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गई है इतना ही नहीं लेकिन उसका सारा ही सारभूत ऐतिहासिक कलेवर प्रायः इसी ग्रन्थके आधार पर खड़ा किया गया है। ___ फार्बस साहबको जो पोथी पाटणसे मिली थी वह उन्होंने बम्बईकी ‘फार्बस साहित्य सभा'को भेट दे दी लेकिन पीछेसे
वहांसे लुप्त हो गई। बम्बई सरकारने जब, अपना पुरातन साहित्यके अन्वेषण और संग्रह-करणका कार्य शुरू किया, तब डॉ० व्युल्हर और प्रो० पीटर्सनको इस ग्रन्थकी प्राप्ति करनेकी बडी उत्कंठा हुई । बहुत कुछ परिश्रम करनेके बाद, सन् १८७४ में भटनेरके जैनग्रन्थभण्डारमें; इस ग्रन्थकी १ प्रति डॉ० ब्युल्हरके देखनेमें आई, जिसकी तुरन्त नकल करवा कर उन्होंने लंडनकी इन्डिया ऑफिस लाईब्रेरीको भिजवा दी । सन् १८८५ में, प्रो० पीटर्सनको इसकी १ प्रति प्राप्त हुई जिसके बारेमें, उन्होंने, अपनी पुस्तकविषयक खोज वाली दूसरी रीपोर्ट (पृ० ८६-८७) में इस प्रकार, इस पर, उल्लेख किया है
"इस प्रकार जल्दीमें किये गए इन उल्लेखोंके अंत में, कहना चाहिए कि-वर्षके आखिरी भागमें, मेरुतुङ्गरचित प्रबन्धचिन्तामणि ग्रंथकी १ प्रति प्राप्त करने में मैं सफल हुआ हूं। यह महत्त्वका ऐतिहासिक ग्रन्थ बडा उपयोगी है। अपने ग्रन्थसंग्रहमें इस ग्रन्थकी वृद्धि करनेका बहुत समयसे हमारा प्रयत्न रहा।" इत्यादि । ___ यह प्रति बम्बई सरकारके ग्रन्थसंग्रहमें-जो वर्तमानमें, पूनाके भांडारकर प्राच्यविद्यासंशोधन मंदिरमें, सुरक्षित है-अद्यापि विद्यमान हैं। ___ इसके सिवा, डॉ० व्युल्हरको एक और प्रति, ऊमाशंकर याज्ञिक नामके गूजरातके किसी शास्त्री द्वारा प्राप्त हुई, जिसकी भी नकल करवा कर, उन्होंने उक्त इन्डिया ऑफिस लाइब्रेरीमें भिजवा दी। ___ पीटर्सन साहब द्वारा प्राप्त हुई उक्त पूनावाली प्रतिको देखकर, गूजरातके पं० रामचन्द्र दीनानाथ शास्त्रीको, जो पीटर्सन साहबके निरीक्षणमें सहायक रूपसे काम करते थे, इस ग्रन्थको मुद्रित कर प्रकाशित करने की इच्छा हुई । प्रयत्न करनेसे उनको, उक्त प्रतिके सिवा, दो-तीन अन्य प्रतियां भी जैन उपाश्रयोंमेसे मिल गई थीं जिनका आनय ले कर उन्होंने आपना संस्करण, विक्रम संवत् १९४४ में, प्रकट किया । रामचन्द्र शास्त्रीने इस ग्रन्थका गूजराती भाषान्तर भी तैयार किया और उसको भी सं० १९४५ में छपवाकर प्रसिद्ध किया। ___ इतिहासकी दृष्टिसे इस ग्रंथका बडा महत्त्व होनेसे, इसका इंग्रेजी भाषामें अनुवाद करनेकी आवश्यकता डॉ. व्युल्हरको मालूम दी; इस लिये उन्होंने, संस्कृत ग्रंथोंके इंग्रेजीमें अनुवाद करनेवाले सिद्धहस्त विद्वान् प्रो० सी. एच्. टॉनी. एम्. ए. को, इसका अनुवाद करनेकी प्रेरणा की । तदनुसार टॉनी साहबने बडे उत्साहसे इस ग्रंथका सम्पूर्ण इंग्रेजी अनुवाद तैयार किया, और कलकत्ताकी एसियाटिक सोसायटी ऑव बंगालने उसे प्रकाशित किया।
टॉनी साहबका मुख्य आधार, उक्त रामचन्द्र शास्त्रीद्वारा प्रकाशित आवृत्ति पर ही रहा, परंतु उन्होंने उपर्युक्त डॉ० ब्युल्हरवाली तथा प्रो० पीटर्सनवाली हस्तलिखित प्रतियोंका भी कुछ कुछ पुनरुपयोग किया और कहीं कहीं ठीक अर्थानुसन्धान प्राप्त करनेकी चेष्टा की। टॉनी साहबके मुकाबलेमें, रामचन्द्र शास्त्रीका गूजराती भाषान्तर सर्वथा निरुपयोगी और असम्बद्धप्राय मालूम देता है। प्रस्तुत आवृत्तिके सम्पादनमें प्रयुक्त सामग्री. जिन प्रतियोंका उपयोग हमने इस आवृत्तिमें किया है उनका संकेतपूर्वक परिचय इस प्रकार है।
(१) A अहमदाबादके डेलाका उपाश्रय नामक प्रसिद्ध जैन उपाश्रयमें सुरक्षित जैन ग्रंथभण्डारकी संपूर्ण प्रति । [डिब्बा नं. ३०; प्रति नं. ३४ ] इसको हमने A अक्षरसे संकेतित किया है । इस प्रतिके ५३ पत्र हैं जो दोनों तरफ लिखे हुए हैं। प्रतिके अन्तमें इस प्रकार संक्षिप्त पुष्पिका लेख है-"सं० १५०९ वर्षे फागुणसुदि ९ वार रवौ
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