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________________ ९ यह कि-या सबसे पीछे इस आदर्शकी सृष्टि हुई हो; तो उसका कारण यह हो सकता है कि पहला आदर्श जो ठीक तैयार हुआ उसकी अनेक नकलें तैयार हो कर सर्वत्र प्रचारमें आगई हों; और फिर पीछेसे बहुत कुछ समय के बाद, ग्रंथकारने ग्रंथके कलेवरको विशेष पुष्ट बनानेके लिये, ये सब पद्य अपनी कोईएक प्रतिमें प्रविष्ट कर उसका एक नवीन और परिवर्द्धित संस्करण बनाना चाहा हो; लेकिन उसका कोई विशेष प्रचार न होकर वह ज्यों कि त्यों भण्डारहीमें पडी रही हो और उपर्युक्त अनुमानानुसार, P आदर्शके लेखकने उसका यह पुनरवतार कर लिया हो । इन दोनों विकल्पोंमेंसे कौन विकल्प विशेष बलवान् हो सकता है इसके लिये भी हमें कुछ कल्पना हुई है, लेकिन उसका यहां पर विवेचन करना ज्यादह गौरवरूप हो जायगा, इस लिये आगेके भाग में यथाप्रसङ्ग उसका भी दिग्दर्शन करा दिया जायगा । इससे एक यह खास बात भी सूचित होती है, कि दोनों विकल्पोंमेंसे यदि कोईएक विकल्प भी ठीक हो सकता है, तो उस परसे, इस P आदर्शका मूलादर्श स्वयं ग्रंथकारका एक आदर्श था, यह प्रमाणित हो सकता है । इस P आदर्शकी नकल उतारने वालेने, पुरातन आदर्शकी लिपिको ठीक ठीक नहीं समझने के कारण, अक्षरांतर करने में बहुत भूलें कीं हैं जिससे इसका पाठ बहुत कुछ अशुद्ध बन गया है; तो भी जहां अन्य आदर्शों में भ्रष्ट पाठ मिलता है या अयथोपयुक्त शब्द दिखाई देते हैं, वहां इस प्रतिमें बहुत शुद्ध पाठ और समुचित शब्द उपलब्ध हो हैं । यह बात भी इस आदर्श के विशिष्ट संशोधित होनेकी सूचना देती है । पाठभेदोंके संग्रह करनेकी पद्धति. पाठभेदोंके संग्रह करनेकी हमारी पद्धति यह है, कि व्याकरण या भाषाकी दृष्टिसे जो शब्द शुद्ध मालूम देते हैं उन्हीं शब्दों का हम संग्रह करते हैं । सर्वथा अशुद्ध शब्दोंका या व्याकरणकी दृष्टिसे अपरूप पाठका, जैसा कि पश्चिमीय विद्वान् करते रहते हैं, हम संग्रह नहीं करते | अर्थानुसन्धानसे असंगत मालूम देने पर भी यदि व्याकरण की दृष्टि से शब्दप्रयोग शुद्ध मालूम देता है तो उसे हम पाठभेदके रूपमें संगृहीत कर लेते हैं। हां, जहां कहीं पाठमें बहुत कुछ गडबडी मालूम दे और अर्थसंगति ठीक न लगे, वहां हम, ऐसे सर्वथा अशुद्ध शब्दोंको और भ्रष्टरूपोंको भी पूर्णरूप से संग्रहीत कर लेते हैं । देश्य विशेषनामोंके शुद्ध अशुद्ध सब ही रूपोंका संग्रह करना आवश्यक समझते हैं । हमारे इस संस्करणमें मुख्य आधारभूत A, B और P आदर्शके आदि और अन्तके पत्रोंका हाफटोन चित्र बनाकर इस पुस्तकके साथ लगाये जाते हैं, जिससे पाठकगण, इन पुरातन आदशोंकी अक्षाराकृति - आदिका दर्शन भी प्रत्यक्षतया कर सकेंगे । इस ग्रंथकी सम्पूर्ण संकलना कैसी होगी; और कौन कौन भागमें क्या क्या विषय रहेंगे; इसके लिये एक पृथकू पृष्ठपर पूरा विवरण दे दिया गया है जिसके अवलोकनसे पाठकोंको आगेके भागोंका किंचित् विषय-परिचय हो सकेगा । अन्तमें, अहमदाबाद के डेलाके भण्डारके तथा पाटणके भण्डारोंके संरक्षोंका, जिनके द्वारा हमको यह सामग्री प्राप्त हो सकी है, कृतज्ञतापूर्ण उपकार मान कर, इस 'किंचित् प्रास्ताविक' को पूर्ण करते हैं । वि० सं० १९८८, सांवत्सरिक पर्व. विश्वभारती. शान्तिनिकेतन । Jain Education International } For Private & Personal Use Only जिन विजय www.jainelibrary.org
SR No.002519
Book TitlePrabandha Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorJinvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size14 MB
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