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________________ २ रा वर्ग, B आदर्शका है जिसकी समानता Db और D आदर्शोके साथ है । ३ रा वर्ग, Pa और Pb का; और ४ था वर्ग, P का है। - इन वीमेंसे पहले और दूसरे वर्गमें तो परस्पर विशेष करके कुछ शब्दों और प्रतिशब्दोंका ही पाठभेद है और कुछ थोडेसे पद्योंकी न्यूनाधिकता मिलती है । ३ रा वर्ग, भोजप्रबन्धवाले प्रकरणों में कुछ विशेष रूपसे भेद प्रदर्शित करता है । इसमें भी Pa आदर्शकी अपेक्षा Pb आदर्श अधिक भिन्न है। इसमें कई प्रकरण, अन्यान्य आदर्शोंकी अपेक्षा आगे-पीछे लिखे हुए मिलते हैं इतना ही नहीं परंतु वे न्यूनाधिकरूपमें भी मिलते हैं । P सञ्ज्ञक आदर्शकी विशेषता. ४ था वर्ग जो P आदर्शका है वह एक विषयमें सबसे भिन्नता और विशिष्टता रखता है । इस आदर्शमें सिद्धराज, कुमारपाल, वस्तुपाल-तेजपाल और अन्यान्य व्यक्तियोंके प्रशंसात्मक जो पद्यसमूह-सोमेश्वरदेव रचित कीर्तिकौमुदी नामक काव्यमेंसे-तत्तत्स्थलों पर, उद्धृत किया गया है वह अन्य किसी भी आदर्शमें उपलब्ध नहीं है। इन पद्योंकी संख्या कोई सब मिला कर १२० है । इतनी बडी पद्यसंख्याका इसमें प्राप्त होना; और, दूसरे सब आदों में उसका सर्वथा अभाव मिलना; एक बहुत बड़ी समस्या उपस्थित करता है। क्या ये पद्य स्वयं ग्रंथकारने, छे, उद्धृत किये हैं या किसी अन्य लेखक द्वारा ये प्रक्षिप्त हैं ?। ग्रंथकार स्वयं यत्र तत्र ऐसे बहुतसे पद्योंका अवतरण करने में खूब अभ्यस्त हैं, यह तो, उनके इस ग्रंथका अवलोकन मात्र करने ही से, निर्विवादरूपसे, मान लेना पडता है । सोमेश्वरदेवकी कीर्तिकौमुदीमेंसे भी इसी प्रकार उद्धृत किये हुए दो-एक अन्य पद्योंका अवतरण, (देखो पृ० ४८, और ६३) और और आदर्शों में भी दिखाई देनेके कारण, ग्रंथकारके सन्मुख कीर्तिकौमुदी काव्य भी रखा हुआ होगा, इस बातको मान लेनेमें भी कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती । तो क्या ये सब पद्य भी उन्होंने ही अवतारित किये हैं। अगर उन्हों ही ने किये हैं तो फिर, केवल इस आदर्शको छोड कर, और और आदर्शों में भी ये क्यों नहीं मिलते ?। कोई विशेष साधन जब तक प्राप्त नहीं हो सकता, तब तक इस प्रश्नका निश्चित उत्तर देना अशक्य है । तो भी एक अनुमान जो हमें हो रहा है उसे पाठकोंके जाननेके लिये यहां निर्दिष्ट कर देते हैं। जैसा कि हम ऊपर, इस P प्रतिका परिचय देते हुए लिख आये हैं, कि यह प्रति, जिस आदर्श परसे उतारी गई है वह आदर्श बहुत पुराना होना चाहिए । अतः आदर्शके प्राचीन होने में तो हमें विश्वसनीय आधार प्राप्त होता है। इस प्राचीनत्वसे हमारा अभिप्राय स्वयं ग्रंथकारके समसामयिकत्वसे है। यदि यह प्रति, जैसा कि हम अनुमान करते है, ३-४ सौ वर्ष जितनी पुरानी है; तो, इसका मूल आदर्श, जो उस समय जीर्ण दशामें विद्यमान होना चाहिए, कमसे कम वह भी ३-४ सौ वर्ष जितना पुरातन होना चाहिए । यदि यह बात ठीक हो तो उस प्राचीन आदर्शका समय उतना ही पुरातन हो जायगा जितना ग्रंथकार मेरुतुङ्गाचार्यका है। मेरुतुङ्गाचार्यको प्रबन्धचिन्तामणिकी रचना समाप्त किये आज ६२८-२९ वर्ष हुए। हमारे अनुमानके मुताबिक उक्त प्राचीन आदर्शको भी इतने वर्ष तो सहज हो सकते हैं । इससे हम यह अनुमान करनेके लिये अनुप्रेरित होते हैं कि, इस आदर्शका जो मूल आदर्श होगा वह खयं मेरुतुङ्गाचार्यका, वह आदर्श होगा, जिसे या तो उन्होंने सबसे पहले तैयार किया हो; या सबसे पीछे तैयार किया हो । सबसे पहले तैयार करनेका तात्पर्य यह, कि पहले पहल ग्रंथकारने, जब ग्रंथकी रचना की, तब उन्होंने प्रसंगप्राप्त कीर्तिकौमुदीके ये सब पद्य, ग्रन्थगत वर्णनमें बहुत उपयुक्त समझकर, विपुलताके साथ उद्धृत कर लिये लेकिन पीछेसे ग्रंथका पुनः संशोधन करते समय, इतने पद्योंका, एक साथ एक ही ग्रंथमेंसे उद्धरण न जंचा हो इस लिये उन्हें छोड कर, उस संशोधित आवृत्तिकी, और और नकलें करवाई गई हों और उन्हींका सर्वत्र प्रचार किया गया हो । वह मूल प्रथमादर्श कहीं भण्डारमें ज्यों का त्यों पड़ा रहा हो, जिसके नाशकालमें, इस विद्यमान P. आदर्शके लेखकने उसका पुनरवतार कर, इस रूपमें, उसे चिरजीवी बना दिया हो । दूसरा विकल्प जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002519
Book TitlePrabandha Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorJinvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size14 MB
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