यधत्त ॥ ४ श्रीगुणचन्द्रगणेशः प्रबन्धचिन्तामणिं नवं ग्रन्थम् । भारतमिवाभिरामं प्रथमादर्शेऽत्र दर्शितवान् ॥५ भृशं श्रुतत्वान्न कथाः पुराणाः प्रीणन्ति चेतांसि तथा बुधानाम् । वृत्तैस्तदासन्नसतां प्रबन्धचिन्तामणिग्रन्थमहं तनोमि ॥६ बुधैः प्रबन्धाः "खधियोच्यमाना भवन्त्यवश्यं" यदि भिन्नभावाः। __10 ग्रन्थे तथाप्यत्र सुसम्प्रदायाद् दृब्धे न चर्चा चतुरैर्विधेया ॥७ [१. अथ विक्रमार्कप्रबन्धाः ।] १. अन्त्योऽप्याद्यः समजनि गुणैरेक एवावनीशः शौर्यौदार्यप्रभृतिभिरिहोर्वीतले विक्रमार्कः। श्रोतुः श्रोत्रामृतसवनवत्तस्य राज्ञः प्रबन्धं संक्षिप्योचैर्विपुलमपि तं वच्मि किञ्चित्तदादौ ॥१ १) तथाहि-अवन्तिदेशे सुप्रतिष्ठाननामनि नगरेऽसमसाहसैकनिधिर्दिव्यलक्षणलक्षितो 15 "कर्मविक्रमादिगुणैः सम्पूर्णो विक्रमनामा राजपुत्र आसीत् । स पुनराजन्मदारियोपद्रुतोऽप्यतिनीतिपरःसन् "पर शतैरप्युपायैराननुपलभमानः कदाचिद्भट्टमात्रमित्रसहायों रोहणाचलं प्रति प्रतस्थे । तत्र तदासन्ने प्रवरनामनि नगरे कुलालस्यालये विश्रम्य प्रभातसमये स भट्टमात्रेण खनित्रं याचितः । प्राह-'अत्र खनीमध्यमध्यास्य प्रातः पुण्यश्रावणापूर्व" ललाटं 1 AP श्रीसर्व०, D॥ ॐ नमः श्रियै ॥ श्रीस्वामिने नमः। 2 BTb मारत्या० । 3 DP गुरुं चन्द्रः। 4 B प्रभप्रभु। 5 BDa-b ग्रन्थान् । 6 Da देवैः। 7 ADP प्रथमोपरोधवृ०। 8 A वृत्तौ च; D वृत्तेश्च। 9 A नास्ति 'नवं'। 10 BP ऽत्र निर्मितवान् ; D प्रदर्शित; Db विनिर्मित। 11 AD सुधियो। 12 B भवत्ववश्यं । 13 B दायहन्धे; Da दायारब्धे; Db दायदृष्टे। 14 Db उजयिनीपूर्या। 15 D 'कर्म' नास्ति । BDb क्रमविक्रमादि। 16 Db आदर्श 'सकलकलाकलापनिलयो भर्तृहरिबन्धुः' एतद्विशेषणद्वयं पृष्ठपार्श्वभागे लिखितमधिकमुपलभ्यते। 17 AB दुतः परः शतैः। 18 Boनुपलम्भमाणः, Db oर्थानलभ। 19 Da-bभहमात्रसहायो। 20 BDa-b प्रवरनगरे। 21 B पुण्यश्रवणापूर्व; D पुण्यश्रवणपूर्व; Db पुण्यश्रवणात्पूर्व । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [प्रथमः करतलेन' संस्पृश्य, हा दैवमित्युदीरयन् घाते पातिते सति दुर्गतो यथाप्रास्या रत्नानि लभते'। स वृत्तान्तममुं तस्मात्सम्यगवगम्य विक्रमेण तदैन्यं कारयितुमक्षमस्तान्युपकरणानि सहादाय रत्नखननाथ खनीमध्ये प्रहारोद्यतं विक्रममभिदधे-'यत् कश्चिदवन्त्याः समागतो वैदेशिकः 'स्वगृहकुशलोदन्तं पृष्टो भवन्मातुः पञ्चत्वमाचख्यौ' । तत्तप्तवज्रशूचीनिभं वचो निशम्य ललाटं 5 करतलेनाहत्य, हा दैवमित्युचरन् खनित्रं करतलाचिक्षेप । तेन खनित्राग्रेण विदारितायां भुवि देदीप्यमानं सपादलक्षमूल्यं रत्नं प्रादुरासीत् । 'भद्दमात्रस्तदादाय विक्रमेण सह प्रत्यावृत्तः । तच्छोकशङ्कुशङ्कापनोदाय खनीवृत्तान्तज्ञापनपूर्व तत्कालमेव मातुः कुशलमुक्तवान् । विक्रमः सहजा लोलुभतां विमृश्य भट्टमात्रस्य क्रुधा तत्कराद्रनमाच्छिद्य पुनः खनी कण्ठे प्राप्तः । २. धिग् रोहणं गिरिं दीनदारिद्यव्रणरोहणम्" । दत्चे हा दैवमित्युक्ते रत्नान्यर्थिजनाय यः ॥२ 10 इत्युदीर्य सकललोकप्रत्यक्षं तत्रैव तद्रनमुत्सृज्य पुनर्देशान्तरं "परिभ्राम्यन्नवन्तिपरिसरे प्राप्तः । पटुपटहध्वनिमाकर्ण्य "वृत्तान्तमवबुध्य च तं छुसवान् । तेन समं स राजमन्दिरे समायातः। तस्मिन्नेवापृष्टे मुहूर्ते अहोरात्रप्रमिते राज्ये सचिवैरभिषिक्तो दीर्घदर्शितयेति दध्यौ-यदस्य राज्यस्य" प्रबलः कोऽप्यसुरः" सुरो वा क्रुद्धः सन् प्रतिदिनमेकैकं नृपं संहरति। नृपाभावे च" देशविनाशं करोति। अतो भक्त्या शक्त्या वा तदनुनयः समुचित इति-नानाविधानि भक्ष्यभो. 15 ज्यानि निर्माप्य, प्रदोषसमये चन्द्रशालायां सर्वमपि सज्जीकृत्य, निशारात्रिकावसरानन्तर मङ्गरक्षैर्नृपस्तत्र भारशृङ्खलायां निहितपल्यङ्के निजपढ्दुकूलाच्छादितमुच्छीर्षकं नियोज्य स्वयं प्रदीपच्छायामाश्रितः कृपाणपाणिधैर्यनिर्जितर्जगत्रयो दिगवलोकनपरो यावदास्ते; तावन्महानिशीथसमये वातायनद्वारेण प्रथमं धूमम् , ततो ज्वालाम्, ततः साक्षात्प्रेतप्रतिरूपमिव करालं वेतालमालोकितवान् । स च बुभुक्षाक्षामकुक्षिस्तानि भोज्यानि यदृच्छयोपभुंज्य, गन्धद्रव्यैश्च 20 स्वशरीरं विलिप्य, ताम्बूलास्वादनेन परितुष्टस्तत्र पल्यङ्के समुपविश्य श्रीविक्रमं प्राह-रे मनुज ! अहमग्निवेतालनामा देवराजप्रतीहारतया प्रतीतः प्रतिदिनमेकैकं नृपं निहन्मि । किं तु तवानया भक्त्या प्रीणितेन मयाऽभयदानपूर्व तव राज्यं प्रदत्तम् । परमेतावद्भक्ष्यभोज्यानि मम सदैवोपढौकनीयानि ।' इत्थमुभाभ्यामपि प्रतिपन्ने कियत्यपि गते काले श्रीविक्रमेण राज्ञा निजमायुः पृष्टः-'नाहं वेद्मि, किं तु खस्वामिनं विज्ञप्य भवन्तं ज्ञापयिष्यामि' इत्युक्त्वा 25 गतः । पुनरन्यस्यां निशि समेतः-'महेन्द्रेण त्वं सम्पूर्णवर्षशतायुरादिष्ट' इति तं जगौ । स 1A करतालेन। 2 A पतिते। 3 Da समादाय; Db आदाय। 4 Da तात कश्चित् ; Db देवः कश्चित् ; B ततः कः। 5 AD स्वगृहे। 6 Db आदर्श एतस्माद्वाक्यादने 'भाग्येन किं न घटते यतः (6) यद्यपि कृतसुकृतशतः प्रयाति गिरिकन्दरान्तरेषु नरः। करकलितदीपकलिका तथापि लक्ष्मीस्तमनुसरति ॥ एतावानधिकः पाठः । 7 B स भट्ट० । 8 B शोकशंकापनोदाय; Da-b शोकापनोदाय । 9 AB ज्ञापना० । 10 Daविक्रमस्तदानीं। 11 Da व्रणरोपणं । 12 B.भ्रमनः। 13 D परिसरं; B.देशपरिसरे। 14 A B तं वृत्ता। 15 Db राज्ये; B राजा। 16 B सार्थबलः । 17 B कोपि ऽसुरः सुरो वा; P कोपि सुरो असुरो वा। 18 D'च' नास्ति । 19 A 'शक्त्या' नास्ति; B शक्त्याशक्त्या वा; Da-b यथाशक्त्या भक्त्या वा। 20 P भक्ष्यखाद्यानि। 21 P विधाप्य; De निर्माय। 22 D तस्तत्र । 23 AP निहितः। पल्यं०। 24 A मुत्सीर्षकं। 25 AD माश्रित्य । 26 B निर्जितजयविजयो। 27 करालवेतालं। 28 A Qज्य । 29 B .स्वादेन। 30 B मनुष्य; P सतुष्टा। 31 P देवराजेन। 32 P विहितः। 33 BP हन्मि । 34 BP 'किंतु' नास्ति । 35 BP ऽत्यन्तभक्त्या। 36 Da-b •एतद् । 37 BP भोज्यादि। 38 BP नीयम् । 39 P 'अपि नास्ति । 40 D विज्ञाप्य । 41 D विज्ञाप०; Da विज्ञप० । 42 D 'वं नास्ति । 43 P विनानान्यत्र 'संपूर्ण' नास्ति । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रकाशः] — विक्रमार्कप्रबन्धाः। राज्ञा' मित्रधर्ममधिकमधिरोप्य' इत्युपरुद्धः-'यन्महेन्द्रपार्थादेकेन हायनेन' हीनमधिकं वा वर्षशतं कारयेति'। स तदङ्गीकृत्य भूयोऽभ्युपेतः 'सन्निति वाचमुवाच-'महेन्द्रेणापि न" नवनवैतिर्नैकोत्तरं वर्षशतं भवति' । इति" निर्णये ज्ञाते, यावत्परस्मिन् दिने तद्योग्यं भक्ष्यभोज्यादिपाकं निषिद्धय, नृपः संग्रामसजो भूत्वा निशि तस्थौ । तावत्तत्रैव रीत्या समुपागतः सन्" तद्भोज्यादिकमवीक्ष्य क्रुद्धो राजानमधिचिक्षेप । तयोश्चिरं "द्वन्द्वयुद्धे जायमाने सुकृत-5 सहायेन राज्ञा तं "पृथ्वीतले पातयित्वा, हृदि चरणमारोप्य-'इष्टं दैवतं स्मरेत्यादिष्टः स नृपं जगौ-तवाद्भुतसाहसेनाहं परिर्तुष्टोऽस्मि; यत्कृत्यादेशकारी अग्निवेतालनामाहं तव सिद्धः। एवं निष्कण्टकं तस्य राज्यमजनि । इत्थं तेन परीक्रमाक्रान्तदिग्वलयेनै षण्णवति प्रतिपतिमण्डलानि स्वभोगमानिन्ये ।। ३. वन्यो" हस्ती स्फटिकघटिते भित्तिभागे स्वविम्बं दृष्ट्वा दूरात्प्रतिगज इति त्वद्विपां मन्दिरेषु । 10 __हत्वा कोपाद्गलितरदनस्तं पुनर्वीक्ष्यमाणो मन्दं मन्दं स्पृशति करिणीशङ्कया साहसाङ्कः ॥ ३ *कालिदासाचैर्महाकविभिरित्थं संस्तूयमानश्चिरं प्राज्यं साम्राज्यं बुभुजे। साम्पतमवसरायातां श्रीकालिदासमहाकवेरुत्पत्तिं संक्षेपतो" ब्रूमः।* २) अवन्त्यां पुरि श्रीविक्रमादित्यराज्ञः सुता प्रियङ्गुमञ्जरी । साऽध्ययनाय वररुचिनाम्नः पण्डितस्य समर्पिता"। सा प्राज्ञतया सर्वाणि शास्त्राणि तत्पार्श्वे कियद्भिर्वा सरैरधीत्य, यौवन-15 भरवर्तमाना" जनकं नित्यमाराधयन्ती, कदाचिद्वसन्तसमये वर्तमाने गवाक्षे सुखासनासीना, मध्यन्दिनप्रस्तावे ललाटन्तपे तपने पथि सश्चरन्तमुपाध्यायमालोक्य वातायनच्छायासु विश्रान्तं तमुवाच । परिपाकपेशलानि सहकारफलानि दर्शयन्ती तं तल्लोलुभमवबुध्य-'अमूनि फलानि शीतलान्युष्णानि वा तुभ्यं रोचन्ते'-इति तद्वचनचातुरीतत्त्वमनवबुध्य 'तान्युष्णान्येवाभिलषामी ति तेनोक्ते "तदुपढौकितवस्त्राञ्चले तिर्यक् तानि मुमोच। भूतलपाताद्रजोऽवगुण्ठि-20 1B राजा। 2P.धर्ममधिरोप्य । 3 AD .रुध्य; Da नास्ति । 4 Da आग्रहान्महेन्द्र०। 5A नास्ति । 6 AD 'अधिकं वा' नास्ति । 7 B नास्ति । 8A 'सन्' नास्ति । 9AD 'वाचम्' नास्ति। 10A नास्ति । 11 P नवतिः । 12 B शतं; Pपा (वा!) शतं। 13 Db भवतीति कथितमिति। 14 B भोज्यादिक; P भोज्यादिकं पाकं। 15 P निषेध्य। 16 D पूर्वरीत्या। 17 AD नास्ति; D स नृपं जगौ। 18 P 'तद्' नास्ति । 19AD नास्ति । 20 D.क्षेप च। 21 B.चिरद्वन्द्व०; P तयोर्द्वन्द्वः। 22 B पृथिवी०। 23 अत्र Db आदर्श-'आदिष्टः सन् अहो अस्य करिघटाविघटनकपंचाननस्य महत्साहसम् । यत्सत्त्वेन किं न जायते । यतः (२) सत्वैकतानवृत्तीनां प्रतिज्ञातार्थकारिणाम् । प्रभविष्णुर्न देवोऽपि किं पुनः प्राकृतो जनः॥ एवं विमृश्य' एतावानधिकः पाठः । 24 AD अमुनाद्भुतः। 25 AD 'अहं' नास्ति। 26 P तुष्टो। 27 BP 'अस्मि' नास्ति । 28 BP तेन राज्ञा । 29 B परिः। 30P दिक्चक्रेण; De .कान्तमण्डलेन । 31 B स्वभोगतां निन्यिरे। 32 P विज्ञो। 33 AD स्फुटिकः । 34 P चित्रभागे। 35 P हित्वा। 36 P वीक्षः। 37 ADP साहसाङ्क। * एष द्वितारकान्तर्गतः पाठः ADP आदर्शोषु नोपलभ्यते। 38 P कालिदासिभिः कविभिरिस्थं । 39P राज्यं । 40P कालिदासकवेः। 41 B संक्षेपात् । 42 B विक्रमादित्यसुता; P दित्यस्य सुता। 43 BP वेदगर्भनाम्नः। 44 Dd प्रदत्ता। 45 B तस्य। 46 B कियदवासरैः। 47 B यौवनभरे वर्तमाने; P यौवने भरे वर्तमाना। 48 P प्रवर्तः। 49 P सुखासीना। 50 ०च्छायाविश्रान्तं । 51 P तत्र लो। 52 ततः किञ्चिदुपढौ। 53 P भूतलपतितानि रजो० । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रथम प्रबन्धचिन्तामणिः। तानि करतलाभ्यामादाय, से मुखमारुतेनं तद्रजोऽपनयन्, राजकन्यया सोपहासमभिदधे'किमत्युष्णान्यमूनि वदनवातेन शिशिरीकुरुषे ?' इति तस्याः सोपहासवचसा सामर्षः स द्विजः प्राह-रे विदग्धमानिनि ! गुरुवितर्कपराया भवत्याः पशुपाल एव पतिरस्तु' इति तच्छापं श्रुत्वा तयोक्तं-'यस्तव त्रैविद्यस्याप्यधिकविद्यतया' परमगुरुस्तमेव विवाहयिष्यामि ।' सेति प्रतिज्ञात5वती। अथ श्रीविक्रमे तदुचितप्रवरवरचिन्तासमुद्रमग्ने स पण्डितः कदाचिदभिलषितवरनिवे दनोत्सुकीकृतराजशासनादरण्यानीमवगाहमानोऽतितृष्णातरलितः सर्वतः सर्वतोमुखीभावात् पशुपालमेकमालोक्य जलं याचितवान् । तेनापि 'जलाभावाहुग्धं पिबेत्युक्त्वा 'करचंडी" विधेही. त्यभिहिते सर्वेष्वभिधानेषु अभिधानमिदमश्रुतचरमाकये चिन्ताचान्तखान्तः स्वहस्तं तन्मस्तके दत्त्वा महिष्यास्तले निवेश्य च करचंडीसञ्ज्ञां करतलयुगलयोजनां कारयित्वा आकण्ठं 10 पयः पायितः। स तं मस्तकहस्तदानात् करचंडीविशेषशब्दज्ञापनाच गुरुपायं मन्यमानस्तस्याः समुचितपतिमवगम्य महिषीपरिहारात्तं निजं सौधमानीय षण्मासी यावत्तद्वपुःपरिकर्मणापूर्व" ॐ नमः शिवाय' इत्याशीर्वादाध्यापनं कारितः । षभिर्मासैस्तस्य तान्यक्षराणि कण्ठपीठस्थितान्यवगम्य, शुभे मुहूर्ते कृतशृङ्गारः स पण्डितेन नृपसभां नीतो नृपं प्रति सदभ्यस्तमाशी दिं सभाक्षोभवशाद् 'उशरट' इत्यक्षरैर्जगौ।तस्य विसंस्थूलवचसा विस्मितस्य नृपतेरसती" 15 तचातुरीमारोपयितुकामः स पण्डितः ४, "उमया सहितो रुद्रः शङ्करः शूलपाणिभृत् । रक्षतु त्वां महीपाल टकारबलगर्वितः ॥४ इति विदितेन" श्लोकेन तत्पाण्डित्यगम्भीरतां वचनविस्तरेण व्याख्यातवान् । तत्प्रत्ययप्रीतेन नृपतिना स महिषीपाला खां पुत्री परिणायितः। पण्डितोपदिष्टं सर्वथा मौनमेवालम्बमानो राजकन्यकयाँ तदैदग्ध्यजिज्ञासया नवलिखितपुस्तकस्य शोधनायोपरुद्धः। करतले पुस्तकं वि20 न्यस्य तदक्षराणि बिन्दुमात्रारहितानि नखच्छेदिन्या केवलान्येव कुर्वन् राजपुत्र्या मूर्योऽयमिति निीतः। ततःप्रभृति जामातृशुद्धिरिति सर्वतः प्रसिद्धिरभूत् । कदाचिच्च चित्रभित्तौ महिषीनिवहे दर्शिते सति प्रमोदात्वप्रतिष्ठां विस्मृत्य तदाह्वानोचितानि विकृतिवचनान्युचरन्महिषीपाल इति तयाँ निश्चिक्ये । स तां तदवज्ञामाकलय्य कालिका देवीं विद्वत्ताकृते आरराधैं । पुत्री वैधव्य भीतेन राज्ञा निशि च्छद्मना दासी प्रहित्य, तवाहं तुष्टास्मीत्यभिधाय, यावत्स उत्थाप्यते 25 तावद्विप्लवभीता कालिकैव देवी प्रत्यक्षीभूय तमनुजग्राह । तद्वृत्तान्तावबोधात्प्रमुदितया राजकन्यया तत्रागत्य 'अस्ति कश्चिद्वाग्विशेषः' इत्यभिहिते, स तदैव कालिदासनाम्ना प्रसिद्धः 1 D स्व। 2 P मारुतैस्त। 3 BP 'सोपहासम्' नास्ति। 4 P वदनमारुतैः। 5 P दुविदग्धः। 6 B 'इति तत्' नास्ति । 7 A त्रैविद्यस्याप्यधिकतया; D प्यधिको विद्यतया; P अधिकविद्यया । 8 B निमग्ने। 9 Db तृषा । 10 A सर्वतो मर्मुख्याभा०; D सर्वतो मूर्खाभा०। 11 D करवडीं। 12 Da अभिधानेष्विदं। 13 AD अश्रुतमाकर्ण्य । 14 AD 'च' नास्ति। 15 AD मस्तके। 16 D विना नास्त्यन्यत्र 'मन्यमानः'। 17 D कर्मपूर्व। 18 B विहाय नास्त्यन्यत्र । 19 B स्थूलेन वचसा। 20 A तस्य नृपतेः; P तस्य विस्मितस्य नृपतेः। 21 Db मनसि असतीं। 22 B विनान्यत्र न। 23 D पण्डितः प्राह। 24 B आदर्शेऽस्य श्लोकस्य केवलं प्रथमः पाद एव उपलभ्यते। P भादर्श उत्तरार्द्धमेतादृशम् -'रक्षंतु तव राजेन्द्र टणत्कारकरं यशः ।'; Da-b रक्ष तावत् तव० । 25 BP निवेदितेन । 26 AP हि । 27 A नास्ति। 28 A मौनमथावलम्ब०। 29 AP कन्यया । 30 Da अक्षरच्छेदिन्या; Dd लेखिन्या; Da नास्ति । 31 AD महिषी पाल एव। 32 AD कदाचिञ्चित्र। 33 AD नास्ति । 34 BP कालिकाः। 35 Da-b भाराधयितुमुपविष्टः । न भुंक्त । दिनाष्टकं जातं। 36 Da-b कालिका नाम्नी दासी। 37 B कालिकादासः । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 प्रकाश: विक्रमार्कप्रबन्धाः। कुमारसम्भवप्रभृतिमहाकाव्यत्रयषट्प्रबन्धान रचयामास।इति कालिदासोत्पत्तिप्रवन्धः* ॥१॥ ३) अन्यदा तन्नगरवास्तव्यो दान्ताभिधानश्रेष्ठी सभासंस्थितं विक्रमार्कमुपायनपाणिरुपागत्य प्रणामपूर्वकं विज्ञपयामास-'स्वामिन् ! मया शुभे मुहूर्ते प्रधानवर्द्ध किभिर्द्धवलगृहं कारितम् । तत्र महतोत्सवेन प्रवेशः कृतः । यावदहं तत्र निशीथे पल्यङ्कस्थितः सुप्तजाग्रदवस्थया तिष्ठामि, तावत् , पतामीत्याकस्मिकी गिरं निशम्य, भयभ्रान्तो मा पतेत्युदीरयंस्तदैव 5 पलायनमकार्षम् । तस्य धवलगृहस्य सम्बन्धे नैमित्तिकैः स्थपतिभिश्च यथावसरमर्हणादिभिः" सत्कारैर्वृथादण्डितः । इत्यर्थे देवः प्रमाणम्' । तमुदन्तं सम्यगवधार्य तदुक्तं तद्धवलगृहमूल्यं लक्षैत्रयं तस्मै प्रदाय सन्ध्यायां सर्वावसरानन्तरं तस्मिन्नात्मीयीकृते सौधे श्रीविक्रमः सुखं प्रसुप्तः । तामेव पतामीति गिरमाकासमसाहसिकतया सत्वरं पतेत्युदीरयन् समीपे" पतितं सुवर्णपुरुषं प्राप । इत्थं [ सुवर्ण] पुरुषसिद्धिः॥२॥ ४) अथान्यस्मिन्नवसरे" कश्चिदुर्विधः पुरुषः करकृतलोहमयकृशतरदरिद्रपुत्रको द्वाःस्थनिवेदितो नृपं प्राह-खामिन् ! भवता नाथेन प्रथितायामवन्त्यां सर्वाण्यपि वस्तूनि सत्वरमत्र विक्रयं यान्ति लभन्ते" चेति प्रसिद्धिं बुद्ध्वा चतुरशीतिसंख्येषु चतुःपथेष्वहोरात्रं विक्रयाय दरिद्रपुत्रको भ्रामितोऽपि केनापि न गृहीतः । प्रत्युताहं निर्भसितः। इति नगर्या यथावस्थितं कलई महाराज्ञे विज्ञप्य यथागतं व्रजामीत्यापृच्छन्नस्मि । तदैव तं महान्तं कलङ्कपत पुर्याः पर्या-15 लोच्य दीनारलक्षं तस्मै प्रदाय नृपस्तं दरिद्रलोहपुत्रकं कोशे निवेशयामास । तस्यामेव निशि" प्रथमयामे सुखप्रसुप्तस्यै राज्ञः समीपे गजाधिष्ठातृदैवतम् , द्वितीययामे हयाधिष्ठातृदैवतम् , तृतीययामे लक्ष्मीश्चाविर्भूय 'महाराज्ञी दारिद्र्यपुत्रके क्रीते नास्माकमिहावस्थातुमुचितमित्यापृच्छय, राज्ञा साहसभङ्गो माभूदित्यनुज्ञातानि तानि जग्मुः । चतुर्थयामे तु कश्चिदुदारपुरुषो दिव्यतेजोमयमूर्तिः प्रादुर्भूय 'अहं सत्त्वनामा भवन्तमापुच्छे' इत्युदिते करतलेन नृपः कृपाणि-20 कामादाय यावदात्मघाताय व्यवस्यति तावत्तेनैव करे गृहीत्वा तुष्टोऽस्मीत्यभिधाय स्खलितः। गजायधिष्ठातृणि त्रीणि दैवतानि प्रत्यावृत्य नृपं प्रोचुः-गमनसङ्केतव्याघातिना सत्त्वेन विप्रलब्धानां नृपं विहाय नास्माकं गमनमुचितमिति तान्यप्ययनं तस्थुः। [१] 'अर्थास्तावद् गुणास्तावद् तावत्कीर्तिः समुज्वला । यावत्खेलसि सत्त्व त्वं चित्तपत्तनमध्यमः(गः)॥ [२] 'राज्यं यातु स्त्रियो यान्तु यातु श्लोकोऽपि लोकतः। न ते गमनमाजीवमनुमन्यामहे वयम् ॥ 25 इति विक्रमादित्यसत्त्वप्रबन्धः॥३॥ 1 B कुमारसंभवमहाकाव्यत्रयप्रभृतीन पद०, P कुमारसंभवादि षद; De oमहाकाव्यप्रबन्धान् । * एतत्प्रकरणसमातिवाक्यं ADP भादर्शेषु नोपलभ्यते। 2De अथान्यदा। 3 B.प्रवरश्रेष्ठी। 4 P . पूर्व। 5A वार्द्धकि; B वर्द्धिकि। 6 B पल्यंके। 7 Db स्थितः पुरुषमेकमवलोक्य सुप्त। 8 B नास्ति । 9 D सम्बन्धि। 10 P नैमित्तिक । 11 D •सरमहीनादिभिः, Da .सरं महादानादिभिः सत्कारैश्च । 12 BP नास्ति। 13 AD सन्ध्यासर्वा०; P मध्याह्वसर्वाः। 14 A नात्मीयकृते; Boनात्मीकृते। 15 BP सुखः। 16 A 'समीपे' नास्ति । 17 ABD अथास्मिन्नव०। 18 AD दुर्विधपुरुषः, P दुर्विदग्धः पुरुषः। 19 Boतरु। 20 B 'सत्वरं नास्ति । 21 B लभते; D लभ्यन्ते; P लभ्यते। 22 B प्रसिद्धं । 23 P श्रुत्वा। 24 B .पृच्छमानोऽस्मि। 25 AD 'दरिद्र' नास्ति । 26 B संस्थापितवान् । 27 P निशायां। 28 BP प्रसुसराज्ञः। 29 D राज्या०। 30 B महाराजा। 31 B स्थान। 32 राज्ञः । 33 B साहसस्य । 34 BP नास्ति । 35 Dऽत्र; AP नास्ति । 36 D भवन्तमा भवं श्रितो गन्तुमापृच्छे । 37 A गजाधिष्ठाः। 38 ABP विप्रलुब्धाः । 39 A ०यनमस्तु । न केवलं P आदर्श एवेमौ द्वौ श्लोको लिखितौ लभ्येते। 1 BP आदशौं विहाय नास्त्यन्यत्र प्रकरणसमातिसूचकमिदं वाक्यम् । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प्रबन्धचिन्तामणिः | [ प्रथमः ५) अथान्यस्मिन्नवसरे सभास्थितं श्रीविक्रमं सामुद्रिकशास्त्रवेदी कश्चिद्वैदेशिको द्वाःस्थ - निवेदितः प्रविश्य नृपलक्षणानि निरीक्ष्यमाणः शिरोधूननपरो, 'नृपेण स विषादकारणं पृष्टः, ऊचे - 'देव ! त्वां सर्वापलक्षणनिधिमपि षण्णवतिदेशसाम्राज्यलक्ष्मीं भुञ्जानमवेक्ष्य सामुद्रिकशास्त्रे' निर्वेदपरोऽभवम् । तत्किमपि कर्बुरानं न पश्यामि यत्प्रभावेण त्वमपि राज्यं कुरुषे" । 5 इति तद्वाक्यानन्तरमेव ' कृपाणिकामाकृष्य' यावदूरे निधत्ते तावत्तेन 'किमेतदिति पृष्टः श्रीविक्रमः प्राह - 'उदरं विदार्य तव तद्विधमन्त्रं दर्शयिष्यामीति वदन्, 'द्वात्रिंशतोऽधिकमिदं " सत्त्वलक्षणं तव" नावगतमिति पारितोषिकदानपूर्वकं नृपस्तं विससर्ज । इति सत्त्वपरीक्षा प्रबन्धः ॥ ४ ॥ ६) अथ "कस्मिंश्चिदवसरे, परपुरप्रवेशविद्यय निराकृतः पराः " सर्वा अपि विफलाः कला 10 इति निशम्य तदधिगमाय श्रीपर्वते भैरवानन्दयोगिनः समीपे श्रीविक्रमस्तं चिरमारराध । तत्पूर्वसेवकेन केनापि द्विजातिना [ राज्ञोऽग्रे इति कथितम् - यत्त्वया ] 'मां विहाय परपुरप्रवेशविद्या गुरोर्नादेया । इत्युपरुद्धो नृपो विद्यादानोद्यतं गुरुं विज्ञेपयामास - [ [ यत्प्रथममस्मै द्विजाय विद्यां देहि पश्चान्मह्यम् । हे राजन् ] 'अयं विद्यायाः सर्वथाऽनह' इति गुरुणोदिते, भूयोभूयः, तव पश्चात्तापो भविष्यतीत्युपदिश्य, नृपोपरोधात्तेन विप्राय विद्या प्रदत्ता । ततः प्रत्यावृत्तौ 15 द्वावप्युज्जयिनीं प्राप्य पट्टहस्तिविपत्तिविषण्णं राजलोकमालोक्य परपुरप्रवेश विद्यानुभवनिमित्तं च राजा निजगजशरीरे आत्मानं न्यवेशयत् । तद्यथा ५. विप्रे" प्राहरिके नृपो निजगजस्याने विशद्विद्यया, विप्रो भूपवपुर्विवेश नृपतिः क्रीडाशुकोऽभूत्ततः । * गात्रनिवेशितात्मनि नृपे व्यामृश्य देव्या मृतिं", विप्रः कीरमजीवयन्, निजतनुं श्री विक्रमो लब्धवान् ॥५ इत्थं श्रीविक्रमार्कस्य परपुरप्रवेशविद्या सिद्धा" । इति विद्यासिद्धिप्रबन्धः ॥ ५ ॥ 1 P आदर्श 'कश्चिकवादिविको' इत्येवंरूपोऽपपाठः । एतादृशं वाक्यम् । 3 'देव वां' स्थाने D ' यवां' । नास्ति । 7 AD • मादाय । 8 BP नास्ति । 9 B • मन्त्रं च । 10 B • शतोदितमिदं । नोवगत० । + केवलं Da-b आदर्शयोः इदं वाक्यं लभ्यते । 12 B कस्मिन्नवसरे। 13 A 15 P विद्यया विनाकृताः । 16 B विहाय 'परा:' नास्ति । 17 B सेवकेनापि द्विजन्मना । Sनुपलभ्यः । 18 A. विज्ञापया० । 19 ADB भूपः प्राहरिके द्विजे । 20 B पल्लीं; P भृंगी। * अस्य पद्यस्य द्वितीय-तृतीययोः पादयोर्मध्ये P संज्ञके आदर्शों निम्नावतारितः कियानधिकः पाठः प्रक्षिप्तो दृश्यते-“शुकोक्तिः - ( ३ ) यमी किं ध्यायते ध्याने गुरवे क्रियते किमु । प्रतिपन्नं सतां कीटगादौ छात्राः पठन्ति किम् ॥ ॐ नमः सिद्धं । राज्ञी कथयति - (४) 'किं जीवियस्स चिह्न का भज्जा होइ मयणरायस्स । का पुष्काण पहाणा परिणीया किं कुणद्द बाला ॥ सासुरइजाइ । शुकोक्तिः - (५) 'निवरुद्द प्र (?) णाण मज्झे कामिणी हारो न होइ रे सुहय । तक्कहिओ वि न याणसि पंडिय गव्वं किमुव्वहसि ॥" 23 P एवं श्रीविक्रमपरपुरप्रवेशविद्यासिद्धिः । 24 Da आदर्श एवेदं समाप्तिवाक्यं दृश्यते । 2 एतद् वाक्यस्थाने B आदर्शे 'नृपेणोचे सविषादं कथं एवं पृष्टः ' 4B सामुद्रशा० । 5 A करोति; D करोषि । 6 AD 'एव' 11 A तवावगत; D तव परप्रवेश | 14 B विद्या० । एषः पाठः BP सम्झके आदर्श21 B मृतं । 22 B विप्रं । अत्र, विद्यासिद्धिप्रबन्धानन्तरं D पुस्तकस्थस्य परिशिष्टानुसारेण कस्मिंश्चिदादर्शे निम्नलिखितोवृत्तान्तोऽधिक उपलभ्यते । " एकदा नृपो गुरुवन्दनाय गतः । तत्र वृद्धं कमपि तपखिनं पठन्तं वन्दयामास । तेन नाशीर्निगदिता पठनव्यप्रेण । राज्ञोक्तं - वृद्ध ! पठन् मुशलं फुलावयिष्यसि ? । तदवगम्य तेन पठित्वा सूरिपदे प्राप्ते तस्यैव राज्ञः सदसि गत्वा मुशलमानाय्यालवालं विधाय श्रीऋषभदेवस्तवेन मुशलं पुष्पयित्वा गतः । तावता सिद्धसेनेनापि तदवगत्य वादाय पृष्ठे गतम् । परेण केतलारसग्रामं व्रजन् वृद्धवादी रुद्धः । वादं विधेहीति । तेनोक्तं- पुरे गम्यते, तत्र सभ्या भवन्ति । पुनः प्रतिवादिनोचे अत्रैव वादः । अभी गोपाः सभ्याः । तेऽप्याकारिताः । प्रथमं सिद्धसेनेनोपन्यासो विहितो गीर्वाणवाण्या । तदनु वृद्धवादिना गण्ठीयकं बद्ध्वा गोपकुण्डकं विधाय प्रोचे For Private Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमार्कप्रबन्धाः। प्रकाशः] ७) 'अथान्यस्मिन्नवसरे श्रीविक्रमो राजपाटिकायां व्रजस्तन्नगरनिवासिना श्रीसङ्घनानुगम्यमानं बन्दिवृन्दैः 'सर्वज्ञपुत्र' इति स्तूयमानं श्रीसिद्धसेनाचार्यमागच्छन्तमवलोक्य सर्वज्ञपुत्र इति वचसा कुपितस्तत्सर्वज्ञतापरीक्षार्थं तस्मै मानसं नमस्कारमकरोत् । सिद्धसेनोपि पूर्वगतश्रुतबलेन नृपभावमवगम्य दक्षिणं पाणिमुदस्य धर्मलाभाशिषं ददौ । नृपतिनाऽऽशी दहेतुं पृष्टः सन् महर्षिः-'तव मानसनमस्कारस्याशीर्वादः प्रदीयमानोस्ती'त्यभिहिते तज्ज्ञा- 5 नचमत्कृतेन राज्ञा तत्पारितोषिके सुवर्णकोटिळतीर्यत् । ८) अथान्यस्मिन्नवसरे राज्ञा" कोशाध्यक्षस्तस्य" दापितसुवर्णवृत्तान्तं पृष्टः प्राह-'यद्धर्मवहिकायां श्लोकबन्धेन मया सुवर्णदानं निहितम् ।' तथाहि ६. धर्मलाभ इति प्रोक्ते दूरादुच्छ्रितपाणये । सूरये सिद्धसेनाय ददौ कोटिं धराधिपः ॥ ६ ततः श्रीसिद्धसेनसूरीन् सभायामाकार्य तत्सुवर्ण गृह्यतामिति प्रोक्ते, वृथा भुक्तस्य" भोजन-10 मित्युच्चारपुरःसरमनेन सुवर्णदानेन" ऋणग्रस्तामवनीमऋणीकुरु इत्युपदिष्टे तत्सन्तोषपरितुष्टेन राज्ञा तदङ्गीकृतम् । (६) नवि मारीयए नवि चोरीयए, परदारागमण निवारीयए। थोवांवि हु थोवं दईयए, इम सग्गि टगमगु जाईयए ॥ एवं पठति गोपा नृत्यन्ति । तैरुक्तं-अनेन जितं; त्वं किमपि न वेसि । ततो वृद्धवादिना पुरे गत्वा वादं विधाय जितः शिष्यो बभूव । ततः सिद्धसेनदिवाकरेण गुरुचरणसंवाहनां विधायमानेन गुरव उक्ताः-यदि यूयमादेशं ददत तदाहमागमं संस्कृतेन करोमि । गुरुभिरुक्तं-तव महत्पापमजनि, त्वं गुरुगच्छयोग्यो न, गच्छेः । तेनोक्तं-प्रायश्चित्तं ददत । गुरुभिरुक्तं-यन्त्र जिनधर्मो न तत्र जिनप्रभावनां विधाय पुनः समागन्तव्यमित्यवधूतवेषेण चलितः। द्वादशवर्षाणि यावदन्यत्र परिभ्रम्य तदनन्तरं मालवके गूढमहाकालप्रासादे शिवाभिमुखं चरणौ कृत्वा चरणत्राणौ द्वारकाष्ठे नियोज्य सुप्तः। तत्र वारितोऽपि तथैव । अत्रान्तरे राज्ञाऽऽरक्षिकपुरुषान् प्रेषयित्वोपद्रुतः। तावतान्तःपुरे रव-प्रदीपनं लग्नम् । समागत्य पृष्टः-कथं शिवस्य नमस्कारं न विदधासि । तेनोक्तं-मम नमो असौ न सहते । विधेहि । तेन सकललोकसमक्षं (७) प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताभयप्रदम् । माङ्गल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥ इति द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशतिका कृता । तदा लिङ्गमध्यादवन्तिसुकुमालद्वात्रिंशत्पनीकारितप्रासादे श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकटीभूतं नमस्कृतं च । असौ सहते नमस्कारम् । तदा प्रभृति गूढमहाकालोऽजनि । राजा विक्रमार्कः परमजैनोऽभूत् । सिद्धसेनोऽपि स्वगुरुपाव समेत्य सूरिमन्त्रं प्राप्यैकदोजयिन्यामेव चातुर्मासकं स्थितः।" __1 AD अथास्मिन्नः। 2 B पाटिकाया। 3 AB मानः। 4 AD बन्दिपुत्रैः। 5 BP श्री सर्वः। 6 BP मालोक्य । * अत्रान्तरे D पुस्तके निम्नलिखितं पद्यमधिकमुपलभ्यते। (८)"आप्ते दर्शनमागते दशशती सम्भाषिते चायुतं यद्वाचा च हसेहमाशु भवता लक्षोऽस्य विश्राण्यताम् । निष्काणां परितोषके मम सदा कोटिर्मदाज्ञा परा कोशाधीश सदेति विक्रमनृपश्चके वदान्यस्थितिम् ॥" A आदर्श पृष्ठस्याधोभागे टिप्पणीरूपेणेदं पद्यं लिखितं विद्यते । 8 D पूर्वगतबलेन। 9 P दक्षिणपा०। 10 B अथास्मिन्न। 11 P नास्ति । 12 D तस्मै। 13 BP नराधिपः । 14 BP तृप्तस्य । 15 AD सुवर्णेन । * अत्रानन्तरे D पुस्तके निम्नावतारितानि पद्यानि विद्यन्ते । A आदर्श अमूनि पद्यानि पृष्ठपार्श्वभागेषु टिप्पणीरूपेण लिखितानि लभ्यन्ते। (९) “दिदृक्षुर्भिक्षुरायातस्तिष्ठति द्वारि वारितः । हस्तन्यस्तचतुःश्लोको यद्वागच्छतु गच्छतु ॥ (१०) दीयन्तां दश लक्षाणि शासनानि चतुर्दश । हस्तन्यस्तचतुःश्लोको यद्वागच्छतु गच्छतु ॥ (११) सर्वदा सर्वदोऽसीति मिथ्या संस्तूयसे बुधैः । नारयो लेभिरे पृष्टिं न वक्षः परयोषितः॥ (१२) सरस्वती स्थिता वक्त्रे लक्ष्मीः करसरोरुहे । कीर्तिः किं कुपिता राजन् येन देशान्तरं गता। (१३) अपूर्वेयं धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कुतः । मार्गणौधः समभ्येति गुणो याति दिगन्तरम् ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः । [ प्रथमः ९) तस्यामेव निशि नृपो वीरचर्यायां पुरि परिभ्रमन् भूयो भूयस्तैलिकमुखेन पठ्यमानमिदमश्रौषीत् । ७. अम्मी उ' सन्देसडउ नारय ' कन्ह कहिज । प्रभातशेषां रजनीमवधीकृत्य तदुत्तरार्द्धमशृण्वन्निर्विण्णो नृपः सौधं प्राप्य निद्रामकरोत् । प्रत्यू5 षकालेऽवसरकृत्यानन्तरं नृपेण तत्राहूतस्तैलिकस्तदुत्तरार्द्ध पृष्टः । दालद्दिहिंदुत्थियउ बलिबन्धणह मुइज || ७ इत्याकर्ण्य श्रीसिद्धसेनोपदेशं पुनरुक्तं निर्णीय पृथिवीमन्नृणां कर्त्तुमारेभे । * [ उज्जयिन्यां राजा विक्रमादित्यो भट्टमात्रेण समं महाकाले नाटकालोकनार्थं गुप्तवेषो गतः । कालान्तरितेन नागरिकसुतेन कार्यमाणे नाटके सूत्रधारमुखात् तद्वर्णनं श्रुत्वा राजापि नागरिकद्रव्यग्रहणाय मनसि 10 लोभं कृतवान् । पश्चात् कियत्कालमतिक्रम्य तृषितो मुख्यवेश्यागृहे भट्टमात्रपार्श्वात् पानीयं याचितवान् । तत्र वृद्धवेश्या प्रधानान् पुरुषान् भणित्वा तन्निमित्तमिक्षुरसमादातुमुपवने गता । सूलकैरिक्षुदण्डान् भित्त्वा तयार्द्धघटेsयसम्भृते दुर्मनस्का करकं भृत्वा वेलाविलम्बेनागता । राजा इक्षुरसे पीते भट्टमात्रेण वेलाविलम्बदौर्मनस्यकारणं पृष्टा जगाद - अन्यदिने एकेन निर्भिन्नेक्षुदण्डेन सकरको घटो श्रियते । अद्य घटोपि न सम्पूरितः । तत्कारणं न ज्ञायते । भट्टमात्रेण [ पुनः ] पृष्टं यूयमेवं परिणतमतयस्तत्कारणं जानीत । ततो विचार्य निवेदयन्तु । वेश्यापि 15 वदति - पृथ्वीपतेर्मनः प्रजासु विरुद्धं जातं ततः पृथ्वीरसोपि क्षीणो जातः । इति कारणं निवेदितवती । राजापि तबुद्धिकौशलाच्चमत्कृतः । स्वभुवनशयनीये सुप्त इति चिन्तितवान्-अकृतेऽपि प्रजापीडने विरुद्धचिन्तामात्रेणापि पृथ्वीरसहानिर्जाता । अतः प्रजां न पीडयिष्यामि इति कृतनिश्चयो नृप इति परीक्षणार्थं द्वितीयायां निशायां वृषामिषातगृहे गला शीघ्रमेव सहर्षया तयाऽऽनीतमिक्षुरसं पीत्वा शयनीये सुप्तवान् । वेश्यापि भट्टमात्रपृष्टा राज्ञः प्रजासु हृष्टं मनो निवेदितवती । राज्ञाऽपि आत्मनिशावृत्तान्तं निवेद्य पुनरपि तस्यै वृद्धवेश्यायै परिचित्तोप20 लक्षणतुष्टेनहारो दत्तः । इति नृपतिमनोऽनुसारी पृथ्वीरसप्रबन्धः ॥ * ] १०) 'अथ 'मत्सदृशः कोऽपि जैनो" नृपतिर्भावी ति पृष्ठे श्रीसिद्धसेनसूरिभिरभिदधे।८. पुन्ने वाससहस्से सम्मि वरिसाण नवनवइ अहिए । होही कुमरनरिन्दो तुह विकमराय सारिच्छो ॥ ८ ११) अथापरस्मिन्नवसरे जगत्यन्नृणीक्रियमाणे निजौदार्यगुणेनाहंकृतिं दधानः प्रातः कीर्त्ति - स्तम्भं कारयिष्यामीति चिन्तयंस्तस्मिन्नेव निशीथे वीरचर्यया" चतुष्पथान्तः परिभ्रमन् युद्ध्य25 मानवृषाभ्यां" त्रासितः कस्यापि दारिद्योपद्रुतद्विजन्मनो जीर्णवृषभकुटीस्तम्भमध्यारूढो याव (१४) आहते तव निःस्वाने स्फुटितं रिपुहृद्घटैः । गलिते तत्प्रियानेत्रे राजंश्चित्रमिदं महत् ॥ (१५) वक्त्राम्भोजे सरस्वत्यधिवसति सदा शोण एवाधरस्ते बाहुः काकुत्स्थवीर्यस्मृतिकरणपटुर्दक्षिणस्ते समुद्रः । वाहिन्यः पार्श्वमेताः क्षणमपि भवतो नैव मुञ्चन्त्यभीक्ष्णं स्वच्छेऽन्तर्मानसेऽस्मिन्कथमवनिपते तेऽम्बुपानाभिलाषः ॥ (१६) उरुयन्तरवाहलयी थणपब्वयरोमरायवणगहणे । सुरनरगणगन्धव्वा नग्गवीआ मयणचोरेण ॥ ९॥" 1 D 'परि' नास्ति । 2 B आमीणड; P अम्हीणउ; D अम्मणिओ । 3 A संदेसउ । 4D तारय; Ta नारयाणह । 5 B • मधिकृत्य । 6 D जग । 7 P दालिद्दई । 4D डुब्बिउं; A दुत्थिउं । 9 AD नास्ति 'इत्याकर्ण्य' । * केवलं Db आदर्शेऽयं प्रबन्ध अत्र दृश्यते, अन्यान्यादर्शानुसारेण तु अग्रे भोजराजप्रबन्धे एतद्वृत्तान्त उपलभ्यते । एषा द्विदण्डान्तर्गता पङ्किः B आदर्श नोपलब्धा । 10 P महाजैनो । 11 AD अथान्यस्मिन० । 12 B चिन्तयत् । 13 B ० चर्यायां । 14 B वृषभाभ्यां । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] विक्रमाकेप्रबन्धः । त्तिष्ठति तावत्तावेव वृषौ शृङ्गाग्रेण तं स्तम्भं भूयो भूयस्ताडयतः । अत्रान्तरे स विप्रोऽकमान्निद्राभङ्गमासाद्याकाशे शुक्रगुरुभ्यां निरुद्धं चन्द्रमण्डलमवलोक्य गृहिणीमुत्थाप्य चन्द्रमण्डलसूचितं तन्नृपतेः प्राणसङ्कटमवगम्य, 'होतव्यद्रव्याणि तदुपशान्तये होमार्थमुपढौकयिष्ये' इति सावधानं नृपे शृण्वति, स गृहिण्योचे-'अयं नृपः पृथिवीमणां कुर्वन्नपि मम कन्यासप्तकस्य विवाहाय द्रव्यमयच्छञ् शान्तिककर्मणां कथं व्यसनान्मोचयितुमुचित' इति तद्वचसा सर्वथा 5 परिहृतगर्वस्तत्सङ्कटाच्छुट्टितः कीर्तिस्तम्भवाता विस्मरन् राज्यं चिरं चकार । इति विक्रमार्कस्य निर्गर्वताप्रबन्धः ॥६॥ [*अथान्यस्यां निशि एका रजकी राज्ञा पृष्टा-वस्त्राणि विरूपाणि कथं ससैकतानि । तयोक्तम्[३] यासौ दक्षिणदक्षिणार्णववधू रेवाप्रतिस्पर्धिनी गोविन्दप्रियगोकुलाकुलतटी गोदावरी विश्रुता । तस्यां देव गतेऽपि मेघसमये स्वच्छं न जातं जलं खद्दण्डद्विरदेन्द्रदन्तमुशलप्रक्षोभितैः पांशुभिः॥ 10 [४] रजकवधूवचनमिदं श्रुत्वा नरनाथनायकः स ददौ । स्वाङ्गगपृष्ठकसहितं लक्षं भ्रूक्षेपमात्रेण ॥ [५] चौरमागधविप्रेभ्यो रजक्यै कविताश्रुतौ । चातुःप्रहरिकं दानं दत्तं विक्रमभूभुजा ॥] ॥ इति श्रीविक्रमस्यात्र विविधाः प्रबन्धा यथाश्रुतं ज्ञेयाः॥ १२) कदाचिदायुःप्रान्ते केनाप्यायुर्वेदविदा श्रीविक्रमस्य वपुरपाटवे वायसपिशिताहारेण रोगशान्तिर्भवतीत्युपदिष्टे नृपेण तस्मिन्पाके कार्यमाणे प्रकृतिव्यत्ययं विमृश्य नृप इति ज्ञापितः-15 'साम्प्रतं धौषधमेव बलवत् । प्रकृतेर्विकृतिरुत्पातः।जीवितलोलुपतया लोकोत्तरां सत्त्वप्रकृतिमपहाय काकमांसमभिलषन्सर्वथा न जीवसी'ति वैद्यनाभिहितः।तं पारितोषिकदानार्थ परमार्थबान्धवमिति श्लाघमानो गजतुरगकोशादिसर्वस्वमर्थिभ्यो वितीर्य राजलोकं नगरमापृच्छय विजने कापि धवलगृहप्रदेशे तत्कालोचितलानदानदेवतार्चनपूर्व दर्भस्रस्तराधिरूढो ब्रह्मद्वारेण प्राणोक्रान्तिं करिष्यामीति विमृशन्नकस्मादाविर्भूतमप्सरोगणं सं ददर्श । अञ्जलिं बद्ध्वा प्रणामपूर्वं 20 'का यूयमिति पृष्टे-'न वाग्विस्तरार्होऽयमवसरः, “परमापृच्छनायैव वयमुपागता इत्यभिधायाप्सरसोऽपसरन्त्यो नृपेण भूयोऽभिदधिरे-'नवीनब्रह्मणा निर्मितानां भवतीनामद्वैतरूपवतीनामेकॅमेव रूपं नासया" हीनमिति जिज्ञासुरस्मि । अथ ताः "सहस्ततालं विहस्य 'निजमेवापराधमस्मासु सम्भावयसी'ति ता मौनमाश्रिता नृपेणोचिरे-'खर्गलोकस्थितासु भवतीषु ममापराधः 1B वृषभौ। 2 B नास्ति । 3 अत्र Db आदर्श एतदने 'उपरि च फणी पुच्छावलम्बेनाधोभूय कुसुमगन्धि नृपशिरसि दंशाय पुनः पुनः फूत्कुर्वति' एतादृशोऽधिकः पाठः समुपलभ्यते। 4 B 'तन्' नास्ति; Pस। 5 D ढोकयेति । 6 AD 'अपि' नास्ति । 7AD शान्तिकर्मः। 8 B मोच्यः स राजा तस्कृत्यं कृत्वा मुचितः। 9 AD स्तम्भं विस्म। * कोष्ठकान्तर्गतः पजयः Db आदर्श लभ्यते। 10 AD नास्त्येषा पतिः। अत्र D पुस्तके निम्नलिखिता गाथा मुद्रिता लभ्यते परं सा प्रक्षिप्ता अस्ति APB आदर्शष्वनुपलब्धत्वात् । A आदर्श पृष्ठाधोभागे टिप्पणीरूपेण लिखिता दृश्यते । (१७) 'कटं काउं मुकं च साहसं मइलिअंच अप्पाणं । अजरामरं न पत्तं हा विकम हारिओ जम्मो॥' Db सब्ज्ञक आदर्शेऽत्र निम्नलिखितोऽधिकः पाठः समुपलभ्यते (१०) 'स्वच्छं सजनचित्तवल्लघुतरं दीनार्थिवच्छीतलं पुत्रालिङ्गनवत्तथा च मधुरं बालस्य सजल्पवत् । एलोशीरलवणचन्दनलसत्कर्पूरपालीमिलत्पाटल्युत्पलकेतकीसुरभितं पानीयमानीयताम् ॥ (१९) यदा जीवश्च शुक्रश्च परितश्चन्द्रमण्डलम् । परिवेष्टयतस्तद्वै राजा कष्टेन जीवति ॥' 11 D'मान' स्थाने 'म्लान' शब्दः। 12 B स नृपो। 13 B अञ्जलिबद्धप्रणाम। 14 AD 'परं' नास्ति । 15 B इत्यप्सरसोऽभिधायापसरन्त्यो। 16 D 'एकम्' नास्ति। 17 B नासाग्रहीनं। 18 Da-b दत्तहस्त। 19 D 'एव' नास्ति । कर्पूरपाली मिल , यदा जीवश्च 11 D'नान Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रबन्धचिन्तामणिः। [प्रथमः कथं सम्भाव्यत?' इति नृपवचःप्रान्ते ताभ्यो मुख्यया सुमुख्याऽऽचचक्षे-'राजन् प्राक्पुण्योदयेन साम्प्रतं नवापि निधयस्तव सोधेऽवतेरुस्तदधिष्ठात्र्यो वयम् । भवताऽऽजन्मावधि महादानानि ददतैकस्यैव निधेरेतावदेव व्यवकलितं यावत्त्वं नासाग्रं न पश्यसि । इत्थं तदुक्तिमाकर्ण्य ललाटं करतलेन स्पृशन् 'यद्यहं नवनिधीनवतीर्णान् वेद्मि तदा नवभ्यः पुरुषेभ्यस्तान्समर्प5 यामीति देवेनाज्ञानभावाद्वश्चित इत्युच्चरस्ताभिः 'कलौ भवानेवोदार' इति प्रतिबोधितः परलोकमाप । 'ततः प्रभृति तस्य विक्रमादित्यस्य जगत्ययमधुनापि संवत्सरः प्रवर्त्तते ॥७॥ ॥ श्रीविक्रमार्कस्य दाने विविधाः प्रबन्धाः॥ [२. अथ सातवाहनप्रबन्धः ।] १३) अर्थ दाने विद्वत्तायां च श्रीसातवाहनकथा यथाश्रुता ज्ञेया। तत्पूर्वभवकथा चैवं-श्रीप्रति10 टानपुरे सातवाहनभूपो' राजपाटिकायां गच्छन्नगरप्रत्यासन्ननद्यां वीचिभिरतीरनिक्षिप्तं मत्स्यमेकं हसन्तमालोक्य मंकृतेर्विकृतिरुत्पात इति भयभ्रान्तो नृपः सर्वानेव विदग्धपुरुषान् सन्देहममुं पृच्छञ् ज्ञानसागरनामानं जैनमुनि पप्रच्छ। ज्ञानातिशयेन तेन तत्पूर्वभवं विज्ञायेत्युपदिष्टम्-'यत्पुरातनभवे त्वमस्मिन्नेव पत्तने उच्छिन्नवंशः काष्ठभारवाहनैकवृत्तिः* अस्यामेव नद्यां भोजनावसरे सन्निहितशिलातले सक्तून् पयसाऽऽलोड्य नित्यमनासि । कस्मिन्नप्यहनि मासोप15 वासपारणाहेतोः पुरे व्रजन्तं जैनमुनिमाहूय तं सक्तुपिण्डं तस्मै प्रादात् । तस्य पात्रदानस्यातिशयात्वं सातवाहननामा नृपतिरासीः। स मुनिर्देवो जातः । तद्देवताधिष्ठानवशात्तं काष्ठभारवाहिनो जीवं त्वां नृपतितयोपलक्ष्य प्रमोदाद्ध सितवान् । तत्कथासङ्ग्रहश्चैतत्काव्यम्-1 ९. मीनानने प्रहसिते भयभीतमाह श्रीसातवाहनमृषिर्भवताऽत्र नद्याम् । यसक्तुभिर्मुनिरकार्यत पारणं प्राक् दैवाद्भवन्तमुपलक्ष्य झपो जहास ॥ 20 स श्रीसातवाहनस्तं पूर्वभववृत्तान्तं जातिस्मृत्या साक्षात्कृत्य ततःप्रभृति दानधर्ममाराध यन् सर्वेषां महाकवीनां विदुषां च सङ्ग्रहपरः चतसृभिः खर्णकोटीभिर्गाथाचतुष्टयं क्रीत्वा सप्तशतीगाथाप्रमाणं सातवाहनाभिधानं सङ्ग्रहगाथाकोशं शास्त्रं निर्माप्य नानावदातनिधिः सुचिरं राज्यं चकार । तद्गाथाचतुष्टयमेतदै । यथा____1 B ताभ्यां। 2 A मुख्या। 3 D सुमुख्यया; A नास्ति । 4 B तव प्राक् । 5 B 'तव सौधे' नास्ति । 6 AD भवता देवता रूपेणाजन्मा०। 7 AD 'अवतीर्णान्' नास्ति। 8 B देवे ज्ञान। 9 'वञ्चित' स्थाने B 'न चिंतित'। दण्डा. न्तर्गता पशिः B आदर्श नास्ति । 10 B दानविविधाः। 11 Db शातवाहनप्रबन्धा लिख्यन्ते । 12 A शालवाहन । 13 BP बथाश्रुतं। 14 BP शातवाहननरेन्द्रो। 15 AD तीरक्षिप्त। 16 B प्रकृतिवि०। 17 BP सर्वानपि। 18 BP ज्ञानातिशयात् । 19 B उच्छन्नः। * अत्र वृत्तिशब्दाने P Db सज्ञके आदर्श (२०) 'अहो कोऽपि दरिद्राणां दारिद्यव्याधिरद्भुतः । घृष्टिक्वाथेऽपि यः पीयमाने न क्षयभूरभूत् ॥' एषोऽधिकः श्लोकः उपलभ्यते । 20 AD 'अस्यां' स्थाने 'तस्यां'। 21 AD जैनमुनिं मासोप० । 22 A पारणहेतोः; BP पारणकारणे। 23 AD पुरो। अत्र Db आदर्श-'जैनमुनि दृष्ट्वा पूर्वभवे मया कस्मैचिन्न ददे तस्येदं फलम् । यदुक्तं (२१) रम्येषु वस्तुषु मनोहरतां गतेषु रे चित्त! खेदमुपयासि कथं वृथा त्वम् । पुण्यं कुरुष्व यदि तेषु तवास्ति वाञ्छा पुण्यैर्विना नहि भवन्ति समीहितार्थाः ॥ इत्थं चिन्तयित्वा मुनिमाकार्य तं सक्तुपिण्डं-' एतावान् समधिकः पाठोऽस्ति । 24 Boमाकार्य। 25 B प्रदात् । 26 AD शालवाहननृपतिः। 27 BP एतद्वाक्यं नास्ति । 28 B देवाधिष्ठान। 29 P नास्ति । 30 BP नृपतया। 31 AD सङ्घहश्चैवं। 32 AD 'तं' नास्ति। 33 A शालवाहणाभि०; D शालिवाहनाभिः। 34 P .कोश। 35 P.मिदं; B Db भादर्शे-तद् गाथाचतुष्टयं बहुश्रुतेभ्यो ज्ञेयम् ।' एवंरूप उल्लेखोऽस्ति । अग्रेतना गाथाश्च न सन्ति । रे चित्तीद फलम् । यदि ते Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] भूयराजप्रबन्धः । १०. हारो वेणीदण्डो खटुग्गलियाई तह य तालु त्ति । एयाई नवरि सालाहणेण दहकोडिगहियाई ॥१ ११. मग्गं चिय अलहन्तो हारो पीणुनयाण थणयाणं । उब्धिम्बो भमइ उरे जउणानइफेणपुञ्ज व ॥२ १२. कैसिणुजलो य रेहइ वेणीदण्डो नियम्बविम्बम्मि । तुंह सुन्दरि सुरयमहानिहाणरक्खाभुयङ्ग व ॥३ १३. परिओससुन्दराई सुरए जायन्ति जाई सुक्खाई । विरहाउ ताई पियसहि खट्टग्गलियाई कीरन्ति ॥४ १४. मा जाण कीर जहँ चञ्चलालियं पडइ पक्कमाइन्दं । जरढत्तणदुल्ललियं उब्भुयतालाहलं एयं ॥ ५ 5 १५. ताण पुरोय मरीह" कयलीथम्भाण सरिसपुरिसाण । जे अत्तणो विणासं फलाई दिन्ता न चिन्तन्ति ॥६ १६. जह सरसे तंह सुक्के वि पायवे धरइ अणुदिणं विञ्झो। उच्छंगवट्टियं निग्गुणं पि गरुयाँ न छड्डन्ति ॥७ १७. पिढमो नेहाहारो तेहिं तिसिएहिं तह कहवि गहीउ । पिच्छन्ति जं न अन्नं तच्चिय आजम्म मुज्झारीं ॥८ १८. सयलजणाणन्दयरो सुक्खस्स वि एस परिमलो जस्स । तस्स नवसरसभावम्मि हुन्ज किं चन्दणदुमस्स ॥९ १९. कयलितरू विझगिरी नेहाहारो य चन्दणदुमो य । एयाओ नवरि सालाहणेण नैवकोडिगहियाओ ॥१० 10 [३. अथ शीलवते भूयराज-प्रबन्धः ।] १४) तद्यथा-*षत्रिंशद्ग्रामलक्षप्रमिते कन्यकुञ्जदेशे कल्याणकटकनाम्नि राजधानीनगरे भूयरोज इति राजा राज्यं कुर्वन् कस्मिंश्चित्प्रभातसमये राजपाटिकायां सञ्चरन्नेकस्मिन्सौधतले वातायनस्थितां कामपि मृगाक्षी मृगयमाणो निजचित्तापहारापराधिनी तामपंजिहीर्षुर्निजं पानीयाधिकृतपुरुषं समादिदेश । स च तां नृपसौधे समानीय कचित् सङ्केतप्रदेशे स्थापयित्वा 15 नृपं विज्ञपयामास । नृपेण च तत्रागतेन बाहुदण्डे धृता सती सा तं भूपमवादीत्-'स्वामिन् ! सर्वदेवतावतारस्य भवतो हन्त कोऽयं नीचनार्यामभिलाषः' । ततस्तद्वाक्यामृतेनेषच्छान्तकामानलो नृपः 'काऽसीति तां प्रोचे । तया-'अहं तव दासी'त्यभिहिते 'किं तथ्यमेतदिति नृपादेशात् 'प्रभोर्दासः पानीयाधिकृतस्तस्य पत्यहं दासानुदासीति । तद्वार्तयान्तश्चमत्कृतो नृपतिः सर्वथा विलीनकामार्तिस्तां सुतां मन्यमानो विससर्ज । तस्या वपुषि निजकरौ लग्ना-20 विति विचिन्त्य तन्निग्रहवाञ्छया निशीथे निजैरेव यामिकैर्गवाक्षप्रविष्टनरकरभ्रान्त्या निजावेव भुजौ निग्राहयामास । अथ प्रत्यूषे तान् यामिकान सचिवैर्निगृह्यमाणान् निवार्य मालवमण्डले महाकालदेवप्रासादे गत्वा स्वयं देवमाराधयंस्तस्थौ । देवादेशाद्भुजद्वये लग्ने सति तं मालवदेशं सान्तःपुरं तस्मै देवाय दत्त्वा तद्रक्षाधिकृतान् परमारराजपुत्रान् नियोज्य स्वयमेव तापसी दीक्षामङ्गीचके । इति शीलव्रते भू[य]राजप्रबन्धः ॥९॥ 1A मग्गु । 2A थणियाण। 3 Db.c उब्विग्गो। 4 A पुंजु व्व। 5A कसिण। 6 AD तह । 7 D भुयङ्ग। 8 Dd सुरएसु लहन्ति । 9 Db खटुग्गिआइ; Dd खटुग्गिणिहाइ। 10 P जं। 11 A उजुय०; P उज्झउ । 12P पुरोउ। 13 D मरीढं। 14 P कयलियखंभाण। 15 A नास्ति। 16 A गुरूया। 17 P मुञ्चन्ति। 18 De तहवि । '19 Db मुज्झारो। 20 A चउ०। अन्तिम गाथात्रिकं P आदर्श नोपलब्धम् । 21 P नास्ति 'तद्यथा' । * AD Da-b सज्ञकेष्वादशेषु एष समग्रोऽपि प्रबन्धो निम्नलिखितरूपेण संक्षिप्तात्मकतयोपलभ्यते-"षत्रिंशग्रामलक्षप्रमिते कन्यकुब्जे नगरे कल्याणकटके पानीयाधिकृतप्रियाभिलाषव्यतिकरात् राजा भूयदेवो (D भूदेवो) मालवके श्रीरुद्रमहाकालमाराध्य मालवकं तस्मै देवाय दवा स्वयं तापसोऽभूदिति संक्षेपः।" 22 B नाम निजराज०; P नाम्नि तद्राज.। 23 B भूराज। 24 BP कस्मिन् । 25 AD 'अप' नास्ति। 26 B 'सा' नास्ति; Db सती। 27 Pईषत् नास्ति। 28 BDb 'तव नास्ति । 29 BP तत्प० । 30 Dboस्वां। 31 BP चकार । 25 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः । [प्रथमः [४. वनराजादिप्रबन्धः।] १५) *तस्य कन्यकुब्जस्यैकदेशो गूर्जरधरित्री, तस्यां गूर्जरभुवि वढीयाराभिधानदेशे पश्चाशरग्रामे चापोत्कटवंश्यं झोलिकासंस्थं बालकं वणनाम्नि वृक्षे निधाय तन्मातेन्धनमवचिनोति । प्रस्तावात्तत्रायातेर्जेनाचार्यः श्रीशीलगुणसूरिनामभिरपराह्नेऽपि तस्य वृक्षस्य छायाममन्तीमा5 लोक्य, झोलिकास्थितस्य तस्यैव बालकस्य पुण्यप्रभावोऽयमिति विमृश्य, जिनशासनप्रभावकोऽयं भावीत्याशया वृत्तिदानपूर्व तन्मातुः पार्थात्स बालो जगृहे । वीरमतीगणिन्या स बालः परिपाल्यमानो गुरुभिर्दत्तवनराजाभिधानोऽष्टवार्षिको देवपूजाविनाशकारिणां मूषकाणां रक्षाधिकारे नियुक्तः। स तान् बाणेन निघ्नन् गुरुभिर्निषिद्धोऽपि चतुर्थोपायसाध्यास्तानेवं जगौ । तस्य जातके राजयोगमवधार्याऽयं महानृपतिरेवं भावीति निर्णीय स" तन्मातुः पुनः प्रत्यर्पितः। मात्रा समं 10 कस्यामपि पल्लिभूमौ स्वमातुलस्य चौरवृत्त्या वर्तमानस्य [सन्मानपात्रतां प्राप्तो जनपदस्यान्तरस्खलितपौरुषवृत्तिनगरग्रामसाकेव....(2)] सर्वत्र धाटीप्रपातमकरोत् ।। १६) कदाचित्" काकरग्रामे खात्रपातनपूर्व कस्यापि व्यवहारिणो गृहे धनं मुष्णन् देधिभाण्डे करे पतिते सत्यत्र भुक्तोऽहमिति विचिन्त्य तत्सर्वखं तत्रैव मुक्त्वा विनिर्ययौ । परस्मिन्नहनि तद्भगिन्या श्रीदेव्या निशि गुप्तवृत्त्या सहोदरवात्सल्यादाहूतः। पृष्टः-'कथं मगृहे प्रविश्य सर्व15 सारं [गृहीत्वा ] त्वया पुनरेव मुक्तम् ?' । तेनोक्तं २०. कह नाम तस्स पावं चिंतिजइ आगए वि कोवम्मि । उप्पलदलसुकुमालो जस्स घरे अल्लिओ हत्थो॥ सापि तद्वचनमाकर्ण्य तच्चरित्रेण चमत्कृता भोजनवस्त्रदानादिकमुपकारं चकार । 'मम पट्टाभिषेके भवत्यैव भगिन्या तिलकं विधेयमिति प्रतिपेदे ।। १७) अथान्यस्मिन्नवसरे तस्य चरटवृत्त्या वर्तमानस्य चौरैः काप्यरण्यप्रदेशे रुद्धो जाम्बा20भिधानो वणिक तं चोरत्रयं दृष्ट्वा खैबाणपञ्चकमध्याहाणद्वयं भञ्जस्तैः पृष्ट इति प्राह- भवत्रितयाधिकं बाणद्वयं विफलमि'त्युक्ते, तदुक्तं चैलवेध्यं बाणेनाहत्य तैः परितुष्टैरात्मना सह नीतस्तद्योधविद्याचमत्कृतेन "श्रीवनराजेन 'मम पट्टाभिषेके त्वं महामात्यो भावी'त्यादिश्य विसृष्टः। १८) अथ कन्यकुब्जादायातपञ्चकुलेन तद्देशराज्ञः सुतायाः श्रीमहणकाभिधानायाः कश्रुकसम्बन्धे पितृप्रदत्तंगूर्जरदेशस्योद्ग्राहणकहेतवे समागतेन सेल्ल द्वनराजाभिधानश्चक्रे । षण्मासी ___* द्वितारकान्तर्गतः पाठः AD नास्ति । 1 Db बाण। 2 Da शीलगणि; Db शीलगण। 3 B सूरिभिः; A सूरिभिनामभिः। 4 B मवनमन्ती। 5 B 'पुण्य' नास्ति । 6 Db परिपाख्यः। 7 B नास्ति। 8 D लोष्टैः; Pa बाणैः । 9 AD नृपतिर्भा०। 10 P 'स' नास्ति; AD 'तन्' नास्ति। 11 B समर्पितः। + एतरकोष्ठकान्तर्गतः पाठः केवलं P आदर्श एवोपलभ्यते। 12 प्रदान। एतदने Po आदर्श 'चौरस्वभावे लग्ने न सुखं कदाचिदपि । यतः (२२) नक्तं दिवा न शयनं प्रकटा न चर्या स्वैरं न चान्नजलवस्त्रकलत्रभोगः । __शंकानुजादपि सुतादपि दारतोऽपि लोकस्तथापि कुरुते ननु चौर्यवृत्तिम् ॥" एसावान् प्रक्षिप्तः पाठः समुपलभ्यते। 13 केवलं B आदर्श एव एष शब्दः। 14 B नास्ति । 15 B तद्दधिः। $ एतद्विचिद्वान्तर्गतपाठस्थाने AD आदर्श 'तया भोजनवस्त्र (वसु D)दानपूर्वकमुपकृतो'; B आदर्श 'नानभोजनवस्त्रदान.' एतादृशः संक्षिप्तः पाठः प्रपठ्यते । 16 P प्रतिपन्नम्। 17 AD नास्ति । 18 Dजम्बा। 19 P तच्चौर०। 20 AD 'स्व' नास्ति । 21 B 'इति' नास्ति । 22 D बलः। 23 P 'तद्' नास्ति । 24 BP 'श्री' नास्ति । 25 D तादृश० । 26 D महणिका० । 27 P०प्रतिपन्न। 28 B सोल्लवृद्ध P सल्लभृद् । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 प्रकाशः] वनराजादिप्रबन्धः। यावद्देशमुद्ग्राह्य चतुर्विशतिसंख्यान पारूथकद्रम्मलक्षास्तेजोजात्यांश्चतुःसहस्रसंख्यांस्तुरङ्गमान् गृहीत्वा पुनः स्वदेशं प्रति प्रस्थितं पञ्चकुलं सौराष्ट्राभिधानघाटे वनराजो निहत्य कस्मिन्नपि वननिकुञ्ज तद्राजभयाद्वर्ष यावद्गुप्तवृत्त्या तस्थौ। १९) अथ निजराज्याभिषेकाय राजधानीनगरनिवेशचिकीः शूरां भूमिमवलोकमानः पीपलुलातडागपाल्यां सुखनिषण्णेन भारूयाडसाखडसुतेनाणहिल्लनाम्ना पृष्टः-"किमवलोक्यते'। 5 'नगरनिवेशयोग्या शूरा भूमिरवलोक्यते' इति तैः प्रधानैरभिहिते, 'यदि तस्य नगरनिवेशस्य मन्नाम दत्त ततस्तां भुवमावेदयामी'त्यभिधाय जालिवृक्षसमीपे गत्वा यावती भुवं शशकेन श्वा त्रासितस्तावती भुवं दर्शयामास । तत्र प्रदेशे" अ ण हि ल पु र मिति' नाम्ना नगरं निवेशयामास ।" [अत्रान्तरे P आदर्श निम्नोद्धृतानि पद्यानि लिखितानि प्राप्यन्ते[६] कृतहारानुकारेण प्रकारेण चकास्ति यत् । सुकृतेन वृतीभूय त्रायमाणं कलेरिव ॥ [७] चन्द्रशालासु बालानां खेलन्तीनां निशामुखे । यत्र वक्त्रश्रिया भाति शतचन्द्रं नभःस्थलम् ॥ [८] लङ्का शङ्कावती चम्पा सकम्पा विदिशा कृशा । काशिर्नाशितसम्पत्तिमिथिला शिथिलादरा ॥ [१] त्रिपुरी विपरीतश्रीमथुरा मन्थराकृतिः । धाराप्यभूनिराधारा यत्र जैत्रगुणे सति ॥ युग्मम् ॥ [१०] कौरवेश्वरसैन्यस्य यत्पौरस्त्रीजनस्य च । बलाद् गांगेय-कर्णस्य न पश्याम्यहमन्तरम् ॥ 15 [११] प्रौढश्रीरलका न जातपुलका लङ्कातिशङ्काकुला, नैवाप्युञ्जयिनी कदापि जयिनी चम्पातिकम्पान्विता । कान्ती कान्तिविभूषिता नहि तथाऽयोध्याऽतियोध्याभवत् , यस्याग्रे तदिहाद्भुतं विजयते श्रीनर्तनं पत्तनम्।।] २०) ८०२ व्यधिकाष्टशतसंवत्सरे (A D संवत् ८०२वर्षे वैशाखसुदि २ सोमे)श्रीविक्रमार्कतस्तस्य जालितरोर्मूले" धवलगृहं कारयित्वा राज्याभिषेकलग्ने काकरग्रामवास्तव्यां तां प्रतिपन्नभगिनीं श्रियादेवीमाहूय तया कृततिलकः श्रीवनराजो" राज्याभिषेकं पञ्चाशद्वर्षदेश्यः कारया-20 मास । स जाम्बाभिधानो वणिग महामात्यश्चक्रे। पञ्चासरग्रामतः श्रीशीलगुणसूरीन सभक्तिकमानीय धवलगृहे निजसिंहासने निवेश्य कृतज्ञचूडामणितया सप्ताङ्गमपि राज्यं तेभ्यः समर्पयस्तैनिःस्पृहैर्भूयो भूयो निषिद्धस्तत्प्रत्युपकारवुद्ध्या तदादेशाच्छ्रीपार्श्वनाथप्रतिमालङ्कृतं पञ्चासराभिधानं चैत्यं निजाराधकमूर्तिसमेतं च कारयामास । तथा धवलगृहे कैण्टेश्वरीप्रसादश्च कारितः। 25 २१. गूर्जराणामिदं राज्यं वनराजात्प्रभृत्यपि । जैनैस्तु स्थापितं मत्रैस्तद्वेषी नैव नन्दति ॥ २१) संव० ८०२ पूर्व निरुद्धं वर्ष ५९ मास २ दिन २१ श्रीवनराजेन राज्यं कृतम् । श्रीवनराजस्य सर्वायुर्वर्ष १०९ मास २ दिन २१ । 1B 'यावत्' नास्ति। 2 P पारूप्यक; Db पारूषक; D रूप्यक। 3 BP चतुःसहस्रान् तुरगान् । 4 AD 'राजधानी' नास्ति। 5 P तटाक। 6 BP निषण्णो। 7 P भारुआडसांखडा०; B 'सांखडा' नास्ति । 8 A किमु विलो०। 9 BP 'प्रधानैः' नास्ति । 10 D नाम मम। 11 BD ददत। 12 B शशकेन यावती भुवं श्वा०; D यावती भूः शशकेनोच्छाशिता । 13 AD 'प्रदेशे' नास्ति । 14 AD 'इति' नास्ति । 15 P नास्ति। 16 BD निवेश्य। 17 BP .तरोस्तले। 18 BP माकार्य। 19 BP नास्ति । 20 D नास्ति 'तत्'; A ततः। 21 P सहितं । 22 AD तथा तेन। 23 D गृहकण्ठे । 24 D कण्ठे। 25 Db तवेषाद् तन नन्दति । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [प्रथमः संवत् ८६२ वर्षे आषाढसुदि ३ गुरौ अश्विन्यां सिंहलग्ने वहमाने वनराजसुतस्य श्रीयोगराजस्य राज्याभिषेकः। [BP प्रत्यन्तरे- 'संवत् ८०२ पूर्व वर्ष ६० श्रीवनराजेन राज्यं कृतम् । संवत् ८६२ वर्षे श्रीयोगराजस्य राज्याभिषेकः ( P श्रीजोगराजेन राज्यमलंचक्रे)-इत्येव पाठः ।] 5 २२) तस्य राज्ञः' त्रयः कुमाराः । अन्यस्मिन्नवसरे क्षेमराजनाम्ना कुमारेण राजेति विज्ञपयांचओ-देशान्तरीयस्य राज्ञः प्रवहणानि वात्यावर्तेन विपर्यस्तानि । अन्यवेलाकूलेभ्यः श्रीसोमेश्वरपत्तने समागतानि । ततस्तेषु तेजखितुरंगमसहस्रं दश (१००००) तथा गजानां सा॰घटा संख्ययाँ रूप १८ । अपरवस्तूनि कोटिसंख्यया । एतावत्सर्वं निजदेशोपरि खदेशमध्ये भूत्वा सञ्चरिष्यति । यदि खाम्यादिशति तदाऽऽनीयते” इति विज्ञप्तेन राज्ञा तन्निषेधः कृतः। 10 तदनन्तरं तैस्त्रिभिः कुमारै राज्ञो वयोवृद्धभावाद्वैकल्यमाकल्य तस्यामपि स्वदेशप्रान्तप्रान्तर भूमौ खसैन्यं सजीकृत्याज्ञातचौरवृत्त्या तत्सर्वमाच्छिद्य खपितुरुपनिन्ये । अन्तःकुपितेन मौनावलम्बिना तेन राज्ञा न किमपि तेषां प्रति "प्रत्यादिष्टम् । तत्सर्वं नृपतिसात्कृत्वा 'क्षेमराजकुमारेगैतत्कार्य सुन्दरं कृतमसुन्दरं वेति विज्ञप्तो नृपतिर्बभाषे-'यदि सुन्दरमुच्यते तदा परस्खलुण्टनपातकम् ; यद्यसुन्दरमभिधीयते तदा भवदीयचेतस्सुं विरक्तिः । अतो मौनमेव श्रेय इति 15 सिद्धम् । श्रूयतां भवदीयप्रथमप्रश्ने परवित्तापहृतौ निषेधहेतुः । यदा परमण्डलेषु नृपतयः सर्वेषामपि राज्ञां राज्यप्रशंसां कुर्वन्ति तदा गूर्जरदेशे च र टराज्य मित्युपहसन्ति । अस्मत्स्थानपुरुषैरित्यादिवरूपं वयं विज्ञप्तिकया ज्ञाप्यमानाः किञ्चिन्निजपूर्वजवैमनस्यमावहन्तो दूयामहे । यद्ययं पूर्वजकलङ्कः सर्वलोकहृदये विस्मृतिमावहति तदा समस्तराजपक्तिषु वयमपि राज शब्दं लभामहे । धनलवलोभलोलुभैर्भवद्भिः स पूर्वजकलङ्क उन्मृज्य पुनर्नवीकृतः । तदनन्तरं 20 राज्ञा शस्त्रागारान्निजं धनुरुपानीय 'यो भवत्सु बलवान् स इदमारोपयत्वि'ति समादिष्टे सीभिसारेण तन्नैकेनाप्यधिरोप्यत इति राज्ञा हेलयैवाधिज्यीकृत्याभिधे २२. आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणां वृत्तिच्छेदोऽनुजीविनाम् । पृथक्शय्या च नारीणामशस्त्रो वध उच्यते ॥ इति नीतिशास्त्रोपदेशात् आज्ञाभङ्गादमाखशस्त्रवधकारिषु पुत्रेषु को दण्ड उचितः। अतो राज्ञा प्रायोपवेशनपूर्वकं विंशत्यधिकवर्षशते पूर्णे चिताप्रवेशः कृतः। अनेन राज्ञा भट्टारिकाश्री25 योगीश्वरीप्रासादः कृतः ।। २३) अनेन (योगराजनाना) राज्ञा वर्ष ३५ राज्यं कृतम् । सं०८९७ पूर्व वर्ष २५ श्रीक्षेमराजेन राज्यं कृतम् । सं० ९२२ पूर्व वर्ष २९ श्रीभूयडेन राज्यं कृतम् । अनेन श्रीपत्तने भूयडेश्वरप्रासादः कारितः। IAD 'राज्ञः' नास्ति । 2 A सार्द्धघटा; D सार्द्धशती। 3 B संख्यायां। 4 D 'रूप १८' नास्ति । 5 B 'भूस्वा' नास्ति। 6 BP तदादीयते। 7 P वृद्धताभा०। 8 B प्रान्तरप्रान्तभू०; A प्रान्तप्रान्तभू०; D प्रान्तभूः। 9 D 'स्व' नास्ति । 10 AD 'तेन' नास्ति। 11 P'प्रति' नास्ति; B प्रतिपत्त्यादिष्टं; D प्रतिपत्त्यादि कृतं। 12 AD चेतसो। 13 P हसन्तः। 14 AD 'स्थान' नास्ति । 15 AD 'वयं नास्ति । 16 AD पूर्वजः। 17 PD 'लोभ' नास्ति । 18 AD उत्सृज्य। 19 B ०धिकृत्याभिदधे। 20 P द्विजन्मनां। 21 D 'आज्ञाभङ्गा०' नास्ति । 22 BP दण्डः कः। 23 BP विंशत्याधिक। 24 BP भादर्श एषा पक्तिनास्ति । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] मूलराजप्रबन्धः। सं० ९५१ पूर्व श्रीवैरसिंहेन वर्ष २५ राज्यं कृतम् । सं०९७६ पूर्व वर्ष १५ श्रीरत्नादित्येन राज्यं कृतम् । सं० ९९१ पूर्व वर्ष ७ श्रीसामन्तसिंहेन राज्यं कृतम् । एवं चापोत्कटवंशे सप्त नृपतयोऽभूवन् । विक्रमकालात् संख्यया वर्ष ९९८ । [A आदर्श तथा प्रायस्तत्सदृशे D पुस्तके एषा वंशावलिः निम्नस्वरूपा लिखिता लभ्यतेसं० ८...... (?) श्रावणसुदि ४ निरुद्धं वर्ष १० मास १ दिन १ श्रीयोगराजेन राज्यं कृतम् । सं०८.......... श्रावणसुदि ५ उत्तराषाढनक्षत्रे धनुर्लग्ने रत्नादित्यस्य राज्याभिषेको बभूव । सं० ८......... कार्तिकसुदि ९ निरुद्धं वर्ष ३ मास ३ दिन ४ अनेन राज्ञा राज्यं कृतं । सं० ८......... कार्तिकसुदि ९ रवौ मघानक्षत्रे वृपलग्ने श्रीवैरसिंहो राज्ये समुपविष्टः। सं० ८......... ज्येष्ठसुदि १० शुक्रे निरुद्धं वर्ष ११ मास ७ दिन २ अनेन राज्ञा राज्यं चक्रे। 10 सं०८......... ज्येष्ठसुदि १३ शनौ हस्तनक्षत्रे सिंहलग्ने श्रीक्षेमराजदेवस्य राज्याभिषेकः समजनि । सं० ९२ ...... भाद्रपदसुदि १५ रवौ वर्ष ३८ मास ३ दिन १० अस्य राज्ञो राज्यनिबन्धः । सं० ९३५ वर्षे अश्वीनीसुदि १ सोमे रोहिणीनक्षत्रे कुम्भलग्ने श्रीचामुण्डराजदेवस्य पट्टाभिषेकः समजनि । सं० ९.........माधवदि ३ सोमे निरुद्धं वर्ष १३ मास ४ दिन १७ अनेन राज्ञा राज्यं विदधे । सं० ९३८ (?) माधवदि ४ भौमे स्वातिनक्षत्रे सिंहलग्ने श्रीआगडदेवो राज्ये उपविष्टः । अनेन कर्करायां 15 पुर्या आगडेश्वर-कण्टेश्वरीप्रासादौ कारितौ ।। सं० ९६५ पौषसुदि ९ बुधे निरुद्धं वर्ष २६ मास १ दिन २० राज्यं कृतं । सं० ९......... पौषसुदि १० गुरौ आर्द्रानक्षत्रे कुम्भलग्ने भूयगडदेवः पट्टे समुपविष्टः । अनेन राज्ञा भूयगडेश्वरप्रासादः कारितः श्रीपत्तने प्राकारश्च । सं० ९......... वर्षे आषाढसुदि १५ निरुद्धं वर्ष २७ मास ६ दिन ५ राज्यं कृतं । 20 __ एवं चापोत्कटवंशे पुरुष ८; तद्वंशे १९० वर्ष, मास २, दिन सप्त राज्यं कृतम् । ] २३. *असेव्या मातङ्गाः परिगलितपक्षाः शिखरिणो जडप्रीतिः कूर्मः फणिपतिरयं च द्विरसनः । इति ध्यातुर्धातुर्धरणिधृतये सान्ध्यचुलुकात्समुत्तस्थौ कश्चिद्विलसदसिपट्टः स सुभटः ॥ इति ॥ [५. मूलराजप्रबन्धः।] २४) अथ पूर्वोक्तश्रीभूयंराजवंशे मुञ्जालदेवसुतां राज-बीज-दण्डक-नामानस्त्रयः सहोदरा यात्रायां श्रीसोमनाथं नमस्कृत्य ततः प्रत्यावृत्ताः श्रीमदणहिल्लपुरे श्रीसामन्तसिंहनृपं वाहकेल्यामवलोकमानास्तुरगस्य नृपेण कशाघाते दत्ते सति कार्पटिकवेशधारी राजनामा क्षत्रियोऽनवसरदत्तेन तेन कशाघातेन पीडितः शिरःकम्पपूर्वकं हा हेति शब्दमवादीत् । राज्ञा तत्कारणं पृष्टः स-'तुरङ्गमेन कृतं गतिविशेष न्युञ्छनयोग्यमनवधार्य कशाघाते दीयमाने ममैव मर्माभिघातः समजनि' । तेन तद्वचसा चमत्कृतेन राज्ञा स तुरङ्गमो वाहनाय समर्पितस्तस्यैव । अश्वाश्व-30 वारयोः सदृशं योगमालोक्य पदे पदे तयोर्युञ्छनानि कुर्वस्तेनैव तदाचारेण तस्य महत्कुलमाकलय्य लीलादेवीनाम्नी खभगिनीं तस्मै ददौ । आधानानन्तरं कियत्यपि गते काले, तस्या अकाण्ड___ * एतत्पy BP आदर्श नोपलभ्यते। 1 BP 'अर्थ' नास्ति । 2 D भूयगडरा०; P भूयडरा। 3 BP नास्ति । 4 AD श्रीभूयडदेवनृपं । 5 BP प्रहारेण । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ 15 प्रबन्धचिन्तामणिः। [प्रथमः मरणे सञ्जाते सति, सचिवैरपत्यमरणं पर्यालोच्य तदुदरविदारणपूर्वमपत्यमुद्धृतम् । मूलनक्षत्रजातत्वात्स 'श्रीमूलराजाभिधया समजनि । बालार्क इव आजन्म तेजोमयत्वात्सर्ववल्लभतया पराक्रमेण मातुलमहीपालं प्रवर्द्धमानसाम्राज्यं कुर्वन् मदमत्तेन श्रीसामन्तसिंहेन स साम्राज्येऽभिषिच्यते अनुन्मत्तेनोत्थाप्यते च । तदादिचापोत्कटानां दानमुपहासतया प्रसिद्धम् । स 5 इत्थमनुदिनं विडम्ब्यमानो निजपरिकरं सजीकृत्य विकलेन मातुलेन स्थापितों राज्ये तं निहत्य सत्य' एव भूपतिर्वभूव । २५) सं० ९९३ वर्षे आषाढसुदि १५ गुरौ, अश्विनीनक्षत्रे सिंहलग्ने रात्रिप्रहरद्वयसमये जन्मत एकविंशतितमे वर्षे श्रीमूलराजस्य राज्याभिषेकः समजनि। (BP आदर्शे-'सं० ९९८ वर्षे श्रीमूलराजस्य राज्याभिषेको निष्पन्नः। एतावानेव पाठः) २४. *मूलार्कः श्रूयते शास्त्रे सर्वकल्याणकारकः । अधुना मूलराजेन योगश्चित्रं प्रशस्यते ॥ [१२] स्विमे एत्य वनं जगाद स विभुश्चापोत्कटानां विभोर्वशे हैहयभूपतेगुणवती कन्यास्ति वं...... । चासौ मुदितेन विगताशकं विवाह्या त्वया गर्भ धास्यति सार्वभौममुदरे सेयं मृगाक्षी यतः ॥ [१३] तत्कुशावजनिष्ट विष्टपमणिः श्रीराजिराजाङ्गजः श्रीमद्गुर्जरमण्डलेऽथ नृपतिः श्रीमूलराजाह्वयः । यमिन् दिग्विजयोद्यमव्यतिकरे प्रौढप्रभावाद्भुते कम्पन्ते स मनांसि नाम न परं भूम्योऽपि भूमीभुजाम् ॥ श्रीसौराष्ट्रमंडले युद्धं सा...सीहेन इति प्रबन्धः । [१४] आवर्जिता जितारातेर्गुणैर्वाणरिपोरिव । गूर्जरेश्वरराज्यश्रीर्यस्य जज्ञे स्वयंवरा ॥ [१५] सिपत्राकृतशत्रूणां संपराये स्वपत्रिणाम् । महेच्छः कच्छभूपालं लक्षं लक्षीचकार यः ॥ [१६] लाटेश्वरस्य सेनान्यमसामान्यपराक्रमः । दुर्वारं बाणपं हित्वा हास्तिकं यः समग्रहीत् ॥ [१७] दानोपहतदारियं शौर्यनिर्जितदुर्जनम् । कीर्तिस्थगितकाकुत्स्थं यो राज्यमकरोचिरम् ॥ 20 [इत्यादिभिः स्तुतिभिः वुधैः स्तूयमानः साम्राज्यं कुर्वन्-] कस्मिन्नप्यवसरे सपादलक्षीयः क्षितिपतिः श्रीमूलराजमभिषणयितुं गूर्जरदेशसन्धौ समाजगाम । तद्योगपद्येन नैरपतेस्तिलङ्गदेशीयराज्ञो बारपनामा सेनापतिरुपाययौ । श्रीमूलराजेन तयोरेकस्मिन्विगृह्यमाणेऽपरः पाणिघातं कुरुत इति सचिवैः सह विमृशंस्तैरूचे-'श्रीकन्यादुर्गे प्रविश्य कियन्त्यपि दिनान्यतिवाह्यन्ताम्"। नवरात्रिकेषु समागतेषु सपादलक्षक्षितिपतिः स्वराजधान्यां शाकम्भर्यामेव खगोत्रजामाराध25 यिष्यति। तस्मिन्नवसरे श्रीबारपनामा सेनानीर्जीयते । तदनुक्रमागतः सपादलक्षक्षोणीपतिरपि।' इत्थं तदीये मन्त्रे श्रुते सति नृपःप्राह-'ममलोके पलायनापवादः किं न भविष्यती'त्यादिष्टे,ते ऊचुः २५. यदपसरति मेषः कारणं तत्प्रहर्तुं मृगपतिरपि कोपात्सङ्घचत्युत्पतिष्णुः। हृदयनिहितवैरा गूढयत्रप्रचाराः किमपि विगणयन्तो बुद्धिमन्तः सहन्ते ॥ इति तद्वचसा श्रीमूलराजः श्रीकन्यादुर्गे' प्रविवेश । श्रीसपादलक्षीयभूपतिः श्रीगूर्जरदेश एवं . 1 AD 'सति' नास्ति। 2 P 'मूलनक्षत्रजातत्वात् मूलराज इति' इत्येव पाठः। 3 AD श्रीभूयडदेवेन। 4 AB अननुम०; D तेन तु मत्ते। 5 AD हासप्रसिद्धं। 6 BP राज्ये स्थापितो। 7 BP स सत्य । ___* B आदर्श एतादृश एषः श्लोकः-मूलार्कः श्रूयते लोके सर्वकार्यस्य कारकः । अधुना मूलराजस्तु चित्रं लोकेषु गीयते ॥ + एतचिह्नांकितानि पद्यानि P आदर्श विना नान्यत्रोपलभ्यन्ते । ' एषा खण्डिता पक्लिरपि P प्रतावेव लभ्यते । 8 BP आदर्श एवैषः कोष्ठकगतः पाठः प्राप्यते। 9 Da-b पराजेतुं। 10 B नरपतितिलंगदेशराज्ञो। 11 AD वाह्यन्ते । 12 BP 'ते ऊचुः' नास्ति । 13 P .दुर्ग। 14 AD 'एव' नास्ति । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] मूलराजप्रबन्धः। वर्षाकालमतिक्रामन्नवरात्रेषु समागतेषु तस्यामेव कटकभूमौ शाकम्भरीनगरं निवेश्य तत्र गोत्रजामानीय तत्रैव नवरात्राणि पारेभे । श्रीमूलराजस्तत्स्वरूपमवगम्य निरुपायान् मन्त्रिणो मत्वा तत्कालोत्पन्नमतिवैभवो राजलाहणिकां प्रारभ्य राजादेशेन समस्तान् समन्ततः सामन्तानाहूय कूटलेखनव्ययकरणप्रतिबद्धपञ्चकुलमुखेन सर्वानपि राजपुत्रान् पदातींश्चान्वयावदाताभ्यामुपलक्ष्य यथोचितदानादिभिरावयं च समयसङ्केतज्ञापनपूर्वकं तान् सर्वान् सपादलक्षीयनृपतिशिबिरस- 5 निहितान् विधाय, खयं निर्णीते वासरे प्रधानकरभीमारुह्य तत्प्रतिपालकेन समं भूयसीमपि भुवमाक्रम्य,प्रत्यूषकालेऽप्रतर्कित एव सपादलक्षीयनृपतेः कटकं प्रविश्य करभ्या अवरुह्य कृपाणपाणिरेकाक्येव श्रीमूलराजस्तद्दौवारिकमभिहितवान्-'साम्प्रतं नृपतेः कः समयः? श्रीमूलराजो राजद्वारे प्रविशतीति खखामिने विज्ञपय'-इति वदंस्तं दोर्दण्डप्रहारेण द्वारदेशादपसार्य, 'अयं श्रीमूलराज एव द्वारे प्रविशती'ति तस्मिन्नभिदधाने गुरूदरान्तःप्रविश्य तस्य राज्ञः पल्यङ्के स्वयं निषसाद । 10 भयभ्रान्तःस राजा क्षणमेकं मौनमवलम्ब्येषत्साध्वसं विधूय, भवानेव श्रीमूलराजः? इत्यभिहिते, श्रीमूलराजस्य ओमिति गिरमाकर्ण्य यावत्समयोचितं किञ्चिद्वक्ति तावत्पूर्वसङ्केतितेस्तैश्चतुःसहस्रप्रमितैः पत्तिभिः स गुरूदरः परितः परिवेष्टयांचक्रे । अथ श्रीमूलराजेन स नृप इत्यभिदधे'अस्मिन्भूवलये नृपतिः समरवीरः समरे यो मम सम्मुखस्तिष्ठति स कोऽपि नास्त्यस्ति वेति मम विमृशतस्त्वमुपयाचितशतैरुपस्थितोऽसि । परमशनावसरे मक्षिकासन्निपात इव तिलङ्गदेशीय-15 तैलिपाभिधानराज्ञः सेनापति मन्जयाय समागतं यावच्छिक्षयामि तावत्त्वया पार्णिघातादिव्यापाररहितेन स्थातव्यमिति त्वामुपरोद्भुमहमागतोऽस्मि । श्रीमूलराजेनेत्यभिहिते से भूपतिरेवमवादीत्-'यस्त्वं नृपतिरपि सामान्यपत्तिरिव जीवितनिरपेक्षतयेत्थं वैरिगृह एक एव प्रविशसि तेन त्वया सार्द्धमाजीवितान्तं मे सन्धिः । तेन राज्ञेत्युदिते'मा मैवं वदेति तं निवारयंस्तेन भोजनाय निमनितोऽवज्ञया तं निषिद्ध्य, करे तरवारिमादायोत्थितस्तां करभीमारुह्य तेन स्कन्धावारेण परि-20 वेष्टितो बारपसेनापतेः कटके पतितः। तं निहत्य दशसहस्रसंख्यास्तद्वाजिनोऽष्टादशगजरूपाणि चादाय यावदावासान दत्ते तावत्प्रणिधिभिरस्मिन्वृत्तान्ते ज्ञापिते सपादलक्षनृपतिः पलायांचके। २६) तेन राज्ञा श्रीपत्तने श्रीमूलराजवसहिका"कारिता, श्रीमुञ्जालदेवखामिनः प्रासादश्च । तथा नित्यं नित्यं सोमवासरे श्रीसोमेश्वरपत्तने यात्रायां शिवभक्तितया व्रजस्तद्भक्तिपरितुष्टः सोमनाथ उपदेशदानपूर्व मण्डलीनगरमागतः। तेन राज्ञा तत्र मूलेश्वर इति प्रासादः कारितः ।25 तत्र नमश्चिकीर्षाहर्षेण प्रतिदिनमागच्छतस्तस्य नृपतेस्तद्भक्तिपरितुष्टः श्रीसोमेश्वरः 'अहं" ससागर एव भवन्नगरे समेष्यामी'त्यभिधाय श्रीमदणहिल्लंपुरेऽवतारमकरोत् । समागतसागरसङ्केतेन सर्वेष्वपि जलाशयेषु सर्वाण्यपि वारीणि क्षाराण्यभवन् । तेन राज्ञा तत्र त्रिपुरुषप्रासादः कारितः। 1 AD ज्ञात्वा । 2 D राजा लिहणिकां; A लिहिणिकीं। 3 BP क्षुगलेखक। 4 DP ज्ञापना। 5 A.D 'स्वयं' नास्ति। 6 D ऽतर्कित। 7 B गुरुदरा०; P गुह्वदरा। 8 B इत्यविहिते; P इति तेनाभिहिते। 9 B मूलराजः स्पष्टं जगौ ओमिः। 10 AD नास्ति । 11 B कोहपतिः; P नास्ति। 12 D विहाय 'मम' नास्ति । 13 BP मन्मुखे अवतिष्ठते । 14. BP नास्त्यस्तिवेति । 15 AD याचितैरुपः। 16 AD तैलप०। 17 AD 'स' नास्ति । 18 D यत्वं । 19 B जीवितान्तमेव सन्धिः, P.जीवितमेव सन्धिः। 20 D'नृपतिः' नास्ति । 21 BP मूलवसहिका। 22 BP मुजालस्वामिदेवप्रासा। 23 AD श्रीपत्तने। 24 शिवभक्त्या। 25 BP मण्डलीमुपागतः। 26 AD 'नृपतेः' नास्ति । 27 AD 'अहं' नास्ति। 28 POहिल्लपत्तने । 3 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [प्रथम: २७) अथ तस्य प्रासादस्य' चिन्तायकमुचितं तपखिनं कश्चिदालोकमानः सरस्वतीसरित्तीरे एकान्तरोपवासपारणकेऽनिर्दिष्टपञ्चग्रासभिक्षाहारं कान्थडिनामानं स तपखिनमश्रौषीत् । यावत्तन्नमस्याहेतवे नृपतिस्तत्र प्रयाति तावत्तेन तृतीयज्वरिणा स ज्वरः कन्थायां नियोजित इति नृपतिरालोक्य, तेन राज्ञा 'कथं कन्था कम्पते?' इति पृष्टः। 'नृपेण सह वार्ता कर्तुमक्षमतयेह 5 ज्वर आरोपित' इत्यभिहिते पार्थिवः प्राह-'यद्येतावती शक्तिर्भवतस्तदा ज्वरः किं न सर्वथा प्रहीयते इति राजादेशे २६. 'उपतिष्ठन्तु मे रोगा ये केचित्पूर्वसश्चिताः । आनृण्ये गन्तुमिच्छामि तच्छम्भोः परमं पदम् ॥ इति शिवपुराणोक्तान्यधीयन् , नाभुक्तं कर्म न क्षीयते इति जानन् कथममुं विसृजामी'ति तेनाभिहिते त्रिपुरुषधर्मस्थानस्य चिन्तायकत्वाय नृपतिरभ्यर्थयामास । 10 २७. 'अधिकारात्रिभिर्मासैमाठापत्यात्रिमिर्दिनैः । शीघ्रं नरकवाञ्छा चेदिनमेकं पुरोहितः ॥ इति स्मृतिवाक्यतत्त्वं" जास्तप उडुपेन संसारसागरमुत्तीर्य कथं गोष्पदे निमज्जामी ति वचसा निषिद्धो नृपस्ताम्रशासनं मण्डकवेष्टितं निर्माय तस्मै भिक्षागताय पत्रपुटे मोचयामास । स तदजानंस्ततः प्रत्यावृत्तः । पुरा प्रदत्तमार्गोऽपि सरस्वत्याः पूरे तदा न “दीयमानमार्गः, आजन्म निजदूषणानि विमृशंस्तात्कालिकभिक्षादोषपरिज्ञानाय यावद्विलोकते तावत्तद्दत्तं ताम्रशासनं 15 ददर्श । तदनु क्रुद्धं तपोधनं विज्ञाय तत्रागत्य नृपस्तत्सान्त्वनाय यावद्विनयवाक्यानि ब्रूते तावत्तेन मया दक्षिणपाणिना गृहीतं भवत्ताम्रशासनं कथं वृथा भवतीति वयजल्लदेवनामा निजविनेयो नृपाय समर्पितः। तेन वयजल्लदेवेन 'प्रतिदिनमङ्गोद्वर्तनाय जात्यघुसणस्याष्टौ पलानि, मृगमदपलचतुष्टयम् , कर्पूरपलमेकम् , द्वात्रिंशद्वाराङ्गनाः, ग्रासँसहितं सितातपत्रं च यदा ददासि तदा चिन्तायकत्वमङ्गीकरोमी'त्यभिहिते राज्ञा तत्सर्वप्रतिपद्य त्रिपुरुषधर्मस्थाने तपत्रिभूपतिपदे 20 सोऽभिषिक्तः । कंकूलोल इति प्रसिद्धः । इत्थं भोगान् भुञानोऽप्यजिह्मब्रह्मचर्यव्रतनिरतः स कदाचिनिशि मूलराजपच्या परीक्षितुमारब्धः । तां ताम्बूलप्रहारेण कुष्ठिनी विधाय पुनरनुनीतो निजोद्वर्त्तनविलेपनात् लानोत्सृष्टपयःप्रक्षालनाच सज्जीचकार । [अथात्रैव लाखाकोत्पत्ति-विपत्तिप्रवन्धः।] २८) पुरा कस्मिन्नपि परमारवंशे कीर्तिराजदेवाधिपतेः सुता कामलतानाम्नी। सा बाल्ये सम25 मालिभिः कस्यापि प्रासादस्य पुरोरममाणा, वरान् वृणीतेति ताभिर्व्याहियमाणों सा कामलता घोरान्धकारनिरुद्धनयनमार्गा प्रासादस्तम्भान्तरितं फूलडाँभिधानं पशुपालमज्ञातवृत्तान्तमेव वृत्वा, तदनन्तरं कतिपयैवर्षेः प्रधानवरेभ्य उपढौक्यमाना पतिव्रताव्रतनिर्वहणाय पितरावनुज्ञाप्य निबन्धात्तमेवोपयेमे । तयोर्नन्दनो लाखाकः । स कच्छदेशाधिपतिः, प्रसादितयशोराज 1AD नास्ति। 2P दवलोकमानः। 3 BP सरस्वत्याः सरितस्तीरे। 4D कन्धडिः। 5D 'स' नास्ति । 6 P रालोकते। 7 BP नास्ति । 8 BP आनृणे। 9 BP चिन्तायकत्वाय त्रिपुरुषधर्मस्थानस्य। 10 दिनं भव । 11 AD 'तत्वं' नास्ति। 12 AD 'कथं' नास्ति । 13 AD दत्त। 14 P पूरेऽदीयमानः। 15 B स दत्तस्ताम्र; AD तावत्तत्तान। 16 D प्राम। 17 A. कूकूलोल; D कंकरौल; Da-c कूकरौल। * B नास्त्येतद्वाक्यं । 18 B 'अपि' नास्ति। 19 BD 'व्रत' नास्ति। 20 P मारेभे। 21 D नास्ति 'तां'। 22 D विलेपनस्त्रानो। D पुस्तक एवैषा पर्टिश्यते, नान्यत्र। 23 P विनाऽन्यत्र 'देशाधि०'। 24 P समं सखिभिः। 25 AP oमाणे। 26 B फूलहा। 27 AD Oमज्ञातवृत्या तमेव। 28 A वृत्तं । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रकाश] मूलराजप्रबन्धः । १९ वरप्रसादात्सर्वतोऽप्यजेयः, एकादशकृत्वस्त्रासितश्रीमूलराजसैन्यः कस्मिन्नप्यवसरे कपिलको - हेदुर्गस्थित एव लाखाकः राज्ञां स्वयं निरुद्धः । तदनु स लक्षः काप्यवस्कन्ददानाय प्रहितं निर्व्यू ढसाहसं माहेचाभिधं भृत्यमागच्छन्तमियेष । तत्खरूपमवधार्य श्रीमूलराजेन तदागमनमार्गेषु निरुद्धेषु स समाप्तकार्यस्तत्रागच्छन् 'शस्त्रं त्यजे 'ति राजपुरुषैरुक्तः खखामिकार्यसमर्थनाय तथैव कृत्वा समरसज्जं लाखाकमुपेत्य प्राणंसीत् । अथ संग्रामावसरे २८. उग्या ताविउँ जिहिं न किउ लक्खउ भणइ ति' घट्ट । गणिया लब्भई दीहडा के' दह अहवा अट्ठ | इत्यादिबोधवाक्यानि " बहूनि व्याहरन् माहेचाभृत्ये नोटसु भटवृत्तिदर्शनेन प्रोत्साहित साहसः श्रीमूलराजेन समं द्वन्द्वयुद्धं कुर्वाणस्तस्याजेयतां दिनत्रयेण विमृश्य तुर्यदिने श्री सोमेश्वरमनुस्मृत्य ततोऽवतीर्णरुद्रकलया स लक्षो निजम्ने । अथ भूपतिस्तस्याजिभूपतितस्य वातचलिते* श्मश्रुणि पदा स्पृश लक्षजनन्या 'लूति" रोगेण भवद्वंशो विपत्स्यत' इति शर्तेंः । २९. स्वप्रतापानले येन लक्षहोमं वितन्वता । सूत्रितस्तत्कलत्राणां बाष्पावग्रहनिग्रहः ॥ ३०. कच्छपलक्षं हत्वा सहसाधिक लम्बजालमायातम् । सङ्गरसागरमध्ये धीवरतीं दर्शिता येन ॥ ३१. मेदिन्यां लब्धजन्मा जितबलिनि बलौ बद्धमूला दधीचौ रामे रूढप्रवाला दिनकरतनये जातशाखोपशाखा । किश्चिन्नागार्जुनेन प्रकटितकलिका पुष्पिता साहसाङ्के आमूला मूलराज त्वयि फलितवती त्यागिनि त्यागवल्ली ॥ ३२. 'स्नाता प्रावृषि वारिवाहसलिलैः संरूढदुर्वाङ्कुरव्याजेनात्तकुशाः प्रणालसलिलैर्दत्त्वा निवापाञ्जलीन् । प्रासादास्तव विद्विषां परिपतत्कुड्य स्थापिण्डच्छलात्कुर्वन्ति प्रतिवासरं निजपतिप्रेताय पिण्डक्रियाम् ।। ॥ इति लाखाफूलउत्र - उत्पत्तिविपत्तिप्रबन्धः ॥ ११ ॥ 15 ३३. उद्धूमकेशं पदलग्नमग्निमेकं विषेहे विनयैकवश्यः । प्रतापिनोऽन्यस्य कथैव का द्विभेद भानोरपि मण्डलं यः ॥ इत्यादिभिः" स्तुतिभिः स्तूयमानो दिवमारुरोह । संव० ९९८ पूर्व वर्ष ५५ राज्यं श्रीमूलराजश्च ॥ इति मूलराजप्रबन्धः ॥ १२ ॥ [१८] *तस्मिन्नथ कथाशेषे निःशेषितनिजद्विषि । राजा चामुण्डराजोऽभूत् महीमण्डलमण्डनम् ॥ [१९] *विरोधिवनिताचित्ततापाध्यापनपण्डिताः । यदीयाः कटकारम्भाः कृतजम्भारिभीतयः ॥ [२०] * पाणिपङ्कजवर्त्तिन्या स्फुरत्कोशविलासया । यस्यासिभ्रमरश्रेण्या भिन्ना वंशाः क्षमाभृताम् ॥ २९) इत्थं तेन राज्ञा पञ्चपञ्चाशद्वर्षाणि निष्कण्टकं साम्राज्यं विधाय सान्ध्यनीराजनाविधेरनन्तरं राज्ञा प्रसादीकृतं ताम्बूलं वण्ठेन करतलाभ्यामादाय तत्र कृमिदर्शनान्निर्बन्धेनं तत्खरूपम`वगम्य वैराग्यात्संन्यासाङ्गीकारपूर्वं दक्षिणचरणाङ्गुष्ठे वह्निनियोजनापूर्वं गजदानप्रभृतीनि महा-20 दानानि ददानोऽष्टभिर्दिनैः 1 AD कोटि; B कोट । 2 BP 'लाखाकः' नास्ति । 3A Pतायु । 6 D जहिं । 7 Pतें। 8 B लाभहं । 9P कि । स्थाने 'विविधानि ' इति पाठान्तरम् । 11 D • भृत्येनोद्भवृत्तिद० । 12 14 चलित | 15 AD स्पृशन् राजा लक्ष० । 16 B तज्जनन्या । 20 P धीरता । + इदं पथद्वयं नोपलभ्यते B प्रतौ । 1 B प्रतौ नास्त्येषा 21 AD सन्ध्या । 22 D 'निर्बन्धेन' नास्ति । 23 BP अष्टादशभिः । 24 B काचिद्; P काsत्र 25P केवलं 'इति' । $ Da-b प्रतौ इदं वाक्यमुपलभ्यते । * एतानि पद्यानि P प्रतावेव प्राप्यन्ते । 5 'राजा' नास्ति । 4P 0 भिधानभृत्यं । 5 B तावयं; 10B • बहूनि बोधवाक्यानि व्याο; AD 'बहूनि ' B नास्ति 'अथ' । 13 P विना नास्त्यन्यत्र 'भूपतिः' । 17 B लूता० । 18 AD प्रशप्तः । 19 P हित्वा । पङ्किः; AD प्रतौ तु द्वितीयपथान्ते लिखिता लभ्यते । 10 For Private Personal Use Only 25 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 प्रबन्धचिन्तामणिः। [प्रथमः ३०) संवत् १०५३ पूर्व वर्ष १३ श्रीचामुण्डराजेनं राज्यं कृतम् । [२१] *लोकत्रयोल्लसत्कीर्तिर्महीपतिमतल्लिका । राजा वल्लभराजाख्यस्ततस्तत्तनुभूरभूत् ॥ [२२] *उपरुन्धन विरुद्धानां पुरीः पुरुषपौरुषः । जगज्झम्पन इत्येष विशेषज्ञैरुदीरितः ॥ ३१) सं० १०६६ पूर्व मास ६ श्रीवल्लभराजेन राज्यं कृतम् । [२३] *बभूव भूपतिस्तस्यावरजो विरजस्तमाः। श्रीमान् दुर्लभराजाख्यः सुदुर्लभयशाः परैः॥ _[२४] *कालेन करवालेन भोगिनेवाभिरक्षितम् । निधानमिव यदाज्यमनाहार्य परैरभूत् ॥ [२५] *सर्वथानुपभोग्येषु यस्य सौभाग्यभासिनः । न करः परदारेषु द्विजसारेषु चापतत् ॥ ३२) सं० १०६६ पूर्व व० ११ मा० ६ श्रीदुर्लभराजेन राज्यं कृतम् । ___ अथ तेन राज्ञा दुर्लभेन श्रीपत्तने श्रीदुर्लभसरो रचयांचक्रे । [२६] *तस्य भ्रातृसुतः श्रीमान् भीमाख्यः पृथिवीपतिः । विष्टपत्रितयाभीष्टप्रवृत्तिप्रतिभूरभूत् ॥ 10 __ (अत्र A. आदर्शानुसारी मुद्रितपुस्तकस्थः कालक्रमसूचकोऽयं पाठ एतादृशः-) [अथ सं० १५० (१ १०५२) श्रावणसुदि ११ शुक्रे पुष्यनक्षत्रे वृषलग्ने श्रीचामुण्डराजो राज्ये उपाविशत् । ___ अनेन श्रीपत्तने चन्दनाथदेव-चाचिणेश्वरदेवप्रासादौ कारितौ। सं० ५५ (१ १०६५ ) अश्विनिशुदि ५ सोमे निरुद्धं वर्ष १३, मास १, दिन २४ राज्यं कृतं । 15 सं० १०५५ (१ १०६५ ) अश्विनशुदि ६ भौमे ज्येष्ठानक्षत्रे मिथुनलग्ने श्रीवल्लभराजदेवो राज्ये उपविष्टः । अस्य राज्ञो मालवकदेशे धाराप्राकारं वेष्टयित्वा शीलीरोगेण विपत्तिः सञ्जाता । अस्य 'राजमदनशंकर' इति तथा 'जगझंपण' इति विरुदद्वयं संजातम् । सं० १० ( १ १०६६) चैत्रशुदि ५ निरुद्धं मास ५, दिन २९ अनेन राज्ञा राज्यं कृतम् । सं० १५५(१०६६१) चैत्रशुदि ६ गुरौ, उत्तराषाढनक्षत्रे मकरलग्ने तभ्राता दुर्लभराजनामा राज्येऽभिषिक्तः। 20 अनेन श्रीपत्तने सप्तभूमिधवलगृहकरणं व्ययकरणहस्तिशालाघटिकागृहसहितं कारितम् । स्वभ्रातृवल्लभराजश्रेयसे मदनशङ्करप्रासादः कारितस्तथा दुर्लभसरः कारयांचक्रे । एवं १२ वर्ष राज्यं कृतं । ] ३३) तदनु [AD प्रतौ-सं० १०५ (१०७८) ज्येष्ठसुदि १२ भौमे अश्विनीनक्षत्रे मकरलग्नेएतावानधिकः पाठः ] श्रीभीमाभिधानं निजमङ्गजं राज्येऽभिषिच्य स्वयं तीर्थोपासनवासनया वाणा रसीं प्रति प्रतिष्ठासुर्मालवकमण्डलं प्राप्यं तन्महाराजश्रीमुझेन 'छत्रचामरादिराजचिह्नानि विमुच्य 25 कार्पटिकवेषेणैव पुरतो व्रज, यद्वा युद्धं विधेहि'-इत्यभिहितोऽन्तरा धर्मान्तरायमुदितमवगम्य तं वृत्तान्तं नितान्तं श्रीभीमराजायं समादिश्य कार्पटिकवेषेण तीर्थे गत्वा परलोकं साधयामास । ३४) ततः प्रभृति मालविकराजभिः सह गूर्जरनृपतीनां मूलविरोधबन्धः संवृत्तः॥१३॥ 1P चामुण्डेन। * तारकचिह्नाङ्कितानीमानि पद्यानि केवलं P प्रतौ प्राप्यन्ते। 2 AD मा(भ्रा?)तुः सुतं । 3 P भासाथ। 4 AD बजेति। 5A भीमराजे। 6P तीर्थ। 7 BP मालवराज्ञा। 8AD विरोधः P विरोधबन्धः प्रवृत्तः। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] मुञ्जराजप्रबन्धः । [ ६. मुञ्जराजप्रबन्धः । ] O ३५) अथ प्रस्तावायातं मालवकमण्डलमण्डन श्रीमुञ्जराज चरितमेवम् - पुरा तस्मिन्मण्डले' श्रीपरमारवंश्यः श्रीसिंह भटनामा नृपती राजपाटिकायां परिभ्रमन् शरवणमध्ये जातमात्रमति- . मात्ररूपपात्रं कमपि बालमालोक्य पुत्रवात्सल्यादुपादाय देव्यै समर्पयामास । तस्य सान्वयं मुञ्ज इति नाम निर्ममे । तदनु सीन्धले इति नाम्ना सुतः समजनि । निःशेषरांजगुणपुञ्जमञ्जुलस्य 5 "श्रीमुञ्जस्य राज्याभिषेकचिकीर्नृपस्तत्सौधमलङ्कुर्वन्नमन्दमन्दाक्षतया निजवधूं वेत्रासनान्तरितां विधाय प्रणाम पूर्व भूपतिमारराध । राज तं प्रदेशं विजनमवलोक्य तज्जन्मवृत्तान्तमादित एव तस्मै निवेद्य 'त भक्त्या परितोषितः सन् सुतं विहाय तुभ्यं राज्यं प्रयच्छामी' ति वदन्; 'परमनेन सीन्धलनाम्ना बान्धवेन समं प्रीत्या वर्त्तितव्यमित्यनुशास्तिं दत्त्वा तस्याभिषेकं चकार । जन्मवृत्तान्तप्रसरशङ्किना तेन खदयिताऽपि निजघ्ने । तदनु पराक्रमाक्रान्तभूतलः समस्तविर्द्वज्जनचक्र - 10 वर्ती रुद्रादित्यनाम्ना महामात्येन चिन्तितराज्यभारः, तं सीन्धलनामानं भ्रातरमुत्कटतयाऽऽज्ञाभङ्गकारिणं स्वदेशान्निर्वास्य सुचिरं राज्यं चकार । २१ ३६) स सीन्धलो गूर्जरदेशे समागत्य [अर्बुदतलहट्टिकायां] काशहदनगरसन्निधौ निजां पल्ल निवेश्य दीपोत्सवरात्रौ मृगयां कर्तुं प्रयातः । चौरवध्यै भूमेः सन्निधौ शूकरं चरन्तमालोक्य, शूलिकायाः पतितं चौरशबमजानन्, जानुनाधो विधाय यावत्प्रतिकिरिं" शरं सज्जीकुरुते तावत्तेन शबेन 15 सङ्केतितः । ततस्तं करस्पर्शानिवार्य, शूकरं तं शरेण विदार्य, यावदाकर्षति तावत्स शो 'हासपूर्वमुत्तिष्ठन् सीन्धलेन प्रोचे- 'तव सङ्केतकाले शूकरे शरप्रहारः श्रेयान् किं वाऽवबुध्य मत्प्रदत्तः प्रहारः ?' इति तद्वाक्यान्ते से छिद्रान्वेषी प्रेतः तन्निःसीमसाहसेन परितुष्टो वरं वृणु । इत्यभिहितः, 'मम बाणः क्षितौ मा पतत्वि' ति याचिते, भूयोऽपि 'वरं वृणु' इति श्रुत्वा, 'मद्भुजयोः सर्वापि लक्ष्मीः खाधीने 'ति । तत्साहसचमत्कृतः स प्रेत इत्याह- 'त्वया मालवमण्डले गन्तव्यमिति 120 तत्र श्रीमुञ्जराजा सन्निहितविनाशस्तत्रं त्वया स्थातव्यम् । तत्र तवान्वये राज्यं भविष्यती 'ति तत्प्रेषितस्तत्र गत्वा श्रीमुञ्जराज्ञः सम्पदः पदं कमपि जनपद्मवाप्य पुनरुत्कटतया [ * प्रववृते । अन्यदा तैलिकात् पाराचिर्याचिता । तेन नार्पिता । ततः कोपादुद्दाल्य तत्कण्ठे झालयित्वा क्षिप्ता । तैलिकेन रावा कृता । राजा पुनः सरलामकारयत् । बलोत्कटत्वेन भीतो मुञ्जनृपः । इतश्च केsपि मर्दनकारिणो महाकला 1 Pa •एव व्याख्यास्यामः । 2 Pb मालवमण्डले । 3D सिंहदन्तभट०; BP श्रीहर्षनामा । 4 A रूपमात्रं; B रूपपात्रमतिमात्रं । 5 Pa बालकमवलोक्य । 6 Pb अपुत्रत्वेन पुत्रवा० । 7 A चान्वयं । +P प्रतौ 'सा स्वयं तस्य मुख इति नाम विदधे' एतादृशं वाक्यम् । 8 B सींधुल; P सिन्धुराज । 9AD 'राज' नास्ति । 10 AD •मञ्जुलमुञ्जस्य । 11 Pb चिकीर्षु० । 12 BP नृपति० । 13 Pa राजानं तं । 14 BP •मालोक्य । 15 BP भवद्भक्त्या । 16 BP यच्छामि। 17 B Pa तस्य स्वज० | 18 D सज्जन० । 19 AD • राज्यः । इतोऽग्रे D पुस्तके एतादृश्यधिका पङ्क्तिरुपलभ्यते 'चिरं सुखमनुभवन् कस्यामपि योषित्यनुरक्तश्चिक्खिल्लाभिधकरभमधिरुह्य द्वादशयोजनीं निशि प्रयाति प्रत्यायाति च । तया समं विश्लेषे जाते इमं दोधकममैषीत् - (२३) *मुअ पडल्ला दोरडी पेक्खिसि न गमारि । असाढि घण गज्जीइं चिक्खिलि होसेऽबारि ॥१ 20 B सिन्धुराजनामानं । 21 केवलं Pb प्रतौ इदं पदं दृश्यते । 22 AD दीपोत्सवे । 23 AD वध | 24 Pb शूकरं प्रति । 25 B दृढहास० । 26 D महाप्रदत्तः । 27 Pa तस्य स । एतद्विदण्डान्तर्गत पाठस्थाने Pb प्रतौ 'अट्टहासं कृत्वोत्पपात, अभी तुष्टः प्रेतो वरं वृणु' एतावान् एव संक्षिप्तः पाठो लभ्यते । 28 AD • विनाशस्तथापि तत्र त्वया गन्तव्यमेव । कान्तर्गताः पङ्क्तयः केवलं Pb प्रतौ लिखिता लभ्यन्ते । * एतत्कोष्ठ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्रबन्धचिन्तामणिः । [प्रथमः वन्तो देशान्तरादागता राज्ञो मिलिताः । तत्पार्थात्स्वाङ्गे मर्दनान् दापयति । ते च खकलया हस्तपादाद्यङ्गान्युत्तार्य पुनः सज्जीकुर्वन्ति । एवं द्विस्त्रिः कारितम् । हृष्टो राजा सीन्धलस्याप्येवं कारयति । तस्याङ्गेधूत्तारितेषु निश्चेष्टतां गतस्य नेत्रोद्धारं चकार । सञ्जस्य तस्य नेत्रहरणे कः शक्तः । अतोऽनेन प्रकारेण ] श्रीमुझेन निगृहीतनेत्रः काष्ठपञ्जरनियनितो भोजं सुतमजीजनत् । सोऽभ्यस्तसमस्तशास्त्रः षट्त्रिंशद्दण्डायुधान्य5धीत्य द्वासप्ततिकलाकूपारपारङ्गमः समस्तलक्षणलक्षितो ववृधे । तजन्मनि जातकविदा केनापि नैमित्तिकेन जातकं समर्पितम् । ___३४. पञ्चाशत्पश्च वर्षाणि मासाः “सप्त दिनत्रयम् । भोक्तव्यं भोजराजेन सगौडं दक्षिणापथम् ॥ इति श्लोकार्थमवगम्यास्मिन्सति मत्सूनो राज्यं न भविष्यतीत्याशङ्कयान्त्यजेभ्यो वधाय तं समर्पयामास । अथ तैर्निशीथे माधुर्यधुर्यां तन्मूर्तिमवलोक्य जातानुकम्पैः सकम्पैश्चेष्टदैवतं 10 स्मरेत्यभिहिते ३५. मान्धाता स महीपतिः कृतयुगालङ्कारभूतो गतः सेतुर्येन महोदधौ विरचितः कासौ दशास्यान्तकः । __ अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो यावद्भवान् भूपते नैकेनापि समं गता वसुमती मैन्ये त्वया यास्यति ॥ इदं काव्यं पत्रके आलिख्य तत्करेण नृपतये समर्पयामास। नृपतिस्तदर्शनात्खेदमेदुरमना अश्रूणि मुश्चन् भ्रूणहत्याकारिणं खं निनिन्द ।। 15 [२७] [*हा हा सल्लइ हियए कवं तुह भोज भणिय जं मरणे । मुह पाव दुट्ट दोहगनिठामठामस्स तउं सरणे ॥ . [२८] इणि राजिई न हु काजु भोज गुणागर तूह विणु । काठ दिवारउ आज जिम जाई भोजह मिलूं ॥ ततो मंत्रिप्रबोधवाक्यं राज्ञः[२९] सामिय अतिहिं अजाणु जं इण परि बोलई हिव । जाण्या एहु प्रमाणु कीधउं जं न कयत्थियइ ।। इति राज्ञा भूयो भूयो विलप्यमानेन] 20 ३७) अथ तैस्तं सबहुमानमानीय युवराजपदवीदानपूर्व संम्मान्य तिलङ्गदेशीयराज्ञा श्रीतैलिप. देवनान्ना सैन्यप्रेषणैराक्रान्तो रोगग्रस्तेन रुद्रादित्यनाम्ना महामात्येन निषिद्ध्यमानोऽपि तं प्रति प्रतिष्ठासुः, [*मंत्रिणा उक्तम् [३०] देव अम्हारी सीष कीजइ अवगणिअइ नही । तूं चालंती भीष इणि मंत्रिहिं हुस्सइ सही ॥ 25 [३१] रुलीयउं रायह राजु तई बइठइ मई लंघीयइ । ए पुणि वडउं अकाजु तूं जाणे मालव धणी ॥ [३२] सामी मुहतउ वीनवइ ए छेहलउ जुहारु । अम्ह आइसु हिव सीसि तुह पडतउं देखू छारु ॥ -इति मंत्रिणा निषिद्धोऽपि ससैन्यश्चचाल ।] गोदावरी सरितमवधीकृत्य तामुल्लङ्घय प्रयाणकं न कार्यमिति शपथदानपूर्व व्याषिद्धोऽपि" तं पुरा षोढा निर्जितमित्यवज्ञया पश्यन्नतिरेकवशात्तां सरितमुत्तीर्य स्कन्धावारं निवेशयामास । 30 रुद्रादित्यो नृपतेस्तद्वृत्तान्तमवगम्य कामपि भाविनीमविनीततयों विपदं विमृश्य स्वयं चितानले . 1 ADPa समस्तराजशास्त्रः। 2 ADP 'दण्ड' नास्ति । 3 A ताजिकविदा। 4 BP सप्तमासाः; Pa. सप्तमासः । 5 PPa भोजदेवेन भोक्तव्यं । 6 PPa मवधार्य । 7 AD •मवधार्य। 8 BP भिहितः। 9 Doन्तकृत् । 10 Db सर्वेऽपि चास्तं गताः। 11 Db मुज। * कोष्ठकान्तर्गताः पश्यः केवलं Pa प्रतौ लभ्यन्ते । 12 Pb स्थापिते। 13 AP ब्याषिध्य; Pa निषिध्य; B व्याषिधि। 14 P निवेश्य स्थितः। 15 B तं नृपतेर्वृ०; P तं नृपस्य वृ०; AD नृपतेर्नु । 16 PPa oमाकर्ण्य । 17 P भाविनी विपदं विमृश्य नृपस्याविनीततया चितानले । Jain Education Interational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] । मुञ्जराजप्रबन्धः। प्रविवेश। अथ तैलिपेने तत्सैन्यं छलबलाभ्यां हतविप्रहतं कृत्वा मुञ्जरज्वा विवध्य श्रीमुञ्जराजो जगृहे । कारागृहे निहितः । काष्टपञ्जरनियन्त्रितो मृणालवत्या तद्भगिन्या परिचार्यमाणस्तया सह जातकलत्रसम्बन्धः, पाश्चात्यैर्निजप्रधानैः सुरङ्गादानपूर्व तत्र ज्ञापितसङ्केतः, कदाचिद्दर्पणे स्वं प्रतिबिम्बं पश्यन्नज्ञातवृत्त्या पृष्ठतः समागताया मृणालवत्या वदनप्रतिबिम्बं जराजजेरं मुकुरे निरीक्ष्य यूनः श्रीमुञ्जस्य वदनसामीप्यात्तद्विशेषविच्छायतया तां विषण्णामालोक्यैवमवादीत्- 5 ३६. मुञ्जु भणइ मुणालवइ जुव्वर्ण गयउँ न झूरि । जइ सक्कर सयखण्ड थिय तोइ स मीठी चूरि"॥ इति तां सम्भाष्य स्वस्थानं प्रति यियासुस्तद्विरहासहो भयात्तं वृत्तान्तं ज्ञापयितुमशक्तो भूयो भूयः प्रोच्यमानोऽपि तां चिन्तामनुचरन, अलवणातिलवणरसवती भोजितोऽपि तदास्वादानवबोधात्तया निर्बन्धबन्धुरया गिरा सप्रणयं पृष्टः प्राह-'अहमनया सुरङ्गया स्वस्थाने गन्तास्मीति । चेद्भवती तत्र समुपैति तदा महादेवीपदेऽभिषिच्य प्रसादफलं दर्शयामी"त्यभिहिते, 'यावदा-10 भरणकरण्डिकामुपानयामि तावत्क्षणं प्रतीक्षखे'त्यभिदधानाऽसौ कात्यायिनी 'तत्र गतो मां परिहरिष्यतीति विमृशन्ती स्वभ्रातुर्भूपतेस्तं वृत्तान्तं निवेद्य, विशेषतो विडम्बनाय बन्धनबद्धं कारयित्वा प्रतिदिनं भिक्षाटनं कारयामास । स प्रतिगृहं परिभ्रमन्निर्वेदमेरतयेमानि वाक्यानि पपाठ । तथाहि - ___ ३७. *सउ चित्तह सट्ठी मणह बत्तीसँडा हियाह । अम्मी ते नर ढड्ढसी जे वीससई तियांह ॥ 15 अपि च - ३८. झोली" तुट्टवि किं न मूउँ कि हूउ न छारह पुछु । 'हिण्डइ दोरी दोरियउँ जिम मकडे तिम मुजु ॥ तिदा प्रोक्तं सद्भिर्नरै: [३३] चित्ति विसाउ न चिंतीयइ रयणायर गुणपुञ्ज । जिम जिम वायइ विहि पडहु तिम नचिजइ मुञ्ज ॥ ततः केनापि दयार्द्रचेतसा सता कथितम् 20 __ [३४] सायरु पा(खा)इ लंक गहु गढवइ दस शिरु राउ । भग्ग ष(ख)इ सो भजि गउ मुंज म करसि विसाउ ॥ तथा च ३९. गय* गय रह गय तुरय गय पायक्कडानि मिच्च । सग्गट्ठिय करि मन्तणउं मुहुंता" रुदाइच ॥ __ अथान्यस्मिन्वासरे कस्यापि गृहपतेहे भिक्षानिमित्तं नीतः । पडुकरूपाणिं तत्पनी तक्रं पाययित्वा गर्वोद्धरकन्धरां भिक्षादाननिषेधं विद्धतीं मुञ्जः प्राह 25 1 Pa तैलिपदेवेन। 2 Pa नास्ति । 3 Pb दृढमुञ्ज । 4 Pa विजगृहे। 5 P कारागारे काष्ठपञ्जरे क्षिप्तः । कमलादित्यमंत्रिणा मोचितः। काष्ठापवरकमध्ये रक्ष्यमाणो मृणालवत्याः। 6 PD मुञ्ज; B पभणइ मुहूं। 7 P मिणाल०; Pa मणाल। 8 DP जुब्वण । 9 A गयुं मन D गयुं न; P गिडं म। 10 P किय; Pb हुइ। 11 Pb भूरि । 12 AD ज्ञापितु। 13 Pa लवणां। 14 Pa दर्शयामि इति तावत्क्षण; Pb दर्शयामीति तावत् क्षणं प्रतीक्षस्वेत्यभिदधाना भाभरणकरण्डिकामुपानयामि असौ तत्र। 15 PPa ऽसौ तत्र गतो मां कात्यायिनी परि०। 16 ABD प्रतिगृहं। 17 Pb मेदुरचेतस्कतया। 18 A. विना नास्त्यन्यत्र। * D पुस्तके- सउचित्तहरिसट्ठी मम्मणह बत्तीसडीहियां । हिअम्मि ते नर दवसीझे जे वीससई थियां।' एतादृशीयं भ्रष्टपाठा गाथा। 19 B बत्तीसडी; Pa पंचासडी। 20 A हियाह; B हियाई। 21 Pa रुच्चई। 22 P ढाढसी। 23 Pa त्रियांह; Da जे पत्तिजइ तांह। 24 AD नास्ति । 25 D झाली। 26 A त्रुट्टी; B तुट्टी; P त्रुवि; Pa छुवि । 27 A मुय; Pa मूयड। 28 A किं न हूय; B हूय किम हज; Pa न हूयउ। 29 AD पुञ्ज। + Pa प्रतौ 'घरि घरि बद्धड भामीयइ' एतादृशः पादः। 30 P दोरिउ; D बन्धीयउ। 31 B मक्कडु; PD मंकड । 32 DP मुज। एतचिह्नांकितानि पद्यानि पङ्कयोश्च केवलं Pa प्रतौ प्राप्यन्ते। 33 P नास्ति। 34 Bहय। 35 Pa हिउ। 36 B महता, Pa महंता; Pb ठकुर। 37 Pa भिक्षार्थ। 33 मणाल०; Pa L किय; Pb ह इति तावरक्षणं; P ना 15 PPa Sad Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [प्रथमः ४०. *भोली मुन्धि म गव्वु करि पिक्खिवि पडरूयाई । चउदह' सइं छहुत्तरई मुञ्जह गयह गयाई ॥ {सा इत्थमुत्तरं ददौ[३५] च्यारि बइल्ला धेनु दुइ मिट्ठा बुल्ली नारि । काहुं मुंज कुडंबियाह गयवर बज्झई बारि ॥ पुनर्भ्राम्यमाणेन मुंजेन वाप्यामुपविष्टेन राज्ञा वितर्कितेन सता प्रोक्तम्5 [३६] "आपद्गतं हससि किं द्रविणान्ध मूढ लक्ष्मीः स्थिरा न भवतीति किमत्र चित्रम् । त्वं किं न पश्यसि घटीर्जलयत्रचक्रे रिक्ता भवन्ति भरिताः पुनरेव रिक्ताः ।। तथा पृष्ठे लग्नैः पुरुषैविडम्ब्यमान इत्यूचे[३७] 'जे थक्का गोला नई हूं बलि की ताह । मुंज न दिवउ विहलिउ रिद्धि न दिट्ठ खलाहं ॥ "पुनः खं मन्दबुद्धित्वं सरन् इत्युक्तवान्- . 10 [३८] 'दासिहि नेह न होइ नाना निरहि जाणीयइ । राउ मुंजेसरु जोइ घरि घरि भिक्खु भमाडीइ ॥ अपि च[३९] वेसा छंडि वडायती जे दासिहि रच्चंति । ते नर मुंजनरिन्द जिम परिभव घणा सहति ॥ [४०] मा मङ्कड कुरूद्वेगं यदहं खण्डितोऽनया । रामरावणमुञ्जाद्याः स्त्रीमिः के के न खण्डिताः ॥ [४१] रे रे यत्रक मा रोदीर्यदहं भ्रामितोऽनया । कटाक्षाक्षेपमात्रेण कराकृष्टौ च का कथा ॥ 15 [४२] जा मति पच्छइ सम्पजइ सा मति पहिली होइ । मुञ्ज भणइ मुणालवइ विधन न वेढइ कोइ || [४३] सुहृद्देवेन्द्रस्य ऋतुपुरुषतेजोशजनकः प्रमीतः शय्यायां सुतविरहदुःखाद्दशरथः।। ___ ज्वलत्तैलद्रोण्यां निहितवपुषस्तस्य नृपतेश्चिरात्संस्कारोऽभूदहह विषमाः कर्मगतयः ॥ [४४] अलङ्कारः शङ्काकरनरकपालं परिजनो विशीर्णाङ्गो भृङ्गी वसु च वृष एको बहुवयाः। अवस्थेयं स्थाणोरपि भवति सर्वामरगुरोर्विधौ वके मूर्ध्नि स्थितवति वयं के पुनरमी ॥ } 20 इत्थं सुचिरं भिक्षां भ्रामयित्वा वध्यभूमौ नृपादेशादधविधौ नीतः {सन् परिधानवस्त्रं गृहीतः । तदोचे[४५] इयं कटी मत्तगजेन्द्रगामिनी विचित्रसिंहासनसंस्थिता सदा । __ अनेकरामाजघनेषु लालिता विधेर्वशानिर्वसनीकृताऽधुना ॥ तदनु मुजेन पृष्टं कया मारणविडम्बनया मां मारयिष्यथ । वृक्षशाखावलम्बनात् । तदोवाच25 [४६] क तरुरेष महावनमध्यगः क च वयं जगतीपतिसूनवः । __ अघटमानविधानपटीयसो दुरवबोधमहो चरितं विधेः॥} * P धणवन्ती मा गच्च वहिसि; Pa मा गोलिणि गवु वहिसि। 1 AD चउदसई। 2A छहत्तरइं; P बहुत्तरह । It एतत् कोष्ठकान्तर्गतः एषः सर्वोपि पाठः AB प्रतौ न विद्यते । D, P, Pa, Pb आदर्शेषु भिन्नभिन्नक्रमेण न्यूनाधिकरूपेण च एतत्पाठगतानि पद्यानि समुपलभ्यन्ते। 3 Pa अथ तया प्रोक्तम् । +D पुस्तके नास्तीदं पद्यम् । 4 Pa मीठा बोली। 5 Pa काहउं । 6 Pa कुणंबिया। 7 Pa बजइ। ! एतचिह्नाङ्कितानि एतानि पद्यानि वाक्यानि च Pa आदर्श एवोपलभ्यन्ते । $ इमो द्वौ श्लोको D पुस्तके लभ्येते; Pb प्रतौ अनयोः स्थाने एतादृश एक एव श्लोकः रे रे मण्डक मा रोदीर्यदहं खण्डितोऽनया । रामरावणभीमाद्या योषिद्भिः के न खण्डिताः ॥ एतचिह्नांकितानि पद्यानि Pa प्रतौ नोपलभ्यन्ते। ||D पुस्तके एतत्पद्याने 'यशापुञ्जो मुओ.' एतत्पद्यं लिखितं लभ्यते, तच P आदर्शानुसारेण प्रकरणान्ते स्थितं, तत्रैव सम्बद्धं प्रतिभाति । + इतोऽग्रे D पुस्तके 'आपद्गतं हससि किं.' एतत्पद्यं प्राप्यते, तष Pa आदर्शानुसारेणेतः पूर्वमेवागतमस्ति । - इतोऽग्रे D पुस्तके 'सायरखाइ लंकगढ०' इदं पद्यं विद्यते, तञ्च Pa आदर्शानुसारेणोपर्यागतम्। {x एष पाठः केवलं Pa प्रतौ प्राप्यते । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] भोज-भीमप्रबन्धः। तैरिष्टं दैवतं स्मर इत्यभिहितः प्राह ४१. लक्ष्मीर्यास्यति गोविन्दे वीरश्रीर्वीरवेश्मनि । गते मुझे यशःपुजे निरालम्बा सरस्वती ॥ इत्यादि तद्वाक्यानि 'बहूनि यथाश्रुतमवगन्तव्यानि । तदनु तं मुझं निहत्य तच्छिरो राजाङ्गणे शूलिकाप्रोतं कृत्वा नित्यं दधिविलिप्तं कारयन्निजममर्षे पुपोष। - ४२. यशःपुञ्जो मुञ्जो गजपतिरवन्तिक्षितिपतिः सरस्वत्याः सूनुः समजनि पुरा यः कृतिरिति । __स कर्णाटेशेन खसचिवकुबुद्ध्यैव विधृतः कृतः शूलीप्रोतोऽस्त्यहह विषमाः कर्मगतयः॥ ३८) "अथ मालवमण्डले तद्भुत्तान्तवेदिभिः सचिवस्तभ्रातृव्यो भोजनामा राज्येऽभ्यषिच्यत। ॥ इति श्रीमेरुतुङ्गाचार्यविरचिते प्रवन्धचिन्तामणौ नृपश्रीविक्रमादित्यप्रमुखमहासात्त्विकपरोपकारादि गुणरत्नालङ्कृतनृपतिचरितवर्णनो नाम प्रथमः प्रकाशः ॥ ग्रंथाग्र ४०४ ॥ 0 [७. अथ भोज-भीमप्रबन्धः ।] ___३९) अथ [संवत् १०७८ वर्षे] यदा मालवकमण्डले श्रीभोजराजा राज्यं चकार तदाऽत्र गूर्जरधरित्र्यां चौलुक्यचक्रवर्ती श्रीभीमः पृथिवीं शशास । कस्मिन्नपि निशाशेषे स श्रीभोजः श्रियश्चञ्चलतां निजचेतसि चिन्तयन् कल्लोललोलं निजं जीवितं च विमृशन् प्रातःकृत्यानन्तरं दानमण्डपेऽनुचरैराहूतेभ्योऽर्थिभ्यो यदृच्छया सुवर्णटङ्ककान् दातुमारेभे। ४०) अथ रोहकाभिधानस्तन्महामात्यः कोशविनाशात्तदौदार्यगुणं दोषं मन्यमानोऽपरथा तं 15 दानविधि निषेद्धुमक्षमः सर्वावसरे भग्ने सभामण्डपभारपट्टे ४३. *'आपदर्थे धनं रक्षेत्' इत्यक्षराणि खटिकयाऽलेखि" । प्रातर्यथावसरं नृपतिस्तान्वर्णान्निर्वर्ण्य समस्तपरिजने तं व्यतिकरमपहुवाने 'भाग्यभाजः क्व चापदः' इति नृपतिना लिखिते, 'दैवं हि कुप्यते कापि' एवं मन्निलिखनादनन्तरं नृपतिनों तद्विलोक्य 'संश्चितोऽपि विनश्यति ॥ इति पुरो लिखिते स सचिवोऽभयं याचित्वा स्वलिखितं विपियामास । तदनु "इयं पण्डितानां पश्च-20 शती मम मनोगजं ज्ञानाङ्कुशेन वशीकर्तुममात्रं महामात्रसन्निभा यथा याचितं ग्रासं लभते । तथा हि,-कङ्कणोत्कीर्णमार्याचतुष्टयमेतत् ___ 1 AD तैरक्तमिष्टं। 2 D नास्ति; A स मुञ्जः; Pa इत्यभिहिते। 3 Pa मन्दिरे। 4 D 'बहूनि' नास्ति; P 'तद्वाक्यानि बहूनि' स्थाने 'तत्सूक्तानि'। TPb प्रती इयं पंक्तिरेतादृशी लभ्यते-'ततो मालवे तद् विदित्वा तत्सचिवैस्तद्भातृन्यो भोजो राज्ये न्यस्तः।' 5 P Pa •चार्याविःकृते। 6 Pa oचूडामणौ। $ AD प्रतौ अस्याः पंक्त्याः स्थाने 'इति श्रीविक्रमप्रमुखनृपवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः। एतादृशी पंक्तिलभ्यते। 7 एतद् वाक्यमानं Pb प्रतौ उपलभ्यते । 8 A चौलक्य०। 9 D वंशीय । 10 P नास्ति; B मालवमहीपालो। 11 B राजश्रियः। 12 BP 'निज' नास्ति। 13 Pa स्वं । 14 Pa चिन्तयन् । 15 P हेमटं; Pa स्वर्णटं। 16 P Pa रोदिकाभिः। 17 Pb सेवावः। * Pa प्रतौ 'आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि । आस्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ॥' एष संपूर्णः श्लोको लिखितो लभ्यते। 18 BP लिलेख । 19 B परिजनेन Pa परिषजने। 20 B ०मपहवानेन । + एतत्पादस्थाने B 'श्रीमतां कुत आपदः'; P 'महतामापदः कुतः' एतादृशः पाठः । 21 BP कुप्यति। 22 P मत्रिणा लिखिते। 23 BP नृपेण। 24 ADP सञ्चयोपि। 25 BP Pa स्वं लेखकं । 26 BP ज्ञापयामास । 27 AD 'इयं नास्ति। 28 P अमात्र; De-d अतिमात्रं; Pb मना अत्र । 29 AD महामात्य । 30 Pb चतुष्कमेतत् ; BP चतुष्टयमिदं; Pa चतुष्टयं च । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ 10 प्रबन्धचिन्तामणिः। [ द्वितीयः ४४. इदमन्तरमुपकृतये प्रकृतिचला यावदस्ति सम्पदियम् । विपदि नियतोदयायां पुनरुपकर्तुं कुतोऽवसरः ॥ ४५. निजकरनिकरसमृद्ध्या धवलय भुवनानि पार्वणशशाङ्क । सुचिरं हन्त न सहते हतविधिरिह सुस्थितं कमपि॥ ४६. अयमवसरः सरस्ते सलिलैरुपकर्त्तमर्थिनामनिशम् । इदमपि सुलभमम्भो भवति पुरा जलधराभ्युदये ॥ ४७. कतिपयदिवसस्थायी पूरो दूरोन्नतश्च भविता ते । तटिनीतटदुपातिनि पातकमेकं चिरस्थायि ॥ 5 ४८. किं च- यदनस्तमिते सूर्ये न दत्तं धनमर्थिनाम् । तद्धनं नैव जानामि प्रातः कस्य भविष्यति ॥ इतिखकृतं कण्ठाभरणीभूतं श्लोकमिष्टं मन्त्रमिव जपन्',मनिन्' प्रेतप्रायेण भवता कथं विप्रलभ्ये। ४१) अथान्यस्मिन्नवसरे राजा राजपाटिकायां सञ्चरन् सरित्तीरमुपागतः । तन्नीरमुल्लङ्घयागच्छन्तं दारिद्योपद्रुतं काष्ठभारवाहकं कमपि विप्रं प्राह ४९. 'कियन्मानं जलं ? विप्र' 'जानुदप्नं नराधिप!' । इति तेनोक्ते ___'कथं सेयमवस्था ते?' इति नृपेण 'पुनरुक्ते 'न सर्वत्र भवादृशाः॥" इति तद्वाक्यान्ते यत् पारितोषिकं नृपतिरस्मै अदापयत् तन्मन्त्री धर्मवहिकायां श्लोकबद्धं लिलेख । तद्यर्थी ५०. लक्षं लक्षं पुनर्लक्षं मत्ताश्च दश दन्तिनः । दत्तं भोजेन" तुष्टेन जानुदनप्रभाषिणे" ॥ ४२) अथान्यस्यां निशि निशीथसमयेऽकस्माद्विगतनिद्रो राजा राजानं गगनमण्डले नवोदित15 मालोक्य स्खसारस्वताम्भोधिप्रोन्मीलद्धेलानिभमिदं काव्या माह. ५१. यदेतच्चन्द्रान्तर्जलदलवलीलां प्रकुरुते" तदाचष्टे लोकः शशक इति नो मां प्रति तथा । इति राज्ञा भूयोभूयो निगद्यमाने कश्चिचौरो नृपसौधे खात्रपातपूर्व कोशभुवने प्रविश्य" प्रतिभा भरं निषेद्धुमक्षमः अहं विन्दुं मन्ये त्वदरिविरहाक्रान्ततरुणीकटाक्षोल्कापातव्रणशतकलङ्काङ्किततनुम् ॥ 20 इति तत्पठनानन्तरं चौरमगरक्षैः कारागारे निवेशयामास । ततोऽहर्मुखे सभामुपनीताय तस्मै चौराय यत्पारितोषिकं राज्ञा प्रसादीकृतं तद्धर्मवहिकानियुक्तो नियोग्येवं काव्यमलिखत्५२. अमुष्मै चौराय प्रतिनिहितमृत्युप्रतिभिये प्रभुः प्रीतः प्रादादुपरितनपादद्वयकृते । सुवर्णानां कोटीर्दश दशनकोटिक्षतगिरीन् करीन्द्रानप्यष्टौ मदमुदितगुञ्जन्मधुलिहः ॥ ['पुनरन्यदा गवाक्षजालिकाप्रविष्टं चन्द्रं दृष्ट्वा प्राह . 1 AD .तोदितायां । 2 AD किमपि । 3 Pदूरोन्नतोपि; AD दुरोन्नतोपि चण्डरयः। 4A ' किंच' नास्ति । 5 AD Pb भरणीकृतं । 6 AD मिष्टमन्त्रवजपन् । 7P Pa नास्ति । 8A लभ्यः; D लम्भ्यः। 9D नृपेणोके विप्रः। द्विदण्डान्तर्गतपाठस्थाने Pb प्रतौ 'तद्वाक्यं चिन्तयन् पारितोषिके लक्षस्वर्णमदापयत् । तद् भाण्डागारिको नार्पयति । फेरकमेव कारयति । तदाज्ञा ज्ञाते प्रतिफेरकं लक्षं वर्द्धयति नृपः । वारद्वयफेरके लक्षत्रयं दश गजानदापयत् विप्राय तस्मै ।' एतादृशो विस्तृतः पाठः। 10 Pa यथा तत्; P नास्ति । 11 P Pb विनाऽन्यत्र 'देवेन'। 12 D प्रभाषणात्। 13 D अथान्यदा; B अथ निशायां। 14 AD वेल। 15 BP •मूचे। 16 Pa वितनुते। 17 Pb प्रविष्टः। 18 BP तत्पठितानन्तरं । 19 BD रक्षकैः। 20 Pb oमुपनीय। 21D तोषक। 22P काम्येनालिखत् ; Pb काव्यबद्धमः। 23 Pa भये। कोष्ठकान्तर्गतं वर्णनं Pb विनाऽन्यत्र नोपलभ्यते । Jain Education Interational Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] भोज-भीमप्रबन्धः । [ ४७ ] गवाक्षमार्गप्रविभक्तचन्द्रिको विराजते वक्षसि सुश्रु ते शशी । तदवसरे प्रविष्टेन चौरेणोक्तम् प्रदत्तझम्पः स्तनसङ्गवाञ्छया विदूरपातादिव खण्डशो गतः ॥ एतस्यापि तथैव दानं धर्मवहिकायां निवेशनं च । ] ४३) अंथ कदाचित्तस्यां वाच्यमानायां स्वमेव स्थूललक्षं मन्यमानो दर्पभूताभिभूतं इव ५३. तत्कृतं यन्न केनापि तद्दत्तं यन्न केनचित् । तत्साधितमसाध्यं यत्तेन चेतो न दूयते ॥ इति स्वं मुहुर्मुहुः श्लाघ्यमानः, केनापि पुरातनमन्त्रिणा तद्गर्वखर्वचिकीर्षया श्रीविक्रमर्कधर्मवहिका नृपायोपनिन्ये । तस्या उपरितनविभागे प्रथमतः प्रथमं काव्यमेतत् ५४. *वक्राम्भोजे सरस्वत्यधिवसति सदा शोण एवाधरस्ते बाहुः काकुत्स्थवीर्य स्मृतिकरणपटुर्दक्षिणस्ते समुद्रः । वाहिन्यः पार्श्वमेताः क्षणमपि भवतो नैव मुञ्चन्त्यभीक्ष्णं स्वच्छेऽन्तर्मानसेऽस्मिन्कथमवनिपते तेऽम्बुपानाभिलाषः ।। 10 + अस्य काव्यस्य पारितोषिके दानं यथा २७ ५५. अष्टौ हाटककोटयस्त्रिनवतिर्मुक्ताफलानां तुलाः पञ्चाशन्मदगन्धमत्तमधुपक्रोधोद्धुराः सिन्धुराः । अश्वानामयुतं प्रपञ्चचतुरं वाराङ्गनानां शतं दण्डे पाण्यंनृपेण ढौकितमिदं वैतालिकस्यार्पितम् ॥ इति तत्काव्यार्थमवगम्य तदौदार्यविनिर्जितगर्वसर्वस्वस्तां वहिकामर्चयित्वा यथास्थानं प्रस्थापयत् । ४४) प्रतीहारेण विज्ञप्तः - 'खामिन् ! देवदर्शनोत्सुकं सरखतीकुटुम्बं द्वारमध्यास्ते' | 'क्षिप्रं 15 प्रवेशये 'ति राजादेशादनु प्रथमप्रविष्टा' तत्प्रेष्या प्राह ५६. बापो विद्वान् बापपुत्रोऽपि विद्वान् आई विदुषी आईधुआपि विदुषी । . काणी चेटी सापि विदुषी वराकी राजन् " मन्ये विद्यपुत्रं कुटुम्बम् ॥ इति तस्याः " प्रहसनप्रायेण वचसा नृपतिरीषद्विहस्य तज्येष्ठपुरुषाय समस्यापदमाह - 'असारात्सारमुद्धरेत्' । ५७. दानं विचाद् ऋतं वाचः कीर्तिधर्मौ तथायुषः । परोपकरणं कायादसारात्सारमुद्धरेत् ॥ अथ” नृपतिस्तत्पुत्राय - 'हिमालयो नाम नगाधिराजः; मैंवालशय्याशरणं शरीरं ।' इति नृपतिवाक्यानन्तरम् - ५८. तव प्रतापज्वलनाजगाल हिमालयो नाम नगाधिराजः । चकार मेना विरहातुराङ्गी प्रवालशय्याशरणं शरीरम् ॥ इति समस्यायां पूरिताया" ज्येष्ठस्य पत्नीं प्रति राज्ञा " - "कवणु पियावउं खीरु' इति समस्यापदे समर्पिते" 1 BP इति । 2 Pa दर्पाभिभूत। 3 Pa विक्रमार्कस्य; A विक्रमार्कवहिका । * B आदर्श एतत्पद्यं नोपलभ्यते; AD आदर्श प्रथमं 'अष्टौ हाटक०' इदं पद्यं तदनन्तरं च एतत्पद्यं लिखितं लभ्यते । 1 केवलं P प्रतौ इयं पंक्तिर्लभ्यते; अस्याः स्थाने Pa प्रतौ 'एतत्तुष्टिदाने' इत्येव वाक्यं । 4 BP तारुण्योपचयप्रपञ्चितदृशां; Pa लावण्योपचयप्रपञ्चचतुरं । 5 BP पाण्डु० । 6BP तं; P नास्ति । 7 AD अस्था० । 8 A प्रथमं प्रविष्टस्ततः प्रेष्यः; D • प्रविष्टं तत्प्रेष्यः; P 'तत्प्रेष्या' स्थाने 'चेटी' । 9-10 D पुस्तके 'विदुषी' स्थाने 'विउषी' । 11 A राजन्मान्यं भोज (B 'भोज' स्थाने 'विद्धि) विद्वत्कुटुम्बं । 12 D तस्य । 15 Pb नास्ति । 16 AD राजा; P प्राह । एतादृशं वाक्यमिदम् । 13 Pa इति नृपः । 14 AD 'चकार मेना विरहातुराङ्गी' इति द्वितीयः पादः । 17 AD राज्ञाऽर्पिते; B राज्ञा सम०; P प्रतौ ' इति राजदत्ते समस्यापदे सा प्राह-' For Private Personal Use Only 5 20 25 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रबन्धचिन्तामणिः। [द्वितीयः ५९. जईयह' रावणु जाईयउ दहमुहु इक्कु सरीरु । जणणि वियम्भी चिन्तवइ कवणु पियावउं खीरु ॥ सेत्थं पूरयामास । अथ राज्ञा दासी प्रति-कण्ठि विलुल्लइ काउ' इति समस्यापदम् । ६०. कवणिहिं विरहकरालिअई उड्डाविउ" वराउ । सहि अच्चभुअ दि8 मई कण्ठि विलुल्लइ काउ ॥ सेत्थं पूरयामास । सुतां विस्मृत्य राज्ञा तानि सर्वाणि सत्कृत्य विसृष्टानि । 5 अथ राजा विसृष्टसर्वावसरश्चन्द्रशालाभुवि विधृतातपत्रः परिभ्रमन् द्वाःस्थेन विज्ञप्तसुता". वृत्तान्तो नृपः-उच्यतामिति तां प्रति प्राह । अथ सा "ऊचे६१. राजन् ! "मुञ्जकुलप्रदीप निखिलक्ष्मापालचूडामणे युक्तं सञ्चरणं तवात्र भवने" छत्रेण रात्रावपि । ___ मा भूत्त्वद्वदनावलोकनवशाद् व्रीडाविलक्षः शशी मा भूच्चेयमरुन्धती भगवती दुःशीलताभाजनम् ।। इति तद्वाक्यानन्तरं तत्सौन्दर्यचातुर्यापहृतचित्तस्तामुद्राह्य भोगिनीं चकार । 10 ४५) अथान्यदा यमलपत्रेषु सत्खपि सन्धिदूषणोत्पत्तये श्रीभोजराजा गूर्जरदेशविज्ञतां जिज्ञासुः सान्धिविग्रहिककरे कृत्वेमां गाथां श्रीभीमं प्रति प्राहिणोत् ६२. हेलानिद्दलियगइन्दकुम्भपयडियपयावपसरस्स । सीहस्से मएण समं न विग्गहो नेव सन्धाणं ॥ इति तदुत्तररूपां गाथां याचमानों' भीमः सर्वेषामपि महाकवीनां तदुत्तरहेतून विविधान गाथाबन्धान फल्गुवल्गितान् विचिन्तयन् [*आस्ते; तदा नगरान्तः श्रीजैनप्रासादे एकायां नृत्त15 सज्जापरायां स्तम्भमवष्टभ्य स्थितायां नर्तक्या मंत्रिणा तत्रोपविष्टशिष्यपात्स्तिम्भे व्यावर्णयिते शिष्यः प्राह[४८] यत्कङ्कणाभरणभूषितबाहुवल्लेः सङ्गात्कुरङ्गकदृशो नवयौवनायाः। न खिद्यसे न वलसे न च कम्पसे त्वं तत्सत्यमेव दृषदा परिनिर्मितोऽसि ॥ तत्वरूपे मन्त्रिणा राज्ञो विज्ञप्ते, राजा आचार्यानाहूय पप्रच्छ ।*] 20 ६३. अन्धयसुआण कालो भीमो पुहवीइ निम्मिओ विहिणा। जेण सयं पिन गणिका गणणा तुज्झ इक्कस्स। इति गोविन्दाचार्यविरचितां तां चेतश्चमत्कारकारिणीं गाथां तस्य प्रधानस्य करे प्रस्थाप्य सन्धिदूषणमपाहरत् । 1B जई ह; P Pa जईयइ। 2 P जाई। 3 AP • मुह । 4 A Pa शरीर । 5 P माइ। 6 B वियं भिय । 7 P नास्तीदं वाक्यं। 8 AD 'दासी प्रति' नास्ति; Pa 'राज्ञा' नास्ति; P 'अथ राज्ञा' स्थाने 'सुतां विस्मृत्य'। 9 P विलुल्लउ । 10 AD काणविहिं। 11 D पई उड्डावियउ। 12 P सहीय अचुन्भुय। 13 B दिए; P दिटुं। 14 AD सर्वावसरे। 15 AD परिभ्रमन् विद्यः। 16 AD विज्ञप्तः सुता०; Pa सुतावृत्तान्ते; Pb सुताविसर्जनवृत्तांतः। 17 ABD 'ऊचे' नास्ति; Pa सोचे। 18 AD Pa 'मुञ्ज' स्थाने 'भोज'। 19 AD भुवने; B Pa भवतः। 20 AD तस्सौन्दर्यापहृत०; B तदौदार्यचातुर्याप०। 21 Pb परिणीय। 22 AD सिंहस्स। 23 P अनोत्तररूपां। 24 D याच्यमानो; AB पव्यमानो; P विलोकयन् ; B पख्यमानानां। 25 D विना नास्ति। * कोष्ठकान्तर्गतः पाठः केवलं P प्रतौ प्राप्यते। 26 AD पुहवी भीमो य। 27 ABD चमत्कारिणीं। अत्र एतद्वर्णनाग्रे AD आदर्श निम्नोद्धृतं वर्णनं विद्यते परं BP आदर्शानुसारेणोपरिष्टात् किञ्चित्प्रकारान्तरेण प्राप्यते । 'कस्मिन्नप्यवसरे प्रतिहारनिवेदितः कोऽपि पुरुषः सभां प्रविश्य श्रीभोज प्रति ___अम्बा तुष्यति न मया न स्नुषया सापि नाम्बया न मया । अहमपि न तया न तया वद राजन्कस्य दोषोऽयम् ॥ इति तद्वाक्यानम्तरं तदाजन्मदारिद्यद्रोहि पारितोषिकं दापयामास ।' Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] भोज-भीमप्रबन्धः । २९ ४६) अथ कस्यामपि निशि हिमसमये वीरचर्यया' नृपतिः परिभ्रमन् कस्यापि देवकुलस्य पुरः कमपि पुरुषं ६४. * शान्तोऽग्निः स्फुटिताधरस्य धमतः क्षुत्क्षामकुक्षेर्मम शीतेनोद्धुषितस्य माषफलवच्चिन्तार्णवे मञ्जतः * । निद्रा काय मानितेव दयिता सन्त्यज्य दूरं गता सत्पात्रप्रतिपादितेव कमला न क्षीयते शर्वरी ॥ इति पठन्तं श्रुत्वा निशान्तमतिवाह्य तं प्रातराहूय पप्रच्छ- 'कथं भवता निशाशेषेऽत्यन्तशीतो- 5 पद्रवः सोढः ? । 'सत्पात्रप्रतिपादितेव कमले ति सङ्केतपूर्वमादिष्टः - 'खामिन्! मयात्र घनत्रिचेलीबलेन शीतमतिवाह्यते' । स इति विज्ञपयन्, 'का तव त्रिचेली' ति' भूयोऽभिहित' "इदमपाठीत्६५. रात्रौ जानुर्दिवा भानुः कृशानुः सन्ध्ययोर्द्वयोः । राजन् शीतं मया नीतं जानुभानुकृशानुभिः ॥ स इत्थं वदन् राज्ञा लक्षत्रयैदानेन परितोषितः । ६६. धारयित्वा त्वयात्मानमहो त्यागधना ऽधुना । मोचिता बलिकर्णाद्याः सच्चे तो गुप्तवेश्मनः ॥ इति ससारसारखतोद्गारपरैः, तत्पारितोषिकदानाक्षमेण राज्ञा " सोपरोधं निवारितः । ( अत्र Pb प्रतौ निम्नगतमधिकं वर्णनमुपलभ्यते - ) 10 [४९] शीतत्रा न पटी न चाग्निशकटी भूमौ च घृष्टा कटी निर्वाता न कुटी न तन्दुलपुटी तुष्टिर्न चैका घटी। वृत्तिर्नारभटी प्रिया न गुमटी तन्नाधमे संकटी श्रीमद्भोज तव प्रसादकरटी भक्तां ममापत्तटी | अत्र काव्यकर्त्रे ११ 'टी' कारप्रमितलक्षदानं भोजस्य ज्ञेयम् । कदाचित्कस्यापि विद्वत्कुलस्य वासार्थं गृहाणि विलोक्यमानानि सन्ति । तेष्वसत्सु 'तन्तुवायधीवरादीन् कर्षयन्तु'इति राज्ञा प्रोक्ते राजपुरुषास्तान् कर्षयन्ति यावत्तावत्तन्तुवायस्तानवस्थाप्य राजपार्श्वे गतः । 'देव ! कस्मान्मां कर्षयसी'ति तेनोक्ते, राजाह - 'त्वं काव्यं करोषि ?' ततः स [५० ] काव्यं करोमि न च चारुतरं करोमि, यत्तत्करोमि न च सिद्ध्यति किं करोमि । भूपालमौलिमणिलालितपादपीठ श्रीसाहसाङ्क कवयामि वयामि यामि ॥ धीवरवधूरपि मांसं करे कृत्वा राजान्तिके गताऽऽह [५१] देव त्वं जय कासि लुब्धकवधूर्हस्ते किमेतत् पलं क्षामं किं सहजं ब्रवीमि नृपते यद्यस्ति ते कौतुकम् । गायन्ति त्वदरिप्रियाश्रुतटिनीतीरेषु सिद्धाङ्गना गीतान्धा न चरन्ति देव हरिणास्तेनामिषं दुर्बलम् ॥ इत्युक्ति प्रत्युक्तिमयं काव्यद्वयं श्रुत्वा तान् नगरान्तः स्थापयामास । [ ५२] अश्वा वहन्ति भवनानि सतोरणानि गावश्चरन्ति कमलानि सकेसराणि । पीतं च यत्र दधि नास्ति तिलेषु तैलं प्रासादवारशिखरेषु मृगाश्चरन्ति || अन्यदा कश्चित्कोविदो मदोद्धुरोऽवज्ञया तन्नगरजनान् गेहेनर्द्दिन इव मन्यमानो वादार्थमाजगाम । पुराभ्यर्णे 25 कमपि वस्त्रधावनपरं पुरुषं प्रति प्राह - ' रे रे शाटकमलनिर्धाटक नगरे का का वार्ता ?' स प्राह ततः कामपि बालिकां प्रत्याह - ' का त्वम् ?' साह [ ५३ ] 1 Pa एकस्यां । 2 B • चर्यायां; A ० चर्यया निसृतः । * D Pa प्रथमद्वितीयपादौ व्यत्ययेन लिखितौ लभ्येते । 3 BP • प्यपमा० । 4 P आकर्ण्य | 5 Pb निभृन्निशाशेषमति० । 6 A ऽत्यन्तोपद्रवः; P निशायां शीतोपद्रवः । 7 AD • पूर्व समादिष्टं । 8 Pa वस्त्रत्रयीति । 9 Pb ऽभिहितवान् । 10 तत इदमपाठीत् । 11 P लक्षत्रयेण । त्यागाध्वना । 13 P● द्वारपरपरे: Pa 0 द्वारपरं । 14 Pa राजा लक्षत्रयदानेन । 12 D 15 20 मृतका यत्र जीवन्ति उच्छ्रसन्ति गतायुषः । स्वगोत्रे कलहो यत्र तस्याहं कुलबालिका ॥ 30 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [द्वितीयः तदर्थमनवबुध्यमानः, बालिका अपि यत्र एवंविधास्तत्र विद्वांसः कीदृशा भविष्यन्तीति विचार्य पश्चाद्गतः।] ४७) अथान्यस्मिन्नवसरे राजा राजपाटिकायांगजाधिरूढः पुरान्तरा सञ्चरन् कमपि रोरं भूमिपतितकणांश्चिन्वन्तमवलोक्य६७. नियउयरपूरणम्मि य असमत्था किं पि तेहिं जाएहिं । -इति तेनार्द्धकविना पूर्वार्द्ध प्रोक्ते; सुसमत्था वि हु न परोवयारिणो तेहि वि न किं पि ॥ ६८. *'ते हि वि न किंपि' भणिए भोजनरिन्देण दानसरेण । दिन्नं मायंगसयं एगा कोडी हिरण्णस्स ॥ इति तद्वचनान्ते; ६९. परपत्थणापवनं मा जणणि जणेसु एरिसं पुत्तं । -इति तद्वाक्यादनु मा उयरे वि धरिजसु पत्थणभङ्गो कओ जेहिं ॥ स" इति वदन् 'कस्त्वमिति राज्ञाभिहितो नगरप्रधानैः "भवद्विविधविद्वघटायामपरथा प्रवेशमलभमानोऽनेनैव प्रपञ्चेन खामिदर्शनचिकीरयं राजशेखरः' इति ज्ञापितः। तदुचितमहादानः प्रसादीकृते 15 [१४] 'उद्दामाम्बुदनादनृत्तशिखिनीकेकातिरेकाकुले सुप्रापं सलिलं स्थलेष्वपि तदा निस्तर्ष घागमे । भीष्मे ग्रीष्मभरे परस्परदरादालोकमानं दिशो दीनं मीनकुलं न पालयसि रे कासार का सारता ॥ ७०. मेकैः कोटरशायिभिर्मतमिव क्ष्मान्तर्गतं कच्छपैः पाठीनैः पृथुपङ्कपीठलुठनाद्यमिन्मुहुर्मूछितम् । ___ तस्मिन्नेव सरस्यकालजलदेनोन्नम्य तचेष्टितं येनाकुम्भनिममवन्यकरिणां यूथैः पयः पीयते ॥ -इत्यकालजलदराजशेखरोक्तिः। 20 ४८) अर्थ कस्मिन्नपि संवत्सरे अवृष्टिभावात्कणर्तृणानामप्राप्त्या दुःस्थे देशे स्थानपुरुषैर्भोजागमं ज्ञापितः श्रीभीमश्चिन्तां प्रपन्नो दौमरनामानं सन्धिविग्रहिकमादिशत्-'यत् किमपि दण्डं दत्त्वाऽस्मिन्वर्षे श्रीभोज इहागच्छन्निवारणीयः'। स इति तदादेशात्तत्र गतः। अत्यन्तविरूपतया" परिचितः। श्रीभोजेनेत्यभिदधे 1D 'अथ' नास्ति । 2 D गजारूढः। 3 P पूरणे वि। 4 Pa किं व; P तेहिं किं पि। 5 B वि हु जे। * D पुस्तके इयं गाथा नास्ति; B आदर्श पृष्ठस्याधोभागे केनापि पश्चाल्लिखिता दृश्यते । + Pa दिन्नं देवेण भोयराएण; Pb दानसूरेण भोजराएण; AB विकमराएण रायराएण-एतादृशाः पाठभेदाः। 6 Pa मत्तगयंदाण सयं । 7 DPaपवत्तं। 8 Pa जणेसि; A जिणेसु। 9 A ऊयरे वि मा धरि०; D मा पुहवि मा धरिः। 10 Pa-b जेण। 11 Pa इति स; Pb इत्थं । 12 Pb प्रधानपुरुषै। 13 Pb ततस्तदु०। अत्र Dd आदर्श एतत्कथनं किञ्चिद् भिन्नप्रकारेण लिखितमुपलभ्यते । यथा'राजशेखरः इति भाषिणे विप्राय हस्तिनीं ददौ । पुनः स विप्रः-"निर्वाता न कुटी न चाग्निशकटी." (इति समग्रं पद्यम्) इति श्रुत्वा तेनैकादशसहस्राणि दत्तानि । अथ राजशेखरनामा कविः सन्ध्यायां महाकालप्रासादे सुप्तः पठति । (४४) पोतानेतानय गुणवति ग्रीष्मकालावसानं यावत्तावच्छमय रुदतो येन केनाशनेन । पश्चादम्भोधररसपरीपाकमासाद्य तुम्बी कुष्माण्डी च प्रभवति यदा के वयं भूभुजः के॥ मसनेन राज्ञा सर्वस्वदानात्तोषितेन कविनोक्तम्-भेकै.' इत्यादि । T केवलं प्रतौ इदं पद्यं प्राप्यते। 14 ABD 'अथ' नास्ति । 15 Pa अवसरे। 16 D वृष्ट्यभावात् । 17P तृणकणाना। 18 P विना नास्त्यन्यत्र 'दुस्थे देशे। 19 D डामर । 20P संप्रतिवर्षे; Pa सांप्रतः। 21 AD अत्यन्तविरूपवान् परचित्तज्ञः, B.परिचितश्च । चोषितेन कविनोमासाद्य तुम्बी कुष्माण्डव रुदतो येन केनाशन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] भोज-भीमप्रबन्धः। ७१. यौष्माकाधिपसन्धिविग्रहपदे दूताः कियन्तो द्विज! त्वादृक्षा बहवोऽपि मालवपते ते सन्ति तंत्र विधा। प्रेष्यन्तेऽधममध्यमोत्तमगुणप्रेष्यानुरूपाः क्रमात्तेनान्तःसितमुत्तरं विदधता धाराधिपो रञ्जितः॥ इति तद्वचनचाँतुरीचमत्कृतोराजा गूर्जरदेशं प्रति प्रयाणपटह [*दापनं चक्रे । प्रयाणावसरे चन्दिनोक्तम्७२. चौः क्रोडं पयोधेर्विशति निवसते रन्ध्रमन्ध्रो गिरीन्द्रे" कर्णाटः पट्टबन्धं न भजति भजते गूर्जरो निर्झराणि । . चेदिलेलीयतेऽस्त्रैः क्षितिपतिसुभटः कन्यकुब्जोऽत्र कुब्जो भोज! त्वत्तत्रमात्रप्रसरभयभरव्याकुलो राजलोकः।। 5 ७३. कोणे कौङ्कणकः कपाटनिकटे लाटः कलिङ्गोऽङ्गणे त्वं रे कोशलनूतनो मम पिताप्यत्रोषितः स्थण्डिले । इत्थं यस्य विवर्द्धितो निशि मिथः प्रत्यर्थिनां संस्तरस्थानन्यासभवो' विरोधकलहः कारानिकेतक्षितौ ॥ प्रयाणकपटह*] दापनादनु समस्तराजविडम्बननाटकेभिनीयमाने सकोपः कोऽपि भूपः कारागारान्तरा पुरःस्थितं सुस्थितं तैलिपं" भूपमुत्थापयंस्तेनोचे-'अहमिहान्वयवासी कथमागन्तुकभवद्वचसा निजं पदमुज्झामी ति विहस्य" नृपों" दामरं प्रति नाटकरसावतारं प्रशंसंस्तेनाभिदधे- 10 'देव ! अतिशायिन्यपि रसावतारे धिर नटैस्य कथानायकवृत्तान्तानभिज्ञताम् । यतः श्रिीतैलिपदेवराजा शूलिकाप्रोतमुञ्जराजशिरसा प्रतीयत इति । तेन सभासमक्ष इति प्रोक्ते तन्निर्भर्सनसम्पन्नमन्युरनन्यसामान्यसामग्र्या तदैव तिलैंगदेशं प्रति प्रयाणमकरोत् ।। ४९) अथ तैलिपदेवस्यातिबलमायान्तमाकर्ण्य व्याकुलं श्रीभोज स"दामरः समायातकल्पिंतराजादेशदर्शनपूर्व भोगपुरे श्रीभीमं समायातं विज्ञपयामास । तया तद्वार्तया क्षते क्षारनिक्षेप-15 सहक्षया विलक्षीक्रियमाणः श्रीभोजराजा दामरमभ्यधात्-'अस्मिन्वर्षे त्वया खखामी कथञ्चनापीहागच्छन्निवार्यः' इति भूयो भूयः सदैन्यं भाषमाणे नृपे प्रस्तावविन्नृपाद्धस्तिनीसहितं हस्तिनमुपायने उपादाय पत्तने श्रीभीमं परितोषयामास । ५०) कस्मिंश्चिद्धर्मशास्त्राकर्णनक्षणेऽर्जुनस्य राधावेधमाकर्ण्य, किमभ्यासस्य दुष्करमिति 1AD वद। 2 AD माहक्षा। 3 P किन्तु। 4 रूपक्रमात् । 5 Pb तेनान्तर्गतमुत्तरं। 6 AD चातुर्य । 7.Pb भोजो गूर्जरधरित्रीं। * एतरकोष्टकान्तर्गताः पङ्गयो B Pa आदर्श अनुपलभ्याः। 8 AD दानं। 9 P बन्दी... भवादीत् । 10 D चौलः। 11 P गिरीन्द्र। 12 Pb कुंकुणकः। 13 P भुवो। 14 AD विडम्बनाट। 15 AD धीयमाने। 16 AD 'पुरः' नास्ति; D पुरा। 17 P तैलपं; Pa तैलिपदेव। 18 Pb मुजिहामी। 19 AD विहसन् । 20 Pb भोजनृपो। 21 DOभटस्य। 22 AD सभासमक्षं तेनोक्ते। 23 AD 'सामान्य' नास्ति। 24 B तैलङ्ग; P कर्णाट। + एतद्विदण्डान्तर्गतपतिस्थाने P प्रतौ निम्नगतः श्लोको लभ्यते (४५) भोजराज मम स्वामी यदि कर्णाटभूपतिः। केशाकृष्टं न पश्यामि तम्कि मुजशिरः करे ॥ + एतत्प्रकरणस्थाने Dd प्रती निम्नलिखितरूपात्मकं कथनमुपलभ्यते श्रीभोजराजा गूर्जरोपरि कृतप्रस्थानो बायावासे कृतस्त्रानो भेटितः सन् राज्ञोचे डामराख्यः-भीमडीयाको नापितोऽध कल्ये कि करोति ? । तेनोक्तम्-अन्येषां राज्ञां शिरोमुण्डितम् । एकस्य शिरो जलमिन्नमास्ते पश्चान्मुण्डयिष्यतीति भणिते राज्ञा चमत्कृतेन राजभुवने राजविडम्बननाटके चित्रे डामरस्वामी कर्णाटराज्ञश्चाटूनि कुर्वन् दर्शितः । दूतेनोक्तम्- .. भोजराज मम स्वामी यदि कर्णाटभूपतेः। कराकृष्टो न पश्यामि कथं मुअशिरः करे॥ इति वाक्येन स्मृतपूर्ववैरः गूर्जरदेशं परित्यज्य कर्णाटोपरि प्रयाणं कृतवान् । नृपाने डामरस्योक्तिः (४६) सत्यं स्वं भोजमार्तण्ड पूर्वस्यां दिशि राजसे । सूरोऽपि लघुतामेति पश्चिमाशावलम्बने । 25 BP Pa 'स डामरः' नास्ति । 26 Pa-b 'कल्पित' नास्ति । 27 B Pa सांप्रतवर्षे। 28 A कथंचन इहा; P कथ:: मपि इहा। 29P पुनः पुनः। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [द्वितीयः विमृश्य' सतताभ्यासवशाद्विश्वविदितं राधावेधं विधाय नगरे हदृशोभां कारयंस्तैलिक-सूचिकाभ्यामवज्ञया निराकृतोत्सवाभ्यां श्रीभोजभूपो व्यज्ञप्यत । तैलिकेन चन्द्रशालांस्थितेन भूमिस्थितसङ्कीर्णवदने मृन्मयपात्रे तैलधाराधिरोपणात् ; सूचिकेन च भूमिस्थितेनोद्धीकृततन्तुमुखे आकाशात्पतन्त्याः सूच्या विवरं नियोज्य निजाभ्यासकौशलं निवेद्य नृपं प्रति-'चेच्छक्तिरस्ति 5 ततः प्रभुरप्येवं करोत्वि'त्यभिधाय राज्ञो गर्व खर्वं चक्राते । ७४. भोजराज ! मया ज्ञातं राधावेधस्य कारणम् । धाराया विपरीतं हि सहते न' भवानिति ॥ ५१) विद्वद्भिरिति श्लाघ्यमानो नवं नगरनिवेशं कर्तुकामः पटहे वाद्यमाने धाराभिधया पण स्त्रियाऽग्निवेतालनाना पत्या सह" लङ्कां गत्वा तं नगरनिवेशमालोक्य पुनः समागतया, मन्नाम नगरे दातव्यमित्यभिधाय तत्प्रतिच्छन्दपटो" राज्ञेऽर्पितः । ततः स नवां धारा नगरी निवे10 शयामास । ५२) कस्मिन्नप्यहनि स" नृपः सान्ध्यसविसरानन्तरं निजनगरान्तः परिभ्रमन्७५. *एहु जम्मु नांगहं गियउ" भडसिरि खग्गु न भग्गु । तिक्खा तुरिय न वाहिया गोरी गलि" न लग्गु॥ इति केनापि दिगम्बरेण पठ्यमानमाकर्ण्य प्रातस्तमाकार्य रौत्रिपठितवृत्तान्तसङ्केतवशेन शक्तिं पृष्टः सन् - 15 ७६. देव दीपोत्सवे जाते प्रवृत्ते दन्तिनां मदे । एकच्छत्रं करिष्यामि सगौडं दक्षिणापथम् ॥ __-इति खपौरुषमाविःकुर्वन् सेनानीपदेऽभिषिक्तः । ५३) इतच सिन्धुदेशविजयव्यापते श्रीभीमे [स दिगम्बरः] समस्तसामन्तैः समं समेत्य श्रीमदणहिल्लपुरभङ्गं कृत्वा धवलगृघटिकाद्वारे कपईकान् वापयित्वा जयपत्रं जग्राह । तदादि 'कुलचन्द्रेण मुषितमिति सर्वत्र क्षितौ ख्यातिरासीत् । स जयपत्रमादाय मालवमण्डले गतः। 20 श्रीभोजाय तं वृत्तान्तं विज्ञपयत् । 'भवतेङ्गालवापः कथं न कारितः? अत्रत्यमुद्ग्राहितं गूर्जरदेशे प्रयास्यती'ति* श्रीसरस्वतीकण्ठाभरणेन श्रीभोजेनाभिदधे । 1 AD विमृशन् । 2 Pb हशोभादिपूर्वकमुत्सवं । 3 P भोजराजा। 4 Pb शालोपरिस्थितेन। 5 Pb संकीर्णमुखमृन्मयः। 6P विपरीतत्वं । 7 Pa नैव भूपतिः। 8 BP प्रारब्धुकामः; Pa प्रवेष्टुः। 9 Pb धारादेव्यभिधानया। 10 समं। 11 Pb .मित्यंगीकाराप्य । 12 A प्रतिच्छन्दपटं; P तस्पटं; Pa तस्पटहं। 13 AP समय। 14 AP 'ततः स नवां स्थाने 'सा' इत्येव । 15 ADP 'स नृपः' नास्ति । 16 Pa नग्गा। 17 P गउ; Pa गयउ। 18 P अरिसिरि। 19 D तिक्खां तुरियां। 20 AD माणिया। 21 BP कठि। 22 B माहुय; P नास्ति । 23 BP निशा । 24 BPa 'सन्' नास्ति; P सन् उवाच । 25 AD करोम्येव । 26 P सेनापतिः। 27 P स्थापितः। 28 Pb विहाय 'इतश्च' नास्ति। 29 D प्रावृत्ते। 30 BP Pa नास्ति 'स दिगम्बरः; Pb दिगम्बरः सेनाध्यक्षः। 31 Pb सूत्रयित्वा । 32 AD कपर्दिकान् । 33 P 'क्षिती' नास्ति । 34 AD ०पयन्नुक्तो। 35 Pb तन्त्र कथं । * 'एहु जम्मुः' इत आरभ्य 'गूर्जरदेशे प्रयास्यतीति' इत्येतत्पर्यन्तस्य कथनस्य स्थाने De प्रतौ निम्नलिखितस्वरूपात्मकं संक्षिप्त कथनमुपलभ्यते (३०) 'नवजलभरीया मग्गडा गयणि धडुक्कइ मेहु । इस्थन्तरि जह आविसिह तउ जाणीसिइ नेहु ॥ 'एषां भूवल्लभया सह.' राज्ञा तन्निजपुत्रीस्वरूपं दृष्टं प्रातराकार्य गूर्जरदेशोपरि सेनाधिपत्यं ददौ । तदा तेनोक्तम्-'देव दीपोत्सवे.' इति । ततो गूर्जरदेशः समग्रोऽपि तेन विनाशितः । श्रीपत्तनचतुष्पथे कपर्दिका वापिताः । तस्यागतस्य राज्ञोक्तम्-न कृतं रम्यम् । अब प्रभृति मालवदेशदण्डः श्रीगूर्जरे यास्यतीति ।' Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 प्रकाशः] भोज-भीमप्रबन्धः। ३३ .५४) कदाचिच्चन्द्रातपे उपविष्टः श्रीभोजः सन्निहिते कुलचन्द्रे पूर्णचन्द्रमण्डल [*मालोक्य पुनःपुनस्तत्सम्मुख ] मवलोकमान इदमपाठीत् ७७. येषां वल्लभया सह क्षणमिव क्षिप्रं क्षपा क्षीयते तेषां शीतकरः शशी विरहिणामुल्केव सन्तापकृत् । .... इत्यर्द्ध कविना तेनोक्ते' कुलचन्द्रः प्राह____ अस्माकं तु न वल्लभा न विरहस्तेनोभयभ्रंशिनामिन्दू राजति दर्पणाकृतिरसौ नोष्णो न वा शीतलः॥ 5 इति तदुक्तेरनन्तरमेवैकां वाराङ्गनां प्रसादीचकार । ५५) अथ दामरनामा साँन्धिविग्रहिको मालवमण्डलादायातः श्रीभोजस्य सभां वर्णयन् महान्तमायल्लकं जनयति।तत्र गतश्च श्रीभीमस्यामात्रांरूपपात्रतां वर्णयंस्तद्दिदृक्षातरलितः श्रीभोजः 'तमिहानय मां तत्र वा नय" इत्यभ्यर्थ्यमानः, सभादर्शनोत्कण्ठितेन श्रीभीमेन तथैव याच्यमानः कस्मिन्नपि वर्षे उपायविन्महदुपायनमादाय विप्रवेषधारिणं ताम्बूलकरण्डकवाहिनं श्रीभीमं 10 सहं गृहीत्वा सदसि गतः। प्रणमन् श्रीभोजेन श्रीभीमानयनवृत्तान्तं व्याहृतः स विज्ञापयांचक्रे-'खतन्त्राःस्वामिनो नः। अनभिमतं कार्य केन बलात्कार्यते इति। सर्वथेयं कदाशा देवेन नावधारणीया'-इत्यभिधाय,श्रीभीमस्य वयोवर्णाकृतीनां सादृश्यं पृच्छन् श्रीभोजस्तान्सभासदोलोकानवलोकयन् स्थगीधरं लक्षीकृत्य दामरेणेत्यभिदधे-'स्वामिन् ! ७८. एषाऽऽकृतिरयं वर्ण इदं रूपमिदं वयः । अन्तरं चास्य भूपस्य काचचिन्तामणेरिव ॥ इति तेन विज्ञप्ते चतुरचक्रवर्ती श्रीभोजस्तत्सामुद्रिकविलोकनान्निश्चलदृशं नृपं विमृश्योपायनवस्तून्युपनेतुं स सान्धिविग्रहिकस्तं प्राहिणोत् । तेषु वस्तुषूपनीयमानेषु तद्गुणवर्णनया वार्तान्तरव्याक्षेपेण च भूयसि कालविलम्बे संवृत्ते 'स्थगीवाहकोऽद्यापि कियच्चिरं विलम्बते?' इति राज्ञा समादिष्टः स तं भीममिति विज्ञपयामास । राजा तदा तदनुपदिकानि सैन्यानि प्रगुणयन् दामरेणाभिदधे-'द्वादश-द्वादश योजनान्तरे प्रावहणिका हयाः, घटिकायोजनगामिन्यः करभ्यः, 20 अनया समग्रसामग्र्या श्रीभीमः [प्रतिक्षणं बह्रीं] भुवमाक्रमन् कथं भवता गृह्यते?' इति विज्ञप्तस्तेन पाणी घर्षयन चिरं तस्थौ । (अत्र Pb सज्ञक आदर्श निम्नलिखितानि प्रकरणान्यधिकान्युपलभ्यन्ते-) [अथान्यस्मिन् वर्षे श्रीभीमस्तं डामरं मालवमण्डले प्रेषयितुकामो वार्तादि शिक्षयन् आस्ते । डामर उत्तिष्ठन् पटीं प्रक्षाडयामास । ततः श्रीभीमेन पृष्टः स आह-'भवच्छिक्षितमत्रैव मुञ्चामीत्यूचे । यतस्तत्र गतोऽहं खयमेवावस- 25 रोचितं त्रुविष्ये । अन्यशिक्षितं कियत्कथयिष्यते । ततो राजा तस्यावसरोचितचातुरी विज्ञानाय प्रच्छन्नं वर्णमयं समुद्कं रक्षापुञ्जेन भृत्वा, 'भोजसभाया अन्यत्र नायमुद्घाटनीयः' इति शिक्षयित्वा तद्धस्ते उपदार्थमदात् । ततः स गतो मालवे । भोजसभायां तं बहुपट्टकूलवेष्टितं आनाय्य भोजनृपाग्रे मुमोच । स उद्वेष्ट्य विलोकयति तदा मध्ये छारपुञ्जः । ततो नृपेणोक्तम्-'भो इदं किमुपायनम् ?' डामरस्तत्कालोत्पन्नमतिः प्राह-'देव ! श्रीभीमेन कोटि * कोष्ठकान्तर्गतः पाठः केवलं Pb प्रतौ उपलभ्यः। 1 Pb श्रीभोजेनोक्त। 2 Pb वरां वारां० । 3 Pa सान्ध्यवि०। 4 P रूपवर्णनां कुर्वन् । 5A तत्र मां नयेति वा; B मां तत्र न०। 6 P तथैवोच्यमानः, Pa तथा वाच्यमानः। 7 AD स। 8 P सभायां । 9A नाभिमतं; D अभिमतं । 10 D सर्वथाप्येके दासा। 11 D नावधीर०। 12 P भिहिते। 13 Pa तेन सह सदासदो लोका। 14 AD इमाकृ०; B यथाकृ०; Pइयमाकृ०। 15 AD निश्चलहरतादृशं। 16 AD वर्णनवार्ताः। 17 P Pa ज्ञापयामास। 18 AD योजनानां प्रान्ते; B Pa योजनान्ते। 19 केवलं Pb प्रतौ लभ्योऽयं पाठः। 20 AD घर्षयित्वा। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [द्वितीय: होमः कारितः, तद्रक्षेयं तीर्थभूता, प्रीत्या भवत्कृते प्राभृतीकृताऽस्ति' । इति तेनोक्त दृष्टचेतसा राज्ञा स्वहस्तेन सर्वेषां समर्पिता । तैः सर्वैस्तिलककरणेन वन्दिता । अन्तःपुरे प्रेषिता । ततः स सम्मानितः प्रतिप्राभृतसहितः पश्चादागतः । ज्ञातवृत्तान्तेन श्रीभीमेनापि पूजितः ।। पुनः कौतुकाक्षिप्तचित्तः श्रीभीमः कस्मिन्नवसरे मुद्रामुद्रितलेखं विधाय तद्धस्ते समये, उपदापाणिं तड्डामरं 5 मालवेऽप्रैषीत् । स उपदासहितं लेखं भोजहस्तेऽदात् । यावदुन्मुद्य वाचयति तावद् 'अयं भवता शीघ्रं निपातनीयः' इति पश्यति । ततः सविस्मयेन राज्ञा पृष्टम्-'भो इदं किं लिखितमस्ति ?' । ततः स उत्पातिकामतिः प्राह-'देव ! मजन्मपत्रिकायां समस्ति, यत्रास्य रुधिरं पतिष्यति तत्र द्वादशवर्षप्रमाणो दुर्भिक्षः पतिष्यति' इति ज्ञात्वा श्रीभीमेनाहमत्र प्रेषितः स्वदेशविनाशभीतेन प्रच्छन्नलेखयुक्तः । एवं सति त्वं यथारुचितं कुरु' इति तेनोक्ते राजाह-'नाहमात्मदेशप्रजामनर्थे पातयिष्ये' । ततः सम्मान्य विसर्जितः प्राप्तः स्वदेशे । तबुद्धिकोशलेन 10 पुनश्चमत्कृतः श्रीभीमस्तं बहुमन्यते । ] ५६) अथ श्रीभोजः' श्रीमाघपण्डितस्य विद्वत्तां पुण्यवत्तां च सन्ततमाकर्णयन् , तद्दर्शनोत्सुकतया राजादेशैः सततं प्रेष्यमाणैः श्रीमालनगराद्धिमसमये समानीय सबहुमानं भोजनादिभिः सत्कृत्य तदनु राजोचितान्विनोदान दर्शयन् , रात्रावारात्रिकावसरानन्तरं सन्निहिते वसनिभे पल्पङ्के माघपण्डितं नियोज्य तस्मै खां'शीतरक्षिकामुपनीय प्रियालापांश्चिरं कुर्वाणः सुखं 15 सुखेन सुष्वाप । प्रातर्माङ्गल्यतूर्यनिर्घोषैर्विनिद्रं नृपं स्वस्थानगमनाय माघपण्डित आपृष्टवान् । विस्मयापन हृदयेन राज्ञा दिने भोजनाच्छादनादिसुखं पृष्टः स कदन्नसदन्नवार्ताभिरलं शीतरक्षाभारेण श्रान्तं "खं विज्ञपयन खिद्यमानेन राज्ञा कथं कथञ्चिदनुज्ञातःपुरोपवनं यावद्भूभुजाऽनुगम्यमानः माघपण्डितेन स्वागमनप्रसादेन सम्भावनीयोऽहमिति विज्ञप्य" नृपानुज्ञातः खं पदं भेजे। तदनु कतिपयैर्दिनैः श्रीभोजस्तद्विभवभोगसामग्रीदिदृक्षया श्रीश्रीमालनगरं प्राप्तः । 20 माघपण्डितेन प्रत्युद्गमादियथोचितभक्त्याऽऽवर्जितः ससैन्यस्तन्मन्दुरायां ममौ । खयं तु माघपण्डितस्य सौधमध्यास्य सञ्चारकभुवं काँचबद्धामवलोक्य लानादनु देवतावसरोा मारकतकुहिमे शैवलवल्लरीयुगजलभ्रान्त्या धौतान्तरीयं संवृण्वन् सौवस्तिकेन ज्ञापितवृत्तान्तस्तदैव तद्देवतार्चानन्तरं निवृत्ते मन्त्रावसरेऽशनसमयसमागतां रसवतीमास्वादमानः, अकालिकैरदेशजैर्व्य अनैः फलादिभिश्चित्रीयमाणमानसः, संस्कृतपय शालिशालिनी रसवतीमाकण्ठमुपभुज्य भोज25 नान्ते चन्द्रशालामधिरुह्याश्रुतादृष्टपूर्वकाव्यकथाप्रबन्धप्रेक्ष्यादीनि प्रेक्षमाणः, शिशिरसमयेऽपि सञाताकस्मिकभीष्मोष्मभ्रान्त्या संवीतसितस्वच्छवसनस्तालवृन्तकरैरनुचरैज्यिमानोऽमन्दच. न्दनालेपनेपथ्यः सुखनिद्रया तां क्षणदां क्षणमिवातिवाह्य प्रत्यूषे शनिखनाद्विगतनिद्रो हिमसमये ग्रीष्मावतारव्यतिकरो माघपण्डितेन ज्ञापितः [*प्रतिसमयं सविस्मयः कति दिनान्यवस्थायी स्वदेशगमनायापृच्छने स्वयं कारितनव्यभोजखामिप्रासादप्रदत्तपण्यो मालवमण्डलं प्रति 1 BP .भोजः सततं । 2 Dd कुमुदपण्डितसुतश्रीमाघः। 3D पण्डितविद्वः। 4 P पुण्यवाता। 5 P विहाय सर्वत्र 'सततः। 6 Pa नास्ति । '7 D स्व.। 8 D रक्षा; Pa .रक्षाकरी०। 9 Pb विस्मयापनेन। 10 Pb कदनेनोदरं भृतम्, राम्रो गर्दभवल्लादितं शीत। 11 D शीतभारेण। 12 D नास्ति। 13 D विज्ञप्तो। 14 D काञ्चन। 15 A आरक्तकुट्टि०; D मणिमरकतकुट्टिः। 16 D धौतान्तरीयः। 17 P स्वादयामास। 18 P प्रेक्षणादीनि । 19 D ग्रीष्मभ्रा । 20P.ध्वनिविगतः। * कोष्ठकान्तर्गतः पाठः D पुस्तक एव लभ्यते। 21 P Pa यापृच्छ्यमानः। 22 AD करिष्यमाणः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] भोज-भीमप्रबन्धः। प्रतस्थे। तथा निजजन्मदिने जनकेन नैमित्तिकाज्जातके कार्यमाणे, पूर्वमुदितोदितसमृद्धिर्भूत्वा प्रान्ते गलितविभवः किञ्चिच्चरणयोराविर्भूतश्वयथुविकारः पञ्चत्वमाप्स्यतीति-निमित्तविदा निवेदिते विभवसम्भारेण तां ग्रहगतिं निराचिकीर्षुणा माघपित्रों, संवत्सरशतप्रमाणे मनुजायुषि षट्त्रिंशत्सहस्राणि दिनानि भवन्तीति विमृश्य नाणकपरिपूर्णांस्तावत्संख्यकान् हारकान् कारितनव्यकोशेषु निवेश्य तदधिकां परां भूतिं शतशः समर्प्य प्रदत्तमाघनाने सुताय कुलोचितां 5 शिक्षां वितीर्य कृतकृत्यमानिना तेन विपेदे । तदनन्तरमुत्तराशापतिरिव प्राप्तप्राज्यसाम्राज्यो विद्वज्जनेभ्यः श्रियं तदिच्छया यच्छन्नमानैर्दानैरर्थिसार्थं कृतार्थयस्तै गविधिभिः स्वममानुषावतारमिव दर्शयन् विरचितशिशुपालवधाभिधानमहाकाव्यचमत्कृतविद्वज्जनमानसः प्रान्ते पुण्यक्षयात्क्षीणवित्तो विपत्तिपाते स्वविषये स्थातुमप्रभूष्णुः सकलत्रो मालवमण्डले गत्वा धारायां कृतावासः पुस्तकग्रहणकार्पणपूर्वकं श्रीभोजात्कियदपि द्रव्यमानेयमिति तत्र पत्नी प्रस्थाप्य 10 यावत्तदाशया माघपण्डितश्चिरं तस्थौ; तावत्तथावस्थां श्रीभोजस्तत्पत्नीं विलोक्य ससम्भ्रमः शलाकान्यासेन तत्पुस्तकमुन्मुद्य काव्यमिदमद्राक्षीत्७९. कुमुदवनमपथि श्रीमदम्भोजखण्डं त्यजति मदमुलूकः प्रीतिमांश्चक्रवाकः । उदयमहिमरश्मियोति शीतांशुरस्तं हतविधिललितानां ही विचित्रो विपाकः ॥ अथ काव्यार्थमवगम्य, का कथा ग्रन्थस्य केवलमस्यैव काव्यस्य विश्वम्भरामूल्यमल्पम् ।15 समयोचितस्यानुच्छिष्टस्य हीशब्दस्य पारितोषिके क्षितिपतिर्लक्षद्रव्यं वितीर्य तां विससर्ज। सापि ततः सञ्चरन्ती विदितमाघपण्डितपत्नीकैरैर्थिभिर्याच्यमाना तत्पारितोषिकं तेभ्यः समस्तमपि वितीर्य यथावस्थिता गृहमुपेयुषी तद्वृत्तान्तज्ञापनापूर्व किञ्चिचरणस्फुरच्छोफाय पत्ये निवेदयामास । अथ स त्वमेव मे शरीरिणी कीर्तिरिति श्लाघमानस्तदा स्वगृहमागतं कमपि भिक्षुकं वीक्ष्य भवने तदुचितं किमपि देयमपश्यन् सञ्जातनिर्वेद इदमवादीत् 20 ८०. अर्था न सन्ति न च मुञ्चति मां दुराशा त्यागान" सङ्कुचति" दुर्ललितः" करो मे । याजा च लाघवकरी स्ववधे च पापं प्राणाः स्वयं व्रजत किं परिदेवितेन ॥१ . ८१. दारियानलसन्तापः शान्तः सन्तोषवारिणा । दीनाशाभङ्गजन्मा तु केनायमुपशाम्यतु ॥२ ८२. न भिक्षा दुर्भिक्षे पतति दुरवस्थाः कथमृणं लभन्ते कर्माणि क्षितिपरिवृढान्कारयति कः। अदत्त्वापि ग्रास ग्रहपतिरसावस्तमयते व यामः किं कुर्मो गृहिणि गहनो जीवितविधिः ॥३ 25 ८३. *क्षुत्क्षामः पथिको मदीयभवनं पृच्छन्कुतोऽप्यागतः तत्कि गेहिनि किश्चिदस्ति यदयं भुङ्क्ते बुभुक्षातुरः। वाचास्तीत्यभिधाय नास्ति च पुनः प्रोक्तं विनैवाक्षरैः स्थूलस्थूलविलोललोचनजलैर्वाष्पाम्भसा बिन्दुभिः॥४ ८४. व्रजत व्रजत प्राणा आर्थिनि व्यर्थतां गते । पश्चादपि हि गन्तव्यं क सार्थः पुनरीदृशः॥५॥ 1 BP Pb तदा। 2 A. निवेदित; D निवेदितां । 3 AD आदर्श एवोपलब्धमिदं पदम् । 4 P विहायान्यत्र 'भविष्यः'। 5 AD 'प्राप्त' नास्ति । 6 D विद्वज्जनः स । 7 P कृतनिवासः। 8 AD 'इदं नास्ति । 9 D पत्नी कैश्चिद्भिर्थिः । 10 D वृत्तान्तं विज्ञा०। 11 AD भिक्षु। 12 A दानान; D दानाद्धि। 13 B सञ्चलति । 14 B दुर्ललितं मनो मे। 15 BP अदत्वैव। 16 P Pa जीवन । * AB प्रत्यन्तरे एतत्पद्यं मूले नास्ति, परं पृष्ठस्योपरितनभागे केनापि पश्चाल्लिखितं प्राप्यते। + P प्रत्यन्तरे एतेषां पद्यानां किञ्चिदू विपर्ययो लभ्यते । तत्र एतादृशः क्रमः ३ (१), ४ (२), (३), २ (७), ५ (१)। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAT प्रबन्धचिन्तामणिः। [द्वितीयः _ 'क सार्थः पुनरीदृशः' इति वाक्यान्तं एव स माघपण्डितः पञ्चत्वमवा,प । प्रातस्तं वृत्तान्तमवगम्य श्रीभोजेन श्रीमालेषु सजातिषु धनवत्सु सत्सु तस्मिन्पुरुषरत्ने विनष्टे क्षुधाबाधिते सति भिल्लमाल इति तजाते म निर्ममे । ॥ इति श्रीमाघपण्डितप्रबन्धः॥ 5 ५७) पुरा समृद्धिविशालायां विशालायां पुरि मध्यदेशजन्मा सांकाश्यागोत्रः सर्वदेवनार्मा द्विजो निवसन् जैनदर्शनसंसर्गात्मायः प्रशान्तमिथ्यात्वो धनपाल-शोभनाभिधानपुत्रद्वयेनान्वितः कदाचिदागताञ् श्रीवर्द्धमानसूरीन् गुणानुरागान्निजोपाश्रये निवास्य निद्वन्द्रिभक्त्या परितोषितान् सर्वज्ञपुत्रकानिति धिया, तिरोहितं निजपूर्वजनिधिं पृच्छंस्तैर्वचनच्छतेरेना विभागं याचितः। 'सङ्केतनिवेदनाल्लब्धंनिधिस्तदर्दू यच्छंस्तैः पुत्रद्रयादई याचितो' ज्यायसा धनपालेन 10 मिथ्यात्वान्धमतिना जैनमार्गनिन्दापरेण निषिद्धः, कनीयसि शोभने कृपापरः स्वप्रति ज्ञाभङ्गपातकं तीर्थेषु क्षालयितुमिच्छुः प्रति तीर्थ प्रतस्थे । अथ पितृभक्तेन शोभननाम्ना लघुपुत्रेण तं तदाग्रहान्निषिद्ध्य पितुः प्रतिज्ञा प्रतिपालयितुमुपात्तव्रतः वयं तान् गुरूननुससार । अभ्यस्तसमस्तविद्यास्थानेन धनपालेन श्रीभोजप्रसादसम्प्राप्तसमस्तपण्डितप्रष्टप्रतिष्ठेन निजसहोदरामर्षभावाद् द्वादशाब्दी यावत्स्वदेशे निषिद्धजैनदर्शनप्रवेशेन तद्देशोपासकैरत्यर्थमभ्यर्थनया गुरुवा15 हृयमानेषु सकलसिद्धान्तपारावारपारदृश्वा स शोभननामा तपोधनो गुरूना धारायां प्रविशन पण्डितधनपालेन राजपाटिकायां व्रजता तं सहोदरमित्यनुपलक्ष्य सोपहासमा'गर्दभदन्त भदन्त ! नमस्ते' इति प्रोक्त; 'कपिवृषणास्य वयस्य! सुखं ते' [इति प्रत्युत्तरयांचके।' ततश्चमत्कृतो धनपालो मया नर्मणापि नमस्ते इत्युक्तम् , अनेन तु वयस्य सुखं ते] इत्युच्चरता वचनचातुर्यान्निर्जितोऽस्मीति । तत् 'कस्यातिथयो यूयमिति धनपालस्यालापैः भवत एवातिथयो 20 वयमि'ति शोभनमुनेर्वाचमाकर्ण्य, बटुना सह निजसौधे प्रस्थाप्य तत्रैव स्थापितः। स्वयं सौधे समागत्य धनपालः प्रियालापैः सपरिकरमपि तं भोजनाय निमन्त्रयंस्तैः प्रासुकाहारसेवापरैनिषिद्धः । बलाद्दोषहेतुं पृच्छन् ८५. भजेन्माधुकरी वृत्तिं मुनिर्लेच्छकुलादपि । एकानं नैव भुञ्जीत बृहस्पतिसमादपि ॥ तथा च, जैनसमये दशवैकालिके25 ८६. महुकारसमा बुद्धा जे भवन्ति अणिस्सिया । नाणापिण्डरया दन्ता तेण वुचन्ति साहुणो ॥ । इति स्वसमयपरसमयाभ्यां निषिद्धं कल्पितमाहारं परिहरन्तः शुद्धाशनभोजिनो वयमिति तचरित्रचित्रितमनास्तूष्णीकमुत्थाय सौधे" मजनारम्भे गोचरचर्यया समागतं तन्मुनिद्वन्द्वमवलोक्याऽसिद्धेऽन्नपाके तद्ब्राह्मण्योपढौकिते दनि मुनिभ्यां व्यतीतकियदिनमेतदिति पृच्छयमाने, धनपालः 'किमत्र पूतराः सन्ती'ति सोपहासमभिदधानः, व्यतीतदिनद्वयमेतदिति ब्राह्मण्या __1 इदं वाक्यं D पुस्तके न विद्यते। 2 B वाक्यानन्तरं; P वाक्यसमकालं। 3 P स्वजा। 4 D तज्ज्ञातं । 5 D काश्यपगोत्रः, B नास्ति। 6P गंगाधरो नाम । 7 P विहायान्यत्र 'अभिधान' नास्ति । द्विदण्डान्तर्गतः पाठः Pa आदर्शऽनुपलभ्यः। 8 P०लब्धशेवधि। 9D प्रकृष्ट। 10 D गुरुपुरुषेषु। कोष्टकान्तर्गतः पाठः A Pa प्रत्यन्तरे नास्ति । एतत्पाठस्थाने B प्रत्यन्तरे 'शोभनमुनेर्वचसान्तश्चमत्कृतः' एतादृशः पाठः। 11 D इत्युक्ते। 12 P ऽसीत्यचिन्तयत् । 13 Pa नीचकु०। 14 P Pa अकल्पितः। 15 D सौधमाप। 16 P मुनियुगल । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] भोज-भीमप्रबन्धः । निर्णीय ताभ्यां 'पूतराः सन्तीत्यत्र' इत्यभिहिते स्नानासनात्तद्दर्शनार्थमुत्थाय तत्रागतः सन्, स्थालेऽधिरोपितदधिसन्निधौ यावद्यावकपुंओऽधिरूढस्तैर्जन्तुभिर्दधिपिण्ड इव पाण्डुरतामवलोक्य; जिनधर्मे जीवरक्षाप्राधान्यम् , तत्रापि जीवोत्पत्तिज्ञानवैदग्यम् , यथा ८७. *मुग्गमासाइपाई विदिल-कच्चम्मि गोरसे पडइ । ता तसजीवुप्पत्ती भणन्ति दहिए तिदिणुवरि ॥ तजिनशासने एवेति निश्चित्य शोभनमुनेः शोभनवोधात्सम्यक्प्रतिपत्तिपुरःसरं सम्यक्त्वं 5 भेजे। [इयदिनानि खं मिथ्यात्वमयं विदन् , मम बन्धुः कापि दृष्टः इति तस्यैव पुरः पृच्छन् वयआख्यागुणादिभिः तदुपमाने शोभनेन खं कथयता अनुमानात् मम भ्रातैवायमिति निश्चित्य आनन्दाश्रुपूर्व तमालिंग्य खशिशोर्द्वारा तद्गुरून् आकारयामास च । ] कर्मप्रकृत्यादिषु जैन विचारग्रन्थेषु प्रकृत्या प्राज्ञः परं प्रावीण्यनुद्वहन , प्रति प्रातर्जिना_वसरप्रान्ते ८८. कतिपयपुरस्वामी कायव्ययैरपि दुर्ग्रहो मतिवितरता मोहेनाहो मयानुसृतः पुरा । । त्रिभुवनपतिर्बुद्ध्याराध्योऽधुना खपदप्रदः प्रभुरधिगतस्तत्प्राचीनो दुनोति दिनव्ययः॥ ८९. सव्वत्थ अत्थि धम्मो जा मुणियं जिण न सासणं तुह्म । कणगाउराण कणगं" व ससियपयं अलम्भमाणाणं ॥ [१५] {'किं ताए पढियाए पयकोडीए पलालभूयाए । जत्थित्ति न नायं परस्स पीडा न कायव्या ॥ [१६] देशाधीशो ग्राममेकं ददाति ग्रामाधीशः क्षेत्रमेकं ददाति । 15 क्षेत्राधीशः शिम्बिकाः सम्प्रदत्ते सार्वस्तुष्टः सम्पदं स्वां ददाति ॥} इत्यादीनि वाक्यानि पठन्" स धनपालः कदाचिन्नृपेण मृगयां सह नीतः । बाणेन मृगे विद्ध सति तद्वर्णनाय विलोकितमुखो धनपालः प्राह-९०. रसातलं यातु यदैत्र पौरुषं कुनीतिरेषा शैरणो ह्यदोषवान् । विहन्यते यद्धलिनापि दुर्बलो ह हा महाकष्टमराजकं जगत् ॥+ इति तन्निर्भर्त्सनात्क्रुद्धो नृपः किमेतदित्यभिधाने ९१. वैरिणापि हि मुच्यन्ते प्राणान्ते तृणभक्षणात् । तृणाहाराः सदैवैते हन्यन्ते पशवः कथम् ॥ इत्यद्भुतसञ्जातकृपेण नृपेण धनुर्बाणभङ्गमङ्गीकृत्याजीवितान्तं संन्यस्तमृगयाव्यसनेन पुरं प्रति" 20 1 D निर्णीय प्रोक्तं । 2 AD रोपिते दनि सः। 3D पुम्भे। 4D 'तैः' स्थाने 'तद्वर्ण'। 5AD दया । * P प्रत्यन्तरे इयं गाथा नास्ति; B आदर्शऽपि मूले पृष्ठपार्श्वभागे पश्चात्केनापि लिखिता लभ्यते। 6 Pa पभिई। 7 Paबिदलं । 8 Pa विदिणुः । * कोष्टकान्तर्गतः पाठः मात्रं B प्रतौ प्राप्यः। 9 AD प्रातः प्रातः। 10 Pb जा न पत्तं जिण सा०। 11 D कणगु ब्व । केवलं Pb प्रती इयं गाथा लभ्यते । " D पुस्तके इदं पद्यमुपलभ्यते, A आदर्श पृष्ठस्याधोभागे पश्चात्केनापि टिप्पितमस्ति । 12 Pb वाक्यानि स पठति । 13 BP नृपतिना। 14 D कदाचिन्नृपेण सह मृगयां नीतो धनपालोऽभिहितः। 15 B Pa तवा। 16 P हरिणो। 17 P प्रह; B निह। + इतोऽग्रे Pa प्रतौ, किञ्चिद्विपर्ययेण च D पुस्तके निम्नलिखितं वर्णनं प्रक्षिप्तं प्राप्यते [ततो भोजराजः प्राह-किं कारणं नु कविराज मृगा यदेते व्योमोत्पतन्ति विलिखन्ति भुवं वराहाः?। . धनपालः प्राह-देव! वदस्वचकिताः श्रयितुं स्वजातिमेके मृगाङ्कमृगमादिवराहमन्ये ॥] 18 D इत्यूचे अतोऽद्भूतः। 19 D'प्रति' नास्ति । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [द्वितीयः प्रत्यागच्छता तत्र यज्ञमण्डपे यज्ञस्तम्भनियन्त्रितच्छागस्य दीनां गिरमाकप किं पशुरसौ व्याहरतीत्यादिष्टः सन्' धनपालोऽवधेहीति' प्राह९२. नाहं स्वर्गफलोपभोगक्षितो नाभ्यर्थितस्त्वं मया सन्तुष्टस्तृणभक्षणेन सततं साधो न युक्तं तव । ___ वर्ग यान्ति यदि त्वया विनिहता यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा चान्धवैः॥ 5इति तद्वाक्यानन्तरं राज्ञा किमेतदिति भूयोभियुक्तः ९३. यूपं कृत्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्येवं गम्यते स्वर्ग नरके केन गम्यते ॥ ९४. सत्यं यूपं तपो ह्यग्निः कर्माणि समिधो मम । अहिंसामाहुतिं दद्यादेष यज्ञः सनातनः ॥ इत्यादि-शुकसंवादोदितानि वचांसि नरेन्द्रस्य पुरतः पठन् हिंसाशास्त्रोपदेशिनो लिस्रप्रकृतीन ब्रह्मरूपेण राक्षसांस्ताज्ञापयन् , नृपमहर्द्धर्माभिमुखं चकार । 10 (अत्रान्तरे Pb आदर्श मूले, B आदर्श च पृष्ठपार्श्वभागेषु निम्नलिखितमधिकं कथनमुपलभ्यते-) {अथ नृपे गां वन्दमाने धनपालो महिषीं नमनुवाच[१७] अमेध्यमश्नाति विवेकशून्या स्वनन्दनं कामयतेऽभिषक्ता । खुराप्रशृङ्गैर्विनिहन्ति जन्तून् गौर्वन्द्यते केन गुणेन राजन् ! १॥ [१८] पयःप्रदानसामर्थ्याद्वन्द्या चेन्महिषी न किम् । विशेषो दृश्यते नास्यां महिषीतो मनागपि ॥ 15 [१९] स्पर्शोऽमेध्यभुजां गवामघहरो वन्द्या विसञ्ज्ञा द्रुमाः वर्ग छागवधाद् धिनोति च पिदन् विप्रोपमुक्ताशनम् । आप्ताश्छद्मपराः सुराः शिखिहुतं प्रीणाति देवान् हविः स्फीतं फल्गु च वल्गु च श्रुतिगिरां को वेत्ति लीलायितम् ॥ [६०] वधो धर्मो जलं तीर्थ गौर्नमस्या गुरुर्गृही । अग्निर्देवो द्विजः पात्रं येषां तैः कोऽस्तु संस्तवः ॥ 20 एकदा जिनपूजायां पण्डितस्यैकाग्रता परेभ्यो ज्ञात्वा पुष्पपटलिकाऽर्पणपूर्व देवान् पूजयेति नृपादिष्टो धनपालो हरादिस्थानेषु भ्रान्त्वा जिनं पूजयित्वा समागतः । दूतमुखाज्ज्ञातवृत्तान्तेन राज्ञा पूजाखरूपं पृष्टः प्राह'देव ! यत्रावसरोऽभूत् तत्र गत्वा पूजा कृता । राज्ञा पृष्टम्-'क नाभूदवसरः पण्डितः प्राह-'विष्णुपार्श्वे एकान्तकलत्रसद्भावात् , रुद्राओँगे पार्वतीसद्भावात् , ब्रह्मणो ध्यानभङ्गेन शापादिभयात् , विनाय[क]स्य स्थालिभृतमोदकाशने स्पर्शनं संयमन् , चण्डिकायास्त्रिशूलहेतिसत्रस्तमहिषमत्सम्मुखागमत्रासात् , हनुमतः कोपाटोप25 वशंवदस्य चपेटाभयात् कुत्राऽप्यवसरो नाभूत् । अपि च[६१] विनास्योत्तमाङ्गं वृथा पुष्पमाला ललाटं विनाहो कथं पट्टबन्धः । अकर्णे त्वनेत्रे कथं गीतनृत्ये अपादस्य पादे कथं मे प्रणामः ॥ इत्यादि प्रोक्ते नृपः प्राहः-'काऽप्यवसरोऽभूत् ?' ततः पण्डितः-'प्रशमरसनिमग्नं दृष्टि० ।' 'नेत्रे सारसुधारसैकसुभगे आसं प्रसन्नं सदा० ।' इत्यादि कथयित्वा, जैनालये सदाऽवसरत्वात्तत्र पूजा कृतेति पर्यवसितः। 1D स। 2A आह धनपाल अवधेहि; B स धनपाल अवध्योऽहं इति प्राह; Pa अवध्योऽयमितिः। 3 Pb भूयो भूयोऽभियुक्तो धनपालः प्राह। 4 P प्राणाः समिधयो। 5D 'एवं यज्ञः सतां मतः एतादृशः पादः। 6D हिंसक। 7 Dब्राह्मणः। एतद्विदण्डान्तर्गताः पंक्तयः केवलं Pb प्रती प्राप्याः। Jain Education Interational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 प्रकाशः] भोज-भीमप्रबन्धः। [६२] अथ-- अन्नदिणे सिवभवणे दुवारदेसे निएवि भिंगिगणं । किं एस दुब्बलो इय निवपुट्ठो भणइ धणवालो ॥ यथा[६३] दिग्वासा यदि तत्किमस्य धनुषा तच्चेत् कृतं भस्सना भसाथास्य किमङ्गना यदि च सा कामं प्रति द्वेष्टि किम् ।। इत्यन्योन्यविरुद्धचेष्टितमहो पश्यन्निजस्वामिनो भृङ्गी सान्द्रशिरावनद्धपुरुषं धत्तेऽस्थिशेषं वपुः ॥} 5 ५८) अथ कस्मिन्नप्यवसरे नरेश्वरः सरस्वतीकण्ठाभरणप्रासादे व्रजन सदा सर्वज्ञशासनप्रशंसापरं पण्डितं धनपालमालपत्-'सर्वज्ञस्तावत्कदाचिदासीत् । तत्रं साम्प्रतं कश्चिज्ज्ञानातिशयोस्ती'त्यभिहिते, 'अर्हत्कृते अर्हन्तश्रीनामनि चूडामणिग्रन्थे विश्वत्रयस्य त्रिकालवस्तुविषयखरूपपरिज्ञानमद्यापि विद्यते' इति तेनाभिहिते-'त्रिद्वारमण्डपे स्थितः कस्मिन्द्वारेऽस्माकं निर्गमः' इति शास्त्रकलङ्कारोपणोद्यते नृपे, बुद्धिमात्रा त्रयोदशीति पाठं सत्यापयता भूर्जपत्रे नृपप्रश्ननिर्णय-10 मालिख्य मृण्मयगोलके निधाय च स्थगिकाधरस्य तं समl-देव! पादावधार्यतामिति नृपं प्राह । नृपस्तद्बुद्धिसङ्कटे निपतितं खं मन्यमान एतद्द्वारत्रयस्य मध्यात्किमपि निर्णीतं भविष्यतीति विमृश्य सूत्रभृद्भिर्मण्डपपद्मशिलामपनीय तन्मार्गेण निर्गत्य तं गोलकं भित्त्वा, तेष्वक्षरेषु तमेव निर्गमनिर्णयं वाचयंस्तत्कौतुकोत्तालचित्तः श्रीजिनशासनमेव प्रशशंस । (अत्र D पुस्तके निम्नलिखितं पद्यं प्राप्यते-) {तथाहि[१४] द्वाभ्यां यन्न हरिखिमिर्न च हरः स्रष्टा न चैवाष्टभिर्यन्न द्वादशभिर्नुहो न दशकद्वन्द्वेन लङ्कापतिः । यनेन्द्रो दशभिः शतैर्न जनता नेत्रैरसंख्यैरपि तत्प्रज्ञानयनेन पश्यति बुधश्चैकेन वस्तु स्फुटम् ॥ (Pb आदर्शे पुनरत्र निम्नलिखितमधिकं कथनमुपलभ्यते-) {अन्यदा जलाश्रयपृच्छा[६५] सत्यं वप्रेषु शीतं शशिकरधवलं वारि पीत्वा प्रकामं व्युच्छिन्ना शेषतृष्णा प्रमुदितमनसः प्राणिसार्थी भवन्ति। शोषं नीते जलौघे दिनकरकिरणैर्यान्त्यनन्ता विनाशं तेनोदासीनभावं भजति मुनिगणः कूपवत्रादिकार्ये ॥ कदाचित् स्वकारितप्रौढतरनवसरसि गतो नृपः 'कीगिदं धर्मस्थानमिति पृच्छति । धनपालः प्राह[६६] एषा तटाकमिषतावकदानशाला मत्स्यादयो रसवती प्रगुणा सदैव । पात्राणि यत्र बकसारसचक्रवाकाः पुण्यं कियद् भवति तत्तु वयं न विद्मः ॥ 25 तथातथुकोप । पुरमागच्छन् मार्गे बालिकासहितां वृद्धां जरया शिरो धूनयन्तीं दृष्ट्वा नृपः पृच्छति-'किं शिरो धूनयति ? ततो धनपाल:[१७] किं नन्दी किं मुरारिः किमु रतिरमणः किं विधुः किं विधाता किं वा विद्याधरोऽसौ किमुत सुरपतिः किं नलः किं कुबेरः । नायं नायं न चायं न खलु नहि न वा नापि नासौ न चासौ 30 क्रीडां कर्तु प्रवृत्तः स्वयमपि च हले भूपतिर्भोजदेवः ॥ अनेन नृपं रुष्टं तोषयामास ।} 1P प्रभावना। 2 P अत्र; AD तद्दर्शने। P अर्हन्तश्रीनामचू०; A अर्हन्तश्रीचू०; D अर्हच्छ्रीचू । 4 AD तेनोक्त। 5 B समर्पयन Pa समर्पयामास। 6D शिलातल । 7 B जैन । 20 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः । [द्वितीयः ५९) अथ धनपालो ऋषभपश्चाशिकास्तुति निर्माय, सरस्वतीकण्ठाभरणप्रासादे स्वनिर्मितप्र. शस्तिपदिकायां कदाचिन्नृपः९५. अभ्युद्धृता वसुमती दलितं रिपूरः क्रोडीकृता बलवता बलिराज्यलक्ष्मीः । एकत्र जन्मनि कृतं तदनेन यूना जन्मत्रये यदकरोत्पुरुषः पुराणः ॥ 5 काव्यमिदं निर्वर्ण्य पारितोषिके तस्याः पट्टिकायाः काञ्चनकलशं ददौ । तस्मात्प्रासादादपसरंस्तदीयद्वारखत्तके रत्या सह हस्ततालदानपरं स्मरं मूर्तिमन्तमालोक्य नृपेण हासहेतुं पृष्टः पण्डितः प्राह ९६. स एष भुवनत्रयप्रथितसंयमः शङ्करो विभर्ति वपुषाऽधुना विरहकातरः कामिनीम् । ___ अनेन किल निर्जिता वयमिति प्रियायाः करं करेण परिताडयन् जयति जातहासः स्मरः ॥ 10 (अत्र D पुस्तके 'अन्नदिणे सिवभवणे०'; 'दिग्वासा यदि तत्किमस्य धनुषा०', 'अमेध्यमश्नाति०', 'पयःप्रदान सामर्थ्याद'; 'असत्युत्तमांगेः' इत्यादीनि पद्यानि समुपलभ्यन्ते परमत्राप्रासङ्गिकत्वात्, Pb आदर्शानुसारेणेतःपूर्वमेवोल्लिखितत्वाञ्च पुनर्नोद्धृतानि ।) ९७. पाणिग्रहे पुलकितं वपुरैशं भूतिभूषितं जयति । अङ्कुरित इव मनोभूर्यसिन्भसावशेषोऽपि ॥ इत्यादिभिः प्रसिद्धसिद्धसारखतोद्दारैर्नृपं रञ्जयन यावदास्ते तावत्कोऽपि सांयात्रिको द्वाःस्थनिवे15 दितः सभां प्रविश्य नृपं नत्वा मदनमयपट्टिकायां प्रशस्तिकाव्यानि दर्शयामास । नृपेण तल्लाभस्थानके पृष्टे स एवमवादीत्-'नीरधावकस्मादेव मम वाहने स्खलिते निर्यामकैः शोध्यमाने समुद्रे तन्मग्नं शिवायतनं' परितः परिस्फुरजलमप्यन्तःसलिलविकलमवलोक्य कस्यामपि भित्तौ वर्णानिर्वर्ण्य च तजिज्ञासया मदनपट्टिकां तत्र प्रस्थाप्य तत्संक्रान्ताक्षरमयी पहिकेयमिति नृपतिर्नि शम्य तदुपरि मृण्मयी पदिकां नियोज्य तत्र पतितान् विपरीतान्" वर्णान् पण्डितैर्वाचयामास । 20 ९८. आबाल्याधिगमान्मयैव गमितः कोटिं परामुन्नतेरसत्सङ्कथयैव पार्थिवसुतः सम्प्रत्यसौ लज्जते । इत्थं खिन्न इवात्मजेन यशसा दत्तावलम्बोऽऽम्बुधेर्यातस्तीरतपोवनानि तपसे वृद्धो गुणानां गणः॥ ९९. देवे दिग्विजयोद्यते धृतधनुःप्रत्यर्थिसीमन्तिनीवैधव्यव्रतदायिनि प्रतिदिशं क्रुद्ध परिभ्राम्यति । आस्तामन्यनितम्बिनी रतिरपि त्रासान्न पौष्पं करे भतुर्द्धर्तुमदान्मदान्धमधुपी नीलीनिचोलं धनुः॥ १००. चिन्तागम्भीरकूपादनवरतचलद्भरिशोकारघट्टव्याकृष्टं निःश्वसन्त्यः पृथुनयनघटीयन्त्रमुक्ताश्रुधारम् । 25 नासावंशप्रणालीविषमपथपतद्वाष्पपानीयमेतद्" देव त्वद्वैरिनार्यः स्तनकलशयुगेनाविरामं वहन्ति ॥ इति सम्पूर्णेषु काव्येषु वाच्यमानेषु, १०१. अयि खलु विषमः पुराकृतानां भवति हि जन्तुषु कर्मणां विपाकः । अस्य काव्यस्योत्तरार्द्ध छित्तंपादिभिः परःशतैरपि पण्डितैः" परिपूर्यमाणमपि विसंवदतीति राज्ञा धनपालपण्डितः पृष्टः हरशिरसि शिरांसि यानि रेजुर्हरिहरि तानि लुठन्ति गृध्रपादैः ॥ 1 A पट्टिकां राज्ञे दर्शयामास नृपः (D तत्र)। 2 P कर। 3 D एव। 4 P नास्ति। 5 PD 'मय' नास्ति । 6 BP ऽम्भोनिधौ; Pa sम्भोधौ। 7 ABD .तनमालोक्य परिः। 8-9 एतद्वाक्यखण्डं Pa आदर्शऽनुपलभ्यम् । 10 D 'विपरीतान्' नास्ति । 11 AD मेता। 12 D छिन्नपा। 13 B 'अपि' नास्ति । 14 Pb 'बाणमयूरछत्तपनाचिराजकपूर. प्रमुखेषु अपरेषु पण्डितेषु, इदं स्वकल्पितमेव उत्तरार्द्ध न मुख्यमिति बदत्सु धनपालः प्राह' एतादृशः पाठो विद्यमानोऽस्ति । 30 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] . भोज-भीमप्रबन्धः। इदमेवोत्तरार्द्ध संवदतीति नृपेणोक्ते सति स पण्डितः प्रोवाचा-'यदि गुम्फार्थाभ्यां श्रीरामेश्वरप्रासादप्रशस्तिभित्ताविदं न भवति तदाऽतःपरमाजीवितान्तं कवित्वस्य सन्न्यास एवेति । तत्पतिवसमकालमेव यानपात्रे निर्यामकान्निक्षेप्यावगाह्यमाने नीरधौ षभिर्मासैस्तं प्रासादमासाद्य पुनर्मदनपट्टिकायां न्यस्तायामिदमेवोत्तरार्द्धमागतमालोक्य तस्मै तदुचितं पारितोषिकं प्रसादीचकार । इति खण्डप्रशस्तेयथाश्रुतानि बहूनि काव्यानि मन्तव्यानि ।। ६०) कदाचिद्राज्ञा सेवाश्लथतां पृष्टः पण्डितः खं तिलकमञ्जरीगुम्फवैयग्यं जगौ। शिशिरयामिन्याश्चरमे यामे निर्विनोदत्वात्तां प्रथमादर्शप्रतिमानीय पण्डितेन व्याख्यायमानां तिलकमञ्जरीकथांवाचयंस्तद्रसनिपात भीरुः पुस्तकस्याधः कच्चोलकयुतसुवर्णस्थालस्थापनापूर्वं तां समाप्य तचित्रकविताचित्रीयमाणचित्तो नृपः पण्डितं प्राह-मामत्र कथानायकं कुर्वन् , विनीतायाः पदेऽवन्तीमारोपयन् , शक्रावतारतीर्थस्य पदे महाकालमालपन्" यद्याचसे तत्तुभ्यं ददामी'त्यभिदधाने 10 नृपे खद्योत-प्रद्योतनयोः सर्षप-कनकाचलयोः काच-काश्चनयोः धत्तूर-कल्पपादपयोरिव तवं तेषां महदन्तरमित्युचरन् १०२. दोमुह निरक्खर लोहमईय नाराय तु किं भणिमो । गुञ्जाहि समं कणयं तुलन्तु न गओसि पायालं ॥ इत्याक्रोशपरे तस्मिन् जाज्वल्यमानेऽग्नौ तां मूलप्रतिमिन्धनीचकार । अथ स द्विधा निर्वेदभार द्विधाऽवाङ्मुखो निजसोधपश्चाद्भागे जीर्णमश्चाधिरूढो निःश्वसन भृशं सुष्वाप । बालपण्डितया 15 तत्सुतया *सभक्तिकमुत्थाप्य स्नानपानभोजननिर्मापणानन्तरं तिलकमञ्जरीप्रथमादर्शलेखनात्संस्मृत्य ग्रन्थस्याई लेखयांचके । तदुत्तरार्द्ध नूतनीकृत्य ग्रन्थः समर्थितः।। (इतोऽने Pb आदर्श निम्नलिखितमधिकं कथनमुपलभ्यते-) {-ग्रन्थः समर्थितः पण्डितेन । रुष्टो नाणाग्रामे गतः । कदाचिद् धर्मनाम्नि वादिनि समागते भोजसभायां स कोऽपि तादृग् [ विद्वान्नास्ति ] यस्तं प्रतिवादायोत्सहते । ततो भोजेन सबहुमानं धनपाल आकारितः । तमा- 20 गच्छन्तं ज्ञात्वा नष्टो वादी । लोकः 'धर्मस्य त्वरिता गतिः' इति हसितः। राज्ञा सम्मानितः.........पृष्टं च समाधानयोगक्षेमादिस्वरूपं नृपेण । पण्डितः प्राह- . [६८] पृथुकार्तस्वरपात्रं भूषितनिःशेषपरिजनं देव । विलसत्करेणुगहनं सम्प्रति सममावयोः सदनम् ॥ (अत्रैव D पुस्तके निम्नगता विशेषाः पंक्तयःप्राप्यन्ते-) {अन्यदा भोजसभायां काव्यमिदमुक्तं तेन 25 [६९] धाराधीश धरामहीशगणने कौतूहलीयानयं वेधास्त्वद्गणनां चकार खटिकाखण्डेन रेखां दिवि। . सैवेयं त्रिदशापगा समभवत्वत्तुल्यभूमीधवाभावात्तत्त्यजति स सोऽयमवनीपीठे तुषाराचलः॥ अपरपण्डितैरस्मिन् काव्ये उपहसिते धनपालेनोक्तम्___+ एतद्विदण्डान्तर्गतपाठस्थाने Pa आदर्श 'संबदतीति तुष्टस्तस्मै पारितोषिकं सादीचकार । अपरेषु पण्डितेषु, इदं स्वकल्पितमेव उत्तराद्धं न मुख्यमिति वदत्सु धनपालः प्राह-' एतादृशः पाठो विद्यमानोऽस्ति । 1P विनाऽन्यत्र 'प्रासाद' नास्ति । 2 P विनाऽन्यत्र 'तदतः। 3 Pb तदुचितं सविशेषं । 4 Pb पुनरदात् । 5 Pb आदर्श 'खण्डप्रशस्तेर्बहूनि काव्यानि नालिख्यमानानि सन्ति ग्रन्थान्तर इव भवनात्'। 6 स पण्डि०। 7 BP नास्ति । 8 AD चरमः। 9 Pa .युगहेमस्थाल। 10 D माकलयन् । 11 Pa दास्थामी। 12 Pa काचहेम्नोः। 13 AD 'तव' नास्ति; B तत्र । 14 AD दोमुहय । 15 Pa कित्तियं । 16 P तोलन्तु । 17 Pa पाश्चात्यः । 18 Pa मञ्चकारूढो। * Pb आदर्श 'सभक्तिकं भोजनायोत्थापितः, तवृत्तान्तं ज्ञात्वा सानभोजनानन्तरं तिलकमञ्जरीग्रन्थस्य प्रथमादर्श' एतादृशी पंक्तिः। 19 AD लेखदर्शनात् । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ४२ प्रबन्धचिन्तामणिः। [द्वितीयः [७०] शैलैबन्धयति स वानरहृतैर्वाल्मीकिरम्भोनिधिं व्यासः पार्थशरैस्तथापि न तयोरत्युक्तिरुद्भाव्यते । वस्तु प्रस्तुतमेव किंचन वयं ब्रूमस्तथाप्युच्चकैर्लोकोऽयं हसति प्रसारितमुखस्तुभ्यं प्रतिष्ठे नमः॥ एकदा, राजन् ! महाभारती कथा श्रूयतामित्युक्ते पण्डितं प्रति परमार्हतेन तेन प्रत्युक्तम्- [७१] कानीनस्य मुनेः स्वबान्धववधूवैधव्यविध्वंसिनो नेतारः किल पश्च गोलकसुताः कुण्डाः स्वयं पाण्डवाः। तेमी पश्च समानजातय इति ख्यातास्तदुत्कीर्तनं पुण्यं वस्त्ययनं भवेद्यदि नृणां पापस्य काऽन्या गतिः॥} • ६१) शोभनमुनेस्तु शोभनचतुर्विंशतिकास्तुतिः प्रतीतैव । {*"अधुना किमपि प्रबन्धादिक्रियमाणमास्ते ? नृपेणेत्युक्ते धनपालः प्राह [७२] आरनालगलदाहशङ्कया मन्मुखादपगता सरस्वती । तेन वैरिकमलाकचग्रहव्यग्रहस्त न कवित्वमस्ति मे ॥ + नृपेण गोशतं दापितम् । नृपेण 'गावो लब्धाः ?' इत्युक्ते10 [७३] नेव सयं तं पुजइ नेव सयं तं पि गोरुयं इक्कं । नरवर वीसंताओं वीसं ताओ गिहं इन्ति ॥ इति धनपालोक्तिः } [७४] विचनं धनपालस्य चन्दनं मलयस्य च । सरसं हृदि विन्यस्य कोऽभून्नाम न निर्वृतः ॥ ["इतश्च शोभनः स्तुतिकरणध्यानादेकस्या गृहे त्रिर्गमनात्तस्या एव दृष्टिदोषान्मृतः, प्रान्ते निजभ्रातुः पार्थात् ९६ स्तुतीनां वृत्तिं कारयित्वाऽनशनात्सौधर्मे गतः ।] ॥इति धनपालपण्डित-प्रबन्धः॥ ६२) अथ तन्नगरनिवासी कोऽपि द्विजः केवलभिक्षामात्रवृत्तिः कस्मिन्नपि पर्वणि लानव्याकुले सकलेऽपि नगरलोकेऽलब्धभिक्षया रिक्तताम्रपात्र एवायातः-इति ब्राह्मण्या निर्भत्स्य॑मानः सायमानकलहे तां प्रति प्रदत्तप्रहारः आरक्षपुरुषैः संयम्य राजमन्दिरे नीयमानो राज्ञा पृष्टः सन् १०३. अम्बा तुष्यति न मया न सुषया सापि नाम्बया न मया । ___ अहमपि न तया न तया वद राजन् कस्य दोषोऽयम् ॥ इमं श्लोकं पपाठ । तदर्थं पण्डितेष्वनववुध्यमानेषु राज्ञा खमनीषिकया तदभिप्रायं प्रायः समुपलभ्य, तस्मै लक्षत्रये दापिते सति श्लोकार्थं कलहमूलं दारियमेव नृपो व्याचख्यौ। ६३) अथान्यदा सर्वाण्यपि दर्शनानि एकत्राहूय मुक्तिमार्गे पृष्टे ते वस्त्रदर्शनपक्षपातं ब्रुवाणाः सत्यमार्गजिज्ञासयैकी क्रियमाणाः षण्मासीमवधीकृत्य श्रीशारदाराधनतत्पराः कस्या अपि निशः 25 शेषे जागर्षीति व्याहृतिपूर्वमुत्थाप्य सा नृपं १०४. श्रोतव्यः सौगतो धर्मः, कर्तव्यः पुनरार्हतः । वैदिको व्यवहर्त्तव्यो, ध्यातव्यः परमः शिवः ॥ (अथवा-ध्यातव्यं पदमक्षयम् ) श्लोकमिमं राज्ञे दर्शनेभ्यश्च समादिश्य श्रीभारती तिरोदधे। । १०५. अहिंसालक्षणो धर्मो मान्या देवी च भारती । ध्यानेन मुक्तिमानोति सर्वदर्शनिनां मतम् ।। -इति "युग्मश्लोकं निर्माय नृपाय निरपायनिर्णयं ते" प्राहुः। 1D शोभन' नास्ति। * इत आरभ्य प्रकरणसमाप्तिपर्यन्ताः पंक्तयः Pa. आदर्श नोपलभ्यन्ते । । एतच्चिद्वान्तर्गतं कथनं D पुस्तके नास्ति । B आदर्श इदं पद्यं पृष्ठस्य पार्श्वभागे लिखितमुपलभ्यते; ADP मूल एव। | एतत्कथनं Pb आदर्श एवं लभ्यम् । एतत्प्रकरणमत्र AD आदर्श नोपलब्धम् । तत्र तु इतः पूर्वमेव प्रकरण ४५-४६ योरन्तराले संक्षेपेण लिखितं लभ्यते । 2 Pa वास्तव्यो। 3 Pa पुरलोके। 4 Pa आरक्षकनरैः। 5 कोष्ठकगतं वाक्यं A आदर्श लभ्यते। 6 AD ममुं । 7 P तिरोधत्ते। 8 PPa सरस्वती। 9 Pa मुक्तिमार्गः स्यादेवं दर्श। 10 AD श्लोकयुग्म। 11D 'ते' नास्ति । Jain Education Interational Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] भोज-भीमप्रबन्धः। ४३ ६४) अथ तन्नगरनिवासिनी शीताभिधाना रन्धनी कमपि विदेशवासिनं कार्पटिकं पाकायाशनमुपनीयं *सूर्यपर्वणि जलाश्रये कङ्गुणीतैलमासाद्य गृहमुपेत्य तद्वमनाद्विपन्नमालोक्य सद्रव्यमिति उत्पद्यमानकलङ्कशङ्काकुलतया पञ्चत्वाय तदेशनमेव बुभुजे*। तस्मिन्स्थिरे प्रादुर्भूतप्रभूतप्रातिभवैभवा विद्यात्रयीं ईषत्समभ्यस्य नवयौवनया विजयाभिधानया विदुष्या स्वमुतया सा श्रीभोजस्य सः शृङ्गारयन्ती श्रीभोज प्रति प्राह१०६. शौर्य शत्रुकुलक्षयावधि यशो ब्रह्माण्डभाण्डावधि त्यागस्तकुंकवाञ्छितावधिरियं क्षोणी समुद्रावधिः । श्रद्धा पर्वतपुत्रिकापतिपदद्वन्द्वप्रणामावधिः श्रीमद्भोजमहीपतेर्निरवधिः शेषो गुणानां गणः॥ अथ विनोदप्रियेण राज्ञा कुचवर्णनायानुयुक्ता विजया प्राह१०७. उन्नाहश्चिबुकावधिर्भुजलता मूलावधिः सम्भवो विस्तारो हृदयावधिः कमलिनीसूत्रावधिः संहतिः। . ___ वर्णः वर्णकषावधिः कठिनता वज्राकरक्ष्मावधिस्तन्वयाः स्तनमण्डले यदि परं लावण्यमस्तावधिः ॥ 10 इति तद्वर्णनाकर्णनात्तेनार्द्धकविना राज्ञा [७५] { किं वर्ण्यते कुचद्वन्द्वमस्याः कमलचक्षुषः। तयोक्तम्-सप्तद्वीपकरग्राही भवान् यत्र करप्रदः ॥ राज्ञा-[७६] प्रहतमुरजमन्द्रध्वानवद्भिः पयोदैः कथमलिकुलनीलैः सैव दिग् सम्प्ररुद्धा । तयोक्तम्-प्रथमविरहखेदम्लायिनी यत्र बाला वसति नयनवान्तैरश्रुभिधौतवक्त्रा ॥} 15 १०८. सुरताय नमस्तस्मै जगदानन्ददायिने । इति राज्ञो प्रोक्ते, आनुषङ्गि फलं यस्य भोजराज! भवादृशाः॥ इति विजयवाक्ये विजयोक्ते" राजा सत्रपमधोमुखं तस्थौ । {तितो राजा तां भोगिनी चक्रे । अन्यदा तया जालान्तरे चन्द्रकरस्पर्शेऽपाठि[७७] अलं कलङ्कशृङ्गार! करस्पर्शनलीलया । चन्द्र ! चण्डीशनिर्माल्यमसि न स्पर्शमर्हसि ॥} 20 [७८] "क्षणं क्षीणास्तारा नृपतय इवानुद्यमपरा असच्छायश्चन्द्रो बुधजन इव ग्राम्यसदसि ।। __अभूत् पिङ्गा प्राची रसपतिरिव प्राश्य कनकं न शोभन्ते दीपा द्रविणरहितानामिव गुणाः ॥ [७९] "विरलविरलीभूतास्ताराः कलौ स्वजना इव मन इव मुनेः सर्वत्रापि प्रसन्नमभूनमः । अपसरति च ध्वान्तं चित्तात् सतामिव दुर्जनो व्रजति च निशा क्षिप्रं लक्ष्मीनिरुद्यमिनामिव ॥ इत्यत्र बहु वक्तव्यं परंपरया तत्तुं ज्ञातव्यम्। 25 ॥ इति शीतापण्डिताप्रबन्धः॥ ___1 P वैदेशिकं । 2 Pb पुरुषं। 3 D पुस्तके एतद्वाक्यं नास्ति । * एतद्वितारकान्तर्गतपाठस्थाने Pb आदर्श एतादृशः पाठ:-'कणतैलमिश्रा खिचडिकामास्वाध विपन्नमालोक्य सद्गव्योऽयमनया निपातित इत्युत्पद्यमानकलङ्कशङ्कया राजविडम्बनाभयाकुलतया पञ्चत्वाय तदनं सापि बुभुजे'; Db आदर्श पुन:-'कार्पटिकं पाकाय तस्या गृहेऽन्नं कारयित्वा निशि घृतकूपिकव्यत्ययेन कांगुणीतैलं परिवेषितं तं विपन्नं विलोक्य तदशममेव बुभुजे' एतादृशः पाठः प्राप्यते। 4 B तहमनमेव। 5 Pb स्थिरीभूते । 6 D 'प्रभूत' नास्ति । 7 D.वयीं रघुवात्स्यायनकामशास्त्रचाणाक्यनीतिशास्त्रं ईषत् ।। 8 Pa शिरः। 9D नियुक्ता। 10 DPa कथावधिः। 11 Pa कुचः। 12 D यदपरं । 13 D'कर्णना' नास्ति । एतत् कोष्ठकान्तर्गताः पंक्तयः केवलं D पुस्तके एव लभ्यन्ते । 14 D 'राज्ञा' नास्ति । 15 DP नास्ति । 16 AB विजयोदिते। एतत्कोष्ठकान्तर्गतं कथनं केवलं D पुस्तके लभ्यते । इदं पद्यद्वयं केवलं P भादशैं लभ्यम् । 17 PPa नास्ति; B तत् । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ द्वितीयः ६५) *अथ मयूर-वाणाभिधानौ भावुकशालको पण्डितौ निजविद्वत्तया मिथः स्पर्द्धमानौ नृपसदसि लब्धप्रतिष्ठावभूताम् । कदाचिद्वाणपण्डितो जामिमिलनाय तद्हं गतो निशि द्वारप्रसुप्तो भावुकेनानुनीयमानां समानां जामिं निशम्य तत्रं दत्तावधान इत्यशृणोत्-* १०९. गतप्राया रात्रिः कृशतनु शशी! शीर्यत इव प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णित इव ।। प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहों -इति भूयो भूयस्तेन त्रिपदीमुदीर्यमाणामाकर्ण्य, कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चण्डि ! कठिनम् ॥ इति भ्रातृमुखात्तुर्य पदमाकर्ण्य क़ुद्धा सा सत्रपा च 'कुष्ठी भवेति तंभ्रातरं शशाप।इति पतित्र10 तावतप्रभावात्तदात्वप्रभूतप्रसूतिरोगःप्रातः शीतरक्षापिहिततनुपसभायामायातो मयूरेण मयू रेणेव कोमलगिरा 'वरकोढी" इति तं प्रति प्राकृतशब्दे प्रोक्ते चतुरचक्रवर्ती नृपो बाणं सविस्मयं प्रेक्ष्यमाणस्तेन प्रस्तावान्तरे देवताराधनोपायश्चेतस्यवारयांचक्रे' । बाणस्तु सत्रैपस्तत उत्थाय नगरसीमनि स्तम्भमारोप्य खादिराङ्गारपूर्णमधःकुण्डं विधाय स्तम्भाग्रवर्तिनि सिक्के खयमधिरूढः सूर्यस्तुतौ प्रतिकाव्यप्रान्ते सिककपदं क्षुरिकयाँ छिन्दन् पञ्चभिः काव्यैस्तेन पञ्चसु पदेषु 15 छिन्नेषु सिककाग्रविलग्नः षष्ठेन काव्येन प्रत्यक्षीकृतभानुस्तत्प्रसादात्सद्यः सञ्जातजात्यकाञ्चनका यकान्तिः, अन्यस्मिन्नहानि सुवर्णचन्दनावलिप्ताङ्गः संवीतसितदिव्यवसनः समाजगाम । तद्वपुःपाटवं पश्यता नृपेण सूर्यवरप्रसादं मयूरे विज्ञपयति सति बाणो बाणनिभया गिरा तं मर्मणि विव्याध । 'यदि देवताद्याराधनं सुकरं तदा त्वमपि किमपीक चित्रमाविःकुरु' इत्यभिहिते तेन मयूरेण तं प्रति प्रतिवचः सन्दधे । 'निरामयस्य किमायुर्वेदविदा; तथापि तव वचः सत्यापयितुं 20 निजपाणी पादौ च छुर्या विदार्य, त्वया षष्ठे काव्ये सूर्यः परितोषितः, अहं तु पूर्वस्य काव्यस्य षष्ठेऽक्षरे भवानी परितोषयामीति प्रतिश्रुत्य सुखासनसमासीनश्चण्डिकाप्रासादपश्चाद्भागे निविष्टो 'मा भाङ्क्षीविभ्रम मिति षष्ठेऽक्षरे प्रत्यक्षीकृतचण्डिकाप्रसादात्प्रत्यग्रप्रथमानवपुःपल्लव: खसम्मुखं च तत्प्रासादमालोक्याभिमुखागतैर्नृपतिप्रमुखराजलोकैः कृतजयजयारवो महता महेन पुरं प्राविक्षत् । 25 ६६) एतस्मिन्नवसरे मिथ्यादृशां शासने विजयिनि सम्यग्दर्शनद्वेषिभिः कैश्चित्प्रधानपुरुषैपोऽभिदधे-'यदि जैनमते कश्चिदीदृक्प्रभावः प्रभवति तदा सिताम्बराः खदेशे स्थाप्यन्ते नों चेजवान्निास्यन्ते' इति तद्वचनादनु श्रीमानतुङ्गाचार्यास्तत्राकार्य 'निजदेवतातिशयं कमपि दर्श __ * एतच्चिद्वान्तर्गतकथनस्थाने Pb आदर्श 'अथ मयूरबाणौ पण्डितौ स्तः । मिथः स्पर्द्धमानौ राजमान्यौ कदाचिद् बाणो यामिगृहे मिलनाय गतः । बहिस्थोऽशृणोत्' एवरूपं संक्षिप्तं कथनं लभ्यते। 1 P समन्यु; AD नास्ति । 2 P नास्ति । 3 BP क्रुधमिमां। 4 Pउच्चार्यमाणामालोक्य; Pa आदर्श एतद्वाक्यं किञ्चिद् भिन्नप्रकारेण लिखितं लभ्यते, यथा-'पदत्रयीमाद्यां भूयोभूय उदीर्यमाणामाकर्ण्य तुर्य पदं पपाठ'। 5 Pa तद्भातृः। 6P सापत्रमा क्रुद्धा कुष्टी भवेति; Pb क्रुधा शशाप्र कुष्ठी भवेति । 7 B प्रसूतरोगः; D तदारमप्रभृतिरोगोऽभूत्। 8 P सभामागतो। 9 D वरकोडी। 10 D 'प्रति' नास्ति । 11 Pa प्राकृतगिरा। 12 Pa ततः, BP नास्ति । 13 Pa पायं। 14 Pa चिन्तयामास । + B आदर्श इदं वाक्यमेतादृशं-'प्रेक्षमाणः सभासमक्षं विनष्टवपुष ज्ञापयांचकार। 15 ABD सापत्रपः। 16 DP छुरिकया। 17 D 'कान्ति' नास्ति । 18 B . स्वच्छ. दिव्यः। 19 ABD 'सति' नास्ति । 20 BPa नास्ति। 21 A राधनाचं; D देवताराधनं । 22 PPa 'किमपि' नास्ति। 23 AD निजपादौ च पाणी। 24 PPa नो वा जबा। 25 AD तद्वचनानन्तरं । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] भोज-भीमप्रबन्धः। ४५ यन्तु'-इति राज्ञा भणिताः' प्राहुः-'मुक्तानामस्मद्देवतानामत्र कोऽतिशयः सम्भवति, तथापि तत्किङ्कराणां सुराणां प्रभावाविर्भावः कोऽपि विश्वचमत्कारकारी दर्यत' इत्यभिधाय चतुश्चत्वारिंशता निगडैर्निजमङ्गं नियमितं कारयित्वा तन्नगरवर्तिनः श्रीयुगादिदेवस्य प्रासादपाश्चात्यभागे स्थितो मन्त्रगर्भ "भक्तामरे'ति नवं स्तवं कुर्वन् प्रतिकाव्यं भग्नैकैकनिगडः शृङ्खलासंख्यैः काव्यैः पर्याप्तस्तवोऽभिमुखीकृतप्रासादः शासनं प्रभावयामास । ॥ इति श्रीमानतुङ्गाचार्यप्रबन्धः* ॥ ६७) अथ कस्मिन्नप्यवसरे नृपः स्वदेशपण्डितानां पाण्डित्यं श्लाघमानो गूर्जरदेशमविदग्धतया निन्दन् स्थानपुरुषेणाभिदधे-'अस्मद्देशीयांबला-गोपालयोरपि भवदीयोऽग्रणीः' पण्डितः कोऽपि न तुलामधिरोहतीति विज्ञप्ते नृपस्तं मृषाभाषिणं चिकीर्षुराकारसंवृत्त्या कियन्तमपि कालं विलम्बमान स्थानपुरुषेण तवृत्तान्तं ज्ञापितःश्रीभीमः स्वदेशसीमान्तनगरे विदग्धाः 10 काश्चित्पणस्त्रियः कांश्च गोपवेषधारिणः पण्डितान् मुक्तवान् । अन्यदा श्रीराजंदौवारिकेण तत्रागत्य, कश्चित्तद्विधो गोपः प्रतापदेवीनाम्नी पणस्त्रियं सह गृहीत्वा विदग्धलोकसुधासारां धारामारावाप्य, तां कापि सजताकृते विमुच्य, प्रत्यूषमुखे भूपाय गोपे निवेदिते श्रीभोजेन किमपि वदेत्यादिष्टे ११०. भोयएव गलि कण्ठलउ मूं भल्लउ पडिहाइ। उरि" लच्छिहि मुहि" सरसतिहि सीम "विहंची काइ" ॥15 इति तदुक्तिमाकर्ण्य विस्मयस्मेरमानसः सभायामलङ्कतायां पणहरिणदृशं तथ्यनेपथ्यधारिणी पुरो विलोक्य' तां प्रति 'इह किं' इत्याकस्मिकं वचः श्रीभोजः समादिक्षत् । अथ खजातिपक्षपातादिव सरस्वत्याः प्रसादपात्रं शेमुषीनिधिः सा सुमुखी शरीरिणी प्रतिभेव गम्भीरमपि तद्वैचनतत्त्वमवगम्य 'पुच्छन्तीति नृपं प्रति प्रतिवचःप्रथितवती।इत्युचिततद्वचसा विकसितवदनाम्भोजेन भोजेन कोशाधिपात् लक्षत्रये दाप्यमानेऽज्ञाततत्त्वतया तस्मिन स्तब्धतां भजैमाने 20 1 P भणिते प्राहुः; D भणितं ते प्राहुः; Pa राज्ञोक्ते प्राह। * अतोऽनन्तरं Pb आदर्श निम्नलिखितं सावचूरिक पद्यं प्राप्यते शीर्णघ्राणादिपाणीन् व्रणिभिरपघनैर्घघराव्यक्तघोषान् दीर्घाघ्रातानघौघैः पुनरपि घटयत्येक उल्लाघयन् यः। घाशोस्तस्य वोऽन्तर्द्विगुणघनघृणानिम्ननिर्विघ्नवृत्तेर्दत्तार्धाः सिद्धसद्धैर्विदधतु घृणयः शीघ्रमहोविघातम् ॥ काव्यव्याख्या-व्रणवद्भिरपधनैरवयवैरुपलक्षितान्, घर्घरो व्यक्तश्च यो घोषो वो येषां तान् , पापैर्दीघ आघ्रातान् व्याप्तान जन्तून् उल्लाधयन् नीरोगीकुर्वन् य एकः पुनरपि निष्पादयति; पुनरपीत्यनेन पुरापि सृष्टिक्रमः सूर्येणैव कृत इति स्थितिः। तस्य सूर्यस्यायो येभ्यस्तेरश्मयोंऽहसां पापानां विनाशं विदधतु कुर्वन्तु । इति बाणपण्डितसूर्यशतके षष्ठकाव्यावचूरिः।। Pb भादर्श एष प्रबन्ध इतः पूर्वमेव लिखित उपलभ्यते। 2 AD कदापि राजा। 3D याबाल। 4D दीयप. ण्डिताग्रणीः। 5 AD तुला नारोहती। एतद्विदण्डान्तर्गतपाठस्थाने AD आदर्श एतादृशः पाठो लभ्यते-'ततः ज्ञापितवृत्तान्तः श्रीभीमः कदापि गोपवेषधारिणं पण्डितं पण्यस्त्रियं च तत्र प्रहितवान् । तत्र प्रत्यूषे नृपसमीपे नीतो गोपालः श्रीभोजेन किमपि निवेदयेत्यादिष्टः' । 6 P भीमदौवा०, B भोजदौवा। 7 P वदेत्यभिहितः। 8 D भोय एह; A भोएवह; Pa भोयराय। 9 AD कंठुल० । 10 'मूं भल्लउ' स्थाने D भणि केहउ; B केस्सिउ; P भणि केसु, Pa कहि केहउ' एतादृशानि पाठान्तराणि । 11 D उर। 12 D मुह। 13 AD निबद्धी; Pa विढित्ती। एतदने अत्र A आदर्श 'माउलिंगु जइ वुच्चह बुच्चउ इउ मई कहिउ लोहहं समच्चउ । भोएव पुहविहिं गड अवरु न वुच्चह बीजउ राउ ॥' ___ एषा गाथा अधिका लभ्यते । तदनन्तरं AD 'इति सरस्वतीकण्ठाभरणगोपवाक्यं (D 'वाक्यं नास्ति) इत्याह' एतद्वाक्यं विद्यते। । एतच्चिद्वान्तर्गतपाठस्थाने AD आदर्शगत एतादृशः पाठः-'ततो राजा तदुक्तिविस्मितः सभायामलतायां नेपथ्यधारिणी पण्यस्त्रियं पुरो विलोक्य'-। 14 P समादिदेश। 15 Pa 'स्व' स्थाने 'च'; P 'स'। 16 D शिरोमणी । 17 BPPa तद्वचोऽवग० । 18 AD वचनवि०। 19 AD विकसितास्येन। 20 AD नास्ति। 21 AD एते शब्दा न सन्ति । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ प्रबन्धचिन्तामणिः। [द्वितीय त्रिरुक्तोऽपि' यदा न ददाति तदा तं' प्रकाशं 'प्राह-'देशसात्म्यात्प्रकृतिकार्पण्याच लक्षब्रयमस्यै दाप्यते; औदार्यात्तु प्राज्यं साम्राज्यमपि दीयमानमल्पतरमेव स्यादि'त्यादिष्टे समस्तसमाजलोकैः प्रेर्यमाणः स तयोर्वचनयोरन्वयं पृच्छन् इत्यभिदधे-'कर्णान्तविश्रान्तमपानाञ्जनरेखायुगं युगपदस्या निरूप्य मयेह किमित्यभिहितम् । अनया तु "द्विवचनस्य बहुवचनमि"ति • 5 प्राकृतमूत्रलक्षणात् पुच्छन्तीति* देशी, कर्णाभ्यर्णेऽञ्जनरेखामिषात् , यो भवयां श्रुतपूर्वः स एवायं श्रीभोज इति निर्णेतुं गते 'इत्याशंक्योत्तरं दत्तवती । प्रज्ञावज्ञातवाक्पतीनामपि पण्डितानां योऽर्थोऽविषयस्तं सहसैवोद्गिरन्ती प्रत्यक्षरूपा भारतीयम् । तदस्याः पारितोषिके लक्षत्रयं कियदिति।ततो लक्षत्रयस्य निर्व्याहारान्नवलक्षान् प्रत्यक्षास्तस्यै दापयामास । [ तितो ज्ञातगूर्जरजनचातुर्यविशेषः श्रीभोज इत्युवाच-'विवेको गूर्जरे देशे। ततो राजा 'मालवीयः पण्डितो गूर्जरो 10 गोपालः समौ इति वृद्धजनगिरं सत्यां मन्यमानस्तौ विससर्ज ।] ॥ इति पणस्त्री-गोपयोः प्रबन्धः ॥ ६८) अथाबाल्यादेव स नृपः १११. मस्तकस्थायिनं मृत्युं यदि पश्येदयं जनः । आहारोऽपि न रोचेत किमुताकृत्यकारिता ॥ इति विज्ञाततत्त्वतयों धर्मेऽप्रमत्तोऽभूत् । कदाचिन्निद्राभङ्गानन्तरं 'कश्चिद्विपश्चित्समेत्य वेगवति 15 तुरगेऽधिरूढस्त्वांप्रति प्रेतपतिरुपैतीत्यनुसारेण धर्मकर्मणि सज्जीभवितव्यमिति वचनाधिकारिणे पण्डिताय प्रत्यहमुचितदानं ददानः कदाऽपराह्ने सभासिंहासने उपविष्टः स्थगिकावित्तसमर्पितबीटकात्मागेव मुखे पत्रं विस्वाऽभ्यवहरन व्यवहारवेदिभिस्तत्कारणं पृष्ट इत्यवदत्-'कृतान्तदन्तान्तरवर्तिनां मनुष्याणां यदत्तं यच भुक्तं तदेवात्मीयं परस्य तु संशयः । तथा चर्क ११२. उत्थायोत्थाय बोद्धव्यं किमद्य सुकृतं कृतम् । आयुषः खण्डमादाय रविरस्तं प्रयास्यति ॥१ 20 ११३. लोकः पृच्छति मे वार्ता शरीरे कुशलं तव । कुतः कुशलमसाकमायुर्याति दिने दिने ॥२ ११४. श्वःकार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्ने चापराह्निकम् । मृत्युन हि परीक्षेत कृतं वास्य न वा कृतम् ॥३ ११५. मृतो मृत्युर्जरा जीर्णा विपन्नाः किं विपत्तयः । व्याधयो व्याधिताः किं नु दृप्यन्ति यदमी जनाः॥४ ॥ इत्यनित्यताश्लोकचतुष्टयप्रबन्धः॥ ६९) अथान्यदाश्रीभोजःश्रीभीमभूपतेः पार्थाद् दूतमुखेन वस्तुचतुष्टयमयाचिष्ट। एक वस्तु 25 इहास्ति परत्र नास्ति १; द्वितीयं परंत्रास्ति, अत्र नास्ति २, तृतीयमुभयत्रास्ति' ३; चतुर्थमुभय __ 1 AD .ऽपि कोशाधिपः। 2 B तं प्रति प्र.। 3 AD प्रकाशमाह। 4 BP कार्पण्यनैपुण्याच्च। 5A मस्यैव । 6 AD 'प्राज्य' नास्ति । 7 BPPa 'स्याद्' नास्ति । 8 D पृष्टः। 9 Pb ०दधे विशापतिः। 10 D 'सूत्र' नास्ति । * Pb आदर्श 'पुच्छन्ति इति उक्तम् । अञ्जनरेखे पृच्छतः कर्णा'। 11 D 'दृशौ' नास्ति । 12 Pa नास्ति । एतचिह्नान्तर्गतपाठस्थाने AD आदर्श 'इत्युत्तरं प्रतिपादितं, तदियं प्रत्यक्षरूपा भारती' इत्येव पाठः । 13 AD 'प्रत्यक्षान्' नास्ति । एष कोष्टकान्तर्गतः पाठः केवलं Pb प्रतौ प्राप्यते । T AD नास्त्येतत्समाप्तिवाक्यम् । 14 AD Oताकार्यका० । 15 D तत्वो। 16 BP भङ्गादनु । एतच्चिद्वान्तर्गतानां पसीनां स्थाने BPPa आदर्शषु भिन्नपाठीया एतादृश्यः पतयः प्राप्यन्ते-'सजीभवितव्यमिति एतस्मै उचितदानं ददानः प्रतिप्रातः, कस्मिन्नप्यपराह्नावसरे सभासिंहासने समलते सति नृपः स्थगिका वित्तसमर्पितबीटकात् प्रागेव मुखपत्रं • बीटकयाभ्यवहरन् व्यवहारवेदिभिर्विज्ञप्त इति जगाद'। ___17 AD बाधिताः। 18 AD तु। 19 D हृष्यन्ति। 20 AD चतुष्क० । । एष प्रबन्धः Pb प्रतौ इतः पूर्वमेव लिखितो लभ्यते। 21 Pa इह नास्ति परत्रास्ति । 22 Pa तृतीयं वस्तु उभयत्राप्यस्ति । 23 BP तुरीयं नोभयत्रास्ति । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] भोज-भीमप्रबन्धः। त्रापि नास्ति ४ । इति विदुषामपि सन्दिग्धेऽर्थे अणहिल्लपुरे पटहे वाद्यमाने कयापि 'गणिकया पटहस्पर्शपूर्वकं विज्ञपयांचके-'गणिका १ तपखि २ दानेश्वर ३ द्यूतकार ४ रूपं वस्तुचतुष्टयं प्रहीयताम् । *इति तयोक्त नृपो दूताय तत्समर्पयत् । दूतेनेत्थमेवाभिधाय वस्तुचतुष्टयमादाय यथागतं जग्मे । ॥ इति वस्तुचतुष्टयप्रबन्धः ॥ ७०) अन्यदा भोजनृपो वीरचर्यया परिभ्रमन्निशि कयापि दुर्विवध्वा ११६. माणुसडाँ दस दस दसा सुणियइ लोयपसिद्ध । मह कन्तह इक ज दसा अवरि ते 'चोरहिं लिद्ध । इदं पठ्यमानमाकर्ण्य तस्या दुःस्थाऽवस्थया सञ्जातकृपो नृपः प्रातस्तत्पति सदस्यानीय तस्य किमप्यायतिहितं विमृश्य बीजपूरकद्वये प्रत्येकं लक्षमूल्यं" रत्नद्वयं प्रच्छन्नं तस्मै प्रसादीकृतवान् । तेनापि तद्वृत्तान्तमजानता मूल्येन पत्रशाकापणे तर्दै विक्रीतम् । तेनाप्यविदिततत्वरूपे-10 णोपायनाय तन्मातुलिङ्गद्वयं" कस्यापि समर्पितं सत् श्रीभोजस्यैवं तेन दौकितम् । ११७. वेलामहल्लकल्लोलपिल्लियं जइ वि गिरिनईपत्तं । अणुसरइ मग्गलग्गं पुणोवि रयणायरे रयणं ॥ इत्यनुभवाद्भाग्यमेव नृपस्तथ्यं मेने । यतः११८. प्रीणिताशेषविश्वासु वर्षाखपि पयोलवम् । नाप्नुयाच्चातको नूनमलभ्यं लभ्यते कुतः॥ ॥ इति बीजपूरकप्रबन्धः॥ ७१) अथान्यदा कस्यामपि निशि नृपः ‘एको न भव्यः' इति प्रच्छन्नं क्रीडाशुकं पाठयित्वा प्रातः'त्वया पण्डितसभायां" वाक्यमिदमुच्चारणीयमिति संशिक्षितवान् । अथ तेनं तथाभिधीयमाने नृपेण पृष्टाः पण्डिता निर्णयमजानन्तः पाण्मासीमवधिं याचितवन्तः। ततस्तन्मुख्यो वररुचिस्तन्निर्णयाय देशान्तरं परिभ्रमन् केनापि पशुपालेन 'अहमेवामुं निर्णयं" भवत्स्वामिने निवेदयिष्यामि । परमहममुं खं श्वानशावं वृद्धतया नोद्वोढुं वत्सलतयाँ न मोक्तुं च शक्नोमि'-इति 20 तेनाभिहिते तजिघृक्षया वररुचिस्तं वस्त्रान्तरितं निजस्कन्धे संमधिरोप्य तं पशुपालं सह नीत्वा नृपसभामुपागत उत्तरकारिणं निवेदयामास । अथ स पशुपालो नृपेण तदेव वचनं 1AD 'अपि' नास्ति। 2 AD नास्ति । । एतद्दण्डान्तर्गतपाठस्थाने AD प्रतौ 'गणिकावचनाद्वेश्या-तपस्वि-दानेश्वरद्यूतकार-रूपं वस्तु चतुष्टयं प्रहितम् ।' एतादृशः संक्षिप्तः पाठः। 3 P दीयताम् । * तारकान्तर्गता पंक्तिः केवलं BP आदर्श लभ्यते। 4 D कयाचिदपि। 5 AD दरिद्र । Pa प्रती इयं गाथा एतादृशी ____ 'माणुसडा दस दस हवइ दैविहिं निम्मवियाई । मह कंत इक्कइ जि दस नव चोरिहिं हरियाई ।' 6P मुज। 7 D नवोरहिं। 8AD इति। 9 B तस्यावस्थया; P त्यस्या दुःस्थाया अवस्थया । 10 BP कुटुंछ । 11 AB लक्षमूल्यां। 12 A रत्नमयीं; B रत्नद्वयीं; D रत्नं । 13 P प्रक्षिप्य प्रच्छन्नोपकारी; D तदुपकारा। 14 AD 'तद्' नास्ति । 15 AD तेनाप्युपायनाय। 16 BP नास्ति एतत्पदम्। 17 AD नास्ति । 18 A तेन तु (D 'तु' नास्ति) श्रीभोज। 19 P . उपौकितं; B उपदीकृतं । 20A पल्लियं; D पल्लिहं; Pa लालिय। एतद्वाक्यस्थाने P 'परेतनानां अदशा' एष पाठः। 21 केवलं D पुस्तके एष शब्दो लभ्यः। $ BPa नास्ति एष श्लोकः। 22 AD नास्ति । 23 नास्तीदं B PPar 24 Pa नास्ति । 25 B षण्मासी यावत् याचितव्यवधानाः; Pa-oयाचितावधयः, P .याचितवातस्मिता(2)। 26 P अमुष्यः। 27 Pa 'निर्णयं नास्ति। 28 BP निवेदयामि-इति। 29 AD 'अहं' नास्ति । 30 AD श्वानं' इत्येव । 31 BPPa नास्ति। 32 BPPa पारयामि । 33 BPPa तेनेत्यभिहिते; Pb तेनोक्ते तं श्वानं। 34 AD समारोप्य; Pa अधिरोप्य । 35 AD 'त' नास्ति । 36 BPPa उपेतः। 37 A कारणं। 38 BPPa नास्तीदं पदम् । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [द्वितीयः पृष्टः-'अस्मिन् जीवलोके राजन् ! लोभ एवैको न भव्यः'।*राज्ञा कथमिति भूयोऽपि पृष्ठः-'यबाह्मणः श्वानं स्कन्धदेशेनास्पृश्यमपि वहति तल्लोभस्यैव विजृम्भितमतो लोभ एव न भव्यः । ॥ इति 'एको न भव्यः' प्रबन्धः॥ ७२) अथान्यदो मित्रमात्रसहायो नृपतिनिशि परिभ्रमन् पिपासाकुलतया पणरमणीगृहं' 5गत्वा मित्रमुखेन 'जलं याचितवान् । ततोऽतुच्छवात्साच्छम्भल्या दास्यां कालविलम्बेनेक्षुरसपूर्णः "करकः सखेदमुपानीयत । मित्रेण खेदकारणे पृष्टे-'एकस्यामिक्षुलतायां शूलेन" भिद्यमानायां पुरा" रससम्पूर्णः सवाहटिको घट आसीत् ; साम्प्रत तु प्रजासु विरुद्धमानसे" नृपे चिरकालेन केवला "वाहटिकैव भृतेति खेदकारणम्' । नृपस्तत्खेदकारणमाकर्ण्य केनापि वणिजा शिवायतने महति नाटके कार्यमाणे तल्लुण्ठनचित्तमात्मानं विमृश्य तद्वचस्तथ्यमेवेति मेने । 10 ततो व्यावृत्त्य स्वस्थानमासाद्य निद्रां सिषेवे । अपरेछुः प्रजासु सञ्जातकृपो नृपः पण्याङ्गनागृहं गतः। तदा च तयाऽद्य प्रजासु वत्सलोनृपतिः, प्रचुरेक्षुरससङ्केतादिति व्याहरन्त्या राजा तोषितः । ॥इतीक्षुरसप्रबन्धः॥ ७३) अर्थान्यस्मिन्नवसरे धारानगर्याः शाखापुरे प्रासादस्थिताया गोत्रदेव्या नमश्चिकीर्षया नित्यमागच्छन् किदाचिद्वेलाव्यतिक्रमे सञ्जाते सति प्रत्यक्षीभूतया तया देवतया द्वारप्रदेशमाग15 तया मितपरिच्छदं द्वारप्रदेशमागतमकस्मान्नृपमालोक्य ससम्भ्रमान्निषेदुषी निजासनमतिचक्राम। नृपः प्रणामपूर्वकं तं वृत्तान्तं पृच्छन् , सन्निहितं परबलमागतं विचिन्त्य 'शीघ्रं व्रजेति विसृष्टो देवतया क्षणात् गूर्जरसैन्यैर्वेष्टितं खमपश्यत् । जवाधिकेन वाजिना व्रजन् धारानगरगोपुरे प्रविशन् , आलूया-कोलूयाभिधानाभ्यां गूर्जराश्ववाराभ्यां तत्कण्ठे धनुषी प्रक्षिप्य, एतावता व्यापादितोसीति वदभ्यां त्यक्तः। 20 ११९. "असौ गुणीति मत्वेव भोजः कण्ठमुपेयुषा । धनुषा गुणिना यस्य नश्यन्नश्वान्न पातितः ॥ ॥इति अश्ववारप्रबन्धः॥ * एतच्चिह्नान्तर्गतपाठस्थाने BPPa आदर्शेषु-'इत्युच्चरन् कथमिति भूयो अनुयुक्तः श्वानं दधानं विप्रमपगताच (PPa वोरणं दर्शयन् लोभवशविसंस्थुलवृत्तिं ज्ञापयामास ।' एतादृशः पाठो विद्यते । 1 BPPa अथान्यस्मिन्नहनि। 2 Pa .मात्र नास्ति । 3 B धरित्रीपतिः; Pa भूपः। 4 P क्षपायां; BPa क्षणदायां। 5 BP • कुलिततया। 6 P पणनारीगृहाङ्गणं । 7-8 एतदकान्तर्गतशब्दसमूहस्थाने BPPa ‘पयसि याच्यमाने अतुच्छ(ल्य Pa) वात्सल्यतया' एते शब्दा विद्यन्ते। 9 नास्ति । P बिना। 10 P पूर्ण करकं। 11 AD नास्ति । 12 D नास्ति । 13 Pa 'पुरा' नास्ति । 14 Pa रसपरिपूर्णः । 15 P विरुद्ध नृपे; Pa विरुद्ध नृपमानसे। 16 BPPa वाहटिकैव केवला। 17 AD 'खेदकारणं' नास्ति । 18 BPPa नास्ति। 19 BP स्वं । 20 • मेव दध्यौ । एतदन्तर्गतपाठस्थाने BPPa भादशेषु-'पुनः स वसुधाधवः (Pa .धाधिपः) सौधमध्यास्य निद्रावसरे सञ्जातकृपः प्रजासु, परस्मिन्नहनि पणाङ्गनागृहमुपागतः । तत्कालागतया तया अद्य प्रजासु वत्सलो नृपतिरिति प्रचुरेक्षुरससङ्केताद् व्याहरन्ती नृपतिं तोषयामास ।' एतादृशः पाठ उपलभ्यते; Pb आदर्श पुनः अयमेव पाठः किञ्चिद्धेदरूपेणोपलभ्यते। यथा-'अथ परेछुः प्रजासु सञ्जातकृपस्तस्या एव गृहे गतः। तथैव जले मार्गिते क्षणादिक्षुरसे आनीते सहर्षाऽधुना प्रजासु वत्सलो नृप इति वदन्ती जलं पायति स्म । तैः पृष्टं कथं ज्ञायते राजन्वती प्रजा । तया रसवृत्तान्ताद् राजा तोषितः ।' 21 AD 'अथ' इत्येव; BOअन्यदावसरे। 22 AD शाखानगरे। 23-24 BP स्थितगोत्रजानमः। एतदन्तर्गतपाठस्थाने AD एतादृशः पाठः-'कदापि तद्भक्तिरञ्जितया देव्या स नृपः साक्षादभ्यधायि-परबलं सन्निहितमागतं ततः शीघ्रं ब्रजेति विसृष्टः । क्षणाद् गूर्जरसैन्यैः स्वं वेष्टितमालोक्य ।' | एष श्लोकः BPa नोपलभ्यते। 25 AD यश्चापश्यदश्वान्निपातितः एतादृशश्चतुर्थः पादः। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] भोज-भीमप्रबन्धः। (इतोऽने Pb प्रतौ निम्नगतः प्रबन्ध उपलभ्यते-) { अथान्यदा रात्री जागृतो भोजः खऋद्धिविस्तारं हृदये चिन्तयन् हृष्टः सन् इदं काव्यपादत्रयमाह[८०] चेतोहरा युवतयः खजनोऽनुकूलः सद्वान्धवाः प्रणयगर्भगिरश्च भृत्याः । गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरङ्गाः.... इति पुनः पुनः कथयति सति नृपे चतुर्थपादार्थमक्षरावली विलोकयति सति च तावत्कश्चिद्विद्वान् वैश्याव्यसनी 5 तद्वचनाद्राज्ञीकुण्डलयुग्मकृते तद्वेश्म चौर्याय प्रविष्टः, तत्पादत्रयमशृणोत् । ततस्तेनाचिन्ति यद्भाव्यं तद्भवतु, परमुत्पन्नं चतुर्थ पादं कथं स्थापयितुं शक्तः । ततः प्राह सम्मीलने नयनयोर्नहि किश्चिदस्ति । राजा तुष्टः कुण्डलसहितं तद्वाञ्छितं ददौ ।} ___७४) अथान्यदा स एव राजो राजपाटिकायाः प्रत्यावृत्तः पुरगोपुरे मुखमुक्तेन तुरगेण प्रवि-10 शन् व्याकुलीभूतेषु इतस्ततः पलायमानेषु जनेषु कामपि तक्रविक्रयकारिणी जनसंमर्दैन मौलि. कम्पाद्भूतलपतितंभग्नभाण्डामपि गोरसे सरित्प्रवाह इव प्रसरति विकसितमुखाम्भोजां श्रीभोजः प्राह-'तव विषादेऽपि किं हर्षकारणं?' इति नृपेण पृष्टे सा प्राह१२०. हत्वा नृपं पतिमवेक्ष्य भुजङ्गदष्टं देशान्तरे विधिवशागणिकाऽस्मि जाता । पुत्रं भुजङ्गमधिगम्य चितां प्रविष्टा शोचामि गोपगृहिणी कथमद्य तक्रम् ॥ 15 [*एवमवादीत् । तस्मात्प्रदेशान् 'मही ति महीयसी नदी प्रादुरास"।] ॥ इति गोपगृहिणीप्रबन्धः॥ ७२) अन्यदा प्रातः श्रीभोज उपशिलामेकां लक्षीकृत्य धनुर्वेदमनिर्वेदमभ्यसंस्तत्कालदर्शनार्थमागतेन सिताम्बरवेषधारिणा श्रीचन्दनाचार्येण प्रत्युत्पन्नप्रतिभाभिरामतयौचित्यमभिदधे१२१. विद्धा विद्धा शिलेयं भवतु परमतः कार्मुकक्रीडितेन राजन्! पाषाणवेधव्यसनरसिकतां मुश्च देव प्रसीद । 20 क्रीडेयं चेत्प्रवृद्धा कुलशिखरिकुलं कैलिलक्षं करोषि ध्वस्ताधारा धरित्री नृपतिलक तदा याति पातालमूलम् ।। इति तत्कवितातिशयचमत्कृतोऽपि किश्चिद्विचिन्त्य नृपतिरित्युवाच-भवता* सर्वशास्त्रपारंगतेनापि ध्वस्ताधारेति यत्पदमपाठि" ततः कमप्युत्पातं सूचयति'। __७६) इतश्च"-डाहलदेशीयराज्ञो राज्ञी देमतिनानी महायोगिनी । साँ कदाचिदासन्नप्रसवा सदैव दैवज्ञानिति पप्रच्छ-'कस्मिन्सुलग्ने जातः सुतः सार्वभौमो भवतीति । अथ तैः सम्यग-25 वगम्योचराशिषु केन्द्रस्थेषु सौम्यग्रहेषु त्रिषडायगेषु क्रूरेषु चामुकलग्ने जातः सुतः सार्वभौमो भवतीत्युक्तम् । तनिशम्य निश्चितप्रसव दिनादूर्ध्व षोडशप्रहरान् यावद्योगयुक्त्या गर्भस्तम्भं कृत्वा नैमित्तिकनिर्णीते लग्ने कर्णनामानं सुतमसूत । तद्गर्भधारणदोषादष्टमे यामे सा* विपन्ना। 1B भूपतिः। 2 BP जातभयेषु; Po कृतभयेषु। 3 BP लोकेषु इतः। 4 AD विक्रयिणीं। 5 B मौलिकम्पेन भूपतनात् ; P कम्पेन भन्नभाण्डा। 6 AD मुखां तां प्राह । 7 D विषादे किं कारणं। 8 BP नृपेणाभिहिता । * एषा पंक्तिः A नोपलभ्यते प्रक्षिप्तप्राया चेयम् । 9 D नास्ति । 10 D 'प्रदेशात् महीनदी' इत्येव । 11 Pa प्रादुरासीत् एवमवादीच; Pb प्रादुरासीदिति कथा लोकप्रसिद्धा। एष प्रबन्धः BPPa आदर्शेषु नोपलभ्यतेऽत्र। 12 D प्रीतः; Pb प्रातःसमये। 13 Pb सिताम्बरेण। 14 A भवतः। 15A पारंगतस्य । 16 A पपात । 17 BPPa नास्तीदं पदं । 18 BP अथ डाहलदेशे देमतनानी राज्ञी; Pa डाहलीदेशेऽथ देमतराज्ञी नाम्नी। 19 AD नास्ति । 20 BPa केन्द्रभाजिषु । 21 BP 'इत्युक्तं' नास्ति । 22 BP कुर्वत्या। 23 D प्रासूत। 24 BPPa सापि संयमिनी पुरी जगाम । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः । [ द्वितीयः सुलग्नजातत्वात्पराक्रमाक्रान्तदिकक्रः षत्रिंशदधिकेन राज्ञां शतेन भृङ्गविभ्रमकारिणा कुन्तलकलापेन सेव्यमानविमलक्रमक मलयुगलश्चतसृषु * राजविद्यासु परं प्रावीण्यमावहन् विद्यापति - प्रमुखैर्महाकविभिः स्तूयतेऽसौ । यथा - [ एकदा कर्पूरकविः' ] ५० 5 १२२. मुखे हारावाप्तिर्नयनयुगले कङ्कणभरो नितम्बे पत्राली सतिलकमभूत्पाणियुगलम् । अरण्ये श्री कर्ण ! त्वदरियुवतीनां विधिवशादपूर्वोऽयं भूषाविधिरहह जातः किमधुना ॥ { इत्युक्ते चतुरचक्रवर्ती राजाह - 'यदि विधिवशादेवं भवति तदा वर्ण्यनृपतिः किं दैवाद् यन्न चिन्त्यते तदपि स्याद्' अतोऽचमत्कृतेन राज्ञा किञ्चिन्न दत्वा विसर्जितः । गृहं गतो भार्यया पृष्टम् - 'किं दत्तं राज्ञा ?" स आह-'वृत्तखरूपम्' । साह- 'यदि विधिस्थाने तव वशादिति उक्तमभविष्यत् तदा तव सर्वं अदाप्यत्' । ततो नाचिराजकविः कर्णनृपमस्तवीत् । यथा 10 [८१] गोपीपीनपयोधराहतमुरः सन्त्यज्य लक्ष्मीपतेः शङ्के पङ्कजशङ्कया नयनयोर्विश्राम्यति श्रीस्तव । श्रीमत्कर्णनरेन्द्र ! यत्र वलति भ्रूवल्लरीपल्लवस्तत्र त्रुट्यति भीतिभङ्गुरतया दारिद्र्यमुद्रा यतः ॥ ततोऽतितुष्टेन नृपेण हस्तशृङ्खलकपूर्वं उचितदानेन प्रसादीकृतेन मार्गे आगच्छन्तं ज्ञात्वा भार्यां कर्पूरः प्राह - 'यद्राज्ञा अस्मै दत्तं समस्ति इदानीं तदहं स्वगृहे आनयामी' त्युक्त्वा गतस्तत्सम्मुखम् । [८२] कन्ये कासि न वेत्सि मामपि कवे कर्पूर किं भारती सत्यं किं विधुरासि वत्स मुषिता केनांब दुर्वेधसा । किं नीतं तव मुञ्ज-भोज-नयनद्वन्द्वं कथं वर्तसे दीर्घायुर्भजतेऽन्धयष्टिपदवीं श्रीनाचिराजः कविः ॥ 15 अनेन काव्येन तुष्टः सन् कर्णराजात् प्राप्तं स्वर्णदुकूलादि तत्कर्पूरकवयेऽदात् नाचिराजकविः । एतत्कर्ण - नरेन्द्रेण ज्ञात्वा कर्पूर आकारितः पृष्टं च - 'हे कवे ! मुञ्ज-भोज इति पदं कस्मादुदाहृतं भोजे विद्यमाने ।' स आह- 'देव ! राभस्येन हर्ष- मुञ्जनयनद्वन्द्वस्थाने 'मुञ्ज - भोज' इत्यूचानं ।' ततो राज्ञा ज्ञातं एतद् भोजस्यामङ्गलसूचकम् | } 20 [८३] $ दूर्वाः श्यामलयन्ति सन्ततशिखार्थि. प्राङ्गणं शून्ये कल्पतरोस्तले खगमृगाः खेलन्ति निर्भीतयः । श्रीमत्कर्णनरेन्द्रमानविभवैः पूर्णेषु सर्वार्थिषु स्कन्दोपान्तनिवेशितालसमुखी निद्राति रे... कामधुक् ॥ ७७) 'इत्थं महाकविभिः स्तूयमाननानावदातः [ स कर्णनृपः कदाचित् ] श्रीभोजं प्रति प्रधानान् प्राहिणोत्'-' भवदीयनगर्यां भवत्कारिताश्चतुरुत्तरं शतं प्रासादाः, एतावन्त एव गीतप्रबन्धा भवदीयाः, एतावन्ति च बिरुदानि । अतश्चतुरङ्गयुद्धेन द्वन्द्वयुद्धेन वा चतसृषु विद्यासु वादच्छलेनं त्यागेन 25 वा मां निर्जित्य पश्चोत्तरशतविरुदानां भाजनं भूयाः । नो वाहं त्वां विजित्य सप्तत्रिंशताधिकस्य राज्ञा' शतस्य नाथो भवामि - इति तत्प्रभावाविर्भावात् ' 'ईषत् परिम्लानमुखाम्भोजः श्रीभोजः सर्वेष्वपि प्रकारेषु जितकाशिनं काशिपुराधीशं विमृशन् स्वं पराजितं मन्यमानस्तानुपरोधपूर्वमभ्ययैवमङ्गीकारयामास । यत्" - मैंयावन्त्यां श्रीकर्णेन वाणारस्यामेकस्मिन् "लग्ने गर्तापूरपूर्वमार " * एतदन्तर्गतपाठस्थाने AD 'राज्ञां शतेन सेव्यमानश्चतुर्षु०' इत्येव पाठोऽस्ति । 1 Pa चतसृषु दिक्षु | 2 ADPa कविभिः स्तूयमानः; B नास्ति । Pb आदर्शे भिन्नरूपमेतादृशमिदं वाक्यं - 'प्रावीण्यमावहन् विद्यागोष्ठीं चकार । + Pb प्रतावे. वैतद्वाक्यं विद्यते । एष कोष्टकान्तर्गतः प्रबन्धः Pb आदर्शे एवात्रोपलभ्यते । $ इदं पद्यं केवलं P आदर्श उपलब्धम् । एतचिह्नान्तर्गतपाठस्थाने ADP आदर्शेषु 'इति स्तूयमानः स कर्णनृपः कदाचिदूतमुखेन श्रीभोजमुवाच । एतादृशः पाठोऽस्ति । 3 AD भवन्न गर्यो । 4 D तव । 5 B वादस्थलेन; AD वादिवत् । 6 AD त्यागशक्तया । 7 BP सप्तत्रिंशताधिकशतराज्ञां । 8-9 एतच्छन्दस्थाने AD 'तद्वचसा' इत्येव । 10 AD विजितं । 11 BPPa तानू (B नि) परोपरोध० । 12 D यथा; AB नास्ति । 13 BPPa ‘पञ्चाशद्धस्तप्रमाणो मया शिवप्रासादोऽवन्त्यां । 14 AD एकस्मिन्नहनि लग्ने । For Private Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोज-भीमप्रबन्धः । प्रकाशः ] भ्याहंपूर्विकया कार्यमाणयोः पञ्चाशद्धस्तप्रमाणयोः प्रासादयोः यस्मिन्प्रासादे प्रथमं कलशध्वजाधिरोपो भवति तस्मिन्नुत्सवेऽपरेण नरेन्द्रेण त्यक्तच्छत्रचामरेण करेणुमधिरुह्य समागन्तव्यम् । इत्थं भोजस्य यथारुच्यऽङ्गीकारे कर्णगोचरंगते श्रीकर्णस्तेषु सामर्षोऽपि तेनापि प्रकारेण भोजमधश्चिकीर्षुरेकस्मिन्नेव लग्ने पृथक् पृथक् प्रारब्धयोरुभययोः प्रासादयोः सर्वाभिसारेण निजप्रासादं निर्मापयन् सूत्रभृतं पप्रच्छ - 'एकस्मिन्नहन्युदयास्तयोरन्तरे कियान् कर्मस्थायो' भवतीति निवे-5 यताम्' । अथ तैश्चतुर्दश्यनध्याये तत्र सप्तहस्तप्रमाणा एकादश प्रासादा दिनोदये प्रारभ्य दिनान्ते कलशपर्यन्तः कारयित्वा नृपाय दर्शिताः । तया समग्रसामग्र्या नृपः प्रमुदितचित्तो भोजप्रासा 1 पालबन्धे जायमाने निजप्रासादेऽनलसः कलशमधिरोप्य निर्णीते ध्वजाधिरोपलग्ने तया प्रतिज्ञया श्रीभोजं दूतमुखेन निमन्त्रयामास । ततः स्वप्रतिज्ञा भङ्गभीरुर्मालवमण्डलप्रभुस्तथा प्रयातुमप्रभूष्णुस्तूष्णीमासीत् । अथ प्रासादध्वजाधिरोपानन्तरम्, अवतीर्णपुराणकर्ण इव श्रीकर्णस्ताव- 10 द्भिरेव नृपैः समं प्रस्थितः श्रीभोजमभ्यषेणयत् । तस्मिन्नवसरे श्री भोजराज्यार्द्ध प्रतिश्रुत्य मालकमण्डलपाणिघाताय निस्सीमतदीयसीमनगरे" श्रीकर्णः श्रीभीममजूहवत् । अथ ताभ्यां नरेन्द्राभ्यां मन्त्रेणाक्रान्तो व्याल इव भोजभूपालो विगलितदर्पविषो बभूव । तदा चाकस्मिके सञ्जाते भोजपुरपाटवे पन्हूयमाने सर्वेष्वपि घाटमार्गेषु निजनियुक्तमानुषैः सर्वथा निषिद्धयमाdsपरपुरुषप्रवेशे श्री भीमः कर्णाभ्यर्णवर्त्तिनं निजसान्धिविग्रहिकं दामरं भोजवृत्तान्तज्ञानाय 15 स्वपुरुषेण पप्रच्छ । तेनापि स " पुरुषो गाथामध्याप्य प्रहितः श्री भीमसभामुपागतः 20 १२३. अम्बयफलं सुपक्कं विष्टं सिढिलं समुब्भडो पवणो । साहा मल्हेणसीला न याणिमो कञ्जपरिणामो ॥ अनया गाथया श्री भीमे तथास्थिते श्रीभोजः सन्निहितपरलोकपथप्रयाणः कृततदुचितधर्मकृत्यः, "राज्यस्यानुशास्तिं समस्तराजलोकस्य वितीर्य 'मम पञ्चत्वानन्तरं मत्करौ विमानाद्वहिर्विधेयावित्यादिश्य दिवं गतः । ५१ [८४] [[कसु करु रे पुत कलत्त घी कसु करु रे करसणवाडी । एकला आइवो एकला जाइवो हाथपग बेहु झाडी ॥ इति भोजवाक्यं वैश्यया कथितं लोकानां प्रति । } ७८) [*अथ तस्मिन् श्री भोजे दिवमुपेयुषि ] तद्वृत्तान्तविदा कर्णेन तदुर्गमदुर्ग भङ्गादनु" समग्रायां श्रीभोजलक्ष्म्यामुपात्तायां श्री भीमेन दामर आदिष्टः- 'यच्छ्रीकर्णात्त्वया मत्परिकल्पितं राज्यार्द्ध" निजं शिरो वोपनेतव्यम्' । इति राजादेशं विधित्सुर्द्वात्रिंशता पत्तिभिः समं" गुरूदरे प्र-25 विश्य मध्याह्नकाले प्रसुप्तं श्रीकर्ण " बान्धे जग्राह । अथ तेन राज्ञा एकस्मिन् विभागे नीलकण्ठचिन्तामणिगणाधिपप्रमुखदेवतावसरे निर्णीतेऽपरस्मिन्नुत्तरार्द्धे समस्तराज्यवस्तूनि 'स्वेच्छयैक मर्द्धमाद 1 एतद्विपदस्थाने BPPa 'तयो:' इत्येव । 2 Pa यस्य । 3 Pa यथांगीकारे । 4 'तेषु सामर्षोऽपि नास्ति AD | 5 D निर्मापयतोस्तत्र कर्णः सूत्र० । 6 D कर्मोच्छ्रायो। 7 AD तेन चतु० । 8 AD कलशारोपपर्यन्ताः । 9 AD ०कलाप० । 10 AD संजाय० । 11 D • प्रभुश्च श्रीभोजस्तूष्णी० । 12 BPPa ध्वजारोपणादनन्तरं । 13 BP अवतीर्णः पु० । 14 AD • मभिषेणयितुं | 15 AD तदा च । 16 BP • राज्यार्द्ध प्रदानमूरीकृत्य | 17 AD नास्तीदं पदं । 18 BPP& तस्मिन् नृपस्य वपुरपाटवे । 19 B निजमुक्तमानसैः । 20 B तं पुरुषं । 21 D मिल्हण० । 22 एतद्वाक्यं नास्ति AD 23 B इत्यादिदेश । 24 P दिवमुपेयुष; Pa •मुपेयिवान्; B नास्तीदं । + कोष्टकान्तर्गतः पाठो नास्ति BPPa आदर्शेषु । * B आदर्श एव केवलमिदं वाक्यमुपलभ्यते । 25 AD दुर्गभङ्ग पूर्वं । 26 BP समग्रभोजल० । 27 D नास्ति । 28 BPPa वोपनेयं । 29 AD सह । 30A बान्धं; D छान्द्यं । 20 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ प्रबन्धचिन्तामणिः। [द्वितीयः रखे'त्यभिहिते षोडशप्रहरांस्तथा स्थित्वा पुनः श्रीभीमराजादेशाद्देवतावसरमादाय श्रीभीमायोपायनीचकार । अथैतत्प्रबन्धसङ्ग्रहकाव्ययुग्मं यथा१२४. पञ्चाशद्धस्तमाने शिवभवनयुगे तुल्यलग्नक्षणे प्राक् प्रारब्धे यस्य शीघ्रं भवति हि कलशारोपणं तत्र राज्ञा । अन्येन च्छत्रवालव्यजनविरहितेनाभ्युपेतव्यमेवं संवादे भोजराजा व्ययविमुखमतिः कर्णदेवेन जिग्ये ॥ 5 १२५. भोजे राज्ञि दिवं गतेऽतिबलिना कर्णेन धारापुरीभङ्गं सूत्रयतोपरुध्य नृपतिर्भीमः सहायीकृतः। तभृत्येन च दामरेण जगृहे बन्दीकृतात्कर्णतो हैमी मण्डपिका गणाधिपयुतः श्रीनीलकण्ठेश्वरः* ॥ १२६. कविषु कामिषु योगिषु भोगिषु द्रविणदेषु सतामुपकारिषु । धनिषु धन्विषु धर्मधनेषु च क्षितितले नहि भोजसमो नृपः॥ १२७. इत्यागैः कल्पद्रुम इव भुवि त्रासिताशेषदौस्थ्यः साक्षाद्वाचस्पतिरिव जवाद् दृब्धनानाप्रबन्धः । 10 राधावेधेऽर्जुन इव चिरात्तस्य कीर्योत्कचित्राहूतः श्रागमरनिकरैः स्वर्ययौ भोजराजः ॥ ॥ इति भोजस्य विविधाः प्रबन्धा अवशेषा अपि यथाश्रुतं मन्तव्याः ॥ ॥ इति श्रीमेरुतुङ्गाचार्यविरचिते प्रबन्धचिन्तामणौ श्रीभोजराज-श्रीभीमभूपयोः नानावदातवर्णनो नाम द्वितीयः प्रकाशः ॥ ग्रंथान ४६४ ॥ __ 1 Pa चक्रे। * एतत्पद्यानन्तरं D आदर्शेऽत्र निम्नगतं वर्णनं प्राप्यते परं तदत्रानुपयुक्तमसम्बद्धं च प्रतिभाति Pb आदर्शानुसारेणेतः पूर्वमेवोद्धृतमप्यस्ति । 'अथ श्रीकर्णस्याग्रे इदं काव्यमुक्तं कर्पूरकविना 'मुखे हारावाप्तिरि' त्यादि । अपशब्दकथनाद्राज्ञा तस्य कवेः किंचिन्न प्रदत्तं । कुक्षेः कोटर एवं कैटिभरिपुर्धत्ते त्रिलोकी मिमामन्तभूरिभरं बिभर्ति तमपि प्रीतो भुजङ्गाधिपः । श्रीकण्ठस्य स कण्ठसूत्रमभवद्देव त्वया तं हृदा बिभ्राणेन परेषु विक्रमकथा श्रीकर्ण निर्नाशिता ॥ श्रीनाचिराजकविनोक्तमेतद्वाराज्ञा प्रदत्तम् दत्ता कोटी सुवर्णस्य मत्ताश्च दश दन्तिनः । दत्तं श्रीकर्ण देवेन नाचिराजकवेर्मदात् ॥ भार्यया इकितेन कर्पूरकविना समागच्छतो नाचिराजकवेर मार्गे इदं काव्यं भणितम् कन्ये कासि न वेसि मामपि कवे कर्पूर किं भारती सत्यं किं विधुरासि वत्स मुषिता केनाम्ब दुर्वेधसा। किं नीतं तव मुखभोजनयनद्वन्द्वं कथं वर्त्तसे दीर्घायुर्भजतेन्धयष्टिपदवीं श्रीनाचिराजः कविः ॥ श्रीनाचिराजकविना सन्तुष्टेन यदाज्ञा प्रदत्तं तत्सर्वमपि कर्पूरकवये प्रदत्तं ।' * एतत्पद्यानन्तरं P आदर्श निम्नगतं पचं प्राप्यते 'अर्द्ध दानववैरिणा गिरिजयाप्यर्द्धं च तस्याहृते राजन् विश्वमनीश्वरं समभवत् तत्तावदाकर्ण्यताम् । गङ्गा सागरमम्बरं शशिकला नागाधिपः क्ष्मातलं सर्वज्ञत्वमथेश्वरत्वमगमत् त्वां मां च भिक्षाश्रिता । एतत्पy D पुस्तके नास्ति । 2 B जितारिषु साधुषु । $ ABD आदर्श इदं पद्यं विद्यते नान्यत्र; P प्रतावेतत्पद्यस्थाने निम्नगतं पद्यमुपलभ्यते 'देव ! स्वामसमानदानविहितैरथैः कृतार्थीकृते त्रैलोक्ये फलभारभङ्गुरतया कल्पद्रुमो निन्दति । टङ्करछे दनवेदनाविरमणात् सञ्जातसौख्यस्थितिः प्राचीनत्रणिताङ्गरोहणतया श्रीरोहणः स्तौति च ॥' D आदर्शे पुनरिदमप्यधिकमेकं पद्यमन्त्र मुद्रितं लभ्यते देव ! त्वत्करनीरदे दशदिशि प्रारब्धपुण्योन्नती चञ्चरकाञ्चनकङ्कणद्युतितडित्स्वर्णामृतं वर्षति । वृद्धा कीर्तितरङ्गिणी समभवत्प्रीता गुणग्रामभूः पूर्ण चार्थिसरः शशाम विदुषां दारिद्र्यदावानलः ॥ 3 A.BD अथ शेषा। 4 नास्ति ADI 5 P ज्ञेयाः । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] सिद्धराजादिप्रबन्धः । [ ८. सिद्धराजादिप्रबन्धः । ] ७९) अथ कदाचिद्गुर्जरदेशे अवग्रह निगृहीते' वर्षणे विशोपकदण्डाहिदेशग्रामकुटुम्बिकेषु राजदेयविभागनिर्वाहाक्षमेषु तन्नियुक्तैर्व्यापारिभिः सकलोऽपि सजातवित्तो' देशलोकः ' श्रीपत्तने समानीय भीमभूपाय न्यवेद्यत । ततः कदाचिदहर्मुखे श्रीमूलराजकुमारस्तत्र चङ्क्रममाणो नृपपत्तिभिः सस्यनिदानीभूतदानसम्बन्धे व्याकुलीक्रियमाणं सकललोकमालोक्य पारिपा- 5 र्श्विकेभ्योऽधिंगतवृत्तान्तः कृपया किञ्चिदनुमिश्रलोचनो वाहवाहाल्यां तदतुलया" कलया नृपं परितोष्य" 'वरं वृणीष्वेति नृपादेशमासाद्य " " भाण्डागार एव वरोऽयमस्तु' इति विज्ञापयामास । राज्ञा- 'किमिति अधुनों न याचसे ?' इत्युक्तः 'प्राप्तिप्रमाणाभावाद्' - इत्युदीरयन् भृशं निर्बन्धपराद् धराधिपात्तेषां कुटुम्बिनां दानीमोचनवरं ययाचे ।" ततो हर्षबाष्पाविललोचनेन राज्ञा" तत्तथेति प्रतिपद्य भूयोऽप्यभ्यर्थयखेत्यभिहितः । १२८. क्षुद्राः सन्ति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोद्यताः स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः । दुरोदरपूरणाय पिति स्रोतः पतिं वाडवो जीमूतस्तु निदाघसम्भृतजगत्सन्तापविच्छित्तये ॥ ५३ इति काव्यर्थबलेन निगृहीतप्रभूतलोभस्ततो भूयः " किमप्यप्रार्थयमानो मानोन्नततया * खसौधमध्यमध्यास्य बन्धनविमोचितैस्तैर्लोकैः स दैवतवदुपास्यमानः खस्थानस्थितैश्च * स्तूयमानस्तृतीयेऽहनि तदीय सन्तोषदृशी श्रीमूलराजः खर्लोकं “जगाम । तच्छोकाम्बुधौ सराजलोको राजा, स 15 च पूर्वमोचितलोकश्च निमग्नञ्चिरेण चतुरैर्विविधबोधबलादपकृष्टशोकशङ्कुश्चक्रे । अथ द्वितीये वर्षे वर्षाबलाद् हर्षिभिः कर्षुकलोकैर्निष्पन्नेषु समस्तसस्येषु व्यतीततद्वर्षयो राजदेयविभागे" प्रदिश्यमाने राज्ञि चानाददाने सति तैरतरसभा मेलिता । तत्र सभ्यानां लक्षणमेवम् १२९. न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् । धर्मः स नो यत्र न चास्ति " सत्यं सत्यं न तद्यत्कृतकानुविद्धम् ॥ इति निर्णयात्सभ्यैर्गतवर्षतद्वर्षयोर्दानी" राज्ञी ग्राहिता" । ततस्तेन द्रव्येण कोशद्रव्येण च श्रीमूराज कुमार श्रेयसे नव्यस्त्रिपुरुषप्रासादः श्री भीमेन कारितः । 1 AD निगृहीतायां वृष्टौ ८०) 'अनेन श्रीपत्तने श्री भीमेश्वरदेव-भट्टारिका भीरुआणीप्रासादौ कारितौ । । सं० २०७७ ' 2 नास्तीदं पदं AD 3 AD • निर्वाहाक्षमो देशलोकः । 4 AD न सन्ति एते शब्दाः । 5 BP • भूपतये । 6 नास्ति BP | 7 BP मूलराजः । 8 AD ' ० दानी ० ' नास्ति । 9 BP परिगत | 10 AD अस्त्रमिश्र० । 11 AD • तुल्यया । 12 B तोषितः सन्; P परितोष्य तस्माद् । 13 BP आदेशे श्रुते । 14 P विना नास्त्यन्यत्र । 15 D कुटुम्बिकानां । 16 'ययाचे ततो' स्थाने BP याचमानो । 17 BP नास्ति । osभ्यर्थयेः । 19 BP • सूक्तार्थ विद्याबलेन । 20 BP लोभभूतः । 21 A 'भूयः' नास्ति । * एतदन्तर्गतपाठस्थाने AD 'स्वस्थानमगमत् । ततश्च कौटुम्बिकैः' इत्येव पाठः । 23 नास्तीदं AD P स्वर्गमुपतस्थौ । 25 BP आगामिनि वर्षे | 26 AD कर्पुकलोकैर्वर्षाबलात् । 'हर्षिभिः' पदं नास्ति । 27 AD • देयभागविभागे । 28 AD प्रविश्य० | 29 'तैः' स्थाने 'ताभ्यां ' BP 30 BP न सत्यमस्ति । एतच्चिह्नान्तर्गतपाठस्थाने BP आदशैं 'सभ्यैस्तद्वर्षद्वयदानीं नृपति ( ते: B ) पार्श्वात् ग्राहयित्वा अपूर्यमाणकोशद्रव्येण श्रीधर्ममूलः श्रीमूलराज०' एतादृशः पाठः । 31 Dदानीं । 32D राजा 33D माहितः । + इयं पंक्तिः BP नास्ति । 18 D भूयोऽप्यर्थये ०; B 22 D• प्यभ्यर्थमानोऽपि । 24 B स्वर्लोकमुपजगाम; For Private Personal Use Only 10 20 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ प्रबन्धचिन्तामणिः । [ तृतीयः प्रारभ्य वर्ष ४२, मास १०, दिन ९ राज्यं कृतम् । ( B P आदर्श-संवत् १०७८ पूर्व श्रीभीमेन वर्ष ४२ राज्यमकारि ।) ८१) *श्रीउदयमतिनान्या तद्राज्या [नरवाहनखंगारसुतया] श्रीपत्तने सहस्रलिङ्गसरोवरादप्यतिशायिनी नव्या वापी कारिता । 5 ८२) अथ सं० ११२० चैत्रवदि ७ सोमे हस्तनक्षत्रे मीनलग्ने श्रीकर्णदेवस्य राज्याभिषेकः संजातः । ८३) इतचं शुभकेशिनामा कर्णाटराट् तुरगापहृतोऽटव्यां नीतः कुत्रापि पत्रलवृक्षच्छायां सेवमानः प्रत्यासंन्ने दावपावके कृतज्ञतया विश्रामोपकारकारिणं तमेव तरुमजिहासुस्तेनैव सह तस्मिन् दहने प्राणानाहुतीचकार । ततस्तत्सूनुर्जयकेशिनामा तद्राज्ये सचिवैरभिषिक्तः । क्रमेण तत्सुता 10 मयणल्लदेवी नाम्नी समजनि । सा च शिवभक्तः सोमेश्वरनामनि गृहीतमात्र एवेति पूर्वभवमस्मा त्-'यदहं प्राग्भवे ब्राह्मणी द्वादशमासोपवासान् कृत्वा प्रत्येकं द्वादशवस्तूनि तदुद्यापने दत्त्वा श्रीसोमेश्वरनमस्याकृते प्रस्थिता बाहुलोडनगरमागता, तत्करं दातुमक्षमाऽग्रतो गन्तुमलभमाना तन्निर्वेदादहं “आगामिनि जन्मनि अस्य करस्य मोचयित्री भूयासमिति कृतनिदाना विप द्यात्र कुले जाते'ति पूर्वभवस्मृतिः। अथ बाहुलोडकरमोचनाय सा" गूर्जरेश्वरं प्रवरं वरं कामय15 माना तं वृत्तान्तं पित्रे निवेदयामास"।अथ 'जयकेशिराजा तं व्यतिकरं ज्ञात्वा तेन श्रीकर्णः स्वप्रधानैः स्वसुताया मयणल्लदेव्या अङ्गीकारं याच्यते स्म । अथ श्रीकणे तस्याः कुरूपताश्रवणादुदासीने सति तस्मिन्नेव निर्बन्धपरां तामेवं मयणल्लदेवीं पिता स्वयंवरां प्राहिणोत् । अथ श्रीकर्णनृपो गुप्तवृत्त्या स्वयमेव तां कुत्सितरूपां निरूप्यं सर्वथा निरादर एव जातः । ततोऽष्टभिः" सहचरीभिः सह नृपतिहत्याकृते मयणल्लदेवीं प्राणान् परिजिहीर्षु मत्वा" श्रीकर्णजनन्या उदय20 मतिराझ्या तासां विपदं द्रष्टुमक्षमया ताभिः सह प्राणसङ्कल्पश्चक्रे । यतः१३०. स्वापदि तथा महान्तो न यान्ति खेदं तथा परापत्सु । अचला निजोपहतिषु प्रकम्पते भूः परव्यसने ॥ इति । तदनन्तरं महोपप्लवमुपस्थितमवगम्य मातृभक्त्या तां परिणीय श्रीकर्णः पश्चादृष्टिमात्रेणापि न सम्भावयामास। ८४) अन्यदी कस्यामप्यधमयोषिति साभिलाषं नृपं मुञ्जालमन्त्री कञ्चकिना विज्ञाय तद्वेषधा25 रिणीं मयणल्लदेवीमेव ऋतुलाता रहसि प्राहिणोत् । तामेव स्त्रियं जानता नृपतिना सप्रेमभुज्य * इयं समना पंक्तिः A आदर्श न विद्यते । 1 P मतीराच्या तत्पल्या । एतत्पदं P प्रतावेव लभ्यते। "P आदर्श 'संवत् ११२० वर्षे श्रीकर्णः राज्यमलं चकार'। B 'अथ संवत् ११२० वर्षे श्रीकर्णस्य महाशृंगारिणः पट्टाभिषेकः । एतादृशः पाठभेदः । 2 B अथ; P तथा। 3 Pप्रांतभूमौ; B प्रान्तरप्रान्तः। 4 AD सन्नः। 5 BP 'ततः' नास्ति। 6 AD 'नाम्नी' नास्ति। 7P शिवभक्तिपरैनरैः। 8 B नास्ति। 9A वाहलोड। 10 BP भवे। 11 P नास्ति । 12 P पितरं । 13 P निवेदितवती। +-+२ एतद्विदण्डान्तर्गतपाठस्थाने A 'जयकेशिराज्ञा श्रीकर्णः' इत्येव पाठः, तथैव पुनः ++3 एतद्विदण्डान्तर्गतपाठस्थाने BP आदर्श 'जयकेशिराज्ञापि तं व्यतिकरं ज्ञापितः श्रीकर्णः स्वप्रधानपुरुषैर्मयणलदेव्याः कुरूपतां निशम्य मन्दादरे तस्मिन्नेव राजनि-' एतादृशः पाठो लभ्यते। 14 AD 'एव' नास्ति। 15 BP विलोक्य। 16 'निरादर एव जातः, ततोऽष्टभिः' एतत्पाठस्थाने BP 'निरादरपरः दिकन्याभिरिव मूर्तिमतीभिरष्टभिः' एप पाठः। 17 नास्ति BPL 18 एते शब्दा: A आदर्श न लभ्यन्ते। । एतदन्तर्गतपंक्तिस्थाने BP 'इति न्यायात् तदाग्रहादेव अनिच्छुनापि सर्वथा श्रीकणेन सा परिणिन्ये । तदनन्तरं हगमात्रेण सर्वथा तामसम्भावयन्' एषा पंक्तिः। 19 D नास्ति । 20 BP नास्ति। 21 D .धारिणीं कृत्वा । 22 AD 'एव' नास्ति । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] सिद्धराजादिप्रबन्धः । मानायास्तस्या आधानं समजनि । तदा च तया सङ्केतज्ञापनाय नृपकरान्नामाङ्कितमङ्गुलीयकं निजाङ्गुल्यां न्यधायि । अर्थ प्रातस्तद्दुर्विलसितात् तद्वृत्तान्तमनवबुध्यमानाय प्राणपरित्यागो - यता नृपतये स्मार्तेस्तप्तताम्रमयपुत्तलिका लिङ्गनमिति निवेदिते प्रायश्चित्ताय तथैव चिकीर्षवे स मन्त्री यथावद् अवदत् । अत्र P प्रतौ निम्नलिखिताः लोका विद्यन्ते - ) [ ८५] गुरुणा विक्रमेणायं बभूव पितृसन्निभः । आकारेण तु रम्येण भूपोऽभूदात्मभूसदृक् ॥ [८६] विना कर्णेन तेन स्त्रीनेत्राणां न रतिः क्वचित् । इतीव जज्ञिरे तेषामनुकर्ण प्रवृत्तयः ॥ [८] तत्कर्णार्जुनयोर्वैरं पूर्वं कर्णः स्मरन्निव । अर्जुनं गमयामास यशो देशान्तराणि यः ॥ [८] अभिरामगुणग्रामो रामो दशरथादिव । सूनुः श्रीजयसिंहोऽस्माज्जायते स्म जगज्जयी | ८५) सुलग्ने तस्य जातस्य सुनोर्नृपतिर्जयसिंह इति नाम निर्ममे । स बालस्त्रिवार्षिकः सव- 10 योभिः कुमारै रममाणः सिंहासनमलंचक्रे । तद् व्यवहारविरुद्धं विमृशता नृपेण पृष्टैः ' नैमित्तिकैस्तस्मिनेवाभ्युदयिके लग्ने निवेदिते राजा तैदैव तस्य सूनो राज्याभिषेक' चकार । ५५ ८६) सं० ११५० वर्षे पौषवद ३ शनौ श्रवणनक्षत्रे वृषलने श्री सिद्धराजस्य पट्टाभिषेकः । ८७) स्वयं तु, आशापल्लीनिवासिनमाशाभिधानं भिल्लमभिषेणयन् भैरवदेव्याः शकुने जाते तत्र कोछरबाभिधान देव्याः प्रासादं कारयित्वा खलक्षाधिपं भिल्लं विजित्य तत्र जयन्तीं देवीं 15 प्रासादे स्थापयित्वा कर्णेश्वरदेवतायतनं तथा कर्णसागरतडागालंकृतां कर्णावतीपुरं निवेश्य स्वयं तत्र राज्यं चकारं । श्रीपत्तने तेन राज्ञा श्रीकर्णमेरुः प्रासादः कारितः । सिं० ११२० चैत्रसुदि ७ प्रारभ्य सं० १९५० पौषवदि २ यावत् वर्ष २९, मास ८, दिन २१० अनेन राज्ञा राज्यं कृतम् । । I ८८) अथ दिवं गते श्रीकर्णे श्रीमदुदयमतिदेव्या भ्राता मदनपालोऽसमञ्जसवृत्त्या वर्तते । तेन 20 लीलाभिधानो राजवैद्यो दैवतवरलब्धप्रसादः सकलनागरिकैलो कैस्तत्कलाहृतहृदयैः" काञ्चनदान पूजयाऽभ्यर्च्यमानः कदाचित्तेन" निजसौधे समानीय " कृतके" शरीरामये नाडीदर्शनात्पथ्यसज्जतां निवेदयन्निदमूचे ( तेन मदनपालेन बभाषे ) ' तदेव नास्तीति । * ततस्त्वं मया रोगप्रतीकाराय नाकारितः, किं तु पथ्यदानेन बुभुक्षाप्रतीकारार्थमेव * । ततो द्वात्रिंशत्सहस्राण्युपनये'त्युक्त्व तेन "बन्दीकृतस्तत्तथेति निर्मायेत्यभिग्रहमग्रहीत्- 'यदतः परं प्रतीकारनिमित्तं नृपतेः 25 सौमपहाय नान्यत्र गन्तव्यमिति । ततः परमातुराणां प्रश्रवणावलोकनान्निदान चिकित्सितं कुर्वाणः केनापि मायाविना कृतकामयचिकित्सितकौशलं वुभुत्सुना वृषभप्रश्रवणे दर्शिते सम्यक् तदवगम्य शिरोधूननपूर्वकं 'वृषभः" स बहुखादनेन मोडित इत्यस्मै सत्वरमेव तैलनाली दीय 1 BP नास्ति । 2 नास्तत्पदं AD 3 AD • द्यतो नृपतिः । 4 'स्मार्ते : ' शब्दस्थाने AD 'स्मातस्तत्प्रायश्चित्तं पप्रच्छ तैः' एते शब्दाः | 5 D यथावद्यावदत्; P यथावदवादीत् । १-१ एतद्वाक्यं AD नास्ति । 6 P तद्विरुद्धं विमृश्य । २- २ तदैवाभिषेकं BP + इयं पंक्तिः BP नास्ति । 7 D पट्० । 8 AD तडागालंकृतं चकार । 9 AD चक्रे । 10 A २५ । इयं पंक्तिः BP न विद्यते । 11 AD • नागरिकैः । 12 AD कलाचार्य (D 'चार्य' नास्ति) चमत्कृतचित्तैः । 13 AD 'तेन' नास्ति । 14 AD समानीतः । 15 BP कृत्रिमे । 8 केवलं A आदर्श इदं वाक्यं लभ्यते । * एतदन्तर्गता पंक्तिः BP नास्ति । 16 BP सहस्रानर्प येत्यादिष्टः । 17 नास्ति 'तेन बन्दीकृतः ' BP 18 A कृतक चिकित्सित० । 19 BP वृषभोऽयं । 20 D गोण्डितः; B फोडितः । 5 For Private Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ 10 प्रबन्धचिन्तामणिः। [ तृतीया ताम्, नोचेद्विपत्स्यते' इति तचित्ते चमत्कारमारोपयामास । अन्यदा राज्ञा निजग्रीवा धाप्रतीकारं पृष्टः । 'पलद्वयप्रमाणमृगमदपङ्कलेपनेन अर्तिरुपशाम्यतीति व्याहृते तथाकृते ग्रीवा सज्जीभूता। ततो' नृपसुखासनवाहिना पामरेण नरेण ग्रीवाबाधाप्रतीकारं पृष्टः । 'घृष्टकरीरमूलरसेन तन्मृत्तिकासहितेन लेपं विधेही'त्यभिदधे। ततो राज्ञा किमेतदिति पृष्टे' 'देशकालौ बलं 5 शरीरप्रकृतिं च विमृश्यायुर्वेदविदा चिकित्सां क्रियत' इति विज्ञपयति स्म । अन्यदा धूतैः कैश्चिदेकसंमत्या पृथक् पृथक् युगलीभूय तत्प्रथमयुगलिकया *विपणिमार्गे 'किमद्य यूयं वपुष्यपटव' इति पृष्टः । द्वितीययुगलिकया श्रीमुञ्जालस्वामिप्रासादसोपाने पृष्टः । तृतीययुगलिकया तु राजद्वारे, चतुर्थयुगलिकया द्वारतोरणे तथैव । ततो भूयो भूयः पृच्छोत्पन्नेन शङ्कादूषणेन* तत्कालोत्पन्नमाहेन्द्रज्वरस्त्रयोदशे दिने विपेदे स वैद्यः।। ॥ इति ठ०" लीलावैद्यप्रबन्धः॥ ८९) 'अथ सान्तूनामा मन्त्री अन्यायकारिणं तं मदनपालं कालमिव जिघांसुः कदाचित्कर्णागजं गजेऽधिरोप्य राजपाटिकाव्याजेन तद्गृहे नीत्वा पत्तिभिस्तं व्यापादयामास। ९०) अथ कश्चिन्मरुमण्डलवास्तव्यः श्रीमालवंश्य" उदाभिधानो वणिक प्रावृट्काले प्राज्याज्यक्रयाय निशीथे व्रजन् कर्मकरैरेकस्मात्केदारादपरस्मिन् जलैः पूर्यमाणे तान् 'के यूयमिति पप्रच्छ। 15 तैः 'वयममुकस्य कामुका' इत्युक्ते 'ममापि कापि सन्ती'ति पृच्छन् , तैः 'कर्णावत्यां सन्ती'त्यभिहिते स सकुटुम्बस्तत्र गतः । वायटीयजिनायतने विधिवद्देवान्नमस्कुर्वन् कयापि लाछिनान्यों छिम्पिकया श्राविकया साधर्मिकत्वाद्ववन्दे । तया 'भवान् कस्यातिथिरि'त्युदीरितः, 'वैदेशिकोऽहमिति भवत्या एवातिथिरि ति तद्वाक्ये श्रुते तं तया सह नीत्वा कस्यापि वणिजो गृहे कारितान्नपाकेन भोजयित्वा निर्मापितकायमाने निजतलके तं" निवास्य कालक्रमेण तत्र सम्पन्न20 सम्पदु इष्टिकाचितं गृहं चिकीर्षुः खातावसरे निरवधिं शेवधिमधिगम्य तामेव स्त्रियमाहूय समर्पयन् तया निषिद्धः, तत्प्रभावेण ततः प्रभृति स उदयनमन्त्रीति नाम्ना पप्रथे। . ९१) *तेन कर्णावत्यामतीतानागतवर्तमानचतुर्विंशतिजिनसमलङ्कृतः श्रीउदनविहारः कारितः। ९२) तस्यापरमातृकाश्चत्वारः सुताः चाहडदेव-आम्बड-बाहड-सोलाक-नामानोऽभूवन् । 1 BP .मारोपयन् । 2 BP कदाचित् । 3 P शीर्षबाधा। 4 D 'शिरोऽतिः'। १-१ एतदकान्तर्गतपाठस्थाने BP 'उपचारे क्रियमाणे' इत्येव पाठः। 5 D शिरोबाधा०; BP 'बाधां' इत्येव । 6 D वृद्धक०; A नास्ति । 7 BP भिधाय । २-२ एतद्वाक्यस्थाने BP 'भूयो राज्ञा उपलब्धप्रतीकारे' एतद्वाक्यम्। 8 नास्ति BPL 9 BP चिकित्सितं । 10 A विज्ञ. पयत्। ३-३ एतत्पाठस्थाने BP 'विज्ञप्य गृहं याति तनगरनिवासिभिः धूतैः'। * एतदन्तर्गतस्य पाठस्य स्थाने BP 'प्रणामपूर्वमाकस्मिकं वपुरपाटवं पृष्टः । द्वितीययुगलिकया द्वारतोरणे, तृतीययुगलिकया विपणिमार्गे, चतुर्थयुगलिकया श्रीमूलराजप्रा. सादे भूयोभूयस्तदेव पृच्छयमानः शङ्काविषदोषेणैव' एतादृशः पाठः प्राप्यते । 11 DP '3०' नास्ति। + एतत्पंक्तिस्थाने AD 'भथ सान्तुमंत्रिण उपायाद्राजपाटिकाम्याजेन श्रीकर्णाङ्गजेनान्यायकारी मदनपालो व्यापादितः।' इत्येषा पंक्तिः। 12 D देश्यः । 13 BP पूर्यमाणोऽम्भोभिः। 14 BP पृच्छन् । 15 BP इत्य भिहिते। 16 BP गत्वा। 17 BP नास्त्येतरपदं। 18 A त्वां वन्दे। 19 'तद्वाक्ये श्रुते तं' स्थाने AD 'वदन्' इत्येव पदम्। 20 नास्त्येतत्पदं ADI 21 'तं निवास्य' स्थाने AD 'क्वापि गृहे निवासितः। 22 AD नास्ति । 23 BP उदयननामा मंत्री। इतोऽग्रे Dd आदर्श निम्नगतं लिखितं प्राप्यते 'कृतप्रयत्नानपि नैव कांश्चन स्वयं शयानानपि सेवते परान् । द्वयेऽपि नास्ति द्वितयेऽपि विद्यते श्रियः प्रचारो न विचारगोचरः॥' 24 BP Oमतीत-वर्तमान-भविष्यत् । 25 BP पुत्राः। 26 P सोलक; B सोल्ल। 27 नास्ति P। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] सिद्धराजादिप्रबन्धः । ९३) अथान्यस्मिन्नवसरे सान्तूनामा महामात्यः करेणुस्कन्धाधिरूढो राजपाटिकायां व्रजन् व्यावृत्तः स्वयं कारितसान्तूवसहिकायां देवनमश्चिकीर्षया तत्र प्रविशन् वारवेश्यास्कन्धन्यस्तहस्तं कमपि चैत्यवासिनं सितवसनं ददर्श । ततो गजादवरुह्य कृतोत्तरासङ्गः पञ्चाङ्गप्रणामेन तं गौतममिव नमश्चक्रे । तत्र क्षणं स्थित्वा भूयस्तं प्रणम्य प्रतस्थे । ततः स लज्जयाधोवदनः पातालं प्रविविक्षुरिव तत्कालं सर्वमेव परिहृत्य मलधारिश्रीहेमसूरीणां समीपे उपसम्पदमादाय 5 संवेगरसर्परिपूर्णः श्रीशत्रुञ्जये गत्वा द्वादशवर्षाणि' तपस्तेपे* । कदाचित्स मन्त्री श्रीशत्रुञ्जये देवपादानां नमस्करणायोपगतोऽदृष्टपूर्वमिव तं मुनिं प्रणम्य तच्चरित्रविचित्रितमनास्तद्गुरुकुलादि पप्रच्छे । 'तत्त्वतो भवानेव गुरुरिति तेनोक्ते को पाणिभ्यां पिधाय मैवं मादिशेत्यज्ञातवृत्त्यैवं विज्ञपयंस्तेन प्रोचे१३१. जो जेण सुद्धधम्मम्मि ठाविओ संजएण गिहिणा वा । सो चेव तस्स जायइ धम्मगुरू धम्मदाणाओ ॥ 10 इति तस्मै मूलवृत्तान्तं निवेद्य तस्य दृढधर्मतां निर्ममे। ॥ इति मनिसान्तू-दृढधर्मताप्रबन्धः॥ ९४) अथानन्तरं 'श्रीमयणल्लदेव्या जातिस्मरणात्पूर्वभववृत्तान्ते श्रीसिद्धराजस्य निवेदिते श्रीमयणल्लदेवी श्रीसोमनाथयोग्यांसपादकोटिमूल्यां हेममयीं पूजां संहादाय यात्रायां प्रस्थिता बाहुलोडनगरं सम्प्राप्ता । पञ्चकुलेन कदर्थ्यमानेषु कार्पटिकेषु राजदेयविभागस्याप्राप्त्या सवाष्पं 15 पैश्चान्निवर्त्यमानेषु मयणल्लदेवी हृदयादर्शसंक्रान्ततहाँधा खयमेव पश्चाद्व्याघुटन्ती अन्तराऽन्तरीभूतेन श्रीसिद्धराजेन विज्ञप्ता-खामिनि ! अलममुना सम्भ्रमेण । कुतो हेतोः पश्चान्निवय॑ते?' इति राज्ञोक्ते" 'यदैव सर्वथाऽयं करमोक्षो भवति तदैवाहं श्रीसोमेश्वरं 'प्रणमामि नान्यथेति । किं चातःपरमशननीरयोनियमच' । इति श्रुत्वा राज्ञा पञ्चकुलमाकार्य तत्पदृस्याङ्के द्वासप्ततिलक्षानुत्पद्यमानान् विमृश्य तं पट्टकं विदार्य मातुः श्रेयसे तं" कर मुक्त्वा करे जलचुलुकं मुञ्चति 20 स्म । ततः श्रीसोमेश्वरं गत्वा तया सुवर्णपूजया देवमभ्यर्च्य तुलापुरुषगजैदानादीनि महादानानि दत्त्वा -'मत्संदृशी कापि नाभून्न भविते'ति दध्माता निशि निर्भरं प्रसुप्ता ।तपखिवेषधारिणा तेनैव देवेन जगदे-'इहैव मदीयदेवकुलमध्ये काचित्कार्पटिकनितम्बिनी यात्रायै आया ___1AD स्वका। 2 नास्ति ADI 3 AD चकार। 4 BP तदनु। 5 BP पार्श्वे । 6 AD संपूर्णः। 7A मास्त्येतत्पदं। * इतोऽग्रे D पुस्तके निम्नगताः पंक्तयोऽधिका लभ्यन्ते-"किं च तेनान्ये समानाः प्रतिबोधिताः । मुनिश्चिन्तयति रे रे चित्त कथं भ्रातः प्रधावसि पिशाचवत् । अभिन्नं पश्य चास्मानं रागत्यागास्सुखी भव ॥ संसारमृगतृष्णासु मनो धावसि किं वृथा । सुधामयमिदं ब्रह्मसरः किं नावगाहसे ॥" 8 BP पृच्छन् । 9 BP इत्युक्ते। 10 AD मंत्र्यूचे। 11 BP सम्यक्त्वदृढताप्र०। एतच्चिद्वान्तर्गतः पाठः A प्रती म लभ्यते। 12 BP नास्त्येतत्पदम् । 13 AD 'सह' नास्ति । 14 'यात्रायां प्रस्थिता' नास्ति BPI 15 BP 'पश्चात्' नास्ति। 16 Dd तद्वाष्पधारा। 17 Po अन्तरान्तरायभू०; P अन्तरायीभू। 18 P विज्ञपयांचके। 19 BP राज्ञाभिहिते। १-१ एतदक्षान्तर्गतपाठस्थाने AD 'प्रणमामि अशनं [च A] गृह्णामि नान्यथेति । इत्येष पाठः। 20 D 'सं' नास्ति । 21 BP तदनु। 22 P यात्वा । 23 A श्रीसोमेश्वरमः। 24 D 'गज' नास्ति । 25 D दानानि; A नास्ति । एतच्छब्दाने D पुस्तके निम्नगताः श्लोका विद्यन्ते; परं अन्यत्राप्राप्यत्वात् प्रक्षिप्तप्राया एवेति प्रतिभाति संग्रहैकपरः प्राप समुद्रोऽपि रसातलम् । दाता तु जलदः पश्य भुवनोपरि गर्जति ॥ सेनाझपरिवाराचं सर्वमेव विनश्यति । दानेन जनितानन्दे कीतिरेकैव तिष्ठति ॥ दातुर्नार्थिसमो बन्धुर्भारमादाय यः परात् । लक्ष्मीरूपादविगमं निस्तारयति तं खलु ॥ 26 D अतो महादानैमरसरशी। 27 Doमातशिरा निर्भरं। 28 AD सुप्ता। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ तृतीयः ताऽस्ति । तस्याः सुकृतं याचनीयं त्वया' इत्थमादिश्य तिरोहिते तस्मिन् राजपुरुषैर्विलोक्य समानीता । तस्मिन्पुण्ये याचितेऽप्यददाना कथमपि 'यात्रायां किं व्ययीकृतमिति पृष्टा सती सा प्राह-'अहं भिक्षावृत्त्या योजनशतं देशान्तरमतिक्रम्य ह्यस्तने दिवसे' कृततीर्थोपवासा पारणकदिने कस्यापि सुकृतिनः अकृतपुण्या पिण्याकमासाद्य, तत्खण्डेन श्रीसोमेश्वरमभ्यर्च्य, 5 तदंशमंतिथये दत्त्वा स्वयं पारणकमकार्षम् । भवती पुण्यवती, यस्याः पितृभ्रातरौ पतिसुतौ च राजानः, या त्वं बाहुलोडकर "द्वासप्ततिलक्षान् मोचयित्वा सपादकोटिमूल्यया पूजया" *अगण्यपुण्यमर्जयन्ती मदीयपुण्ये कृशेऽपि कथं लुब्धासि ?*। यदि न कुप्यसि तदा किञ्चिद्वच्मि । तत्त्वतस्तव पुण्यान्मदीयं पुण्यं महीतले महीयः। यतः १३२. सम्पत्ती नियमः शक्तौ सहनं यौवने व्रतम् । दारिद्ये दानमत्यल्पमपि लाभाय भूयसे । 10 इति युक्तियुक्तेन वाक्येन तस्या गर्व निराचकार । ९५) सिद्धराजस्तु समुद्रोपकण्ठवर्ती एकेन चारणेन१३३. को जाणइ तुह नाह चीतु तुहाल" चक्कवइ । लहु" लंकह लेवाह मग्गु निहालइ करणउत्तु ॥ *इति स्तूयमाने, द्वितीयेन चारणेनोक्तम् - १३४. धाई धौअइ पाय जेसल जलनिहि ताहिला। तई जीता सवि राय एकु विभिषणु मिल्हि म हु॥ 15 ९६) एवं तत्र यात्रायां व्यापते" राज्ञि, 'छलान्वेषिणा यशोवर्मणा मालवकभूपेन गूर्जरदेशे' उपद्रूयमाणे सान्तूसचिवेन 'त्वं कथं निवर्त्तसे?' इति प्रोक्तः, स" राजा-'यदि त्वं खखामिनः सोमेश्वरदेवयात्रायाः पुण्यं ददासी'त्युदीरितस्तचरणौ प्रक्षाल्य तत्करतले तत्पुण्यदाननिदानं जलचुलुकं निक्षिप्य तं "राजानं निवर्तयामास। श्रीसिद्धराजः पत्तनमुपेत्य सान्तूमालविकनृप योस्तं वृत्तान्तमववुध्य क्रुद्धं नृपं मन्त्री एवमवादीत्-'खामिन ! यदि मया दत्तं तव सुकृतं याति, 20 तँदा तस्य सुकृतमन्येषामपि पुण्यवती सुकृतं मया भवते प्रदत्तमेव । अथापरं" येन केनाप्युपायेन परचक्रं वदेशे प्रविशद्रक्षणीयमेवेति एवं वदता तेन नृपतिरनुनीतः । ततस्तेनैवामर्षेण मालवमण्डलं प्रति प्रतिष्ठासुः सचिवान् शिल्पिनश्च सहस्रलिङ्गधर्मस्थानकर्मस्थाये नियोज्य, त्वरितगत्या तस्मिन्निष्पद्यमाने नृपतिः प्रयाणकमकरोत् । तत्र जयकारपूर्वकं द्वादशवार्षिके विग्रहे सञ्जायमाने सति कथंचित् धारादुर्गभङ्गं कर्तुमप्रभूष्णुः 'अद्य मया धाराभङ्गानन्तरं भोक्तव्यमिति 1 रालोक्य । 2 P याचमाने। 3 BP अनुयुक्ता। 4 BP मया। 5 BP शतानि; D शतान्तरः। 6 AD ह्यस्तन०। 7 P दिने। 8 D नास्ति 'अकृतपुण्या'। 9 A मप्यतिथये। 10 'या वं' नास्ति BPL 11 'बाहुलोडकर' इत्येव A.DI 12 BP सपर्यया। * एतत्पाठस्थाने AD 'श्रीसोमेश्वरं पूजितवती सा कथं मदीयपुण्यलब्धेच्छासि ।' एतादृशः पाठः। 13 AD परं यदि। 14 BP मम। 15 P नास्ति। 16 'युक्ति' नास्ति D17-18 सर्वकषं गर्व विससर्ज BPI 19 D चीत। 20 D तु हालेह। 21 D लड। * अस्याः पंचयाः स्थाने D पुस्तके 'इत्यादि स्तूयमानोऽभवत् ।' इत्येव वाक्यं विद्यते। अनिमा गाथापि तत्र नास्ति। 22 AB 'चैवं' इत्येव । 23 A धाईड। 24 A पाइ। 25 BP लईया। 26 P एक्क; B इकु। 27 AD व्यावृत्ते । १-१ एतदकान्तर्गतपाठस्थाने BP 'मावलकराज्ञा छलान्वेषिणा गूर्जरमण्डले' एष पाठः। 28 BP विज्ञप्तः। 29 BP नास्ति 'स राजा'। 30 AP .चुलकं। 31 'तं राजानं' स्थाने BP 'मालवराजानं यशोवर्माणं'। २-२ एतदन्तर्गतपाठस्थाने A प्रतौ 'ततः श्रीपत्तनगतं श्रीसिद्धराजं तद्वृत्तान्तावगमनेन क्रुद्धं'; D पुस्तके च 'ततः श्रीसिद्धराजस्तद्वृत्तान्तोपगमनेन क्रुद्धस्तं' एतादृशः पाठः प्राप्यते । 32 BP नास्ति । 33 AD यन्। 34 AD ततः । 35 एते शब्दाः BP न सन्ति। 36 P 'एव' नास्ति । 37 AD नास्ति 'अथापरं'। 38 BP निवारणीय० । 39 'एवं' न ADI 40 BP 'ततः' नास्ति। 41 D 'प्रति' नास्ति। 42 P एतत्पदं नास्ति; D स्वजयः। ३-३ एतदकान्तर्गतं वाक्यं न विद्यते ADI Jain Education Interational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 प्रकाशः] सिद्धराजादिप्रबन्धः । *कृतप्रतिज्ञो दिनान्तेऽपि तत्कर्तुमक्षमतया सचिवैः काणिक्यां धारायां भज्यमानायां पत्तिभिः परमारराजपुत्रे विपद्यमाने-इत्थं प्रपश्चात् नृपः प्रतिज्ञामापूर्य अकृतकृत्यतया पश्चाद्व्याधुटितुमिच्छुर्मुञ्जालसचिवं ज्ञापयामास । तेनापि त्रिकचतुष्कचत्वरप्रासादेषु निजपुरुषान्नियोज्य धारादुर्गभङ्गवार्तायां क्रियमाणायां तद्वासिना केनापि पुरुषेण 'दक्षिणेप्रतोल्यां यदि परबलं ढोकते तदैव दुर्गभङ्गो नान्यथेति' तद्वाचमाकर्ण्य स विज्ञप्तः सचिवस्तं व्यतिकरं राज्ञे गुप्तविज्ञप्तिकया 5 निवेदयामास । राज्ञापि तद्वृत्तान्तवेदिना तत्रैव ढौकिते सैन्ये दुर्गमं 'दुर्ग विमृश्य यशःपटहनाग्नि बलवति दन्तावले समधिरूढः, सामलनाना आरोहकेण पश्चाद्भागेन, त्रिपोलिकपाटद्वये आहन्यमाने लोहमय्यामर्गलायां भज्यमानायां बलाधिकतयान्तस्युटितात्तस्माद्गजात्कर्णाङ्गजमुत्तार्य स्वयं यावदवरोहति तावत्स गजः पृथिव्यां पपात । स 'गजः सुभटतया तदा विपद्य वडसरग्रामे खयशोधवल एव यशोधवलनामा विनायकरूपेणावततार । १३५. सिद्धिस्तनशैलतटीपरिणतिदलितद्वितीयदन्त इव । विभ्राणो रदमेकं गजवदनः सृजतु वः श्रेयः॥ इति तदीया स्तुतिः । इत्थं दुर्गभङ्गे सूत्रिते सति समराधिरूढं यशोवर्माणं पद्भिर्गुणैराबध्य" तत्र निजामाज्ञां जगन्मान्यां दापयित्वा यशोवर्मरूपया प्रत्यक्षयशःपताकया रोचिष्णुः श्रीपत्तनं प्राप। [८९] *क्षुण्णाः क्षोणिभृतामनेन कटका भग्नास्यधारा ततः कुण्ठः सिद्धपतेः कृपाण इति रे मा मंसत क्षत्रियाः । 15 आरूढप्रबलप्रतापदहनः सम्प्राप्तधारश्चिरात् पीत्वा मालवयोषिदश्रुसलिलं हन्तायमेधिष्यते ॥ [२०] *क्षितिधव भवदीयैः क्षीरधारावल: रिपुविजययशोभिः श्वेत एवासिदण्डः । किमुत कवलितैस्तैः कजलैर्मालवीनां परिणतमहिमानं कालिमानं तनोति ॥ ९७) "प्रतिदिनं सर्वदर्शनेष्वाशीर्वाददानायाहूयमानेषु यथावसरमाकारिता जैनाचार्याः श्रीहेमचन्द्रमुख्याः" श्रीसिद्धराजमासाद्य नृपेण दुकूलदानादिभिरावर्जितास्तैः सर्वैरप्यप्रतिमप्रति-20 भाभिरामैर्द्विधापि पुरस्कृतो नृपतये श्रीहेमचन्द्रसूरिरित्थमाशिष" पपाठ१३६. भूमि कामगवि ! खगोमयरसैरासिञ्च रत्नाकराः ! मुक्तास्वस्तिकमातनुध्वमुडुप ! त्वं पूर्णकुम्भी भव । धृत्वा कल्पतरोदलानि सरलैर्दिग्वारणाः! तोरणान्याधत्त स्वकरैर्विजित्य जगतीं नन्वेति सिद्धाधिपः॥ अस्मिन्काव्ये निःप्रपञ्चे प्रपञ्चयमाने तद्वचनचातुरीचमत्कृतचेता नृपस्तं प्रशंसन् , कैश्चिदसहिष्णुभिः-'अस्मच्छास्त्राध्ययनबलादेतेषां विद्वत्ता' इत्यभिहिते राज्ञा पृष्टाः श्रीहेमचन्द्राचार्या:-25 * एतच्चिद्वान्तर्गतपाठस्थाने D पुस्तके एतादृशः पाठो विद्यते- 'सचिवैः पत्तिभिः परमारराजपुत्रैः पञ्चशतीभिर्विपद्यमानैः राज्ञः प्रतिज्ञा "दिनान्तेऽपि "पूरयितुमक्षमैः कथंचित्तस्यां कणिकामयधाराभङ्गेन पूरितायां राजा-' 13 एतान् शब्दान् विहाय A आदर्शेऽपि एष एव पाठः । 1 AD 'दक्षिण' नास्ति । 2 ABD तत्र । 3 A. दुर्गमन्तर्दुर्गतं; B दुर्गमदुर्गमं; D दुर्गमन्तर्दुर्गम । 4 AD मयार्गलायां। 5 AD 'तस्मात्' नास्ति । 6 P नास्ति। 7 D 'स गजः' नास्ति । 8 P विहाय 'तदा' नास्ति । 9 AD सिद्धेः। 10 AB परिणिति; P परिणत। 11 P रदन। 12 P नास्ति वाक्यमिदं। 13 BP निबध्य । * एतस्पघद्वयं केवलं P प्रतौ लभ्यते। 14 P इति प्रतिः। 15 D आहूतेषु। 16 B .चन्द्रसूरिमुख्याः । 17 AD नृपायेत्याशिर्ष श्रीहेमचन्द्रः। Jain Education Interational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्रबन्धचिन्तामणिः । Sपुरा श्रीजिनेन श्रीमन्महावीरेणेन्द्रस्य पुरतः शैशवे यदूव्याख्यातं तज्जैनेन्द्रव्याकरणमधीयामहे वयमिति वाक्यानन्तरम्, 'इमां पुराणवार्त्तामपहायास्माकमेव सन्निहितं' कमपि व्याकरणकर्त्तारं ब्रूत' इति तत्पिशुनवाक्यादनु नृपं प्राहु:'- 'यदि श्री सिद्धराजः सहायीभवति तदा कतिपयैरेव दिनैः पञ्चाङ्गमपि नूतनं व्याकरणं रचयामः ।' अथ नृपेण 'प्रतिपन्नमिदं निर्वहणीयमित्य5 भिधाय तद्विसृष्टाः सूरयः स्वं स्थानं ययुः । नृपेण' तु 'यशोवर्मराज्ञः करे निःप्रतीकारां क्षुरीं समर्प्य तदग्रासने वयं गजाधिरूढाः पुरमध्ये' प्रवेशं करिष्यामः ।' इति राज्ञः प्रतिश्रवमाकर्ण्य मुञ्जालनाम्ना" मन्त्रिणा प्रधानवृत्तिं मुञ्चता किमिति राज्ञा निर्बन्धपृष्टेन - १३७. मा स्म सन्धि विजानन्तु मा स्म जानन्तु विग्रहम् । आख्यातं " यदि शृण्वन्ति भूपास्तेनैव पण्डिताः ॥ इति नीतिशास्त्रोपदेशात्खबुद्ध्यैव खामिना प्रतिज्ञातोऽयमर्थः । सर्वथाऽऽयतौ न हित' इत्युक्तम् । 10 नृपस्तु प्रतिज्ञाभङ्गभीरुः" "वरमसून परिहरामि न तु विश्वविदितं प्रतिश्रुतमिति नृपेणोक्ते" मन्त्री दारुमयीं क्षुरिकां विधायें पाण्डुवर्णसर्जरसेन तां" पिहितां पृष्ठासनस्थस्य यशोवर्मणः करे समर्प्य तदग्रासनस्थो नृपतिः श्री सिद्धराजः परमोत्सवेन श्रीमदणहिल्लपुरं प्रविवेश । प्रावेशिकमङ्गलव्याकुलतानन्तरं नृपेण स्मारिते व्याकरणकरणवृत्तान्ते, बहुभ्यो देशेभ्यस्तत्तद्वेदिभिः पण्डितैः समं सर्वाणि व्याकरणानि पैंत्तने समानीय श्रीहेमचन्द्राचार्यैः श्री सिद्ध हेमाभिधानं अभिनवं 15 पञ्चाङ्गमपि व्याकरणं सपादलक्षग्रन्थैप्रमाणं संवत्सरेण रचयांचक्रे । राजवाह्यकुम्भिकुम्भे तत्पु । $ अन्त्र Dd आदर्शे निम्नलिखितः समधिकः पाठ उपलभ्यते - 'कैश्चिदसहिष्णुभिर्न मेने । हेमचन्द्रनामा शिष्यः कदाचिन्नवलुञ्चितशिरा जलविहरणाय व्रजन् गजभयात्सौधभिन्तिस्थितो गवाक्षस्थेनालिगपुरोहितेन सारिणा पराभूतः । गुरवो विज्ञप्ताः । तैरुक्तो 'मिथ्या दुःकृतं देहि' । तद्दुःखेन निःसृतोऽन्यगच्छीय देवचन्द्र पद्माकराभ्यां सह श्रीकाश्मीरं प्रति । मार्गे नाडोलग्रामे सप्तमोपवासे श्रीसरस्वती प्रसन्ना जाता । निजमूर्तिर्दर्शिता । मित्रयोर्निवेदिते लोकसप्तशत्या ग्रामो वर्णितः । मित्रद्वयस्य कार्यसिद्धिहेतोः स्तम्भतीर्थे प्रविशतः केनापि देशान्तरिणाकार्य विद्या समर्पिता । इत्युक्तं च- 'मम मरणसमये मम शबोपरि त्रिभिनभिमण्डले मन्त्रः स्मरणीयः । शबो वरं दास्यति' । एवं कृते श्मशाने मध्यरात्रौ शबेनोत्थाय वरो दत्तः । श्रीहेमचन्द्रेण राजप्रबोधो याचितः । देवचन्द्रेण हस्तसिद्धेशकृष्टिविद्या । पद्माकरेण पाण्डित्यं । अन्नान्तरे कृतकृत्यो हेमचन्द्रो वलितः । कालभैरवीयमध्ये चण्डिकाप्रासादे विश्रान्तस्तत्र लघुभैरवानन्दः शिष्यपञ्चशतीवृतः समेत्य, 'रे रे चण्डे प्रचण्डे मह्यं मोदकान् देही' ति भणिवा सुवर्णमयकर्परमग्रे मुक्तं । देव्या मोदकैर्भूतं । तेन सर्वेषां तेऽर्पिताः । हेमचन्द्र स्यापि 'हे शिष्य त्वमपि गृहाणे'त्युक्ते तेन तस्यापि करौ स्तम्भयित्वोक्तं 'यद्यस्ति सखं तदा त्वं भक्षयेथाः' एवमुक्ते चरणयोः पतितः । ततः पतने आयातं श्रीजयसिंहदेवः सम्मुखमेत्य समानीय हेमचन्द्रं गजाधिरूढं प्रवेश्य च पुरोहित तिरस्कृतं सूरिं, राज्ञा गुरव उपरोध्य हेमचन्द्रस्य पदस्थापना कारिता । श्रीहेमचन्द्रसूरयोऽष्टम्यां चतुर्दश्यां च श्रीजयदेवभवनं प्रयान्ति । पौषधागारे श्रीस्थूलिभद्रचरितं वाचयन्तः पुरोहितेन राज्ञोऽग्रे उपहसिताः - 'महाराज ! कोयमसत्प्रलापः ? सर्वरसभोजने पूर्वपरिचित वेश्यागृहे कामनिग्रहः । परं किं क्रियते भवद्वल्लभाः ।' राज्ञोक्तं- 'आचार्या अत्र समेष्यन्ति तदा वक्तव्यं परोक्षे न ।' सूरिध्वागतेषु राज्ञोकं - 'किं किं वाचयन्तो वर्तध्वे यूयं ?" सूरिभिः समग्रमपि संक्षेपतः स्थूलिभद्रचरितं कथितं । आलिगेनोक्तं- 'महाराज ! [ तृतीयः विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो ये चाम्बुपत्राशिनस्तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः । आहारं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवास्तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दम्भः समालोक्यताम् ॥ गुरुभिरुक्तं- 'सिंहो बलीयो द्विरद' इत्यादि । आलिगेनोक्तं- 'अस्माकमेव शास्त्राणि पठित्वास्माकमेव पतयः संजाताः ।' गुरुभिरुक्तं'जैनेन्द्रव्याकरणं किं भवदीयं यत्पुरा श्रीजिनेन...' 1 AD οजैनव्या० । 2 AD तद्वाक्या । 3D सन्निहितं नृपं । 4D ते प्राहुः । 5P पदं प्रापुः । 6 AD ततो यशो० । 7 BP नास्ति । 8 BP नास्ति । 9A प्रस्ताव० । 10 'नाम्ना' नास्ति AD 12 BP • देशेन स्वामिना । 13 BP नास्तीदं पदं । 14-15 एतत्पदद्वयस्थाने AD 'ततो' इत्येव । 17 BP नृपवचनात् । 18 B निर्माय; AD नास्ति । 19 P सर्वर०; B गुर्जर० । 20 AD नास्ति । 22 'व्याकुलता' नास्ति AD 23D 'करण' नास्ति । 24 AD तद्वेदि० । 25 AD सह । 26 AD नास्ति । 27 AD हेमाचा० । 28 AD नास्ति । 29 B निर्बन्ध०; P नास्ति । 11A अख्यातं । 16 D प्रतिश्रव । 21 BP • पत्तनं । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] सिद्धराजादिप्रबन्धः । स्तकमारोप्य सितातपवारणे ध्रियमाणे चामरग्राहिणीचामरयुग्मवीज्यमानं नृपमन्दिरमानीय प्राज्यवर्य पूजा पूर्व कोशागारे न्यधीयत । ततो राजाज्ञयान्यानि व्याकरणान्यपहाय तस्मिन्नेव व्याकरणे सर्वत्राधीयमाने केनापि मत्सरिणा 'भवदन्वयवर्णनाविरहितं व्याकरणमेतद्' 'इत्युक्ते श्रीहेमाचार्यः क्रुद्धं राजानं राजमानुषादवगम्य द्वात्रिंशच्छोकान्नूतनान्निर्माय द्वात्रिंशत्सूत्रपादेषु तान् सम्बद्धाने लेखयित्वा प्रातर्नृपसभायां वाच्यमाने व्याकरणे - १३८. हरिरिव बलिबन्धकरस्त्रिशक्तियुक्तः पिनाकपाणिरिव । कमलाश्रयश्च विधिरिव जयति श्रीमूलराजनृपः ॥ इत्यादीन् चौलुक्यवंशोपश्लोकान्, द्वात्रिंशत् सूत्रपादेषु, द्वात्रिंशत् श्लोकानवलोक्य प्रमुदितमना नरेन्द्रो व्याकरणं विस्तारयामास । तथा" च श्रीसिद्धराजदिग्विजयवर्णने याश्रयनामा ग्रन्थः कृतः । १३९. भ्रातः ! संवृणु पाणिनि " प्रलपितं कातन्त्रकन्या वृथा मा कार्षीः कटु शाकटायनवचः क्षुद्रेण चान्द्रेण किम् | 10 कः कण्ठाभरणादिभिर्वठरयत्यात्मानमन्यैरपि श्रूयन्ते यदि तावदर्थमधुराः श्रीसिद्धहेमोक्तयः ॥ ६.१ ९८) अथ श्रीसिद्धराजेन पत्तने यशोवर्मराज्ञ स्त्रिपुरुषप्रभृतीन् सर्वानपि राजप्रासादान् सहस्रलिङ्गप्रभृतीनि च धर्मस्थानानि दर्शयित्वा प्रतिवर्षं देवदायपदे कोटिद्रव्यव्ययं निवेद्यैतत्सुन्दरमसुन्दरं वेति "पृष्टः स एवमवादीत् - 'अहं ह्यष्टादशलक्षप्रमाणमालवदेशाधिपस्त्वत्तः" पराभवपात्रं कथं भवेयम्, परं महाकालदेवस्य दत्तपूर्वत्वाद्देवद्रव्यं मालवका स्तद्भुञ्जानास्तत्प्रभावादुदि- 15 तास्तमिता वर्त्तामहे । भवदीयान्वय राजानोऽप्येतावद्दे वैद्रव्यव्ययनिर्वाह । क्षमाः, लुप्तसर्वदेवदायपदा विपदां पदं भवन्तो मूलनाशं विनंक्ष्यन्ति ।' ९९) अथ श्रीसिद्धराजः कदापि " सिद्धपुरे रुद्रमहाकालप्रासादं कारयितुकामः कमपि स्थपतिं स्वसंनिधौ स्थापयित्वा प्रासादप्रारम्भलग्ने तदीयां कलासिकां लक्षद्रव्येणोत्तमर्णगृहात् " विमोच्य तां" वंशशलाकामयीं विलोकयन" 'किमेतदि' ति राजा पप्रच्छ" । ततो" 'मया प्रभोरौदार्यपरी - 20 क्षानिमित्तमेतत्कृतमिति स्थपतिरुक्तवान् । 'ततस्तद्रव्यमनिच्छतोऽपि नृपतेः प्रत्यर्पितम् । ततः क्रमेण' त्रयोविंशतिहस्तप्रमाणं परिपूर्ण प्रासादं कारयामास । तत्र प्रासादेऽश्वपतिगजपतिनरपतिप्रभृतीनामुत्तमभूपतीनां मूर्त्तीः कारयित्वा तत्पुरो योजिताञ्जलिं स्वां मूर्त्ति निर्माप्य देशभङ्गेऽपि तान्" प्रासादस्याभङ्गं याचितवान् । तस्य प्रासादस्य ध्वजारोपप्रस्तावे सर्वेषामपि जैनप्रासा - दानां पताकावरोहं कारितवान् । यथा मालवकदेशे महाकालप्रासादे "वैजयन्त्यां सत्यां जैनप्रा- 25 सादेषु न ध्वजारोप इति । 38 1 A 'प्राज्यवर्य' नास्ति । 2 BP सपर्या 1 3 BP नास्ति । 4 BP नृपा० । 5 AD 'एतद्' नास्ति । 6-7 एतदतर्गत पाठस्थाने BP ' इति व्याहरता क्रुद्धे नृपतौ नृपाङ्गमानुषात्तदवबुध्य' एषः पाठः । 8P नवीनान् विधाय । 9 D सूत्रित० । 10 D सम्बन्धं दधानानेवं । एतदग्रे D पुस्तके 'चौलुक्यवंशोपश्लोककेन श्लोकान् वाचयनृपं सन्तोषयामास । यथा-' एषा पंक्तिरुपलभ्यते । तदनन्तरं 'हरिरिव०' पद्यं । + एतदन्तर्गता पंक्ति: D पुस्तके नास्ति । 11 BP 'तथा च' नास्ति। 12 पाणिनि संवृणु BP 13 AD श्रीहेमचन्द्रोक्तयः । 14 BP •प्रभृतिधर्म० । 15 AD यशोवर्मा पृष्ट इत्यवादीत् । 16 BP तव । 17 BP ० भाजनं । 18 A ०वान्मुदिता० । 19 AD ॰वद्द्द्द्रव्य० | 20 BP ० व्ययमनिर्वहन्तः । 21 AD 'भविष्यन्ति' इत्येव । 22 BP कस्मिन्नध्यवसरे । 23 A. 'रुद्र' नास्ति । 24 P • कालदेवप्रा० । 25 P संस्थाप्य । 26 AD तदीय० 1 27 AD गृहीतां मोचयामास । 28P तावद् | 29 AD भालोक्य । 30 BP पृष्टः । 31 BP ' ततो मया' नास्ति । १-१ एतदन्तर्गत पाठस्थाने BP 'तत् द्रव्यप्रत्यर्पणापूर्व' इत्येव पाठः । 32 D नृपतिनाऽर्पितं । 33 A ० प्रमाणः परिपूर्णः प्रासादः कारितस्ततो नृपस्तत्र प्रासादे; D प्रमाणे परिपूर्णे प्रासादे । 34 BP • राज्ञां । 35 AD नास्ति । 37 AD • कालवैजयन्त्यां । 36BP नास्ति । 5 For Private Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ तृतीयः १००) अन्यदा सिद्धराजस्य मालवकमण्डलं प्रति यियासतः केनापि व्यवहारिणा *सहस्रलिङ्गसरोवरकर्मस्थाये विभागे 'याच्यमाने तत्सर्वथाऽदत्त्वैव कृतप्रयाणस्य कतिपयदिनानन्तरं कोशाभावात्* कर्मस्थायं विलम्बितमवगम्य, तेन व्यवहारिणा सुतस्य पार्थात्कस्यापि धनाधिपस्य वध्वास्ताडङ्कमपहार्य तद्दण्डपदे द्रव्यलक्षत्रयं 'दत्तम् , तेन कर्मस्थायः सञ्जातः, इति 5 वाती' शृण्वतो मालवकमण्डले वर्षाकालं तस्थुषो राज्ञो वचनगोचरातीतः प्रमोदः सञ्जातः । अथ प्रावृषेण्यघनाघनप्रगल्भवृष्ट्या क्षोणीमेकार्णवां विदधाने" व पनिकाहेतोः प्रधानपुरुषैः प्रहितः कोऽपि मरुदेशवासी" नृपतिपुरतः सविस्तरं वर्षाखरूपं विज्ञपयत् । तदात्वागतेन केनापि" गूर्जरधूर्तेण नरेण 'सहस्रलिङ्गसरो भृतमिति स्वामिन् ! वर्धाप्यसे” इति तद्वाक्यानन्तरमेव सिक्ककपतितमार्जारस्येव मरुवृद्धस्य पश्यतः सर्वाङ्गलग्नमाभरणं नृपतिर्जराय ददौ। . 10 १०१) अथ वर्षानन्तरमेव" ततः प्रत्यावृत्तः क्षितिपतिः" श्रीनगरमहास्थाने दत्तावासो मञ्चरचनायां कृतसर्वावसरस्तत्र नगरप्रासादेषु ध्वजव्रजमालोक्य' 'कएते प्रासादाः ?' इति ब्राह्मणान् पप्रच्छ । तैर्जिनब्रह्मादीनां प्रासादस्वरूपे निवेदिते सामर्षों राजाँ 'मया गूर्जरमण्डले जैनप्रासादानां पताकासु निषिद्धासु किं भवतामिह नगरें पताकाजिनायतनम् ?' इत्यादिशंस्तैर्विज्ञपयां चक्रे-'अवधार्यताम् , श्रीमन्महाँदेवेन कृतयुगप्रारम्भे महास्थानमिदं स्थापयता श्रीऋषभनाथ15श्रीब्रह्मप्रासादौ 'खयं स्थापितौ प्रदत्तध्वजौ च । तदनयोः प्रासादयोः सुकृतिभिरुद्रियमाणयोश्चत्वारो युगा व्यतीताः। अन्यच्च श्रीशत्रुञ्जयमहागिरेः पुरा नगरमेतदुपत्यकाभूमिः। यतो नगरपुराणेऽप्युक्तम् १४०. पञ्चाशदादौ किल मूलभूमेर्दशोर्ध्वभूमेरपि विस्तरोऽस्य । उच्चत्वमष्टैव तु योजनानि मानं वदन्तीह जिनेश्वराद्रेः॥ 20 इति । कृतयुगे आदिदेवः श्रीऋषभस्तत्सूनुर्भरतस्तन्नाम्ना भरतखण्डमिदं प्रतीतम् । १४१. नाभेरथो" स वृषभो मरुदेविसूनुर्यो वै चचार समदृग् मुनियोगचर्याम् । तस्याहतत्त्वमृषयः" पदमामनन्ति स्वच्छः प्रशान्तकरणः समदृक् सुधीश्च ॥ १४२. अष्टमो मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः । दर्शयन्वम॑ धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतः ॥ (अत्र P प्रतौ निम्नगता अधिकाः श्लोकाः प्राप्यन्ते-) 25 [११] {प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायम्भुवश्च यः । तस्याग्नीन्द्रस्ततो नाभिः ऋषभस्तत्सुतस्तथा ॥ . * एतचिह्नान्तर्गतपाठस्थाने A आदर्श एतादृशः पाठः-'सहस्रलिङ्गकर्मस्थायविभागं याचितः । राजा तमदत्त्वैव मालवकं प्रति प्र. याणमकरोत् । ततः कोशाभावात्।' 1D 'सरोवर' नास्ति । 2 DP याचमाने विभागे। 3D स्थायस्य । 4 D विलम्बं । 5 BP नास्ति । 6 BP सुतपा । 7 BP ताडकेऽपहारिते। १-१ एतदन्तर्गतशब्दस्थाने BP 'अर्पयता तं कर्मस्थाय परिपूर्ण' एते शब्दाः । 8 AD 'मंडले' नास्ति। 9 BP समजनि । 10 AD प्रावृषेण्ये घने। 11 AD कुर्वति । 12 A प्रहितस्य । 13 AD मरुदेशीयपुरुषस्य । 14 A व्यज्ञपयतः; D व्यज्ञपयत् । । एतद्दण्डान्तर्गतः पाठः AD आदर्श पतितः प्रतिभाति । 15 B नास्ति । 16 De व पयसे। 17 'एव ततः' नास्ति ADI 18 P नृपः। 19-20 एतत्पदद्वयं नास्ति ADI 21 AD ध्वजस्यालोके। 22 B पृच्छन् ; P नास्ति। 23 BP जैन०। 24 P 'सामर्षतया गूर्जर०' इत्येव । 25 B नास्ति । 26 BP किमिति भवतामस्मिन्नगरे। 27 P पताकासहितम् । 28 P श्रीमहा। 29 B स्थापयित्वा । 1 एतद्दण्डान्तर्गतानि पदानि D पुस्तके पतितानि । 30 नास्ति BPI 31 AD गिरेनगरमिदमु०। 32 AD 'अपि' नास्ति । 33 Pच। 34 BP बदन्तीति। 35 BP पुत्रः। 36 D नाभेः सुतः। 37 Po तस्याहंन्त्यमृषयः। 38 B स्वसाश्च; Dd सुची सः। 39 B अष्टमे। 40P वीराणां। 41 D कृतम् । Jain Education Intemational Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] सिद्धराजादिप्रबन्धः | [९२] तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षधर्मविधित्सया । अवतीर्ण सुतशतं तस्यासीत् ब्रह्मपारगम् ॥ [९३] तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः । विख्यातं वर्षमेतद्यन्नाम्ना भरतमद्भुतम् ॥ [९४] अर्हन् शिवो भवो विष्णुः सिद्धश्चैव तथा बुधः । परमात्मा परश्चैव शब्दा एकार्थवाचकाः ॥ [९५] जैनं बौद्धं तथा ब्राह्मं शैवं च कापिलं तथा । नास्तिकं दर्शनान्याहुः षडेव हि मनीषिणः ॥ [९६] तत्र - कुलादिबीजं सर्वेषां प्रथमो विमलवाहनः । मरुदेवश्च नामिश्र भरते कुलसत्तमाः || } इत्यादिपुराणोक्तान्युदीर्य विशेषप्रत्ययाय श्रीवृषभदेवप्रासाद कोशाच्छ्री भरत भूपनामाङ्कितं पञ्चजनवाह्यं कांस्यतालमानीय नृपाय दर्शयन्तो द्विजा' जिनधर्मस्याद्यधर्मत्वं स्थापयामासुः । ततः प्रभृति' खेदमेदुरमानसेन' अवनीशेन हायनान्ते जैनप्रासादेषु ध्वजाधिरोपः कारितः । १०२) अथ श्रीपत्तने प्राप्तो नृपः प्रस्तावे ' सरोवरकर्मस्थायव्ययपदेषु' वाच्यमानेषु सापराधव्यवहारिसुतदण्डपदाल्लक्षत्रयं कर्मस्थाये व्यवकलितमिति श्रुत्वा, 'तल्लक्षत्रयं तस्य गृहे प्रस्थापया - 10 मास । ततः स व्यवहारी, 'उपायनपाणिर्नृपोपान्तमुपेत्य किमेतदिति विज्ञपयन् कर्मस्थायव्यवहारिणे" नृपः " प्राह- 'यः कोटिध्वजो व्यवहारी स कथं ताडङ्कचौरः ? त्वयाऽस्य धर्मस्थानस्य धर्मविभागः प्रार्थितोsपि यन्न लब्धस्ततः प्रपञ्चचतुरेण मृगमुखच्याघेणेवान्तः शठेन प्रत्यक्षसरलेन इदं कर्म भवता " निर्ममे ।' [ इत्यादिवाक्यैर्भृशं खण्डितः * । ] १४३. यस्यान्तर्गिरिशागारदीपिकाः प्रतिबिम्बिताः । शोभन्ते निशि पातालव्यालमौलिमणिश्रियः ॥ १४४. न मानसे माद्यति मानसं मे पम्पा न सम्पादयति प्रमोदम् । अच्छोदमच्छोदकमप्यसारं सरोवरे राजति सिद्धभर्तुः । ॥ { एकदा श्रीसिद्धेन रामचन्द्रः पृष्टः - ' ग्रीष्मे दिवसाः कथं गुरुतराः १" । रामचन्द्रः प्राह[९७] देव श्रीगिरिदुर्गमल्ल भवतो दिग्जैत्रयात्रोत्सवे धावद्वीरतुरङ्गवल्गनखुरक्षुण्णक्षमा मण्डली । वातोद्धूतरजोमिलत्सुरसरित्सञ्जातपङ्कस्थलीदूर्वा चुम्बनचचुरा रविहयास्तेनैव वृद्धं दिनम् ॥ [९८] लब्धलक्षा विपक्षेषु विलक्षास्त्वयि मार्गणाः । तथापि तव सिद्धेन्द्र दातेत्युत्कन्धरं यशः ॥ अथ कदाचिद्राज्ञा ग्रथिलाचार्या जयमङ्गलसूरयः पुरवर्णनं पृष्टा ऊचु: ६३ 1 एतत्पदस्थाने BP 'यथावस्थिततदाद्यत्वस्थापनाय ' एतत्पदम् । 2 BP नृपतिपुरतः । 3 AD नास्ति । 4P चक्रुः; B चक्रे । 5 नास्ति AD। 6 AD • मनसा राज्ञा । 7 BP नास्ति । 8 D ' सरोवरपदेषु' इत्येव; A सरोवरव्ययपदे । 9 AD 'तत्' नास्ति । १-१ एतदङ्कान्तर्गतपाठस्थाने BP ' ० त्रये तद्गृहे स्थापिते स उपा०' एष पाठः । 10 P प्रतावेव एतत्पदं प्राप्यते । 11 'नृपः प्राह' स्थाने AD 'राज्ञादिष्टः । 12 AD व्याघ्रेणान्तः । 13 AD त्वयेदं कर्म निर्मितम् । * केवलं D पुस्तक एवेदं वाक्यं दृश्यते । + B आदर्श नोपलब्धमिदं पद्यद्वयम् । D पुस्तके पुनः अस्य पद्यस्य पूर्वे निम्नगतं पद्यद्वयमधिकं लिखितं लभ्यते । परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् । वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥ मुखं पद्मदलाकारं वाचश्चन्दनशीतलाः । हृदयं कर्त्तरीभूतमेतद्धूर्त्तस्य लक्षणम् ॥ + P प्रतौ इदं पद्यमत्र प्राप्यते । एतत्कोष्ठकान्तर्गतं वर्णनं D पुस्तक एवात्रोपलभ्यते । एतच्च प्रक्षिप्तप्रायमसम्बद्धत्वात् । 5 For Private Personal Use Only [९९] एतस्यास्य पुरस्य पौरवनिताचातुर्यतानिर्जिता मन्ये हन्त सरस्वती जडतया नीरं वहन्ती स्थिता । कीर्तिस्तम्भमिषोच्चदण्डरुचिरामुत्सृज्य बाहोर्बलात्तत्रीकां गुरुसिद्धभूपतिसरस्तुम्बां निजां कच्छपीम् ||} 25 15 20 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध चिन्तामणिः 1. [ तृतीयः १०३) अथ श्रीपालक विना सहस्रलिङ्गसरोवरस्य रचितायां प्रशस्तौ पट्टिकायामुत्कीर्णायां * तच्छोधना' सर्वदर्शनेष्वाहूयमानेषु श्रीहेमचन्द्राचार्यैः 'सर्व विद्वज्जनानुमते प्रशस्तिकाव्ये भवता किमपि वैदग्ध्यं न प्रकाश्यमित्युक्त्वा पण्डितरामचन्द्रमनुशिष्यं तत्र प्रहितः । ततः सर्वैर्विद्वद्भिः शोध्यमानायां प्रशस्तौ नृपोपरोधाच्छ्रीपालक वेर्दक्षदाक्षिण्याच्च सर्वेषु काव्येषु मन्यमानेषु - 5 १४५. कोशेनापि युतं दलैरुपचितं नोच्छेत्तुमेतत्क्षमं स्वस्यापि स्फुटकण्टकव्यतिकरं पुंस्त्वं च धत्ते नहि । raiser करोति कोशरहितो निष्कण्टकं भूतलं मत्वैवं कमला विहाय कमलं यस्यासिमाशिश्रियत् ॥ 'तैः सर्वैरपि अस्य काव्यस्य विशेषप्रशंसां कुर्वाणैः श्रीसिद्धराजेन पृष्टः श्रीरामचन्द्रश्चिन्त्यमेतदित्यवादीत्। अथ तैरेव सर्वैरनुयुक्तः - ' एतस्मिन्काव्ये सैन्यवाचको दलशब्दः, कमलशब्दस्य नित्यक्लीत्वं च' इति दूषणद्वयं चिन्त्यम्' । ततः तान् सर्वानपि पण्डितानुपरुद्ध्य दलशब्दो राज्ञा' 10 सैन्यार्थे प्रमाणीकारितः, कमलशब्दस्य तु लिङ्गानुशासन सिद्धं नित्यक्लीबत्वं केनाप्रमाणीयत' इति 'पुंस्त्वं च धत्ते न वे' त्यक्षरभेदः कारितः । तदा श्री सिद्धराजस्य सञ्जातदृष्टिदोषेण पं० रामचन्द्रस्य वसतौ प्रविशत एव लोचनमेकं स्फुटितम् । १०४) अथ कदाचित् डाहलदेशीयनरपते:' १४६. आयुक्तः प्राणदो लोके वियुक्तो मुनिवल्लभः । संयुक्तः सर्वथाऽनिष्टः केवलः स्त्रीषु वल्लभः ॥ 15 इति सान्धिविग्रहिकै रानीतयमलपत्रेषु श्लोकमेनं लिखितं निशम्य किमेतदिति पृष्टास्ते प्राहु:'भवजनपदे एकैकप्रधाना भूयांसो विद्वांसस्तत्पार्श्वादुर्योधोऽयं श्लोको व्याख्येयः' इति तद्वाचमाकर्ण्य सर्वैरपि विद्वद्भिरज्ञाततदथैर्विमृशद्भिर्नृपेण पृष्टा हेमाचार्या इत्थं व्याचख्युः - ' अत्र अध्याहारी हारशब्दः । तस्य आ इत्युपसर्गे कृते आहार इति सर्वजीवप्राणप्रदः । वियुक्तो बिहारः सन् उभयथा यतीनां प्रियः । संपूर्वः संहारः सन् सर्वथाऽनिष्टः । निरुपसर्गः स्त्रीणामेव 20 वल्लभः हार इति' । १०५) * अन्यदा सपादलक्षक्षितिपतिना १४७. ६४ 25 इति उत्तरार्द्धन" श्रीहेमचन्द्रो "मुनीन्द्रस्तां पूरयामास । १०६) अथ" श्रीसिद्धराजो नवघणाभिधानमा भीरराणकं निगृहीतुकामः पुरैकादशधा "निज सैन्ये पराजिते सति श्रीवर्द्धमानादिषु पुरेषु प्राकारप्रकरं " निर्माप्य स्वयमेव प्रयाणकमकरोत्" । तद्भा1 P इति । * D पुस्तके इतोऽग्रे 'तत्स्थकाव्यमिदम्' एतदुल्लेखपूर्वकं "न मानसे." इति पद्यमत्रावतारितं प्राप्यते । 1 D तव्प्रशस्तिशोधनाय । 2 D रामचन्द्रोऽनुशिष्यः । + एतदन्तर्गतपाठस्थाने AD 'विशेषेणास्मिन्काव्ये प्रशस्यमाने' एतादृशः पाठः । 3 AD 'च' नास्ति । 4 BP 'ततः ' नास्ति; AD 'तान्' नास्ति । 5 D राजसै ० । 6 AP ० कृतः । 7 P विहाय सर्वत्र 'केन निर्णीयते' | 8 BP चक्षुर्दोषेण । 9 B प्रतावेवेदं पदमत्र प्राप्यते । डाहलदेशीयनरपतियमलपत्रान्ते लिखित श्लोकव्याख्यानावसरे तूष्णीं स्थितेषु सर्वेषु पण्डितेषु व्याख्यातः ।' एतादृशः संक्षिप्तात्मकः पाठः । * BP अथान्यस्मिन्नवसरे ( B समये) 11 AD • दोधका प्रहिते । 12 D किमु उम्मीयह; B किम मन्नीयइ । 15 AD हेमचन्द्रनामा मुनिः । 16 AD अन्यदा । 17 AD एकादशवारं । ऑली" ताव न अणुहरइ गोरीमुहकमलस्स । इति समस्यादोधकार्द्धमत्र प्रहितम् । तैस्तैः कविभिरपूर्यमाणे अद्दिट्ठी किम "ऑमियइ पडिपेयली चन्दस्स || For Private Personal Use Only एतच्चिह्नान्तर्गतपाठस्थाने AD आदर्शे 'इति श्रीहेमचन्द्राचार्यै राज्ञा पृष्टैर्हारशब्दमध्याहार्य सपादलक्षक्षोणीभुजा । 10 D पइली । 13 BP तडि० । 14 AD नास्तीदं पदम् । 18 AD 'प्रकरं' नास्ति । 19 BP कृतप्रयाणः । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] सिद्धराजादिप्रबन्धः। गिनेयदत्ते सङ्केते सति वप्रपरावर्तकालेऽयं द्रव्यव्यापादित एव करणीयो' नवघनों न पुनरस्त्रादिभिरिति परिग्रहदत्तान्तरस्थः सः विशालाच्छालाहिराकृष्य द्रव्यवासणैरेव ताडयित्वा व्यापादितः । 'अयं द्रव्यव्यापादित एव कृत' इति वचनविज्ञापनात् परिग्रहो बोधितः। अथ तद्राश्याः [सूनलदेव्याः] शोकपतिताया वाक्यानि१४८. सहरू नहीं स राणं न कु लाईउ न कु लाईइ । सउँ" पंगारिहिं प्राण कि न" वइसानरि होमीई॥5 १४९. राणा सवे वाणिया जेसलु वड्डउ सेठि । काहूं वणिजड" माण्डीयउं अम्मीणा गढहेठि १॥ १५०. तिइं गरूऔं गिरनार काहूं मणि मत्सरु धरिउ । मारीतां पंगार एकू सिहरु न ढालियउं" ॥ [१००] 'बलि गरूया गिरिनार दीहू बोलाविउ हूयउ । लहिसि न बीजी वार एहा सजण भारषम ॥ [१०१] 'अम्ह एतलई संतोसु जउ प्रभु पाए पेलिया । न कु राणिमु न कु रोसु वे षंगारहं सिउं गिया ॥ [१०२] मिन तंबोलु म मागि झंषि म ऊघाडई मुहिहिं । देउलवाडउं सांगि पंगारिहिं सउं तं गियउं ॥ 10 १५१. जेसल मोडि म बांह वलिवलि विरूए भावियई। नइ जिम नवा प्रवाह" नवघण विणु आवइ नहीं ॥ १५२. वाढी तउं" वढवाण वीसारतां न वीसरइ । "सूना समा पराण भोगावह तई भोगव्या ॥ इत्यादीनि बहूनि वाक्यानि यथावसरं मन्तव्यानि ।। १०७) तदनन्तरं" महं० जाम्बान्वयस्य सज्जनदण्डाधिपतेः श्रीसिद्धराजेन योग्यतया सुराष्ट्राविषयव्यापारो नियुक्तः। तेन स्वामिनमविज्ञाप्यैवं वर्षत्रयोद्राहितेन श्रीमदुजयन्ते श्रीनेमीश्वरस्य 15 काष्ठमयं प्रासादमपनीय नूतनः शैलमयः प्रासादः कारितः । चतुर्थे वर्षे सामन्तचतुष्टयं प्रस्थाप्य सज्जनदण्डाधिपति श्रीपत्तने समानीय राज्ञा वर्षत्रयोदाहितद्रव्ये" याच्यमाने सहसमानीततद्देशव्यवहारिणां पार्धात्तावति द्रव्ये उपढौक्यमाने 'खामी उज्जयन्तप्रासादजीर्णोद्धारपुण्यमुद्राहितद्रव्यं वा द्वयोरेकमवधारयतु तेनेति विज्ञप्तः श्रीसिद्धराज अतुल्तबुद्धिकौशलेन चमत्कृतचित्तस्तीर्थोद्धारपुण्यमेवोररीचकार । स पुनस्तस्य देशस्याधिकारमधिगम्य शत्रुञ्जयोजयन्ततीर्थयो-20 दिशयोजनायामं" दुकूलमयं महाध्वजं ददौ । ॥इति रैवतकोद्धारप्रवन्धः॥ १०८) अथ भूयः सोमेश्वरयात्रायाः प्रत्यावृत्तःश्रीसिद्धाधिपो रैवतोपत्यकायां दत्तावासस्तदैव खं कीर्तनं दिक्षुः मत्सरोत्सेकपरैर्द्विजन्मभिः 'सजलाधारलिङ्गाकारोऽयं गिरिरित्यत्र पादस्पर्श नाहती'ति कृतकवचनैर्निषिद्धस्तत्र पूजांप्रस्थाप्य स्वयं शत्रुञ्जयमहातीर्थसन्निधौ स्कन्धावारंन्यधात्।25 तत्र पूर्वोक्तैर्द्विजातिपिशुनैः कृपाणिकापाणिभिरकृपैस्तीर्थमार्गे निरुद्धे" सति श्रीसिद्धाधिपो रजनीमुखे कृतकार्पटिकवेषः स्कन्धे निहितविहङ्गिकोभयपक्षन्यस्तगणोदकपात्रंस्तन्मध्ये भूत्वाऽपरि 1D कार्यः। 2 नास्ति BPL 3 BP आकृष्टः। 4 BP व्यापादयामास। 5 AD वचनबलात् तद्भागिनेयपरिग्रहः । *P प्रतावेवेदं पदं प्राप्यते। 6 BP सयरू। 7A सराणइ। 8 D इकु। 9 P अनु। 10 B लाइसइ । 11 P सर्व पइंगारिइं। 12 B किम; D कइ। 13 B होमीया। 14 B सवे। 15 P वणिजडउ। 16 P मांडिउं । 17 D गडूआ। 18 D ढालिउं। इदं पद्यं BP नोपलब्धम् । एतत्पद्यत्रयं A आदर्श एवोपलब्धम्। 19 D विरूप । 20 P भावीए। 21 P पवाह। 22 A नवघणु। 23P नहीइ। 24 D तो। 25 AD सोना। 26 B पई। 27 AD ततो। 28 P सुराष्ट्रादेश०;D सुराष्ट्रविषये। 29 AD ‘एवं' नास्ति । 30P नास्ति। 31 AD द्रव्यं याचितः । 32 AD नास्ति 'सहसमानीत'। 33 AD तावद्व्यमुपढौक्य । 34 'स्वामी' नास्ति ADI 35 P नास्ति 'उज्जयन्त। 36 AD •धारयतु देवः। 37 AD इति तेनोक्ते। 38 B सिद्धाधिपः, P सिद्धपतिः। 39 'अतुल' नास्ति ADI 40 AD कौशख्यचमत्कृतः। 41 AD योजनयोर्यावद् । 42 BP निषिद्धे। 43 BP .प्राकृतवेषः। 44 D'पात्र' नास्ति । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ प्रबन्धचिन्तामणिः । [तृतीयः ज्ञातखरूप एव गिरिमधिरुह्य गोदकेन श्रीयुगादिदेवं लपयन् पर्वतसमीपवर्तिग्रामवादशकशासनं श्रीदेवाय' विश्राणयामास । तीर्थदर्शनाचोन्मुद्रितलोचन इवामृताभिषिक्त इव तस्थौं । 'अत्र पर्वते सल्लकीवनसरित्पूरसङ्कले इहैव विन्ध्यवनं रचयिष्यामीत्यवन्ध्यप्रतिज्ञो हस्तियूथनि पत्तये विहस्तमनसं मनोरथेनापि तीर्थविध्वंसपातकिनं धिग्मामिति श्रीदेवपादानां पुरतो राज5 लोकविदितं खं निन्दन् सानन्दो गिरेरवततार ।। १०९) अथ श्रीदेवसूरिचरितं व्याख्यास्यामः-तस्मिन्नवसरे कुमुदचन्द्रनामा दिगम्बरस्तेषु तेषु देशेषु चतुरशीतिवादैर्वादिनो निर्जिस्य कर्णाटदेशाद्गुर्जरदेशं जेतुकामः कर्णावती प्राप। तत्र भट्टारकश्रीदेवसूरीणां चतुर्मासके स्थितानां श्रीअरिष्टनेमिप्रासादे धर्मशास्त्रव्याख्याक्षणे वचनचातुरीमनुच्छिष्टामाकर्ण्य तत्पण्डितैस्तवृत्तान्ते निवेदिते कुमुदचन्द्रस्तेषामुपाश्रये सतृणमुदकं 10 प्रक्षेपितवान् । अथ तैमहर्षिपंण्डितैः खण्डनतर्कादिप्रमाणप्रवीणैस्तस्मिन्नर्थेऽनाकर्णितकयाऽवज्ञाते सति श्रीदेवाचार्यजामि तपोधनां शीलसुन्दरीं चेटकैरधिष्ठितां विधाय नृत्यजलानयनादिभिर्विविधाभिर्विडम्बनाभिर्विडम्ब्य तेषु चेटकेष्वपहृतेषु तां भृशं पराभवानिर्भर्त्सनापरामपवार्य चिन्तापरोऽस्थात्।। __ (अत्र P आदर्श निम्नगतान्यन्यत्राप्राप्याणि पद्यानि प्राप्यन्ते-) 15 [१०३] {हा कस्स पुरोहं पुक्करेमि असकण्णया महं पहुणो। नियसासणनिकारे जो अवयरइ सो वरं सुगओ॥-साध्वीवाक्यम् । [१०४] आः कण्ठशोषपरिपोषफलं प्रमाणव्याख्याश्रमो मयि बभूव गुरोर्जनस्य । एवंविधान्यपि विडम्बनडम्बराणि यच्छासनस्य हहहा ममृणः शृणोमि ॥ [देिवसूरिभिरुक्तं श्रुत्वा वर्ययाऽऽर्यया बभाण-]. 20 [१०५] दुर्वादिगर्वगजनिर्दलनाङ्कुशश्रीः श्वेताम्बराभ्युदयमङ्गलबालदूर्वा । श्रीदेवसरिसुगुरोर्भृकुटीललाटपट्टे स्थिति वितनुत प्रथमावताराम् ॥} श्रीदेवसूरिभिरुक्तम्-'वादविद्याविनोदाय भवता पत्तने गन्तव्यम्। तत्र राजसभायां भवता सह वादं करिष्याम' इत्यादिष्टे स कृतकृत्यंमन्यमान आशावसनः श्रीपत्तनपरिसरं प्राप"। श्रीसिद्धराजेन मातामहगुरुरिति प्रत्युद्गमादिना सत्कृतस्तत्रावासान्दत्वा तस्थौ । श्रीसिद्धराजेन 25 वादनिष्णाततां पृष्टाः श्रीहेमाचार्याः-चतसृषु विद्यासु परं प्रावीण्यं बिभ्राणं जैनमुनिगजयूथाधिपं सिताम्बरशासनवज्रपाकारं नृपसभागृङ्गारहारं कर्णावतीस्थितं श्रीदेवाचार्य वादविद्याविदं वादीभकण्ठीरवम्' प्राहुः । अथ राज्ञा तदाहानाय प्रेषितविज्ञप्तिकायां श्रीसंघलेखेन सममागतायां श्रीदेवसूरयः पत्तनं प्राप्य नृपोपरोधाद्वाग्देवीमाराधयामासुः । तया तु 'वादिवेतालीय श्रीशान्तिसूरिविरचितोत्तराध्ययनबृहद्वृत्तौ दिगम्बरवादस्थले चतुरशीतिविकल्पजालोपन्यासे 30 भवद्भिः प्रतन्यमाने दिग्वाससो मुखे मुद्रा पतिष्यतीति देव्यादेशानन्तरं गुप्तवृत्त्या कुमुचन्द्रसनिधी पण्डितान् प्रस्थाप्य कस्मिन् शास्त्रे विशेषकौशलमिति ज्ञापिते१५३. देवादेशय किं करोमि सहसा लङ्कामिहैवानये जम्बूद्वीपमितो नयेयमथवा वारांनिधि शोषये । 1D श्रीदेवाचाय (1)। 2 D जातः; AB नास्ति । 3D विन्ध्यं करिष्यामि। 4 D निनिन्द। 5 नास्तीदं पदं BPT 6 AD महर्षिभिः। 7 P प्रतावेवेदं पदं लभ्यते। + इत आरभ्य 'सूरिभिरुक्तम्' इति पदं यावत् एका पंक्तिः B आदर्श पतिता। 8 D तान् । 9 A अपवादे। 10 AD नास्त्येतत्पदम् । A आदर्श खण्डितप्राया इयं पंक्तिरन लब्धा। 11 AD प्राप्तः । 12 AD 'देवी' नास्ति । 13 A द्वीपमथानये किमथवा । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] सिद्धराजादिप्रबन्धः । हेलोत्पाटिततुङ्गपर्वतशिरोग्रावत्रिनेत्राचलक्षेपक्षोभविवर्द्धमानसलिलं बभामि वा वारिधिम् ॥* इति श्रवणासिद्धान्त कुशलतां तस्याल्पीय सीमवगम्य जितं जितमिति मन्यमानाभ्यां श्रीदेवाचार्य - श्रीहेमचन्द्राभ्यां प्रमुदितम् । अथ देवसूरिप्रभो रत्नप्रभाभिधानः प्रथमशिष्यः क्षपामुखे गुप्तवेषतया कुमुदचन्द्रस्य गुरूदरे गतः । तेन कस्त्वमित्यभिहिते - अहं देवः । देवः कः ? । अहं । अहं कः ? । त्वं श्वा । श्वा क: ? । त्वं । त्वं क: ? । अहं देवः [ कुत आयातस्त्वं ? । खर्गात् । 5 स्वर्गे का का वार्ता ? । कुमुदचन्द्रदिगम्बर शिरः पश्चाशीति पलानि । तर्हि किं प्रमाणम् ? । छित्त्वा तोल्यताम् ।] इति तयोरुक्तिप्रत्युक्तिबन्धे चक्रभ्रमं भ्रमति, आत्मानं देवं, दिगम्बरं श्वानं च संस्थाप्य यथागतं जगाम । तेन चक्रदोषप्रादुष्करणेन विषादनिषादसम्पर्कात् १५४. दो श्वेतपटाः किमेष विकटाटोपोक्तिसण्टङ्कितैः संसारावटकोटरे ऽतिविकटे मुग्धो जनः पात्यते । विचारणा यदि वो हेवाकलेशस्तदा सत्यं कौमुदचन्द्रमनियुगलं रात्रिंदिवं ध्यायत ॥ 10 इमांचितां कवितां निर्माय' समायः कुमुदचन्द्रः श्रीदेवसूरीन् प्रति प्राहिणोत् । तदनु तचरणपरम्परमाणुर्बुद्धिवैभवावगणितचाणक्यः' पण्डितमाणिक्य: १५५. कः कण्ठीरवकण्ठकेसरसटाभारं स्पृशत्यङ्क्षिणा कः कुन्तेन शितेन नेत्रकुहरे कण्डूयनं काङ्क्षति । कः सन्नह्यति पन्नगेश्वरशिरोरत्नावतंसं श्रिये यः श्वेताम्बरशासनस्य कुरुते वन्द्यस्य निन्दामिमाम् || अथ रत्नाकरपण्डितः १५६. ६७ नत्रैर्निरुद्धा युवतीजनस्य यन्मुक्तिरत्र प्रकटं हि तश्वम् । तत्कि वृथा कर्कशतर्क केलौ तवाभिलाषोऽयमनर्थमूलः ॥ इति कुमुदचन्द्रं प्रति सोपहासं प्राहिणोत्' । अथ श्रीमयणल्लदेवीं कुमुदचन्द्रपक्षपातिनीम्, अभ्याशवर्त्तिनः सभ्यांस्तज्जयाय नित्यमुपरोधयन्तीं श्रुत्वा श्रीहेमचन्द्राचार्येण 'वादस्थले दिगम्बराः स्त्रीकृतं सुकृतमप्रमाणीकरिष्यन्ति 20 सिताम्बरास्तं स्थापयिष्यन्ती'ति तेषामेव पार्श्वात्तद्वृत्तान्ते निवेदिते राज्ञी व्यवहारबहिर्मुखे दिगम्बरे पक्षपातमुज्झां चकार । अथ भाषोत्तरलेखनाय सुखासनसमासीनः कुमुदचन्द्रः पण्डितरत्नप्रभश्चरणचारेणाऽक्षपटले समागतौ । तदधिकृतैः १५७. केवलिहूओं न भुञ्जइ चीवरसहियस्स नत्थि निवाणं । इत्थीभवे" न सिज्झइ मयमेयं कुमुदचन्दस्स ॥ 25 इति भाषां कुमुदचन्द्रो लेखयामास । अथ सिताम्बराणामुत्तरम् - 15 १५८. केवलिहूओं विभुजह चीवरसहियस्स अत्थि निवाणं । इत्थीभवे" वि सिज्झइ मयमेयं देवसूरीणं ॥ इति भाषोत्तरलेखनानन्तरं निर्णीते वादस्थलवासरे श्रीसिद्धराजे समाजमागते, षड्दर्शनप्रमाणवेदिषु सभ्येषु समुपस्थितेषु कुमुदचन्द्रवादी पुरो वाद्यमानजयडिण्डिमो प्रियमाणसितातपत्रः सुखासनसमासीनः पुरो वंशाग्रलम्बमानपत्रावलम्बः श्रीसिद्धराजसभायां नृपप्रसादीकृत - 30 सिंहासने निषसाद । प्रभुश्रीदेवसूरयश्च श्रीहेमचन्द्रमुनीन्द्रसहिताः सभासिंहासनमेकमेवालं चक्रुः । * एतत्पद्यस्य स्थाने BP आदर्शे 'जम्बूद्वीपमिहानये किमथवा लङ्कामिहैवानये' इत्येक एव पादः प्राप्यते । 1 इदं पदं पतितं D पुस्तके। f एषा कोष्ठकगता पंक्तिः P प्रतावेव प्राण्या । 2 P कपटा० । 3 P नित्यं । 4 D निर्माप्य समादाय । 5 'परम' नास्ति DI 6 BP चाणिक्यः । 7 P नास्ति । 8P प्रजिघाय । 9P भयात् । 10 AD हुआ । For Private Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ तृतीयः अथ कुमुदचन्द्रवादी स्वयं ज्यायान् किश्चिद्व्यतिक्रान्तशैशवं श्रीहेमचन्द्र प्रति 'पीतं तत्रं भवता?' इत्यभिहिते श्रीहेमचन्द्रस्तं प्रति 'जरातरलितमतिः किमेवमसमञ्जसं ब्रूषे? श्वेतं तकं पीता हरिद्रा' इति वाक्येनाधाकृतः 'युवयोः को वादी?' इति पृच्छन् , श्रीदेवसूरिभिस्तत्तिरस्कारकरणाय 'अयं भवतः प्रतिवादी'त्यभिहिते कुमुदचन्द्रः प्राह-'मम वृद्धस्यानेन शिशुना सह को 5 वादः' ?' इति तदुक्तिमाकर्ण्य 'अहमेव ज्यायान् भवांस्तु शिशुः, योऽद्यापि कटीदवरक निव सनं च नादत्से' इति । राज्ञा तयोर्वितण्डायां निषिद्धायामित्थं मिथः पणबन्धः समजनि-पराजितैः श्वेताम्बरैर्दिगम्बरत्वमङ्गीकार्यम् , दिगम्बरैस्तु देशत्यागः' इति निर्णीतपणबन्धादनु खदेशकलङ्कभीरुभिर्देवाचार्यैः सर्वानुवादपरिहारपरैर्देशानुवादपरायणैः कुमुदचन्द्रं प्रति 'प्रथमं भवान् कक्षीकरोतु पक्षम्' इत्यभिहिते10 १५९. खद्योतद्युतिमातनोति सविता जीर्णोर्णनाभालयच्छायामाश्रयते शशी मशकतामायान्ति यत्रादयः । ___इत्थं वर्णयतो नभस्तव यशो जातं स्मृतेर्गोचरं तद्यमिन्भ्रमरायते नरपते ! वाचस्ततो मुद्रिताः ॥ इति नृपं प्रत्याशिषं ददौ । 'वाचस्ततो मुद्रिताः' इति तदीयापशब्देन सभ्यास्तं खहस्तबन्धनमिति विमृशन्तो मुमुदिरे । अथ देवाचार्या: १६०. नारीणां विदधाति निर्वृतिपदं श्वेताम्बरप्रोल्लसत्कीर्तिस्फातिमनोहरं नयपथप्रस्तारभृङ्गीगृहम् । 15 यसिन्केवलिनो न निर्जितपरोत्सेकाः सदा दन्तिनो राज्यं तजिनशासनं च भवतश्चौलुक्य ! जीयाचिरम् ॥ नृपं प्रतीमामाशिषं ददौ । अथ वादी कुमुदचन्द्रः केवलिभुक्ति-स्त्रीमुक्ति-चीवरनिराकरणपक्षोपन्यासं पारापतविहङ्गोपमया' स्खलितस्खलितया' गिरा प्रारभमाणः सभ्यैरन्तर्विहसद्भिः प्रत्यक्षप्रशंसापरैः पुरस्क्रियमाणः कियदुपन्यासप्रान्ते उच्यतामिति तेनोक्तः श्रीदेवाचार्यः प्रलयकालोन्मीलितप्रचण्डपवनक्षुभिताम्भोधिनिचितवीचीसमीचीभिर्वाग्भिवृहदुत्तराध्ययनवृत्तेश्चतु20रशीतिविकल्पजालोपन्यासप्रक्रमे भावत्प्रतिभासप्रसरपरिम्लानायमानकुमुदः कुमुदचन्द्रः सम्भ्रमभ्रान्तचेतास्तद्वचनान्यवधारयितुमक्षमो भूयस्तमेवोपन्यासं समभ्यर्थितवान् । श्रीसिद्धराज-सभ्येषु च निषेधपरेष्वपि अप्रमेयप्रमेयलहरीभिस्तं प्रमाणाम्भोधौ मजयितुं प्रारब्धे" षोडशे दिने आकस्मिके देवाचार्यस्य कण्ठग्रहे मात्रिकैः श्रीयशोभद्रसूरिभिरतुल्यकुरुकुल्लादेवीप्रसाद लब्धवरैस्तत्कण्ठपीठात्क्षणात्क्षपणककृतकार्मणानुभावाद केशकन्दुकः"बहिः" पातयांचकेतचि25 निरीक्षणाचतुरैः स श्रीयशोभद्रसूरिः श्लाघ्यमानः कुमुदचन्द्रश्चामन्दं निन्द्यमानः प्रमोदविषादौ दधाते । अथ श्रीदेवसूरिभिरुपन्यासोपक्रमे कोटाकोटिरिति शब्दे प्रोच्यमाने तच्छब्दव्युत्पत्तिं कुमुदचन्द्रे पृच्छति कण्ठपीठे लुठिताष्टव्याकरणः पण्डितः काकलः शाकटायनव्याकरणोदितटापटीपसूत्रनिष्पन्नं कोटाकोटिः कोटीकोटिः कोटिकोटिरिति सिद्धं शब्दत्रयनिर्णयं प्राह । अथ प्रथममेव 'वाचस्ततो मुद्रिता' इति स्वयं "पठितत्वापशब्दप्रभावात्तदा प्रादुर्भूतमुख30 मुद्रः 'श्रीदेवाचार्येण निर्जितोऽहमिति खयमुच्चरन् श्रीसिद्धराजेन पराजितव्यवहारात्, अपद्वारेणोपसार्यमाणः सम्भवत्पराभवाविर्भावादूर्द्धस्फोटं प्राप्य विपेदे । 1D सूरिभिस्तन्निराकरणाय। 2 P शिशुना साई न वादः समुचितः। 3 AD भवानेव। 4 AD दवरकमपि नादत्से निवसनं च। 5D स्त्रीनिर्वाणचीरनिरा० । 6 AD विहङ्गमसदृशया। 7 D स्खलितगिरा। 8 D .मित्युक्तो देवा० । 9D.न्यासे प्रक्रान्ते। 10D विहाय नान्यत्र। 11D केशचण्डकः। 12P विहाय नान्यन्न 'बहिः'। 13 D पठित्वमिति स्वयमपशब्द। 14 P नास्ति। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] सिद्धराजादिप्रबन्धः। अनन्तरं तु श्रीसिद्धराजः प्रमोदमेदुरमना देवाचार्यप्रभावप्रभावनाचिकीर्मूर्ध्नि धारितसितात. पत्रचतुष्टयः प्रकीर्णकप्रकरवीज्यमानः स्वयं दत्तहस्तावलम्बः पूर्यमाणेषु यमलशोषु रोदाकुक्षि भरिविभ्रमं बिभ्रति निखान निखनैः स्फूर्जद्वर्यतूर्यपूर्यमाणदिगन्तराले वाहर्डनानोपासकेन लक्षत्रयप्रमितद्रव्यव्ययकृतार्थीकृतार्थिसार्थे 'वादिचक्रवर्तिन् ! पादावधार्यतामिति स्तुतिवातैरमन्दजगदानन्दकन्दकन्दलानुकारिणि मङ्गले मुहुर्मुहुरुच्यमाने श्रीदेवाचार्यान् वाहडेन तेनैव कारित- 5 प्रासादे श्रीमन्महावीरनमस्करणपूर्व वसतौ प्रावेशयत् । तत्पारितोषिके च नृपतिः सूरिभ्योऽनिच्छयोपि छालाप्रभृति ग्रामद्वादशकं ददौ । तदुपश्लोकनश्लोका एवम् - १६१. वस्त्रप्रतिष्ठाचार्याय नमः श्रीदेवसूरये । यत्प्रसादमिवाख्याति सुखप्रश्नेषु दर्शनम् ॥ -इति श्रीप्रद्युम्नाचार्यः। 10 १६२. यदि नाम कुमुदचन्द्रं नाजेष्यद्देवसूरिरहिमरुचिः। कटिपरिधानमधास्यत्कतमः श्वेताम्बरो जगति ॥* । . -इति हेमाचार्यः। १६३. मेजेऽवकीर्णतां नमः कीर्तिकन्थामुपायं यः । तां देवसरिराच्छिद्य तं निर्ग्रन्थं पुनर्व्यधात् ॥ 15 -इति श्रीउदयप्रभदेवः । १६४. वादविद्यावतोऽद्यापि लेखशालामनुज्झताम् । देवसरिप्रभोः साम्यं कथं स्याद्देवसरिणा ॥ -इति श्रीमुनिदेवाचार्यः । १६५. ननो यत्प्रतिभाधर्मात्कीर्तियोगपटं त्यजन् । हियेवात्याजि भारत्या देवसूरिसुदेऽस्तु वः ॥ १६६. सत्रागारमशेषकेवलभृतां भुक्तिं तथा स्थापयन्नारीणामपि मोक्षतीर्थमभवत्तन्मुक्तियुक्तोत्तरैः। या श्वेताम्बरशासनस्य विजिते नमे प्रतिष्ठागुरुस्तद्देवाद्गुरुतोऽप्यमेयमहिमा श्रीदेवरिप्रभुः ॥ -इति मेरुतुङ्गसूरीणां द्वयम् । ॥ इति देवसूरीणां प्रबन्धः*॥ ११०) अथ श्रीपत्तनवास्तव्य उच्छिन्नवंशकः आभडनामा वणिकपुत्रः कांस्यकारकह।" घर्घर-25 कघर्षणं कुर्वस्तत्र पश्च विंशोपकानर्जयित्वा दिनव्ययं कुर्वाणो द्विसन्ध्यमपि प्रभुश्रीहेमसूरीणां चरणमूले प्रतिक्रामन् प्रकृतिचतुरतयाऽधीतागस्त्यबौद्धमतादिरत्नपरीक्षाग्रन्थो रत्नपरीक्षकाणां सान्निध्यात् तत्परीक्षादक्षा कदाचिच्छ्रीहेमचन्द्रमुनीन्द्रसन्निधौ धनाभावात्परिग्रहप्रमाणनियमान्सङ्कुचितान् गृह्णन् सामुद्रिकवेदिभिः प्रभुमिरायतौ तद्भाग्यवैभवप्रसरं विमृशद्भिस्तस्य लक्षत्रयद्रम्माणां परिग्रहप्रमाणं कारयद्भिः सन्तुष्टतया व्यवहरन् , कस्मिन्नप्यवसरे कापि ग्रामे यिया-30 सुरन्तरालेऽजावजं व्रजन्तमालोक्यैकस्या अजायाः कण्ठे पाषाणखण्डं रत्नपरीक्षकतया रत्नजातीयं 1 DCP प्रभावनां चिकीर्षुः। 2 Dd पूर्यमाणेषु दिगन्तरालेषु। 3 Dd चाहड; B थाहड। 4 AD कन्दलनकारिणि । 5 B थाहडेन; Da-b चाहडेन। 6 BP यथा। *D विहाय नास्त्यन्यत्रेदं पद्यम् । 7D मुपार्जयन् । 8P वादविद्याविदो। 9P .शालाममुञ्चता। 10P .गुरोः। 11 BP धर्मात्। 12 B सः। 13 D तद्युक्ति। * BP इति प्रभुश्रीदेवसरिप्रबन्धः। 14 BP हट्टेषु । 15 BP 'प्रभु' नास्ति । 16 BP विचक्षणः। 17 'मुनीन्द्र' D नास्ति। 18 P वैभवं । 19 AD ●मानं; B निबन्ध। 20 ABP कुर्वद्भिः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ तृतीया परीक्ष्य तल्लोभात्तं मूल्येन क्रीत्वा मणिकारपात्तिमुत्तेजितं निर्माप्य श्रीसिद्धराजस्य मुकुटघटनाप्रस्तावे लक्षमूल्यद्रव्येणं तं नृपायैव ददौ । तेन नीवीधनेन मञ्जिष्ठास्थानकानि कदाचिदागतानि क्रीत्वा तद्विक्रयावसरे सांयात्रिकैर्जलचोरभयात्तदन्तर्निहिताः काश्चनकम्बिकाः पश्यन् सर्वेभ्यः स्थानकेभ्यस्ताः सञ्जग्राह । तदनन्तरं सर्वनगरमुख्यः श्रीसिद्धराजमान्यो जिनशासन5 प्रभावकः श्रावकः प्रतिदिनं प्रतिवर्ष यदृच्छया जैनमुनिभ्योऽन्नवस्त्रादि ददानो गुप्तवृत्त्या नव्यानि धर्मस्थानानि जीर्णानि च स्वप्रशस्तिरहितानि स्वदेशेषु विदेशेषु च समुद्दधार । १६७. वल्लीच्छन्नद्रुम इव मृत्माच्छादितसमस्तवीजमिव । प्रायः प्रच्छन्नकृतं सुकृतं शतशाखतामेति ॥ ॥इति वसाह आभडप्रबन्धः ॥ १११) अथान्यस्मिन्नवसरे श्रीसिद्धराजः संसारसागरं तितीर्घः प्रत्येकं सर्वदेशेषु' सर्वदर्शनेषु 10 देवतत्वधर्मतत्त्वपात्रतत्त्वजिज्ञासया पृच्छयमानेषु निजस्तुतिपरनिन्दापरेषु सन्देहदोलाधिरूढ मानसः श्रीहेमाचार्यमाकार्य विचार्य कार्य पप्रच्छ । आचार्यस्तु चतुर्दशविद्यास्थानरहस्यं विमृश्येति पौराणिकनिर्णयो वक्तुमारेभे-'यत्पुरा कश्चिद् व्यवहारी पूर्वपरिणीतां पत्नी परित्यज्य संग्रहणीसात्कृतसर्वस्वः सदैव" पूर्वपढ्या पतिवशीकरणाय तद्वेदिभ्यः कार्मणकर्मणि पृच्छयमाने कश्चिद्गौडदेशीयो 'रश्मिनियन्त्रितं तव पतिं करोमी'त्युक्त्वा किञ्चिदचिन्त्यवीय भेषजमुपनीय 15 भोजनान्तर्देयमिति भाषमाणः स" गतः। कियदिनान्ते समागते क्षयाहनि तस्मिंस्तथा कृते स प्रत्यक्षां वृषभतां माप । सा च तत्प्रतीकारमनवबुध्यमाना *विश्वविश्वाक्रोशान्सहमाना निजं दुश्चरितं शोचन्ती कदाचिन्मध्यंदिने दिनेश्वरकठोरतरनिकरप्रसरतप्यमानापि* शाड्वलभूमिषु तं पतिं वृषभरूपं चारयन्ती, कस्यापि तरोर्मूले" विश्रान्ता निर्भरं' विलपन्ती, आलापं नभस्यकमाँच्छुश्राव । तदा तत्रागतो विमानाधिरूढः पशुपतिर्भवान्या तदुःखकारणं पृष्टो यथावस्थितं 20 निवेद्य तस्यैव तरोश्छायायां पुंस्त्वनिबन्धनमौषधं तन्निबन्धादादिश्य तिरोदधे । सा तदनु तदीयां छायां रेखाङ्किता निर्माय तन्मध्यवर्तिन औषधाकुरानुच्छेद्य वृषभवदने क्षिपन्ती, तेनाप्यज्ञातखरूपेणौषधाङ्कुरेण वदनन्यस्तेन स वृषभो मनुष्यतां प्राप। यथा तदज्ञातखरूपोऽपि भेषजाङ्कुरः समीहितकार्यसिद्धिं चकार; तथा कलियुगे मोहात्तदपि तिरोहितं पात्रपरि ज्ञानं सभक्तिक सर्वदर्शनाराधनेनाऽविदितस्वरूपमपि मुक्तिप्रदं भवतीति निर्णयः।' इति हेम25 चन्द्राचायः सर्वदर्शनसम्मते निवेदिते सति श्रीसिद्धराजः सर्वधर्मानारराध"। ॥इति सर्वदर्शनमान्यताप्रबन्धः॥ ११२) अथान्यदा निशि कर्णमेरुप्रासादे नृपतिर्नाटकं विलोकयन् केनापि चणकविक्रयकारिणा" वणिगमात्रेण स्कन्धे न्यस्तहस्तः तल्लीलायितेन चित्रीयमाणमानसः भूयो भूयस्तद्दीयमानं सक पूरबीटकं परितोषितो गृह्णन् नाटकविसर्जनावसरेऽनुचरैस्तनेहादि सम्यगवगम्य सौधमासाद्य 30 सुष्वाप। प्रत्यूषे भूपः कृतप्राभातिककृत्यः सर्वावसरेऽलङ्कतसभामण्डपस्तं चणकविक्रयकारिणं 1AD सिद्धराजमु०। 2 Pलक्षद्रव्यमूल्येन; A मूल्येन द्रव्येण। 3 नास्त्येतत्पदं P1 4 DP साह; BDe वसा । 5 B आभडस्य उत्पत्तिकथाप्रबन्धः; P आभडस्य उत्पत्तिप्रबन्धः। 6 BP तितीर्षया। 7P नास्तीदं पदम्। 8 B नास्ति । 9P 'दोलाधिरूढः' इत्येव । 10 P 'पूर्व' नास्ति । 11 P सर्वदेव। 12 स गतः' नास्ति BPI * एतदन्तर्गतः पाठः B आदर्श नोपलभ्यते। 13 P गोरूपं । 14 B तस्मूले; P तरोस्तले। 15 P नास्ति । 16 P 'अकस्मात्' नास्ति । 17 P विधाय। 18 P मानवतां। 19 D सन्माने। 20 Doधर्माराधनां चकार । 21 P रात्रौ। 22 D विहाय नान्यनेदं पर यते। 23 AD न्यस्तहस्तेन । 24 B भूपतिः, P नास्ति । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] सिद्धराजादिप्रबन्धः। विपणिनमाकार्य' 'निशि स्कन्धन्यस्तहस्तभारेण ग्रीवा बाधते' इत्यभिहितस्तत्कालोत्पन्नमतिविज्ञपयामास-'देव! आसमुद्रान्तभूभारे स्कन्धाधिरूढे यदि स्वामिनः स्कन्धो न बाधते तदा तृणमात्रस्य निर्जीवस्य मम पण्याजीवस्य भारेण स्वामिनः का स्कन्धबाधे'ति तदीयौचित्यविज्ञपनेन प्रमोदवान्नृपः पारितोषिकं ददौ। ॥ इति चणकविऋयिवणिजः प्रबन्धः॥ ११३) अथान्यस्यां निशि नृपतिः कर्णमेरुप्रासादात्प्रेक्षणं प्रेक्ष्य प्रत्यावृत्तः कस्यापि व्यवहारिणो हफे बहून् प्रदीपानालोक्य किमेतदिति पृष्टः स लक्षप्रदीपस्तान् विज्ञपयामास । असौ धन्यः 'खसौधमध्यमध्यास्य व्यतीतक्षणदाक्षणः, स धन्यमानी तं सदः समानीयेत्यादिदेश'एतेषां सदा प्रदीपानां प्रज्वालनेन भवतः सदा प्रदीपनम् , तद्भवदीयवित्तस्य कियन्तो लक्षाः? इत्यभिहितः स विद्यमानांश्चतुरशीतिलक्षानिवेदयामास । तदनु तदनुकम्पाकम्पमानमानस: 10 खकोशात्षोडशलक्षान् प्रसादीकृत्य तत्सौधे कोटिध्वजमध्यारोपयामास । ॥ इति षोडशलक्षप्रसादप्रबन्धः॥ ११४) अथान्यस्मिन्नवसरे राज्ञा' वालाकदेशदुर्गभूमौ सिंहपुरमिति ब्राह्मणानामग्रहारः स्थापितः। तच्छासने षड्डत्तरशतं ग्रामाः। अथ श्रीसिद्धराजः कदाचित् सिंहभीतैर्विप्रैर्देशमध्यनिवासं याचितः साभ्रमतीतीरवर्तिनं आसांबिलीग्राम तेभ्यो ददौ । तथा तेषां" सिंहपुराधान्या-15 न्यादाय गच्छतामागच्छतां च दाणमोक्षं चकार । ११५) अथ राज्ञा" सिद्धराजेन मालवकं प्रति कृतप्रयाणेन वाराहीग्रामपरिसरमाश्रित्य तदीयान् पट्टकिलानाहूय तच्चातुर्यपरीक्षाकृते निजां प्रधानां राजवाहनसेजवाली स्थापनिकाथं समर्पयत"। अथ नृपतौ पुरतः प्रयाते तैः सर्वैरपि सम्भूय तदङ्गानि प्रत्येकं विदार्य यथोचितं" सर्वेऽपि वस्त्रसौधे निदधिरे"।अथ दिग्यात्रीप्रत्यावृत्तो नृपस्तां स्थापनिकां तेभ्यो याचमानस्तद्वौकितानि" भि-20 नानि तदङ्गानि पश्यन् सविस्मयं किमेतदित्यादिशंस्तैर्विज्ञपयांचक्रे-वामिन् ! एकः कोऽप्यस्य वस्तुनो गोपनविधौन प्रभूष्णुः।मलिम्लुचानलादीनां कदाचिदपाये सजायमाने सति काप्रभोरत्तरं कर्तेति विमृश्यैतदस्माभिर्व्यवसितम्।' तदा राजा विस्मयस्मेरमनास्तेषांब्रूच इति बिरुदं ददौ । ॥ इति वाराहीय-ब्रूचप्रबन्धः ।। ११६) अथ कदाचिच्छ्रीजयसिंहदेवो नृपतिर्मालवकं विजित्य प्रत्यावृत्त उझाग्रामे निवेशित-25 स्कन्धावारस्तैामीणैः प्रतिपन्नमातुलैर्दुग्धपरिपूर्णाऽऽवाहादिभिरुचितैः परितोष्यमाणस्तस्यामेव निशि गुप्तवृत्त्या तदुःखसुखजिज्ञासुः कस्यापि ग्रामण्यो गृहे गतः।गोदोहादिव्याकुलतायामपि तेन 'कस्त्वम् ?' इति पृष्टः 'श्रीसोमेश्वरस्य कार्पटिकोऽहं महाराष्ट्रदेशवास्तव्य' इति तस्मै न्यवेदयत् । तेन च नृपतेः पार्श्वे महाराष्ट्रदेशस्य तन्महाराजस्य च गुणदोषवृत्तान्ते पृच्छयमाने स नृप 1P वणिजमाहूय। 2 AD भिहिते। 3 BP धराभारे। 4 P विक्रयवणिक् । + एतदन्तर्गता पंक्तिः श्लोकरूपा प्रतिभाति परमुत्तरार्दै श्लोकलक्षणाभावात् गद्यरूपा एवेयमिति। 5P विहाय 'प्रसाद' नास्ति । 6 B प्रस्तावे। 7 B राजा। 8 AD कदाचिद्वालाकदेशे। एतद्वाक्यस्थाने P प्रतौ 'अथ कदाचिद्वालाकदेशदुर्गपर्वतभूमौ' एतादृशं वाक्यं विद्यते। 9D सिंहनादैीतैः। 10 B असांबिली; D आशांबिली; Da-b आशाम्बली। 11 P विहाय 'तथा' नास्ति । 12 BD तेषां च । 13 P सर्वधान्यानि। 14 B नास्ति 'आगच्छतां'। एतदन्तर्गतं वर्णनं A आदर्श सर्वथाऽनुपलब्धम् । 15 BP नास्ति । 16 A समर्पिता। 17 D यथावांछितं । 18 P विहाय नास्त्यन्यत्र। 19 BP निदधुः। 20 D यदा। 21 AD तड्डौकितभिः। 22 D Oम्लुचादिभ्यः। 23 D ग्रामीणस्य । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ प्रबन्धचिन्तामणिः । [तृतीया तेस्तस्य षण्णवतिराजगुणान् प्रशंसंस्तत्पार्श्वे च गूर्जराधीश्वरगुणदोषान् पृच्छन् 'श्रीसिद्धराजस्य प्रजापालनपाण्डित्यं सेवकेष्वप्यतुल्यवात्सल्यत्वं चे'त्यादीन गुणान् वर्णयंस्तेन कृत्रिमदोषे उद्घाव्यमाने स 'अस्माकं मन्दभाग्यतया नृपतेरपुत्रतालक्षण एव दोषः' इत्यभूणि मुश्चन्नृपति निकैतववृत्त्या परितोषयामास । अथ प्रभातकाले सम्भूय सर्वेऽपि मिलिता नृपदर्शनोत्कण्ठिताः 5 सौधमध्यास्य प्रभोः प्रणामानन्तरं तदतुल्यपल्यके निविष्टाः। आसनदाननियोगिभिः प्रदत्तेऽपि पृथगासने तत्पर्यङ्कसौकुमार्य करस्पर्शेन विचिन्त्य 'वयमिह सुखसुखेन निषण्णास्तिष्ठामा' इति तुपे स्मितमुखाम्भोजे तस्थुः। ॥ इति उञ्झावास्तव्यग्रामणीनां प्रबन्धः॥ ११७) अथ कदाचिज्झालाज्ञातीयमाङ्गनामा क्षत्रियः श्रीसिद्धराजसेवार्थ सभा समागच्छन् 10 प्रत्यहं पाराचीद्वयं भूमौ निहत्योपविशति । उद्धरन् तवयमुत्तिष्ठति । तस्य च भोजने घृतपरिपूर्णः कुतुप एवं व्यये याति । तस्य तु घृताभ्यक्तदाढिकानिर्मार्जने घृतषोडशोऽवशिष्यते। कदाचिद्धपुरपाटवे पथ्यावसरे पञ्चमाणकप्रमितयवागूपथ्यप्रान्ते आयुर्वेदविदाऽमृतोदकमद्धाहारे किमिति न पीतमुपालब्धः । यतः १६८. पिबेद्धटसहस्रं तु यावनाभ्युदितो रविः । उदिते तु सहस्रांशौ विन्दुरेको घटायते ॥ 15. रजन्याः पाश्चात्यघटिकाचतुष्टये सूर्यस्यानुदयावधि यत्पयः पीयते, जलयोगः क्रियते, तद्वजोदकम् , [तदमृतोदकं] सूर्योदये समुत्पन्ने निरन्नैः प्रातर्यदुदकं पीयते तद्विषम् । ततः बिन्दुरेकोऽपि घटशतायते । भोजनार्दै यजलं पीयते तदमृतम्, भोजनान्ते तत्कालपीतं पयः छत्रं "छत्रोदकमिति भण्यते । तेन प्रोक्तं पुनः पूर्वान्नं भुक्तमाहारं परिकल्प्य सम्प्रति पयः पीत्वा पुनर - हारं करिष्यामी'त्युपक्रममाणस्तेनैव वैद्येन निषिद्धः। कदाचिदै नृपतिना निरायुधकारणं पृष्टः 20 'समयोचितं मे प्रहरणमिति विज्ञपयन्नऽन्यदा मजनावसरे हस्तिपकप्रेर्यमाणं हस्तिनमालोक्य सन्निहितश्चानेन शुण्डादण्डे निहत्य मर्मस्थाननिपीडितस्य गजस्य पुच्छभागं गृह्णन् तदीयातुलेन बलेनान्तस्त्रुटितस्य करटिन उत्तारिते हस्तिपके भूपतितः सोऽसुभिर्व्ययुज्यत । स तु गूर्जरदेशभूपाले पलायिते समायातम्लेच्छान् समरे खेच्छयोच्छेदयन् यत्र दिवं प्राप्तस्तत्र श्रीपत्तने माङ्गस्थण्डिलमिति प्रसिद्धिः। ॥ इति "माङ्गप्रवन्धः॥ ११८) अन्यदाम्लेच्छेशप्रधानेषु समायतेषु मध्यदेशादागतान् वेषकारकानाहूय रहस्य किश्चिदादिश्य विससर्ज । अथापरस्मिन्सायाह्नावसरे" समागते प्रलयकालप्रचण्डपवनप्रादुर्भावे नृपः सुधमासधर्माणमास्थानीमास्थाय यावदवलोकते तावदन्तरिक्षादवतरन्तं मस्तकन्यस्तकाञ्चनेष्टिकायुगेन काञ्चनशोभा बिभ्राणं पलादयुगलमालोक्य भयभ्रान्ते समाजलोके नृपचरणपीठे तदु30 पायनं विमुच्य भूपीठलुठनपूर्व प्रणिपत्येति विज्ञपयामास-'यदद्य देवतार्चनावसरे लङ्कानगयों 1AD उत्पाद्यमाने। 2P उम्झाग्रामणी। 3 P सभायां। 4A कुम्भ। 5 D एक एव। 6D पोडशांशो। 7P 'प्रमित' नास्ति। 8 De जास्तमितः। 9 De अस्तं याते। 10 De बिन्दुर्घटशतायते। 11 केवलं D पुस्तके इदं पदं दृश्यते। 12 PDo छन् छनोदक। 13D पूर्वभुक्तः। 14 P विहाय नान्यत्र। 15 BP 'उत्तारिते भूपतौ' इत्येव । 16 D माजझाला। 17 BD म्लेच्छा। 18 AD देशागतान् । 19BP रहसि । 20 D सायावेच। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ 10 प्रकाशः] सिद्धराजादिप्रबन्धः । महाराजाधिराजः श्रीविभीषणो राजस्थापनाचार्यस्य रघुकुलतिलकस्य श्रीरामस्याभिरामगुणग्रामाभिरामस्य स्मरन् , ज्ञानमयेन चक्षुषा सम्प्रति चौलुक्यकुलतिलकश्रीसिद्धराजावतारेऽवतीर्ण खीयं स्वामिनमवधार्य-"अकुण्ठोत्कण्ठायमानमानसोऽहं तत्र प्रणामकरणायागच्छामीति, किं वा प्रभुमित्रागमनेनानुग्रहीष्यती"ति विज्ञपयन्नौ प्रहितवान् । तन्निर्णयं श्रीमुखेन समादिशतु देवः।' ताभ्यामित्यभिहिते नृपतिः किश्चिदन्तर्विचिन्त्य स तावेवं समादिशत्-'यद्वयमेव प्रफुल्ला- 5 यल्लकलहरीप्रेर्यमाणाः खसमये खयमेव विभीषणमिलनाय समेष्यामः' इत्युदीर्य निजकण्ठशृङ्गारकारिणमेकावलीहारं प्रतिप्राभृतं प्रसादीकृत्य आपृच्छनावसरे 'प्रभुणाहमन्यस्मिन्नपि प्रेष्यप्रेषणावसरे न विस्मारणीय' इति विशेषविज्ञप्तिं विधायान्तरिक्षमार्गेण तद्राक्षसद्वन्द्वं तिरोधत्ते । तदैव ते म्लेच्छप्रधानपुरुषा भयभ्रान्ताः खपौरुषमुत्सृज्य नृपपुरत आहूता भक्तिभरभासुराणि वचांसि ब्रुवाणास्तद्राज्ञे समुचितमुपायनमुपनीय श्रीसिद्धराजेन व्यसृज्यन्तं । ॥ इति म्लेच्छागमनिषेधप्रबन्धः॥ ११९) अथानन्तरं कोल्लापुरनगरराज्ञः सभायां बन्दिनः श्रीसिद्धराजस्य कीति वितन्वन्तः । 'तदा वयं तथ्यं सिद्धराजं मन्यामहे यदा प्रत्यक्षमप्यस्माकं कमपि चमत्कारं दर्शयती'त्येतद्भवाणेन [तेन राज्ञा ते"] पराभूतास्तत्वरूपं नृपतेर्विज्ञपयामासुः। अथ स्वामिनि सभां निभालयति तचित्तवेदिनी केनापि नियोगिनाऽचलिबन्धनपूर्वकं निजाभिप्राये प्रादुःक्रियमाणे राज्ञा रहसि 15 तत्कारणं पृष्टो नृपतेराशयं खयं विज्ञपयन् 'द्रव्यलक्षत्रयसाध्योऽयमर्थः' इति वाक्यविशेषमाह। तदैव दैवज्ञनिर्दिष्टे मुहूर्ते स नृपाल्लक्षत्रयमुपलभ्य वणिज्याकारो भूत्वा सर्वभाण्डानि सङ्ग्रह सिद्धसङ्केतं रत्नखचितं सुवर्णपादुकायुगलमतुलं योगदण्डं च मणिमयकुण्डलयुगलं च तद्विधयोगपिशुनं योगपढेच चण्डांशुरोचिश्चन्द्रातक" सह नीत्वा पन्थानमुल्लङ्घय कतिपयैरहोभिस्तत्रं दत्तावासः, आसन्नायां दीपोत्सवनिशितन्नगरराज्ञोऽवरोधे महालक्ष्मीदेव्याः सपर्यापर्याकुलतया 20 तत्मासादमुपेयुषि स कृतकसिद्धपुरुषस्तेन सिद्धवेषेणालङ्कृतः, केनापि सदभ्यस्तोत्पतनेन बर्वरेण नरेणानुगम्यमानो देव्याः पीटेऽकस्मात्प्रादुरासीत् । देव्या रत्नसुवर्णकर्पूरमयीं सपर्या विरचयस्तदवरोधाय तद्विधानि बीटकानि ददानः श्रीसिद्धराजनामाङ्कितं सिद्धवेषं पूजाव्याजात्तत्र नियोज्योत्पतनवशाहर्बरस्कन्धमधिरुह्य यथागतमगात् । निशावसानसमयेऽवरोधैः स विरोधिनृपतिस्तं वृत्तान्तं ज्ञापितः सन् भयभ्रान्तो नृपः स्वप्रधानपुरुषैस्तं प्राभृतं सिद्धाधिपतये 25 प्राहिणोत् । अथ तेन नियोगिना भाण्डादिक्रयविक्रयं संक्षिप्य 'ममागमनावधि नैतेषां प्रधानानां दर्शनं देयमिति वेगवता पुरुषेण विज्ञपयामास। तदनु झगिति कतिपयैर्दिनस्तत्र समुपेतः, तत्वरूपं विज्ञप्तो नृपतिस्तेषां प्रधानानां तदुचितामावर्जनां चकार । ॥ इति कोल्लापुरप्रवन्धः॥ 1 B अकुण्ठोत्कण्ठाघटमानमानसः; P अकुण्ठोत्कण्ठितमानसः। 2 A स च देवमादिदेश। 3D कृतं। 4 D नास्त्येतत्पदम्। 5 Doऽहमयमपि । 6P म्लेच्छप्रधानाः। 7 B विसृजत् । 8 P 'अथ' इत्येव । 9 A कोल्लाकपुर; P कोलापुर । 10 D पुस्तक एवैते शब्दाः प्राप्यन्ते। 11 B निवेदिना; P विदा; D तत्तत्त्ववेदिना। 12 P अञ्जलिं बवा। 13 D नास्ति 'स्वयं'। 14 D शकेव। 15 AB चण्डातक। 16 P गृहीत्वा। 17 D तत्पुरे। 18 BP सम्प्राप्तायां । 19 AD पूजार्थ । 20 AD सिद्धरूपः। 21 ABD रत्नमयः। 22 AD ऽवरोधैस्तं । 23 AD नृपवृत्तान्तं । 24 P भ्रान्तस्तं प्राभृतं; B.भ्रान्तः सुप्रधानैस्तं। 25 D •पुरराजप्रबन्धः। 10 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ तृतीयः १२०) श्रीसिद्धराजेन मालवमण्डलाद्यशोवर्मा नृपतिर्निबध्यानीतः । अवसरे क्रियमाणे सीलणाभिधानेन कोतुकिना 'बेडायां समुद्रो मग्न' इति तत्पृष्ठगायनेनापशब्दं ब्रूषे इति तर्जितो बेडासमानायां गूर्जरधरित्र्यां मालवकनृपतिसमुद्रो मग्न इति विरोधालङ्कारमर्थापत्त्या परिहरन् प्रभोहेममयीं जिहां प्राप।। ॥ इति कौतुकीसीलणप्रबन्धः॥ १२१) कदाचित्सिद्धराजस्य वाग्ग्मी कश्चित्सान्धिविग्रहिको जयचन्द्रनाम्ना कासिपुरीश्वरेण श्रीमदणहिल्लपुरस्य प्रासादप्रपानिपानादिखरूपाणि पृच्छतेति दूषणमुक्तम्-'यत्सहस्रलिङ्गसरोवरवारि शिवनिर्माल्यतयाऽस्पृश्यतया सेवमानो लोकद्वयविरोधेन तत्र वास्तव्यो लोकः कथमुदितोदितप्रभावः स्याद् ?। सिद्धाधिपेन सहस्रलिङ्गसरः कारयताऽनुचितमिदमाचरितमिति तस्य 10 नृपतेर्वचसाऽन्तः कुपितः स नृपं पप्रच्छ-'अस्यां वाणारस्यां कुतस्त्यं पयः पीयते ?' नृपेण 'त्रिपथगाजलमित्यभिहिते "किं नाम सुरसरिन्नीरं शिवनिर्माल्यं न ? यतः शिवोत्तमाङ्गमेव गङ्गानिवासभूमिः।' ॥ इति जयचन्द्रराज्ञा समं गूर्जरप्रधानस्योक्तिप्रत्युक्तिप्रबन्धः॥ - १२२) कस्मिन्नप्यवसरे कर्णाटविषयादागतेन सान्धिविग्रहिकेण' श्रीमयणल्लदेव्या पितुर्जय15 केशिराज्ञः कुशलोदन्ते पृष्टेऽश्रुमिश्रलोचन इति विज्ञपयामास-खामिनि! मुगृहीतनामा श्रीजय केशिमहीमहीन्द्रोऽशनावसरे पञ्जरात्क्रीडाशुकमाकारयन् , तेन मार्जार इत्युचरिते नृपः परितो विलोक्य निजभोजनभाजनाधो"भागवर्तिनमोतुमपश्यन् , “यदि तव बिडालबालेन" विनाशः स्यात्तदाहं त्वया सहगमनं करवाणी"ति प्रतिज्ञाते स यावत्पञ्जरादुड्डीय तस्मिन्काञ्चनभाजने निषीदति तावदकस्मात्तेन वृकदंशेन तं विनाशितमवलोक्य परित्यक्ताशनकवलः, उक्तियुक्ति20 वेदिना राजवर्गेण निषिद्ध्यमानोऽपि... १६९. राज्यं यातु श्रियो यान्तु यान्तु प्राणा अपि क्षणात् । या मया स्वयमेवोक्ता वाचा मा यातु शाश्वती ॥ इतीष्टदैवतमिव तामेव गिरं जैस्तेनैव शुकेन सह दारुनिचितां चितां विवेश।' इति वाक्याकर्णनाच्छोकाम्भोधिमग्नां श्रीमयणल्लदेवीं विशेषधर्मोपदेशहस्तावलम्बनेन विद्वज्जनः समभ्युद्दधार । १२३) अथ पितुः श्रेयसे श्रीसोमेश्वरपत्तने यात्रां गता सती सा" सती त्रिवेदीवेदिनं कमपि 25 ब्राह्मणमाकार्य तदञ्जलौ जलन्यासावसरे 'यदि भवत्रयपातकं ददासि" तदा आददामि नान्य थेति तद्वचनविशेषपरितोषभाक् गजाश्वकाञ्चनादिभिर्दानैर्युत पापघटमाददौ । स च तत्सर्व विप्रेभ्यो ददानः किमिति देव्या पृष्टः प्राह-प्राक्तनपुण्योपचयादस्मिन् जन्मनि नृपप्रिया नृपतिजननी भूत्वा लोकोत्तरैरेभिर्दानैः सुकृतैर्भावी भवोऽपि श्रेयस्कर इति विमृश्य भवत्रयपातकं मया जगृहे । भवत्या पापघटदाने उपक्रान्ते कश्चिदधमद्विजोऽपि पापघटं नीत्वा, खं भवतीं च 1 P अथ श्री०। 2 P धरायां। 3 P नृपात्सुवर्णमयीं। 4 P जयन्तचन्द्र०। एतदन्तर्गतपाठस्थाने D पुस्तके 'शिवनिर्माल्यं तदस्पृशतया तत्सेवका अतो लोकद्वयविरोधिनस्तत्रत्यलोकः' एतादृशः पाठः। 5 P क्रुद्धः। 6 D राजेन । 7 D नास्ति 'प्रत्युक्ति'। 8 P .आगतान् । 9P विग्रहिकान् । 10 D लोचनेनेति सा। 11D भोजनान्धोऽधो। 12 AD बिडालेन। 13 B नास्ति । 14 P सरन् । 15 AD नास्ति 'सा सती'। 16 D त्रिवेदिनं । 17 AD लासि । 18 D ददामि। 19 D दिभिर्युतं। 20 AP पुण्योदयात्; D पुण्यात् । Jain Education Interational Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ प्रकाशः] सिद्धराजादिप्रबन्धः। भवाम्भोधौ मज्जयिष्यतीति मया तु संन्यस्तसमस्तवित्तेन वित्तमेतदादाय पुनर्ददता लब्धादष्टगुणं पुण्यं लब्धमिति श्रेयः सञ्जगृहे ।' ॥ इति पापघटस्य प्रबन्धः॥ १२४) अथ कदाचिन्मालवकमण्डलं विगृह्य खदेशनिवेशं प्रति प्रचलितः श्रीसिद्धाधिपोऽन्तराले स अप्रतिमल्लैर्भिल्लैर्निरुद्धमध्वानमवधार्य तस्मिन्वृत्तान्ते ज्ञाते सति मन्त्री सान्तूनामा 5 प्रतिग्राम प्रतिनगरं घोटकमुद्राह्य प्रतिवृषं पर्याणानि विन्यस्य मेलितातिदलस्तबलेनं भिल्लावित्रास्य श्रीसिद्धराजं सुखेन खदेशं समानीतवान् । ॥ इति सान्तूमन्त्रिबुद्धिप्रबन्धः ॥ १२५) अथ कस्याश्चिनिशि द्वावकुण्ठौ वण्ठौ श्रीसिद्धनरेश्वरस्य चरणसंवाहनाव्याप्ती तं निद्रामुद्रितलोचनं विचिन्त्य, तदाद्यो निग्रहानुग्रहसमर्थ श्रीसिद्धराज सेवकजनकल्पवृक्षं सर्वरा-10 जगुणनिलयं प्रशशंस । अपरस्त्वस्यापि भूपतेः प्राज्यराज्यप्रदं प्राक्तनं कर्मैव श्लाधितवान् । एवमाकर्णितेन राज्ञा' तस्मिन्वृत्तान्ते तत्कर्मणः प्रशंसां विफलीका स्वप्रशंसाकारिणः प्रेष्यस्यापरस्मिन्नहन्यऽनिवेदिततत्त्वस्य प्रसादलेखमार्पयत्-'यदस्मै वण्ठाय तुरङ्गमशतस्य सामन्तता देया' इत्यालिख्य तं महामात्यश्रीसान्तूपाचे प्राहिणोत् । अथ स यावच्चन्द्रशालाया निःश्रेण्यामवरोहति तावत्प्रस्खलितपदः पृथिव्यां पतदीषदङ्गभङ्गमङ्गीकृतवान् । तत्पृष्ठानुगामिनाऽपरेण 15 वण्ठेन किमेतदिति पृष्टस्तेन स्वस्वरूपे निवेदिते स मञ्चकन्यस्तो गृहं गत्वा तं प्रसादलेखमपरस्मै समर्पितवान् । तत्प्रमाणेन महामात्यस्तस्मै शततुरङ्गमसामन्ततां ददौ । अथानयोर्यथावद्वृत्तान्तेऽवधारिते नृपतिः कर्मैव बलीय इति तत्प्रतिमेने । १७०. नैवाकृतिः फलति नैव कुलं न शीलं विद्या न चापि मनुजेषु कृता न सेवा । पुण्यानि पूर्वतपसा किल" सञ्चितानि काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः ॥ 20 ॥ इति वण्ठकर्मप्राधान्यप्रबन्धः॥ १७१. सो जयउ कूडबरडो" तिहुयणमज्झम्मि जेसलनरिन्दो । छित्तूण रायवंसे" इक छत्तं कयं जेण ॥ १७२. *महालयो महायात्रा महास्थानं महासरः । यत्कृतं सिद्धराजेन क्रियते तन्न केनचित् ॥ १७३. मात्रयाप्यधिकं किञ्चिन्न सहन्ते जिगीषवः । इतीव त्वं धरानाथ ! धारानाथमपाकृथाः ॥ १७४. मानं मुश्च सरस्वति त्रिपथगे सौभाग्यभङ्गीस्त्यज रे कालिन्दि तवाफला कुटिलता रेवे रयस्त्यज्यताम् |25 श्रीसिद्धेशकृपाणपाटितरिपुस्कन्धोच्छलच्छोणितस्रोतोजातनदीनवीनवनितारक्तोऽम्बुधिर्वर्तते ॥ १७५. श्रीमजैत्रमृगारिदेवनृपते सत्यं प्रयाणोत्सवे पानीयाशयशोषणैः करटतो वीरव्रणाकाङ्क्षया । खीयस्वीयपतेर्विनाशसमयं सञ्चिन्त्य चिन्तातुरा मत्सी रोदिति मक्षिका च हसति ध्यायन्ति वामं स्त्रियः॥ 1 B 'सान्तू' इत्येव; P सान्तू इति नामा। 2 AD दलबलेन । 3D 'स्वदेश' नास्ति । 4 P सान्तूबुद्धिप्रबन्धः; D बुद्धिवैभवः। 5 P भूभुजा। 6 P सामन्तपदं देयं । 7 P तावत्तत्र स्खलितः। 8 AD नास्ति 'प्रसादलेख। 9 P विद्यापि नैव नहि यन्न कृतापि सेवा; B विद्या न चापि न च जन्मकृतापि सेवा। 10 B भाग्यानि; P कर्माणि। 11 P चिर। 12. A. कूडगंछो; D कूडछरडो; Dd नरडो। 13 P पहुवीमझि। 14 AD. रायवंसं । 15 P एक। * D पुस्तके नैतत्पद्यमत्र लभ्यते। 16 A 'कृतं नान्यनृपेण तत्' एतादृशोऽयं पादः। D पुस्तक एवेदं पद्यं प्राप्यते। ...... .... Jain Education Interational Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ प्रबन्धचिन्तामणिः। [तृतीयः १७६. सपादलक्षः सह भूरिलक्षैरानाकभूपाय नताय दत्तः । ___ दृप्ते यशोवर्मणि मालवोऽपि त्वया न सेहे द्विषि सिद्धराज ॥ -इत्याद्या बहुशः स्तुतयः प्रबन्धाश्च तदीया ज्ञेयाः। संव० ११५० पूर्व श्रीसिद्धराजजयसिंहदेवेन वर्ष ४९ राज्यं कृतम् । 5 ॥ इति श्रीमेमतुङ्गाचार्यविरचिते' प्रबन्धचिन्तामणौ श्रीकर्ण-श्रीसिद्धराजचरित्र वर्णनो नाम तृतीयः प्रकाशः॥ ग्रंथान ५७४ ॥ (अत्र P प्रतौ निम्नलिखिताः श्लोका अधिकाः प्राप्यन्ते-) {तदुपश्लोकनश्लोका यथा[१०६] शिशुनापि शुनासीरवीरवृत्तिमतीयुषा । रुपा भुजिष्यतां नीताः पिशुना येन भूभुजः॥ 10 [१०७] अपारपौरुषोद्गारं खङ्गार गुरुमत्सरः । सौराष्ट्र पिष्टवानाजौ करिणं केसरीव यः ॥ [१०८] असंख्यहरिसैन्येन प्रक्षिप्तानेकभूभृता । बद्धः सिन्धुपतिर्येन वैदेहीदयितेन वा ॥ [१०९] अमर्षणं मनः कुर्वन् विपक्षोर्वीभृदुन्नतौ । अगस्त्य इव यस्तूर्णमर्णोराजमशोषयत् ॥ [११०] गृहीता दुहिता तूर्णमर्णोराजस्य विष्णुना । दत्तानेन पुनस्तस्मै भेदोऽभूदुभयोरयम् ॥ [१११] द्विषां शीर्षाणि लूनानि दृष्ट्वा तत्पादयोः पुरः । चक्रे शाकम्भरीशोऽपि शङ्कितः प्रणतं शिरः ॥ 15 [११२] मालवस्वामिनः प्रौढलक्ष्मीपरिवृढः स्वयम् । समित्यपरमारो यः परमारममारयत् ॥ [११३] क्षिप्त्वा धारापति राजशुक्रवत्काष्ठपञ्जरे । यः काष्ठापञ्जरे कीर्तिराजहंसी न्यवीविशत् ॥ [११४] एकैव जगृहे धारा नगरी नरवर्मणः । दत्ता येनाश्रुधारास्तु तद्वधूनां सहस्रधा ॥ [११५] धाराभङ्गप्रसङ्गेन यस्यासन्नस्य शङ्कितः । प्राघूर्णकमिषाद्दण्डं महोदयपतिर्ददौ ॥ [११६] सुधेव वसुधा लब्धुं वाञ्छिता येन विद्विषा । यस्सोल्लसदसिाहू राहूचक्रे तमाहवे ॥ 20 [११७] जनेन मेने यः खामी कुमार इव शक्तिमान् । ताम्रचूडध्वजः सोऽभूत् किन्तु केकिध्वजः परः ।। [११८] येन विश्वकवीरेण न स राजा जितो न यः । काष्ठा कापि न सा यस्य यशोभिः शोभिता न या । [११९] गणेशस्येव यस्याग्रपुष्करस्य वृषस्थितेः । आज्यसारः करस्थोऽभूद् गौडो मोदकवन्नृपः ॥ [१२०] श्मशाने यातुधानेन्द्रं बद्धवा बर्वरकाभिधम् । सिद्धराजेति राजेन्दुर्यो जज्ञे राजराजिषु ॥ [१२१] रजोभिः समरोद्भूतैर्यत्पुरा मलिनीकृतम् । तत्पश्चात्कीर्तिकल्लोलेर्येन क्षालितमम्बरम् ॥ 25 [१२२] महीमण्डलमार्तण्डे तत्र लोकान्तरे गते । श्रीमान् कुमारपालोऽथ राजा रञ्जितवान् प्रजाः ॥ SAD आदर्श एवेदं पद्यं लभ्यते। 1 P आदर्श एवैषः शब्दः। AD आदर्श इयं पंक्तिः "संव० ११५० वर्षे उपविष्टो .जयसिंहदेवः । तथा तेन राज्ञा वर्ष ४९ राज्यं कृतम् ।" एतादृशी लभ्यते। 2 P .चार्याविःकृते। 3 AD श्रीकर्णश्रीसिदराजयोर्विविधचरित्रनानावदातवर्णनो। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] कुमारपालादिप्रबन्धः। [९. कुमारपालादिप्रबन्धः ।। १२६) अथ परमाईतश्रीकुमारपालप्रबन्धः'प्रारभ्यते-श्रीमदणहिलपुरपत्तने बृहति श्रीभीमदेवे साम्राज्यं प्रति पालयति, श्रीभीमेश्वरस्य पुरे बकुलदेवीनाम्नी पण्याङ्गना पत्तनप्रसिद्धं गुणपात्रं रूपपात्रं च । तस्याः' कुलयोषितोऽप्यतिशायिनी प्राज्यमर्यादां नृपतिर्विमृश्य तद्वृत्तंपरीक्षानिमित्तं सपादलक्षमूल्यां क्षुरिकां निजानुचरैस्तस्यै ग्रहणके दापयामास । औत्सुक्यात्तस्या- 5 मेव निशि बहिरावासे प्रस्थानलग्नमसाधयत् । नृपो वर्षद्वयं यावन्मालवकमण्डले विग्रहाग्रहात्तस्थौ । सा तु बकुलदेवी तद्दत्तग्रहणकप्रमाणेन तद्वर्षद्वयं परिहृतसर्वपुरुषा शीललीलयैव तस्थौ। निस्सीमपराक्रमो भीमस्तृतीये" वर्षे स्वस्थानमागतो जनपरम्परया तस्यास्तां प्रवृत्तिमवगम्य" तामन्तःपुरे न्यधात् । तदङ्गजो हरिपालदेवः, तत्सुतस्त्रिभुवनपालः, तत्पुत्रः कुमारपालदेवः । स तु अविदितधर्मोऽपि कृपापरः परनारीसहोदरश्च। स तु सामुद्रिकवेदिभिः ‘भवदनन्तरमयं नृपो 10 भविष्यतीति सिद्धपो विज्ञप्तस्तस्मिन्हीनजातावित्यसहिष्णुतया विनाशावसरं सततमन्वेषयामास । स कुमारपालस्तं वृत्तान्तमीषद्विज्ञाय तस्मान्नृपतेः शङ्कमानमानसः तापसवेषेण निर्मितनानाविधदेशान्तरभ्रमणः कियन्त्यपि वर्षाण्यतिवाह्य पुनः पत्तनमागतः । कापि मठे तस्थौ । १२७) अथ श्रीकर्णदेवस्य श्राद्धावसरे श्रद्धालुतया निमत्रितेषु सर्वेष्वपि तपस्विषु श्रीसिद्धराजः प्रत्येकं तेषां तपखिनां वयं पादौ प्रक्षालयन् कुमारपालनाम्नस्तपस्विनः कमलकोमलौ चरणौ कर-15 तलेन संस्पृश्य तदूर्द्धरेखादिभिर्लक्षणे राज्या.ऽयमिति निश्चलया दृशाऽपश्यत् । तदिङ्गितैस्तं विरुद्धं बुध्यमानस्तदैव वेषपरावर्तेन काकनाशं नष्टः। आलिगनाम्नः कुलालस्यालये मृत्पात्राणामापाके रच्यमाने तदन्तर्निधाय तदानुपदिकेभ्यो राजपुरुषेभ्यो रक्षितः। स क्रमात्ततः सञ्चरन् तद्विलोकनाकुलेन राजलोकेन त्रासितः सन्निहितां दुर्गमां दुर्गभूमिमनवलोक्य कापि क्षेत्रे ध्वाङ्करक्षकैः" क्रियमाणच्छिन्नकण्टकिशाखिशाखानिचये समुपचीयमाने तं तदन्तर्निधाय तेषु स्वस्था-20 नमागतेषु पदिकेन तत्रानीते पदे सर्वथा तत्रासम्भावनया कुन्ताग्रेण भेद्यमानेऽपि तस्मिंस्तमनासाद्य व्यावृत्ते राजसैन्ये, द्वितीयेऽहनि क्षेत्राधिकृतस्ततः स्थानादुद्धृतः पुरतः कापि प्रातरान्तजन् कापि तरुच्छायायां विश्रान्तः सन् , बिलान्मूषकं मुखेन रूप्यनाणकमाकर्षन्तं निभृततया विलोक्य, यावदेकविंशसंख्यानि दृष्ट्वा पुनस्तेभ्य एकं गृहीत्वा तस्मिन् बिलं प्रविष्टे पाश्चात्यानि तु सर्वाणि स गृहीत्वा यावन्निभृतीभवति तावत्स तान्यनवलोक्य तदा विपेदे । स तच्छोक-25 व्याकुलितमानसश्चिरं परितप्य पुरतो व्रजन् , कयापीभ्यवध्वा श्वशुरगृहात्पितृगृहं ब्रजन्त्या, पथि पाथेयाभावादिनत्रयं क्षुत्क्षामकुक्षिभ्रोतृवात्सल्यात्कर्पूरपरिमलशालिशालिकरम्बेण सुहितीचके। १२८) तदनु स विविधानि देशान्तराणि परिभ्रमन् स्तम्भतीर्थे महं० श्रीउदयनपार्श्वे शम्बलं याचितुमागतः। तं पौषधशालास्थितमाकर्ण्य तत्रागते तस्मिन्नुदयनेन पृष्टः श्रीहेमचन्द्राचार्यः 1P कुमारभूपालचरित्रं । 2 P श्रीभीमे। 3 AD 'प्रति' नास्ति। 4 D चउलादेवी। 5 AD पत्तने। 6 B नास्ति। 7 D नास्ति । 8 P निशम्य। 9 B तद्वृत्तान्तः। 10 P 'तृतीये वर्षे' स्थाने 'कृती'। 11 P अवबुस । 12 BP 'भ्रमण' नास्ति। 13 BP श्रीमदनादिभूपतेः अशठो मठे। 14 B मन्यमानः। 15 D पाके। 16 D नास्त्येत AD क्षेत्ररक्षकैः। 18 B क्रियमाणे। 19 B समुच्चीय०। 20 BP स्थानभाजिषु। 21 D निभृतया दशा। 22 AD नास्ति। 23 BP विविधान् देशान् । 24 BP भ्रम्य। 25 AD शालायामागत। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः । [ चतुर्थः प्राह-'लोकोत्तराण्यस्याङ्गलक्षणानि । सार्वभौमोऽयं नृपतिर्भावीति । आजन्म दरिद्रोपद्रुततया तां वाचं यथार्थाममन्यमानेन तेन क्षत्रियेणासम्भाव्यमेतदिति विज्ञप्ते, 'सं०११९९ वर्षे कार्तिकवदि (BP सुदि)२ रवौ हस्तनक्षत्रे यदि भवतः पट्टाभिषेको न भवति तदाऽतःपरं निमित्तावलोकनसंन्यासः' इति पत्रकमालिख्यैकं मन्त्रिणेऽपरं तस्मै समार्पयत् । अथ स क्षत्रियस्तत्क5 लाकौशलचमत्कृतमानसः 'यद्यदः सत्यं तदा भवानेव नृपतिः, अहं तु त्वचरणरेणुः' इति प्रतिश्रवं श्रावयन् 'किं नो नरकान्तराज्यलिप्सया भवतु, कृतज्ञेन भवता वाक्यमिदमविस्मरता जिनशासनभक्तेन सततमेव भाव्यमिति तदनुशास्तिं शिरःशेखरीकृत्यापृच्छय च मन्त्रिणा सह गृहं प्राप्तः । लानपानाशनादिभिः सत्कृतः यथायाचितं पाथेयं समर्प्य प्रस्थापितो मालवकदेशं गतः। कुडङ्गेश्वरप्रासादे प्रशस्तिपट्टिकायाम्10 १७७. पुण्णे वाससहस्से सयम्मि वरिसाण नवनवइअअहिए । होही कुमरनरिन्दो तुह विक्कमराय ! सारिच्छो । इमां गाथामालोक्य विस्मयापन्नमानसो गूर्जरनाथं सिद्धाधिपं परलोकगतमवगम्य ततः प्रत्यावृत्तो विलीनशम्बलस्तस्मिन्नपि नगरे कस्यापि विपणिनो विपणौऽशनानन्तरं । तमेव बन्दीचकार । स तु व्याकुलतयाऽऽक्रन्दन्मिलिते नगरलोके द्वयोरपि निधनं निश्चित्य मम कृतकमूच्छा भवानपनयतु इत्यभिहितस्तेन मतिवैभवेन प्रत्युज्जीवितमन्यस्तत्तथा कृत्वा तस्मादुपायाद्' व्यपेतोऽ15 पाय: श्रीमदणहिल्लपुरमुपेत्य निशि कान्दविकापणे धनाभावाद्भुक्ततदशनो भगिनीपते राजकुलश्रीकान्हडदेवस्य सदनमासाद्य राजमन्दिरादागतेन तेन पुरस्कृत्यान्तीतः। सद्भोजनादिभिः सुहितीभूतः सुष्वाप । १२९) प्रातस्तेन भावुकेन स्वसैन्यं सन्नह्य नृपसौधमानीयाभिषेकपरीक्षानिमित्तं प्रथममेका कुमारः पट्टे निवेशितः । तमुत्तरीयाञ्चलानप्यनावृण्वन्तमालोक्य तदपरो निवेशितः। ततस्तं यो20 जितकरसम्पुटं वीक्ष्य तस्मिन्नप्यप्रमाणीकृते श्रीकान्हडदेवानुज्ञातः कुमारपालः संवृतवसन ऊर्द्ध पवनं गृह्णन् सिंहासने उपविश्य कृपाणं पाणिना कम्पयन् पुरोधसा कृतमङ्गलः पश्चाशद्वर्षदेश्यः सनिखाननिस्वनं श्रीमता कान्हडदेवेन पञ्चाङ्गचुम्बितभूतलं नमोऽकारि । १३०) स प्रौढतया देशान्तरपरिभ्रमणनैपुण्येन राज्यशास्तिं स्वयं कुर्वन् राजवृद्धानामरोचमानस्तैः सम्भूय व्यापादयितुं व्यवसितः। सान्धकारगोपुरेषु न्यस्तेषु घातकेषु प्राक्तनशुभक25 र्मणा प्रेरितेन केनाप्यासेन ज्ञापितवृत्तान्तस्तं प्रवेशं विहाय द्वारान्तरेण वर्ग" प्रविश्य तानि प्रधानान्यन्तकपुरी प्राहिणोत् । स भावुकमण्डलेश्वरः शालकसम्बन्धाद्राज्यस्थापनाचार्यत्वाच्च राज्ञो दुरवस्थामर्माणि जल्पति । पश्चाद्राज्ञोक्तं-'हे भावुक ! राजपाटिकायां सर्वावसरे च प्राक्तनदुरवस्थामर्मनर्म न भाषणीयं त्वया । अतः परमेवंविधं सभासमक्षं नो वाच्यं विजने तु यदृच्छया वाच्यमिति राज्ञोपरुद्ध उत्कटतयाऽवज्ञावशाच रे अनात्मज्ञ! इदानीमेव पदी !.. 1 AD लोकोत्तराणि तदङ्गलक्षणानि वीक्ष्य। 2 AD भावीत्यादिदेश। 3D सन्दिग्धतया मन्यः। 4 BP विज्ञप्तः । 5 D अस्मिन्नगरे। 1 एतदन्तर्गतः पाठः D पुस्तके मूले नोपलभ्यते, पृष्ठाधोभागे पाठान्तरेण संगृहीतो विद्यते; परमस्मदीयेषु सर्वेष्वादशेषु मूल एवैष पाठः समुपलभ्यते। 6P निध्यानं निध्याय। 7 Da तसादपायात्पलायमानः। 8 AD राजश्री। 9.AD सौधे सह नीत्वा। 10 P प्रदेश; B देशं। 11 P च। एतदन्तर्गतपाठस्थाने P आदर्श 'राजपाटिकायां सर्वावसरे च प्राक्तनदुरवस्थामर्मभाषणेन उपांशुदेशे त्वया' एतादृशः पाठः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] कुमारपालादिप्रबन्धः । त्यजसी'ति भाषमाणो मर्तुकाम औषधमिव तद्वचः पथ्यमपि न जग्राह । नृपस्तदाकारसंवरणेaise' विधायाsपरस्मिन्दिवसे नृपसङ्केतितैर्मलैस्तदङ्गभङ्गं कृत्वा नेत्रयुगं समुद्धृत्य च तं तदावासे प्रस्थापयामास । १७८. आदौ मयैवायमदीपि नूनं न तद्दहेन्मामवहेलितोऽपि । इति भ्रमादङ्गुलिपर्वणापि स्पृश्येत नो दीप इवावनीपः ॥ इति विमृशद्भिः समन्ततः सामन्तैर्भयभ्रान्त चित्तैस्ततः प्रभृति स नृपतिः प्रतिपदं सिषेवे । १३१) तेन राज्ञा पूर्वोपकारकर्त्तुः श्रीमदुदयनस्याङ्गजः श्रीवाग्भटदेवनामा महामात्यश्चक्रे । आलिंगनामा ज्यायान्प्रधानः, महं० उदयनदेवच । ७९ १३२) चाहनामा कुमारः श्रीसिद्धराजप्रतिपन्नपुत्रः श्रीकुमारपालदेवस्याज्ञामवमन्यमानः । सपादलक्षीयभूपतेः पत्तिभावं बभार । तेन श्रीकुमारपालभूपालेन सह विग्रहं चिकीर्षुणा 10 तत्रत्यं सकलमपि सामन्तलोकं लश्चोपचारदानादिना खायत्तीकृत्य दुर्वारस्कन्धावारोपेतं सपादलक्षक्षोणीपतिं सहादाय देश सीमान्तमागतः । अथ चौलुक्यचक्रवर्त्ती अभ्यमित्रीणतया स्कन्धावारसमीपे निजं चमूसमूहं निवेशयामास । निर्णीते समरवासरे निष्कण्टके क्रियमाणे सीमनि सज्जीक्रियमाणायां चतुरङ्गसेनायां चउलिंगनामा पट्टहस्तिनो हस्तिपकः कस्मिन्नप्यागर्सि' नृपेणाक्रुश्यमाणः क्रोधादङ्कुशं तत्याज । अथ सामलनामा मात्रगुणपात्रं महामात्र 15 दुकूलं वसुदानपूर्वकं तत्पदे नियोजितः सन् राज्ञा, स कलहूपञ्चानननामानमनेकपं प्रक्षरितं कृत्वा तदुपरि नृपासनं निवेश्य तत्र षट्त्रिंशदायुधानि नियोजयन्सकलकलाकलापसम्पूर्ण: " कलापके चरणौ नियोज्य स्वयमारूढवान् । तदासनस्थचालुक्यभूपालोऽपि सङ्ग्रामाधिकृत पुरुपैरुत्थापनिकां कार्यमाणेषु सामन्तेषु " चाहडकुमार भेदादाज्ञा भङ्गकारिषु - इति सैन्यविप्लवमाकलय्य तं निषादिमादिदेश । सम्मुख सेनायां सपादलक्षक्षितिपतिर्मतङ्गजछत्र सङ्केतादुप- 20 लक्ष्य विघटिते कटकबन्धे मयैवैकाकिना योद्धव्यमिति निर्णीय तेनाधोरणेन खं सिन्धुरं तत्सनिधौ नेतुमादिशन्नपि तमपि तथाऽकुर्वाणं विलोक्य 'कथं त्वमपि विघटितोऽसीत्यादिशंस्तेन विज्ञपयांचक्रे - 'स्वामिन्! कलहपञ्चाननो हस्ती सामलनामा हस्तिपकश्च द्वयं युगान्तेऽपि न विघटते, परं परस्मिन्कुम्भिकुम्भे चाहडनामाकुमारस्तारध्वनिरधिरूढोऽस्ति यस्य हक्कया हस्तिनोऽपि भज्यन्ते ।' अर्तें उत्तरीयाञ्चलयुगलेनै सिन्धुरश्रवणौ " पिधाय स निजं गजं प्रतिगजेन समं" संघ - 25 द्वयामास । अथ चाहडः पूर्वमात्मसात्कृतं चउलिगनामानमारोहकं जानन् कृपाणिकापाणिः श्रीकुमारपालविनाशाशया, निजगजात्कलहपञ्चाननकुम्भे पदं ददानः तेन यत्रा पश्चात्कृते गजे स भूमीपतितस्तलवर्गीयपदातिभिरधारि । तदनु चौलुक्यभूपतिना श्रीमदानाकनामा सपादलक्षनृपः" ' शस्त्रसज्जो भवेत्यभिहितस्तन्मुखकमलं प्रति औचित्याच्छिलीमुखं व्यापारयन् 'प्रधानः क्षत्रियोसी 'ति सोपहासश्लाघया तं वञ्चयित्वा नाराचेन निर्भिद्य कुम्भीन्द्रकुम्भे पातयित्वा 30 1 P अपन्हुत्य । 2 P नयनयुगलं । 3D ततः । 4 A उदयनदेवस्य पुत्र ( D पुत्रो ) चाहड० । 5 P क्षितिपतेः । 6 D दानैः । 7 BP केनापि आगसा नृपतिना । 8 BP उज्झांचकार । 9 D पुष्कल० । 10 BP • परिपूर्ण । 11. B बाहड० | 12 BP सादिनं । 13 D• आदिदेश पुरो गन्तुं । 14 D इत्युक्तः । 17 BP • युगलं । 18 BP . श्रवणयोरधिरोप्य । 19 AD नास्ति • छत्रचामर० । 15 D नास्ति । 16 D । 20 BP 'नृपतिः' इत्येव । For Private Personal Use Only 5 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः । [ चतुर्थः जितं जितमिति ब्रुवाणः स्वयं पोतं भ्रमयांचकार । इति सर्वेषां सामन्तानां सर्वानपि तुरङ्गमान् स नृपतिराक्रम्य जग्राह । ॥ इति चाहडकुमारप्रबन्धः॥ १३३) तदनु चौलुक्यराज्ञा कृतज्ञचक्रवर्तिना आलिगकुलालाय सप्तशतीग्राममिता विचित्रा 5 चित्रकूटपटिका ददे । ते तु निजान्वयेन लजमाना अद्यापि सगरा इत्युच्यन्ते । यैश्च छिन्नकण्टकान्तरे प्रक्षिप्य क्षितिपो रक्षितस्तेऽङ्गरक्षकपदे प्रतिष्ठिताः। १३४) अथ' सोलाकनामा गन्धर्वोऽवसरे गीतकलया परितोषिताद्राज्ञः प्रसादे' षोडशाधिकं द्रम्माणां शतं प्राप्य, तैः सुखभक्षिका विसाध्य तया बालकांस्तर्पयन् कुपितेन राज्ञा निर्वासितः। ततो विदेशं गतस्तत्रत्यभूपतेर्गीतकलया अतुलया रञ्जितात्प्रसादप्राप्तं गजयुगलमानी10 योपायनीकुर्वन् चौलुक्यभूपालेन सम्मानितः। १३५) कदाचित्कोऽपि वैदेशिकगन्धर्वो 'मुषितोऽस्मि मुषितोऽस्मीति तारं बुम्बारावं कुर्वाणः, 'केन मुषितोऽसीति राज्ञाभिहितो 'ममातुलया गीतकलया 'समीपागतेन, मया कौतुकाद्गलन्यस्तकनकशृङ्गलेन' त्रस्यता मृगेण' इति विज्ञपयामास। तदनु भूपतिना समादिष्टः सोलाभिधानो गन्धर्वराडष्टवीमटन् स्फीतगीताकृष्टिविद्यया कनकशृङ्खलाङ्कित्तगलं' मृगं नगरान्तः समानीय 15 तस्य भूपतेर्दर्शयामास । १३६) अथ तत्कलाकौशलचमत्कृतमानसःप्रभुः श्रीहेमाचार्यो गीतकलाया अवधि पप्रच्छ । स तु शुष्कदारुणः पल्लवप्ररोहमवधि विज्ञप्तवान् । 'तर्हि तत्कौतुकं दर्शयेत्यादिष्टः, अर्बुदाद्गिरेविरहकनामानं वृक्षमाक्षेपादानाय्य तच्छुष्कशाखाखण्डं राजाङ्गणे कुमारमृत्तिकया क्लृप्तालवाले निवेश्य" निजया नवगीतगीतकलया सद्यः प्रोल्लसत्पल्लवं तं निवेदयन् , सनृपतीन् भट्टारकश्री20 हेमचन्द्रसूरीन् परितोषयामास । ॥ इति "बइकारसोलाकप्रबन्धः॥ १३७) अथ कदाचित्सर्वावसरस्थितश्चौलुक्यचक्रवर्ती कौडणदेशीयमल्लिकार्जुनाभिधानराज्ञो मागधेन "राजपितामह" इति बिरुदमभिधीयमानमाकर्ण्य तदसहिष्णुतया सभां निभालयन्नृपचित्तविदा मत्रिणा"ऽम्बडेन योजितकरसम्पुटं दर्शयता चमत्कृतः, सभाविसर्जनानन्तरमञ्जलि25 बन्धस्य कारणं पृच्छन्नेवमवादीत्"-'यदस्यां सभायां स कोऽपि सुभटो विद्यते यं प्रस्थाप्य मिथ्याभिमानिनं चतुरङ्गनृपवन्नृपाभासं मल्लिकार्जुनं विनाशयामः-इत्याशयविदा मया त्वदादेशक्षमेण चाञ्जलिबन्धश्चके" इति त विज्ञप्तिसमनन्तरमेव तं नृपं प्रति प्रयाणाय दलनायकीकृत्य पञ्चाङ्गप्रसादं दत्त्वा समस्तसामन्तैः समं विससर्ज । स चानवच्छिन्नैः प्रयाणैः कुङ्कुणदेशमधिगम्य दुर्वारवारिपूरां कलविणिनाम्नी सरितमुत्तरन् परस्मिन्कूले आवासेषु दीयमानेषु तं 1 BP DC तस्य चौलुक्यराज्ञः पट्टाभिषेकानन्तरं स सोलाकनामा। 2 D नास्ति । 3 D तेन । 4 D नास्ति । । एतदन्तर्गतपाठस्थाने P प्रतौ एतादृशः पाठः-'तनिर्भर्त्सनया विदेशे गतः सकरेणुं करेणुं सकलया रञ्जितात्तत्रत्यभूपतेर्लब्ध्वा समानीयः।' 5 B आदर्श एवेदं पदं विद्यते। 6P सांराविणं । १- BP सामीप्यमुपेयुषा कौतुकार्पितगलशृंखलेन। 7 BP गलखेलत्कनकश्रृंखलं। 8 P तत्कौशलं। 9AD शाखायाः काष्ठं। 10 BP मृत्तिकालता०, B मृत्तिकाक्षिप्ता। 11 P विन्यस्य । 12 D द्वितीयः 'गीत' शब्दो नास्ति। 13 B हेमाचार्यान्; P हेमचन्द्राचार्यान्। 14 P वइकार; D अच्छइकार। 15 P नृपतिः। 16 P नास्ति। 17 D एवमूचे; P एवं तेन प्रोचे। 18 P नास्ति 'सुभटः। 19 P बन्धोऽकारि। 20 'त' नास्ति ADI 21 D दलमेकीकृत्य। 22 P आसाद्य । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] कुमारपालादिप्रबन्धः। संग्रामसज्जं विमृश्य स मल्लिकार्जुननृपतिः प्रहरंस्तत्सैन्यं त्रासयामास । अथ तेन पराजितः स सेनापतिः कृष्णवदनः कृष्णवसनः कृष्णच्छनालङ्कृतमौलिः कृष्णगुरूदरे निवसन् , चौलुक्यभूभुजा विलोक्य 'कस्यासौ सेनानिवेशः ?' इत्यादिष्टे 'कुङ्कुणात्मत्यावृत्तस्य पराजितस्याम्बडसेनापतेः सेनानिवेशोऽयमिति विज्ञप्ते, तस्य 'पया चमत्कृतचित्तः प्रसन्नया' दृशा तं सम्भावयंस्तदपरैर्बलवद्भिः सामन्तैः समं मल्लिकार्जुनं जेतुं पुनः प्रहितः। ['स तु कौकुणदेशं प्राप्य ] तां 5 नदीमासाद्य पद्यावन्धे विरचिते तेनैव पथा यथानुक्रम सैन्यमुत्तार्य सावधानवृत्त्याऽसमसमरारम्भे हस्तिस्कन्धाधिरूढं वीरवृत्या मल्लिकार्जुनमेव निश्चलीकुर्वन्' स आम्बडः सुभटो दन्तिदन्तमुशलसोपानेन कुम्भिकुम्भस्थलमधिरुह्य माद्यदुद्दामरणरसः 'प्रथमं प्रहर, इष्टदैवतं वा स्मर' इत्युच्चरन् धारालकरांलकरवालप्रहारान्मल्लिकार्जुनं पृथ्वीतले पातयन् सामन्तेषु तन्नगरलुण्ठनध्यापृतेषु केसरिकिशोरः करिणमिव लीलयैव जघान । तन्मस्तकं वर्णेन वेष्टयित्वा तस्सिन्देशे 10 चौलुक्यचक्रवर्तिन आज्ञां दापयन् श्रीमदणहिल्लपुरं प्राप्य सभानिषण्णेषु द्वाससतिसामन्तेषु खामिनः श्रीकुमारपालनृपतेश्चरणौ तिच्छिर:कमलेन पूजयामास तथा वस्तु ४ शृङ्गारकोडीसाडी १, माणिकउ पछे[व]डउ २, पापखउ हारु ३, संयोगसिद्धि सिमा ४, तथा हेमकुम्भा ३२, मूडा ६ मौक्तिकानां, सेडउ चतुर्दन्तहस्ति १, पात्राणां १२०, कोडीसाई १४ द्रव्यस्य दण्डः । एतैर्वस्तुभिश्च सह । तदवदातप्रीतेन राज्ञा श्रीमुखेन श्रीमदाम्बडाभिधानमहामण्डलेश्वरस्य 15 "राजपितामह" इति बिरुदं ददे। ॥इति आम्बडम्बन्धः॥ १३८) अथ कदाचिदणहिलपुरे भट्टारक"श्रीहेमचन्द्रसूरयो दत्तव्रतायाः पाहिणिनाझ्याः खमातुः परलोकावसरे कोटिनमस्कारपुण्ये दत्ते व्यापत्तेरनु तत्संस्कारमहोत्सवे क्रियमाणे त्रिपुरुषधर्मस्थानसंनिधौ तत्तपखिभिः सहजमात्सर्याद्विमानभङ्गापमाने सूत्रिते सति" तदुत्तरक्रियां 20 निर्माय तेनैव मन्युना मालवकसंस्थितस्य कुमारपालभूपालस्य" स्कन्धावारमलंचक्रुः। १७९. आपणपई प्रभु होईयई कइ प्रभु कीजइ हत्थेिं । काजु" करेवा" माणुसह त्रीजउ" मागु न अस्थि ॥ इति वचस्तत्त्वं विमृशन्तः श्रीमदुदयनमन्त्रिणा नृपतेर्निवेदितागमनाः कृतज्ञमौलिमणिना" नृपेण" परोपरोधात्सौधमानीताः। तद्राज्यप्राप्तिनिमित्तज्ञानं स्मारयन्नृपः 'भवद्भिः सदैव देवताचनावसरेऽभ्युपेतव्यमि'त्युपरोधयन्१८०. भुञ्जीमहि वयं भक्ष्यं जीर्ण वासो वसीमहि । शयीमहि महीपृष्ठे कुर्वीमहि किमीश्वरैः ॥ इति सूरिभिरभिहिते नृपः१८१. *एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा एका भार्या सुन्दरी वा दरी वा । एकं शास्त्रं वेदमध्यात्मकं वा एको देवः केशवो वा जिनो वा ॥ 1 P नास्ति । 2P तदीयापत्रपया। 3 BP प्रसादललितया। 4 P संभाव्य। 5 BP नास्ति कोष्टकगतं वाक्यम् । 6 D नास्तीदं पदम्। 7 B वृण्वन् । 8 AD नास्ति 'दन्ति'। 9 'कराल' नास्ति BPL 10 P सुवर्णेन । + एतदन्तर्गतपामस्थाने AD 'कौडणदेशीयनृपमल्लिकार्जुनशिरसा समं ववन्दे' एतादृशः पाठः। 11 AD 'नास्ति तथा वस्तु ४'। एतदने ABD आदर्शेषु 'श्रीआम्बडेनैतैर्षस्तुभिः सह तच्छिरःकमलेन पूजयामास (D पुपूजे राजा) इयं पंक्तिः। 12 D नास्त्येतत्पदं । 13 D नास्ति । 14 AD नृपतेः। 15 D होइ। 16 AD हाथि। 17 AD कज; B काज। 18 D करिवा । 19 ABD बीजउ। 20 A आथि। 21 AD वचनं तथ्यं । 22 A.BD °मणितया। 23 नास्ति DJ 24 ABP वरं । * BP अस्य पद्यस्य एक एवाधः पादो लभ्यते। 25 A 'एका भार्या वंशजाता प्रिया वा' एतादृशः पादः । 25 11 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ चतुर्थः इति महाकविप्रणीतत्वात्परलोकसमारचनाय भवद्भिः सह मैत्र्यमभिलषामी'ति व्याहरन्, अप्रतिषिद्धमनुमतमिति तस्य महर्षेः परीक्षितचित्तवृत्तिः श्रीमुखेन स नृपः स्खलनाकारिणां वेत्रिणां सर्वदूयकं ददौ। । १३९) अथ तत्र गतायाते सञ्जायमाने सूरेर्गुणग्रामस्तवं कुर्वत्युर्वीपतौ पुरोधा विरोधादा5 लिगः प्राह१८२. विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो येऽन्येऽम्बुपत्राशिनस्तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः। आहारं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवास्तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दम्भः समालोक्यताम् ॥ इति तद्वचनानन्तरं हेमचन्द्रः प्राह१३. सिंहो बली द्विरदशूकरमांसभोजी संवत्सरेण रतमेति किलैकवेलम् । पारापतः खरशिलाकणभोजनोऽपि कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः॥ __ तन्मुखमुद्राकारिणि प्रत्युत्तरेऽभिहिते सति, नृपप्रत्यक्षं केनापि मत्सरिणैते सिताम्बराः सूर्यमपि न मन्यन्ते इत्यभिहिते १८४. अधाम धामधामा वयमेव हृदि स्थितम् । यस्यास्तव्यसने जाते त्यजामो भोजनं यतः॥ इति प्रामाण्यनैपुण्याद्वयमेव सूर्यभक्ताः नैते तत्त्वतः। इति" तन्मुखबन्धे जाते कदाचिदेवता15 वसरक्षणे सौधमागते मोहान्धकारधिक्कारचन्द्रे श्रीहेमचन्द्रे यशश्चन्द्रगणिना रजोहरणेनासनपढ़ें प्रमाज्यं कम्बले तत्र निहिते, अज्ञाततत्त्वतया किमेतदिति नृपेण पृष्टः प्राह-कदाचिदिह कोऽपि जन्तुर्भवति तदाबाधापरिहारायाऽसौ प्रयत्नः। 'यदा प्रत्यक्षतया जन्तुर्निरीक्ष्यते तदैवेदं युज्यते नापरथा, वृथाप्रयासहेतुत्वादिति युक्तियुक्तां नृपोक्तिमाकर्ण्य तैः सूरिभिरभिदधे-'भवतां गैजतुरगाद्या चमूः किं प्रतिनृपतिरिपावुपस्थिते क्रियते उत पूर्वमेव? यथायं राजव्यवहारस्तथा धर्म20 व्यवहारोऽपीति तद्गुणरञ्जितहृदा पूर्वप्रतिपन्ने राज्ये दीयमाने" सर्वशास्त्रविरोधहेतुत्वात्; यदाह१८५. राजप्रतिग्रहदग्धानां ब्राह्मणानां युधिष्ठिर! । दग्धानामिव बीजानां पुनर्जन्म न विद्यते ॥ इदं पुराणोक्तम् । तथा च जैनागमः सन्निही गिहिमत्ते य रायपिण्डे किमिच्छए । इति [प्रभूक्तं श्रुत्वा"] तत्सम्बोधौचमत्कृतचित्तः श्रीपत्तनं प्राप"। 25 १४०) भूपोऽन्यदा मुनि" पप्रच्छ 'कयापि युक्त्याऽस्माकमपि यशःप्रसरः कल्पान्तस्थायी भवति?' इति तदीयां गिरं श्रुत्वा "विक्रमार्क इव विश्वस्यानृण्यकरणात्, यद्वा श्रीसोमेश्वरस्य काष्ठमयं प्रासादं वारिधिशीकरनिकरैरासन्नाम्भाशीर्णप्रायं युगान्तस्थायिकीर्तये समुद्धरे'ति चन्द्रातपनिभया श्रीहेमचन्द्रगिरोल्लसन्मुदाम्भोधिनृपस्तमेव महर्षि पितरं गुरुं दैवतं मन्यमानो विजातीनितरद्विजान् निन्दन , ततः प्रासादोद्धाराय तदैव दैवज्ञनिवेदितसुलग्नस्तत्र पश्चकुलं 30 प्रस्थाप्य प्रासादप्रारम्भमचीकरत् । 1 D अथाप्र०। 2 D सर्वसमयकं । 3D आमिगः। 4 P विहाय नास्त्यन्यत्रेदं। 5 P क्षितिपतिः। 6 De भजन्ते । 7 P धामेव । 8 P सदा हृदि। 9 D ज्ञाते। 10 D नैते तन्मुखबाधे। 11 P विहाय नान्यत्रेदं पदं। 12 BP वितीर्यमाणे। 13 P विनानान्यत्र । 14 P सन्तोषात् । 15 P प्राप्तः। 16 BP क्षमापतिः पप्रच्छ । 17 BP वारांराशिः। 18 BP उद्वेलसम्मदाम्भोधिः। 19 D विजानाति निरन्तरं द्विजान् । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकाशः] कुमारपालादिप्रबन्धः। १४१) अन्यदा श्रीहेमचन्द्रस्य लोकोत्तरैर्गुणैः परिहृतहृदयो नृपो मनिश्रीउदयनमिति पप्रच्छ"यदीदृशं पुरुषरत्नं कस्मिन् समस्तवंशावतंसे वंशे समस्तपुण्यप्रवेशे देशे निःशेषगुणाकरे नगरे च' समुत्पन्नम् ?' इति नृपादेशादनु स मन्त्री जन्मप्रभृति तचरित्रं पवित्रमित्थमाह-'अष्टिमनामनि देशे धुन्धुकाभिधाने नगरे श्रीमन्मोढवंशे चाचिगनामा व्यवहारी सतीजनमतल्लिका जिनशासनशासनदेवीव तत्सधर्मचारिणी शरीरिणीव श्रीः पाहिणीनानी चामुण्डागोत्रजाया 5 आद्याक्षरेणाङ्कितनामा तयोः पुत्रश्चाङ्गदेवोऽभूत् । स चाष्टवर्षदेश्यः श्रीपत्तनात्तीर्थयात्रामस्थितेषु श्रीदेवचन्द्राचार्येषु धुन्धुक्कके श्रीमोढवसहिकायां देवनमस्करणाय प्राप्तेषु, सिंहासनस्थिततदीयनिषद्याया उपरि सवयोभिः शिशुभिः समं रममाणः सहसा निषसाद। तदङ्गप्रत्यङ्गानां जगद्विलक्षणानि लक्षणानि प्रेक्ष्य-अयं यदि क्षत्रियकुले जातस्तदा सार्वभौमचक्रवर्ती, यदि वणिग्-विप्रकुले जातस्तदा महामात्यः, चेद्दर्शनं प्रतिपद्यते तदा युगप्रधान इव कलिकालेऽपि कृतयुगमवतारयति-10 स आचार्य इति विचार्य तन्नगरवास्तव्यैर्व्यवहारिभिः समं तल्लिप्सया चाचिगौकः" प्राप्य तस्मिंश्वाचिगे ग्रामान्तरभाजि तत्पत्या विवेकिन्या स्वागतादिभिः परितोषितः 'श्रीसङ्घस्त्वत्पुत्रं याचितुमिहागत' इति व्याहरन , अथ सा हर्षाश्रूणि मुश्चती खं रत्नगर्भ मन्यमाना,श्रीसङ्घस्तीर्थकृतां मान्यः, स मत्सूनुं याचते इति हर्षास्पदेऽपि विषादः। यतः-एतस्य पिता नितान्तमिथ्यादृष्टिः। तादृशोऽपि सम्प्रति ग्रामे नास्ति । अथ तैर्व्यवहारिभिस्त्वया दीयतामित्युक्ते" खदोषो-15 सारणाय मात्रा दाक्षिण्यादमात्रगुणपात्रं पुत्रस्तेभ्यो गुरुभ्यो ददे । तदनन्तरं तया श्रीदेवचन्द्रसूरिरिति तदीयमभिधानमबोधि । तैर्गुरुभिः स शिशुः शिष्यो भविष्यसी? ति पृष्टः, ओमित्युचरन् प्रतिनिवृत्तैस्तैः समं कर्णावत्यामाजगाम । स उदयनमन्त्रिगृहे तत्सुतैः समं बालधारकैः पाल्यमानो यावदास्ते तावता" ग्रामान्तरादागतश्चाचिगस्तं वृत्तान्तं परिज्ञाय पुत्रदर्शनावधिसंन्यस्तसमस्ताहारस्तेषां गुरूणां नाम मत्वा कर्णावतीं प्राप्तः। तद्वसतौ समागत्य कुपितः पिता 20 ईषत्तान् प्रणनामै । गुरुभिः सुतानुसारेणोपलक्ष्य विचक्षणतया विविधाभिरावर्जनाभिरावयं, तत्रानीतेनोदयनमन्त्रिणा धर्मबन्धुवुद्धया निजमन्दिरे नीत्वा ज्यायःसहोदरभक्त्या भोजयांचके। तदनु चाङ्गदेवं सुतं तदुत्सङ्गे निवेश्य पञ्चाङ्गप्रसादसहितं दुकूलत्रयं प्रत्यक्षं लक्षत्रयं चोपनीय सभक्तिकमावर्जितः। तं प्रति चाचिगः प्राह-'क्षत्रियस्य मूल्ये अशीत्यधिकसहस्रम् , तुरगस्य मूल्ये पश्चाशदधिकानि सप्तदशशतानि, अकिञ्चित्करस्यापि वणिजो मूल्ये नवनवतिकलभाः 25 एतावता नवनवतिलक्षा भवन्ति । त्वं तु लक्षत्रयं समर्पयन्नौदार्यच्छद्मना कार्पण्यं प्रादुःकुरुषे । मदीयः "सुतस्तावदनो भवदीया च भक्तिरनय॑तमा, तदस्य मूल्ये सा भक्तिरेवास्तु, शिवनिर्माल्यमिवास्पृश्यो मे द्रव्यसञ्चयः'। इत्थं चाचिगे" सुतस्य खरूपमभिदधाने प्रमोदपूरित . 1P अपहृतः। + एतदन्तर्गतपाठस्थाने D पुस्तके 'एतादृशं पुरुषरलं समस्तवंशावतंसे देशे च समस्तगुणाकरे नगरे च कस्मिन्समुत्पन्न' ईदृशः पाठः। 2 AD धुन्धुक्कनगरे। 3 D द्वितीयः ‘शासन' शब्दो नास्ति । 4 BP लक्ष्मीः। 5 AD गोनशयोराद्याः। 6 BP समजनि। 7 BP वीक्ष्य । 8 BP तुर्ययुगेऽपि। 9 P ते आचार्याः । 10 D तन्नगरव्यव० । 11 BP चाचिगगृहं । 12 D श्रीमन्तः। 13 B उच्चरन् ; P व्याहृते; D ज्याहरन्तो। 14 AD नास्ति । 15 BP एत. त्पिता। 16 BP स्वजनैः। 17 BP अभिहिते। 18 BP 'दाक्षिण्यात्' नास्ति। 19 A अवबोधि । 20 BP सोऽपि । 21 BP कर्णावतीं भेजे। 22 BP तावत् । 23 AB प्रणम्य। 24 D आवर्जितः। 25 BP अधिकः सहस्रः। 26 D नास्ति । 27 AD मत्सुतः। 28 D तस्य । 29 AD भक्तिरस्तु। 30 P द्रविण। 31 P चाचिगे एवमभिदधाने । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ । प्रबन्धचिन्तामणिः । [ चतुर्थः चित्तः स मन्त्री अकुण्ठोत्कण्ठतया तं परिरभ्य साधु साध्विति वदन् पुनः प्राह-मम पुत्रतया समर्पितो योगिमर्कट इव सर्वेषां जनानां नमस्कारं कुर्वन् केवलंमपमानपात्रं भविता, गुरूणां दत्तस्तु गुरुपदं प्राप्य बालेन्दुरिव त्रिभुवननमस्करणीयो जायते; अतो यथोचितं विचार्य व्याहरेत्यादिष्टः स 'भवद्विचार एव प्रमाणमिति वदन् गुरूणां पार्चे नीतः। सुतं गुरुभ्योऽ5 दीदपत् । तदनु तस्य प्रव्रज्याकरणोत्सवश्वाचिगेन चक्रे । अथ कुम्भयोनिरिवाप्रतिमप्रतिभाभिरामतया समस्तवाङ्मयाम्भोधिमुष्टिन्धयोऽभ्यस्तसमस्तविद्यास्थानो हेमचन्द्र इति गुरुदत्तनाम्ना प्रतीतः सकलसिद्धान्तोपनिषन्निषण्णधीः षट्त्रिंशता सूरिगुणैरलङ्कृततनुर्गुरुभिः सूरिपदेऽभिषिक्तः । इति मन्त्रिणोदयनेनोदितां हेमाचार्यजन्मप्रवृत्तिमाकर्ण्य नृपो मुमुदेतराम् । १४२) अथ श्रीसोमनाथदेवस्य प्रासादारम्भे खरशिलानिवेशे सजाते सति पञ्चकुलप्रहित10 वर्दापनीविज्ञप्तिकां नृपः श्रीहेमचन्द्रगुरोर्दर्शयन्-'अयं प्रासादप्रारम्भः कथं निष्प्रत्यूहं प्रमाणभूमिमधिरोढा ?' इति पृथ्वीपरिवृढेनानुयुक्तः श्रीमान्किश्चिदुचितं विचिन्त्य गुरुरूचिवान्-'यदस्य धर्मकार्यस्यान्तरायपरिहाराय ध्वजारोपं यावदजिह्मब्रह्मसेवा, अथवा मद्यमांसनियमो द्वयोरेकतरं किमप्यङ्गीकरोतु नृपतिः' इत्यभिहिते" तद्वचनमाकर्ण्य" मद्यमांसनियममभिलषन् , श्रीनीलकण्ठोपरि उदकं विमुच्य तमभिग्रहं जग्राह।संवत्सरद्वयेन तस्मिन् प्रासादे कलशध्वजाधिरोपं याव15 निवृत्ते तं नियमं मुमुक्षुर्गुरूननुज्ञापयंस्तैरूचे-'यद्यनेन निजकीर्तनेन सार्द्धमर्द्धचन्द्रचूडं प्रेक्षितुमहसि, तद्यात्रापर्यन्ते नियममोचनावसर' इत्यभिधायोत्थिते श्रीहेमचन्द्रमुनीन्द्रे "तद्गुणैरुन्मीलनीलीरागरक्तहृदयस्तमेकमेव संसदि प्रशशंस सः। निर्निमित्तवैरिपरिजनस्तत्तेजःपुञ्जमसहिष्णुः१८६. उज्वलगुणमभ्युदितं क्षुद्रो द्रष्टुं न कथमपि क्षमते । दग्ध्या तनुमपि शलभो दीपं दीपार्चिपं" हरति ॥ इति न्यायात्पृष्टिमांसादनदोषमप्यङ्गीकृत्यं तदपवादानवादीत्-'यदयममन्दच्छन्दानुवृत्तिपरः 20 सेवाधर्मकुशलः केवलं प्रभोरभिमतमेव भाषते । यद्येवं न, तदा प्रातरुपेतः-'श्रीसोमेश्वरयात्रायां भवान् सहागच्छतु-इति गदितः स परतीर्थपरिहारान्न तत्रागमिष्यतीत्यस्मन्मतमेव प्रमाणम्।' नृपस्तद्वाक्यमादृत्य प्रातरुपगतं श्रीहेमचन्द्राचार्य श्रीसोमेश्वरयात्रार्थमत्यर्थमभ्यर्थयन् सूरयःमोचुः-'यद् वुभुक्षितस्य किं निमन्त्रणम् , उत्कण्ठितस्य किं केकारवश्रवणमिति लोकरूढेस्तपखिनामधिकृततीर्थाधिकाराणां को नाम नृपतेरत्र निर्बन्धः।' इत्थं गुरोरङ्गीकारे 'किं भवद्योग्यं 25 सुखासनप्रभृति वाहनादि च लभ्यतामि?'तीरिते 'वयं चरणचारेणैव सञ्चरन्तः पुण्यमुपालभामहे; परं वयमिदानीमापृच्छय मितैर्मितैः प्रयाणकैः श्रीशत्रुञ्जयोजयन्तादिमहातीर्थानि नमस्कृत्य भवतां श्रीपत्तनप्रवेशे मिलिष्यामः' इत्युदीर्य तत्तथैव कृतवन्तः। नृपतेः समग्रसामग्र्या कतिपयैः प्रयाणकैः श्रीपत्तनं प्राप्तस्य श्रीहेमचन्द्रमुनीन्द्रमिलनादतिप्रमुदितस्य सन्मुखागतेन गण्ड. श्रीबृहस्पतिनाऽनुगम्यमानस्य महोत्सवेन पुरं प्रविश्य श्रीसोमेश्वरप्रासादसोपानेष्वाक्रान्तेषु 30 भूपीठलुठनादनन्तरं चिरतरातुल्यायल्लकानुमानेन गाढमुपगूढे सोमेश्वरलिङ्गे 'एते जिनादपरं दैवतं 1AD श्रीमानुदयनः। 2 P नास्ति । 3 'केवलं' P नास्ति । 4 BP त्रिभुवननमस्यतां लभते। 5 B तदनु। 6D गुरुपाचँ । 7 P ददौ । 8 P सोमेश्वर। 9 D शिखर । 10 AD व‘पनिकाविः। 11 P अधिरोहति । 12 एतत्पदद्वयस्थाने P 'तच्छ्रुत्वा' इत्येव । 13 D तं च। 14 D षट्त्रिंशद्गुणैः। 15 BP दीप्रार्चिरपहरति । 16 BP उररीकृत्य। 17 BP अपवादमेव । । एतदन्तर्गतपाठस्थाने AD आदर्श 'श्रीसोमेश्वरयात्रार्थमत्यर्थमभ्यर्थेत । राज्ञा तथाकृते' एतादृशः संक्षिप्तः पाठः। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] कुमारपालादिप्रबन्धः। न नमस्कुर्वन्तीति मिथ्यागवचसा भ्रान्तचित्तस्य श्रीहेमचन्द्र प्रति एवंविधा गीराविरासीत'यदि युज्यते तदैतैर्मनोहारिभिरुपहारैः श्रीसोमेश्वरमर्चयन्तु भवतः।' तत्तथेति प्रतिपद्य सद्यः' क्षितिपकोशादागतेन कमनीयेनोद्गमनीयेनालङ्कृततनुम्रपतिनिदेशाच्छ्रीबृहस्पतिना दत्तहस्तावलम्बः प्रासाददेहलीमधिरुह्य किश्चिद्विचिन्त्य प्रकाशं-'अस्मिन्प्रासादे कैलासनिवासी श्रीमहादेवः साक्षादस्तीति रोमाञ्चकञ्चकितां तनुं विभ्राणो द्विगुणीक्रियतामुपहारः' इत्यादिश्य शिवपु-5 राणोक्तदीक्षाविधिनाऽऽह्वाननावगुण्ठनमुद्रामन्त्रन्यासविसर्जनोपचारादिभिः पञ्चोपचारविधिभिः शिवमभ्यय॑ तदन्ते १८७. यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया । वीतदोषकलुषः स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥ १८८. भववीजाङ्कुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा महेश्वरो वा नमस्तस्मै ॥ 10 इत्यादिस्तुतिभिः सकलराजलोकान्विते राज्ञि सविस्मयमवलोकमाने दण्डप्रणामपूर्व स्तुत्वा श्रीहेमाचार्य उपरते सति, भूपतिः श्रीबृहस्पतिना ज्ञापितपूजाविधिः समधिकवासनया शिवाानन्तरं धर्मशिलायां तुलापुरुषगजदानादीनि महादानानि दत्त्वा कर्पूरारात्रिकमुत्तार्य समग्रमपि राजवर्गमपसार्य तद्गर्भगृहान्तः प्रविश्य 'न महादेवसमो देवः, न मम तुल्यो नृपतिः, न भवत्सदृक्षो महर्षिरिति भाग्यवैभववशादयत्नसिद्ध त्रिकसंयोगे बहुदर्शनप्रमाणप्रतिष्ठासन्दिग्धे 15 देवतत्वे मुक्तिप्रदं दैवतमस्मिंस्तीर्थे तथ्यया गिरा निवेदय' इत्यभिहितः श्रीहेमाचार्यः किञ्चिद्धिया निध्याय नृपं प्राह-'अलं पुराणदर्शनोक्तिभिः, श्रीसोमेश्वरमेव तव प्रत्यक्षीकरोमि, यथा तन्मुखेन मुक्तिमार्गमवैषी ति तद्वाक्यात्किमेतदपि जाघटीतीति विस्मयापन्नमानसे नृपे 'निश्चितमत्र तिरोहितं दैवतमस्त्येव । आवां तु गुरूक्तयुक्त्या निश्चलावाराधकौ, तदित्थं द्वन्द्वसिद्धौ सुकरं दैवतप्रादुःकरणम्। मया प्रणिधानं क्रियते भवता कृष्णागुरुत्क्षेपश्च कार्यः । तदा परिहार्यो यदा 20 ध्यक्षः प्रत्यक्षीभूय निषेधयति ।' अथोभाभ्यामपि तथा क्रियमाणे धूमधूम्यान्धकारिते गर्भगृहे निर्वाणेषु नक्षत्रमालादीप्रप्रदीपकेषु आकस्मिके प्रकाशे द्वादशात्ममहसीव प्रसरति, नृपो नयने सम्भ्रमादुन्मृज्य यावदालोकते तावजलाधारोपरि जात्यजाम्बूनदद्युतिं चर्मचक्षुषां दुरालोकमप्रतिमरूपमसम्भाव्यखरूपं तपखिनमद्राक्षीत् । तं पदाङ्गुष्ठात् प्रभृति जटाजूटावधि करतलेन संस्पृश्य निश्चितदेवतावतारः पश्चाङ्गचुम्बितावनितलं प्रणिपत्य भक्त्या "भूपतिरिति विज्ञपयामास-'जग-25 दीश! भवदर्शनात्कृतार्थे दृशौ, आदेशप्रसादात्कृतार्थय श्रवणयुगलमिति विज्ञप्य तूष्णीं स्थिते नृपे" मोहनिशादिनमुखात्तन्मुखादिति दिव्या गीराविरासीत्-'राजन् ! अयं महर्षिः सर्वदेवतावतारः । अजिह्मपरब्रह्मावलोककरतलकलितमुक्ताफलवत्कालत्रयविज्ञातवरूपः । एतदुपदिष्ट एवासन्दिग्धो मुक्तिमार्गः' इत्यादिश्य तिरोभूते भूतपतावुन्मनीभावं भजति भूपती, रेचितप्राणायामपवनः श्लथीकृतासनबन्धः श्रीहेमचन्द्रो यौवदु 'राजन् !' इति वाचमुवाच, तावदिष्टदैवत-30 सङ्केत्तात्त्यक्तराज्याभिमानः क्षितिधनः 'जीव ! पादोऽवधार्यतामिति व्याहृतिपरो" विनयनम्र- : 1 D नास्ति। 2 P नास्ति 'उद्मनीयेन ।' 3 P समस्तः। 4 P शिवार्चानन्तरं दण्ड०। 5 D स नृपः। 6 BP दानानि। 7 BP वितीर्य। 8 AD 'अपि' नास्ति । 9 D अत्र सिद्धे। 10 D 'अपि' स्थाने 'इति'। 11 BP एवं । 12-13 D विना नान्यत्र। 14 D •मालदीपकेषु। 15 D भूमान् । 16 D नास्ति । 17 P.आमलकफल। 18 ABP भजन भूपतिः । 19 'यावद् राजन्' स्थाने-A यावद् राजानम्': D याजनम् । 20 P विना न। 21 D परे गुरौ। .. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः । [ चतुर्थः मौलियत्कृत्यमादिशेति व्याजहार । अथ तत्रैव नृपतेर्यावजीवं पिशित-प्रसन्नयोर्नियमं दत्त्वा ततः प्रत्यावृत्तौ क्षमापती श्रीमदणहिल्लपुरं प्रापतुः। १४३) श्रीजिनवदननिर्गमपावनीभिः शुद्धसिद्धान्तगीर्भिः प्रतिवुद्धो नृपः प र माई त बिरुदं भेजे । तदभ्यर्थितः प्रभुः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् , विंशतिवीतरागस्तुतिभिरुपेतं पवित्रं 5 श्रीयोगशास्त्रं रचयांचकार । प्रभोरादेशाचाज्ञाकारिष्वष्टादशदेशेषु चतुर्दशवत्सरममितां सर्वभूतेषु मारिं निवारितवान् । [१२३] *सप्तर्षयोऽपि सततं गगने चरन्तो मोक्तुं क्षमा नहि मृगी मृगयोः सकाशात् । जीयादसौ चिरतरं प्रभुहेमसूरिरेकेन येन भुवि जीववधो निषिद्धः॥ [१२४] *कलाकलापैः स्तुमहद्धं श्रीहेमचन्द्रम्' (?)..................... । __ररक्ष दक्षः प्रथमः समग्रान् मृगान् यदन्यो मृगमेकमेव ॥ तेषु तेषु च देशेषु चत्वारिंशदधिकानि चतुर्दशशतानि विहाराणां कारयामास । सम्यक्त्वमूलानि द्वादशव्रतान्यङ्गीकुर्वन् , अदत्तादानपरिहाररूपे तृतीयव्रते व्याख्यायमाने रुदतीवित्तदोषान पापैकनिबन्धनान् ज्ञापितो नृपस्तदधिकृतं पञ्चकुलमाकार्य द्वासप्ततिलक्षप्रमाणं तदायपट्टकं विपाट्य मुमोच । तस्मिन्मुक्ते15 १८९. न यन्मुक्तं पूर्वै रघुनहुषनाभागभरतप्रभृत्यु-नाथैः कृतयुगकृतोत्पत्तिभिरपि । _ विमुश्चन्कारुण्यात्तदपि रुदतीवित्तमधुना कुमारक्ष्मापाल त्वमसि महतां मस्तकमणिः॥ ___ इति विद्वद्भिः स्तूयमाने१९०. अपुत्राणां धनं गृह्णन् पुत्रो भवति पार्थिवः । त्वं तु सन्तोषतो मुञ्चन् सत्यं राजपितामहः ॥ इति प्रभुरपि स नृपतिमनुमोदयांचक्रे । 20 १४४) अथ सुराष्ट्रादेशीयं सउंसर्रनामानं विग्रहीतुं श्रीमदुदयनमत्रिणं दलनायकीकृर्त्य समस्तकटकबन्धेन समं [प्रस्थापयामास ] स श्रीवर्द्धमानपुरं प्राप्य श्रीयुगादिदेवपादान्निनंसुः पुरः प्रयाणकाय समस्तमण्डलेश्वरान्नभ्यर्थ्य खयं विमलगिरिमागतः। विशुद्धश्रद्धया श्रीदेवपादानां पूजादि विधाय यावत्पुरतो विधिवच्चैत्यवन्दनां विधत्ते तावन्नक्षत्रमालाया देदीप्यमानां दीपवर्तिमादाय मूषकः काष्ठमयप्रासादबिले प्रविशन् देवाङ्गरक्षैस्त्याजितः। तदनु स मन्त्री समाधिभङ्गा25 काष्ठमयदेवप्रासादविध्वंसंसाध्वसाच जीर्णोद्धारं चिकीर्षुः श्रीदेवपादानां पुरत एकभक्तादीनभिग्रहान् जग्राह । तदनु कृतप्रयाणः स्खं स्कन्धवारमुपेत्य तेन प्रत्यर्थिना समं समरे सञ्जायमाने परैः पराजिते नृपबले श्रीमदुदयनः स्वयमुत्तस्थौ । तदा तत्प्रहारजर्जरितदेह आवासं नीतः सकरुणं क्रन्दन खजनैस्तत्कारणं पृष्टः-सन्निहिते मृत्यौ श्रीशत्रुञ्जय-शकुनिकाविहारयोर्जीर्णोद्धारवाञ्छया देवऋणं पृष्ठलग्नम्-मन्त्री प्राह । अथ तैः 'भवन्नन्दनौ वाग्भटाऽऽम्रभटनामानौ गृहीताभिग्रहौ तीर्थ80 द्वयमुद्धरिष्यतः-इत्यर्थे वयं प्रतिभुवः' इति तदङ्गीकारात्पुलकिताङ्गो धन्यंमन्यः, अन्त्याराधनाकृते 1 ABD प्रसन्नानियम। 2 'एकः क्षमायाः पृथिव्याः, अन्यः क्षान्तेः पतिः'-D टिप्पणी । * एतत्पद्यद्वयं P प्रतावेव लभ्यते । + अस्य पद्यस्यायं पूर्वार्द्धः खण्डितरूप एवोपलब्धः । 3 P आहूय। 4 P भूपतिः। 5 B सउसर; P सुसर; D सुंवर । 6 B दलमादायैकीकृत्य । 7 D विहाय नान्यत्रेदं पदम्। 8 D सोपि। 9D प्राविशत् । 10 D विध्वंसभयात् । 11 D समुत्तस्थौ। 12 BP .शरीरः । 13 BP आवासान् ; A आवासे। 14 D नीते । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] कुमारपालादिप्रबन्धः । स मन्त्री कमपि चारित्रिणमन्वेषयामास । तस्मिन्ननुपलभ्यमाने कमपि वण्ठं तद्वेषमानीय निवेदिते, मन्त्री तदङ्घी' ललाटेन परिस्पृशन् तत्समक्षं दशधाऽऽराधनां विधाय श्रीमानुदयनः परलोकं प्राप । वण्ठस्तु चन्दनतरोरिव तद्वासनापरिमलेन क्षुद्रद्रुमवद्वासितोऽनशनप्रतिपत्तिपूर्वकं रैवतके जीवितान्तं चकार । १४५) अथाणहिल्लपुरं प्राप्तैस्तैः स्वजनैस्तं वृत्तान्तं ज्ञापितौ वाग्भटाम्रभटौ तानेवाभिग्रहान् 5 गृहीत्वा जीर्णोद्धारमारेभाते। वर्षद्वयेन श्रीशत्रुञ्जये प्रासादे निष्पन्ने उपेत्यागतमानुषेण व पनिकायां याच्यमानायां पुनरागतेन द्वितीयेन पुरुषेण 'प्रासादः स्फुटित' इत्यूचे । ततस्तप्तत्रपुपायां गिरं निशम्य श्रीकुमारपालभूपालमापृच्छय महं० कपर्दिनि श्रीकरणमुद्रां नियोज्य तुरंगमाणां चतुर्भिः सहस्रैः सह श्रीशत्रुञ्जयोपत्यकां प्राप्य वनाम्ना बाहडपुरनगरं निवेशयामास । सभ्रमे प्रासादे पवनः प्रविष्टो न निर्यातीति स्फुटनहेतुं शिल्पिभिर्निीयोक्तम्, भ्रमहीने तु' प्रासादे 10 निरन्वयतां च विमृश्याऽन्वयाभावे धर्मसन्तानमेवास्तु; पूर्वोद्धारकारिणां श्रीभरतादीनां पतौ नामास्तु-इति तेन मन्त्रिणा दीर्घदर्शिन्या बुद्ध्या विभाव्य भ्रमभित्त्योरन्तरालं शिलाभिर्निचितं विधाय वर्षत्रयेण निष्पन्ने प्रासादे कलशदण्डप्रतिष्ठायां श्रीपत्तनसङ्गं निमन्त्रणापूर्वमिहानीय महता महेन सं० १२११* वर्षे ध्वजाधिरोपं मन्त्री कारयामास । शैलमयविम्बस्य मम्माणीयखनसत्कपरिकरमानीय निवेशितवान् । श्रीबाहडपुरे नृपतिपितुर्नाम्ना श्रीत्रिभुवनपालविहारे श्री-15 पार्श्वनाथं स्थापितवान् । तीर्थपूजाकृते च चतुर्विशत्यारामानगरपरितो व देवलोकस्य ग्रासवासादि दत्त्वा चैतत्सर्वं कारयामास । अस्य तीर्थोद्धारस्य व्यये१९१. षष्टिलक्षंयुता कोटी व्ययिता यत्र मन्दिरे । स श्रीवाग्भटदेवोत्र वर्ण्यते विबुधैः कथम् ॥ ॥ इति श्रीशत्रुञ्जयोद्धारप्रबन्धः॥ १४६) अथ विश्वविश्वैकसुभटेन श्रीआम्रभटेन पितुःश्रेयसे भृगुपुरे श्रीशकुनिकविहारप्रासा-20 दप्रारम्भे खन्यमाने गर्तापूरे नर्मदासान्निध्यादकस्मान्मिलितायां भूमौ छादितेषु कर्मकरेषु कृपापरवशतयात्मानमेवामन्दं निन्दन् सकलत्रपुत्रस्तत्र झम्पामदात् । तत्साहसातिशयात्तस्मिन्प्रत्यूहे निराकृते शिलान्यासपूर्व समस्तप्रासादे निष्पन्ने कलशदण्डप्रतिष्ठावसरे समस्तैनगरसङ्घानिमन्त्रणपूर्वं तत्रानीय यथोचितमशनवस्त्राभरणादिसन्मानैः सन्मान्य समस्तेषु यथागतं प्रहितेषु, आसन्ने लग्ने सञ्जायमाने भट्टारकश्रीहेमचन्द्रमुरिपुरस्सरं सनृपतिं श्रीमदणहिल्लपुरसङ्घ 25 तत्रानीयातुल्यवात्सल्यादिभिर्भूषणादिदानैश्च सन्तर्प्य ध्वजाधिरोपाय सञ्चरन्नर्षिभिः "स्वमन्दिर मुषितं कारयित्वा श्रीसुव्रतप्रासादे ध्वजं महाध्वजोपेतमध्यारोप्य हर्षोत्कर्षात्तत्रानालस्यं लास्यं विधाय तदन्ते भूपतिनाऽभ्यर्थित आरात्रिकं गृह्णन् तुरङ्गं द्वारभट्टाय दत्त्वा" राज्ञा खयं कृततिलकावसरः, द्वासप्तत्या सामन्तैश्चामरपुष्पवर्षादिभिः कृतसाहाय्यस्तदात्वागतार्य बन्दिने कृतकऋणवितरणो बाहुभ्यां धृत्वा बलात्कारेण नृपेणावतार्यमाणारात्रिकमङ्गलप्रदीपः श्रीसुव्रतस्य च 30 1 BP तच्चरणौ। 2 A उवाच। 3 BP 'ततः' नास्ति । 4 P चतुःसहस्रैरश्वैः; B तुरंगमचतुर्भिः सहस्रैः। 5 B नास्ति । 6 BP बाहडपुरमिति नगरं न्यास्थत् । 7 AD च । 8 D निरवद्यतां । * A सं० ६५, Da-b सं० ११६५ । 9 AB सप्तपष्टिलक्ष०;P सप्तलक्ष। 10 D बाधितेषु। 11D 'समस्त' नास्ति। 12 A समन्तेषु; D सामन्तेषु । 13 BD अतुच्छ०। 14 D स्वयं स्वं मन्दिरं। 15 P वितीर्य। 16 AD •वसरे। 17 BOस्वागताय; Doभ्यागताय । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः । [ चतुर्थः गुरोश्चरणौ प्रणम्य साधर्मिकवन्दनापूर्व नृपतिं सत्वरारात्रिकहेतुं पप्रच्छ । 'यथा द्यूतकारो द्यूतरसातिरेकाच्छिरःप्रभृतीन पदार्थान पणीकुरुते तथा 'भवानप्यतः परमर्थिप्रार्थितस्त्यागरसातिरेकाच्छिरोऽपि तेभ्यो ददासी ति नृपेणादिष्टे 'तल्लोकोत्तरचरित्रेणापहृतहृदया विस्मृताजन्ममनुव्यस्तुतिनियमाः श्रीहैमाचार्याः5 १९२. किं कृतेन न यत्र त्वं यत्र त्वं किमसौ कलिः । कलौ चेद्भवतो जन्म कलिरस्तु कृतेन किम् ॥ -इत्थमाम्रभटमनुमोद्य क्षमापती यथागतं जग्मतुः । १४७) अथ तत्रागतानां प्रभूणां श्रीमदाम्रभटस्याकस्मिकदेवीदोषात्पर्यन्तदशांगतस्यापृच्छनविज्ञप्तिकायामुपागतायां सत्यां तत्कालमेव-तस्य महात्मनः प्रासादशिखरे नृत्यतो मिथ्यादृशां देवीनां दोषः सञ्जातः-इत्यवधार्य प्रदोषकाले यशश्चन्द्रतपोधनेन समं खेचरगत्योत्पत्य निमेषमा10 बादलङ्कृतभृगुपुरपरिसरभुवः प्रभवः सैन्धवां देवीमनुनेतुं कृतकायोत्सर्गास्तया जिह्वाकर्षणादव गणनास्पदं नीयमाना, उदूखले शालितन्दुलान्प्रक्षिप्य यशश्चन्द्रगणिना प्रदीयमाने मुशलप्रहारे प्राक् प्रासादः कम्पितः, द्वितीये प्रहारे दीयमाने सा देवीमूर्तिरेव स्वस्थानादुत्पत्य 'वज्रपाणिवज्रप्रहारेभ्यो रक्ष रक्ष' इत्युचरन्ती प्रभोश्चरणयोर्निपपात। इत्थमनवद्यविद्याबलात्तन्मूलानां मिथ्याहरव्यन्तराणां दोष निगृह्य श्रीसुव्रतप्रासादमाजग्मुः । 15 १९३. संसारार्णवसेतवः शिवपथप्रस्थानदीपाङ्कुरा विश्वालम्बनयष्टयः परमंतव्यामोहकेतूद्गमाः । किं वासाकमनोमतङ्गजदृढालानैकलीलाजुषस्त्रायन्तां नखरश्मयश्चरणयोः श्रीसुव्रतस्वामिनः॥ इति स्तुतिभिः श्रीमुनिसुव्रतमुपास्य श्रीमदाम्रभटमुल्लाघलानेन पटूकृत्य यथागतमागुः। श्रीमदुदयनचैत्ये शकुनिकाविहारे घटीगृहे राज्ञा कौङ्कणनृपतेः कलशत्रितयं स्थानत्रये न्यास्थत् ॥ ॥ इति श्रीराजपितामह-आम्रभर्टप्रवन्धः॥ 20 १४८) अथान्यस्मिन्नऽवसरे कुमारपालनृपतिः पाण्डित्यलिप्सया कपर्दिमन्त्रिणोऽनुमतेन भोजनानन्तरक्षणे केनापि विदुषा वाच्यमाने कामन्दकीयनीतिशास्त्रे १९४. पर्जन्य इव भूतानामाधारः पृथिवीपतिः । विकलेऽपि हि पर्जन्ये जीव्यते न तु भूपतौ ॥ वाक्यमिदमाकर्ण्य नृपतेर्मेघ ऊ प म्या इति कुमारपालभूपालेनाभिहिते सर्वेष्वपि सामाजिकेषु न्युञ्छनानि कुर्वाणेषु तदा कपर्दिमन्त्रिणमवाङ्मुखं वीक्ष्य," एकान्ते नृपपृष्ट एवमवादीत्-'ऊ प 25 म्या शब्दे खामिना स्वयमुच्चरिते सर्वव्याकरणेषु अपप्रयोगे "एभिश्छन्दानुवर्तिभिर्युञ्छनानि क्रियमाणे मम द्वेधाऽप्यवाङ्मुखत्वं “समुचितम्। तथा वरमराजकं विश्वं न तु मूखों राजेति प्रतीपभूपालमण्डलेष्वपकीर्तिः प्रसरति । अतोऽस्मिन्नर्थे उपमान उपमेयं" औपम्यं उपमा-इत्याद्याः शब्दाः शुद्धा' इति तद्वचनानन्तरं राज्ञा शब्दव्युत्पत्तिज्ञानहेतवे पञ्चाशद्वर्षदेश्येन कस्याप्युपा ____1 P त्वमपि। 2 ABD भवल्लो.। 3 AD दशामागतस्य । 4 AD प्रासादप्रकम्पः। 5 D नास्ति । 6 AD वज्रपाणिप्रहा। 7P आसेदीवांसः। 8P परपथः । इतोऽग्रे Da ‘एवं शकुनिकाविहारोद्धारे कोटिद्वयं व्ययितम् । एतदधिक वाक्यं विद्यते। 9 P श्रीमदाम्रभटः। 10 AD कुमारपालनामा । 11 D नन्तरं क्षणं। 12 BP आलोक्य। 13 D • व्याकरणेष्वेतत्प्रयोगापेतेषु छन्दानु०। 14 D द्वेधाऽवाङ्मुखत्वमुचितं । 15 P भुवनं। 16 P विना न। 17 P नास्ति । 18 D नास्त्येतत्पदम् । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश:] कुमारपालादिप्रबन्धः। ध्यायस्य समीपे मातृकापाठात्प्रभृति शास्त्राण्यारभ्यैकेन वर्षेण वृत्तिकाव्यत्रयमधीतम् । विचारचतुर्मुखमिति बिरुदमर्जितम् । ॥ इति विचारचतुर्मुखश्रीकुमारपालाध्ययनप्रबन्धः ॥ १४९) कस्मिन्नप्यऽवसरे विश्वेश्वरनामा कविराणस्याः श्रीपत्तनमुपागतः प्रभुश्रीहेमसूरीणां । संसदि प्राप्तः । तत्र कुमारपालनृपती विद्यमाने सः१९५. पातु वो हेमगोपालः कम्बलं दण्डमुद्वहन् । इति भणित्वा विलम्बमानो नृपेण सक्रोधं निरक्ष्यत। षट्दर्शनपशुग्रामं चारयन् जैनगोचरे ॥ इत्युत्तरार्द्धपरितोषितसमाजलोकः श्रीरामचन्द्रादीनां समस्यां समर्पयामास१९६. व्याषिद्धा नयने मुखं च रुदती स्वे गर्हिते कन्यका नैतस्याः प्रसूतिद्वयेन सरले शक्ये पिधातुं दृशौ । 10 सर्वत्रापि च लक्ष्यते मुखशशिज्योत्स्नावितानैरियमित्थं मध्यगता सखीभिरभितो दृग्मीलनाकेलिषु ॥ व्याषिद्धा। इति श्रीकपर्दिना महामात्येन पूरितायां समस्यायां पश्चात्कविः पश्चाशत्सहस्र मूल्यं निजं ग्रैवेयकं श्रीकपर्दिनः कण्ठे 'श्रीभारत्याः पदम्' इत्युच्चरन्निवेशयामास । अथ तद्वैदग्ध्यचमत्कृतेन नृपतिना खसंनिधौ स्थाप्यमान:१९७. कथाशेषः कर्णोऽजनि जनकृशा काशिनगरी सहर्ष हेषन्ते हरिहरिति हम्मीरहरयः।। सरस्वत्याश्लेषप्रवणलवणोदप्रणयिनि प्रभासस्य क्षेत्रे मम हृदयमुत्कण्ठितमदः॥ इत्युक्त्वाऽऽपृच्छय नृपसत्कृतः स यथास्थानमगात्। १५०) कदाचिद्देवश्रीकुमारविहारे नृपाहूताः प्रभवः श्रीकपर्दिना दत्तहस्तावलम्बा यावत्सोपानमारोहन्ति तावन्नतक्याः कञ्चके गुणमाकृष्यमाणं विलोक्य श्रीकपर्दी१९८. सोहग्गिउ सहिकञ्चयउ जुत्तउ ताणु करेइ । 20 एवमुक्त्वा यावद्विलम्बते पुट्टिहिं पच्छइ तरुणीयणु" जसु गुणगहणु करेइ ॥ ___ इति श्रीप्रभुपादैरुत्तरार्द्धमपूरि । . १५१) कदाचित्प्रत्यूषे श्रीकपर्दिमन्त्री प्रणामानन्तरं श्रीसूरिभिहस्ते किमेतदिति पृष्टःसप्राकृतभाषया ह र ड इ इति विज्ञपयामास । प्रभुभिरुक्तम्-'किमद्यापि?' अनाहतप्रतिभतया तद्वचन-25 च्छलमाकलय्य कपर्दिनोक्तम्-'इदानीं तु न ।' कुतोऽन्त्योऽप्याद्योऽभूत् , मात्राधिकश्च । हर्षाश्रुपूरपूर्णदृशःप्रभवः श्रीरामचन्द्रप्रभृतिपण्डितानां पुरस्तात्तच्चातुरी प्रशशंसुः। तैरज्ञाततत्त्वैः किमिति पृष्टो ह र ड इ इति शब्दच्छलेन हकारो रडइ; अस्माभिरुक्तम्-'किमद्यापि?' इत्यभिहितमात्रेण वचस्तत्त्वविदाऽनेन नेदानीमुक्तम् । यतः पुरा मातृकाशास्त्रे हकारः प्रान्ते पठ्यते अत एव रडइ, साम्प्रतं त्वस्मन्नामनि प्रथमस्तथा मात्राधिकश्च ।। ॥ इति ह र ड इ प्रबन्धः ॥ + 'इति नृपाध्ययनप्रबन्धः।' इत्येव P आदर्शे। 1 B बाणारस्याः। 2 BP उपेतः। 3D 'प्रभु' नास्ति । 4 B इक्षितः; P निरीक्षितः। 5 BP नास्त्येतत्पदम्। 6D पृच्छयमानो आपृच्छय । 7 P यथागतं । 8 AD कुमारपालविहारे । 9D.त्ताणु; P ताडु। 10 B.जणु। 11 P विना न। 12 AD आहत। 13 BD परि०। 14 D नास्त्येतत्पदम् । * D पुस्तक एवेदं समाप्तिसूचकं वाक्यं विद्यते । . 30 12 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 प्रबन्धचिन्तामणिः। [ चतुर्थः १५२) कदाचित् केनापि पण्डितेनोर्वशीशब्दे शकारस्तालव्यो दन्त्यो वेतिपृष्टे यावत्प्रभवः किश्चित्समादिशन्ति तावत्, ऊरौ शेते उर्वशीति पत्रकं लिखित्वा श्रीकपर्दिना प्रभोरुत्सङ्गे मुक्तम् । तत्प्रामाण्यात्तालव्यशकारनिर्णयस्तदने प्रभुभिरभिहितः। ॥ इत्युर्वशीशब्दप्रबन्धः* ॥ 5 १५३) अथान्यदा सपादलक्षीयराज्ञः कश्चित्सान्धिविग्रहिकः श्रीकुमारपालनृपतेः सभायामुपेतो राज्ञा भवत्वामिनः कुशलमिति पृष्टः ।स मिथ्याभिमानी पण्डितमानी च 'विश्वं लातीति विश्वलस्तस्य च को विजयसन्देहः । राज्ञा प्रेरितेन श्रीमता कपर्दिना मन्त्रिणा-श्वलश्वल्ल आशुगतौ इति धातोर्विरिव श्वलतीति नश्यतीति विश्वलः । अनन्तरं प्रधानेन तन्नामदूषणं विज्ञप्तः स राजा विग्रहराज इति पण्डितमुखान्नार्म बभार । परस्मिन्वर्षे स एव प्रधान श्रीकुमारपाल10 नृपतेः पुरो विग्रहराज इति नाम विज्ञपयन्, मत्रिणा श्रीकपर्दिना-विग्रो विगतनासिक एवं विधो ह-राजौ रुद्रनारायणौ कृतौ येन इति । तदनन्तरं स नृपः कपर्दिना नामखण्डनभीरुः कविबान्धव इति नाम बभार। १५४) अथान्यदा श्रीकुमारपालनृपपुरतः श्रीयोगशास्त्रव्याख्याने सञ्जायमाने पञ्चदशकर्मादानेषु वाच्यमानेषु "दन्तकेशनखास्थित्वगोम्णां ग्रहणमाकरे". इति प्रभुकृते मूलपाठे पं० उदयचन्द्र रोम्णां ग्रहणमिति भूयो भूयो वाचयन्तं प्रभुभिलिपिभेदं पृष्टे स "प्राणितूर्याङ्गानाम्" इति व्याकरणसूत्रेण प्राण्यङ्गानां सिद्धमेकत्वमिति लक्षणविशेष विज्ञपयन् प्रभुभिः श्लाघितो राज्ञा न्युञ्छने सम्भावितः"। ॥ इति पं० उदयचन्द्रप्रबन्धः ॥ 20 १५५) अथ कदाचित्स राजर्षितपूरभोजनं कुर्वन् किञ्चिद्विचिन्त्य कृतसाहारपरिहारः पवित्री भूय" इति प्रभुं पप्रच्छ-'यदस्माकं घृतपूराहारो युज्यते नवा ?' इति प्रभुभिरभिदधे-'वणिगब्राह्मणयोयुज्यते, कृताभक्ष्यनियमस्य क्षत्रियस्य तु न । तेन पिशिताहारस्यानुस्मरणं भवति ।' इत्थमेवेति पृथ्वीपतिरभिधाय पूर्वभक्षितस्याभक्ष्यस्य प्रायश्चित्तं याचितवान्"।द्वात्रिंशद्दशनसंख्यया एकमिन्" भिडवन्धे द्वात्रिंशद्विहारान्कारयेति । राज्ञा तथाकृते, प्रभुदत्ते प्रतिष्ठालग्ने वटपद्रका25 निजप्रासादमूलनायकप्रतिष्ठा कारयितुं श्रीपत्तनमुपेयुषि कान्हूंनाम्नि व्यवहारिणि तन्नगरमुख्ये प्रासादे तद्विम्बं मुक्त्वा यावदुपहारान्गृहीत्वा स पुनरुपैति तावन्नृपतेरङ्गरक्षकैर्निरुद्धे द्वारि अन्तः प्रवेशमलभमानः कियति काले व्यतिक्रान्ते उत्थितैर्द्वारपालकैर्व्यतीते प्रतिष्ठोत्सवे" स तत्र प्रविश्य प्रभोः पादमूले लगित्वा सोपालम्भं भृशं रुरोद । प्रभुभिरन्यथा दुरपनेयं तस्य दुःखं विमृश्य रङ्गमण्डपावहिर्भूत्वा नक्षत्रचारेण खदत्तं लग्नमुदितं व्योनि विलोक्य 'कूटघटिका30 सम्बन्धेन नैमित्तिकेन यस्मिल्लग्ने बिम्बानि प्रतिष्ठापितानि तेषां वर्षत्रयमायुः। सम्प्रतितने लग्ने तु प्रतिष्ठितं बिम्बमिदं चिरायुरिति प्रभुभिरादिष्टम् । स तदैव प्रतिष्ठामकारयत्तत्पभूक्तं तथैव जज्ञे। ॥ इत्यभक्ष्यभक्षणप्रायश्चित्तप्रबन्धः॥ 1AP तथा। 2D उरून् अश्नुते। 3P सभामायातो। 4 P नास्त्येतत् पदम्। 5 D इत्येवं । 6 AD इति नाम । 7D प्रधानः पुरुषः। 8AD एवं। 9AD नास्ति। 10D व्याख्यातं तदित्यवगम्य तदनन्तरं। 11 BP 'अथ' नास्ति । 12-13 D नास्त्येतत्पदद्वयम्। 14 नास्त्येतत्पदं ADI 15-16 BP प्रायश्चित्ते याचिते। 17-18 D नास्ति। 19 AD 'प्रतिष्ठा' नास्ति । 20 B कान्हड०। 21 P निरुद्धः। 22 D प्रतिष्ठाकाले। 23 AD 'भृशं' नास्ति । 24 'स्वदत्त' स्थाने AD स्वं । Jain Education Intemational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] कुमारपालादिप्रबन्धः। १५६) मयापहृते धने पुरा कश्चिन्मूषको मृतस्तत्मायश्चित्ते राज्ञा याचिते तच्छ्रेयसें प्रभुभिस्तनामाङ्कितो विहारः कारितः। १५७) तथा च कयापि व्यवहारिवध्वाऽज्ञातज्ञातिनामग्रामसम्बन्धया पथि दिनत्रयं वुभुक्षितो नृपतिः शालिकरम्बेन सुहितीकृतस्तत्कृतज्ञतया तत्पुण्याभिवृद्धये करम्बकविहारं श्रीपत्तनेऽकारयत् । १५८) तथा यूकाविहारश्चैवम्-सपादलक्षदेशे कश्चिदविवेकी धनी केशसंमार्जनावसरे प्रियापितां यूकां करतले सङ्गह्य पीडाकारिणी तां तर्जयंश्चिरेण मृदित्वा व्यापदयामास । संनिहिते. नामारिकारिपञ्चकुलेन स श्रीमदणहिल्लपुरे समानीय नृपाय निवेदितः । तदनु प्रभूणामादेशात्तद्दण्डपदे तस्य सर्वखेन तत्रैव यूकाविहारः कारितः। ॥ इति यूकाविहारप्रबन्धः॥ ____10 १५९) अथ स्तम्भतीर्थे सामान्ये सालिगवसहिकाप्रासादे यत्र प्रभूणां दीक्षाक्षणो बभूव तत्र रत्नमयंबिम्बालङ्कृतो निरुपमो जीर्णोद्धारः कारितः। ॥ इति सालिगवसंहि-उद्धारप्रवन्धः॥ १६०) अथ श्रीसोमेश्वरपत्तने कुमारविहारप्रासादे बृहस्पतिनामा गण्डः कामप्यरतिं कुर्वाणः प्रभोरप्रसादाद्दष्टप्रतिष्ठः श्रीमदणहिल्लपुरं प्राप्य षोढावश्यकेऽपि प्रौढिं प्राप्तः प्रभून सिषेवे । 15 कदाचिचातुर्मासिकपारणके प्रभूणां पादयोगोंदशावत्तेंवन्दनादनु१९९. चतुर्मासीमासीतव पदयुगं नाथ निकषा कषायप्रध्वंसाद्विकृतिपरिहारव्रतमिदम् । ___ इदानीमुद्भिद्यनिजचरणनिर्लोठितकलेजलक्लिन्नैरन्नमुनितिलक ! वृत्तिर्भवतु मे ॥ इति विज्ञपयंस्तत्कालागतेन राज्ञा प्रसन्नान् प्रभून् विमृश्य स पुनरेव तत्पददानपात्रीकृतः।। ॥ इति बृहस्पतिप्रबन्धः"॥ १६१) अन्यदा सर्वावसरस्थितेन राज्ञा आलिगनामा वृद्धप्रधानपुरुष इत्यपृच्छयत"-'यदहं श्रीसिद्धनृपतेहीनः समानोऽधिको वा?' तेन चाऽछलप्रार्थनापूर्व 'श्रीसिद्धनृपतेरष्टनवतिर्गुणों द्वौ दोषी; खामिनस्तु द्वौ गुणौ तत्संख्या एव दोषाः' इति निवेदिते नृपतिर्दोषमये आत्मनि विरागं दधानो यावच्छुरिकां चक्षुषि क्षिपति तावत्तदा तदाशयविदा तेनेति व्यज्ञपि-'श्रीसिद्धनृपतेरष्टनवतिर्गुणाः सङ्ग्रामाऽसुभटता-स्त्रीलम्पटतादोषाभ्यां तिरोहिताः, कार्पण्यादयो भवदोषास्तु 25 समरशरता-परनारीसहोदरतागुणाभ्यामपहृताः' इति तद्वचसा स पृथ्वीनाथा खस्थावस्थस्तस्थौ । ॥ इति आलिगप्रबन्धः ॥ १६२) अथ पुरा श्रीसिद्धराजराज्ये पाण्डित्ये स्पर्धमानो वामराशिनामा विप्रः प्रभूणां प्रतिष्ठानिष्ठां विशिष्टामसहिष्णु: 1 BP विपन्नः। 2 BP प्रायश्चित्तं यच्छतेति भूपेन विज्ञप्तः। 3 P धनवान् । 4 A गृह्य; BP कलयन् । 5 D 'मय' नास्ति। 6 P नास्ति। 7 AD प्रभुदीक्षावसहिकाया उद्धार। 8 AD 'पि' नास्ति। 9 D प्राप्य। 10 D यावत् । 11 P इदानीमभ्युद्यः। 12 D बृहस्पतिगण्डस्य पुनः पददानप्रबन्धः। 13 AD वृद्धः। 14 AB अपृच्छन् । 15 AD षण्णवति। 16 AD तद्वाक्यादनु दोषः। 17 BP क्षुरिकायां चक्षुनिक्षिपति । 18 D तावदाशय। 19 P तिरस्कृताः । 20 P स्वस्थामवस्थामाप। 20 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ चतुर्थः २००. यूकालक्षशतावलीवलवलल्लोलोल्ललत्कम्बलो दन्तानां मलमण्डलीपरिचयादुर्गन्धरुद्धाननः । नासावंशनिरोधनाद्गिणिगिणत्पाठप्रतिष्ठारुचिः सोऽयं हेमडसेवडः पिलपिलत्खल्लिः समागच्छति ॥ इति तदीयममन्दं निन्दास्पदं वचनमाकान्तर्भूतण्यर्थवत्तर्जनापरं वचः प्रभुभिरभिहितम् - 'पण्डित ! विशेषणं पूर्वमिति भवता किं नाधीतम् ? अतः परं सेवडहेमड इत्यभिधेयमिति । 5 सेवकैः कुन्तपश्चाद्भागेन तदाहत्य मुक्तः। श्रीकुमारपालनृपते राज्येऽशस्त्रो वध इति तद्वृत्तिच्छेदः कारितः। स ततः परं कणभिक्षया प्राणाधारं कुर्वाणः प्रभूणां पौषधशालायाः पुरतः स्थितोऽनादिभूपतितपस्विभिरधीयमानं योगशास्त्रमाकर्पोऽशठतयेदमपाठीत्२०१. आतङ्ककारणमकारणदारुणानां वक्रेण गालिगरलं निरगालि येषाम् । तेषां जटाधरफटाधरमण्डलानां श्रीयोगशास्त्रवचनामृतमुजिहीते ॥ 10 इति तद्वचसाऽमृतधारासारेण निर्वाणपूर्वोपतापास्तस्मै द्विगुणां वृत्तिं प्रसादीकृतवन्तः । ॥ इति वामराशिप्रबन्धः॥ १६३) अथ कदाचिच्चारणौ द्वौ सुराष्ट्रामण्डलनिलयौ दूहाविद्यया मिथैः स्पर्धमानौ 'श्रीहेमचन्द्राचार्येण यो व्याख्यायते सोऽपरस्य हीनोपक्षयं ददाती ति प्रतिज्ञाय श्रीमदणहिल्लपुरं प्रापतुः। तदैकेन प्रभुसभागतेन15 २०२. लच्छि-वाणिमुहकाणि सा पई भागी मुह मरउ । हेमसरिअत्थाणि जे ईसर ते पण्डिया ॥ इत्युक्त्वा तूष्णीं स्थिते तस्मिन् ; श्रीकुमारविहारे आरात्रिकावसरानन्तरं प्रणामपरो नृपः प्रभुणा दत्तपृष्ठिहस्तः क्षणं यावत्तिष्टति; अत्रान्तरे प्रविश्य" द्वितीयश्चारण: २०३. हेम तुहाला कर मरउं" जिह" अचन्भुयरिद्धि । जे चंपह हिट्ठा मुहा तीह ऊपहरी सिद्धि । इत्यनुच्छिष्टेन तद्वचसाऽन्तश्चमत्कृतो नृपतिरेतदेव भूयोभूयः पाठयामास । तेन त्रिकृत्वः पठिते 20 'किं पठिते पठिते लक्षं दास्यसी?' ति विज्ञप्तस्तस्मै त्रिलक्षी दापयामास । ॥ इति "चारणयोः प्रबन्धः॥ १६४) कदाचिच्छ्रीकुमारपालनृपतिः श्रीसङ्घाधिपतीभूय तीर्थयात्रां चिकीर्षुर्महता महेन श्रीदेवालयप्रस्थाने सञ्जाते सति देशान्तरादायातयुगलिकया 'त्वां प्रति डाहलदेशीयकर्णनृपतिरुपैतीति विज्ञप्तः । खेदविन्दुतिलकितं ललाटं दधानो मन्त्रिवाग्भटेन साकं साध्वसध्वस्तसङ्घाधिप25 यमनोरथः प्रभुपादान्ते खं निनिन्द । अथ तस्मिन्नृपतेः समुपस्थिते महाभये किञ्चिदवधार्य 'द्वादशे यामे भवतो निवृत्तिभविष्यती'त्यादिश्य विसृष्टो नृपः किंकर्तव्यतामूढो यावदास्ते तावनिर्णीतवेलायां समागतयुगलिकया 'श्रीकों दिवं गत'इति विज्ञप्तः। नृपेण ताम्बूलमुत्सृ. जता कथमिति पृष्टौ तावूचतु:-'कुम्भिकुम्भस्थलस्थः श्रीकर्णः निशि प्रयाणं कुर्वन्निद्रामुद्रितलोचनः कण्ठपीठप्रणयिना सुवर्णशृङ्खलेन प्रविष्टन्यग्रोधपादपेनोल्लम्बितः पञ्चतामञ्चितवान् । तस्य 1 D लसत्-। 2 D विरोधः। 3 B गिणिगिणितिवालप्रतिष्ठास्थितिः; D गणिगिणित्पादप्रतिष्ठा । 4 AD भूतामर्पवत्। 5 BP अभिदधे। 6 P नास्ति । 7 D विहाय नास्त्यन्यत्र। 8 D 'तद्' नास्ति । 9 D आनादि०। 10 D वक्त्रेषु। 11 P वचनामृत०। 12 AD नास्ति । 13 B ए पई; D ए यई। 14 D भरउं। 15 D अच्छीण। 16 D अभ्यण। 17 P नास्ति। 18 D भरउं । 19 AD जांह। 20 AD अच्चन्भूः । 21 AD तांह। 22 B उप्पहरी; P उप्पहरई। 23 D ततः। 24 D सौराष्ट्रचारणयोः। 25 AD उत्सृज्य । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] कुमारपालादिप्रबन्धः । ९२ संस्कारानन्तरमावां प्रचलितावि'ति ताभ्यां विज्ञप्ते तत्काल पौषधवेश्मनि समागतो नृपः प्रशंसापरः कथं कथमप्यपवार्य' द्वासप्ततिमहासामन्तैः समं समस्तसङ्खेन च प्रभुणा द्विधोपदिश्यमानवर्त्मा धुन्धुक्ककनगरे प्राप्तः । प्रभूणां जन्मगृहभूमौ स्वयं कारितसप्तदशहस्तप्रमाणे झोलिकाविहारे प्रभावनां विधित्सुर्जातिपिशुनानां द्विजातीनामुपसर्गमुदितं वीक्ष्य तान् विषयताडितान् कुर्वन् श्रीशत्रुञ्जयतीर्थमाराधयामासं । तत्र' "दुक्खक्खओ कम्मक्खओ” इति प्रणिधानदण्डक - 5 मुच्चरन् देवस्य पार्श्वे विविधप्रार्थनावसरे २०४. इक फुल्लह माटि सामीउ देयइ सिद्धिहु । तिणिसउ केही साटि कैटरे भोलिम जिणवरह | इति चारणमुच्चरन्तं निशम्य नवकृत्वः पठितेन नवसहस्रांस्तस्मै नृपो ददौ । तदनन्तरमुज्जयन्तसन्निधौ गते तस्मिन्नऽकस्मादेव पर्वतकम्पे सञ्जायमाने श्रीहेमचन्द्राचार्या नृपं प्राहु:-' इयं छत्रशिला युगपदुपेतयोरुभयोः पुण्यवतोरुपरि निपतिष्यतीति वृद्धपरंपरा' । तदावां पुण्यवन्तौ, 10 यदियं गीः सत्या भवति तदा लोकापवादः । नृपतिरेवातो" देवं नमस्करोतु न वयमित्युक्ते नृपतिनोपरुध्य प्रभव एव सङ्केन सहिताः प्रहिताः न" स्वयम् । छत्रशिलामार्ग परिहृत्य परस्मिन् जीर्णप्राकारपक्षे नव्यपद्याकरणाय श्रीवाग्भटदेव आदिष्टः । पद्योपक्षये" व्ययीकृतास्त्रिषष्टिलक्षाः । ॥ इति तीर्थयात्राप्रबन्धः ॥ १६५) कदाचित्पृथिव्या आनृण्याय नृपतिना खर्णसिद्धये श्रीहेमचन्द्रसूरीणामुपदेशात्तद्गुरवः 15 श्रीदेवचन्द्राचार्याः " श्रीसङ्घनृपतिविज्ञप्तिकाभ्यामाकारितास्तीव्रव्रत परायणा महत्सङ्घा - मृश्य विधिविहारक्रमेण पथि केनाप्यलक्ष्यमाणा निजामेव पौषधशालामागताः । राजा तु प्रत्युगमादिसामग्रीं कुर्वन् प्रभुज्ञापितस्तत्राययौ । अथ गुरोः " पुरो नृपतिप्रमुखैः समस्तश्रावकयुतैः" प्रभुभिर्द्वादशावर्त्तवन्दनं" दत्त्वा तौ श्रुतदुपदेशौ" गुरुभिः पृष्ठे सङ्घकार्ये सभां विसृज्य जवानकान्तरितौ श्रीहेमचन्द्र-नृपती" तत्पादयोर्निपत्य सुवर्णसिद्धियाचनां चक्राते । 'मम बाल्ये " वर्त्त - 20 मानस्य ताम्रखण्डं काष्ठभारवाहकात् याचितवल्लीरसेनाभ्यक्तं युष्मदादेशाद्वह्निसंयोगात्सुव बभूव । तस्या वल्लेर्नामसङ्केतादिरादिश्यतामिति श्रीहेमाचार्ये उक्तवति कोपाटोपात् श्रीहेमचन्द्रं दूरतः प्रक्षिप्य 'न योग्योऽसीति; अग्रे मुद्गरसप्रायदत्तविद्यया त्वमजीर्णभाक्, कथमिमां विद्यां मोदकप्रायां तव मन्दाग्नेर्ददामि ?' इति तं निषिध्य नृपं प्रति 'एतद्भाग्यं भवतो नास्ति येन जगदानृण्यकारिणी हेमनिष्पत्तिविद्या तव सिद्ध्यति; अपि च मारिनिवारणजिनमण्डितपृथ्वीकर - 25 णादिभिः पुण्यैः सिद्धे लोकद्वये किमतोऽप्यधिकमभिलषसी' त्यादिश्य तदैव विहारक्रमं कृतवन्तः । ॥ इति सुवर्णसिद्धिनिषेधप्रबन्धः ॥ * { एकदा पृष्टः राज्ञा पूर्वभवस्वरूपं तत्सर्वं कथितं प्रभुभिरिति । } ई 32 32 34 5 AD तिणिसिउं । ' अतः ' नास्ति । 16 AD गुरौ । 1 P वारितः । 2 AB आराधन् । 3 AD नास्ति । 4 AD देअइ सामी । P कर; A रे। 7 AD द्वयोः । 8 D परंपरया । 9 D गीरसत्यासत्या । 10 D 12 D नास्ति । 13D पद्यायाः पक्षद्वये । 14 D नास्ति । 15 P प्रभुणादिष्टः | 18 'वन्दनं दत्त्वा' स्थाने D ' वन्दनावन्दिते वन्दनान्ते' । 19 AD • देशानन्तरं | 20 P नास्त्येतत्पदं । 22 P विद्यमा० । 23 P मोदकाशनसङ्काशां । 24 BP सुवर्ण० । 25 AD तथैव । एवेयं पंक्तिरुपलभ्यते । + D पुस्तक एवेयं पंक्तिर्द्दश्यते नान्यत्र । 26P बिहारं । 竑 For Private Personal Use Only 6D नास्ति; 11 AD सह । 17 P सहितैः । 21 AD सिद्धेः । * P आदर्श Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ चतुर्थः १६६) अथ कस्मिन्नप्यवसरे सपादलक्षं प्रति सज्जीकृते सैन्ये श्रीवाग्भटस्यानुजन्मा चाहडनामा मन्त्री दानशौण्डतया दूषितोऽपि भृशमनुशिष्य भूपतिना सेनापतिश्चक्रे । तेन प्रयाणद्वित्रयानन्तरमस्तोकमर्थिलोकं मिलितमालोक्य कोशाधिपल्लिक्षद्रव्ये याचिते सति नृपादेशात्तस्मिन्नददाने, अथ तं कशाप्रहारेणाहत्य सेनापतिः कटकान्निरवासयत् । स्वयं तु यदृच्छया दानैः 5 प्रीणितार्थिलोकश्चतुर्दशशतीसंख्यासु करभीष्वारोपितैर्द्विगुणैः सुभटैः समं सञ्चरन् मितैः प्रया णैर्बम्बेरानगरप्राकारं वेष्टयामास । अथ तस्यां निशि सप्तशतीकन्यानां विवाहः प्रारब्धोऽस्तीति नगरलोकान् मत्वा तद्विवाहार्थं तथैव निशि स्थित्वा प्रातः प्राकारपरावर्त चकार । तत्राधिगतं वर्णकोटीः सप्त तथैकादशसहस्राणि वडवानामिति सम्पत्तिगर्भितां विज्ञप्तिकां वेगवत्तरैनरै पं प्रति प्राहिणोत् । स्वयं तत्र देशे श्रीकुमारपालनृपतेराज्ञां दापयित्वाऽधिकारिणो नियोज्य व्याघु10 टितः। श्रीपत्तनं प्रविश्य राजसौधमधिगम्य नृपं प्रणनाम । नृपस्तदुचितालापावसरे तद्गुणरजि. तोऽप्येवमवादीत्-'तव स्थूललक्ष्यतैव महहूषणं [*बाढान्तिकयोः साधनादौ साधीयान् नेदीयाप्रयोगनिष्पत्तिः] रक्षामन्त्रः, नो वा चक्षुर्दोषेणोद्ध एव विदीयंसे। यं व्ययं भवान् कुरुते तादृशं कर्तुमहमपि न प्रभूष्णुः ।' स इति श्रुतपादेशो नृपं प्रति 'तथ्यमेव तदादिष्टं देवेन, एवंविधं व्ययं कर्तुं प्रभुर्न प्रभवति । यतः स्वामी परम्परया न नृपतेः सुतः। अहं तु नृपपुत्रः। अतो 15 मयैव साधीयान् द्रव्यव्ययः क्रियते। तेनेति विज्ञप्ते नृपतिस्तोपं करोतु रोषं वा, निकषं निकषाकाञ्चनश्रियमासाद्य, अनर्ग्यतां लभमानो नृपतिविसृष्टः खं पदं प्रपेदे । ॥ इति राजघरदृचाहडप्रबन्धः॥ १६७) तथा तस्य कनीयान् भ्राता सोलाकनामा मण्डलीकसत्रागारमिति बिरुदं बभार । १६८) अथ कदाचिद् आनाकनामा मातृष्वस्रीयस्तत्सेवागुणतुष्टेन राज्ञा दत्तसामन्तपदोऽपि 20 तथैव सेवमानः कदापि मध्यन्दिनावसरे चन्द्रशालापल्यङ्कस्थितस्य नृपतेः पुरो निविष्टः सहसा कमपि प्रेष्यं तत्र प्राप्त प्रेक्ष्य कोऽयमिति पृष्टे नृपतिना' श्रीमदानाकः खं कर्मकरमुपलक्ष्य तत्सङ्केत्तानिकेतनान्निर्गत्य सकौशलं 'पृष्टः पुत्रजन्मवर्धापनिकां प्रार्थयामास । स तया वार्त्तया तु दिनकरप्रभयेव विकसितवदनारविन्दं तं विसृज्य खं पदमुपेतः। राज्ञा किमेतदिति पृष्टस्तेन वामिनः पुत्रोत्पत्तिरिति विज्ञप्ते; स वसुधाधवः स्वगतं किश्चिदवधार्य तं प्रति प्रकाशं प्राह25'यजन्म निवेदयितुमयं कर्मकरो वेत्रिभिरस्खलित एवेमां भुवमाप तावता पुण्योपचयेनायं गूर्जरदेशे नृपो भावी, परमस्मिन्पुरे धवलगृहे च न; यतोऽतः स्थानादुत्थापितस्य तवाग्रे सुतोत्पत्तिनिवेदिता," ततो हेतो स्मिन्नगरेश्वरत्वम्। ॥ इति विचारचतुर्मुखेन श्रीकुमारपालदेवेन निर्णीतो" लवणप्रसादराणकप्रबन्धः॥ २०५. आज्ञावर्तिषु मण्डलेषु विपुलेष्वष्टादशवादरादब्दान्येव चतुर्दश प्रसृमरां मारिं निवायौंजसा । 30- कीर्तिस्तम्भनिभांश्चतुर्दशशतीसंख्यान्विहारांस्तथा कृत्वा निर्मितवान्कुमारनृपति नो निजैनोव्ययम् ॥ 1P कोशाध्यक्षात् । 2 AD चरैः। 3 P दापयामास। * कोष्टकगता पंक्तिः AD आदर्श दश्यते । 4 D नोचेत् । 5 D अथ। 6 AD 'इति' नास्ति । 7P नृपतिना आदिष्टः। 8 B निकेतात्; P नास्ति । एतदन्तर्गतपाठस्थाने P आदर्श 'पृच्छंस्तेन पुत्रजन्मना व पितो दिनकरप्रभाविनिद्वारविन्दं सुन्दरवदनस्तं' एतादृशः पाठः 9 P क्षितिपतिना। 10 D एवायमाप। 11 P वृत्तांतोऽयं निवेदितः। 12 D निर्णीतम् । 13 P विहाय नान्यत्र 'राणक' शब्दः । Jain Education Interational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] कुमारपालादिप्रबन्धः । [१२५] {कर्णाटे गूर्जरे लाटे सौराष्ट्र कच्छ-सैन्धवे । उच्चायां चैव भंभेयां मारवे मालवे तथा ॥ [१२६] 'कौंकणे तु तथा राष्ट्रे कीरे जांगलके पुनः । सपादलक्षे मेवाडे ढील्यां जालन्धरेऽपि च ॥ [१२७] 'जन्तूनामभयं सप्तव्यसनानां निषेधनम् । वादनं न्यायघण्टाया रुदतीधनवर्जनम् ॥} १६९) अथ प्रभोः कदाचित् , कच्छपराजलक्षराजमातुर्महासत्याः शापाच्छ्रीमूलराजान्वयिनां राजन्यानां लूतारोगः सङ्क्रामतीति सम्बन्धात्तुं गृहिधर्मप्रतिपत्त्यवसरे प्रभोरुगणितराज्यभारे । श्रीकुमारपाले तच्छिद्रेण प्रविश्य लूताव्याधिर्वाधामधात् । तदुःखदुःखिते सराजलोके राज्ञि प्रणिधानान्निजमायुः सबलं वीक्ष्याऽष्टाङ्गयोगाभ्यासेन प्रभवस्तं लीलयोन्मूलितवन्तः। १७०) कदापि कदलीपत्राधिरूढं कमपि योगिनमालोक्य विस्मिताय नृपतये आसनबन्धेन चतुरङ्गुलभूमित्यागाद्ब्रह्मरन्ध्रेण निर्यत्तेजःपुञ्ज प्रभवो दर्शयामासुः।। १७१) अथ चतुरशीतिवर्षप्रमाणायुःपर्यन्ते निजमवसानदिनमवधार्यान्त्याराधनक्रियायामन-10 शनपूर्व प्रारब्धायां तदर्तितरलिताय नृपतये 'तवापि षण्मासीशेषमायुरास्ते, सन्तत्यभावाद्विद्यमान एव निजामुत्तरक्रियां कुर्या' इत्यनुशिष्य दशमद्वारेण प्राणोत्क्रान्तिमकार्षुः । तदनन्तरं प्रभोः संस्कारस्थाने तद्भस्म पवित्रमिति राज्ञा तिलकव्याजेन नमश्चक्रे । ततः समस्तसामन्तैस्तदनु नगरलोकैस्तत्रत्यमृत्लायां गृह्यमाणायां तत्र हेमखड्ड इत्यद्यापि प्रसिद्धिः। । १७२) अथ राजा बाष्पाविललोचनः प्रभुशोकविक्लवमनाः सचिवैर्विज्ञप्त इदमवादीत्-'स्वपुण्या-15 र्जितोत्तमतमलोकान् प्रभून्न शोचामि किं तु निजमेव सप्ताङ्गं राज्यं सर्वथा परिहार्य राजपिण्डदोषदूषितं यन्मदीयमुदकमपि जगद्गुरोरङ्गे न लग्नं तदेव शोचामी ति प्रभुगुणानां स्मारं स्मारं सुचिरं विलप्य प्रभूदिते दिने तदुपदिष्टविधिना समाधिमरणेन नृपः खर्लोकमलंचकार । (अत्र P आदर्श निम्नोद्धृता एतदुपश्लोकनश्लोकाः प्राप्यन्ते-) . [१२८] {पृथुप्रभृतिभिः पूर्वैर्गच्छद्भिः पार्थिवैर्दिवम् । स्वकीयगुणरत्नानां यत्र न्यास इवार्पितः॥ . 20 (१२९] न केवलं महीपालाः सायकैः समराङ्गणे । गुणैर्लोकंपृणैर्येन निर्जिताः पूर्वजा अपि ॥ . [१३०] वीतरागरतेयस्य मृतवित्तानि मुश्चतः । देवस्येव नृदेवस्य युक्ताभूदमृतार्थिता ॥ [१३१] करवालजलैः स्नातां वीराणामेव योऽग्रहीत् । धौता बाष्पाम्बुधाराभिर्निर्वीराणां न तु श्रियम् ॥ [१३२] शूराणां सम्मुखान्येव पदानि समरे ददौ । यः पुनस्तकलत्रेषु मुखं चक्रे परामुखम् ॥ [१३३] हृदि प्रविष्टयद्वाणक्लिष्टेनाघूर्णितं शिरः । जाङ्गलक्षोणिपालेन व्याचक्षाणैः परैरपि ॥ [१३४] चूडारत्नप्रभाकनं ननं गर्वादकुर्वतः । कणशः कुडणेशस्य यश्चकार शरैः शिरः॥ [१३] रागाद् भूपालबल्लाल-मल्लिकार्जुनयोर्मधे । गृहीतो येन मूर्धानौ स्तनाविव जयश्रियः ॥ [१३६] दक्षिणक्षितिपं जित्वा यो जग्राह द्विपद्वयम् । तद्यशोभिः करिष्यामो विश्वं नश्यद्विपद्वयम् ॥ [१३७] विहारं कुर्वता वैरिवनिताकुचमण्डलम् । महीमण्डलमुद्दण्डविहारं येन निर्ममे ॥ [१३८] पादलग्नैर्महीपालैः पशुभिश्च तृणाननैः । यः प्रार्थित इवात्यर्थमहिंसाव्रतमग्रहीत् ॥} 30 25 - १७३) सं० ११९९ वर्षपूर्व ३१ श्रीकुमारपालदेवेन राज्यं कृतम् । tP आदर्श एव एतच्छ्लोकत्रयं प्राप्यते। 1 D नास्ति । 2 D संक्रामतीति स व्याधिः कुमारपाले बाधामधात् । सम्बन्धात्-। 3D रणमूलभूमिः। 4 D नास्ति । 5 D संस्कारादनु । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः ॥ १७४) सं० १२३० वर्षेऽजयदेवो राज्येऽभिषिक्तः । [१३९] ( एतद्वर्णनात्मकाऽपि P आदर्श एते विशिष्टाः श्लोकाः प्राप्यन्ते - ) {भूपालोऽजयपालोऽभूत्कल्पद्रुमसमस्ततः । चक्रे वसुन्धरा येन काञ्चनैरनकिश्चना || [१४०] दण्डे मण्डपका हैमी सह मत्तैर्मतङ्गजैः । दत्त्वा पादं गले येन जाङ्गलेशादगृह्यत ॥ 5 [१४१] जामदम्य इवोद्दामधामभत्सितभास्करः । क्षत्रास्रक्षालितां धात्रीं श्रोत्रियत्रा चकार यः ॥ [१४२] दानानि ददतो नित्यं नित्यं दण्डयतो नृपान् । नित्यमुद्वहतो नारीर्यस्यासीत् त्रिगणः समः ॥ } [१४३] धृतपार्थिवनेपथ्ये निष्क्रान्तेऽत्र शतक्रतौ । जयन्ताभिनयं चक्रे मूलराजस्तदङ्गजः ॥ १७५) अस्मिन् अजयदेवे' पूर्वजप्रासादान् विध्वंसयति सति सीलणनामा कौतुकी नृपतेः पुरः प्रारब्धेऽवसरे कृतकामपटुतां मायया निर्माय तत्र स्वकल्पितं तृणमयं देवकुलपञ्चकं पुत्रेभ्यः 10 समर्प्य 'ममानन्तरं भक्त्यतिशयेनाराधनीयमित्यनुशिष्यान्त्यावस्थायां यावदास्ते तावत्तेन लघुपुत्रेण तत्तूर्णं चूर्णितमाकर्ण्य 'रे पुत्राधम' ! श्रीमदजयदेवेनापि पितुः परलोकानन्तरं तद्धर्मस्थानानि विध्वंसितानि, त्वं त्वधुनैवं मयि विद्यमानेऽपि चूर्णयन् ' अधमाधमतां गतोऽसी'ति तस्य तदवसरालापेन' सत्रपो नृपस्तस्मादसमञ्जसाद्विरराम । तद्दिनावशिष्टाः श्रीकुमारविहारा अद्यापि दृश्यन्ते । श्रीतारङ्गदुर्गे अजयपालनाम्ना अजितनाथो धूतैरित्युपायेन रक्षितः । । १७६) तदनु श्रीअजयदेवेन श्रीकपर्द्दिमन्त्री महामात्यपदं दातुमत्यर्थमभ्यर्थितः । 'प्रातः शकुनान्यवलोक्य तदनुमत्या प्रभोरादेश माचरिष्यामीत्यभिधाय शकुनगृहं गतः । ततः सप्तविधं दुर्गादेव्याः याचितं शकुनमवाप्य तच्छकुनं पुष्पाक्षतादिभिरभ्यर्च्य कृतकृत्यं मन्यमानः पुरगोपुरान्तः प्राप्तो नदन्तं वृषभमीशानदिग्भागे विलोक्यातिशयस्मेरमनाः खं निवासमासाद्य भोजनानन्तरं मरुवृद्धेन यामिकेन शकुनखरूपं पृष्टः श्रीकपर्दी तदग्रे तत्खरूपमा20 दिश्य तांस्तुष्टाव । ततो मरुवृद्धः - 15 ९६ २०६. नद्युत्तारेऽध्ववैषम्ये दुर्गे संनिहिते भये । नारीकार्ये रणे व्याधौ विपरीता प्रशस्यते ॥ इति प्रामाण्याद्भवानासन्नव्यसनतया मतिभ्रंशात्प्रतिकूलमप्यनुकूलं मनुषे । यस्तु वृषभो भवता शुभः परिकल्पितः सोऽपि भवद्व्यापत्त्या शिवस्याभ्युदयं पश्यंस्तद्वाहनोक्षा जगर्ज । इति तदुक्तिमवमन्यमाने तस्मिन्नापृच्छ्य तीर्थान्यवगाहुं" गते, स नृपतिना प्रसादीकृतां मुद्रामासाद्य महता 25 महेन समधिगतनिजसौधे विश्रम्य निशि नृपतिना विधृतः समानप्रतिष्ठैरभिभवितुमारब्धः । २०७. जो करिवराण कुम्भे पायं दाऊण मुत्तिए" दलइ । सो सीहो विहिवसओ" जम्बूयपर्यंपिल्लणं सहइ ॥ इत्यादि विमृशन्कटाहिकायां प्रक्षेपकाले २०८. अर्थिभ्यः कनकस्य दीपकपिशा विश्राणिताः कोटयो" वादेषु प्रतिवादिनां विनिहिताः शास्त्रार्थगर्भा गिरः । उत्खातप्रतिरोपितैर्नृपतिभिः शरैरिव क्रीडितं कर्त्तव्यं कृतमर्थिता यदि विधेस्तत्रापि सज्जा वयम् ।। 30 स सुधीरिति काव्यमधीयंस्तथैव व्यापादयांचक्रे । ॥ इति मन्त्री " श्रीकपर्दिप्रबन्धः ॥ 1 P विना नान्यत्रेदं पदं । तदालापेन' एतादृशः पाठः । ० मानसः । 7 ABP नास्ति । तदर्थावगाढुं । 13 P मुत्तियं । 18 AD 'मंत्री' नास्ति काव्यं । । [ चतुर्थः 2 P विना नान्यत्र । 3 AD त्वद्यापि । + एतदन्तर्गतपाठस्थाने ABD 'अधमतमोसीति एतदन्तर्गता पंक्तिः P आदर्श एवोपलभ्यते । 4 P कृतकृत्य मानी । 5 P गोपुरान्तिके । 6P 8 D तथा । 9 D मनुते । 10 D यस्त्वया वृषभः । 11 D तद्वदाहात उक्षा । 12 D 14 P सो विहिवसेण सीहो । 15 AD परिपिल्लणं । 16P राशयः । 17 AD अन्त्य - For Private Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] कुमारपालादिप्रबन्धः। १७७) अथ प्रबन्धशतकर्ता रामचन्द्रस्तु तेन भूपापसदेन तप्तताम्रपट्टिकायां निवेश्यमान: २०९. महिवीढह सचराचरह जिणि' सिरि दिन्हा पाय । तसु अत्थमणु दिणेसरह होइ तु होउ चिराय । इत्युदीर्य दशनाग्रेण रसनां छिन्दन् विपन्न एव व्यापादयांचक्रे । ॥ इति रामचन्द्रप्रबन्धः॥ १७८) अथ राजपितामहः श्रीमानाम्रभटस्तत्तेजोऽसहिष्णुभिः सामन्तैस्तैः समं तदा लब्धाव- 5 सरैः प्रणामं कारयद्भिराक्षिप्त एवमवादीत्-'देवबुद्ध्या श्रीवीतरागस्य, गुरुबुद्ध्या श्रीहेमचन्द्रमहर्षेः, खामिबुद्ध्या कुमारपालस्यैव मे नमस्कारोऽस्मिन् जन्मनी'ति । जैनधर्मवासितसप्तधातुना तेनेत्यभिहिते रुष्टो राजा युद्धसज्जो भवेति तद्गिरमाकर्ण्य श्रीजिनबिम्बं समभ्ययाऽनशनं प्रपद्याङ्गीकृतसङ्ग्रामदीक्षो निजसौधाद्राज्ञः परिग्रहं निजभटवातेन तुषनिकरमिव विकिरन् घटिकागृहे प्राप्तः। तेषां मलीमसानां सङ्गजनितं कश्मलं धारातीर्थे प्रक्षाल्य तत्कौतुकालोकनागताभिरप्सरो- 10 भिरहपूर्विकया ब्रियमाणो देवभूयं जगाम । २१०. वरं भट्टैर्भाव्यं वरमपि च खिङ्गैर्द्धनकृते वरं वेश्याचार्यैर्वरमपि महाकूटनिपुणैः। दिवं याते दैवादुदयनसुते दानजलधौ न विद्वद्भिर्भाव्यं कथमपि बुधैर्भूमिवलये ॥ २११. त्रिभिर्वर्षेत्रिभिर्मासैखिभिः पक्षैत्रिभिर्दिनैः । अत्युग्रपुण्यपापानामिहैव फलमश्नुते ॥ इति पुराणोक्तंप्रामाण्यात्स कुनृपतिर्वयजलदेवनाम्ना प्रतीहारेण क्षुरिकया हतो धर्मस्थानपातन'- 15 पातकी कृमिभिर्भक्ष्यमाणः प्रत्यक्षं नरकमनुभूय परोक्षतां प्रपेदे । सं० १२३० पूर्व वर्ष ३ अजयदेवेन राज्यं कृतम् । १७९) सं० १२३३ पूर्व वर्ष २ बालमूलराजेन राज्यं कृतम् । अस्य मात्रा नाइकिदेव्या परमर्दिभूपतिसुतयोत्संगे शिशु सुतं नृपं निधाय' गाडरीरघटनामनि घाटे सङ्ग्रामं कुर्वत्या म्लेच्छराजा तत्सत्त्वादकालागतजलदपटलसाहाय्येन विजिग्ये । [१४४] {*चापलादिव बाल्येन रिलता समराङ्गणे । तुरुष्काधिपतेर्येन विप्रकीर्णा वरूथिनी ॥ [१४५] *यच्छिन्नम्लेच्छकङ्कालस्थलमुच्चैर्विलोकयन् । पितुः प्रालेयशैलस्य न स्मरत्यर्बुदाचलः॥ लिते तत्र धात्रा कल्पद्रमाङ्करे । उज्जगामानुजन्मास्य श्रीभीम इति भूपतिः॥ १८०) सं० १२३५ पूर्व वर्ष ६३ श्रीभीमदेवेन राज्यं कृतम् । [१४] *भीमसेनेन भीमोऽयं भूपतिर्न कदाचन । बकापकारिणा तुल्यो राजहंसदमक्षमः ॥ अस्मिन् राजनि राज्यं कुर्वाणे श्रीसोहडनामा मालवभूपतिर्जरदेश विध्वंसनाय सीमान्तमागतः ततः प्रधानेन सम्मुखं गत्वेत्यवादि २१२. प्रतापी राजमार्तण्ड ! पूर्वस्यामेव राजते । स एव विलयं याति पश्चिमाशावलम्बिनः॥ इति विरुद्धामुपश्रुति तगिरमाकर्ण्य स पश्चान्निववृते । तदनु तेनं तत्पुत्रेण श्रीमदर्जुनदेवनाम्ना गूर्जरदेशभङ्गोऽकारि। 1 D जिण। 2 P दिन्हा सिरि। 3 AD होउत होइ। 4 AD प्रमाणोक्तः। 5 D 'पातन' नास्ति। 6 D'सुतं नपं नास्ति । 7A विधाय। 8 B गाडुरा० । * P आदर्श एव एतच्छोकचतुष्टयं प्राप्यते। 9 AD नास्ति पदमिदम् । 10 D नास्ति । 11 P गूर्जरधरा० । 20 25 30 13 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः | [ चतुर्थः १८१) श्रीमद्भीमदेवराज्य चिन्ताकारी व्याघ्रपल्ली यसङ्केतप्रसिद्धः श्रीमदानाकनन्दनः श्रीलवणप्रसादश्चिरं राज्यं चकार । तत्सुतः साम्राज्यभारधवलः श्रीवीरधवलः । तन्माता मदनराज्ञी देवराजनाम्नो भगिनीपतेः पट्टकिलस्य भगिन्यां विपन्नायां तस्य बहुतरमनिर्वहमाणमायद्वारं निशम्य तन्निर्वहणाय लवणप्रसादाभिधपतिमापृच्छय शिशुना वीरधवलेन समं तत्र गता सती न 5 स्पृहणीयगुणाकृतिरिति गृहिणी चक्रे । श्रीलवर्णस्तद्वृत्तान्तं सम्यगवगम्य तं व्यापादयितुं निशि गृहे प्रविष्टः । निभृतीभूय स यावदवसरं निरीक्षते, तावत्स भोजनायोपविशन् 'वीरधवलं विना नानामीति भूयो भूयो व्याहृत्य निर्बन्धात्समानीयैकस्मिन्नेव स्थालेऽनन्नकस्मादापतितशरीरिणं कृतान्तमिव सातङ्कमालोक्य श्यामलास्यो मा भैषीरिति तेनोचे - 'यदहं त्वामेव हन्तुमागतः परमस्मिन्मन्नन्दने वीरधवले वात्सल्यं साक्षाचक्षुषा निरीक्ष्य तदाग्रहान्निवृत्तोऽस्मीत्युक्त्वा ते 10 सत्कृतो यथागतं जगाम । १८२) वीरधवलस्यापरपितृकः राष्ट्रकूटान्वयाः साङ्गण- चामुण्डराजादयो वीरव्रतेन' भुवनतलप्रतीताः । ९८ १८३) अथ स वीरधवलक्षत्रिय उन्मीलित किश्चिचेतनस्तस्मान्मातृवृत्तान्तात्त्रयमाणस्तद्गृहं त्यक्त्वा निजमेव जनकं सिषेवे । स तु आजन्मौदार्यगाम्भीर्यस्थैर्यनयविनयौचित्यदयादानदा15 क्षिण्यादिगुणशाली' शालीनतया कण्टकग्रस्तां कामपि भुवमाक्रम्य पित्रापि कियत्कृतजनपदप्रसादो द्विजन्मना चाहङनाम्ना सचिवेन चिन्त्यमानराज्यभारः प्राग्वाटवंशमुक्तामणिना पुरा श्रीमत्पत्तन वास्तव्येन तत्कालं तत्रायाततेजः पालमन्त्रिणा सह सौहार्दमुत्पेदे । 10000 [ १०. वस्तुपाल - तेजःपालप्रबन्धः । ] १८४) अथ प्रकृतमनिणो जन्मप्रबन्धं स्तुमः * - कदाचिच्छ्रीमत्पत्तने भट्टारक श्रीहरिभद्रसू20 रिभिर्व्याख्यानावसरे कुमारदेव्यभिधाना काचिद्विधवातीव रूपवती [बाला' ] मुहुर्मुहुर्निरीक्ष्यमाणा तत्र स्थितस्याशराजमन्त्रिणश्चित्तमाचकर्ष" । तद्विसर्जनानन्तरं मन्त्रिणानुयुक्ता गुरव इष्टदेवतादेशाद्-'अमुष्याः कुक्षौ सूर्याचन्द्रमसोर्भाविनमवतारं पश्यामः । तत्सामुद्रिकानि भूयो भूयो विलोकितवन्तः' इति प्रभोर्विज्ञाततत्त्वः स तामपहृत्य निजां प्रेयसीं कृतवान् । क्रमात्तस्या उदरेऽवतीर्णौ तावेव ज्योतिष्केन्द्राविव" वस्तुपाल तेजःपालाभिधानौ सचिवाव25 भूताम् । १८५) अथान्यदा श्रीवीरधवलदेवेन निजव्यापारभारायाभ्यर्थ्यमानः प्राक् खसौधे तं सपari भोजयित्वा श्रीअनुपमा राजपत्ये श्रीजयतलदेव्यै निजं कर्पूरमयताडङ्कयुग्मं कर्पूरमयो मुक्ताफलसुवर्णमयमणिश्रेणिभिरन्तरिताभिर्निष्पन्नमेकावलीहारं प्राभृतीचकार । मत्रिणः 1P 'मिधमभिकमा ०; B 0 भिभ्रमल्लिकमा ०। 2BP नास्ति 'श्रीलवण:' । 5 D 'मातृ' नास्ति । 6 D सवौदार्य ० । 7 P '० गाम्भीर्यधैर्यादिगुणशाली' इत्येव । तद्वाक्यस्थाने 'मन्त्रिणस्तु जन्मवार्ता चैत्रम्' एतादृशं वाक्यम् । 9 P प्रतावेव एष 11 B • केन्द्रार्थितवस्तु० । For Private Personal Use Only 3 AD मातृकाः । 8P • मनुबभूव । शब्दो विद्यते । 4D वीरजनत्वेन । * P विहाय अन्यBP आततान । 10 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः। प्राभृतमुपदौकितं निषिध्य निजमेवं व्यापारं समर्पयन् 'यत्तवेदानी वर्तमान वित्तं तत्ते कुपितोऽपि प्रतीतिपूर्व पुनरेवाददामी'ति अक्षरपत्रांन्तरस्थबन्धपूर्वकं श्रीतेजःपालाय व्यापारसम्बन्धिनं पञ्चाङ्गप्रसादं ददौ। .. २१३. अकरात्कुरुते कोशमवधाद्देशरक्षणम् । भुक्तिवृद्धिमयुद्धाच्च स मन्त्री बुद्धिमांश्च सः॥ १८६) निखिलनीतिशास्त्रोपनिषन्निषण्णधीः खखामिनं वर्द्धयन् भानूदये कालपूजया विधि- 5 वच्छ्रीजिनमर्चित्वा, गुरूणां चन्दनकर्पूरपूजानन्तरं द्वादशावर्त्तवन्दनादनु यथावसरप्रत्याख्यानपर्वमपूर्वमेकैकं श्लोकं गुरोरध्येति । मन्त्रावसरानन्तरं सद्यस्करसवतीपाकभोजनानन्तरं, मुनालनामा महोपासकस्तदङ्गालेखकोऽवसरे रहसि' पप्रच्छ-स्वामिनाऽहर्मुखे शीतान्नमाहार्यते किंवा सद्यस्कमिति पृच्छन्तं मन्त्रिणा ग्राम्योऽयं इति द्विस्त्रिविधीर्य कदाचित्क्रोधानुबन्धात् पशुपाल इत्याक्षिप्तः । स धृतधैर्य 'उभयोः कश्चिदेकतरः स्यादि'त्यभिहिते" तद्वचश्चातुरीचमत्कृतचित्तेन 10 मन्त्रिणा 'अनधिगतभवदुपदेशध्वनिरहम् , तद्विज्ञ! यथास्थितं विज्ञप्यतामित्यादिष्टः स वाग्ग्मी प्रोवाच-'यां रसवतीमतीव रसप्लुतां सद्यस्कां प्रभुरभ्यवहरति तां प्राक्पुण्यरूपां जन्मान्तरिततयात्यन्तशीतलां मन्ये । किं चेदं मया गुरोः सन्देशवचनमाविष्कृतम् , तत्त्वं तु त एवावधारयन्तीति तत्र पादाववधार्यताम् ।' तेनेति विज्ञप्तः श्रीतेजःपालनामा मन्त्री कुलगुरुभद्दारकश्रीविजयसेनसूरीणामभ्यर्णमागतः। गृहिधर्मविधि गुरून् पप्रच्छ। तैरुपासकदशाभिधसप्तमाङ्गा-15 जिनोदिते देवपूजावश्यकयतिदानादिके गृहिधर्मे समुपदिष्टे, ततःप्रभृति स देवतार्चन विशेषजैनमुनिदानाचं धर्मकृत्यमारब्धवान् । वर्षत्रितयदेवतावसरायपदेन पृथक्कृतेन षट्त्रिंशत्सहस्रप्रमाणेन द्रव्येण बाउलाग्रामे श्रीनेमिनाथप्रासादः समजनि। (अत्र P आदर्श निम्नगता विशेषाः श्लोका लिखिता लभ्यन्ते-) [१४८] सांयात्रिकजनो येन कुर्वाणो हरणं नृणाम् । निषिद्धस्तदभूदेष धर्मोदाहरणं भुवि ॥ [१४९] स्पृष्टास्पृष्टनिषेधाय विधायावधिवेदिकाम् । पुरेऽस्मिन् वारितस्तेन तक्रविक्रयविप्लवः ॥ [१५०] यन्यूनं यत्र यन्नष्टं यस्तत्र तदचीकरत् । उत्पत्तिरुत्तमानां हि रिक्तपूरणहेतवे ॥ [१५१] अकल्पयदनल्पानि देवेभ्यः काननानि यः । हरनेत्राग्नितापस्य यत्र न सरति सरः॥ [१५२] रम्भासम्भावितैर्यस्य वनैर्वृषनिषेवितैः । मनोज्ञसुमनोवगैः स्वर्गसौन्दर्यमाददे ॥ [१५३] संगृहीतानि हारीतशुकचित्रशिखण्डिभिः । धर्मशास्त्रसधर्माणि यस्योद्यानानि रेजिरे ॥ 25 [१५४] दर्शयन् सुमनोभावं श्रीमत्तामतुलामयम् । काननानां स्वबन्धूनां स्वबन्धूनामिवाकरोत् ॥ [१५५] आददानाः पयःपूरं यत्कासारेषु कासराः । विराजन्तेतरां पारावारेष्विव पयोधराः ॥ [१५६] अकारयदयं वापीरपापी यः क्रियारतः । सुधायामपि माधुर्यं यजलैर्गलहस्तितम् ॥ [१५७] ताः प्रपाः कारितास्तेन यदीयं पिबतां पयः । तृप्यन्त्यास्यानि पान्थानां न रूपं पश्यतां दृशः॥ . [१५८] भवार्णवतरी ब्रह्मपुरी येनात्र निर्ममे । यस्यां गायन्ति सामानि नरा नार्यस्तु तद्यशः॥ 30 [१५९] स्फुटं वेष्टयता शुभैः कीर्तिकूटः पटैरिव । दशापि ग्राहिता येन दिशः श्वेताम्बरव्रतम् ॥ .... 1 D समार्पयत्। 2 D•पात्रान्तरसम्बन्धः । 3 A D देशवृद्धिः । 4 D वन्दन। 5 B .रधीत्य । 6 P नास्त्येतत्पदम्। 7 BP विजने इति । 8 AD नास्ति । 9 AD ग्रामेयं द्वेधा त्रेधाऽ। 10 AD क्रोधान्मन्त्रिणा। 11 P इत्युवाच। 12 AD 'चित्तः' इत्येव। 13 AD नास्ति । 14 BP वाचमुवाच । 15 D मन्यते। 16 D 'गृहिधर्म' इत्येव । 20 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ चतुर्थः [१६०] येन पौषधशालास्ताः कारितास्तारितात्मना । मध्ये श्वेताम्बरैर्यासां विशुद्धिः सुधया बहिः॥ [१६१] यस्य पोषधशालासु यतयः संवसन्ति ते । सदा येषामदाराणामात्मभूसम्भवः कुतः॥ [१६२] ज्ञानाख्यं यस्य तचक्षुर्वाचां देवी ददे मुदा । नित्यं येनैप धर्मस्य गतिं सूक्ष्मामपीक्षते ॥ १८७) अथ सं०१२७७ वर्षे सरखतीकण्ठाभरण-लघुभोजराज-महाकवि-महामात्य-श्रीवस्तु5 पालेन महायात्रा प्रारेभे । गुरूपदिष्टे लग्ने तत्कृतसङ्घाधिपत्याभिषेकेण श्रीदेवालयप्रस्थाने उपक्रम्यमाणे दक्षिणपक्षे दुर्गादेव्याः खरमाकर्ण्य स्वयं तद्विदा शाकुनिकेन किश्चिचिन्तयति। कश्चिन्मरुवृद्धः 'शकुनं भारितं विधेही'त्यभिदधानः, शकुनाच्छब्दोबलीयानिति विचार्य पुराद्धहिरावासेषु श्रीदेवालयं संस्थाप्य शकुनव्यतिकरं पृष्टो मार्गवैषम्ये शकुनानां वैपरीत्यं श्लाघ्यते। राज्यविकल तायां तीर्थमार्गाणां वैषम्यम् । तथा यत्र सा दुर्गा दृष्टिपथं गता तत्र कमपि दक्षं पुरुष प्रस्थाप्य स 10 प्रदेशो दर्यताम् । तथाकृते स पुरुष इति विज्ञपयामास-'यत्तस्मिन् वरण्डके नवीक्रियमाणे सा र्द्धत्रयोदशे घरे (गृहे ?) निषण्णा देव्यभूत् ।' अथ स मरुवृद्धो ‘देवी भवतः सार्द्धत्रयोदशसंख्या यात्रा अभिहितवती।' अन्त्यार्द्धयात्राहेतुं भूयः पृष्टे स प्राह-'इहातुलमङ्गलावसरे तद्वक्तुं न युक्तम् । समये सर्व निवेदयिष्यामीति वाक्यानन्तरं श्रीसङ्घन समं स मन्त्री पुरतः प्रयाणमकरोत् । सर्वसंख्यया-वाहनानामर्द्धपञ्चमसहस्राणि, एकविंशतिशतानि श्वेताम्बराणाम् , त्रिशती दिग्वास15साम; सङ्घरक्षाधिकारे सहस्रं तुरङ्गमाणाम् , सप्तशती रक्तकरभीणाम् , सङ्घरक्षाधिकारिणश्वत्वारो महासामन्ताः । इत्थं समग्रसामग्र्या मार्गमतिक्रम्य श्रीपादलिप्तपुरे खयं कारिते श्रीमहावीरचैत्यालङ्कृतस्य श्रीललितसरसः परिसरे आवासान् दापयामास । तत्र तीर्थाराधनां विधिवद्विधाय मूलप्रासादे काश्चनकलशम् , प्रौढजिनयुगलम् , श्रीमोढेरपुरावतार-श्रीमन्महावीरचैत्याराध कमूर्ति-देवकुलिकामूलमण्डपश्रेणेरुभयतश्चतुष्किकाद्वयपति-शकुनिकाविहार-सत्यपुरावतार20 चैत्यपुरतो रजतमूल्यं तोरणम् , श्रीसङ्घयोग्या मठाः, जामि सप्तकस्य देवकुलिकाः, नन्दीश्वरावतारमासादः, इन्द्रमण्डपश्च; तन्मध्ये गजाधिरूढश्रीलवणप्रसाद-वीरधवलमूर्ती, तुरङ्गाधिरूढे निजमूर्ती, तत्र सप्त पूर्वपुरुषमूर्तयः, सप्त गुरुमूर्तयश्च, तत्सन्निधौ चतुष्किकायां ज्यायोभ्रात्रोर्महमालदेव-लूणिगयोराराधकमूर्ती, प्रतोली, अनुपमासरः, कपर्दियक्षमण्डपतोरणप्रभृतीनि' बहूनि 'धर्मस्थानानि रचयांचक्रे । तथा नन्दीश्वरकर्मस्थाये कण्टेलीयापाषाणसत्कजातीयषोडश25 स्तम्भेषु पावर्कपर्वतात् जलमार्गेणानीयमानेषु समुद्रकण्ठोपकण्ठे उत्तार्यमाणेषु, एककः स्तम्भस्तथा पङ्के निमग्नः यथा निरीक्ष्यमाणोऽपि न लभते । तत्पदेऽपरपाषाणस्तम्भेन प्रासादः प्रमाणकोटिं नीतः। वर्षान्तरे वारिधिवेलावशात्पङ्कनिमग्नः स एव स्तम्भः प्रादुरासीत् । सचिवसमादेशात्तस्मिंस्तत्र सञ्चार्यमाणे प्रासादो विदीर्ण इति निवेदितुमागताय परुषभाषकायापि पुरुषाय हैमी जिह्वां स मत्री ददौ । दक्षैः किमेतदिति पृष्टे 'अतः परं तथा कथञ्चिद्धर्मस्थानानि दृढानि 30 कारयिष्यन्ते यथा युगान्तेऽपि तेषां नान्तो भवति । अतः पारितोषिकं दानम् ।' आमूलात्तृतीयवेलायामयं प्रासादः समुद्धृतो विजयते । श्रीपालिताणके च विशालां पौषधशालांकारयामास। श्रीमदुजयन्ते च श्रीसद्धेन सह प्राप्तो मन्त्री । तत्र च तदुपत्यकायां तेजलपुरे" खकारितं नव्यं 1D 'कश्चित् ' नास्ति। 2 D वरण्डशब्दे। 3 A घिरे; B परे; P बरे; D.देशष्वरेषु। 4 D नास्त्येतत्पदम्। 5 D धार्मिकसप्तः। 6A 'प्रभृतिनिजधर्मस्थानानि' इत्येव । 7 D जिनधर्मः। 8 D 'पावक' शब्दो नास्ति । 9 'अपि पुरुषाय' नास्ति ADI 10 P अदात्; A ददे। 11 D जलपूरे कारितं । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः। १०१ वर्ष, तथा तन्मध्ये श्रीमदाशराजविहारं, तथा कुमारदेवीसरश्च, निरुपमं विलोक्य धवलगृहे 'पादोऽवधार्यतामिति नियुक्तैरुच्यमाने 'श्रीमद्गुरूणां योग्यं पौषधवेश्मास्ति नास्ति' इति मत्रिणादिष्टे तन्निष्पाद्यमानमाकर्ण्य विनयातिक्रमभीरुर्गुरुभिः सह बहिर्दापितावासे तस्थौ । प्रातरुजयन्तमारुह्य श्रीशैवेयक्रमकमलयुगलममलमभ्यर्च्य स्वयंकारितश्रीशत्रुञ्जयावतारतीर्थे प्रभूतप्रभावनां विधाय, कल्याणत्रयचैत्ये वर्यसपर्यादिभिस्तदुचितीमाचर्य, स मन्त्री यावत्तृतीये दिनेs- 5 वरोहति तावदुभाभ्यां दिनाभ्यां निष्पन्ने पौषधौकसि मत्रिणा समं गुरवस्तत्र समानीतास्तान्' प्रशशंसुः; पारितोषिकदानेनानुजगृहुः । श्रीमत्पत्तने प्रभासक्षेत्रे चन्द्रप्रभं प्रभावनया प्रणिपत्य यथौचित्यादभ्यर्च्य च निजेऽष्टापदप्रासादेऽष्टापदकलशं समारोप्य तत्रत्यदेवलोकाय दानं ददानः, प्रभु श्रीहेमाचार्यैः श्रीकुमारपालनृपतये जगद्विदितं श्रीसोमेश्वरः प्रत्यक्षीकृत इति पञ्चदशाधिकवर्षशतदेश्यधार्मिकपूजाकारकमुखादाकर्ण्य तचरित्रचित्रितमना व्यावृत्तमानो मार्गे लिङ्गोप-10 जीविनामसदाचारेणान्नदाने निषिद्धे तत्पराभवं विज्ञाय वायटीयश्रीजिनदत्तसूरिभिर्निजोपासकपाश्चात्तस्मिन्क्षणे पूर्यमाणे सति दर्शनानुनयार्थं तत्र समागताय मन्त्रिणे २१४. रत्नाकर इव क्षारवारिभिः परिपूरणात् । गम्भीरिमाणमाधत्ते शासनं लिङ्गधारिभिः॥ २१५. यान् लिङ्गिनोऽनुवन्दन्ते संविग्ना अपि साधवः । तदर्चा चर्च्यते कस्माद्धार्मिकैर्भवभीरुभिः ॥ २१६. प्रतिमाधारिणोऽप्येषां त्यजन्ति विषयं पुरः। लिङ्गिनां विषयस्थानामनर्चा तु विरोधिनी ॥ 15 २१७. लिङ्गोपजीविनां लोके कुर्वन्ति येऽवधीरणाम् । दर्शनोच्छेदपापेन लिप्यन्ते ते दुराशयाः ॥ *आवश्यकवन्दनानियुक्तौ२१८. तित्थयरगुणा पडिमासु नत्थि निस्संसयं वियाणन्तो। तित्थयरोति नमन्तो सो पावई निजरं विउलं॥ २१९. लिङ्गं जिणपन्नत्तं एव नमंसन्ति निजरा विउला । जइवि गुणविप्पहीणं वन्दइ अज्झप्पसुद्धीए ॥ इति तदुपदेशान्निर्मार्जितसम्यक्त्वदर्पणो विशेषाद्दर्शनपूजापरः स्वस्थानमासदत्। 20 १८८) अथ ज्यायसा सोदरेण मं० लूणिगनाम्ना परलोकप्रयाणावसरे बुंदे विमलवसहिकायां मम योग्या देवकुलिकैका कारयितव्ये ति धर्मव्ययं याचित्वा तस्मिन्विपन्ने तद्गोष्ठिकेभ्यस्त वमलभमानश्चन्द्रावत्याः स्वामिनः पार्थान्नव्यां भूमि विमलवसहिकासमीपेऽभ्यर्थ्य तत्र श्रीलूणिगवसहिप्रासादं भुवनत्रयचैत्यशलाकारूपं कारयामासिवान। तन्त्र श्रीनेमिनाथबिम्बं संस्थाप्य प्रतिधितम् । तद्गुणदोषविचारणाकोविदं श्रीजावालिपुराच्छ्रीयशोवीरमन्त्रिणं समानीय मन्त्री प्रासादस्व-25 रूपं पप्रच्छ। तेन प्रासादकारकसूत्रधारः शोभनदेवोऽभ्यधायि-रङ्गमण्डपेषु शालभञ्जिकामिथुनस्य विलासघाँटस्तीर्थकृत्प्रासादे सर्वथानुचितः, वास्तुनिषिद्धश्च । तथा गर्भगृहप्रवेशद्वारे सिंहाभ्यां तोरणमिदं देवस्य विशेषपूजाविनाशि । तथा पूर्वपुरुषमूर्तियुतगजानां पुरतः "प्रासादः कारापकस्यायतिविनाशी"।"इत्यप्रतीकारार्ह दूषणत्रयं विज्ञस्यापि सूत्रभृतो यदुत्पद्यते स भाविकर्मणो दोषः' इति निर्णीय स "यथागतमथोगतः। तदुपश्लोकनश्लोका एवम् 30 1P बहिरावासेषु। 2 AD तत्। 3 P नास्ति। 4 D 'प्रभु' नास्ति। 5 नुनयाय। 6P तदेव। 7P कुर्वते। * एतत्पदमग्रिमं गाथाद्वयं च P आदर्श नोपलब्धम्। 8 B तित्थयरुत्ति। 9A पामइ। 10 B .नमंसु त्ति । 1lP कारयामास। 12 D ततस्तेन; A ततः। 13 AD मण्डपे। 14 AD विशाल। 15 AD शालापश्चाद्भागे। 16 B प्रासादे; AD प्रासाद। 17 AD विनाशि; Db आयविनाशः। 18 P विहाय 'इति' नास्ति। 19 AD अयो' नास्ति । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 १८९) अथ श्रीवस्तुपालस्य स्तम्भतीर्थे सइदनाम्ना नौवित्तकेन समं विग्रहे सञ्जायमाने श्रीभृ गुपुरान्महासाधनिकं शङ्खनामानं श्रीवस्तुपालं प्रति बालकालरूपमानीतवान् । स जलधिकूले दत्त - निवासो नगर प्रवेशमार्गान् शङ्कसङ्कीर्णितानालोक्य व्यवहारिणां वित्तानि यानपात्रप्रणयीनि च वीक्ष्य प्रहितैर्बन्दिभिः श्रीवस्तुपालेन समं समरवासरं निर्णीय यावच्चतुरङ्गसैन्यं सन्नह्यते तावच्छ्रीवस्तुपालेन पुरः कृतो गुडजातीयो भूणपालनामा सुभटो 'यदि शङ्खमन्तरेणाहं प्रहरामि 15 तदा कपिलां धेनुमेवे 'ति वारवर्णिकापूर्वं 'कः शङ्ख ?' इति तद्वचनादनु शङ्खोऽहमिति प्रतिसुभ नोदिते तं घातेन' निपात्य पुनरनयैव रीत्या द्वितीये तृतीयेऽपि पातिते सति 'कथं समुद्रसामीप्यात् शङ्खबाहुल्यमित्युच्चरन् महासाधनिकशङ्खेनैव तत्सुभटतां श्लाघमानेनाहूतः, कुन्ताग्रेण प्रहरन्, सतुरग एकेनैव प्रहारेण व्यापादितः । तदनु श्रीवस्तुपालेन समराङ्गणप्रणयिना केसरिकिशोरेणेव शङ्खसैन्यं गजयूथमिव त्रासितं दिशो दिशमनेशत् । [ पश्चान्नौवित्तको मारितः सह20 यद इति * । ] तदनु भूणपालमृत्युस्थाने भूणपालेश्वरप्रासादो मन्त्रिणा कारितः । (अत्र P आदर्शे निम्नगता अधिकाः श्लोका लभ्यन्ते - ) 25 १०२ प्रबन्धचिन्तामणिः । [ चतुर्थः २२०. यशोवीर यशोमुक्ताराशेरिन्दुरसौ शिखा । तद्रक्षणाय रक्षायाः श्रीकारो लाञ्छनच्छलात् ॥ २२१. बिन्दवः श्रीयशोवीर शून्यमध्या निरर्थकाः । संख्यावन्तो विधीयन्ते त्वयैकेन पुरस्कृताः ॥ २२२. यशोवीर लिखत्याख्यां यावच्चन्द्रे विधिस्तव । न माति भुवने तावदाद्यमप्यक्षरद्वयम् ।। [१६३] [[न माघः श्लाघ्यते कैश्चिन्नाभिनन्दो न नन्द्यते । निष्कलः कालिदासोऽपि यशोवीरस्य सन्निधौ ॥ [१६४ ] प्रकाश्यते सतां साक्षाद्यशोवीरेण मन्त्रिणा । मुखे दन्तद्युता ब्राह्मी करे श्रीः स्वर्णमुद्रया ॥ [१६५ ] 'अर्जितास्ते गुणास्तेन चाहुमानेन्द्रमत्रिणा । विधेरन्धेश्व नन्दिन्यौ यैरनेन नियन्त्रितौ ॥ [१६६ ] 'लक्ष्मीर्यत्र न वाकू तत्र यत्र ते विनयो नहि । यशोवीर महच्चित्रं सा च सा च स च त्वयि ॥ [१६७] fवस्तुपाल- यशोवीरौ सत्यं वाग्देवतासुतौ । एको दानखभावोऽभूदुभयोरन्यथा कथम् ॥ } ॥ इति श्रीशत्रुञ्जयादितीर्थानां यात्राप्रबन्धः ॥ 30 [१६८] काण्डानां सह कोदण्डगुणैः सन्धिरजायत । तेषां वीरप्रकाण्डानां विग्रहस्तु परस्परम् ॥ [१६९] कर्णे लगद्भिरन्येषामन्येषां जीवितव्ययम् । कुर्वाणैर्विदधे वाणैः स्पष्टं दुर्जनचेष्टितम् ।। [१७०] विहाय शरधिं वेगाच्चापमापुः शिलीमुखाः । चिह्नमेतत्सपक्षाणां विधुरे यत्पुरः स्थितिः ॥ [१७१] वक्षो विक्षिप्य वैपक्षं पत्रिणः परतो गताः । न चिरं निर्गुणैर्लभ्या धीराणां हृद्यवस्थितिः ।। [१७२] मन्त्रीशकरसंसर्गादिव दानार्थमुद्यतः । असिरुत्सृष्टवान् कोशं बद्धमुष्टिरपि क्षणात् ॥ [१७३] वीराणां पाणिपादाब्जैः पूजिते वाहवक्षितिः । दत्तार्थेव च दूर्वा भाकेशमित्रैः शिरः फलैः ॥ १९०) अथान्यस्मिन्नवसरे श्रीसोमेश्वरस्य कवेः काव्यम् - २२३. हंसैर्लब्धप्रशंसैस्तरलिर्तंकमलप्रत्तरङ्गैस्तरङ्गैनीरैरन्तर्गभीरैश्चटुलबककुलग्रासलीनैश्च मीनैः । पालीरूढगुमालीतलसुखशयित स्त्रीप्रणीतैश्च गीतैर्भाति प्रक्रीडदातिस्तव सचिव ! चलच्चक्रवाकस्तटाकः ॥ + एते श्लोकाः P आदर्शे एवोपलभ्यन्ते । 1P • प्रवेशान् । 2 D शत्रु० । 3 A. भउण; D लूण; Da भवणं । 4D नास्ति । 5P कृपाणप्रहारेण । * BP आदशैं नोपलब्धमिदं वाक्यम् । 6P नास्ति; B देवस्य । 7 BP नास्ति । 8P विलुलित० । 9 A दूति; D दूर्मि० । For Private Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः। १०३ इत्यत्र' आतिशब्दपारितोषिके' श्रीमत्रिणा षोडशसहस्रद्रम्माणां दातिः' प्रसादीकृता । कचिचिन्तातुरस्य मत्रिणो भूमि मृगयमाणस्य समागतः सोमेश्वरदेवः समयोचितमिदमपाठीत्२२४. एकस्त्वं भुवनोपकारक इति श्रुत्वा सतां जल्पितं लज्जानम्रशिराः स्थिरातलमिदं यद्वीक्ष्यसे वेधि तत् । वाग्देवीवदनारविन्दतिलकः श्रीवस्तुपालः स्वयं पातालालिमुदिधीर्घरसकृन्मार्ग भवान् मार्गति ॥ मन्त्रिणास्य काव्यस्य पारितोषिकेष्टौ सहस्राणि प्रदत्तानि । तथा__ २२५. त्वचं कर्णः शिबिमांसं जीवं जीमूतवाहनः । ददौ दधीचिरस्थीनि... इति त्रिषु पदेषु पण्डितेष्वधीयमानेषु पण्डितजयदेवः समस्यापदमिव वस्तुपालः पुनर्वसु॥ इत्युच्चरन् सहस्रचतुष्टयं लेभे । तथा सूरीणां दर्शनप्रतिलाभनावसरे केनापि दुर्गतद्विजातिना याचनया तन्नियुक्तेभ्यः कृपया 10 पटीमुपलभ्य मन्त्रिणं प्रति समयोचितमित्यूचे२२६. क्वचित्तूलं क्वचित्सूत्रं कार्पासास्थि क्वचित्क्वचित् । देव ! त्वदरिनारीणां कुटीतुल्या पटी मम ॥ एतत्पारितोषिके मन्त्रिणा दत्तानि पञ्चदशशतानि । तथा बालचन्द्रनाम्ना पण्डितेन श्रीमत्रिणं प्रति२२७. गौरी रागवती त्वयि त्वयि वृषो बद्धादरस्त्वं युतो भूत्या त्वंच लसद्गुणः शुभगणः किं वा बहु महे। 15 श्रीमत्रीश्वर ! नूनमीश्वरकलायुक्तस ते युज्यते बालेन्दुश्चिरमुच्चकै रचयितुं त्वत्तोऽपरः कः प्रभुः॥ इत्युक्ते तस्याचार्यपदस्थापनायां द्रम्मसहस्रचतुष्टयं व्ययीकृतम् । १९१) कदाचिम्लेच्छपतेः सुरताणस्य गुरुं मालिमं मखतीर्थयात्राकृते इह समागतमवगम्य तजिघृक्षुभ्यां श्रीलवणप्रसाद-वीरधवलाभ्यां श्रीतेजःपालमन्त्री मन्त्रं पृष्ट एवमाख्यातवान २२८. धर्मच्छद्मप्रयोगेण या सिद्धिर्वसुधाभुजाम् । स्वमातृदेहपण्येन तदिदं द्रविणार्जनम् ॥ 20 इति नीतिशास्त्रोपदेशेन तयोवृकयोरिव छागमुन्मोच्य पाथेयादिना सत्कृत्य च तं तीर्थ प्रहितवान् । स च कियद्भिर्वषैः पश्चाव्यावृत्तः श्रीमन्त्रिणा तदुचितनेपथ्यादिभिः सत्कृतः स स्वस्थान प्राप्तस्तीर्थगुणानां विस्मरन् श्रीसुरताणपुरतः श्रीवस्तुपालमेव वर्णयामास । स सुरताणस्तदनन्तरम्-'अस्माकं देशे भवानेवाध्यक्षोऽहं तु भवतः सेलभृत्, तत्त्वयाहं यत्कृत्यादेशेनैव सर्वदानुग्राह्य' इति प्रतिवर्ष तत्महितयमलकपत्रेणोपरुध्यमानः श्रीमन्त्रीशः श्रीशत्रुञ्जयभूमिगृह-25 योग्यं श्रीयुगादिजिनबिम्बं धन्यंमन्यमानस्य सुरताणस्यानुज्ञया तद्देशवर्तिन्या मैम्माणीनान्याः खन्याः प्रयत्नशतैरानीतवान् । तस्मिन्नारोहति श्रीमूलनायकस्यामर्षात्पर्वते विद्युत्पातः समजनि । ततः प्रभृति श्रीमन्त्रीश्वरस्याजीवितान्तं श्रीदेवपादैर्दर्शनं न ददे। १९२) कस्मिंश्चित्पर्वणि श्रीमदनुपमया निरुपमे मुनीनामन्नदाने यदृच्छया दीयमाने कायौत्सुक्यात्तदागतः श्रीवीरधवलदेवः सिताम्बरदर्शनेन" द्वारप्रदेशं पाणिन्धममालोक्य विस्मयमेरमा-30 . 1P आदरों एवेदं पदं लभ्यते। 2 A अति०, D नास्ति। 3 एतत्पदमपि D नास्ति । 4 BP षोडशसहस्राः। 5D दत्तिः, BP नास्ति । 6 ABD अपाठीत्-तद्यथा। 7 Pधरा। 87 ध्रुवं । 9P प्रस्तावे। 10 D 'चतुष्टयं नास्ति । 11 D सुरताण । 12P मंख। 13 Pइदमूचे। 14 Dod दिनैः 15 A मुम्मण; B मुन्माणी मुम्माणी। 16 ABD 'अर्थ' स्थाने 'मपि। 17DOदर्शनिन । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ चतुर्थः नासो मन्त्रिणमभिहितवान्-'हे मनिन् ! इत्थं सदैवाभिमतदैवतवत् किममी न सक्रियन्ते । तव चेदशक्तिस्तदर्द्धविभागो ममास्तु । मामकमेव सर्वं वा दीयतां सदैवेत्यतः कारणान्नोच्यते। तथा कृते भवतो वृथायास एव स्यादिति तन्मुखचन्द्रविनिर्गतैर्गोभिर्निर्वाणोपतापः'स्वामिनः कियानविभागः, सर्वमेव भवदीयमेवे'त्युक्त्वा पटी न्युञ्छनीचक्रे । 5 १९३) अन्यदा यतिदानावसरे मियो मुनिजनसम्मत् श्रीमदनुपमायाः प्रणमत्याः प्राज्या ज्यपूर्ण घृतपानं पृष्ठे पतितमालोक्य कुपितं तेजःपालमत्रिणमिति सान्त्वितवती 'यत्तव स्वामिनः प्रासादान्मुनिजनपुण्यपात्रपतितैराज्यैरङ्गेऽभ्यङ्गो भवतीति तत्पूर्णदान विधिचमत्कृतो मश्री पञ्चाङ्गप्रसादपूर्वम् २२९. दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्व क्षमान्वितं शौर्यम् । त्यागसहितं च वित्तं दुर्लभमेतच्चतुर्भद्रम् ॥ 10 इति युक्तोक्तिपूर्वं च तां मन्त्री प्रशशंस । इत्यनेकधा दानावदातनिकषरेखां प्राप्तां२३०. लक्ष्मीश्चला शिवा चण्डी शची सापत्यदूषिता । गङ्गा न्यग्गामिनी वाणी वाक्साराऽनुपमा ततः॥ इत्यादिभिः स्तुतिभिजैनाचार्यैः स्तूयते स्म । १९४) अथान्यदा पश्चग्रामसङ्ग्रामाधिरूढयोः श्रीवीरधवल-लवणप्रसादयोः श्रीवीरधवलपत्नी राज्ञी जयतलदेवी सन्धिविधानहेतवे जनकं प्रतीहार' श्रीशोभनदेवमुपागता । 'किं वैधव्याधीरुः 15 सन्धिबन्धं कारयसि?' इति तेनाभिहिता । वीरचूडामणेः पत्युःश्रीवीरधवलस्योन्नतिमारोपयन्ती सा'पितृकुलविनाशशङ्कया भूयो भूयोऽहमेवं व्याहरामि। तुरगपृष्ठाधिरूढे तस्मिन्वीरे स कोऽस्ति सुभटो यस्तत्सन्मुखे स्थास्यतीति व्याहृत्य सा सामर्षेव प्रतस्थे। अथ तस्मिन्समरसंरम्भे प्रहारव्यथाव्याकुले श्रीवीरधवले भुवस्तलमलंकुर्वति* किञ्चिदन्तर्भग्ने समग्रसुभटवर्गे 'एक एवायं पत्तिः पतित' इति सकलं निजबलमुत्साहयन् श्रीलवणप्रसादः समस्तानपि रिपून् लीलयैव समूलकाषं 20 कषितवान् । इत्थमेकविंशतिकृत्वः सत्त्वगुणरोचिष्णू रणरसिकतया क्षेत्रे पितुरने पतितः। २३१. यः पश्चग्रामसङ्ग्रामभूमौ भीमपराक्रमः । घातैः पपात सञ्जातैरश्वतो न तु गर्वतः॥ १९५) श्रीवीरधवलस्यायुःपर्यन्ते प्रतितीर्थ प्रस्थितस्य दत्तमेकधा सहस्रगुणमुपलभ्यत इति रूढेः श्रीतेजःपालेन जन्मसुकृतं ददे। तदनु तस्मिन् खामिनि विपन्ने तत्सौभाग्यातिशयात्सेवकानां विंशत्यधिकशतेन सहगमनं चक्रे । तदनु श्रीतेजापालेन प्रेतवने यामिकान्मुक्त्वा लोकस्य 25 स निर्बन्धो निषिद्धः।। २३२. आयान्ति यान्ति च परे ऋतवः क्रमेणः सञ्जातमेतदृतुयुग्ममगत्वरं तु । वीरेण वीरधवलेन विना जनानां वर्षा विलोचनयुगे हृदये निदाघः ॥ १९६) अथ श्रीमत्रिणा वीरधवलस्य सुतो" वीसलदेवो राज्येऽभिषिक्तः। श्रीअनुपमदेव्या विपत्तौ तेजःपालस्य आरूढे पॅन्थावनिवर्तमाने तत्रागतैर्भट्टा० श्रीविजयसेनसूरिभिर्बलवत्पुरुषै30 रुपशमितायां विपदि किश्चिचेतनया सापत्रपः श्रीतेजःपालः सूरिणोचे-'वयमस्मिन्नवसरे भवतः 1P'मम' इत्येव । 2 P नास्ति 'सर्व वा'। 3 P भवतां वृथा प्रयासः। 4 P इत्युदीर्य। 5 P चकार । 6 D सम्मर्दने । 7 PD प्रति; B प्रती। 8 AD वीरधवले। * ABD आदर्श एतत्पदाने एव 'यः पञ्चग्रामः' इति श्लोको लिखितो लभ्यते । 9D प्रस्थितेन। 10 11 एतत्पदद्वयं BP नास्ति । 12 D तेजःपाला रूढशोकग्रन्थावनि। 13 D विहाय 'सूरिणा' नास्ति । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः । १०५ कैतवमालोकयितुमुपेताः।' श्रीवस्तुपालेन किमेतदिति पृष्टे गुरवः प्राहुः-'यदस्माभिः शिशोस्तेजःपालस्योपयामाय धरणिगपादिनुपमा कन्या याचिता तदा स्थिरपत्रदानादनु तस्याः कन्याया एकान्ते विरूपतां निशम्य तत्सम्बन्धभङ्गाय चन्द्रप्रभभिडैप्रतिष्ठितक्षेत्राधिपतेरष्टौ द्रम्माणां भोगमप्युपयाचिती'चक्रे । इदानीं तद्वियोगे ग्रन्थेरामनस्यमित्युभयोवृत्तान्तयोः कस्तथ्यः ?' इति तन्मूलसङ्केताच्छ्रीतेजःपालः खहृदयं दृढीचक्रे । 5 ___ १९७) अथान्यदावसरे मन्त्री वस्तुपालः पूर्णायुः श्रीशत्रुञ्जयं यियासुरिति मत्वा पुरोधाः सोमेश्वरदेवस्तत्रागतोऽनर्धेष्वासनेषु मुच्यमानेष्वऽनुपविशन हेतुं पृष्ट इत्याह २३३. अन्नदानैः पयःपानधर्मस्थानैर्धरातलम्' । यशसा वस्तुपालखं रुद्धमाकाशमण्डलम् ॥ इति स्थानाभावान्नोपविश्यते इति तदुक्तेरुचितपारितोषिकदानपूर्व तमापृच्छय मन्त्री पथि प्रस्थितः। आकेवालीयाग्रामे देश्यकुड्यां दर्भसंस्तरमारूढो गुरुभिराराधनां कार्यमाण आहारप-10 रिहारपूर्वं पर्यन्ताराधनया प्रध्वंसितकलिमलो युगादिदेवमेव जपन् २३४. सुकृतं न कृतं किञ्चित्सतां संस्मरणोचितम् । मनोरथैकसाराणामेवमेव गतं वयः॥ इति वाक्यप्रान्ते नमोऽहयो नमोऽर्हद्भ्य इत्यक्षरैः समं परिहृतसप्तधातुबद्धशरीरः" खकृतकृतोपमसुकृतफलमुपभोक्तुं स्वर्लोकमलंचकार । तत्संस्कारस्थानेऽनुजश्रीतेजःपाल-सुतजैनसिंहाभ्यां श्रीयुगादिदेवदीक्षावस्थामूर्तिनालंकृतः खर्गारोहणप्रासादोऽकारि । २३५. अद्य मे फलवती पितुराशा मातुराशिषि" शिखाकरिताऽद्य । ययुगादिजिनयात्रिकलोकं प्रीणयाम्यहमशेषमखिन्नः ॥ २३६. नृपव्यापारपापेभ्यः सुकृतं स्वीकृतं न यैः । तान् धूलिधावकेभ्योऽपि मन्येऽधमतरानरान् ॥ इत्यादीनि श्रीवस्तुपालमहाकवेः काव्यानि स्वयं कृतान्यमूनि । २३७. पूर्णः स्वामिगुणैः स वीरधवलो निःसीम एव प्रभुर्विद्वद्भिः कृतभोजराजविरुदः श्रीवस्तुपालः कविः। 20 तेजःपाल इति प्रधाननिवहेष्वेकश्च मत्रीश्वरस्तजायानुपमा गुणैरनुपमा प्रत्यक्षलक्ष्मीरभूत् ॥ ॥ इति श्रीमेरुतुङ्गाचार्यविरचिते" प्रबन्धचिन्तामणौ श्रीकुमारपाल-भूपालप्रमुखमश्रीश्वरवस्तुपाल तेजःपालपर्यन्तमहापुरुषयशोवर्णनो* नाम चतुर्थः प्रकाशः ॥ ग्रंथानं ८२४ ॥ 15 - - 1 AD आलोकितु०। 2 D स्थिरता कृता तदनु। 3D 'मिड' स्थाने 'जिन'। 4 P 'भोग' नास्ति। 5A अपि माचिती; D उपायनी। 6P अनय॑वृद्धासनेषु मण्डयमानेषु । 7A च भूतलं। 8 AD पालेन। 9 P नास्ति । 10P इके। 11 P निरस्ता। 12 P धातुमयः। 13 D शरीरं। 14 P 'स्वकृतफल०' इत्येव। 15 P पदे। 16 AD भाशिषः। 17 P मूढतरान्; B अधमतमान् । 18 D निर्मान। 19 P.चार्याविःकृते। * D श्रीकुमारपालमंत्रीश्वरवस्तुपालतेजःपालमहापुरुषवर्णनो । + A B ८०४ । 14 Jain Education Interational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पश्चमः प्रबन्धचिन्तामणिः । . [११. प्रकीर्णकप्रबन्धः ।। अथ पूर्वोक्तेभ्यो महापुरुषचरितेभ्यो यान्यवशिष्टानि तानि, तदितराणि चेह प्रकीर्णकप्रकाशे' प्रारभ्यन्ते । तद्यथा १९८) समीपस्फुरच्छिप्रास्रवन्त्यामवन्त्यां पुरि पुरा श्रीविक्रमार्कनृपः खसत्रागारे वैदेशिक 5 लोकं भोजनानन्तरं निद्रापरं सम्पन्नदीर्घनिद्रमाकर्ण्य विस्मयस्मेरमानसस्तद्वृत्तान्तं जिज्ञासुस्तान् सर्वानपि वसनपिहितान्विधाप्य तद्वार्ता चापन्हुतां निजाज्ञया विधाय पुनरुपागतानध्वगांस्तथैव भोजयित्वा प्रदोषे चोष्णोदकं तैलं च तेषां चरणपरिचारणानिमित्तमुपनीय तेषु तेषु प्रसुप्तेषु महानिशायां कृपाणपाणिपतिर्निभृतीभूय स्वयं यावत्तत्र तस्थौ तावदकस्मात्तत्र कोणैकदेशे प्रथमं धूमोद्गमं तदनु शिखारेखामथ दीप्रफणारत्नप्रभालंकृतं सहस्रफणं नागं निर्गतमवलोक्य 10 तचित्रचमत्कृतो राजा यावत्साकूतं पश्यति तावत्स फणीन्द्रः किं पात्रमिति तद्दिनसुप्तान पान्थान् प्रत्येक पप्रच्छ । अथ ते धर्मपात्रं गुणपात्रं तपःपात्रं रूपपात्रं कामपात्रं कीर्तिपात्रमित्यादीनि वदन्तोऽज्ञानतया यदृच्छया तस्य शापान्मृत्युमामुवन्तीति विलोक्य, अथ श्रीविक्रम एव तत्पुरोभूय योजिताञ्जलिः २३८. भोगीन्द्र ! बहुधा पात्रं गुणयोगाद्भवेद्भुवि । मनःपात्रं तु परमं शुद्धश्रद्धापवित्रितम् ॥ 15 इति स' निजाशयमेव भाषमाणं श्रीविक्रम परितोषाद् 'वरं वृणु त्वम्' इति प्राह । अथ श्रीविक्रमोऽमून पथिकानुज्जीवयेति तेन वरे याचिते स विशेषं विशेषात्परितोषयामास । ॥ इति श्रीविक्रमस्य पात्रपरीक्षाप्रबन्धः॥ १९९) अथ कदाचित्पाटलीपुत्रपत्तनेऽकस्मादमन्दानन्दे नन्दे राज्ञि पञ्चत्वमागते कश्चिद्विप्रस्त. त्कालं तत्रागतः परपुरप्रवेशविद्यया नृपदेहमधितस्थौ । तत्सङ्केततो द्वितीयो द्विजो नृपद्धारमु20 पेत्य वेदोद्गारमुदाहरन्प्रत्युज्जीवितो नृपः कोशाध्यक्षस्तस्मै स्वर्णलक्षमदापयत् । अथ तवृत्तान्तं विज्ञाय महामात्यः 'नन्दः पुरा कदर्योऽभूत् साम्प्रतंतु तदौदार्य विचार्यमिति वदंस्तं विप्र विधृत्य परकायप्रवेशकारिणं वैदेशिकं सर्वत्र शोधयन् कापि मृतक केनापि परिरक्ष्यमाणमाकर्ण्य चिताप्रवेशाद्भस्मीकृत्य पूर्वमेव नन्दं निरुपममतिवैभवान्निजप्राज्ये साम्राज्ये निर्वाहयामास । ॥ इति नन्दप्रबन्धः॥ 25 २००) अथ खेडामहास्थाने देवादित्य विप्रपुत्री बालकालविधवा अतिरूपपात्रं सुभगाभिधाना "प्रातः सूर्य प्रत्यर्घाञ्जलिं क्षिपन्ती अज्ञाततयोगागोगादाधानमभूत् । अथ कथंचित्तदसमञ्जसं पितृभ्यामवबुध्य मन्दाक्षमन्दाक्षरमुद्रया असमञ्जसमिति तां प्रति किञ्चिद् व्याहृत्य सा खपुरुषै- 1 AD प्रबन्धे। 2P क्षितिपः। 3D 'स्व' नास्ति । 4 D'प्रभा' स्थाने 'फणा'। 5 B दीप्रफणालंकृतं । 6 D सहस्रफणालंकृतसहस्रफणं । 7 P नास्ति । 8 BP प्रतिपुरुषं। 9 D अथ। 10 AD 'त्वं' नास्ति । 11 D .पुरपत्तने । 12 P विप्रः। 13 P कोशाध्यक्षात् । 14 P विना 'विचार्य' नास्ति । 15 AD परि' नास्ति । 16 A पूर्वनन्द; D पूर्वमिव वं नन्दं । 17 AD खेड। 18 P अतिशय०; D निरुपम । 19 D प्रधाना प्रातः। 20 P रचयन्ती। 21 BP अधात् । 22 B विना 'अथ' नास्ति । 23D मन्दाक्षमुद्रमिति । 24 AD तद। .. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] प्रकीर्णकप्रबन्धः । १०७ चलभ्या नगर्या अभ्यासे मुमुचे । तया तत्र प्रसूतः सूनुः क्रमेण वर्द्धमानः सवयोभिः शिशुभिः निःपितृक इति निर्भय॑मानो मातुः समीपे पितरं पृच्छन् तया न जाने इत्यभिहितः। तज्जन्मवैराग्यान्मुमूर्षोः' प्रत्यक्षीभूय सविता सान्त्वनापूर्व करे कर्करं समर्प्य, भवन्मातुः सम्पर्ककारिणमर्क खं ज्ञापयन् “भवतः पराभवकारिणं प्रत्यऽयं क्षिप्तः शिलारूपो भविष्यती'त्यादिश्य निरपराधस्य कस्यापि क्षिप्तो यदि तवैवाऽनर्थनिबन्धनं ज्ञापयंस्तिरोधत्त । अत्थेत्थमभिभवकारिणः5 कांश्चिद् व्यापादयन् शिलादित्य इति सान्वयनाम्ना प्रतीतः । तन्नगरराज्ञा तत्परीक्षायै तथाकृते तमिलापालं शिलया तया कालधर्ममवाप्य स्वयमेव भूपतिरभृत् । सदा सवितृप्रसादी कृते हयेऽधिरूढो नभश्चर इव खैरविहारी पराक्रमाक्रान्तदिग्वलयश्चिरं राज्यं कुर्वन् जैनमुनिसंसर्गात्मादुर्भूतप्रभूतसम्यक्त्वरत्नः श्रीशत्रुञ्जयस्य महातीर्थस्यामानमहिमानमवगम्य जीर्णोद्धारं चकार । - २०१) कदाचिच्छिलादित्यं सभापतीकृत्य चतुरङ्गसभायां पराजितेन देशत्यागिनों भाव्यमिति 10 पणबन्धपूर्व सिताम्बर-सौगतयोर्वादे सञ्जायमाने पराजितान् सिताम्बरान् स्वविषयात्सर्वान् निर्वास्य श्रीशिलादित्यजामेयममेयगुणं मल्लनामानं क्षुल्लकं तत्र तस्थिवांसं समुपेक्ष्य खयं जितकाशिनः श्रीविमलगिरी श्रीमूलनायकं श्रीयुगादिदेवं बुद्धरूपेण पूजयन्तो बौद्धा यावद्विजयिनस्तिष्ठन्ति; तावत्स मल्लः क्षत्रकुलोद्भवत्वात्तस्य वैरस्थाविस्मरन् कृतप्रचिकीजैनदर्शनाभावात्तेषामेव सन्निधावधीयन् रात्रिन्दिवं तल्लीनचित्तः कदाचिद्भीष्मग्रीष्मवासरेषु निशीथकाले निद्रामुद्रित-15 लोचने समस्तनागरिकलोके दिवाभ्यस्तं शास्त्रं महताभियोगेनानुस्मरन् , तत्कालं गगने सञ्चरत्या श्रीभारत्या 'के मिष्टाः?' इति शब्दं पृष्टः। स परितो वक्तारमनवलोक्य 'वल्ला' इति तां प्रति प्रतिवचनं प्रतिपाद्य, पुनः षण्मासान्ते तस्मिन्नेवावसरे प्रत्यावृत्तया वाग्देवतया 'केन सह ?' इति भूयोभिहितः। तदा त्वनुस्मृतपूर्ववाक् 'गुडघृतेन' इति प्रत्युत्तरं ददानः तदवधान विधानंचमत्कृतया 'अभिमतं वरं वृणीष्व' इत्यादिष्टः 'सौगतपराजयाय कमपि प्रमाणग्रन्थं प्रसादीकुरु' इत्यर्थम-20 भ्यर्थयन् , नयचक्रग्रन्थार्पणेनानुजगृहे । अथ भारतीप्रसादादेवागततत्त्वः श्रीशिलादित्यमनुज्ञाप्य सौगतमठेषु तृणोदकप्रक्षेपपूर्वं नृपतिसभायां पूर्वोदितपणबन्धपूर्वकं कण्ठपीठावतीर्णश्रीवाग्देवताबलेन श्रीमल्लस्तांस्तरसैव निरुत्तरीचकार । अथ राजाज्ञया सौगतेषु देशान्तरं “गतेषु जैनाचार्येष्वाहूतेषु स मल्लो बौद्धेषु जितेषु 'वादी'; तदनु भूपाभ्यर्थितैर्गुरुभिः पारितोषिके तस्मै सूरिपदं ददे" श्रीमल्लवादिसूरिनामा। गणभृत्प्रभावकतया नवाङ्गवृत्तिकारकश्रीअभयदेवसूरि प्रकटी-25 कृतस्य श्रीस्तम्भनकतीर्थस्य विशेषोन्नत्यै श्रीसङ्घन चिन्तायकत्वे नियोजितः। . ॥ इति मल्लवादिप्रबन्धः॥ २०२) अथ मरुमण्डले पल्लीग्रामे काकू-पाताको भ्रातरौ निवसतः।तयोः कनीयान्धनवान् ज्यायांस्तु तद्गृहभृत्यवृत्त्या वर्तते । कस्मिंश्चिनिशीथसमये दिवसकर्मवृत्तिश्रान्तःप्रावृट्काले काकूयाका प्रसुप्तः कनीयसाऽभिदधे-'भ्रातः स्वकीयाः केदाराः पयःपूरैः स्फुटितसेतवस्तव तु निश्चिन्तता' 30 1 BP वैराग्यान्मूर्षों मुमूर्षः। 2 D कर्करान्। 3 P तु; B नास्ति । 4 BP नास्ति । 5 तिरोदधे। 6P बभूव । 7 D तथा स। 8 P दिक्चक्रः। 9 AD 'प्रभूत' नास्ति । 10 PDe देशताडितेन। 11AD स्थितं। 12 P एव च पासरे। 13 A.D देण्या। 14 D 'विधान' नास्ति । 15 AD देवी। 16 AD देशाद्गतेषु। 17 A चके। 18 AD सूरिमिः। 19 P जीवति । 20 D काकूः । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ पञ्चमः इत्युपालब्धः। स तदात्वत्यक्तस्रस्तरः खं निन्दन कुद्दालं स्कन्धे निवेश्य यावत्तत्र याति तावत्कर्मकरान् स्फुटितसेतुवन्धरचनापरान समालोक्य 'के यूयम् ?' इति पृष्टाः 'भवद्भातुः कामुकाः' इति तैरभिहिते 'कापि मदीयाः कामुकाः सन्ति ?' इति पृष्टे 'वलभ्यां सन्ती'ति ते प्राहुः। अथ सोऽप्यवसरे' सर्वखं पिठरे आरोग्य तं मूनी दधानः श्रीवलभीमवाप्य गोपुरसमीपवर्तिनामाभीराणां 5 सन्निधौ निवसन अत्यन्तकृशतया तै रङ्क इति दत्ताभिधानस्तार्णमुटजं विधाय तदवष्टम्भेन यावत्तस्थौ तावत्कश्चित्कार्पटिकःकल्पपुस्तकप्रेमाणेन रैवतकशैलादलाबुना सिद्धरसमादाय मागेमतिक्रामन् काकूर्यतुम्बडीति सिद्धरसाद॑शरीरिणीं वाणीमाकर्ण्य विस्मयस्मेरमना जातभीवलभीपरिसरे तस्य सच्छद्मनो वणिजः सद्मनिरङ्क इति तन्नाम निःशकतया तत सरसमलाब तत्रोपनिधीचक्रे । स स्वयं श्रीसोमेश्वरयात्रायां गतः। कस्मिन्नपि पर्वणि पाकविशेषाय चुल्लीनियोजितायां 10 तापिकायामलाबुरन्ध्राद्गलितरसविन्दुना हिरण्मयीं तां निभाल्य स वणिग् तं सिद्धरसं चेतसा निर्णीय तदलावुसहितं गृहसर्वस्वमन्यत्र नियोज्य खं गृहं प्रदीपनेन' भस्मीकृत्य परस्मिन् पुरगोपुरे सौधं निर्माप्य तत्र निवसन् , कदाचित्प्राज्याज्यविक्रयकारिण्याः स खयं घृतं तोलयंस्तदक्षीणं निरीक्ष्य घृतपानाधः कृष्णचित्रककुण्डलिकां विमृश्य केनापि कैतवेन तद्व्यत्ययादप हृत्य चित्रकसिद्धिं स्वीचकार । कदाचित्तस्यागण्यपुण्यवैभववशात्सुवर्णपुरुषसिद्धिरजायत । इत्थं 15 त्रिविधसिद्ध्या कोटिसंख्यानि" धनानि संगृह्यापि कदर्यवर्यतया कापि सत्पात्रे तीर्थ वानुकम्पया वा तस्याः श्रियो न्यासो दूरे तिष्ठतु, प्रत्युत सकललोकसंजिहीर्षया तां लक्ष्मी सकलस्यापि विश्वस्य कालरात्रिरूपामदर्शयत् । २०३) अथ वसुताया रत्नखचितकाञ्चनकङ्कतिकायां राज्ञा स्वसुतायाः कृते प्रसभमपहृतायां तद्विरोधानुरोधात्स्वयं तत्र म्लेच्छमण्डले गत्वा वलभीभङ्गाय तद्याचिताः काञ्चनकोटीस्तस्य 20 नृपकोटीरस्य समय प्रयाणमचीकरत् । तदनुपकृतस्तु एकः" छत्रधरो निशाशेषे सुप्तजाग्रदवस्थेऽवनीपतौ" पूर्वसङ्केतितेन केनापि पुंसा सममित्यालापमकरोत्-'अस्मत्स्वामिनां मन्त्रे" मूषकोऽपि नहि । यदयमश्वपतिर्महीमहेन्द्रः केनाप्यज्ञातकुलशीलेनासाधुना साधुना वापि वणिजा नामकर्मभ्यां रण प्रेरितः सूर्यपुत्रं' शिलादित्यं प्रति यश्चचाले ति पथ्यां तथ्यां तद्वाचमाकर्ण्य किञ्चिचेतसि विचिन्तयन् तस्मिन्नहनि नृपः प्रयाणकविलम्बमकरोत् । अथ 25 रङ्कः साशङ्कस्तद्वृत्तान्तं निपुणवृत्त्यावगम्य काश्चनदानेन तस्य काश्चनतृप्तिमासूत्र्य पुनः परस्मिन्प्रत्यूषे विचार्याविचार्य वा कृतप्रयाणोऽयं महानरेन्द्रश्चलितः। 'सिंहस्यैकपदं यथेति न्यायाचलित एव राजते । यतः २३९. मृगेन्द्रं वा मृगारिं वा हरि व्याहरतां जनः । तस्य चोभयथा ब्रीडा लीलादलितदन्तिनः ॥ इत्यस्य स्वामिनो निःसीमपराक्रमस्य सन्मुखे कः स्थास्यतीति तद्राि प्रोत्साहवान् म्ले30 च्छपतिर्भेरीनिनादबधिरितरोदाकन्दरं प्रयाणमकरोत् । इतश्च तस्मिन्नवसरे" वलभ्यां श्रीचन्द्र 1P'sप्यवसरे' नास्ति । 2 D समीपेऽवसत्। 3 P दत्तसङ्केतः। 4 P 'पुस्तक' नास्ति । 5P काकूया। 6D 'सिद्धरसात्' नास्ति। 7D प्रदीपकेन । 8 AD गोपुरे। 9AD अक्षयं। 10 P विचार्य। 11 D संख्याभिधानानि । 12 D 'काञ्चन' नास्ति । 13 AD नास्ति। 14 'तस्य नृपकोटीरस्य' स्थाने D 'अस्मै'। 15 AB एकच्छत्रधरो। 16 P पृथिवीपतौ। 17 P मन्त्री। 18 AD मूर्खः कोऽपि। 19 P सूर्यात्मजं । 20 P सातङ्कः। 21 P नास्ति । 22 P हंसिं। 23 AD द्वयमपि। 24 P क्रीडा-। 25 D वासरे। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] प्रकीर्णकप्रबन्धः। प्रभबिम्बमम्बाक्षेत्रपालाभ्यां सहितमधिष्ठातृबलाद्गगनमार्गेण शिवपत्तनभुवि भूषणीवभूव । रथाधिरूढा अप्रतिमा श्रीवर्द्धमानप्रतिमा चादृष्टवृत्त्याधिष्ठातृबलेन सञ्चरन्ती पथि आश्विनीपूर्णिमास्यां श्रीमालपुरमलंचकार । अन्या अपि सातिशया देवमूर्तयो यथोचितं भूभागमलंचक्रुः। तत्पूर्देवतया च श्रीवर्द्धमानसूरीणां चोत्पातज्ञापनावसरे २४०. का त्वं सुन्दरि जल्प देविसदृशे ! किं कारणं रोदिषि ?, भङ्ग श्रीवलभीपुरस्य भगवन् ! पश्याम्ययं प्रत्ययः । भिक्षायां रुधिरं भविष्यति पयो लब्धं भवत्साधुभिः स्थातव्यं मुनिभिस्तदेव रुधिरं यस्मिन्पयो जायते ॥ एवमुत्पातेषु सञ्जायमानेषु पुरीपरिसरं प्राप्तेषु म्लेच्छसैन्येषु देशभङ्गसमासादितपङ्केन रङ्केन पञ्चशब्दवादकान् कनकवितरणैर्बहुधा विभेद्य तस्य यस्यारोहणकाल एव तैः क्रियमाणे 10 प्रतिशब्दसांराविणे तार्थ्यवदुड्डीय तस्मिंस्ताक्ष्ये दिवमुत्पतति, किंकर्त्तव्यतामूढः स शिलादित्यस्तैर्निजन्ने । तदनु तैलीलयैव वलभीभङ्गः सूत्रितः। २४१. पणसयरीवाससयं तिन्निसयाई अइक्कमेऊण । विक्कमकालाउ तओ वलहीभङ्गो समुप्पन्नो ॥ ॥ इति श्रीशिलादित्यराज्ञ उत्पत्तिस्तथा रङ्कोत्पत्तिस्तत्कृतो वलभीभङ्गश्चेति प्रबन्धत्रयम् ॥ २०४) अथ श्रीरत्नमालनगरे श्रीरत्नशेखरो नाम राजा । स कदाचिदिग्यात्राप्रत्यावृत्तः पुरप्र-15 वेशमहोत्सवे विपणिश्रेणिं शृङ्गारितां मृगयमाणः कस्मिन्नपि हवे काष्ठपात्रीयुतं कुद्दालमालोक्य सौधप्रवेशानन्तरं प्राभृतपाणौ महाजने समायाते 'सुखिनो यूयम् ?' इति नृपालापानन्तरं तैः 'न सुखिनो वयमिति विज्ञप्ते विभ्रमभ्रान्तचित्तस्तान् विसृज्य कस्मिन्नपि नियंञ्जनावसरे पुरप्रधानानाहय 'किं न सुखिनो यूयम् ?' इति पृष्टाः ।अपि च काष्ठपात्रीयुतकुद्दालस्योर्वीकरणकारणमनुयुक्तास्ते इति विज्ञपयामासुः-'यत्र खामिना काष्ठपात्र्यादिकमवधारितं,"स वित्तेश्वरः स्ववित्त-20 संख्यामजानन् काष्ठपात्रिकयैव" खवित्तसङ्कलनां ज्ञापयितुं सङ्केतं चक्रे तथा च न सुखिनो वयमिति स्वामिनः सन्तानाभावात् । कोटीध्वजकुलाकुलं नगरमिदं स्वामिना चिरकाललालितमन्वयाभावात्केन परां कोटी नीयत ?' इति पुरातनस्यान्तःपुरस्य वन्ध्यात्वं बुद्ध्या निधाय नृपवंशवृद्धये नौतनमन्तःपुरं चिकीर्षवः स्वामिनोऽनुमत्या पुष्यार्कदिने" केनापि प्रधानशाकुनिकेन समं शकुनागारं प्राप्ताः । कामपि दुर्गतनितम्बिनीमासन्नप्रसवां काष्ठभारवाहनैकवृत्तिं शिरोधिरूढदु-25 र्गामालोक्य शकुनवित् तामक्षतादिभिरभ्यर्चयन् , तैः किमेतदिति पृष्टः प्राह-'यः कश्चिदस्या आधाने पुत्रः स एवात्र नृपो भावी, चेबृहस्पतिमतंप्रमाणमि'त्यसम्भाव्यं वृत्तान्तममुममन्यमानाः मानोन्नताय" नृपाय व्याघुट्य यथावस्थितं तत्स्वरूपं निवेदितवन्तः । अथ खेदमेदुरमना नृप आप्तपुरुषैस्तां ग पूरीका प्रारभ्यमाणामिष्टं दैवतं स्मरेत्यभिहिते सा मरणभयव्याकुला प्रदोषकाले यावत्ताननुज्ञाप्य शङ्काभङ्गं कुरुते तावत्सा प्रसूतं पुत्रं तत्र परित्यज्य पुनरुपागता गर्ता-30 1D नास्ति। 2 P वीरप्रतिमा। 3P भूमिः। 4 AD म्यहं । 5 D प्रत्ययं । 6 D भवेत् । 7 P तुरगस्य । 8P'वाससय स्थाने 'वासाई'; तथा 'तिण्णिसयाई तिष्णिसयाई' इति द्वित्वम् । * अस्याः पंक्याः स्थाने P आदर्श ॥ इति शिलादित्यप्रबन्धः ॥' एतावत्येव पंक्तिः। 9 D 'चित्त' नास्ति । 10 D तावद् । 11 D निर्जना। 12 D पृष्टे। 13 D पाच्यामेकमेवमवधारित। 14 DOपात्रिकैः। 15 P वासरे। 16 P मानोन्नतये नृपतये। Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिः | ११० [ पञ्चमः पूरीकृत्य पुनरपि राज्ञे विज्ञपयांचक्रुः । अथ काचिन्मृगी सन्ध्यादयेऽपि पयःपानं कारयन्ती तमनुदिनं वृद्धिमन्तं कारयामास । तस्मिन्नवसरे देव्या महालक्ष्म्याः पुरतष्टङ्कशालायां हरिण्याश्चतुर्णां पादानामधः शिशुरूपं नाणकं नूतनं सञ्जायमानमाकर्ण्य कचिन्नवीनो नृप उत्पन्न इति प्रसृतया वार्त्तया श्रीरत्नशेखरः सैन्यानि प्रतिदिशं तं शिशुं विशसितुं प्राहिणोत् । तैर्यत्नादेवलोक्य लब्धो5ऽपि बालहत्याभीतैः स सायं पुरगोपुरे गोकुलखुररवैर्यथार्य बालो विपन्नः सन् खयमपवादाय न भवतीति दूरस्थैर्यावन्मुक्तस्तावत्तत्रायातं गोकुलं तं मूर्त्तिमन्तं पुण्यपुञ्जमिव बालमालोक्य तैरेव पदैः स्तम्भितमिव तस्थौ । अथ पाश्चात्यपक्षात्पुरो भूय वृषभो वृषभासुरं तं शिशुं पदानामन्तराले निधाय गोधनं सकलमपि प्रेरयामास । अथ तं वृत्तान्तं नृपोऽवधार्य तैः सामन्तनगलोकैस्तं बालमानीय पुत्रीयमाणः श्रीपुञ्ज इति दत्ताभिधानः प्रवर्द्धयामास । 10 २०५) अथ श्रीरत्नशेखरे राज्ञि दिवं गते तस्य राज्ञः कृताभिषेकस्य साम्राज्यं पालयतः पुत्री समजनि । सा च सम्पूर्ण सर्वाङ्गावयवसुन्दराऽपि कपिमुखी । तेन वैराग्येण विषयविमुखतां विभ्राणा श्रीमति नामधेयं बभार । सा कदाचिज्जातजातिस्मृतिः पितुरग्रे स्वं पूर्वभवं निवेदितवती - 'यदहमदाद्रौ पुरा कपिपत्नीत्वमनुभवन्ती कस्यापि शाखिन एकस्याः शाखायाः शाखान्तरं सञ्चरन्ती केनापि तदतुल्येन शिल्पेन विद्धतालुः पञ्चत्वमासदम् । तदधोवर्त्तिनि 15 कामिततीर्थकुण्डे यावद्गुलितं वपुः पपात तावत्तीर्थातिशयान्मामकं वपुर्मानुषाकारमभवत् । यन्मस्तकं तु तत्तथैवास्ते तेनाहं कपिवदना । अथ श्रीपुञ्जनृपस्तस्यास्तन्मस्तकं कुण्डे प्रक्षेपयितुं निजानासपुरुषान्समादिदेश । तैस्तु सुचिरात्तत्र तदवस्थं विलोक्य तथाकृते सा श्रीमाता मानवानना समजनि । ततः प्रभृति सा मातरपितरावनुज्ञाप्याऽर्बुदसंख्यगुणा तस्मिन्नेवाऽर्बुदे तपस्यन्ती, कदाचिद्गगनगामिना योगिना ददृशे । स च तत्सौन्दर्यापहृतहृदयो गगनादुत्तीर्य 20 प्रेमालाप पूर्वकं ' त्वं मां कथं न वृणोषि ?' इति पृष्टा सेत्यवादीत् - 'साम्प्रतं तावत्क्षणदायाः प्रथमो यामो व्यतीतः; तुर्ययामस्य ताम्रचूडेषु रुतमकुर्वाणेषु यद्यस्मिन्नगे कयाचिद्विद्यया द्वादशपद्या हृद्याः कारयसि ततो भवन्तमभिकं करोमी'ति तदुक्तिसमनन्तरमेव तत्र कर्मणि चेटकपेटकं नियोज्य यामद्वयेन निर्मापिते सर्वपद्यानिवहे, श्रीमाता खशक्तिवैभवेन कृतकताम्रचूडरवं कारयन्ती, तेनागत्य 'विवाहाय सज्जीभवेत्यभिदधे । 'तव पद्यायां निष्पाद्यमानायां 25 कुक्कुटरवः समजनिष्टे'ति तयोक्ते 'भवन्मायया कृतकं कृकवाकुरवं को न वेत्ति ?' इत्युत्तरं ददानः, स सरितीरे तज्जाम्यो पढौ कितविवाहोपहारः, श्रीमात्रा 'समस्तविद्यामूलं तत्रिशूल मिहैव विहाय पाणिपीडनाय सन्निहितो भवे' त्याहूय, प्रेमोपहृतचित्ततया तत्तथा कृत्वा सामीप्यमुपागतः । तत्पादयोः कृतकान् शुनो नियोज्य हृदये तेन त्रिशूलेनाहत्य मारितः " । इत्थं निःसीमशीललीलायितेन स्वं जन्मातिवाहितवती । तस्यामखण्डशीलायां व्यतीतायां श्रीपुञ्जराजा 30 तत्र शिखरबन्धरहितं प्रासादमाकारयत् । यतः षण्मासान्ते तस्य गिरेरंधोभागवर्त्ती अर्बुदनामा नागो यदा चलति तदा पर्वतकम्पो भवति । अतः शिखररहितास्तत्र सर्वेऽपि प्रासादाः । ॥ इति श्रीपुञ्जराज तत्पुत्री श्रीमाता -प्रबन्धः ॥ 1 ' यत्नाद्' स्थाने D ' यन्त्र तन्त्र' । 2 P सर्व ० । 3 'सामन्तनगरलोकैस्तं' स्थाने D 'समं तमपरेतं लोकैर्विज्ञप्तश्च तं एते शब्दाः । 4 P नाम । 5P अर्बुदे गिरौ । 6 BP नास्ति । 7 D 'भास' नास्ति । 8D पप्रच्छ । 9 D नास्ति । 10 D अभीष्टं । 11 P व्यापादितः । 12 P पर्वतस्य । For Private Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश: प्रकीर्णकप्रबन्धः । -- २०६) कदाचिच्चौडदेशे गोवर्द्धनो नाम राजाभूत् । तत्र' स्तम्भ निबद्धा सभामण्डपपुरतो न्यायिना हन्यमाना न्यायघण्टा निनदति । अन्यदा तस्यैकसूनोः कुमारेण रथारूढेन पथि सञ्चरताऽज्ञातवृत्त्या कश्चिद्वत्सतरः पथि व्यापादितः तन्माता सौरभेयी नयनाभ्यामर्जस्रमश्रूणि वर्षन्ती स्वपराभवप्रतीकाराय शृङ्गाग्रेण न्यायघण्टामवीवदत् । तघण्टाटङ्कारं नृपो निशम्यार्जुनकीर्तिस्तमर्जुनीवृत्तान्तं मूलतोऽवगम्य निजं न्यायं परां कोटिमारोपयितुं प्रातः स्वयं स्यन्दने 5 निविश्य प्रियपुत्रोऽपि तमेकमेव पुत्रं पथि नियोज्य तदुपरि तां धेनुं साक्षीकृत्य' रथं भ्रामयामास । तस्य भुभूजः सत्त्वेन तस्य सुतस्य भूयसा भाग्यवैभवेन रथस्य रथाङ्गे समुद्धृते स कुमारो न विपन्नः। ॥ इति गोवर्द्धनपप्रबन्धः ॥ २०७) अथ कान्त्यां पुरि पुरा पुराणनृपतिश्चिरं राज्यं निर्गर्वः कुर्वन् , कदाचिन्मतिसागराभि-10 धानेन प्रियसुहृदा महामात्येनाऽनुगम्यमानो राजपाटिकायां व्रजन , विपर्यस्ताभ्यस्तेन तुरङ्गेण नृपेऽपह्रियमाणे चतुरङ्गचमूचके क्रमेण दवीयसि सञ्जायमानेऽप्यतिजवे जवनेऽधिरूढस्तदानुपदिकः सचिवः कियत्यपि भूभागे उल्लविते सति मार्गोल्लङ्घनपरिश्रमादत्यन्तसुकुमारतया रुधिरपूरितत्वाद्विपन्ने नृपती कृतानन्तरकृत्या, तं तुरङ्गमं तद्वेषं च सहादाय प्रदोषसमये पुरं प्रविशन् , राज्यस्यानुसन्धानचिकीः सीमालभूपालभयात्कमपि नृपतेः सवयसं सरूपं च कुलालमालोक्य 15 तद्वेषार्पणपूर्व तुरगेऽधिरोप्य सौधप्रवेशानन्तरं देव्यै तं व्यतिकरं निवेद्य, सचिवेन पुण्यसार इति नाम" विधाय स एव नृपतीचके। इत्थं कियत्यपि गते काले स सचिवश्वमूसमूहवृतः प्रतिनृपति प्रति प्रतिष्ठासुः खप्रतिहस्तकप्रायं कमपि प्रधानपुरुषं नृपतिसेवाकृते नियोज्य खयं देशान्तरविहारमकरोत् । अथ स पृथिवीपतिनिरङ्कुशो वेश्यापंतिरिव खैरविहारी तदनन्तरं पुरकुम्भकारान्समस्तानाहूय मृन्मयान् हयान् करिकलभकरभवृषभादींश्च निर्माय तैः समं चिरं चिक्रीड 120 एवं स्थिते समस्तराजलोकस्यावहेलनां नृपतेर्निशम्य ततः स्कन्धावारात् स सचिवः खल्पपरिच्छदो नृपमुपेत्येत्यवादीत्-'यस्त्वमिदानीमेवाविस्मृतकारुभावः स्वभावचलाचलतयाँ यदि कामपि मर्यादां न मन्यसे, तदा त्वां निर्विषयीकृत्य कमप्यपरं कुलालबालं भूपालं करिष्यामी'ति तदुक्तिक्रुद्धः स नृपः सभायामुपांशुभूमौ 'कोऽत्र भोः ?' इति व्याहृतिसमनन्तरमेव सजीवभूतैश्चित्रपदातिभिः स सचिवः सन्दानितः । तदसम्भाव्यं महदाश्चर्य "विमृश्य तत्प्रभुप्रभावाविर्भावच- 25 मत्कृतचित्तस्तत्पदयोर्निपत्य खं मोचयितुमत्यर्थमभ्यर्थयन् नृपेण तथा कारिते स सभक्तिकं विज्ञपयामास- भवतः साम्राज्यदाने निमित्तमात्रोऽहम्, तव प्रभावादालेख्यरूपाणि अपि सचेतनीभूयेत्थं निदेशवशंवदानि भवन्ति तत्र प्राकृतान्येव कर्माणि कारणमत एव भवान्पुण्यसार इति सान्वयनामा । ॥ इति पुण्यसारप्रबन्धः॥ 30 .. 1 AB तदीय०, D तदायः। 2 BP न्यायेन । 3 AD नास्ति । 4 P 'अजस्रं' नास्ति । 5 P तं घण्टानिनादं । 6 AD निवेश्य । 7 D साक्षात्कृत्य । 8 P गच्छन् । 9 D विपर्यस्तध्वस्तेन । 10P विना नान्यत्र। 11 D श्रीमाल। 12 P नामधेयं। 13 P नास्ति। 14 AD निवेद्य। 15 A वशा०; P विशा०, Db वेशा०; B वशार्थः। 16 P समग्रान् । 17 P विहाय नान्यत्र 'वृषभ। 18 P परिकरः। 19 P सहजचलतया। 20 P कुपितः। 21 D सज्जीभूः। 22 P इति विमृशन् । 23 BP प्राक्तनानि । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ प्रबन्धचिन्तामणिः। [ पत्रमा २०८) अथ पुरा कुसुमपुरे नगरे नन्दिवर्द्धननामा राजकुमारो निजंच्छत्रधरेण समं देशान्तरविलोकनकुतुकी पितरावनापृच्छय यदृच्छया गच्छन् प्रत्यूषकाले कापि पुरे प्राप्तः। तत्राऽपुत्रिणि नृपती पञ्चत्वमुपागते सति सचिवैरभिषिक्तः पदहस्ती निर्खिलेऽपि नगरे यदृच्छया भ्राम भ्रामं स सम्भ्रमं तत्रागतः। तं नृपंकुमारमासन्नमपि दुःखममिव विस्मृत्य परं छत्रधरमभ्यषि5 श्चत् । स च तत्प्रधानैर्महता महोत्सवेन पुरं प्रवेश्यमानो राजकुमारमपि तयैव महत्या प्रतिपत्त्या सह गृहीत्वा सौधं गतः । 'अहं राजलोकस्य खामी त्वं तु मम' इत्युचितैरुपचारवचनैस्तमन्तरितमारराध । स तु राजा राजगुणानामनो निरवधिदुर्मेधा वर्णाश्रमपालनापरिश्रमानभिज्ञो यथा यथा प्रजापीडनपरः साम्राज्यं कुरुते तथा तथा पशुपतिमूर्धा विधृतराजेव स कुमारः प्रतिदिनं हीयते । कस्मिन्नप्यवसरे तं तथास्थितं कुमारं स नृपतिस्तत्तनुताहेतुं पृच्छन् 'दुर्मेधतया त्वं 10 यत्प्रजाः पीडयसि तेनात्यन्तमनौचित्येन कृशतामावहामि । २४२. वासो जडाण मज्झे दुजीही सामिसवर्णपंडिलग्गा। जीविजइ त लाहो झीणत्ते विम्हओ" कीस ॥ इति मया गाथार्थः सत्यापितोऽस्तीति तद्वचनानन्तरं 'यदस्याः प्रजायाः पापनिरताया अपुण्योदयेनावश्यंभाविपीडनावसरेऽहं नृपतीकृतः। यदि प्रजायाः परिपालना लोकेशोऽभ्यलिखिष्यत्तदा भवत एव पट्टहस्ती पट्टाभिषेकमकरिष्यदिति तदुक्तियुक्तिभ्यां भेषजाभ्यामिव निगृहीत15 रुक स कुमारो वपुःपीवरतां बभार । ॥ इति कर्मसारप्रवन्धः॥ २०९) अथ गौडदेशे लष(ख)णावत्यां नगर्या श्रीलक्ष्मणसेनो नाम नृपतिरुमापतिधरनाम्ना" सचिवेन सर्वबुद्धिनिधानेन" चिन्त्यमानराज्यश्चिरं राज्यं चकार । स त्वनेकमत्तमातङ्गसैन्यसङ्गादिव मदेनान्धतां दधानो मातङ्गीसङ्गपङ्ककलङ्कभाजनमजनि । उमापतिधरस्तु तद्व्यतिकरमव20 गम्य प्रकृतिक्रूरतया च स्वामिनोऽनाकलनीयतां च विचिन्त्य प्रकारान्तरेण तं बोधयितुं सभामण्डपभारपट्टे गुप्तवृत्त्यामूनि काव्यानि लिलेख२४३. शैत्यं नाम गुणस्तवैव तदनु स्वाभाविकी खच्छता किं ब्रूमः शुचितां बृजन्त्यशुचयः स्पर्शात्तवैवापरे । किं चातः परमस्ति ते स्तुतिपदं त्वं जीवितं देहिनां त्वं चेन्नीचपथेन गच्छसि पयः कस्त्वां निरोढुं क्षमः॥ २४४. त्वं चेत्सश्चरसे वृषेण लघुना" का नाम दिग्दन्तिनां व्यालैः कङ्कणभूषणानि तनु हानिन हेम्नामपि । 25 मूर्धन्यं कुरुषे जडांशुमयशः किं नाम लोकत्रयीदीपस्साम्बुजबान्धवस्य जगतामीशोऽसि किं ब्रूमहे ॥ २४५. छिन्नं ब्रह्मशिरो यदि प्रथयति प्रेतेषु सख्यं यदि क्षीवः क्रीडति मातृभिर्यदि रतिं धत्ते श्मशाने यदि । सृष्ट्वा संहरति प्रजा यदि तथाप्याधाय भक्त्या मनस्तं सेवे करवाणि किं त्रिजगती शून्या स एवेश्वरः ।। २४६. एतस्मिन्महति प्रदोषसमये राजा त्वमेकस्ततो लक्ष्मीमम्बुरुहां पिधाय कुमुदे कि नो" तनोषि श्रियः। यद्राही स्थितिरत्र यच्च सुमनःश्रेणीषु सम्भावना त्वं तावत्कतमोऽसि तत्तिरयितुं धातापि नैव क्षमः ।। 1AD नास्ति। 2 AD 'निज' नास्ति । 3 BP दर्शनः। 4P प्रभातः। 5 P सकलेऽपि। 6 'भ्रामं भ्राम ससम्भ्रम' स्थाने D 'बभ्राम'; A 'स भ्रमन्'। 7AD गतनृप। 8 P महेन। 9AD 'परिश्रम' नास्ति । 10 D नास्ति । 11 AD दोजीहा। 12 P सामिझत्तः। 13 P वरि। 14 AD झीणिते। 15 D विम्हिओ। 16 D 'नाना' नास्ति । 17 AD निधिना। 18 D मदान्धतां । 19 D अनालोकनी। 20 P भवन्ति। 21 P स्पर्शन यस्थापरे । 22 AD लघुता। 23 P कुरुषे। 24 BP ना। 25P यत्र । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ प्रकाशः] प्रकीर्णकप्रबन्धः। २४७. सिद्वत्तसद्गुणमहार्हमनय॑मूल्यकान्ताघनस्तनतटोचितचारुमूर्ने । आः पामरीकठिनकण्ठविलग्नभग्न हा हार हारितमहो भवता गुणित्वम् ॥ कस्मिन्नपि सर्वावसरप्रस्तावे' तानि वीक्ष्य तदर्थमवगम्य तस्मिन्नन्तर्दृषं दधौ । यतः२४८. प्रायः सम्प्रति 'कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । विलूननासिकस्येव यद्वदादर्शदर्शनम् ॥ इति न्यायात्सामर्षतया तं पदभ्रष्टं चकार । । अथ स नृपतिः कदाचिद्राजपाटिकायाः प्रत्यावृत्तो दुरवस्थमेकाकिनमुपायविधुरमुमापतिधरं तं वीक्ष्य क्रोधाद्वधाय हस्तिपकेन हस्तिनं प्रेरयामास । स तु निषादिनं प्रति प्राह-यावदहं राज्ञोऽग्ने किश्चिद्वच्मि तावजवान्निवार्यतां गजः।' तद्वचनात्तेन तथाकृते उमापतिधरः प्राह२४९. नग्नस्तिष्ठति धूलिधूसरवपुर्गोपृष्ठिमारोहति व्यालैः क्रीडति नृत्यति स्रवदसृग् चर्मोद्वहन् दन्तिनः। आचाराद्धहिरेवमादिचरितैराबद्धरागो हरः सन्तो नोपदिशन्ति यस्य गुरवस्तस्येदमाचेष्टितम् ॥ 10 इति तद्विज्ञानाङ्कुशेन वशंवदमनोगजो निजचरित्रे किञ्चित्सानुशयः खममन्दं निन्दस्तव्यसनं शनैर्निषिध्य तं पुनरेव प्रधानीचकार । ॥ इति लक्ष्मणसेनोमापतिधरयोः प्रबन्धः॥ २१०) अथ कासिनगर्यां जयचन्द्र" इति नृपः प्राज्यसाम्राज्यलक्ष्मी पालयन् पङ्गुरिति बिरुदं बभार । यतो यमुना-गङ्गायष्टियुगावलम्बनमन्तरेण चमूसमूहव्याकुलिततया कापि गन्तुं न प्रभ-15 वति । कस्मिन्नप्यवसरे तत्र वास्तव्यस्य कस्यापि शालापतेः पत्नी सूहवनानी सौन्दर्यनिर्जितजगत्रयस्त्रणा, भीष्मग्रीष्मतों जलकेलिं विधाय सुरसरित्तीरे तस्थुषी सा खानाक्षी, व्यालमौलिस्थितं खञ्जनं वीक्ष्य तमसम्भाव्यं शकुनं कस्यापि द्विजन्मनः लातुमायातस्य पदोर्निपित्य तद्वि- . चारं पप्रच्छ। स निमित्तवित् 'चेन्मदादेशं सदैव तनुषे तदा तव विचारमहं निवेदयामीति तेनोक्ता तव पितृनिर्विशेषस्य मान्यामाज्ञां सदैव मूर्धा तां वहामी ति प्रतिज्ञापरायास्तस्याः 20 'सप्तमेऽहनि त्वमस्य नृपतेरग्रमहिषी भविष्यसीति आदिश्य द्वावपि यथागतं जग्मतुः। अथ निमित्तविदा निर्णीते वासरे स राजा राजपाटिकायाः प्रत्यावृत्तः कापि रथ्यायां नेपथ्यविहीनामपि अगण्यलावण्यपुण्याङ्गीं तां शालापतिबालां विलोक्य स्वचित्तसर्वखचौरीमूरीकृत्याग्रमहिषीं चकार। तदनु तया कृतज्ञया" विघं प्रति खां प्रतिज्ञा स्मरन्त्या नृपाय तस्मिन् विद्याधरनिमित्ते विज्ञप्ते पटहप्रणादपूर्व तस्मिन् विद्याधरे आहूयमाने, विद्याधराभिधानानां द्विजानां सप्तशती- 25 मागतां विलोक्य तमेकमुपलक्षितं पृथक् कृत्वा शेषेषु यथोचितं सत्कृत्य विसृष्टेषु नृपतिः 'यथेप्सितं प्रार्थये ति विद्याधरं विपद्विधुरं प्राह । राजादेशप्रमुदितेन तेन 'अङ्गसेवा सदैवास्तु' इति प्रार्थिते नृपतिना तथेति प्रतिपन्ने, तस्य निरवधिचातुर्य पर्यालोच्य सर्वाधिकारभारे" धुरन्धरो व्यधायि । स च क्रमेण सम्पन्नसम्पन् निजद्वात्रिंशदवरोधपुरन्ध्रीणामनुवासरं जात्यकर्पूरपूराभ + इदं पद्यं P आदर्श नोपलब्धम् । 1 D कस्मिन्नप्यवसर। 2 P समये। 3 P निरीक्ष्य । 4 D सन्ति प्रकोपाय । 5 P विशुद्धादर्श० । 6 P नास्ति 'उपायविधुरं'। 7 P विहाय नान्यत्र 'उमापतिधरं'। 8 P व्यापारयामास । 9 D रागाहरे । 10 D चरित्रैकवित् । 11 P जयतचन्द्र। 12 P 'प्राज्य' नास्ति । 13 P द्विजस्य। 14 D सामान्या मयाज्ञा। 15 AD कृतज्ञतया। 16 AD विप्रप्रतिज्ञा। 17 P सर्वव्यापारभारे। 15 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ [ पञ्चमः रणानि कारयन् प्राच्यानि निर्माल्यानीत्यवकरकूपिकायां त्याजयन् साक्षाद्दैवतावतार इव दिव्यभोगान् भुञ्जानोऽष्टादशजङ्घांसहस्राणां ब्राह्मणानामभिलषिताभ्यवहारदानादनु स्वयमश्नाति । प्रबन्धचिन्तामणिः । २११) अथ कदाचित् नृपतिना वैदेशिक भूपतिमभिषेणयितुं चतुर्दशविद्याधरो विद्याधरो राजादेशादेशान्तराण्यवगाहमानः क्वचिदिन्धनविहीने देशे विहितावासस्तेषां विप्राणां पाककाले 5 सूपकाराणां तैलाभ्यक्तवस्त्रदुकूलान्येवेन्धनीकुर्वन् तान्विप्रान् रुट्यैव भोजयामास । अथ प्रतिरिपुं निर्जित्य जितकासितया व्यावृत्य प्राप्तनिजपुरीपरिसरः पिण्याकाभिलाषात् दुकूलज्वालनेन कुपितं भूपतिमवगम्य स्वं गृहमर्थिभिर्लुण्टाप्य तीर्थोपासनवासनया सञ्चरन्, आनुपदिकेन नृपतिननुनीयमानो मानोन्नततया नृपतेराशयं खाभिलाषसम्भवेन निवेद्य, कथंकथंचिदापृच्छय निजमवसानमसाधयत् । 10 २१२) तदनन्तरं सूहवदेव्या निजाङ्गजस्य कृते युवराजपदवीं याचितो नृपः 'सङ्गृहिणीपुत्रायास्मद्वंशे राज्यं न युज्यते' इति बोधिता नृपतिं जिघांसुम्लेच्छानाहूतवती । अथ स्थानपुरुषाणां समायातविज्ञप्तिकया तं व्यतिकरमवधार्य लब्धपद्मावतीवरप्रसादं सादरं कमपि दिग्वाससं निमित्तं पृष्टवान् । स पद्मावत्याः सप्रत्ययं म्लेच्छागमनिषेधरूपसमादेशं नृपतेर्विज्ञप्तवान् । अथ कियद्दिनानां प्रान्ते तान् संनिहितानाकर्ण्य स आशाम्बरः किमेतदिति पृष्टस्तस्यामेव निशि 15 नृपतिप्रत्यक्षं पद्मावत्याः पुरो होममारभत । अथ निरवद्याकृष्टिविद्यया होमकुण्डाज्वालामालान्तरिता प्रत्यक्षीभूय श्रीपद्मावती तुरुष्कागमनिषेधमुक्तवती । अथ सामर्षः क्षपणकस्तां कर्णयोधानुबन्धा 'तेषु संनिहितेषु किं भवत्यपि वितथं ब्रूषे ?' इति तेनोपालम्भिता सती सैवमवादीत्- 'त्वं यां पद्मावतीमतीव भक्त्या पृच्छसि साऽस्मत्प्रतापबलात्पलायांचक्रे । अहं तु म्लेच्छगोत्रदैवतं मिथ्याभाषणेन लोकं विश्वास्य म्लेच्छैर्विश्वासं कारयामी' त्युदीर्य तस्यां तिरो20 हितायां म्लेच्छसैन्येन प्रातर्वाराणसीं वेष्टितां चेष्टया जानन् तद्धनुध्वनैश्चतुर्दशशती मितनिखानयुग्मनिस्वनेऽपहुते बले सति प्रबलम्लेच्छबलंव्याकुलीकृतमनास्तं सूहवदेव्या अङ्गजं निजगजे " नियोज्य जाह्नवीजले स राजा " ममज्ज | ॥ इति जयचन्द्रप्रबन्धः ॥ २१३) अथ जगद्देवनामा क्षत्रियः त्रिविधामपि वीरकोटीरतां बिभ्रत्, श्रीसिद्धचक्रवर्त्तिना 25 सम्मान्यमानोऽपि " तद्गुणमन्त्रवशीकृतेन नृपतिना परमर्द्दिश्रीपरमर्द्दिना समाहूतः सोपरोधं पृथ्वीपुरन्ध्री कुन्तलकलापकल्पं कुन्तलमण्डलमवाप्य यावत्तदागमं श्रीपरमर्द्दिने द्वाःस्थो निवेदयति तावत्तत्सदसि काचिद्विटवनिता विवसना पुष्पचलचलनकां" नृत्यन्ती तत्कालमेवोत्तरीयं समादाय सापत्रपा सा तत्रैव निषसाद । अथ राजदौवारिकप्रवेशिताय श्रीजगद्देवाय परिरम्भप्रियालापप्रभृति सन्मानदानादनु प्रधानपरिधानदुकूलं लक्ष्यमूल्यातुल्योद्भटपटयुगं प्रासादीकृत्य तस्मिन् 30 महार्हासननिविष्ठे सभासम्भ्रमे भग्ने सति नृपस्तामेव विटनटीं" नृत्यायादिदेश । अथ सा औ 3 P बहिर्दत्तावास० । 4 BD à 1 D ' जंघा' नास्ति; De संख्या० । 2 D चतुर्दशविद्याधरोऽपि प्रेषितो देशाद्० । 5 P आशावसनः । 6P विधृत्य । 7 P नास्त्येतत्पदं । 8 P धनुष्टङ्कारैः । 9 AD. कुल० । 10 AD निजे 11 P विहाय 'राजा' स्थाने 'गजः' 12 P जयतचन्द्र० । 13D सन्मान्योऽपि । 14 P परमर्द्दिना । पुष्पचलनका । 16 D नास्त्येष शब्दः । 17 P विटवनितां । 15 D पतिं । गजे । For Private Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 प्रकाश: प्रकीर्णकप्रबन्धः । ११५ चित्यप्रपञ्चचञ्चश्चञ्चच्चातुर्यधुर्या 'श्रीजगद्देवनामा जगदेकपुरुषः साम्प्रतं समाजगाम तत्तत्र विवसनाहं जिहेमि । स्त्रियः स्त्रीष्वेव यथेष्टं चेष्टन्ते' इति तस्या लोकोत्तरया प्रशंसया प्रमुदितमानसस्तं नृपप्रसादीकृतं वसनयुगं तस्यै वितीर्णवान् । । अथ श्रीपरमर्दिप्रसादतो देशाधिपत्ये सञ्जाते सति ऋणग्रस्तस्तदुपाध्यायः श्रीजगद्देवस्य मिलनाय समागतः काव्यमिदं प्राभृतीचकार । तद्यथा२५०. *अक्षत्रक्षतवालिनो भगवतः कस्यापि सङ्गीतकव्यासक्तस्य च तस्य कुन्तलपतेः पुण्यानि मन्यामहे । एकः कामदुधामदुग्ध मरुतः सूनोः सुबाहुद्वयीं प्रत्यक्षप्रतिपक्षभार्गव भवानन्यस्य चिन्तामणिः॥ अस्य काव्यस्य पारितोषिके तस्मै स स्थूललक्षो लक्षार्द्ध विततार । २५१. चक्रः पप्रच्छ पान्थं कथय मम सखे क्वास्ति किं स प्रदेशो वस्तुं नो यत्र रात्रिर्भवति भुवि चिरायेति स प्रत्युवाच । नीते मेरौ समाप्तिं कनकवितरणैः श्रीजगद्देवनाना सूर्येऽनन्तहितेऽस्मिन् कतिपयदिवसैर्वासराद्वैतसृष्टिः ॥ २५२. क्षोणीरक्षणदक्षदक्षिणभुजे दाक्षिण्यदीक्षागुरौ श्रेयःसमनि धन्यजन्मनि जगदेवे जगद्दातरि । वर्त्तन्ते विदुषां गृहाः प्रतिदिनं गन्धेभगन्धर्वयोरालानद्रुमरजुदामघटनाव्यग्रीभवकिकराः ॥ २५३. त्वयि जीवति जीवन्ति बलिकर्णदधीचयः । दारिद्यं तु जगद्देव ! मयि जीवति जीवति ॥ 15 २५४. दरिद्रान् सृजतो धातुः कृतार्थान् कुर्वतस्तव । जगदेव ! न जानीमः कस्य हस्तो विरंस्यति । २५५. जगदेव ! जगद्देवप्रासादमधितिष्ठतः । त्वद्यर्श शिवलिङ्गस्य नक्षत्रैरक्षतायितम् ॥ [१७४] *कीर्तिस्ते जातजाड्येव चतुरम्भोधिमजनात् । प्रतापाय जगद्देव ! गता मार्तण्डमण्डलम् ॥ [१७२] *खस्ति क्षत्रियदेवाय जगद्देवाय भूभुजे । यद्यशःपुण्डरीकान्तर्गगनं भ्रमरायते ॥ [१७६] *एकः क्ष्माचक्रपीठे वितरति कनकं श्रीजगद्देवदेवो याजा दीनाः सहस्रं सततमिति मनो मा विषादास्पदं भूः। आदित्याः किं कियन्तः प्रबलतमतमस्तोममजज्जनौघ प्राणत्राणप्रयाणप्रवणहरिखुरक्षुण्णदिक्चक्रवालाः ॥ २५६. अगाधः पाथोधिः पृथु धरणिपात्रं विभु नभः समुत्तुङ्गो मेरुः प्रथितमहिमा कैटभरिपुः। जगद्देवो वीरः सुरतरुरुदारः सुरसरित् पवित्रा पीयूषद्युतिरमृतवर्षीति न नवम् ॥ 'न नवमिति जगद्देवार्पिता समस्या पण्डितेन पूरिता।। [१७७] *तथ्या पार्थकथा वृथा बलिरयं शक्रोऽवनौ भूचरो लोकः सम्प्रति साहसाङ्कचरिताश्चर्येऽपि मन्दादरः । दृष्टः कंसरिपुर्न कल्पतरुणा शून्यं महीमण्डलं । शोच्यो न स्मरविग्रहस्त्वयि जगद्देवे जगद्दातरि॥ [१७८] *यदायं दुर्वारः किरति किरणश्रेणिमनिशं यशःप्रालेयांशुर्दिशि दिशि जगद्देव ! भवतः। तदा सर्व राकामयसमयमालोक्य भुवनं कुहूशब्दो जातः पिकनिकरकण्ठैकशरणः॥ ... 1D चञ्चु-चातुर्यः। 2 P सती। 3 D नास्त्येतत्पदं। * D पुस्तके इदं पद्यं मूलग्रन्थे न लभ्यते। 4 D पनं । 5 P श्री। 6 AD स्वयशः। 7 P पृथुरवनिपात्रं । * एतच्चिद्वाङ्कितानि पद्यानि P आदर्श एवोपलभ्यन्ते। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ प्रबन्धचिन्तामणिः । [पञ्चमः [१७९] *सत्रासा इव सालसा इव लसद्गर्वा इवार्द्रा इव व्याजिह्मा इव चक्रिता इव पुरो भ्रान्ता इवार्ता इव । त्वद्रूपे निपतन्ति कुत्र न जगदेवप्रभोः सुभ्रुवां वात्यावर्तननर्तितोत्पलदलद्रोणिगुहीदृष्टयः ॥ ___ इत्यादीनि बहूनि काव्यानि यथाश्रुतं ज्ञातव्यानि । - अथ श्रीपरमर्दिमेदिनीपतेः पट्टमहादेवी श्रीजगद्देवस्य प्रतिपन्नजामिः। कदाचित् राज्ञा'सीमा5 लभूपालपराजयाय प्रहितः श्रीजगद्देवो देवार्चनं कुर्वन् छलघातिना परबलेन निजं सैन्यमुपद्रुतं शृण्वन् तमेव देवतावसरं न मुमोच । तस्मिन्नवसरे प्रणिधिपुरुषमुखाजगद्देवपराजयमश्रुतपूर्वमवधार्य महिषी श्रीपरमर्दी प्राह-'भवद्भाता संग्रामवीरताऽहंयुतां बिभ्राणोऽपि रिपुभिरांक्रान्तः पलायितुमपि न प्रभूष्णुरजनि'। इति नृपतेर्माविधं नोक्तिमाकर्ण्य प्रत्यूषसन्ध्याकाले साराज्ञी प्रतीचिदिशमालोकितवती, राज्ञा 'किमालोकसे?' इत्यादिष्टे 'सूर्योदयमि'ति; 'मुग्धे! किं सूर्यो10 दयोऽपरस्यां दिशि कदाचिजाघटीति ?' सा तु 'विरश्चिप्रपश्चप्रतीपः प्रतीच्यामपि प्रद्योतनोदयो दुर्घटोऽपि घटते परं क्षत्रियदेवजगद्देवस्य भङ्गस्तु न' इति दम्पत्योः प्रियालापे, देवार्चनानन्तरं जगदेवः पञ्चशत्या सुभटैः समं समुत्थितश्चण्डांशुरिव तमस्काण्डम् , केसरिकिशोर इव गजयूथम् , वात्यावर्त इव घनाघनमण्डलं निखिलमपि प्रत्यर्थिपार्थिवकु(बोली हेलयैव तद्दलयामास । २१४) अथ स परमर्दिनामा नृपो जगत्युदाहरणीभूतं परमैश्वर्यमनुभवन् निद्रावसरवर्ज रात्रि15न्दिवं निजीजसा विच्छुरितं छुरिकाभ्यासं विदधानोऽशनावसरे परिवेषणव्याकुलं प्रतिदिनमेकै सूपकारमकृपः कृपाणिकया निघ्नन् षष्ट्यधिकेन शतत्रयेण भक्तकाराणां वर्षे निषेव्यमाणः कोपकालानल इति बिरुदं बभार । २५७. आकाश प्रसर प्रसर्पत दिशस्त्वं पृथ्वि पृथ्वी भव प्रत्यक्षीकृतमादिराजयशसां युष्माभिरुज्जृम्भितम् । प्रेक्षध्वं परमर्दिपार्थिवयशोराशेर्विकाशोदयादीजोच्छासविदीर्णदाडिमदशां ब्रह्माण्डमारोहति ॥ 20 इत्यादिभिः स्तुतिभिः स्तूयमानश्चिरं साम्राज्यसुखमनुबभूव । २१५) स च सपादलक्षीयक्षितिपतिना श्रीपृथ्वीराजेन सह सञ्जातविग्रहः समराजिरमधिरूढः खसैन्ये पराजिते सति कान्दिशीकः कामपि दिशं गृहीत्वा पलायनपरः खां राजधानीमाजगाम । अथ तस्य परमर्दिपार्थिवस्यापमानितपूर्वः कोऽपि तत्पूर्वसेवको" निर्विषयीकृतः पृथ्वीराजराजसभामुपेतः प्रणामान्ते 'किं दैवतं परमर्दिपुरे विशेषात्सुकृतिभिरिज्यते ?' इति स्वामिनादिष्ट25 स्तत्कालोचितं काव्यमिदमपाठीत्२५८. मन्दश्चन्द्रकिरीटपूजनरसस्तृष्णा न कृष्णार्चने स्तम्भः शम्भुनितम्बिनीप्रणतिषु व्यग्रो विधातृग्रहः । नाथो नः परमर्यनेन वदनन्यस्येन संरक्षितः पृथ्वीराजनराधिपादिति तृणं तत्पत्तने पूज्यते ॥ इति स्तुतिपरितोषितः स राजा तं यथेप्सितेने पारितोषिकेणानुजग्राह । स च त्रिसप्तकृत्वस्त्रासितम्लेच्छाधिपो द्वाविंशतितमवेलायां स एव म्लेच्छाधिपतिः पृथ्वीराजराजधानीमुपेत्य 30 निजदुर्द्धरस्कन्धावारेण समवात्सीत् । त्रासितमक्षिकेव भूयो भूयो रिपुरुपैतीति निजनृपतेररतिं ___1 P शेयानि। 2 D श्रीमाल। 3 D वीरनाथतां। 4 P रिपुभरा। 5 D मर्माभिघातनः। 6 D 'कदाचित्' नास्ति । 7 AD 'घना-' नास्ति । 1-1 एतदन्तर्गतं वाक्यं P आदर्श एव लभ्यम्। 8 P बीजोच्छ्वासितपक्कदाडिमतुला । 9 D राज्य। 10 D नास्ति । 11 'परमाई' नास्ति ADI 12 Doमानितसर्वसेवको। 18 D स्तब्धः। 14 A तदीप्सितेन । १-१ एतदन्तर्गता पंक्तिः D पुस्तके पतिता। 15 D तत्र । 16 P नृपतिः। . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ प्रकाशः] प्रकीर्णकप्रबन्धः । मनोगतामवगम्य प्रभोनिःसीमप्रसादपात्रं द्वितीयमिव गात्रं तुङ्गनामा क्षात्रं तेजो वहन् सुभटकोटिकोटीरः स्वप्रतिबिम्बरूपेण पुत्रेण समं म्लेच्छपतेरनीकं प्रविश्य तस्थौं । निशीथसमये तस्य रिपोर्गुरूदरात् परितः खादिराङ्गारधगधगायमानां परिखां निरीक्ष्याङ्गजं जगाद-'अस्यां मम प्रविष्टस्य पृष्ठे पदं ददानो म्लेच्छपतिं निगृहाणे ति पितुरादेशान्ते 'कार्यमेतन्ममासाध्यतमम् , किं च निजजीविताकाङ्क्षया पितुर्विपत्तिदर्शनम् ; तदहमस्यां विशामि भवन्त एव तमन्तं नयन्तु।' 5 इत्युक्त्वा तेन तथाकृते खामिकार्यं पर्याप्तप्रायं मन्यमानस्तमराति लीलया निगृह्य यथागतमाजगाम। विभातभूयिष्ठायां निशि विपन्नं खं स्वामिनं निरीक्ष्य परं दैन्यं दधन् म्लेच्छसैन्यं' पलायांचके। स तुङ्गसुभटस्तुङ्गप्रकृतितया नृपतेः कदाचिन्न ज्ञापयामास । कस्मिन्नप्यवसरे राजमान्यतया नितान्तपरिचितां तुङ्गपुत्रवधूमवधूतमङ्गलवलयामालोक्य सम्भ्रमान् नृपतिना पृच्छयमानोऽपि पयोधिरिव गम्भीरतया मौनमर्यादया किमप्यविज्ञपयन् निजशपथदानपूर्वकं 10 पृष्टो निजगुणकथापनकं दुष्करमिति तथापि प्रभोरभ्यर्थनया निवेद्यमानमस्तीत्यभिधाय तट्टत्तान्तं प्रत्युपकारभीर्यथावस्थितं निवेदयामास । २५९. इयमुच्चधियामलौकिकी महती कापि कठोरचित्तता। उपकृत्य भवन्ति निःस्पृहाः परतः प्रत्युपकारशङ्कया' ॥ ॥ इति तुङ्गसुभटप्रवन्धः॥ 15 २१६) अथ कदाचित्तस्य म्लेच्छपतेः सूनुर्नपतिः पितुर्वैरं स्मरन् , सपादलक्षक्षितिपतिर्विग्रहकाम्यया सर्वसामग्र्या समुपेतः पृथ्वीनाथस्य नासीरवीरधनुर्द्धरशरैः प्रावृषेण्यधाराधरधारासारैरिव तस्मिन्ससैन्येऽपि त्रासिते पृथ्वीराजस्तदा तदानुपदिकीभावं भजन , महानसाधिकृतपञ्चकुलेन व्यज्ञपि-करभीणां सप्तशत्यापि महानसपरिस्पन्दः सुखेन नोह्यते, ततः कियतीभिः करभीभिः प्रभुःप्रसीदतु' इति विज्ञप्तो नृपतिः 'म्लेच्छपतिमुच्छेद्य तदौष्ट्रिकमाच्छिद्य भवदभ्यर्थिताः करभी: 20 प्रसादीकरिष्यामी'ति तत्सम्बोध्य पुनः प्रयाणं कुर्वन् सोमेश्वरनाम्ना प्रधानेन भूयो भूयो निषिध्यमानः, तत्पक्षपातभ्रान्त्या नृपतिना निगृहीतकर्णः, तदत्यन्तपराभवात् तस्मिन् प्रभौ सामर्षों म्लेच्छपतिं प्राप्य तदभिभवप्रादुःकरणतस्तान् विश्वस्तान पृथ्वीराजस्कन्धावारसन्निधौ समानीय, पृथ्वीराजराज्ञ एकादश्युपवासकृतपारणादनु सुप्तस्य तन्नासीरवीरैः सह म्लेच्छानां समरसंरम्भे सञ्जायमाने निर्भरनिद्रानिद्रायमाण एवं" तुरुष्कैर्नृपतिर्निबध्य खसौधे नीतः। पुनरप्येका-25 दश्युपवासपारणके नृपतेर्देवतार्चनावसरे म्लेच्छराज्ञा प्रहितं पत्रपात्रीकृतं मांस्पाकं गुरूदरान्तनियुज्य तथैव देवताराधनवैयग्र्ये सति शुनाऽपह्रियमाणे तस्मिन् पिशिते 'किं न रक्षसि?' यामिकैरित्यभिहितः, 'करभीणां सप्तशत्या दुर्वहं यत्पुरा मम महानसं तत्साम्प्रतं दुर्दैवयोगादीदृशीं दुर्दशां प्राप्तमिति कौतुकाकुलितमानसो विलोकयन्नस्मीति तेनोक्ते 'किं काचिदद्यापि त्वय्युत्साहशक्तिरवशिष्यत?' इति तैर्विज्ञप्से 'यदि स्वस्थाने गन्तुं लभेत तदा दर्शयामि वपुःपौरुषमिति 30 यामिकैर्विज्ञप्तो म्लेच्छभूपतिस्तत्साहसं दिदृक्षुस्तदीयां राजधानीमानीय पृथ्वीराजं तत्र राजसौधे 1D मिवामानं। 2 P बिनाऽन्यन्न नास्तीदं पदं। 3 AD वप्तुः। 4 AD 'परसैन्यं' इत्येव। 5 P विहाय अन्यत्र 'कथापनकं' स्थाने 'पातकं' शब्दः। 6 BP दूरतः । 7 BP भीरवः। 8 D नास्त्येतत्पदं। 9D म्लेच्छाधिपतीनां । 10 D 'एव' नास्ति । 11 D तत्र। 12 D तदैव । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ प्रबन्धचिन्तामणिः। [पञ्चमः यावदभिषेक्ष्यति तावत्तत्र चित्रशालायां शूकरनिवर्हन्यमानान् म्लेच्छानालोक्यामुना मर्माभिघातेनात्यन्तपीडितस्तुरुष्कपार्थिवः पृथ्वीराज कुठारशिरश्छेदपूर्व संजहार । ॥ इति नृपतिपरमर्दि-जगद्देव-पृथ्वीपतीनां प्रबन्धाः ॥ २१७) अथ शतानन्दपुरे परिखीभूतजलधौ श्रीमहानन्दो नाम राजा, मदनरेखेति तस्य 5 राज्ञी । अन्तःपुरप्राचुर्यात् 'तां प्रति विरक्तचेता नृपतिरिति, पतिसंवननकर्मनिर्माणव्यापृता नानाविधान् वैदेशिकान् कलाविदश्च पृच्छन्ती कस्यापि यथार्थवादिनः सत्यप्रत्ययस्य कार्मणकर्मणे किश्चित्सिद्धयोगमासाद्य तत्प्रयोगावसरे 'मत्रमूलबलात्प्रीतिः पतिद्रोहोऽभिधीयते ।' इति वाक्यमनुस्मरन्ती सतीव तद्योगचूर्ण जलधौ न्यधत्त । 'अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां 10 प्रभावः' इति तद्भेषजमाहात्म्यावशीकृतो वारिधिरेव मूर्तिमान् निशि तां नित्यमुपेत्य रेमे । इत्थमकस्मादाधानवतीं प्रतीकैस्तद्विधैर्निीय सकोपो भूपो यावत्तस्याः प्रवासादिदण्डं कमपि विमृशति तावत्तस्याः संनिहिते निधननिर्बन्धे प्रत्यक्षीभूय 'जलधेरधिष्ठातृदेवतमहमिति खं ज्ञापयन् मा भैषीरिति तामाश्वास्य प्रति नृपं प्राह २६०. विवाहयित्वा यः कन्यां कुलजां शीलमण्डिताम् । समदृष्ट्या न पश्येत स पापिष्ठतरः स्मृतः ॥ 15 इति त्वामवज्ञाकारिणं प्रलयकालमुक्तमर्यादया सान्तःपुरपरीवारं दुर्वारवारिणि मज्जयिष्यामि' इति भयभ्रान्ताया अनुनयपराया 'अयं मदीय एव सूनुः, तदस्मै साम्राज्योचितां नव्यां भुवमहमेव दास्यामी त्यभिधाय कचित् क्वचित् पयांस्यपहृत्यान्तरीपान प्रादुश्चकार । तानि सर्वोण्यपि लोकेषु कौङ्कणानीति प्रसिद्धानि । ॥ इति कौङ्कणोत्पत्तिप्रबन्धः॥ 20 २१८)अथ पाटलीपुत्रे पत्तने वराहनामा कश्चिद्राह्मणाङ्गभूः आजन्म निमित्तज्ञानश्रद्धालुर्दुर्गतत्वादसून रक्षितुं पशून चारयन् कापि शिलातले लग्नमालिख्याकततद्विसर्जनः प्रदोषकाले गृहमुपेतः। कृतसमयोचितकृत्यो निशीथकाले भोजनायोपविष्टो लग्नविसर्जनमनुस्मृत्य निरातङ्कवृत्त्या यावत्तत्र याति तावत्तदुपरि पारीन्द्रमप्युपविष्टमवगणय्य तदुदराधोभागे पाणिं प्रक्षिप्य लग्नं विमृजन सिंहरूपमपहाय प्रत्यक्षीभूय रविरेव 'वरं वृणु' इत्युवाच । अथ 'समस्तनक्षत्रग्रहमण्डलं 25 दर्शयेति वरं प्रार्थयमानः स्खविमानेऽधिरोप्य तत्रैव नीतो वत्सरान्तं यावद् ग्रहाणां वक्रातिचारोदयास्तमनादीन भावान् प्रक्षत्यरूपान् परीक्ष्य पुनरिहायातो मिहिरप्रासादाद्वराहमिहिर इति प्रसिद्घाख्यः श्रीनन्दनृपतेः परमां मान्यतां दधानो वाराहीसंहितेति नवं ज्योतिःशास्त्रं रचयांचकार । २१९) अथ कदाचित्स निजपुत्रजन्मावसरे निजगृहे घटिकां निवेश्य तया शुद्धं जन्मकाललग्नं निर्णीय जातकग्रन्थप्रमाणेन ज्योतिश्चक्रे । स्वयं प्रत्यक्षीकृतग्रहचक्रज्ञानबलात्तस्य सूनोः संवत्स80 रशतप्रमाणमायुनिर्णीतवान् । तन्महोत्सवे चैकं श्रीभद्रबाहुनामानं जैनाचार्य कनीयांसं सोदरं विहाय नृपप्रभृतिकः स कोऽपि नास्ति य उपायनपाणिस्तद्धाम न जगाम।स निमित्तविजिनभक्ताय ___1B निकरैः। १-१ एतदन्तर्गतं वाक्यं D पुस्तके पतितम् । 2 D व्याप्रत्या। 3 P प्रयोजनावसरे। 4 D नास्त्येतत्पदं। एतचिह्वान्तर्गतः पाठः D पुस्तके पतितः । 5P प्रसिद्धिमापुः। 6P ब्राह्मणसुतः। 7 D 'यावत्' नास्ति । 8 D जन्ममहो। 9 P जैनमुनि। 10 D 'तद्धाम' नास्ति । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 प्रकाशः] प्रकीर्णकप्रबन्धः । शकटालमन्त्रिणे तेषां सूरीणामनागमनकारणमुपालम्भगर्भितं जगौ । तेन ज्ञापितास्ते महात्मानः सम्पूर्णश्रुतज्ञानकरतलकलितामलकफलवत्कालत्रयास्तस्य शिशोविशतितमे दिने बिडालान्मृत्युमुपदिशन्तो वयं नागता इति तेषामुपदेशभूतां वाचं वराहमिहिराय निवेदितायां,' ततःप्रभृति निजकुटुम्ब तस्य शावस्यावश्यकीं तां विपदं निरोर्बु बिडालरक्षाय शतश उपायानं कुर्वन्नपि निर्णीते दिने निशीथेऽकस्माद्वालस्य मूर्ध्नि पतितयाऽर्गलया स बालः परलोकमवाप । ततस्तच्छो- 5 कशङ्कुमुद्दिधीर्षवःश्रीभद्रबाहुगुरवो यावत्तद्गहमायान्ति तावत्तहाङ्गणे समस्तनिमित्तशास्त्रपुस्तकान्येकत्र पिण्डीकृतानि संनिहितदहनान्यालोक्य, किमेतदिति पृष्टः सांवत्सरः समत्सरस्तान् जैनमुनीनुपालम्भयन् 'एतानि रोहन्मोहसन्दोहकारीणि धक्ष्याम्येव, यैरहमपि विप्रलब्धतेनेति सनिर्वेदमुदिते, तैः श्रुतज्ञानबलात्तजन्मलग्नं सम्यक् तस्मै निवेद्य सूक्ष्मेक्षिकया तहबले ज्ञापिते विंशतिदिनान्येव भवन्ति । इत्थं शास्त्रविरक्तावपनीतायां स ज्योतिषिक इति जगौ-'यद्भव-10 द्भिर्बिडालान्मृत्युरुपदिष्टस्तदेव व्यभिचरितमिति तेनाभिहिते तामर्गलां तत्रानाय्य तत्रोत्कीर्ण बिडालं दर्शयन्तो 'भवितव्यताव्यत्ययः किं कदापि भवति ?' इति महर्षिभिरभिदधे । २६१. कस्यात्र च रुद्यते गतः कः कायोऽयं परमाणवोऽनपायाः। ___ संस्थानविशेषनाशजन्मा शोकश्चेन्न कदापि मोदितव्यम् ॥ २६२. अभावप्रभवैर्भावैर्मायाविभवभावितैः । अभावनिष्ठापर्यन्ते सतां न क्रियते भ्रमः॥ इत्युक्तियुक्तिभ्यां प्रबोध्य ते महषयः स्खं पदं भेजुः । इत्थं बोधितस्यापि तस्य मिथ्यात्वधत्तूरितस्य कनकभ्रान्तिरिव तेषु' मत्सरोच्छेकात्तद्भक्तानुपासकानभिचारकर्मणा कांश्चन पीडयन् कांश्चन व्यापादयन् तवृत्तान्तं तेभ्यो ज्ञानातिशयादवधार्योपसर्गशान्तये 'उवसग्गहरं पासं' इति नूतनं स्तोत्रं रचयांचक्रुः। ॥ इति वराहमिहिरप्रबन्धः॥ 20 २२०) अथ ढङ्काभिधाने भूभृति रणसिंहनामा राजपुत्रस्तन्नन्दनां भूपलनाम्नी सौन्दर्यनिर्जितनागलोकवालामालोक्य जातानुरागतया तां सेवमानस्य वासुके सुतो नागार्जुननामा समजनि। तेन पातालपालेन सुतलेहमोहितमनसा सर्वासामपि महौषधीनां फलानि मूलानि दलानि च भोजित:ततस्तत्प्रभावान्महासिद्धिभिरलङ्कृतः सिद्धपुरुषतया पृथ्वीं विगाहमानः शातवाहननपतेः कलागुरोर्गरीयसी प्रतिष्ठामुपागतोऽपि गगनगामिनी विद्यामध्येतुं श्रीपादलिप्तपुरे पालितांचा-25 योन सेवमानोमानोज्झितमति जनावसरे पादलेपप्रमाणेन गगनोत्पतितान् श्रीअष्टापदप्रभतीनि तीर्थानि नमस्कृत्य तेषां स्वस्थानमुपेयुषांपादौ प्रक्षाल्य ज्ञातसप्तोत्तरशतसंख्यमहौषधीनामाखाद-वर्ण-घ्राणादिभिर्निीय च गुरूनवगणय्य कृतपादलेपः कृकवाकुकलापिवदुत्पतन्" अवटतटे निपतंश्च तद्गुणश्रेणिजर्जरिताङ्गो गुरुभिः किमेतदित्यनुयुक्तो यथाववृत्तान्तं निवेदयन् , तच्चातुर्यचमत्कृतचेतोभिस्तच्छिरसि पद्महस्तप्रदानपूर्वकं 'षाष्टीकतन्दुलोदकेन तानि भेषजान्यभ्यज्य 30 १-१ एतदन्तर्गतपाठस्थाने P 'तेषामुपदेशे वराहमिहिराय मंत्रिणा निवेदिते' एष पाठः। 1 BP बिडालबालरक्षायनं । 2 BP नास्ति । 3D नास्ति 'रोहन्मोह'। 4 D'शास्त्र' नास्ति । 5 D व्यभिचारीति । * एतत्पद्यं गद्यरूपेण लिखितं D पुस्तके । 6 D ध्वान्तारितस्य । 7 'तेषु' स्थाने D 'तथानाप्युनः। 8 D 'उपासकान्' नास्ति । 9 P नामिकां। 10 P लोकाङ्गनां । 11 B तस्य वासुकेः। 12 P महीं। 13 P महतीं। 14 AD पादलिप्सा। 15 'मानोज्झित' स्थाने D 'व्रत' शब्दः । 16P प्रणम्य । 17 D उत्पत्यावटे । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्रबन्धचिन्तामणिः । [पञ्चमः तत्पादलेपाद गगनगामी भूया' इति तदनुग्रहादेकां सिद्धिमासाद्य 'श्रीपार्श्वनाथपुरतः साध्यमानो रसः समस्तस्त्रैणलक्षणोपलक्षितपतिव्रतावनिमद्यमानः कोटिवेधी भवतीति तन्मुखा. दाकर्ण्य च; यत्पुरा समुद्रविजयदाशार्हेण त्रिकालवेदिनः श्रीनेमिनाथमुखात् [श्रुत्वा] महातिशायिनः श्रीपार्श्वनाथस्य बिम्ब रत्नमयं निर्माप्य श्रीद्वारवत्यां प्रासादे न्यस्तम्, द्वारवतीदाहानन्तरं 5 समुद्रण प्लावितायां तस्यां पुरि, तत्र समुद्रे तस्मिन्बिम्बे तथैव विद्यमाने कान्तीत्यसांयात्रिकस्य धनपतिनानो यानपात्रे देवतातिशयवशात् स्खलिते, इह जिनबिम्बमस्तीति दिव्यवाचा निर्णीय नाविकांस्तत्र प्रक्षिप्य सप्तसंख्यैरामतन्तुभिः सन्दानितमुद्धृत्य निजायां पुरि चिन्तितातीतलाभात् स्वयंकृतप्रासादे न्यस्तवान् । तत्सर्वातिशायिबिम्ब नागार्जुनः स्खसिद्धरससिद्धयेऽपहृत्य सेडीतटिन्यास्तटे विन्यस्य तत्पुरतो रससाधनाय श्रीशातवाहनस्यैकपत्नी चन्द्रलेखाभिधानां 10 प्रतिनिशं सिद्धव्यन्तरसान्निध्यात्तत्रानीय रसमर्दनं कारयति स्म। इत्थं भूयो भूयस्तत्र यातायाते सति बन्धुबुद्ध्या सा नागार्जुनपार्श्वे तदौषधीनां मर्दनहेतुं पृच्छन्ती सोऽपि खकल्पनया कोटिवेधरसस्य यथावस्थितं वृत्तान्तं निवेदयन् , तस्याश्च वचनगोचरातीतं सत्कारं कुर्वाणोऽनन्यसामान्यं सौजन्यं प्रवर्द्धयामास । अथ कदाचित्तया निजाङ्गजयोरस्मिन् वृत्तान्ते निवेदिते तो तल्लुब्धौ राज्यं परित्यज्य नागार्जुनसमलवृतां भुवमागतौ कैतवेन तस्य रसस्य जिघृक्षया गुप्तवेषौ यत्र 15 नागार्जुनो भुङ्क्ते तत्र तामर्थदानेन परितोष्य रसवार्ता पृच्छतः। सा च तजिज्ञासया तदर्थं सलवणां रसवती कुर्वती षण्मास्यां व्यतीतायां तस्मिन् क्षारामिति रसवती दूषयति सति, इङ्गितैः सिद्धं रसमिति ताभ्यां निवेदितवती । अथ प्रतिपन्नभागिनेयाभ्यां ताभ्यां रसग्रसनलालसाभ्यां वासुकिना निर्णीतदर्भाङ्कुरमृत्युमिति परम्परया ज्ञाततत्त्वाभ्यां तेनैव शस्त्रेण तथैव स निजने । स रसः सप्रतिष्ठितत्वावताधिष्ठानाच तिरोहितो बभव । यत्र स रसः स्तम्भितस्तत्र स्तम्भनका. 20भिधानं श्रीपार्श्वनाथतीर्थ रसादप्यतिशायि सकललोकाभिलषितफलप्रदम् । ततः कियता कालेन तद्विम्यं वदनमात्रवर्ज भूम्यन्तरितं बभूव ।। __२२१) अथ श्रीशासनदेवतादेशात् षण्मासी यावदाचाम्लानि निर्मायतया निर्माय कठिनीप्रयोगेण नवाङ्गवृत्तौ निवृत्तायां श्रीअभयदेवसूरीणां वपुषि प्रादुर्भूते प्रभूतप्रसूतिरोगे पातालपालः श्रीधरणेन्द्रनामा सितसर्परूपमास्थाय तद्वपुर्जिह्वया विलिहाँ प्रसह्यं निरामयीकृत्य तत्तीर्थ 25 श्रीमदभयदेवसूरीणामुपदिदेश। श्रीसंघेन सह समागतास्तत्र ते सूरयः प्रस्रवन्ती सुरभि विलो क्य गोपालबालैर्निवेदितायां भुवि नवं द्वात्रिंशतिकास्तवमवास्तवं" कुर्वन्तस्त्रयस्त्रिंशत्तमे वृत्ते तत्र श्रीपार्श्वनाथविम्ब प्रादुश्चक्रुः । देवतादेशेन च तद्वृत्तं गोप्यमेव निर्ममेशो" निर्ममे। २६३. *जन्माग्रेऽपि चतुःसहस्रशरदो देवालये योऽर्चितः स्वामी वासववासुदेववरुणैः स्वावासमध्ये" ततः। कान्त्यामिभ्यधनेश्वरेण महता नागार्जुनेनार्चितः पायात्स्तम्भनके पुरे स भवतः श्रीपार्श्वनाथो जिनः॥ ॥इति नागार्जुनोत्पत्ति-स्तम्भनकतीर्थावतारप्रबन्धः॥ __ 1 D लक्षितः। 2 P वनिता पतिदेवतया मद्यमानः। 3D वाहनपत्नीं। 4 P कुर्वाणा। 5 P सुप्रतिष्ठानदेवताधिष्ठानवशो रसश्च । 6 D नास्त्येतत्पदं। 7P पतितमिदं पदं। 8 D नास्ति 'प्रसूति'। 9P लेलिह्य। 10 D प्रसद्य। 11 'अवास्तवं' नास्ति DI 12 'जय' शब्दो नास्ति DI 13 AD नास्ति । *P आदर्श एतत्पद्यं नोपलब्धम् । 14 D यन्मार्गेपि । 15 B स्वर्द्धिमध्ये। 16 B.नाञ्चितः। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः ] प्रकीर्णकप्रबन्धः । २२२) अथ पुराऽवन्त्यां पुरि कश्चिद्विप्रः पाणिनिव्याकरणोपाध्यायतां कुर्वाणः सिप्रासरित्प्रान्तवर्त्तिचिन्तामणिगणेशप्रणामगृहीताभिग्रहः, छात्रैः फक्किकाव्याख्यानप्रश्नादिभिरुद्वेजितः कदाचित् प्रावृषि तस्या सरितः पूरे प्रसर्पति कृतझम्पापातः, दैवात् सङ्घटितवृक्षस्तन्मूले करावलम्बनस्तत्तीरमासाद्य प्रत्यक्षं परशुपाणिं प्रणमन्, तेन तत्साहसानुष्ठानेन वरं वृणीष्वेत्यादिष्टः, पाणिनि व्याकरणस्योपदेशं प्रार्थयमानस्तेन तथेति प्रतिपद्य खटिकार्पणपूर्व * प्रतिदिनं व्याकरणे 5 व्याख्यायमाने षण्मासीपर्यन्ते व्याकरणे समर्थिते सति लम्बोदरं निर्विलम्बमनुज्ञाप्य तत्प्रथमादर्श सहादाय तां पुरीं प्रविश्य कस्यापि पुरस्य स्थण्डिले निषण्ण एव सुष्वाप । ततः प्रत्यूषे प्रेष्याभिस्तं तथावस्थितं प्राप्यं विपणिरमणी तद्वृत्तान्तं ज्ञापिता सती ताभिरेव तं समानीय प्रेङ्खोलपल्यङ्के मुक्तः । अहोरात्रत्रयान्ते किञ्चित्त्यक्तनिद्रश्चित्रशालादिचित्रं चित्रकारि पश्यन् स्वर्लोकसमुत्पन्नमात्मानं मन्यमानस्तया पणहरिणीदृशा ज्ञापितवृत्तान्तः लानपान भोजना- 10 दिभिर्भक्तिभिः परितोषितो नृपसभायां समुपेतः, पाणिनिव्याकरणं यथावस्थितं व्याचक्षाणो नृपप्रभृतिपण्डितैरशेषैः सत्क्रियमाणस्तदुपात्तं सर्वस्वं तस्यै समर्पयामास । २२३) अथ तस्य क्रमेण चतुर्णां वर्णानां स्त्रियश्चतस्रः प्रिया अभवन् । तथा क्षत्रियाङ्गजः श्रीविक्रमार्कः, शूद्रीसुतो भर्तृहरिः, स हीनजातित्वात् भूमिगृहस्थो गुप्तवृत्त्याऽध्याप्यते । अपरे त्रयः प्रत्यक्षाः पाठ्यन्ते । एवं भर्तृहरिरज्जुसङ्केतेन तेषामध्याप्यमानानाम् 15 १२.१ २६४. दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । [ यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ।। ] इति पाठ्यमाने' भर्तृहरिरज्जुसङ्केतेऽसञ्जायमाने प्रत्यक्षच्छान्त्रैस्त्रिभिरुत्तरार्द्धे पृच्छ्यमाने स कुपितः उपाध्यायः - 'रे वेश्यासुत ! अद्यापि' रज्जुसङ्केतं न कुरुषे' इत्याकुष्टः * प्रत्यक्षीभूय शास्त्रकारं निन्दन् 20 २६५. आयासशतलब्धस्य प्राणेभ्योऽपि गरीयसः । गतिरेकैव वित्तस्य दानमन्या विपत्तयः ॥ इति पाठाद्वित्तस्यैकामेव गतिं मेने । तेन भर्तृहरिणा वैराग्यशतकादिप्रबन्धा भूयांसश्चक्रिरे । ॥ इति भर्तृहरि-उत्पत्तिप्रबन्धः ॥ २२४) अथ श्रीधारायां मालवमण्डनस्य श्री भोजराजस्यायुर्वेदवेदी कश्चिद् वाग्भटनामाऽऽयुर्वेदोदितानि कुपथ्यानि विधाय तत्प्रभावात् रोगान् प्रादुःकृत्य पुनस्तन्निग्रहाय सुश्रुतविश्रुतैर्भेषजैः पथ्यैश्च तान्निगृह्य, नीरमन्तरेण कियत्कालं जीव्यते इति परीक्षार्थं तत्परिहृत्य, दिनत्रयान्ते 25 पिपासापीडितताल्वोष्ठपुट इत्यपाठीत् २६६. क्वचिदुष्णं क्वचिच्छीतं क्वचित्क्वथितशीतलम् । क्वचिद्भेषजसंयुक्तं वारि क्वापि न वारितम् ॥ इति वारिसत्कारकारि वाक्यमिदमपाठीत् । तेन निजानुभूतो वाग्भटनामा प्रसिद्धो ग्रन्थो' विदधे । तस्य जामाताऽपि लघुबाहडः श्वशुरेण बृहद्वाहडेन सह राजमन्दिरे प्रयातः । प्रत्यूष - काले श्रीभोजस्य शरीरचेष्टितं विलोक्य बृहद्बाहडेनाद्य नीरुजो यूयमित्युक्ते लघोर्मुखभङ्गं वि - 30 लोक्य श्रीभोजेन कारणं पृष्टः स 'स्वामिनः शरीरेऽद्य निशाशेषे कृष्णच्छायाप्रवेशसूचितो राज * B सम्ज्ञका प्रतिरितः परं त्रुटिं प्राप्ता । 1 P वीक्ष्य । 2P नास्ति । 3D हरिसंकेतेन । + AD आदर्शेऽस्य श्लोकस्य एष उत्तराधों न लभ्यते । १-१ एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता A आदर्शे । 4 D इत्यानुषन् ; A इत्यादिष्टः । 5 P तत्प्रवरान् । 6 AD प्रबन्धः। 7 AD चक्रे । 8 Da शरीरेङ्गितं । 16 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १२२ प्रबन्धचिन्तामणिः । [पञ्चमा पक्ष्मणः प्रवेशोऽभूदिति देवतादेशेनातीन्द्रियं भावं विज्ञपयन्, तत्कलाकलापचमत्कृतेन राज्ञा तस्य व्याधेः प्रतीकारतयानुयुक्तो लक्षत्रयमूल्यं रसायनं निवेदयन् , षद्भिर्मासैस्तावता द्रव्यव्ययेन परमादरेण च तस्मिन् रसायने सिद्धे, प्रदोषसमये तद्रसायनं काचमये कुम्पके विन्यस्य नरेन्द्रपल्यङ्के निधाय प्रत्यूषे देवतार्चनानन्तरं तद्रसायनमन्तुमिच्छुः, रसायनपूजावर्धापनादनु 5 सजीकृतायां समग्रसामय्यां स लघुरगदंकारी केनापि कारणेन तं काचकुम्पकं भूमावास्फाल्य बभञ्ज । आः किमेतदिति राज्ञोक्ते रसायनपरिमलबलादेव' पलायिते व्याधौ व्याधेरभावाद्धातुक्षयकारिणानेन वृथा स्थापितेनालम् , यदद्य शर्वरीविरामे सति सा पूर्वोक्ता कृष्णा छाया प्रभोवपुरपास्य दूरं गतैव ददृशे, इत्यर्थे देवः प्रमाणमिति तदीयसत्यप्रत्ययेन परितोषितो राजा दारि यद्रोहि पारितोषिकं प्रसादीचकार । 10 २२५) अथ ते सर्वे व्याधयस्तेन चिकित्सितेन भूतलादुच्छेदिताः, खोकेऽश्विनीकुमारवैद्ययोः खपराभवं निजगदुः। अथ तो तया प्रवृत्त्या चित्रीयमाणमानसौ नीलवर्णविहङ्गमयुग्मीभूय व्याधिप्रतिभटस्य लघुवाग्भटस्य धवलगृहवातायनतले वलभ्यां निविष्टौ 'कोऽरुक' शब्दं चक्रतुः। अर्थ स आयुर्वेदवेदी नेदीयांसं तदीयं शब्दं साभिप्रायं चेतसि चिरं विचिन्त्य२६७. अंशाकभोजी घृतमत्ति योऽन्धसा पयोरसान् शीलति नातिपोऽम्भसाम् । अभुक् विरुट् वातकृतां विदाहिनां चलत्प्रमुक् जीर्णभुगल्पशीररुक्" ॥ इति" भणितानन्तरं किञ्चिचमत्कृतचित्तौ तौ प्रयातौ । पुनर्द्वितीयदिने द्वितीयवेलायां तादृक्पक्षिरूपं विधाय प्राक्तनशब्दं कुर्वाणौ समायातौ वैद्यगृहे । पुनस्तयोर्वचः २६८. वर्षासु" यस्तिष्ठति शरदि पिबति हेमन्तशिशिरयोरत्ति। ___ माद्यति मधुनि ग्रीष्मे स्वपिति भवति खग! [नरः] सोऽरुक् ॥ 20. इति भणितानन्तरं पुनरेव गतौ।'तृतीयदिने योगीन्द्ररूपं कृत्वा तद्गृहे समागतौ । तयोर्वच: २६९. अभूमिजमनाकाशमहट्टान्तमवारिजम् । सम्मतं सर्वशास्त्राणां वद वैद्य ! किमौषधम् १ ॥ पुनर्वैद्यवचः २७०. अभूमिजमनाकाशं पथ्यं रसविवर्जितम् । पूर्वाचार्यैः समाख्यातं लङ्घनं परमौषधम् ॥ तत्ते निजाभिप्रायसदृशप्रत्युत्तरत्रयदानेन" चमत्कृतचित्तौ वैद्यौ प्रत्यक्षीभूय यथाभिमतं वरं 25 वितीर्य स्वस्थानं भेजतुः। ॥ इति वैद्यवाग्भटप्रबन्धः॥ २२६) अथ धामणउलिग्रामे वास्तव्यो धाराभिधानः कोऽपि नैगमः श्रिया वैश्रवणस्पर्धिष्णुः सङ्घाधिपत्यमासाद्य माद्यद्रविणव्ययव्यतिकरजीवितजीवलोकः पञ्चभिरङ्गजैः समं श्रीरैवताचलोपत्यकायां विहितावासः, दिगम्बरभक्तेन केनापि गिरिनगरराज्ञा सिताम्बरभक्त इति स 30 स्खल्यमानस्तद्वयोः सैन्ययोः समरसंरम्भे प्रवर्त्तमाने सति अमानेन रणरसेन युध्यमाना देवभ 1D परिमलादेव। 2P 'अनेन' नास्ति । 3 D'लघु नास्ति । 4 D ततः। 5A आशाक। 6 A घृतमत्पयोंभ्रसा। 7 D नात्ति योऽम्भसा। 8 D विभुक्। 9 D नापकृतां; A तावकृतां । 10 P चलप्रभुक् । 11 DOल्पसारभुक् । 12 D इत्यभाणि। 18 D 'किञ्चित्' नास्ति। 14 D वचः प्रतिवचः। 15 P वर्षा । १-१ एतदन्तर्गता पंक्तिः P प्रतौ पतिता। 16 D अहन्तव्यम। 17 इदं पदं D पुस्तके मूलग्रन्थे नास्ति । 18 A धारणउलि०। 19 A धाराख्यः; P नास्ति। 20 DOराजेन । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशः] प्रकीर्णकप्रबन्धः। १२३ त्यातिशयवल्लभतया प्रोत्साहितसाहसा विपद्य ते पश्च पुत्राः पञ्चापि क्षेत्रपतयो बभूवुः । तेषां क्रमेण नामानि-कालमेघः१, मेघनादः २, भैरवः ३, एकपदः ४, त्रैलोक्यपादः ५-इति बभूवुः। तीर्थप्रत्यनीकं पश्चतां नयन्तस्ते पश्चापि गिरेः परितो विजयन्ते स्म । २२७) अथ तत्पिता धाराभिधान एक एवावशिष्टः कन्यकुब्जदेशे गत्वा श्रीबप्पभटिसूरीणां व्याख्याक्षणप्रक्रमे श्रीसङ्घस्याज्ञां दत्तवान्-'यदैवतकतीर्थ दिगम्बराः कृतवसतयः सिताम्बरान् 5 पाषण्डिरूपान् परिकल्प्य पर्वतेऽधिरोढुं न ददति; अतस्तान् निर्जित्य तीर्थोद्धारं कृत्वा निजदर्शनप्रतिष्ठापरैर्व्याख्याक्षणो विधेय' इति तद्वचनेन्धनप्रोज्वलितप्रतिघंप्रज्वलनादामनृपति सहादाय तेन समं तां भूधरधरामवाप्य सप्तभिर्दिनैर्वादस्थलेन दिगम्बरान् पराजित्य श्रीसङ्घसमक्षं श्रीअम्बिकां प्रत्यक्षीकृत्य 'इक्कोवि नमुक्कारे०' 'उजिन्तसेलसिंहरे०' इति तदुक्तां गाथामाकर्ण्य सिताम्बरदर्शने स्थापिते सति पराभूता दिग्वसना बलानकमण्डपात् झम्पापातं वितेनुः। 10 ॥ इति क्षेत्राधिपोत्पत्तिप्रबन्धः॥ २२८) अथ कदाचिद्भवान्या भव इति पृष्टः-'यत्त्वं कियतां कार्पटिकानां राज्यं ददासि?' इति तद्वाक्यादनु 'यो लक्षसङ्ख्यानामपि एक एव वासनापरस्तस्यैव राज्यमहं वितरामी'ति प्रत्ययदर्शनाय गौरी पङ्कमग्नां जरती गवीं विधाय खयं नररूपेण तटस्थः पङ्कात्तामुद्धत्तुं पान्थानाकारयन् तैरासन्नसोमेश्वरदर्शनोत्कैरुपहस्यमानः कृपावता केनापि पथिकवृन्देन तस्यामुद्धामारब्धायां 15 सिंहरूपेण शिव एव तान् त्रासयन् कश्चिदेक' एव पथिको मृत्युमप्यादृत्य तस्या गोः समीपं नौज्झत् । स एव राज्याई इति पृथक् कृत्य गौर्या दर्शितः। ॥ इति वासनाप्रबन्धः॥ २२९) अथ कश्चित्कार्पटिकः सोमेश्वरयात्रायां व्रजन् पथि लोहकारौकसि प्रसुप्तः । तस्य लोहकारभार्या पतिं निहत्य कृपाणिकां कार्पटिकशीर्षे निदधती बुम्बारवमकरोत् । आरक्षकेण 20 तत्रागत्य तस्यापराधिनः करौ छिन्नौ । स सदैव देवस्योपालम्भनपरः निशि प्रत्यक्षीभूयेत्युक्तः'शृणु, त्वं खं प्राग्भवम्"-कदाचिदजा" केनापि एकेन सोदरेण पाणिभ्यां श्रवणयोधूता, तदपरेण मारिता । ततः सा अजा मृत्वा इयं योषिदजनि । येन व्यापादिता स साम्प्रतं पतिरभूत् । यत्त्वया को विधृतौ तदा तव समागमे जाते सति करौ छिन्नौ । तत्कथं ममोपालम्भः । ॥ इति कृपाणिकाप्रबन्धः॥ २३०) पुरा शङ्खपुरनगरे श्रीशङ्खो नाम नृपतिस्तत्र नामकर्मभ्यां धनदः श्रेष्ठी। स कदाचित्करिकर्णतालतरलां कमलां विमृश्योपायनपाणिर्नृपोपान्तमुपेत्य तं परितोष्य च तत्प्रसादीकृतायां भुवि चतुर्भिनन्दनैः सह समालोच्य सुलग्ने जिनप्रासादमचीकरत् । तत्र प्रतिष्ठितबिम्बानां स्थापनां विधाय, तस्य प्रासादस्य समारचनाय बहून्यायद्वाराणि रचयन् , तत्सपर्यापर्याकुलतया नानाविधकुसुमवृक्षावलीसमलङ्कृतमभिराममारामंच निर्माप्य, तचिन्तकेषु गोष्ठिकेषु नियुक्तेषु, 30 उदिते प्राक्तनान्तरायकर्मणि क्रमात् संहियमाणसम्पदधमणेतया तत्र मानम्लानिमाकलय्यान....... 1P इत्यादयः ।...2 D. पर्वताधिरूढान्नेच्छन्ति ।-3 'प्रतिघ-' स्थाने D. 'प्रतीप-।- 4 P-आसाय -5 D इत्यादि। 6 D पान्थांस्तामुद्धर्तुमाकारयन् । 7 P कोऽप्येक। 8 P कारगृहे। 9 P सांराविणं । 10 D नास्ति। 11 D त्वया प्राग्भवे। 12 A कदाप्यजा। 13 P नास्ति। 14 D नास्ति। 25 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्रबन्धचिन्तामणिः । [ पश्चमः तिदूरवर्तिनि कापि ग्रामे कृतवसतिनगरयातायातेन सुतोपात्ताजीविकः कियन्तमपि कालमतिवाहितवान् । अथान्यस्मिन्नवसरे सन्निहिते चतुर्मासकपर्वणि तत्र यायिभिः सुतैः समं स धनदः शङ्खपुरं प्राप्य निजप्रासादसोपानमधिरोहन , निजारामपुष्पलाविकयोपायनीकृतपुष्पचतुःसरिकः परमानन्दनिर्भरस्ताभिर्जिनेन्द्रमभ्यर्च्य, निशि गुरूणां पुरः खं दौस्थ्यममन्दं निन्दन्, तैः प्रद5त्तकपर्दियक्षाकृष्टिमन्त्रोऽन्यदा कृष्णचतुर्दशीनिशीथे तमेव मन्त्रमाराधयन् , प्रत्यक्षीकृतात् कपदियक्षात् गुरूपदेशतश्चतुर्मासकावसरे पुष्पचतुःसरिकपूजापुण्यफलं देहीति प्रार्थयन् , तेन 'एकस्यापि पूजाकुसुमस्य पुण्यफलं सर्वज्ञेन विना नाहं वितरीतुं प्रभूष्णुरि ति; किं तु कपर्दियक्षस्तस्य साधर्मिकस्यातुल्यवात्सल्यसम्बन्धे तद्धानि चतुर्ष कोणेषु सुवर्णपूर्णान् चतुरः कलशान निधी कृत्य तिरोदधे । स प्रातः स्वसद्मनि समागतः धर्मनिन्दापराणां नन्दनानां तद्रव्यं समर्पया10 मास । तेऽपि निबन्धात् पितुः पार्श्वे तद्विभवलाभहेतुं पृच्छन्तस्तेषां हृदि धर्मप्रभावाविर्भावाय जिनपूजाप्रभावतः परितुष्टेन कपर्दियक्षेण प्रसादीकृतां तां संपदं निवेदयामास । तेऽपि सम्पन्नसम्पत्तयस्तदेव जन्मनगरं समाश्रित्य निजधर्मस्थानसमारचनपरा जिनशासनप्रभावनां विविधां कुर्वन्तो वैधर्मिकाणामपि मनस्सु जिनधर्म निश्चलीचक्रुः। ॥ इति श्रीजिनपूजायां धनदप्रबन्धः ॥ 15 ॥ इति श्रीमेरुतुजाचार्यविरचिते' प्रबन्धचिन्तामणौ विक्रमादित्योदितपात्रविवेचनप्रमुखं जिनपूजायां' धनदप्रबन्धपर्यन्तवर्णनो नाम प्रकीर्णकाभिधानः पञ्चमः प्रकाशः समर्थितः ॥ 'असिन्प्रकाशे ग्रन्थसंख्या ७७४ । समस्तग्रन्थे प्रतिश्लोकं ग्रन्थाग्रं ३१५० ॥ - 1D नास्ति। 2 P अतुच्छ०। 3 D धर्मदान। 4 AD वीतराग०। 5 P.चार्याविःकृते । 6P प्रभृति तथा । 7 A अहंदर्चायां। 8 P नास्ति । + P प्रतावेवेयं पंक्तिदृष्टा । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकारस्य प्रशस्तिः। दुःपापेषु' बहुश्रुतेषु गुणवद्वृद्धेषु च प्रायशः __ शिष्याणां प्रतिभाभियोगविगमादुच्चैः श्रुते सीदति । प्राज्ञानामथ भाविनामुपकृतिं कर्तुं परामिच्छता ग्रन्थः सत्पुरुषप्रबन्धघटनाचक्रे सुधासत्रवत् ॥१॥ प्रबन्धानां चिन्तामणिरयमुपात्तः करतले स्यमन्तस्य भ्रान्ति रचयति चिरायोपनिहितः। हृदि न्यस्तः शस्तां सृजति विमलां कौस्तुभकलां तदेतस्माद् ग्रन्थाद्भवति विबुधः श्रीपतिरिव ॥२॥ यथाश्रुतं सङ्कलितः प्रबन्धैर्ग्रन्थों मया मन्दधियापि यत्नात् । मात्सर्यमुत्साय सुधीभिरेष प्रज्ञोधुरैरुन्नतिमेव नेयः ॥ ३॥ यावदिवि कितवाविव रविशशिनौ क्रीडतो ग्रहकपर्दैः । ग्रन्थस्तावन्नन्दतु सूरिभिरुपदिश्यमानोऽयम् ॥४॥ त्रयोदशखब्दशतेषु चैकषष्ट्यधिकेषु क्रमतो गतेषु । वैशाखमासस्य च पूर्णिमायां ग्रन्थः समाप्तिं गमितो मितोऽयम् * ॥५॥ 15 नृपश्रीविक्रमकालातीत' संवत् १३६१ वर्षे वैशाखसुदि. १५ रवावयेह श्रीवर्द्धमानपुरे प्रबन्धचिन्तामणिग्रन्था समर्थितः। ॥ समाप्तोऽयं प्रबन्धचिन्तामणिग्रन्थः ॥ 1P दुःप्रायेषु। 2 P प्रबन्धग्रन्थो। 3 P उत्सृज्य । * D पुस्तके एतत्पद्यं टिप्पणीस्थाने उद्धृतं प्राप्यते, परं APDa. आदर्श मूलग्रन्थ एव समुपलभ्यते। + एतत्पदं P प्रतौ नास्ति । AD 'वैशाख' स्थाने 'फाल्गुण' शब्दो विद्यते स भ्रान्तिमूलक एव । Jain Education Interational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्कुमारपालस्य अहिंसाया विवाहसम्बन्धप्रबन्धः । नाभून्न भविता श्रीमद्धेमसरिसमो गुरुः । श्रीमान् कुमारपालश्च जिनभक्तो महीपतिः॥१॥ अथ चौलुक्यचक्रवर्तिनः प्रभुप्रतिबोधान्मारिनिवारणप्रबन्धश्चैवम्-कस्मिन्नप्यवसरेऽणहिल्ल5 पुरे श्रीकुमारपालदेवनामा नृपो वाहकेल्यां व्रजन सौन्दर्यनिर्जितसुरसुन्दरी बालेन्दुवदनां सदाचरणप्रसरणशीलामपि मन्दचरणप्रचारां मुनिभिः समं क्रीडां कलयन्ती सुकोमलवचाप्रपञ्चचमत्कारितत्रिजगज्जनां सस्मितमधुराकृति कामप्येकां बालिकां वीक्ष्य तद्रूपापहृतचित्तः सन्निहितप्रसादचित्तं 'केयमि'त्यादिशंस्तेनेति विज्ञपयांचवे-'अपारश्रुताकूपारपारदृश्वतया सात कलिकालसर्वज्ञप्रसिद्धीदशभेदभिन्नतपस्समाराधनवशंवशीकृताष्टमहासिद्धेनिःशेषभूपालमौ10 लिमणिचुम्बितपादपीठस्य भगवतः श्रीहेमचन्द्रमहर्षेराश्रमवासिनी अहिंसानाम्नी कनीयम् । *अस्या याथातथ्यानुरूपनिरूपणविधौ न प्रगणन्ते स्मृतिपुराणवचांसि भूयांसि । किन्तु सकलजन्तुजातजनकायितश्रीजिननायकोपदिष्टस्पष्टसिद्धान्तोपनिषदावासितहृदा केनापि मुनिपुङ्गवेन प्ररूपिताऽस्याः स्थितिरीतिः, नान्येनेति वाचमाकर्ण्य खसौधमध्यास्त नृपतिः। परं तस्याः खरूपावबोधाय तथाङ्गीकाराय च परमरसिको भाग्यसौभाग्यादि तदङ्गीकारेण कृतार्थ कर्तुकामो 15 विवेकनाम्ना मित्रप्रवरेण आदिष्टवर्मना तेषामेव मुनीनां आश्रममासाद्य तत्पुरः क्रीडता सदाचारनाम्ना तद्भात्रा प्रख्याततदागमप्रवृत्तीन् समचित्तवृत्तीन् तान् श्रीहेमचन्द्रसूरिमहर्षीन् सहर्ष सभक्तियुक्तिकं क्षितितलमिलन्मौलिरानम्य तस्याः स्वरूपं पप्रच्छ । तैरथोचे-'शृणु नृपपुङ्गव !* त्रिजगदेकसार्वभौमस्य श्रीमदर्हद्धर्माधिपस्यानुकम्पामहादेव्याः कुक्षिसरसीराजहंसी निःसीमसौन्दर्या अहिंसाभिधेयं कनी। यस्मिल्लग्ने सुतेयमजनि तल्लग्नग्रहबलं तत्पित्रा सर्वविदा 20 एवमादिष्टम्-यद्यिमतीव पुण्यवती सुदतीशिरोमणिर्दुहिता । पुत्रजन्मोत्सवादप्यस्या जन्म श्लाघ्यम् । यत: श्रियाऽम्भोधिं विधिं वाचां देव्या व्यालोक्य विश्रुतौ । दुष्पुत्रदुःखान्नार्केन्दू तापमकं च मुञ्चतः॥२॥ अतः क्रमाद् वर्द्धमाना कन्याऽसौ अनुरूपवराप्राप्त्या वृद्धकुमारी भूत्वा केनाप्यनुरूपेण महीमहेन्द्रेण सोपरोधमूढा सती सतीमतल्लिका तमुवोढारं च खं च जनकं च परामुन्नतेः कोटिं नेष्य25 तीति। स चोद्वोढा लीलयैव महामोहमहीपं जित्वा परमानन्दभाजनं भवितेति' श्रुत्वा नृपोऽवादीत् -'प्रभो! अधुनाहद्धर्मपुत्री श्रीयुष्मचरणकमलमुपासती श्रीयुष्मद्वचसैव परिणेतुं शक्येत नान्येन। ततः प्रसीदन्तु पूज्यपादाः, विषीदन्तु विषादाः, प्रवर्ततां महामोहजयः, प्रामोमि परमानन्दमिति वचःपर्यन्ते गुरुराह-'इयं वृद्धकुमारी । दुःपूरस्तस्याः सङ्गरः । तं सङ्गरं तस्या एव पार्था एतदन्तर्गतः पाठः A आदर्श नास्ति । 1 'एकां' नास्ति P। 2 P सन्निहितं सदाचारनामानं तद्रातरमिव । * एतद्वितारकान्तर्गतं वर्णनं A आदर्श नास्ति । तत्रैतत्स्थाने 'इति निशम्य नृपः कदाचित् तान् महर्षीन् मोदभाक् सभक्तिकं सौधमाकार्य तद्वृत्तान्तं पृच्छंस्तैरूचे-' इत्येवंरूपा संक्षिप्ता पंक्तिः। एतदन्तर्गतं वर्णनं A आदर्श नास्ति । तत्र तु अस्य स्थाने 'तद्वाक्यपर्यन्ते तदर्थे तामनुकूल्य तस्याः सविधे सुबुद्धिनाम्नी दूर्ती प्राहिणोत् ।' एतावती संक्षिप्ता पंक्तिर्विद्यते। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 कुमारपालस्याहिंसाया विवाहसम्बन्धप्रबन्धः । १२७ छुत्वा परिणेया नान्यथा' इति पीयूषकल्पां वाचमाकर्ण्य तस्याः सविधे सुबुद्धिनामदूतीं अनुकूल्य प्राहिणोत् । सा तांसप्रश्रयं प्रणिपत्य व्यजिज्ञपत्-'खामिनि राजकन्ये! धन्यतमासि; यत्त्वामष्टादशदेशसम्राट् समस्तसामन्तसीमन्तमणिमयूषमालालङ्कृतचरणकमलयुगलश्चौलुक्यचक्रवर्तीश उद्वोढुमभिलषति ।' इति तद्वचसा मुखमोटनया नाटयन्ती सोपहासोल्लासं सैवं प्राह"सखि ! अलं नरकान्तप्राज्यसाम्राज्यप्राप्तिलोभनवार्ताविस्तरेण । परमनुकूलमेव दयितं समीहे । 5 पुरुषा हि परुषाशया नानाविधानुरागवन्तः, तैः किं क्रियेत । यतः. अनूढा[पि]वरं कन्या रूपयौवनवत्यपि । निष्कलेनानुकूलेन न कुपत्या विडम्बिता ॥३॥ परं शृणु,निष्किञ्चनेन दयितेन' विवाहितानां यद् योषितां सुखपदं न तदीश्वरेण । भागीरथीं वहति यां शिरसा गिरीशो लक्ष्मीपतिः स्पृशति नैव पुनः पदापि ॥ ४॥ तथा वृथा जानीहि मवरणाभिलाषम् , दुःपूरा मे प्रतिज्ञा महीमहेन्द्रेणापि ।' इत्युक्तवतीं युवतीं सा प्राह-'सखि ! भवत्या अहं प्रियसखी अनुपलपनकर्तव्याऽस्मि, तद् ब्रूहि स्वाभिमतमिति । अहं तथा सुबुद्धिर्नाम यथा पूरयामि ते प्रतिज्ञां तेन कुमारपालेन भूपालेने ति उक्ता सा प्रोवाच सत्यवाक् परलक्ष्मीमुक् सर्वभूताभयप्रदः । सदा खदारसन्तुष्टस्तुष्टो मे स पतिर्भवेत् ॥५॥ 15 *[स]दूरं दुर्गतेबन्धून् दूतान् सप्तपौरुषान् । निर्वासयति यश्चित्तात्स शिष्टो मे पतिर्भवेत् ॥ ६॥ मत्सोदरं सदाचार संस्थाप्य हृदयासने । तदेकचित्तः सेवेत स कृती मे पतिर्भवेत् ॥ ७ ॥ इति तद्वाचमाकर्ण्य सकर्णा सा व्यजिज्ञपत्-'शृणु सुलोचने! तदाहं यथार्थनामा, यदा ते प्रतिज्ञा श्रीहेमसूरीन् पुरस्कृत्य समग्रजनसमक्षं तव प्रतिज्ञातानर्थान् समर्थ्य त्वां परिणयति, तदा मां विदग्धां खसखीं मन्येथा, अन्यथा न तृणायेति।' इत्युक्त्वा नृपसंसदि तस्या दुःपूरं सगरमचक-20 थत् । सोऽपि तदवज्ञाकुकूलानभेन (2) सन्तप्तखान्तः परामरतिं बिभ्राणः, तयैव सुबुद्ध्याभिदधे'हे श्रीनिधे ! विधेहि धीरताम् , किं दुष्करं पौरुषाधिष्ठितानाम् । तथा वास्ति निरपायश्यायः(?)। अनुसर्यते हेमचन्द्रमहर्षिः, श्रूयन्ते तद्वचांसि।' इति तथा प्रेरितो विनयदत्तहस्तावलम्बो ययौ उपसूरिम्, ननाम तत्पदाम्बुजान्, पप्रच्छ तत्कनीसङ्गरवृत्तान्तम् । 'वत्स! पूरय तस्याः समीहितं चेत्तस्याः परिणिनीषाऽस्ति । निःसीमोन्नतये परिणेतारं भोस्यते (?) एषा । यतः- 25 १-२ तथा ३-४ अङ्कान्तर्गतं वर्णनं A आदर्श न विद्यते। 1 P कान्तेन तेन च किं च । * एतत्तारकान्तर्गतवर्णनस्थाने A आदर्श निम्नावतारितं संक्षिप्तमेव वर्णनं प्राप्यते । यथा-'इति तस्याः प्रतिश्रवं दुःश्रवमाकर्ण्य सा विफलवैदग्ध्यमानिनी खं पदमुपगता स्वामिनं सर्वथा निराशमकरोत् । तद्नु तं नृपं तद्वियोगाग्निमग्नमाकलय्य श्रीहेमचन्द्रमहर्षिस्तमिति प्रतिबोधितवान्-यः कन्याया इतरलोकदुष्करः संगरः स तवाप्युभयलोकहितस्तदनुकूलनाहेतुश्च । अतस्तमपि निर्मायतया निर्माय स्वनिःसीमोन्नतये सा सर्वथा परिणेतुमुचितैव । यतः .. धन्यां सतीमुत्तमवंशजातां लब्ध्वाधिक याति न कः प्रतिष्ठाम् । क्षीरोदकन्यां गिरिराजपुत्री गोपस्तथोग्रश्च यथाधिगम्य ॥ इति तेन महर्षिणा प्रतिबोध्य तानशेषानमिग्रहान् ग्राहयित्वा तस्याः सम्प्रदानं चक्रे । अथ सं० १२१६ मार्ग सुदि २ द्वितीयलग्ने बलवति संवेगमतङ्गजारूढो रत्नत्रयवस्त्रालङ्कृतो दक्षिणपाणिबद्धदानकङ्कणः सम्यक्त्वानुचरेण समं श्रद्धासहोदरया क्रियमाणलवणावतारणो गुरुभक्तिदेशविरति-जानणीभ्यां दीयमानधवलमङ्गलः पौषधवेश्मद्वारि अनुकम्पया कन्याजनन्या कृतप्रोङ्क्षणः श्रीमन्महादेवस्थाहतः साक्षि स नृपतिरहिंसायाः पाणिं जग्राह ।' Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिपरिशिष्टम् । धन्यां सतीमुत्तमवंशजातां लब्ध्वाधिकां याति न कः प्रतिष्ठाम् । क्षीरोदकन्यां गिरिराजपुत्रीं गोपस्तथोग्रश्च यथाधिगम्य ॥ ८॥ इति तद्वचनमाकर्ण्य दूरितदुरितावलिं योजिताञ्जलिं तं भूपालपुङ्गवं नानाभिग्रहान् ग्राहयित्वा तस्याः प्रदानेनाऽनुजग्राह । ततः प्रमोदः सञ्जज्ञे। संवत् १२१६ वर्षे मार्गसुदि द्वितीयायां बल5 वति लग्ने संवेगमतङ्गजारूढो रत्नत्रयालङ्कृतशरीरः शुभमनःपरिणामवसनवान् दक्षिणपाणिबद्धदानकङ्कणः सम्यसितातपत्रनिवारिततापव्यापः श्रद्धासोदर्या क्रियमाणलवणावतरणो गुरुभक्ति-देशविरति-समिति-गुप्ति-प्रमुखसुमुखीजाणिणीगणदीयमानधवलमङ्गलः अमारिघोष एतत्पू. र्णादितिर्वसे......(2) पटहेषु वाद्यमानेषु प्रोत्सारितेषु परिग्रहप्रमाणपटेषु दूरितेषु पापावकरेषु सद्बोधसुमन श्रेणिवासितासु सन्न्यायराजवीथीषु पौषधागारद्वारमाससाद । तदा अनुकम्पामहा10 देव्या कन्याजनन्या कृतप्रोङ्क्षणः श्रीमदर्हतः साक्षिकं स नृपवरेन्द्रो अहिंसायाः पाणिं जग्राह । तदा तारामेलपर्वणि परमानन्दः। अथ षट्त्रिंशत्सहस्रपरिमाणत्रिषष्टिपुरुषचरित्राणि नवाङ्गवेदीमहोत्सवेन समानिन्थे । वेदिपडघास्थाने कपईपञ्चकन्यासव्यवहारे ते विंशतिर्वीतरागस्तवा नवाः। तत्र वंशे २ एकैकं शमीकाष्ठम् । तत्पदे श्रीयोगशास्त्रप्रकाशाः १२, तथा लक्षण-साहित्य तर्केतिहास-प्रमुखशास्त्ररचना तत्परिकरः। मूलोत्तरगुणाभ्यां दृढीकृत्य वेदिकायां ज्ञानानलमु15 दीप्य, तत्र 'चत्तारी मंगल' इति मङ्गलान्यदात् । द्वासप्ततिलक्षप्रमाणरुदतीकरमोचनं कन्यामुखमण्डने राज्ञा दत्तम् । तत्कालमेव तस्याः पट्टबन्धं कारयित्वा तत्पितुर्योग्यानावासान् १४४४ विहारान्कारयामास । ततः सा हिंसा सपन्या अहिंसायाः परोन्नति तथाविधामालोक्य भर्तुः पराभवनिवेदनाय पितुर्धातुः समीपमुपागता। चिरदर्शनादभिभववैरूप्याच्चानुपलक्षिता तेनेत्यभिदधे का त्वं सुन्दरि ! ?, मारिरसि तनया ते तात धातः प्रिया, किं दीनेव ?, पराभवेन, स कुतः, किं कथ्यतां कथ्यताम् । हेमाचार्यगिरा परायगुणवान् हृद्वक्त्रहस्तोदरान् । ___ मामुत्तार्य कुमारपालनृपतिः क्षोणीतलादाकृषत् ॥९॥ इति तद्भणितेरनन्तरं श्रीकुमारपालदेवस्य सत्यप्रतिज्ञस्यापि तस्य लिङ्गिनो गिरा त्वयि रक्तायां 25 विरक्तचित्ततां विमृश्य, अतःपरं भवत्याः स' कोऽपि प्रवरः वरः करिष्यते यस्तवैव एकातपत्रं कुरुते । धीरा भव' इति तां सम्बोध्य स्वसमीपे स्थापयांचक्रे । अथाहिंसादेव्या साई श्रीकुमारपालनृपतिर्जीवन्नपि, असमानमहानन्दसुखमनुभवन् , चतुर्दशवर्षाणि यावत् सुखेनासामास । तदनु कीर्ति पूर्वप्रियामपि देशान्तरे प्रस्थाप्य यदा खर्लोकमलंचकार, तदैव तस्य प्रियस्य सप्रेमप्रसादललितान्यनुस्मरन्ती कलिमलिनं जनं परिजिहीर्षुरहिंसाऽनेनैव भूमिनाथेन समं 30 गमनं कृतवती। ॥ इति श्रीकुमारपालस्य अहिंसाया विवाहसम्बन्धप्रबन्धः॥ शुभं भवतु ॥ [A. सं० १५०९ वर्षे फागुणसुदि ९ वार रवौ पठता लषी ॥७॥] 20 1A नास्ति । 2 A भव्य एव स। 3A 'असमान' नास्ति। 4 A. अनुभूय। 5 नास्त्येतत्पदं AT GA भूपेन । 7A चक्रे। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क [१] [७७] २५६, २६७, २३५, १८४, प्रबन्धचिन्तामणिग्रन्थान्तर्गतपद्यानुक्रमणिका -अकाराद्यनुक्रमेणपद्याङ्क पृष्ठाङ्क पद्याङ्क अर्थास्तावद् गुणास्तावद् अकरात्कुरुते कोश २१३ ९९ अर्थिभ्यः कनकस्य दीपकपिशा० २०८, अकल्पयदनल्पानि० [१५१]] अर्हन् शिवो भवो विष्णुः० [९४] अकारयदयं वापी० [१५६] अलं कलङ्कशृङ्गार० अक्षत्रक्षतवालिनो भगवतः० २५०, अलङ्कारः शङ्काकरनरकपालं. [४४] अगाधः पाथोधिः० अशाकभोजी घृतमत्ति० अर्जितास्ते गुणास्तेन [१६५] १०२ अश्वा वहन्ति भवनानि० [५२] अद्य मे फलवती पितु० अष्टौ हाटककोटयस्त्रिनवतिः अधाम धामधामार्क० अष्टमो मरुदेव्यां तु. १४२, अधिकारात्रिभिर्मासैः० १८ असंख्यहरिसैन्येन० [१०८] अन्त्योऽप्याद्यः समजनि० १ असेल्या मातङ्गाः परिगलित० २३, अन्धयसुयाण कालो २८ | असौ गुणीति मत्वेव० ११९, अन्नदानैः पयःपान० | अहिंसा लक्षणो धर्मः० अन्नदिणे सिवभवणे० [६२] __ आ अपारपौरुषोद्गारं० [१०७] अपुत्राणां धनं गृह्णान्० आः कण्ठशोषपरिपोषफलं० [१०४] अभ्युद्धृता वसुमती. आकाश प्रसर प्रसर्पत दिश० २५७, अभावप्रभवैर्भावै० ११९ आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणां २२, अभिरामगुणग्रामो० आज्ञावर्तिषु मण्डलेषु० अभूमिजमनाकाशमहट्टान्त० १२२ आतङ्ककारणमकारणदारुणानां० २०१, अभूमिजमनाकाशं पथ्यं १२२ आददानाः पयःपूरं० [१५५] अमर्षणं मनः कुर्वन् __ [१०९] आदौ मयैवायमदीपि० १७८, अमुष्मै चोराय प्रतिनिहत० . ५२, आपणपई प्रभु होईयइ० अमेध्यमश्नाति विवेकशून्या० आपदर्थे धनं रक्षेत् अम्बयफलं सुपकं० १२३, ५१ आपद्गतं हससि किं. अम्बा तुष्यति न मया० ४२ आबाल्याधिगमान्मयैव० अम्मीणउ सन्देसडउ. आयान्ति यान्ति च परे० अम्ह एतलई संतोसु० [१०१] आयासशतलब्धस्य० २६५, अयमवसरः सरस्ते. आयुक्तः प्राणदो लोके० १४६, अयि खलु विषमः पुरा० . १०१, | आरनालगलदाहशङ्कया. [७२]] अर्था न सन्ति न च मुश्चति० ८०, ३५ । आवर्जिता जितारातः० [१४] १९०, FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEES २८ २६९, ० [५७] ४३. १०३ २३२, १२१ २६ ४२ 17 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० इक फुल्लह माटि० राजि नहु काजु ० इदमन्तरमुपकृतये ० इयमुच्चधियामलौकिकी ० इयं कटी मत्तगजेन्द्रगामिनी ० उ उया ताविउ जिहिं न किउ० उज्वलगुणमभ्युदितं क्षुद्रो० उत्थायोत्थाय बोद्धव्यं • उद्दामाम्बुदनादनृत्तशिखिनी ० उद्धूमकेशं पदलग्नमेकं० उन्नाहचिबुकावधिर्भुजलता • उपतिष्ठन्तु मे रोगाः ० उपरुन्धन् विरुद्धानां • उमया सहितो रुद्र: ० ए एउ जम्मु नग्गहं गियउ ० एकस्त्वं भुवनोपकारक • एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा • एकः क्ष्माचक्रपीठे० एकैव जगृहे धारा एतस्मिन्महति प्रदोष समये ० एतस्यास्य पुरस्य • एषाऽऽकृतिरयं वर्णः ० एषा तटाकमिषतावक ० ओ ओलि ताव न अणुहरइ • कच्छपलक्षं हत्वा • कतिपयदिवस स्थायी० कतिपयपुरस्वामी कायव्ययै • २०४, [२८] ४४, २५९, [४५] २८, १८६, ११२, [५४] ३३, १०७, २६, [२२] 8, ७५, २२४, १८१, [१७६] [११४] २४६, [९] ७८, [६६ ] १४७, ३०. ४७, ८८, [ ८२] कथाशेषः कर्णोऽजनि जनकृशा ० १९७, कन्ये कासि न वेत्सि मामपि ० कथलितरू विञ्झगिरी ० १९, प्रबन्धचिन्तामणे ९३ २२ २६ ११७ २४ १९ ८४ ४६ ३० १९ ४३ १८ २० ४, ३२ १०१ ८३ ११५ ७६ ११२ ६३ ३३ ३९ ६४ 20 5 1 0 0 20 १९ २६ ३७ ८९ ५० ११ करवालजलैः खातां • कर्णा गुर्जरे ला कर्णे गद्भिरन्येषां कलाकलापैस्तु महद्धं • कवणिहिं विरहकरालियई० कविषु कामिषु योगिषु भोगिषु० कसिलो य रेहइ० कसु करु रे पुत कलत्त धी० कस्यात्र च रुद्यते गतः ० कह नाम तस्स पाव० कः कण्ठीरवकण्ठकेसर सटा० काण्डानां सह कोदण्ड ० कियन्मात्रं जलं विप्र० किं कृतेन न यत्र त्वं ० किं च यदनस्तमिते ० २०, १५५, [१६८] का त्वं सुन्दरि जल्प देवि सदृशे ० २४०, कानीनस्य मुनेः खबान्धव ० कालेन करवालेन ० काव्यं करोमि न च चारुतरं० किं ताए पढियाए० किं नन्दी किं मुरारिः० किं वर्ण्यते कुचद्वन्द्वं ० कीर्तिस्ते जातजाड्येव • कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोज ० कृतहारानुकारेण० केवलिहुओ न भुञ्जइ० haoहुओ विभुजइ० कोजाइ तुह नाह० कोणे कङ्कणकः कपाटनिकटे ० कोशेनापि युतं दलैरुपचितं ० कौरवेश्वरसैन्यस्य ० कङ्कणे तु तथा राष्ट्र क्वचित्तूलं क्वचित्सूत्रं • क्वचिदुष्णं कचिच्छीतं • क तरुरेष महावनमध्यगः ० [१३१] [१२५] [१६९] [१२४] For Private Personal Use Only ६०, १२६, १२, [८४] २६१ [७१] [२४] [40] ४९, १९२, ४८, [५५] [ ६७ ] [ ७५ ] [१७४] ७९, [६] १५७, १५८ १३३, ७३, १४५, [१०] [१२६] २२६, २२६, [ ४६] ९५ ९५ १०२ ८६ २८ ५२ ११ ५१ ११९ १२ ६७ १०२ १०९ ४२ २० २९ २६ ८८ २६ ३७ ३९ ४३ ११५ ३५ १३ ६७ ६७ ५८. ३१ ६४ १३ ९५ १०३ १२१ २४ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ ७६ १२० २५२, ख १०९, १३१, [१६] पद्यानुक्रमणिका। क्षणं क्षीणास्तारा नृपतय० ४३ - जगद्देव जगदेव० २५५, क्षितिधव भवदीयैः० ५९ । जनेन मेने यः खामी० [११७] क्षिप्त्वा धारापति राज [११३] ७६ जन्माग्रेऽपि चतुःसहस्रशरदो० २६३, क्षुण्णाः क्षोणिभृतामनेन कटका० [८९] ५९ जह सरसे तह सुक्के वि० १६, क्षुत्क्षामः पथिको मदीय० ८३, जन्तूनामभयं सप्तव्यसन० [१२७] क्षुद्राः सन्ति सहस्रशः० १२८, जा मति पच्छइ सम्पजइ० [४२]] क्षोणीरक्षणदक्षदक्षिणभुजे० ११५ जामदग्य इवोदाम० [१४१]] जे थक्का गोलानई० खद्योतद्युतिमातनोति सविता० १५८, जेसल मोडि म बांह० १५१, जैनं बौद्धं तथा ब्राझं. [९५] गणेशस्येव यस्याग्रे० [११९] | जो करिवराण कुम्भे० २०७, गतप्राया रात्रिः कृशतनु० | जो जेण सुद्धधम्मम्मि० गय गय रह गय तुरय गय० ३९, ज्ञानाख्यं यस्य तच्चक्षु० गवाक्षमार्गप्रविभक्तचन्द्रिको० [४७] गुरुणा विक्रमेणायं० झोली तुट्टवि किं न मूउ० गूर्जराणामिदं राज्यं गृहीता दुहिता तूर्णम् [११०] तई गरुआ गिरनार काहूं. गोपीपीनपयोधराहतमुरः० [८१] तत्कर्णार्जुनयोरें गौरी रागवती त्वयि त्वयि वृषो० २२७, १०३ तत्कुक्षावजनिष्ट विष्टपमणिः० तत्कृतं यन्न केनापि० चक्रः पप्रच्छ पान्थं० ११५ तत्र कुसलादिबीजं. [९६] चतुर्मासीमासीत्तव पदयुगं० १९९, तथ्या पार्थकथा वृथा बलिरयं० [१७७] चन्द्रशालासु बालानां १३ तमाहुर्वासुदेवांशं० [९२] चापलादिव बाल्येन ९७ तव प्रतापवलनाजगाल० [५८] चित्ति विसाउ न चिंतीयइ० [३३] २३ तसिनथ कथाशेषे० चिन्तागम्भीरकूपादनवरत० तस्य भ्रातृसुतः श्रीमान् चूडारत्नप्रभाकनं० [१३४] ताः प्रपाः कारितास्तेन० [१५७] चेतोहरा युवतयः [८०] ताण पुरो य मरीहं० १५, चौडः कोडं पयोधेर्विशति. तित्थयरगुणा पडिमासु नत्थि० २१८, चौरमागधविप्रेभ्यो | तेषां वै भरतो ज्येष्ठो० [९३]] च्यारि बइल्ला धेनु दुइ० [३५] ___ २९ तेहि वि न कि पि भणिए० त्यागैः कल्पद्रुम इव सुवि० १२७, छिन्नं ब्रह्मशिरो यदि प्रथयति० २४५, ११२ त्रिपुरी विपरीतश्री:० त्रिभिर्वर्षेत्रिभिर्मासै० जईयह रावणु जाईयउ० ५९, २८ | त्वचं कर्णः शिविर्मासं० PREEEEEEEEEEEEEEEEEEEET ५३, ११५ ४० [२६] به م ६८, २५" ... Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्रबन्धचिन्तामणेः त्वयि जीवति जीवन्ति २५३, त्वं चेत् सञ्चरसे वृषेण लघुना० २४४, ११५ । धिग् रोहणं गिरि दीन. ११२ धृतपार्थिवनेपथ्ये. [१४३]] ९६ ११३ ६७. ६९ ३५ ५७, १०२ [१७]] ९५ न केवलं महीपाला [१२९] नग्नस्तिष्ठति धूलिधूसरवपु० २४९, ११५ नग्नैर्निरुद्धा युवतीजनस्स० १५६, नग्नो यत्प्रतिभाधर्मात् १६५, १०४ नद्युत्तारेऽध्ववैषम्ये. १२१ न भिक्षा दुर्भिक्षे पतति० २७ न माघः श्लाघ्यते कैश्चित् । ९६ न मानसे माद्यति मानसं मे० १४४, १६ न यन्मुक्तं पूर्व रघुनहुषनाभाग० १८९, ३५ न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा० १२९, २४ । नामेरथो स वृषभो. १४१, | नारीणां विदधाति निर्वृतिपदं० १६०, नाहं स्वर्गफलोपभोगतृषितो० ९२, निजकरनिकरसमृद्ध्या० २२ | नियउयरपूरणम्मि य० २९ नृपव्यापारपापेभ्यः २३६, ३२ नेव सयं तं पुजइ० [७३]] नैवाकृतिः फलति नैव कुलं न शीलं १७०, ५३ ६२ दक्षिणक्षितिपं जित्वा० [१३६] दण्डे मण्डपिका हैमी० [१४०] दरिद्रान् सृजतो धातुः २५४, दर्शयन् सुमनोभावं. [१५४] दानं प्रियवाक्सहितं. २२९, दानं भोगो नाशस्तिस्रो० २६४, दानं वित्ताद् ऋतं वाचः० दानानि ददतो नित्यं० [१४२ दानोपहतदारियं० दारिद्यानलसन्तापः० दासिहि नेह न होइ० [३८]] दिग्वासा यदि तत्किमस्य० [३] दर्वादिगर्वगजनिदर्लनाशश्री० [१०५] दूर्वाः श्यामलयन्ति सन्तत० [८३] देव अम्हारी सीप० [३०]] देव त्वं जय कासि लुब्धक. देव दीपोत्सवे जाते. ७६, देव श्रीगिरिदुर्गमल्ल भवतो. देवादेशय किं करोमि सहसा० १५३, देवे दिग्विजयोद्यते धृतधनुः० देशाधीशो ग्राममेकं ददाति दो मुह निरक्सर लोह. १०२, द्रुतमुन्मूलिते तत्र० [१४६] द्वाभ्यां यन्न हरिस्त्रिभिन च० [६४] द्विषां शीर्षाणि लूनानि० [१११] ३९ २६ १०५ [९७] १४०, ९७ १७, (५८) पञ्चाशत् पञ्च वर्षाणि. पश्चाशदादौ किल. पश्चाशद्धस्तमाने शिवभवनयुगे० पढमो नेहाहारो० पणसयरी वाससयं० २४१, पयःप्रदानसामर्थ्याद् परपत्थणापवनं० परिओससुन्दराई० ७ पर्जन्य इव भूतानाम० १९४, पाणिग्रहे पुलकितं. २९ पाणिपङ्कजवर्तिन्या० [२०]] पातु वो हेमगोपालः० ७६ } पादलग्नैर्महीपालैः० [१३८] ६९, २२८, १३, धर्मच्छद्मप्रयोगेण. धर्मलाभ इति प्रोक्ते० धाई धौअइ पाय० धारयित्वा त्वयात्मानं० धाराधीश धरामहीशगणने० धाराभङ्गप्रसंगेन १३४, [६९] [११२] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यानुक्रमणिका। १०२ ११६ १०५ ४६ [१२८] २०९, पिवेद्धटसहस्रं तु० १६८, पुण्णे (ने) वाससहस्से० ८,१७७, पूर्णः स्वामिगुणैः स वीरधवलो० २३७, पृथुकार्तस्वरपात्रं _[६८] पृथुप्रभृतिभिः पूर्व० प्रकाश्यते सतां साक्षात्. [१६४] प्रतापो राजमार्तण्ड० प्रतिभाधारिणोऽप्येषांक प्रहतमुरजमन्द्रध्वानवद्भिः० प्रायः सम्प्रति कोपाय० २४८, प्रियव्रतो नाम सुतो. श्रीणिताशेषविश्वासु० ११८, प्रौढश्रीरलका न जातपुलका० [११] २१२, २१६, ७६ ३६ ८६, ११३ १७४, बभूव भूपतिस्तस्य० बलि गरुया गिरनार० बापो विद्वान् बापपुत्रोऽपि विन्दवः श्रीयशोवीर० [१००]] PREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEESE ७२ । मन तंबोलु म मागि० [१०२] ८,७८ । मत्रीशकरसंसर्गात [१७२] | मन्दश्चन्द्रकिरीटपूजनरस० २५८, ४१ मस्तकस्थायिनं मृत्युं० ९५ महालयो महायात्रा० १७२, १०२ महिवीढह सचराचरह ९७ महीमण्डलमार्तण्डे० [१२२] महुकारसमा बुद्धा० ४३ मा जाण कीर जह. माणुसडाँ दस दस दसा० ११६, मात्रयाप्यधिकं किश्चिन्न १७३, मानं मुश्च सरस्वति त्रिपथगे० मान्धाता स महीपति० मा मङ्कड कुरूद्वेगं० [४०] मालवस्वामिनः प्रौढ० [११२] मा स सन्धि विजानन्तु० मीनानने प्रहसिते. मुखे हारावाप्तिनयनयुगले. मुग्गमासाइ पमुहं० मुञ्जु भणइ मुणालवइ० मूलार्कः श्रूयते शास्त्रे मृगेन्द्रं वा मृगारिं वा० २३९, मृतका यत्र जीवन्ति० [५३॥ मृतो मृत्युर्जरा जीर्णा मेदिन्यां लब्धजन्मा जितबलिनि० ३१, ३० यच्छिन्नम्लेच्छकङ्काल [१४५] यत्कङ्कणाभरणभूषित ३२ यत्र तत्र समये यथा तथा० १८७, ५२ यदनस्तमिते सूर्ये० ४८, यदपसरति मेषः कारणं. यदायं दुर्वारः किरति. [१७८] यदि नाम कुमुदचन्द्र० यदेतचन्द्रान्तर्जलद० यन्यूनं यत्र यन्नष्टं [१५०] २३ ४. १६ १०८ २९ भजेन्माधुकरी वृत्ति भवबीजाङ्कुरजनना० १८८, भवार्णवतरी ब्रह्मपुरी भीमसेनेन भीमोऽयं० [१४७] भुञ्जीमहि वयं भक्ष्यं० भूपालोजयपालोऽभूत [१३९] भूमि कामगवि ! खगोमय० १३६, भेकै कोटरशायिमिर्मतमिव० भेजेञ्चकीर्णतां नमः० भोगीन्द्र बहुधा पात्रं. २३८, भोजराज मया ज्ञातं. ७४, भोजे राज्ञि दिवंगतेऽतिबलिना० १२५, भोली मुन्धि म गव्वु करि० भोय एव गलि कण्ठलउ० भ्रातः! संवृणु पाणिनिप्रलपितं० १३९, [४८] २४ मग्गं चिय अलहन्तो. ११, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणे: ४२, २२०, २२२, [१६१] १४३, mWU १०२ २५ । लच्छिवाणि मुहकाणि सा० १०२ लब्धलक्षा विपक्षेषु० लाटेश्वरस्य सैनान्यं० लिङ्गं जिणपन्नत्तं एव० लिङ्गोपजीविना लोके० १०४ लोकः पृच्छति मे वार्ता १०१ लोकत्रयोल्लसत्कीर्तिः० २०२, [९८] [१६] २१९, २१७, ११३, [२१] १८१ १८१ २३१, यशःपुञ्जो मुझो गजपति. यशोवीर यशोमुक्ता० यशोवीर ! लिखत्याख्यां० यस्य पौषधशालासु० यस्यान्तर्गिरिशागार० यः पश्चग्रामसङ्ग्राम यान् लिङ्गिनोऽनुवन्दन्ते. यासौ दक्षिणदक्षिणार्णववधू० यूकालक्षशतावली वलवल० यूपं कृत्वा पशून हत्वा० येन पौषधशालास्ताः० येन विश्वकवीरेण० येषां वल्लभया सह क्षणमिव० यौष्माकाधिपसन्धिविग्रहपदे० ४६ २७ २१५ [३] २००, ९३, [१६० [११८] ७७, ७१, १०२ ४२ २६८, ९७ १२२ [४] [१२१] २१४, [१५२] १०२ ६९ ६९ [१३५] ११२ रजकवधूवचनमिदं० रजोभिः समरोद्भुत रत्नाकर इव क्षार० रम्भासम्भावितैर्यस्य रसातलं यातु यदत्र पौरुषं. रागाद् भूपालबल्लाल. राजन् मुञ्जकुलप्रदीप राजप्रतिग्रहदग्धानां० राज्यं यातु श्रियो यान्तु० राज्यं यातु स्त्रियो यान्तु राणा सवे वाणिया० रात्रौ जानुर्दिवा भानुः० रुलीयउ रायह राजु० रे रे यत्रक मा रोदीः० ६१. वक्त्राम्भोजे सरस्वत्यधिवसति० ५४, वक्षो विक्षिप्य वैपक्षं० [१७१] वचनं धनपालस्य० [७४] वधो धर्मो जलं तीर्थ ३३ | वन्यो हस्ती स्फटिकघटिते. वरं भर्भाव्यं वरमपि २१०, वर्षासु यस्तिष्ठति० वल्लीच्छन्नद्रुम इव० १६७, ७६ वस्तुपाल-यशोवीरौ० [१६७] १०१ वस्त्रप्रतिष्ठाचार्याय १६१, वादविद्यावतोऽद्यापि० १६४, वाढी तउं वढवाण १५२, वासो जडाण मज्झे० | विद्धा विद्धा शिलेयं० विना कर्णेन तेन स्त्री० ७४ विनास्योत्तमाङ्गं वृथा० विप्रे प्राहरिके नृपो० विरलविरलीभूतास्ताराः० [७९] २९ विरोधिवनिताचित्तः० . [१९] २२ विवाहयित्वा यः कन्यां० २६०, २४ विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो० १८२, विहाय शरधिं वेगात् [१७० २६ विहारं कुर्वता वैरि० . [१३७] १०२ वीतरागरतेयस्य० वीराणां पाणिपादाब्जैः० [१७३] १०४ वेलामहल्लकल्लोल० । ११७ १३ वेसा छंडी वडायती० [३९] २४२, १२१, ८२ १६९, [६१] १४९, १९ [३१] ११८ १०२ - ५०, [१६६] [१३०] लक्षं लक्षं पुनर्लक्षं० लक्ष्मीर्यत्र न वाक् तत्र० लक्ष्मीर्यास्यति गोविन्दे० लक्ष्मीश्वला शिवा चण्डी० लङ्का शङ्कावती चम्पा० ४१, २५ १०२ ४७ . [८] २४ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] Y MY ९५ १०५ ७६ ४३ १०८, [४३] २४ १७५, १९८, पद्यानुक्रमणिका। वैरिणापि हि मुच्यन्ते. ९१, ३७ । सवत्थ अत्थि धम्मो० व्याषिद्धा नयने मुखं च रुदती० १९६, संगृहीतानि हारीत० [१५३] व्रजत व्रजत प्राणाः संसारार्णवसेतवः० श सामिय अतिहिं अजाणु [२९]] शान्तोऽग्निः स्फुटिताधरस्य० । ६४, सामी मुहतउ वीनवइ० शिशुनापि शुनासीरवीर० [१०६] ७६ सायरु खाइ लंक गहु० [३४] शीतत्रा न पटी न चाग्नि० [४९] २९ | सांयात्रिकजनो येन [१४८]] शूराणां सम्मुखान्येव० [१३२] सिद्धिस्तनशैलतटी० १३५, शैत्यं नाम गुणस्तवैव तदनु० २४३ ११२ सिंहो बली द्विरदशूकरमांस० १८३, शैलैर्वन्धयति स वानर० [७०] ४२ सुकृतं न कृतं किश्चित् २३४, शौर्य शत्रुकुलक्षयावधि० सुधेव वसुधा लब्धुं० [११६] श्मशाने यातुधानेन्द्र० [१२० सुरताय नमस्तस्मै० श्रीमजेत्रमृगारिदेवनृपते. सुहृद्देवेन्द्रस्य ऋतुपुरुष० श्रोतव्यः सौगतो धर्मः० १०४, सो जयउ कूडवरडो० १७१, श्वःकार्यमद्य कुर्वीत. ११४, सोहग्गिउ सहिकञ्चयउ० स्नाता प्रावृषि वारिवाहसलिलै० ३२ स्पर्शोऽमेध्यभुजां गवामघहरो० [५९] पष्टिलक्षयुता कोटी स्पृष्टास्पृष्टनिषेधाय० [१४९] स्फुटं वेष्टयता शुभैः० [१५९] सहरु नहीं स राण. खप्ने एत्य वनं जगाद. [१२] सउ चित्तह सही मणह० स्वप्रतापानले येन० स एष भुवनत्रयप्रथित स्वस्ति क्षत्रियदेवाय० [१७५] सत्यं यूपं तपो ह्यग्निः० ३९ सत्यं वप्रेषु शीतं शशिकर० ६५, ३९ हत्वा नृपं पतिमवेक्ष्य. १२०, सत्रागारमशेषकेवलभृतां० १६६, हरिरिव बलिबन्धकर: सत्रासा इव सालसा इव लसद् [१७९] ११६ हंसैलब्धप्रशंसैस्तरलित० सद्गुणमहाईमनर्घमूल्य २४७, ११३ हंहो श्वेतपटाः किमेष विकटा० १५४, सपत्राकृतशत्रूणां० [१५] हा कस्स पुरोहं पुक्करेमि० सपादलक्षः सह भूरिल:० १७६ ७६ हारो वेणीदण्डो० सप्तर्षयोऽपि सततं गगने चर० [१२३] हा हा सल्लइ हियए. [२७] सम्पसौ नियमः शक्ती हृदि प्रविष्टयद्वाण सयलजणाणन्दयरो० .. ११ । हेम तुहाला कर मरउं० सर्वथानुपभोग्येषु० . [२५] ....२० । हेलानिद्दलियगइन्द० १९१, २९. 4 ह १३८ [१३३] ६ " Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणेः (५) (२०) अनूढा वरं कन्या० अपूर्वेयं धनुर्विद्या० अम्बा तुष्यति न मया० अर्द्ध दानववैरिणा० अहो कोऽपि दरिद्राणां० आपदर्थे धनं रक्षेद् आप्ते दर्शनमागते दशशती. आहते तव निःस्वाने उरुयन्तरवाहलयी० कर्ट काउं मुकं च साहसं० कन्ये काऽसि न वेत्सि० का त्वं सुन्दरि ! मारिरस्मि किं कारणं नु कविराज मृगा० किं जीवियस्स चिह्न कुक्षे कोटर एव कैटिभरिपु० कृतप्रयत्नानपि नैव काश्चन दत्ता कोटी सुवर्णस्य. दातुर्नार्थिसमो बन्धुः० दिक्षुर्भिक्षुरायात. दीयन्तां दश लक्षाणि० देव ! त्वत्करनीरदे दशदिशि० देव ! त्वामसमानदानविहितै. नक्तं दिवा न शयनं० नवजलभरिया मग्गडा० नवि मारीयइ नवि चोरीयए० टिप्पण्यन्तर्गतपद्यानामनुक्रमणिका । पद्याङ्क पृष्ठाङ्क । पद्याङ्क १२७ निवरुइ प्र(१)णाण मज्झे० ७ परोक्षे कार्यहन्तारं २८ पोतानेतान्नय गुणवति. (४४) ५२ प्रशान्तं दर्शनं यस्य. | भोजराज मम स्वामी यदि कर्णाट० (४५) | माउलिंगु जइ वुच्चइ० ७ माणुसडा दस दस हवइ. | मुखं पद्मदलाकारं. | मूलार्कः श्रूयते लोके० (१७) यदा जीवश्च शुक्रश्च० ५२ । यद्यपि कृतसुकृतशतः प्रयाति० १२८ यमी किं ध्यायते ध्याने ३७ वक्त्राम्भोजे सरस्वत्यधिवसति । विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो ५२ • रम्येषु वस्तुषु मनोहरतां० ५६ रे रे चित्त कथं भ्रातः० ५२ रे रे मण्डक मा रोदी० ५७ शीर्णघ्राणात्रिपाणीन् सत्त्वैकतानवृत्तिनां सत्यं त्वं भोजमार्तण्ड० ५२ सरस्वती स्थिता वक्त्रे० ५२ सर्वदा सर्वदोऽसीति १२ संग्रहैकपरः प्राप० ३२ सेनाङ्गपरिवाराद्य. (६) ७ स्वच्छं सज्जनचित्तवल्लघुतरं (१५ (२१) (२) (१२) (२२) (३० १२७ परिशिष्टान्तर्गतपद्यानामनुक्रमणिका । धन्यां सतीमुत्तमवंश (टिप्पण्यामपि) १२८ मत्सोदरं सदाचारं० नाभून्न भविता श्रीमद्धेम० १, १२६ श्रियाऽम्भोधि विधि० ११ सत्यवाक् परलक्ष्मीमुक्० निष्किञ्चनेन दयितेन० ४, १२७ । [सुदूरं दुर्गतेबन्धून् 25 १२६ १२७ १२७ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला // सम्प्रति मुद्यमाणग्रन्थाः॥ 1 प्रबन्धचिन्तामणिसम्बद्ध पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह 2 प्रबन्धचिन्तामणि भाषानुवाद (हिंदी) 3 प्रबन्धचिन्तामणिसम्बद्ध ऐतबसाधनसङ्ग्रह 4 प्रबन्धकोष-संस्कृत तथा हिंदी भाषान्तर 5 विविधतीर्थकल्प 6 प्रभावकचरित्र-स्कृत तथा हिंदी भाषान्तर 7 पुरातनसमयलिखित जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह 8 कुवलयमाला कहा 9 जैनशिलालिपिका ( शिलालेख-ताम्रपत्रादिसङ्ग्रह) 10 जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह // मुद्रणार्थनिर्धारितग्रन्थाः॥ 1 कुमारपालप्रबन्ध (पुरातन) 2 वस्तुपालचरित्र 3 विमलमंत्रिचरित्र 4 सोमसौभाग्यकाव्य 5 धूर्ताख्यान (प्राकृत तथा संस्कृत) 6 तत्त्वोपप्लव 7 हेतुबिन्दुतर्कवृत्ति 8 तत्त्वार्थराजवार्तिक 9 आवश्यकचूर्णि 10 छन्दोऽनुशासन (हेमचन्द्रसूरिकृत ) 11 तिलकमञ्जरी कथा (धनपालकविकृत) पत्रव्यवहार संचालक सिंघी जैन ग्रन्थमाला पो. शांतिनिकेतन जि. बीरभूम (बंगाल) Published by Babu Rajendrasinha Singhi for Singhi Jaina Jianapitha Vis'vabharati-Shantiniketan, Printed by Ramchandra Yesu Sheilge, at the Nirnaya Sagar Press, 26-28, Kolbhat Lane, Bombay