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नियमानुसार बडौदासे हमारा प्रस्थान हुआ और संकल्पित कार्यमें विशृंखलता उत्पन्न हुई। 'प्राचीनजैनलेखसंग्रह द्वितीय भाग,' 'कुमारपालप्रतिबोध' और 'जैनऐतिहासिक गूर्जरकाव्यसंचय' का जो कार्य अपूर्ण था वह तो किसी तरह पूरा किया गया लेकिन और विशेष कार्य कुछ न हो सका।
उसी समय पूनाके सुप्रसिद्ध 'भाण्डारकर प्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिर' ( Bhandarkar Oriental Research Institute ) की स्थापना हुई । बडौदासे प्रस्थान कर हम जब बम्बईमें चतुर्मास रहे थे तब, इस 'संशोधनमन्दिर के मुख्य उत्पादक और प्राणप्रतिष्ठापक स्वर्गीय प्रो० गुणे और श्रीमान् डॉ० बेल्वलकर आदि सज्जनोंका एक डेप्युटेशन बम्बईके जैनसमाजकी मुलाखात लेनेको आया और प्रसङ्गवश हमारा परिचय पा कर उन सजनोंने हमको पूना आनेका निमश्रण दिया। चतुर्मासके बाद हम घूमते घूमते पूना पहुंचे। वहां उस संस्थाके उद्देश्यादिका विशेषावलोकन कर तथा उसके अधिकारमें आनेवाले राजकीय प्राचीनग्रन्थसङ्ग्रहका विशाल साहित्यभण्डार-जिसमें हजारों जैनप्रन्थोंका भी समावेश होता है-का दिग्दर्शन कर उस संस्थाके विकास में हमने भी यथाशक्ति योग देनेका प्रयत्न किया। उसके परिणाममें हमारी स्थिति पूनामें निश्चित हुई । वहां, इस प्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिरके काममें योग देनेके साथ 'भारत जैन विद्यालय' नामक संस्थाका भी एक विशाल आयतन खडा किया गया । सन् १९१८ में, पूनाके उक्त संशोधनमन्दिरके उपक्रमसे भारतीय पुराविदोंकी परिषद्का प्रथम अधिवेशन (First Oriental Conference) हुआ। उसमें सम्मीलित होने वाले कुछ विद्याप्रिय और साहित्योपासक जैनमित्रोंको प्रेरित कर, हमने फिर अपने उसी संकल्पको कार्यमें प्रवृत्त करनेका एक नया आयोजन किया । जैन साहित्य संशोधक समिति नामक एक समिति का प्रतिष्ठापन कर कुछ परिचित स्नेहिगणकी सहायतासे जैन साहित्य संशोधक नामका बृहदाकार त्रैमासिक पत्र तथा ग्रन्थमाला प्रकाशित करनेका प्रारंभ किया। परंतु यथेष्ट साहाय्यादि प्राप्त न होनेसे यथेप्सितरूपमें वह कार्य आगे न बढ सका ।
पूनेमें रहते समय, हमें स्वर्गीय लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी आदि महापुरुषोंका भी साक्षात् परिचय हुआ और हमारे जीवनमार्गमें विशिष्ट परिवर्तन घटित हुआ । जिस वेषकी चर्याका आचरण हमने मुग्धभावसे बाल्यकाल ही में स्वीकृत किया था उसके साथ हमारे मनका तादात्म्य न होनेसे, हमारे मनमें, अपनी जीवनप्रवृत्तिके विषयमें एक प्रकारका बडा भारी आन्तरिक असन्तोष बढता जाता था। अन्तरमें वास्तविक विरागता न होने पर भी केवल बाह्यवेषकी विरागताके कारण लोकों द्वारा वंदन-पूजनादिका सन्मान प्राप्त करने में हमें एक प्रकारकी वंचना प्रतीत होती थी । इस लिये गुरुपदके भारसे मुक्त हो कर किसी सेवक पदका अनुसरण करनेका हम मनोरथ कर रहे थे और अपनी मनोवृत्तिके अनुकूल सेवाका उपयुक्त क्षेत्र खोज रहे थे।
सन् १९२० में, देशकी मुक्तिके लिये महात्माजीने असहयोग आन्दोलनका मंगलाचरण किया और उसीके अनुसन्धानमें, राष्ट्रीय शिक्षणके प्रचार निमित्त, अहमदाबादमें गूजरातविद्यापीठकी स्थापनाका आयोजन हुआ। मित्रोंकी प्रेरणा और महात्माजीकी आज्ञासे प्रेरित होकर हम पूनासे अहमदाबाद पहुंचे और वहां, अपनी मनोवृत्तिके अनुरूप कार्यक्षेत्र पा कर, एक सेवकके रूपमें, गूजरातविद्यापीठकी सेवामें सम्मीलित हुए।
विद्यापीठने, अन्यान्य विद्यामन्दिरों के साथ प्राचीन साहित्य और इतिहासके अध्ययन और संशोधनके लिये पुरातत्त्वमन्दिर नामक एक विशिष्ट संस्थाका निर्माण किया और उसके मुख्य-आचार्य-पद पर हमारी नियुक्ति कर हमको अपने अभीष्ट क्षेत्रमें कार्य करनेका परम सुयोग दिया । पुरातत्त्वमंदिरके सञ्चालनमें हमें अध्यापक श्रीयुत रामनारायण पाठक, अ० श्रीरसिकलाल परीख, पंडितप्रवर श्रीसुखलालजी आदि सहृदय मित्रोंका प्रारंभ ही से हार्दिक सहचार मिला और इनके सहकार और सहविचारसे शीघ्र ही एक पुरातत्त्वविषयक ग्रन्थावलि प्रकट करनेकी योजना हाथमें ली गई । 'गूजरातपुरातत्त्व मन्दिर' एक राष्ट्रीय संस्था थी इस लिये उसका कार्यक्षेत्र राष्ट्रीय दृष्टिको
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