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No- 42.77 णमोस्थणं समणस्स भगवओ महावीरस्स
निर्ग्रन्थ-प्रवचन
[ भगवान महावीर की वाणी का सार संकलन]
सम्पादक
।
जगद्द्वल्लम जैनदिवाकर मुनिश्री चौथमल जी महाराज
प्रकाशक श्री जैनदिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय
महावीर बाजार, ब्यावर (राजस्थान)
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प्रकाशकीय
निब-प्रवचन का यह सरल-सुन्दर संस्करण पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए आज हम अतीत की अनेक सुखद स्मृतियों में गोता लगा रहे हैं ।
आज से लगभग ५० वर्ष पूर्व एक दिन जगदुवल्लभ, जैन दिवाकर, प्रसिद्ध वक्ता पं० श्री चौथमलजी महाराज साहब के अन्तःकरण में एक पुनीत परिकल्पना स्फुरित हुई थी कि साधारण जिज्ञासुओं को जिनवाणी का नित्य स्वास्याय तथा मनन-चिन्तन हो सके इसलिए आगम वाणी का एक सरल संकलन होना चाहिए ।
संकल्प के घनी गुरुदेवश्री ने 'शुभस्य शीघ्रम्' के अनुसार आगम-वाणी का चयन प्रारम्भ किया, गाथाएं चुनी गई । उन संग्रहीत गाथाओं को साहित्य प्रेमी गणिवयं पं० उपाध्यायश्री प्यारचंदजी महाराज ने विषयानुक्रम किया और एक सुन्दर संकलन तैयार हुआ । निर्ग्रन्थ- प्रवचन का जब प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ तो साहित्य जगत में एक हलचल मच गई थी। जिस किसी विद्वान् विचारक और जिज्ञासु सहृदय ने यह पुस्तक देखी, वह झूम उठा और मुक्तकंठ से सराहना करने लगा। कुछ ही समय में इसको इतनी माँग बड़ी कि हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं में कई संस्करण प्रकाशित हुए और हाथों-हाथ समाप्त हो गये । निर्ग्रन्थ प्रवचन का वृहद् माष्य भी प्रकाशित हुआ तो कई गुटका संस्करण भी छपे ।
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इतना दीर्घ समय बीत जाने के बाद आज भी इसकी उपयोगिता अपनी जगह है । महावीर वाणी के अनेक नये संकलन प्रकाश में आ चुके हैं, फिर भी 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' की सकलन-संपादन शैली आज भो अनठो ही है और अपना अलग ही स्थान बनाये हुए है।
अब जैनदिनाकर जन्म शताब्दी के पाघन प्रसंग पर हम निम्रन्य-प्रवचन का नया संस्करण पाठकों की सेवा में प्रस्तुत कर रहे है। इस प्रकाशन में गुरुदेवश्री के प्रमुख शिष्य कविरत्न श्री केवलमुनिजी एवं गुरुदेवश्री के शिष्यरस्न थी मंगलचंदजी महाराज साहब के शिष्य युवा साहित्यकार श्री भगवतीमुनिजी 'निर्मल' का मार्गदर्शन तथा प्रेरणा हमारा सम्बल रही है। हम उन गुरुवयं के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। साथ ही प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीचंदणी सुराना 'सरस' का सहयोग भी मुद्रण को अधिक नयनाभिराम बना सका है। हम आशा करते हैं यह संस्करण पाठकों की जिज्ञासा को शांत व तृप्त करेगा।
मन्त्री -- जनवियाकर दिव्य ज्योति कार्यालय,
यिावर
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यह उपक्रम :
भगवान श्री महावीर का २५वाँ निर्वाण शताब्दी समारोह भारत एवं विश्व में अत्यन्त उत्साहपूर्वक मनाया जा चुका है। इस आयोजन की अनेक उल्लेखनी मस्त जैन द्वारा मान्य 'समणसुतं' का प्रकाशन भी है। इसकी मूल प्रेरणा आचार्य संत विनोबा भावे द्वारा उबूमूत हुई यह भी एक महत्वपूर्ण कड़ी है ।
यह सच है कि भगवान महावीर की वाणी में आज भी वह अद्भुत शक्ति स्रोत दिया है जिसके अनुशीलन परिशीलन से भ्रान्त-उद्भ्रान्त मानवचेतना को शांति की अनुभूति होती है। दुर्बल आत्मा में शक्ति का नव संचार होता है ।
भगवान की दाणी आगमों में निबद्ध है । उनकी भाषा अर्धमागधी है, और वचन पुष्प विशाल आगम वाङ् मय में यत्र-तत्र विकीर्ण हैं । सामान्य जिज्ञासु के लिए यह सम्भव भी नहीं है और सुलभ भी नहीं है कि वह अगमों के गम्भीर क्षीर सागर में गोता लगाकर उस वाणी का रसास्वाद कर सके । अपनी अल्पज्ञता, व्यस्तता तथा आध्यात्मिक अक्षमता के कारण वह विदेश है कि चाहते हुए भी आनन्द के उस अक्षय-निर्भर में डुबकी नहीं लगा सकता । यह कितनी विचित्र और दयनीय स्थिति है मानव की कि सामने क्षीर सागर लहरा रहा है, और वह उसकी एक-एक बूंद के लिए तरस रहा है, अमृत का कलश भरा है, और वह छटपटा रहा है उसकी एक बूंद के लिए.... अमृत पान नहीं कर पा रहा है।
जिनवाणी के जिज्ञासु-पिपासु भन्यों की इस विवशता तथा दमनीयता का अनुभव आज बड़ी तीव्रता के साथ हो रहा है, किन्तु आज से लगभग चालीस
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वर्ष पहले मानव चेतना की इस विवशता को एक महर्षि ने एक मनीषी ने, एक लोक चेतना के उद्बोधक संत ने बड़ी तीव्रता के साथ अनुभव किया था।
वैदिक विचारानुयायियों के पारा 'गीता' और बौद्धों के पास 'धम्मपद' जैसी सार-मूत पुस्तकें थीं, पर जैनों के पास ऐसी सुव्यवस्थित सुसम्पादित कोई एक पुस्तक नहीं थी । जिज्ञासुओं की मांग उठी और जैन दिवाकर श्री चौथमल जी महाराज की संकल्प-चेतना बलवती बनी। उन्होंने आगमों का गम्भीर अनुशीलन कर भगवान महावीर के उदात्त वचनों का एक सुव्यवस्थित संकलन प्रस्तुत किया - नियंग्य - प्रवचन !
निर्ग्रन्थ- मन की धन की गांठ से मुक्त, बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थियों से मुक्त वीतराग त्रिः पुरुवाणी यही है निर्ग्रन्थ-प्रवचन | निर्ग्रन्थ की वाणी सुनने से पढ़ने से, मनन करने से - निन्यता आती है, व्यक्ति अपने बन्धनों से स्वयं ही मुक्त होता है और परमशान्ति का अनुभव करता है । आज के सन्दर्भ में 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' की उपयोगिता क्या है, कितनी हैयह बताने को आवश्यकता नहीं है। भगवान महाबीर की वाणी के छोटे-बड़े अनेकानेक संकलन आ रहे हैं और जन-मानस उनको स्वाध्याय करके लाभ उठा रहा है। किन्तु में निश्चय के साथ कह देना चाहता हूँ कि समग्रता एवं समीचीनता की दृष्टि से 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' चालीस वर्षं की यात्रा में सर्वप्रथम रहा है।
परम श्रद्धेय गुरुदेव जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज की दूर- इष्टि और दीर्घ- परिश्रम का सुफल भारत एवं विदेश के हजारों-हजार जिज्ञासुनों को 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' के रूप में आज भी मिल रहा है और युग-युगों तक मिलता रहेगा । हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, गुजराती, कन्नड़ नादि भाषाओं में इसके संस्करण, अनुवाद इसकी सार्वजनीनता सिद्ध करते हैं ।
जैन दिवाकर जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' का यह नया संस्करण अनेक दृष्टियों से सुन्दर और भव्य बन पड़ा है। जिज्ञासु पाठकों के समक्ष यह अमृतकलश उद्घाटितकर रख दिया गया है, अब वे अपनी पूरी क्षमता के साथ अमृत पान कर जागतिक श्रम सापों से मुक्ति पाने का प्रयत्न करें ।
इत्पलम्
- केवलमुनि
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन : महत्व और फलश्रुति
किंपाक फल' बाहरी रंग-रूप से घाहे जितना सुन्दर और मनमोहक दिखलाई पड़ता हो परन्तु उसका सेवन परिणाम में दारुण दुःखों का कारण .. होता है । संसार-सुखों की भी यही दशा है। ससार के भोगोपभोग, आमोदप्रमोद, हमारे मन को हर": : नेते है: गो अहा की है, दिमागा. उन्हें यह सब सांसारिक पदार्थ मुढ़ बना देते हैं। कंचन और कामिनी की माया उसके दोनों नेत्रों पर अज्ञान का ऐसा पर्दा डाल देती है कि उसे इनके अतिरिक्त और कुछ समता ही नहीं। यह माया मनुष्य के मन पर मदिरा का सा किन्तु मदिरा की अपेक्षा अधिक स्थायी प्रभाव डालती है। वह बेभान हो जाता है । ऐसी दशा में वह जीवन के लिए मृत्यु का आलिंगन करता है, अमर बनने के लिए जहर का पान करता है, सुखों की प्राप्ति की इच्छा से भयंकर दुःखों के जाल की रचना करता है । मगर उसे जान पड़ता है, मानों वह दुःखों से दूर होता जाता है-यह आत्म-भ्रान्ति है। ___ अन्त में एक ठोकर लगती है। जिसके लिए खून का पसीना बनाया, यही लक्ष्मी लात मार बार अलग जा खड़ी होती है। जिस संतान के सौभाग्य का अनुभव' करके फूले न समाते थे, आज वही संतान हृदय के मर्म स्थान पर हजारों चोटें मारकर न जाने किस ओर चल देती है। वियोग का वन ममता के शैरन-शिखर को कभी-कभी चूर्ण-विचूर्ण कर डालता है। ऐसे समय में यदि पुण्योदय हुआ तो आँखों का पर्दा दूर हो जाता है और जगत् का वास्तधिक स्वरूप एक दीभत्स नाटक की तरह नजर आने लगता है। वह देखता है आह ! कैसी भीषण अवस्था है। संसार के प्राणी मय-मरीमिका के पीछे दौड़ रहे हैं, हाथ कुछ आता नहीं । "अर्था न सन्ति न च मुमति मां सुराशा" मिथ्या आकांक्षाएँ पीछा नहीं छोड़सी और आकांक्षाओं के अनुकूल अर्थ की कभी प्राप्ति नहीं होती।
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संसार में दुःखों का क्या ठिकाना है ? प्रात:काल जो राजसिंहासन पर आसीन थे, दोपहर होते ही वे दर-दर के भिखारी देखें जाते हैं। जहाँ अभी रंगरेलियां उड़ रही थीं, वहीं क्षणभर में हाय-हाय की चीत्कार हृदय को चीर डालती है। ठीक ही कहा है---
"काई घर पुन जापा, काहू के वियोग आयो,
का राग-रंग काहू रोआ-रोई परी है।" गर्भवास की विकट वेदना, व्याधियों की धमाचौकड़ी, जरा-मरण की व्यथाएँ, नरक और तिर्यञ्च गति के अपरम्पार दुख ! सारा संसार मानों एक विशाल भट्टी है और प्रत्येक संसारी जीव उसमें कोयले की नाई जल
___ बास्तव में संसार का यही सच्चा स्वरूप है। मनुष्य जब अपने आन्तरिक नेत्रों से संसार को इस अवस्था में देख पाता है तो उसके अन्तःकरण में एक अपूर्व संकल्प जागृत होता है । वह इन दुःखों की परम्परा से छुटकारा पाने का उपाय खोजता है । इन दारुण आपदाओं से मुक्त होने की उसकी आन्तरिक भावना जागृत हो उठती है। जीव की इसी अवस्था को 'निर्वेद' कहते है। जब संसार से जीव विरक्त या विमुख बन जाता है तो वह संसार से परे—किसी और लोक की कामना करता है—मोक्ष चाहता है ।
मुक्ति की कामना के वशीभूत हुआ मनुष्य किसी 'गुरु' का अन्वेषण करता है । गुरुजी के चरण-शरण होकर वह उन्हें आत्म-समर्पण कर देता है। अबोष बालक की मौति उनकी अंगुलियों के इशारे पर नाचता है । भाग्य से यदि सच्चे गुरु मिल गए तब तो ठीक, नहीं तो एक बार भट्टी से निकल कर फिर उसी मट्टी में जा पड़ता है।
तब उपाय क्या है ? वे कौन से गुरु है जो आत्मा का संसार से निस्तार कर सकने में सक्षम है ? यह प्रश्न प्रत्येक आत्महितषी के समक्ष उपस्थित रहता है। यह निर्ग्रन्य-प्रवचन इस प्रश्न का संतोषजनक समाधान करता है और ऐसे तारक गुरुओं की स्पष्ट व्याख्या हमारे सामने उपस्थित कर देता है। ___संसार में जो मतमतान्सर उत्पन्न होते है, उनके मूल कारणों का यदि अन्वेषण किया जाय तो मालूम होगा कि कषाय और अज्ञान ही इनके मुख्य बीज है। शिव राजर्षि को अवधिज्ञान, जो कि अपूर्ण होता है, हुमा । उन्हें
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साधारण मनुष्यों की अपेक्षा कुछ अधिक बोध होने लगा। वे मध्यलोक के असंख्यात द्वीप समुद्रों में से सात द्वीप-समुद्र ही जान पाये । लेकिन उन्हें ऐसा भास होने लगा मानों वे सम्पूर्ण ज्ञान के धनी हो गये हैं और अब कुछ भी जानना शेष नहीं रहा। बस, उन्होंने यह घोषणा कर दी कि सात ही द्वीप समुद्र है-इनसे अधिक नहीं । तात्पर्य यह है कि जब कोई व्यक्ति कुजान या अज्ञान के द्वारा पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को पूर्ण रूप से नहीं जान पाता और साथ ही एक धर्म प्रवर्तक के रूप में होने वाली प्रतिष्ठा के लोभ को संवरण मी नहीं कर पाता तब वह सनातन सत्य मत के विरुद्ध एक नया ही मत जनता के सामने रख देता है और मोली-भाली जनता उस भ्रममूलक मत के जाल में फेंस जाती है।
विभिक्ष मतों की स्थापना का कारण काय है। विनी गति में कभी कषाय की बाढ़ आती है तो वह क्रोध के कारण, मान-बड़ाई के लिए अथवा दूसरों को ठगने के लिए मा विसी लोभ के कारण, एक नया ही सम्प्रदाय बना कर खड़ा कर देता है । इस प्रकार अज्ञान और कपाय को करामात के कारण मुमुच जनों को सच्चा मोक्षमार्ग लूंड निकालना अतीव दुष्कर कार्य हो जाता है। कितने ही लोग इस भूलभुलैया में पहकर ही अपने पावन मानवजीवन को यापन कर देते हैं और कई झुंशला कर इस ओर से विमुख हो जाते हैं। ___"जिन खोजा तिन पाइयों की नीति के अनुसार जो लोग इस बात को भली-भांति जान लेते है कि सब प्रकार के अज्ञान से शून्य अर्थात सर्वज्ञ और कषायों को समूल उन्मूलन करने वाले अर्थात् वीतराग की पदकी जिन महानुभावों ने तीन तपश्चरण और विशिष्ट अनुष्ठानों द्वारा प्राप्त कर ली है, जिन्होंने कल्माणपथ-मोक्षमार्ग-को स्पष्ट रूप से देख लिया है, जिनकी अपार करुणा के कारण किसी भी प्राणी का अनिष्ट होना संभव नहीं और जो जगत् का पथ-प्रदर्शन करने के लिए अपने इन्द्रवत् स्वर्गीय वैभव को तिनके की तरह स्याग कर अकिञ्चन बने हैं, उनका बताया हुआ—अनुमूत-मोक्षमार्ग कदापि अन्यथा नहीं हो सकता, वह मुक्ति के मंगलमय मार्ग में अवश्य प्रवेश करता है और अन्त में चरम पुरुषार्थ का साधन करके सिद्ध-पदवी का अधिकारी बनता है।
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इन्हीं पूर्वोक्त सर्वम-सर्वदर्शी, वीतराग और हितोपदेशक महानुभावों को 'निगांठ', 'निगाथ' या 'निप्रस्थ' कहते हैं । भौतिक या आधिभौतिक परिग्रह की दुर्भद्य ग्रंथि को जिन्होंने भेद डाला हो, जिनकी आत्मा पर अज्ञान या कषाय की कालिमा लेशमात्र भी नहीं रही हो, इसी कारण जो स्फटिक मणि से भी अधिक स्वच्छ हो गई हो, वे हो 'निर्गन्य' पद को प्राप्त करते हैं ।
प्रत्येक काल में, प्रत्येक देश में और प्रत्येक परिस्थिति में निर्गन्थों का ही उपदेश मफल और हितकारक हो सकता है। यह उपदेश सुमेरु की तरह अटल, हिमालय की तरह संताप-निवारक-शांतिप्रदायक, सूर्य की तरह तेजस्वी और अशानान्धकार का हरण करने वाला, चन्द्रमा की तरह पीयूष-वर्षण करने वाला और आल्हादक, सुरतरु की तरह सकल संकल्पों का पूरक, विद्युत् की तरह प्रकाशमान और आकाश की भांति अनादि-अनन्त और असीम है। वह किसी देशविशेष या काल विशेष की सीमाओं में आबद्ध नहीं है । परिस्थितियां उसके पथ को प्रतिहत नहीं कर सकतीं। मनुष्य के द्वारा कल्पित कोई भी श्रेणी, वर्ण, जाति-पांति या वर्ग उसे विभक्त नहीं कर सकता । पुरुष हो या स्त्री, पशु हो या पक्षी, सभी प्राणियों की लिए वह सब समान है, सब अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार उस उपदेश का अनुसरण कर सकते हैं। संक्षेप में कहें तो यह काह सकते हैं कि निग्रंथों का प्रवचन सावं है, सार्वजनिक है, सार्वदेशिक है, सार्वकालिक है और सर्वार्थसाधक है।
नियों का प्रवचन आध्यात्मिक विकास के क्रम और उसके साधनों की सम्पूर्ण और सूक्ष्म से सूक्ष्म व्याख्या हमारे सामने प्रस्तुत करता है। वात्मा क्या है ? भात्मा में कौन-कौन सी और कितनी शाक्सियाँ है ? प्रत्यक्ष दिखलाई देने वाली आत्माओं की विभिन्नता का क्या कारण है ? यह विभिन्नता किस प्रकार दूर की जा सकती है ? नारफी और देवता, मनुष्य और पशु आदि की आत्माओं में कोई मौलिक विशेषता है या वस्तुतः वे समान-पाक्तिशाली है? आत्मा की अधस्तम अवस्था क्या है ? आत्म-विकास की चरम सीमा कहाँ विश्नांत होती है? आत्मा के अतिरिक्त परमात्मा कोई भिन्न है या नहीं? यदि नहीं तो किन उपायों से, किन साधनाओं से आत्मा परमात्मपद पा सकता है? इत्यादि प्रश्नों का सरल, सुस्पष्ट और संतोषप्रद समाधान हमें निग्रंथ-प्रवचन में मिलता है ? इसी प्रकार जगत् क्या है ? यह अनादि है था सादि ? आदि गहन समस्याओं का निराकरण भी हम निग्रंथ प्रषचन में देख पाते हैं ।
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हम पहले ही कह चुके हैं कि निर्ग्रयों का प्रवचन किसी भी प्रकार की सीमाओं से आबद्ध नहीं है। यही कारण है कि वह ऐसी व्यापक विधियों का विधान करता है जो आध्यात्मिक दृष्टि से तो अत्युत्तम है ही, साथ ही उन विधानों में से इहलौकिक --- सामाजिक सुव्यवस्था के लिए सर्वोत्तम व्यवहारोपयोगी नियम भी निकलते हैं । संयम, त्याग, निष्परिग्रहता ( और श्रावकों के लिए परिग्रहपरिमाण) अनेकान्तवाद और कर्मादानों की त्याज्यता प्रभुति ऐसी ही कुछ विधियाँ हैं, जिनके न अपनाने के कारण आज समाज में भीषण विशृङ्खलता दृष्टिगोचर हो रही है । निर्ग्रन्थों ने जिस मूल आशय से इन बातों का विधान किया है उस आशय को सम्मुख रखकर यदि सामाजिक विधानों की रचना की जाये तो समाज फिर हरा-भरा सम्पन्न सन्तुष्ट और सुखमय बन सकता है । आध्यात्मिक दृष्टि से तो इन विधानों का महत्व है ही, पर सामाजिक दृष्टि से भी इनका उससे कम महत्व नहीं है । संयम, उस मनोवृति के निरोध करने का अद्वितीय उपाय है जिससे प्रेरित होकर समर्थ जन आमोद-प्रमोद में समाज की सम्पत्ति को स्वाहा करते हैं । त्याग एक प्रकार के बंटवारे का रूपान्तर है। परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाण, प्रकार के आर्थिक साम्यवाद का आदर्श हमारे सामने पेश करते हैं; जिनके लिए आज संसार का बहुत सा भाग पागल हो रहा है। विभिन्न नामों के आवरण में छिपा हुआ यह सिद्धान्त ही एक प्रकार का साम्यवाद है । यहाँ पर इस विषय को कुछ अधिक लिखने का अवसर नहीं है तथापि निर्ग्रन्थ-प्रत्रवन समाज को एक बड़े और आदर्श कुटुम्ब की कोटि में रखता है, यह स्पष्ट है । इसी प्रकार अनेकान्तवाद, मतमतान्तरों की मारामारी से मुक्त होने का मार्ग निर्देश करता है और निग्रंथों की अहिंसा के विषय में कुछ कहना तो पिष्टपेषण ही है । अस्तु ।
एक
निग्रंथ प्रवचन की तासीर उन्नत बनाना है । नीच से नीच, पतित से पतित, और पापी से पापी भी यदि निर्ग्रन्थ-प्रवचन की शरण में आता है तो उसे भी वह अलौकिक आलोक दिखलाता है, उसे सन्मार्ग दिखलाता है और जैसे धाय माता गन्दे बालक को नहला बुलाकर साफ-सुथरा कर देती है उसी प्रकार यह मलीन से मलीन आत्मा के मैल को हटाकर उसे शुद्ध-विशुद्ध कर देता है। हिंसा की प्रतिमूर्ति, भयंकर हत्यारे अर्जुनमाली का उद्धार करने वाला कौन था ? अंजन जैसे चोरों को किसने तारा है ? लोक जिसकी परछाई
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से भी घृणा करता है ऐसे चाण्डाल जातीय हरिकेशी को परमादरणीय और पूज्य पद पर प्रतिष्ठित करने वाला कौन है ? प्रमव जैसे भयंकर चोर की आत्मा का निस्तार करके उसे भगवान महावीर का उत्तराधिकारी बनाने का सामर्थ्य किसमें था ? इन सब का उत्तर एक ही है और पाठक उसे समझ गए हैं। वास्तव में निर्ग्रन्थ-प्रवचन पतित-पावन है, अपारण-शरण है, अनाथों का नाथ है, दोनों का बन्धु है और नारकियों को भी देव बनाने वाला है । वह स्पष्ट कहता है
अपवित्रः पवित्रो वा तुहियतो सुस्थितोऽपि वा ।
यः स्मरेत्परमात्मानम् स वाह्याभ्यन्तरे शुचिः ॥
जिन मुमुक्षु महर्षियों ने आरम हित के पथ का अन्वेषण किया है उन्हें नियंन्ध प्रवचन की प्रशांत छाया का ही अन्त में आश्रय लेना पड़ा है। ऐसे ही महर्षियों ने निर्ग्रन्थ-प्रवचन की यथार्थता, हितकरता और शान्ति-संतोषप्रदायकता का गहरा अनुभव करने के बाद जो उद्गार निकाले हैं वे वास्तव में उचित ही हैं और यदि हम चाहें तो उनके अनुभवों का लाभ उठाकर अपना पथ प्रशस्त बना सकते हैं।
⭑
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन : एक परिचय
जिन-वेशना- आर्यावर्त अज्ञात अतीत काल से ऐसे महापुरुषों को उत्पन्न करता रहा है, जिन्होंने इस आनि-च्याधि-उपाधि के जाल में जकड़े हुए मानवसमूह को सत्पथ प्रदर्शित किया है। दीर्घ तपस्वी श्रमण भगवान महावीर ऐसे ही महान् आत्माओं में से एक थे ।
माज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व, जब भारतवर्ष अपनी पुरातन आध्यास्मिकता के मार्ग से विमुख हो गया था, वाह्य कर्मकाण्ड की उपासना के भार से लद रहा था और प्रेम, दया, सहानुभूति, समभाव, क्षमा आदि सात्त्विक वत्तियां जब जीवन में से किनारा काट रही थीं, तब भगवान महावीर ने आगे आकर भारतीय जीवन में एक नई क्रान्ति की थी। भगवान महावीर ने कोरे उपदेशों से यह क्रान्ति की हो, सो बात नहीं है । उपदेश-मात्र रो कभी कोई महान क्रान्ति होती भी नहीं है।
भगवान महावीर राजपुत्र थे। उन्हें संसार में प्राप्त हो सकने वाली सुख-सामग्री सब प्राप्त थी। मगर उन्होंने विश्व के उद्धार के हेतु समस्त भोगोपभोगों को तिनके की तरह त्याग कर अरण्य की शरण ग्रहण की। तीय तपश्चरण के पश्चात् उन्हें जो दिव्य ज्योति मिली उसमें चराचर विश्व अपने वास्तविक स्वरूप में प्रतिभासित होने लगा। तब उन्होंने इस भूले-मटके संसार को कल्याण का प्रशस्त मार्ग प्रदर्शित किया। भगवान महावीर के जीवन से हमें इस महत्वपूर्ण बात का पता चलता है कि उन्होंने अपने उपदेश में जो कुछ प्रतिपावन किया है वह दीवं अनुभव और अभ्रान्त ज्ञान की कसौटी पर कस कर, ख़ब जांच-पड़ताल कर कहा है। अतएव उनके उपदेशों में स्पष्टता है, असंदिग्धता है, वास्तविकता है।
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बेशना को सार्वजनिकता श्रमण संस्कृति सदा से मनुष्य जाति की एकरूपता पर जोर देती आ रही है। उसकी दृष्टि में मानव समाज को टुकड़ों में विभक्त कर डालना, किसी भी प्रकार के कृत्रिम साधनों से उसमें भेदभाव की सृष्टि करना, न केवल अवास्तविक है वरन मानव समाज के विकास के लिए भी अतीव हानिकारक है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि का भेद हम अपनी सामाजिक सुविधाओं के लिए करें यह एक बात है और उनमें प्रकृति मेद की कल्पना करके उनको आध्यात्मिकता पर उसका प्रभाव डालना दूसरी बात है। इसे श्रमण-संस्कृति नहीं बनी। यही कारण है कि भगवान महावीर के उपदेश नीच ऊंच, ब्राह्मण-अब्राह्मण, सब के लिए समान हैं । उनका उपदेश श्रवण करने के लिए सभी श्रेणियों के मनुष्य बिना किसी भेदभाव के उनकी सेवा में उपस्थित होते थे और अस्पर्म समझें जाने वाले चाण्डालों को भी महावीर के शासन में यह गौरवपूर्ण पद प्राप्त हो सकता था जो किसी ब्राह्मण को जैन शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण अब भी मौजूद है जिनसे हमारे कथन की अक्षरशः पुष्टि होती है ।
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भगवान महावीर का अनुयायीवर्ग आज संसर्ग दोष से अपने आराध्यदेव की इस मौलिक कल्पना को भूल पा रहा है, पर युग उसे जगा रहा है। हमारा कर्त्तव्य है कि हम भगवान का दिव्य संदेश प्राणी मात्र के कानों तक पहुंचायें ।
सार्वकालिकत्ता भगवान् राश थे। उनके उपदेश देशकाल आदि की सीमाओं से घिरे हुए नहीं हैं। वे सर्वकालीन है, सार्वदेशिक हैं, सार्व है । संसार ने जितने अंशों में उन्हें मुलाने का प्रयास किया उतने ही अंशों में उसे प्रकृतिप्रदत्त प्रायश्चित्त करना पड़ा है। अधिक विवेचन की आवश्यकता नहीं- हम देख सकते हैं कि आज के युग में जो विकट समस्याएँ हमारे सामने उपस्थित है, हम जिस भौतिकता के विध्वंसमार्ग पर चले जा रहे हैं, उनके प्रति विद्वानों को असंतोष पैदा हो रहा है। आखिर वे फिर जमाने को महावीर के युग में मोड़ ले जाना चाहते हैं । सारा संसार रक्तपात से भयभीत होकर अहमादेवी के प्रसादमय अंक में विश्राम लेने को उत्सुक हो रहा है । जीवन को संयमशील और बाडम्बरहीन बनाने की फिक्र कर रहा है। नीच ॐच की काल्पनिक दीवारों को तोड़ने के लिए उतारू हो गया है। यही महावीर प्रदर्शित मार्ग है, जिस पर चले बिना मानव समूह का कल्याण नहीं ।
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विमुख होकर संसार ने बहुत कुछ खोया है । पर कि वह फिर उसी मार्ग पर चलने की तैयारी हमें यह
महावीर के मार्ग से यह प्रसन्नता की बात है में है। ऐसी
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पथिकों के सुभीते के लिए उनके हाथ में एक ऐसा प्रदीप दे दिया जाए जिससे वे अन्नान्ति पूर्वक अपने लक्ष्य पर जा पहुँचें । 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' है । कहने की आवश्यकता नहीं कि इस समय उपलब्ध विशाल चाङ्मय से इसका चुनाव किया गया है, पर संक्षिप्तता की ओर भी इसमें पर्याप्त ध्यान रखा है ।
बस, वही प्रदीप यह भगवान महावीर के
अध्यात्म प्रधानता - यह ठीक है कि भगवान महावीर ने आध्यात्मिकता में हो. जगत्- कल्याण को देखा हैं और उनके उपदेशों को पढ़ने से स्पष्ट ही ऐसा प्रतीत होने लगता है कि उनमें कूट-कूट कर आध्यात्मिकता मरी हुई है । उनके उपदेशों का एक-एक शब्द हमारे कानों में आध्यात्मिकता की भावना उत्पन्न करता है । संसार के भोगोपभोगों को वहाँ कोई स्थान प्राप्त नहीं है । आत्मा एक स्वतंत्र ही वस्तु है और इसीलिए उसके वास्तविक सुख और संवेदन आदि धर्म भी स्वतंत्र है-परानपेक्ष हैं। अतएव जो सुख किसी बाह्य वस्तु पर अबलम्बित नहीं है, जिस ज्ञान के लिए पौद्गलिक इन्द्रिय आदि साधनों की आवश्यकता नहीं है, वही आत्मा का सच्चा सुख है, वही सस्वा स्वाभाविक ज्ञान है। वह सुख-संवेदन, किस प्रकार, किन-किन उपायों से, किसे और कब प्राप्त हो सकता है ? यही भगवान महावीर के वाङ्मय का मुख्य प्रतिपाद्य है । अतएव इनकी व्याख्या करने में हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों की व्याख्या हो जाती है और उनके आधार पर नैतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि समस्त विषयों पर प्रकाश पड़ता है । इमे साष्ट्र करके उदाहरणपुर्वक समझाने के लिए विस्तृत विवेचन की आवश्यकता है, और हमें यहां प्रस्तावना की सीमा से आगे नहीं बढ़ना है। पाठक 'निन्थ-प्रवचन' में यत्र तत्र इन विषयों को साधारण झलक भी देख सकेंगे ।
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मिनं न्य-प्रवचन विषय दिग्वर्शन 'निसंस्थ प्रवचन' अठारह अध्यायों में समाप्त हुआ है। इन अध्यायों में विभिन्न विषयों पर मनोहर, आन्तराला दजनक और शान्ति प्रदायिनी सूक्तियां संगृहीत हैं। सुगमता से समझने के लिए यहाँ इन मध्यायों में वर्णित वस्तु का सामान्य परिचय करा देना आवश्यक है, और वह इस प्रकार है :
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(१) समस्त आस्तिक दर्शनों की नीव आत्मा पर अवलम्बित है। संसार रूपी इस अद्भुत नाटक का प्रधान अभिनेता आत्मा ही है, जिसकी बदौलत भाँति-भांति के दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं। अतएव प्रथम अध्याय में प्रारम्भ में आत्मा सम्बन्धी सूक्तियां है । आत्मा अजर-अमर है, रूप, रस, गंध, स्पर्श रहित होने के कारण वह अमूर्त है---इन्द्रियों द्वारा उसका बोध नहीं हो सकता। मगर वह मूर्त कर्मों से बद्ध होने के कारण मूत्त-सा हो रहा है । आत्मा के सुख-दुःख बात्मा पर हो आश्रित है। आत्मा स्वयं ही अपने दुःख-सुखों की सुष्टि करता है। वहीं स्वयं अपना मित्र है और स्वयं शत्रु है । आत्मा जब दुरात्मा बन जाता यह प्रापी शत्रु रानी कार होता है । सताव संसार में यदि कोई सर्वोत्कृष्ट विजय है तो वह है-अपने आप पर विजय प्राप्त करना । जो अपने आप पर विजय नहीं पाता किन्तु संग्राम में लाखों मनुष्यों को जीत लेता है उसकी विजय का कोई मूल्य नहीं। आत्मा का स्वरूप ज्ञान-दर्शनमय है। ज्ञान से जगत के द्रव्यों को उनके बास्तविक रूप में देखना-जानना चाहिए। अतएव आत्मा के विवेचन के बाद नव तत्वों और द्रव्यों का परिचय कराया गया है ।।
(२) अगत् के इस अभिनय में दूसरा भाग कर्मों का है। कर्मों के चक्कर में पड़कर ही आस्मा संसार-परिभ्रमण करता है । कर्म आठ हैं -(१)मानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र, (८) अन्त राय । कर्मों के कितने भेद हैं, कितने समय तक एक बार बँधे हुए कर्म का आत्मा के साथ सम्पर्क रहता है, यह इस अध्ययन' में स्पष्ट किया गया है। कर्मों का करना हमारे अधीन है पर मोगना हमारे हाथ की बात नहीं । जो कम किए हैं, उन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता । बन्धु-बान्धव, मित्र, पुत्र, कलत्र आदि कोई इसमें हाथ नहीं बंटा सकता। मोहनीय कर्म इन सब का सरदार है। यह कर्मसत्य का सेनापति है। जिसने इसे परास्त किया उसे अनन्त आत्मिक-साम्राज्य प्राप्त हो गया। शग और द्वेष ही दुःख के मूल है। अतएव मुमुक्षु जीवों को सर्वप्रथम मोहनीय कर्म से ही मोर्चा लेना चाहिए।
(३) मनुष्यभव बड़ी कठिनाई से मिलता है । यदि वह मिल भी जाय तो फिर सद्धर्म की प्राप्ति आदि अनुकूल निमित्तों का पा सकना और मी मुश्किल है । जिसे यह दुर्लभ निमित्त मिले हैं उन्हें प्रमाद न कर धर्माराधन करना
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चाहिए। कौन जाने कब क्या हो जायगा अतः वृद्धावस्था आने से पूर्व व्याधि होने से पहले और इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होने से प्रथम ही धर्म का आचरण करना है। समाचापस लौटकर आने वाला नहीं। धर्मात्मा का समय ही सफल होता है। धर्म वही सत्य समझना चाहिए जिसका वीतराग मुनियों ने प्रतिपादन किया है। धर्म ध्रुव है, नित्य है ।
(४) आत्मा विभिन्न योनियों में परिभ्रमण करता है। नरक गति में उसे महान् क्लेश भोगने पड़ते हैं । तिर्यंच गति के दुःख प्रत्यक्ष ही हैं। मनुष्य गति में भी विश्रान्ति नहीं - इसमें व्याधि, जरा, मरण आदि की प्रचुर वेदनाएँ विद्यमान है। देव गति भी अल्पकालीन है । इन समस्त दुःखों का अन्त वे ही पुण्य-पुरुष कर सकते हैं जो धर्माराधना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं । सिद्धि प्राप्त करने के लिए कृत-पापों का प्रायश्चित करना चाहिए। तपस्या, निलमता, परीषद् सहिष्णुता, ऋजुता, धैर्य, संवेग, निष्कामता, आदि सात्त्विक गुणों की वृद्धि करनी चाहिए। प्राणातिपात, असत्य, बदत्तादान, मैथुन, मूर्च्छा, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, ष, कलह, पर-परिवाद आदिआदि पापों का परित्याग करना चाहिए। असदाचरण से मुक्त और सदाचरण में प्रवृध होने से मनुष्य का कर्म-लेप हट जाता है और वह ऊर्ध्व गति करके लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाता है । उठना बैठना, मोना आदि प्रत्येक क्रिया विवेक के साथ करनी चाहिए | इसी प्रकरण में लोक- प्रचलित बाह्य क्रियाकाण्ड के विषय में भगवान कहते हैं
तपस्या को अग्नि बनाओ, आत्मा को अग्नि स्थान बनाओ, योग को की करो, शरीर को ईंधन बनाओ, संयम - व्यापार रूप शान्ति पाठ करो, तब प्रशस्त होम होता हूँ ।
हम सदा स्नान करते हैं, परन्तु वह हमारे अन्तःकरण को निर्मल नहीं बनाता । बाह्य शुद्धि से अन्तर-शुद्धि नहीं हो सकती । भगवान कहते हैं - आत्मा में प्रसता उत्पन्न करने वाले शान्ति तीर्थं धर्मरूपी सरोवर में जो स्नान करता है वही निर्मल, विशुद्ध और ताप हीन होता है ।
(५) ज्ञान पाँच प्रकार का है- (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनः पर्यवज्ञान और ( ५ ) केवलज्ञान | अनुष्ठान करने से पहले सम्यग्ज्ञान अपेक्षित है जिसे तस्व-ज्ञान नहीं वह श्रेय अश्रेय को क्या
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समझेगा? श्रुत से ही पाप-पुण्य का- 'मले-बुरे का बोध होता है। जैसे ससूत्र (बोरा सहित) सुई गिर जाने के बाद फिर मिल जाती है उसी प्रकार समूत्र (श्रुतज्ञानयुक्त) जीव संसार में भी कष्ट नहीं पाता । अज्ञानी जीय दुःखों के पात्र होते हैं। वे मूढ़ पुरुष अनन्त संसार में भटकते फिरते हैं। मगर बिता चारित्र के मी निस्तार नहीं। अनुष्ठान को जानने मात्र से दुःख का अन्त सम्भव नहीं है । जो फर्त्तव्यपरायण नहीं वे वाचनिक शक्ति से अपनी आत्मा को आश्वासन मात्र दे सकते हैं। पण्डितम्मन्य' बालजीव विविध विद्याओं का स्वामी बन जाय, विद्यानुणासन सीख ले, पर इससे उसका पाण नहीं हो सकता | ज्ञान प्राप्त कर लिया किन्तु शरीर मा इन्द्रियों के विषयों की आमक्ति दूर न हुई तो दुःख ही होता है । अतएव सिद्धि सम्पादन करने के लिए सम्परज्ञान और सम्यक्पारिन दोनों ही अनिवार्य है। मनुष्य को निर्ममत्व, निरहंकार, अपरिगही समझ का शागी, सास्ताहियों पर गालाही बनना चाहिए । लामालाभ में, सुख-दुःख में, जीवन-मरण में, निन्दा-नागा में, मानापमान में, जो समान रहता है, वही सिद्धि प्राप्त करता है।
(६) वीतराग देव हैं, सर्वथा निष्परिग्रही गुरु हैं, वीतराग द्वारा प्रतिपादित धर्म ही सच्चा है, इस प्रकार की श्रद्धा (व्यवहार) सम्यक्त्व है। परमार्थ वार चिन्तन' करना, परमार्थशियों की शुश्रुषा करना, मिथ्याष्टियों की संगति त्यागना, यह सम्यक्त्वी के लिए अनिवार्य है। मिथ्यावादी-पाखण्डी, उन्मार्गगामी होते हैं। रागादि दोषों को नष्ट करने वाले वीतराग का मार्ग ही उत्तम मार्ग है। ऐसी श्रद्धा सम्यग्दृष्टि में होनी चाहिए। राम्यक्त्व अनेक प्रकार से उत्पन्न होता है। सम्यक्त्व के विना सम्यकशान तथा सम्यक्त्वारिष नहीं हो सकता। सम्यान होते ही जान चारित्र सम्यक हो जाते है। समाग्दृष्टि को शंका, आकांशा आदि दोषों से रहित होना चाहिए । मिथ्यादृष्टियों को आगामी भव में भी बोधि की प्राप्ति दुलंभ होती है--सम्यवष्टियों को सुलम होती है। सम्यगबोधि का लाभ करने के लिए जिन-वचनों में अनुराग करना चाहिए, ऊपर बताए हुए दोषों से दूर रहना चाहिए।
(७) पांच महावत, कर्म का नाश करने वाले है । पन्द्रह कर्मादानों का
१ कर्मादानों का विवरण सामाजिक साम्यवाद की दृष्टि से भी पढ़िए ।
समाज की सुलगनी हुई समस्याओं का यह पुराना समाधान है।
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परित्याग करना चाहिए। दर्शन, व्रत आदि पडिमाएँ पालनीय है। प्राणीमात्र पर क्षमा भाव रखना और अपने अपराधों को उनसे क्षमा प्रार्थना करना आवश्यक है । इस प्रकार का आधार-परायण गृहस्थ भी देवगति प्राप्त करता है । छाल और चर्म के वस्त्र धारण करने वाला, नग्न रहने वाला, मूंड मुंढ़ाने वाला, अर्थात् किसी भी वेष को धारण करने से ही कोई गुरु नहीं बन सकता और न उससे त्राण हो सकता है। सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय के पहले, भोजन आदि की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए। असली ब्राह्मण कौन है ? इसका उत्सर इस अध्याय में (देखो गाथा १५ से) बड़ी सुन्दरता से दिया है। यह प्रकरण अन्य श्रद्धालुओं की आंखें खोलने के लिए बहुत उपयोगी है ।
( - ) इस अध्याय में विषयों की विषमता का विवेचन है । ब्रह्मचारी पुरुष को स्त्रियों एवं नपुंसकों के समीप नहीं रहना चाहिए। स्त्रियों सम्बन्धी बातचीत, स्त्रियों की चेष्टाओं को देखना, परिमाण से अधिक भोजन करना, शरीर को सिंगारना आदि बातें विष के समान हैं। बिल्लियों के बीच जैसे चूहा कुमाल नहीं रह सकता उसी प्रकार स्त्रियों के बीच ब्रह्मचारी भी नहीं रह सकता। और की रात है क्या, लिके दाए नाक बेडौल हों, ऐसी सौ वर्ष की बुढ़िया का सम्पर्क भी नहीं रखना चाहिए । जैसे मक्खी रुफ में फँस जाती है उसी प्रकार विषयी जीव भोगों में फँसता है | परन्तु यह विषय शल्य के समान है, दृष्टिविष साँप के समान है। ये अल्पकाल सुख देकर अत्यन्त दुःखदाई है, अनर्थों की खान है। बड़ी कठिनाई से धीर-धीर पुरुष इनसे अपना पिण्ड छुड़ा पाते हैं। इस प्रकार इस अध्याय में ब्रह्मचर्य सम्बन्धी और भी अनेक मार्मिक और प्रभावशाली वर्णन ब्रह्मचारी के पढ़ने योग्य हैं ।
(६) इस अध्याय में भी विशिष्ट चारित्र का वर्णन है। सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, अतः किसी की हिंसा करना घोर पाप है । असत्य भाषण से विश्वासपात्रता नष्ट हो जाती है। बिना आज्ञा लिए छोटी से छोटी वस्तु भी नहीं लेनी चाहिए। मैथुन अधर्म का मूल है, अनेक दोषों का जनक है, अतः निग्रंथों को इससे सर्वथा बचना चाहिए। दोष मूर्च्छा का त्याग करना चाहिए। यदि साधु खाद्य सामग्री को रात्रि में रख लेता है तो वह साधुत्व से पतित होकर गृहस्थ की कोटि में आ जाता है । साधु यद्यपि निर्ममत्वभाव से वस्त्र - पात्र आदि रखते है फिर भी वह परिग्रह नहीं है, क्योंकि उसमें मूर्च्छा
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नहीं है । शातपुत्र ने मूर्छा को भी परिग्रह कहा है। दीगर श्रादि का आरम्भ साधु को सर्वथा ही न करना चाहिए। सच्चा साधु, भादर-सत्कार से अपना गौरव नहीं समझता और अनादर से क्रुद्ध नहीं होता। वह समभावी होता है। जाति, कुल, ज्ञान या चारित्र का उसे अभिमान नहीं होना चाहिए । उच्च जाति या उच्च कुल से ही त्राण नहीं होता, यह बात साधु सदा ध्यान में रखते हैं। वह अपनी प्रशंसा की अभिलाषा नहीं करता । किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं करता, निर्भय और निष्कषाय होकर विश्वरता है।
(१०) जल्दी क्या है ? आज नहीं कल कर सलेंगे, ऐसा विचार करने बाले, प्रमादी जीवों की आँखें खोलने के लिए यह अध्याय बड़े काम की चीज है। भगवान, गौतम स्वामी को सम्बोधन करके, बड़े ही मार्मिक शब्दों में क्षण मात्र का भी प्रमाद न करने के लिए उपदेश करते हैं - गौतम ! पेड़ पर लगा हुआ पका पत्ता अचानक गिर जाता है, ऐसे ही यह मानव-जीवन अचानक समाप्त हो जाता है, इसलिए पल भर मी प्रमाद न कर । कुषा की नोंक पर लटकता हुआ ओस का बूंद ज्यादा नहीं ठहरता, इसी प्रकार यह मानव-जीवन चिरस्थायी नहीं है, अतः पल भर प्रमाद न कर । गौतम ! जीवन अस्पकालीन है और वह मी नाना विघ्नों से परिपूर्ण है। इसलिए पूर्वकृत रज-कर्मों को धो डालने में पलभर भी विलम्ब न कर । मानव-जीवन, बहुत लम्बे समय में, बड़ी ही कठिनाई से प्राप्त होता है। अतः एक भी पल का प्रमाद न कर । पृथ्वीकाय, अपकाम, तेजस्काय, वायुकाय में गया हुआ जीव असंख्यात काल तक और घनस्पतिकायगत जीष अनन्त काल तक यहाँ रह सकता है, इसलिए तू प्रमाद न कर । द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव इस अवस्था में उत्कृष्ट असंख्य काल रह जाता है, इसलिए प्रमाद न कर ! पंचेन्द्रिय अवस्था में लगातार सात-आठ भव रह सकता है, अतः प्रमाद न कर । इसी प्रकार देव' और नरक गति में भी पर्याप्त समय रह जाता है। जब इन समस्त पर्यायों से बचकर किसी प्रकार असीम पुण्योदय से मनुष्य भव मिल जाय तो आयत्व की प्राप्ति होना दुर्लभ है, क्योंकि बहुत से मनुष्य, अनार्य भी होते हैं। फिर पूर्ण पंचेन्द्रियाँ, उसम धर्म की श्रुति, श्रद्धा, धर्म की स्पर्शना, मावि उत्तरोसर दुर्लभ है । शरीर जीर्ण होता जा रहा है, बाल सफेव हो रहे हैं, इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होती जाती है, अत: पलभर भी प्रमाव न कर । विस का उद्वेग, विशूचिका, विविध प्रकार के आकस्मिक उत्पात आदि जीवन
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को घेरे हुए है, शरीर समय-समय नष्ट हो रहा है, अतः गौतम ! प्रमाद न कर । गौतम ! जल में कमल की नाई निलेप बन जा, स्नेह-वृत्ति को छोड़। धन-धान्य, स्त्री-पुत्र आदि का परित्याग करके तू ने अनगारिता धारण की है, उनकी पुन: कामना न करना' । इस प्रकार का प्रभावशाली वर्णन' पढ़कर कौन क्षणभर के लिए भी विरक्त न हो जायगा। यह सम्पूर्ण अध्याय नित्य प्रातःकाल पठन करने की चीज है ।
(११) इस अध्याय में भाषण के नियम प्रतिपादन किये गए है-(१) सत्य होने पर भी जो बोलने के अयोग्य हो, (२) जिसमें कुछ भाग सस्य और कुछ असत्य हो—ऐसी मिश्र भाषा, (३) जो सर्वया असत्य हो, ऐसी तीन प्रकार की भाषा बुद्धिमानों को नहीं बोलनी चाहिए। व्यवहारभाषा, अनवध भाषा, कर्कशता तथा संदेहरहित भाषा बोलनी चाहिए। काने को काना कहना आदि दिल दुखाने वाली भाषा भी नहीं बोलनी चाहिए। क्रोध, मान, माया, लोभ, भम आदि से भी नहीं बोलना चाहिए। विना पूछे, दूसरे बोलने वाले के बीच में न बोले, चुगली न करे।। __ मनुष्य काँटों को प ता है पर ..:-.4 गन कला पद है, पर उत्तम मनुष्य वही है जो इन्हें सह ले । कांटे थोड़ी देर तक दुःख देते हैं, पर वाककण्टक वैर को बढ़ाने वाले, महान भय-जनक होते है। इनका निकलना कठिन होता है । इसी प्रकार प्रत्यक्षा-परोक्ष में अवर्णवाद करने वाली, भविष्य की निश्चयात्मक, अप्रियकारिणी भाषा भी न बोलनी चाहिए। बुरी प्रवृत्ति का त्याग कर अच्छी प्रवृत्ति में लीन रहना चाहिए । जनपद आदि सम्बन्धिनी भाषा सत्य है। क्रोधादिपूर्वक बोली हुई भाषा असत्य है। यह लोक देवनिर्मित है, ब्रह्म-प्रयुक्त है, ईश्वरकृत है, प्रकृति द्वारा बनाया गया है, स्वयम्मु ने रचा है, अत: अशाश्वत है, ऐसा कहना असत्य है- अर्थात् लोक अनादिनिधन है, किसी का बनाया हुआ नहीं है।
(१२) इस अध्याय में लेश्या-सिद्धान्त का निरूपण किया गया है । कषाय से अनुरंजित मन, वचन, काय को प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है। कर्मबन्ध में यह कारण है। इसके अः भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । कैसे-कैसे परिणाम वाले को कौन-कौनसी लेश्या समझनी चाहिए, इसका अच्छा निरूपण इरा अध्याय में है। मुमुक्षु जीवों को इस वर्णन' के आधार पर सदा अपने व्यापारों की जांध करते रहना चाहिए और अप्रशस्त लेश्याओं से बचना चाहिए।
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(१३) इस अध्याय में कषाय का वर्णन है। क्रोध आदि चार कषाय पुनजन्म की जड़ को हरा-भरा करते हैं। क्रोधी, मानी और मायावी जीव को कहीं शान्ति नहीं मिलती। लोभ पाप का बाप है। कैलाश पर्वत के समान असंख्य पर्वत सोने-चांदी के खड़े कर दिये जावे तो भी लोभी को संतोष न होगा । क्योंकि तृष्णा आकाश की तरह अनन्त है। तीन लोक की सारी पृथ्वी, धनधान्य, आदि तमाम विभूति यदि एक ही आदमी को प्रदान कर दी जाय तो नी लोगो को व पर्याय होती . तर कानाः का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। कोध, मान, माया और लोभ से संसार में भ्रमण करना पड़ता है। क्रोध प्रीति को, मान विनय को, माया मित्रता को और लोम सब सद्गुणों को नाश करता है । अतएव क्षमा आदि सदगुणों मे इन्हें दूर करना चाहिए। कौन जाने परलोक है भी या नहीं ? परलोक किसने देखा है ? विषय-सुख प्राप्त हो गया है तो अप्राप्त के लिए प्राप्त को क्यों स्यामा जाय ? ऐसा विचार करने वाले बालजीव अन्त में दुःखों के गड्ढे में गिरते हैं। जैसे सिंह मृग को पकड़ लेता है वैसे ही मृत्यु मनुष्य को घर दबाती है। यह मेरा है, यह तेरा है, यह करना है, यह नहीं करना है, ऐसा विचारते-विचारते ही मौत अचानक आ जाती है और यह जीवन समाप्त हो जाता है।
(१४) जागो, जागो, जागते क्यों नहीं हो ? परलोक में घमं-प्राप्ति होना कठिन है। क्या बूढ़े, क्या बालक, सभी को काल हर ले जाता है । कुटुम्बीजनों की ममता में फंसे हुए लोगों को संसार में भ्रमण करना पड़ता है । कृतकर्मों से भोगे बिना पिंड नहीं छटता । जो क्रोधादि पर विजय प्राप्त करते हैं, किसी प्राणी का हनन नहीं करते-बही वीर है। गृहस्थी में रहकर भी यदि मनुष्य संयम में प्रवृत्त होता है तो उसे देवगति मिलती है। अतएव बोध को प्राप्त करो । कछुए की भाँति संहृतेन्द्रिय बनो । मन को अपने अधीन करो। भाषा सम्बन्धी दोषों का परित्याग करो। समस्त ज्ञान का सार और सारा विज्ञान अहिंसा में ही समाप्त हो जाता है। अतः ज्ञानीजन' हिंसा से सदा बचते हैं। कर्म से कर्म का नाम नहीं होता अकर्म-अहिंसा बादि-से ही कर्मों का क्षय होता है । मेधावी निष्कषाय पुरुष पापों से दूर ही रहते हैं । इन्द्रभूति ! तत्त्वज्ञानी वह है जो क्या बालक और क्या युद्ध -सभी को आत्मवत् दृष्टि से देखता है और प्रमाद-रहित हो संयम को स्वीकार करता है।
(१५) मन अत्यन्त दुर्जेय है। मन ही बंष और मोक्ष का प्रधान कारण
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है । जिस महात्मा ने मन को जीत लिया, समझ लीजिए उसने इन्द्रियों और कषायों को भी जीत लिया। मन, माहसी, भयंकर, दुष्ट अश्व की भांति चारों तरफ दौड़ता रहता है । इसे धर्म-शिक्षा से अधीन करना चाहिए । संयमी का कर्तव्य है कि वह मन को असस्य विषयों से दूर रखे, संरंभ समारंभ में इसकी प्रवृत्ति न होने दे ।।
पराधीनता के कारण जो लोग वस्त्र, गंध या अलंकार आदि को नहीं भोगते वे त्यागी की परमोच्च पदवी पर प्रतिष्टित नहीं हो सकते 1 बल्कि स्वाधीनता से प्राप्त कान्त और प्रिय मोगों को जो लात मार देता है, वही त्यागी कहलाता है। राम भात्र से विचरने पर भी यदि चपल मन कदाचित संयम-मार्ग से बाहर निकल जाय तो धार्मिक भावनाओं से उसे पुनः यथास्थान लाना चाहिए।
हिंसा, अमत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह एवं रात्रिभोजन से विरत जीव ही मानव से बच सकता है। किसी तालाब में नया पानी प्रवेश न करें और पुराना पानी उलीच कर या सूर्य की घप से सुखा डाला जाय तो तालाब निर्जल हो जाता है इसी भांति नवीन कमों के आत्रक को रोक देने से सथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करने से जीव निश्कर्म हो जाता है। निर्जरा प्रधानतः तपस्या से होती है । तपस्या दो प्रकार की है :---(१) वाह्य और (२) आभ्यन्सर । इनका विवेचन प्रसिद्ध है। रूप-गद्ध जीव पतंग की मांति शब्द-गद्ध जीव हिरन की तरह, गंध-गस जीव सर्प की भांति, रसलोलुप मत्स्य की नाई, और स्पर्श-सुखाभिलापी ग्राह-ग्रस्त में से की तरह अकाल-मरण-दुःख को प्राप्त होता है।
(१६) एकान्त में स्त्री के पास नहीं खड़ा होना चाहिए और न उससे बातचीत करनी चाहिए । कभी वस्त्र मिले या न मिले, पर दुःखी नहीं होना चाहिए । यदि कोई निन्दा करे तो मुनि ऋोप न करे, कोप करने मे वह उन्हीं बाल-जीवों जमा हो जायगा । श्रमण को कोई ताड़ना करे तो विचारमा चाहिए कि आत्मा का नाश कदापि नहीं हो सकता । अपने जीवन को समाप्त करने के लिए पास्त्र का उपयोग करना, विष भक्षण करना, जल या अग्नि में प्रवेश करना, जन्म-मरण की-संसार की वृद्धि करता है।
पांच कारणों से जीव को शिक्षा नहीं मिलती-क्रोध, मान, आलस्य, रोग और प्रमाद से। आट गुणों से शिक्षा की प्राप्ति होती है :-हसोड़ न होना,
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( २४ ) संयमी होना, मर्मभेदी वचन न कहना, निश्शील न होना, निदोष शीलयुक्त होना, अलोग्नुपता, क्रोधहीनता, सत्यरति ।
मुनि को संत्र-मंत्र करना, स्वप्न के फल बताना, हाथ की रेखाएं देखकर शुभ-अशुभ कहना इत्यादि पनड़ों में नहीं पड़ना चाहिए। पापी घोर नरक में पड़ते हैं और आर्य – श्रेष्ठ-धर्मी दिव्य गति प्राप्त करते हैं ।
इस प्रकार इस अध्याय में मुनि जीवन के योग्य विविध शिशाएं संगृहीत की गई हैं, जिनका उल्लेख बिस्तारभय से ग्रहां नहीं किया जा सकता ।
(१७) पर अनेक स्थलों पर सदाचार का फल देवगति और असदाचार का फल नरकगनि कहा गया है। इम अध्याय में इन दोनों गतियों का स्वरूप बताया गया है। नरक गति कहाँ है, उसका स्वरूप क्या है, कौन जीव वहाँ जाते हैं, कैसी-कैसी भीषण वेदनाएँ नारकी जीवों को सहनी पड़ती है आदिआदि बातें जानने के लिए इस अध्याय को अवश्य पढ़ना चाहिए । इसी प्रकार देवगति का भी इसमें सुन्दर वर्णन है और अन्त में कहा गया है कि समुद्र और पानी की एक बुंद मे जितना अन्तर है उतना ही अन्तर देवगति और मनुष्य गति के सुखों में है।
(१८) शिष्य को गुरु के प्रति, पुत्र को पिता के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए, तथा मुक्ति क्या है, यही विषय मुख्य रूप से इस अध्याय का प्रतिपाय विषय है।
विनीत शिष्य वह है जो अपने गुरु की आज्ञा पाले, उनके समीप रहे, उनके इशारों से मनोभावों को ताड़कर वर्त । गुरुजी कभी शिक्षा दें तो कुपित न हो, शान्ति से स्वीकार करे । अज्ञानियों से संसर्ग न रखें। अपने आसन पर बैठे-बैठे गुरुषी से कोई प्रश्न न पूछे बल्कि सामने आकर, हाथ जोड़कर, विनय के साथ पूछे। गुरुजी कदाचित् नर्म-गर्म बात कहें तो अपना लाभ समझकर उसे स्वीकार करे । इसके विपरीत जो क्रोधी होता है, कलहोत्पादक बातें करता है, शास्त्र पढ़कर अभिमान करता है, मित्रों पर भी कुपित होता है असंबद्ध भाषी एवं धमण्डी होता है. तथा अन्यान्य ऐसे ही दोषों से दूषित होता है वह अविनीत शिष्य कहलाता है । विनीत शिष्य में पन्द्रह गुणों का होना आवश्यक है। (गाथा ६-१२) अनन्तज्ञान प्राप्त करके भी अपने गुरु की सेवा अवश्य करनी चाहिए। कदाचित् आचार्य कुपित हो जाएँ तो उन्हें मना लेना चाहिए।
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समस्त दुःखों का अन्त मुक्ति में होता है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्सप, मोक्ष का मार्ग है। इन चारों में से किसी एक की कमी होने से मोक्ष प्राप्त नहीं होता। मुक्तात्मा जीव समस्त लोकालोक को जानते-देखते हैं। वे पुनः संसार में नहीं आते क्योंकि कर्म सर्वथा नष्ट होने पर पुनः उत्पन्न नहीं होते, जैसे सूखा हुआ पेड़ । दार बीज से जैसे अंकुर नहीं होते उसी प्रकार कर्म बीज के जल जाने से भष-अंकुर नहीं उत्पन होता। मुक्त जीव लोकाका के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। मुक्त ओव अमूस्तिक है, अनन्तजान दर्शनधारी है, अनुपम सुख-सम्पत्र होते है । प्रस्तुत संस्करण
निर्गन्ध प्रवचन का मूल भाग प्राकृत-अर्धमागधी भाषा में है। भगवान महावीर ने इसे ही अपने उपदेशों का माध्यम बनाया था। यद्यपि मम्मकाल में प्राकृत भाषा का पठन-पाठन कुछ कम हो गया और संस्कृत भाषा ज्ञान ही वित्ता की कसौटी मान ली गई। प्राकृत जो जनभाषा थी, उसे समझने के लिए भी संस्कृत का सहारा लिया जाने लगा। संस्कृत पंडितों की इस कठिनाई को ध्यान में रखकर यहाँ भी मूल गाथाओं की संस्कृत छाया, साथ में अन्वयार्थ और भावानुवाद दिया गया है जिसे विद्वान और साधारण पढ़ालिखा व्यक्ति भी हृदयंगम कर सकता है और प्रतिदिन के स्वाध्याय से आत्मा को जागृप्त एवं कल्याणमार्गानुगामी बना सकता है।
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विषय
१ षट् द्रव्य निरूपण
२ कर्म-निरूपण
३ धर्म-स्वरूप वर्णन
४ आत्म शुद्धि के उपाय
५. ज्ञान-प्रकरण
अध्याय
६ सम्यक्त्व-निरूपण
७ धर्म निरूपण
८ ब्रह्मचर्य निरूपण ६ साधु- धर्म - निरूपण
१० प्रमाद परिहार
११
भाषा-स्वरूप १२ लेश्या स्वरूप
१३ कषाय स्त्ररूप १४ वंराग्य-सम्बोधन १५ मनोनिग्रह
१६ आवश्यक कृत्य
१७ नरक- स्वर्ग - निरूपण
१८ मोक्ष-स्वरूप
विषय-सूची
गाथाओं की अकाराद्य अनुक्रमणिका
पृष्ठ
१
१२
३१
४०
५५
६४
७२
८७
£5
१०७
१२६
१३६
१४६
१६५
१७६
१९१
२०३
२२२
२३६
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॥ णमो सिद्धाणं ॥ निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(प्रथम अध्याय) षट् द्रव्य निरूपण ॥ श्रीभगवानुवाच ।
मुल:- नो इंदियग्गेज्म अमुत्तभावा ।
अमुत्तभावा वि अ होइ निच्ची ।। अज्झत्थहे निययस्स बंधो।
संसारहेउं च वयंति बंधं ॥१॥ छायाः-नो इन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावात्,
अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः । अध्यात्महेतुनियतस्य बन्धः,
संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम् ।।१।। अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! यह आत्मा (अमुत्तमावा) अमूर्त होने से (इंघियग्गेज्म) इंद्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य (नो) नहीं है । (अ) और (वि) निश्चय हो (अमुत्तभावा) अमूर्त होने से आस्मा (निच्चो) हमेशा (होइ) रहती है (बस्स) इसका (बंधो) बंध जो है, वह (अज्झत्यहेड) आस्मा के आश्रित रहे एए मिथ्यात्व कषायादि हेतु (च) और (बंध) बंधन को (निययस्स) निश्चय ही (संसारहेजं) संसार का हेतु (वयंति) कहा है।
भावार्थ:-हे गौतम ! यह आत्मा अमृत्ति अर्थात् वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-रहित होने से इंद्रियों द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता है। और अरूपी होने से
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निग्रंन्य-प्रवचन
न कोई इसे पकड़ हो सकता है । जो अमुर्त अर्थात् अरूपी है, वह हमेशा अविनाशी है, सदा के लिए कायम रहने वाला है। जो शरीरादि से इसका बंधन होता है, वह प्रवाह से आत्मा में हमेशा से रहे हुए मिथ्यात्व-अव्रत आदिकषायों का ही कारण है । जैसे आकाश अमृत है, पर घटादि के कारण से आकाश घटाकाष के रूप में दिख पड़ता है। ऐसे हो आत्मा को भी अनादि काल के प्रवाह से मिथ्यात्वादि के कारण शरीर के बंधन-रूप में समझना चाहिए । यही बंधन संसार में परिभ्रमण करने का साधन है । मुल:-अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली ।
अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदणंवणं ॥२॥ छायाः-आत्मानदीवैतरणी, आत्मा मे क्लटशाल्मली ।
आत्मा कामदुद्या धेनुः, आत्मा मे नन्दनं बनम् ।।२।। अन्वयार्थ:-हे इंद्रभूति ! (अप्पा) यह आत्मा ही (वेयरणी) वैतरणी (नई) नदी के समान है। (मे) मेरी (अप्पा) आत्मा (कूडसामली) कूट शाल्मली के वृक्षरूप है । और यही (अप्पा) आत्मा (कामदुहा) कामदुग्धा रूप (ण) गाय है। और यही मेरी (अप्पा) आत्मा (नंदणं) नंदन (वणं) वन के समान है।
भावार्थ:-हे गोतम ! यही आस्मा वैतरणी नदी के समान है। अर्थात् इसी आत्मा को अपने कुत् कार्यों से वैतरणी नदी में गोता खाने का मौका मिलता है । वैतरणी नदी का कारणभूत यह आत्मा ही है। इसी तरह यह आरमा नरक में रहे हुए कूटशाल्मली वृक्ष के द्वारा होने वाले दुःखों का कारणभूत है और यही आस्मा अपने शुभ कृत्यों के द्वारा कामदुग्घा गाय के समान है, अर्थात् इच्छित सुखों की प्राप्ति कराने में यही आत्मा कारणभूत है । और यही आत्मा नंदनवन के समान है अर्थात् स्वर्ग और मुक्ति के सुख सम्पन्न कराने में अपने आप ही स्वाधीन है। मूल:--अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममित्त च, दुप्पट्ठिय सुपट्टिओ ।।३।। छाया:-आस्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च ।
आत्मा मित्रमित्रं च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थित: ।।३।।
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षट् द्रव्य निरूपण
___ अम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति, (अप्पा) यह आत्मा ही (दुहाण) दुःखों का (य) और (सुहाण) सुखों का (कत्ता) उत्पन्न करने वाला है (य) और (विकत्ता) नावा करने वाला है । (अप्पा) यह आस्मा ही (मित्त) मित्र है (घ) और (अमित) शत्रु है। और यही आत्मा (दुप्पट्टिय) दुराचारी और (सुपडिओ) सदाचारी है। ___ भावार्थ:-हे गोतम ! यही आत्मा दुःखों एवं सुखों के साधनों का कर्तारूप है और उन्हें नाश करने वाला मी मही आत्मा है। यही श्रम कार्य करने से मित्र के समान है और अशुम कार्य करने से शत्रु के सदृश हो जाता है सदाचार का सेवन करने वाला और दुष्ट आचार में प्रवृत्त होने वाला भी यही आत्मा है। मलः-न तं अरी कंठछेत्ता करे ।
जं से करे अप्पणिया दुरप्पया ॥ से जाहिई मामु पत
पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ।।४।। . छाया:--न तरिः कण्ठच्छेत्ता करोति,
यत्तस्य करोत्यात्मीया दुरात्मता ! स ज्ञास्यति मृत्युमुखं तु प्राप्तः,
पश्चादनुतापेन दया विहीन: ।।४।। अन्वयार्थ:-हे इंद्रभूति ! (से) वह (अप्पणिया) अपना (दुरप्पया) दुरा. चरणशील आत्मा ही है जो (ज) उस अनर्थ को (करे) करता है। (त) जिसे (कंठछेत्ता) कंड का छेदन करने वाला (अरी) शत्रु मी (न) नहीं (करेइ) करता है (तु) परन्तु (से) यह (दयाविहूणो) दयाहीन दुष्टात्मा (मच्चुमुह) मृत्यु के मुंह में (पत्ते) प्राप्त होने पर (पच्छाणुतावेग) पश्चाताप करके (नाहिई) अपने आप को जानेगा। __ भाषाम:-हे गौतम ! यह दुष्टात्मा जैसे-जैसे अनर्थो को कर बैठता है वैसे अनर्थ एक वात्रु भी नहीं कर सकता है। क्योंकि मात्र तो एक ही बार
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नियंन्य-प्रवचन
अपने शस्त्र से दूसरों के प्राण हरण करता है परन्तु यह दुष्टात्मा तो ऐसा अनर्थ कर बैठता है कि जिसके द्वारा अनेक जन्म-जन्मान्तरों तक मृत्यु का सामना करना पड़ता है। फिर दयाहीन उस दुष्टात्मा को मृत्यु के समय पश्चात्ताप करने पर अपने कृत्य कार्यों का मान होता हैं कि अरे हा ! इस आत्मा ने कैसे. कसे अनर्थ कर डाले हैं। मल-अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुइमो ।
अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सिं लोऐ परस्थ य ॥५॥ छाया:-आत्मा चंव दमितव्य: आत्मा हि स्खलु दुर्दमः ।
आत्मादान्त सुखी भवति, अस्मिल्लोके परत्र च ।।५।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अप्पा) आत्मा (चेक) ही (दमेयम्वो) दमन करने योग्य है । (ह) क्योंकि (अप्पा) आत्मा (खलु) निश्चय (दुद्दमो) दमन करने में कठिन है। तभी तो (अप्पा) आत्मा को (दंतो) दमन करता हुआ (अस्ति) इस (लोए) लोक में (य) और (परस्थ) परलोक में (मुही) सुखी (होइ) होता है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! क्रोधादि के वशीभूत होकर आत्मा उन्मार्ग-गामी होता है । उसे दमन करके अपने काबू में करना योग्य है । क्योंकि निज आत्मा को दमन करना अर्थात् विषय-वासनाओं से उसे पृथक करना महान कठिन है और जब तक आस्मा को दमन न किया जाय तब तक उसे सुख नहीं मिलता है। इसलिए हे गौतम ! आत्मा को दमन कर, जिससे इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त हो। मूल:-वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य ।
माहं परेहि दम्मंतो, बंधणेहि वहेहि य ।।६।। छाया:-बरं मे आत्मादान्तः, संयमेन तपसा च ।
माऽहं परमितः, बन्धनबंधश्च ॥६॥ अन्वयार्थ हे इन्द्रभूति ! आत्माओं को विचार करना चाहिए कि (मे) मेरे द्वारा (संजमेण) संयम (य) और (तदेण) तपस्या करके (अप्पा) आत्मा
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षट् द्रव्य निरूपण
का (दंतो ) दमन करना ( वरं ) प्रधान कर्त्तव्य है । नहीं तो (हं) मैं ( परेहि) दूसरों से ( बंधणे हि ) बन्धनों द्वारा (य) और (वहेहि ) ताड़ना द्वारा ( दम्मंतो) दमन (मा) कहीं न हो जाऊँ ।
भावार्थ - हे गौतम! प्रत्येक आत्मा को विचार करना चाहिए कि अपने ही आत्मा द्वारा संयम और तप से आत्मा को वश में करना श्रेष्ठ है । अर्थात् स्ववश करके आत्मा को दमन करना श्रेष्ठ है। नहीं तो फिर विषय-वासना सेवन के बाद कहीं ऐसा न हो कि उसके फल उदय होने पर इसी आत्मा को दूसरों के द्वारा बंधन आदि से अथवा लकड़ी, चाबुक, माला बरी आदि के घाव सहने पड़ें |
मूलः – जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एवं जिणेज्ज अप्पा, एस सो परमो जओ ॥७॥
छायाः– यः सहस्रं सहस्राणाम्, संग्रामे दुर्जये जयेत् । एकं जयेदात्मानं, एपस्तस्य परमो जयः ॥ ७ ॥ ॥
अन्वयार्थ:-- हे इन्द्रभूति (जो ) जो कोई मनुष्य (दुज्जए) जीतने में कठिन ऐसे (संगामे) संग्राम में (सहस्साणं) हजार का (सहस्स) हजार गुणा अर्थात् दश लक्ष सुभटों को जीत ले उससे भी बलवान ( एगं) एक (बप्पा) अपनी आरमा करे (जिज्ज) जीते ( एस ) यह (सो) उसका (जओ) विजय ( परमो ) उत्कृष्ट है ।
भावार्थ:- हे गौतम ! जो मनुष्य युद्ध में दश लक्ष सुभटों को जीत ले उस से भी कहीं अधिक विजय का पात्र वह है जो अपनी आत्मा में स्थित काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और माया आदि विषयों के साथ युद्ध करके और इन सभी को पराजित कर अपनी आत्मा को काबू में कर ले |
मूलः -- अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पाणमेवमप्पार्ण, जइत्ता
सुहमेहए ||८||
छाया:- आत्मानैव युध्यस्व किं ते युद्धेन बाह्यतः । आत्मा नेवात्मानं जित्वा सुखमेधते ||८|
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
अन्वयार्ष-हे इन्द्रभूति' ! (अप्पाणमेय) आत्मा के साथ ही (जुज्माहि) मुद्ध कर (ते) तुझे (बज्झओ) दूसरों के साथ (जुझेण) युद्ध करने से (किं) क्या पड़ा है ? (अप्पाणमेव) अपने आत्मा ही के द्वारा (अप्पाणं) आत्मा को (जइत्ता) जीतकर (सुई) सुख को (एहए) प्राप्त करता है ।
भावार्ष-हे गौतम अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध करके क्रोध, मद, मोहादि पर विजय प्राप्त कर। दूसरों के साथ युद्ध करने से कर्म-बन्ध के सिवाय आत्मिक लाभ कुछ भी नहीं होता है। अतः जो अपनी आत्मा द्वारा अपने ही मन को जीत लेता है उसी को सुख प्राप्त होता है । मूल:-चिदियाणि कोहं, माणं भायं तहेव लोभं च ।
दुज्जयं चेव अपाणं, सब्वमप्पे जिए जियं ।।६।। छाया:-पंचेन्द्रियाणि क्रोधं मानं मायां तथैव लोभञ्च ।
दुर्जयं चैवात्मानं सर्वमात्मनि जिते जितम् ।।६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (दुज्जयं) जीतने में कठिन ऐसे (पंधिदियाणि) पांचों इन्द्रियों के विषय (कोह) कोष (माण) मान (मायं) कपट (तहेब) वैसे ही (लोम) तृष्णा (चेत्र) सौर मी मिथ्यात्व अव्रतादि (च) और (अप्पाण) मन ये (सब्ब) सर्व (अप्पे) आत्मा को (जिए) जीतने पर (जियं) जीते जाते हैं ।। ___भावार्थ- हे गौतम ! जो भी पांचों इन्द्रियों के विषय और क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मन ये सब के सब दुर्जयो हैं 1 तथापि अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर लेने से इन पर अनायास ही विजय प्राप्त की जा सकती है। मूल:- सरीरमाहु नाव ति; जीबो बुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो; जं तरंति महेसिणो ||१०॥ छाया:-शरीरमाहुनौरिति जीव उच्यते नाविकः ।
संसारोऽर्णव उक्त:, यस्तरन्ति महर्षययः ॥१०॥ अन्वयार्थः- हे इन्द्रभूति ! यह (संसारो) संसार (अण्ण'वो) समुद्र के समान (वृत्तो) कहा गया है । इस में (सरीर) शरीर (नाव) नौका के सदृश है । (आहु ति) ऐसा ज्ञानी जनों ने कहा है। और उसमें (जीवो) आत्मा
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षट् द्रव्य निरूपण
( नाविओ) नाविक के तुल्य बैठ कर तिरनेवाला है । ( बुम्बइ ) ऐसा कहा गया है | अतः ( जं) इस संसार समुद्र को (महेसियो) ज्ञानी जन (तरंति) तिरते हैं ।
भावार्थ :- हे गौतम! इस संसार रूप समुद्र के परले पर जाने के लिए यह शरीर नौका के समान है जिस में बैठ कर आत्मा नाविक रूप हो कर संसार-समुद्र को पार करता हूँ
चरितं च तवरे तहा । वीरियं उबओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ॥ ११ ॥
मूलः --- नाणं च दंसणं चेव;
छायाः - ज्ञानञ्च दर्शनञ्चैव चारित्रञ्च तपस्तथा । वीर्यमुपयोगश्च एतज्जीवस्य (नाणं) ज्ञान
लक्षणम् ॥ ११ ॥
अन्वयार्थ:- हे इन्द्रभूति ! (च) और (दंसणं) दर्शन (चेष) और (चारित) चारित्र (च) और ( तवो) तप ( तहा) तथा प्रकार की ( बीरियं) सामर्थ्यं ( प ) और ( उवभोगो) उपयोग (एम) यही ( जॉबस्स) आत्मा का ( लक्खणं) लक्षण है ।
भावार्थ :- हे गौतम! ज्ञान, दर्शन, तप, क्रिया और सावधानीपन, उपयोग ये सब जीव ( आत्मा ) के लक्षण हैं ।
मूलः -- जीवाऽजीवा य बंधो य पुष्णं पावासवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ॥ १२ ॥ छाया: - जीवा अजीवाश्च बन्धश्च पुण्यं पापाश्रवी तथा ।
संवरो निर्जरा मोक्ष: सन्त्येते तथ्या नव ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (जीवाजीवाय) चेतन और जड़ (य) और (बंधी) कर्म (पुण्णं ) पुण्य ( पावासबी) पाप और आश्रव ( तहा) तथा ( संवरो) संबर (निज्जरा) निर्जरा (मोक्लो) मोक्ष (एए) ये ( नव) नौ पदार्थ ( तहिया) तथ्य (संति) कहलाते हैं ।
भावार्थ:- हे गौतम! जीव जिसमें चेतना हो । जड़ चेतनारहित । बंध जीव और कर्म का मिलना । पुष्य शुभ कार्यों द्वारा संचित शुभ कर्म । पाप दुष्कृत्यजन्म कर्म बंध | लव कर्म जाने का द्वार संवर आते हुए कर्मों का रुकना ।
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निर्मन्ध-प्रवचन
निर्जरा एकदेश कर्मों का क्षय होना । मोम सम्पूर्ण पाप पुण्यों से छूट जाना । एकान्त सुख के मागी होना मोक्ष है। मूल:-धम्मो अहगो मागासं सालोपोगा मानो।
एस लोगु त्ति पण्णत्तो जिणेहि बरदसिहि ।।१३।। छायाः-धर्मोऽधर्म आकाश काल: पुद्गलजन्तवः
एषो लोक इति प्रज्ञप्तो जिनवरदर्शिभिः ॥१३।। आपयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (धम्मो) धर्मास्तिकाय (अहम्मो) अधर्मास्तिवाय (आगासं) आकाशास्तिकाय (कालो) समय (पोग्गलजंतवो) पुद्गल और जीव (एस) ये छः ही द्रव्य बाला (लोगु ति) लोक है । ऐसा (वरदंसिहि) केवल ज्ञानी (जिणेहिं) जिनेश्वरों ने (पणतो) कहा है। __भावार्थ:-हे गौतम ! धर्मास्तिकाय जो जीव और जड़ पदार्थों को गमन करने में सहायक हो । अधर्मास्तिकाय जीव और अजीव पदार्थों की गति को मवरोध करने में कारणभूत एक द्रव्य है। और बाकाश, समय, जड़ और चेतन इन छ: द्रव्यों को ज्ञानियों ने लोक फहकर पुकारा है। मूल:-धम्मो अहम्मो आगास; दब्बं इक्किक्कमाहियं ।
अणंताणि य दब्धाणि य; कालो पुग्गलजंतवो ॥१४॥ छाया:-धर्मोऽधर्म आकाशं द्रव्यं एककमाख्यातम् ।
अनन्तानि च द्रव्याणि च काल: पुद्गलजन्तवः ।।१४।। अम्बया:-हे इन्द्रभूति ! (धम्मो) धर्मास्तिकाय (अहम्मो) अधर्मास्ति. काय (आगास) आकायाास्ति काय (दक्वं) इन द्रव्यों को (इविक्रवक) एक-एक दव्य (आहिय) कहा है (य) और (कालो) समम (पुग्गलजंतयो) पुद्गल एवं जीव इन द्रव्यों को (अणताणि) अनंत कहा है।
भावार्थ:-हे शिष्य ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों एक-एक द्रश्य हैं। जिस प्रकार आकाश के टुकड़े नहीं होते, वह एक अखण्ड द्रव्य है, ऐसे ही धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय भी एक-एक ही अखण्ड द्रव्य हैं और पुद्गल अर्थात्-वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाला एक मूर्त द्रव्य तथा जीव और (अतीत व अनागत की अपेक्षा) समय, ये तीनों अनंत द्रव्य माने गये हैं ।
अपनी
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षट् द्रव्य निरूपण
मूलः - गइलक्यणो उ धम्मो, अम्मी जबली । भायणं सव्वदव्वाणं; नहं ओगाह लक्खणं ॥ १५ ॥ छाया:-- गतिलक्षणस्तु धर्मः अधर्मः स्थानलक्षण: । भाजनं सर्वद्रव्याणाम् नभोऽवगाहलक्षणम् ।। १५ ।।
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( गइल क्खणो) गमन करने में सहायता देने का लक्षण है जिसका, उसको (धम्मो ) धर्मास्तिकाय कहते हैं । (ठाणलक्षणो ) ठहरने में मदद देने का लक्षण है जिसका, उसको (अहम्मो ) अधर्मास्तिकाय कहते हैं। और (सव्वदव्वाणं ) सर्व द्रव्यों को (भामण ) आश्रय रूप (ओगाहलषखणं) अवकाश देने का लक्षण है जिसका, उसको (नह) आकाशस्तिकाय कहते हैं ।
भावार्थ :- हे गौतम! जो जीव और जड़ यों को गमन करने में सहाय्य - भूत हो उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं। और जो ठहरने में सहाय्यभूत हो उसे अधर्मास्तिकाय कहते है । और पांचों द्रव्यों को जो आधारभूत हो कर अवकाश दे उसे आकाशास्तिकाय कहते हैं ।
जीवो उवओगलक्खणी । सुहेण य दुहेण य ॥१६॥ छायाः - वर्त्तना लक्षण: कालो जीव उपयोगलक्षणः । ज्ञानेन दर्शनेन च सुखेन च दुःखेन च ॥१६॥
मूलः - वत्तणालक्खणो कालो; नाणेणं दंसणेणं च
अन्वयार्थ हे इन्द्रभूति ! ( वत्तणालक्खणी) वर्तना है लक्षण जिसका उसको (कालो) समय कहते हैं (उत्र ओगलवणो ) उपयोग लक्षण है जिसका उसको (जीव) आत्मा कहते हैं। उसकी पहचान (नाणेणं) ज्ञान (च) और (दंसणेणं) दर्शन (थ) और (सुद्देण ) सुख (य) और (दुहेण ) दुख के द्वारा होती है ।
भावार्थ :- हे शिष्य ! जीव और पुद्गल मात्र के पर्याय बदलने में जो सहायक होता है उसे काल कहते हैं । ज्ञानादि का एकांश या विशेषांश जिसमें हो वही जीवास्तिकाय है। जिसमें उपयोग अर्थात् ज्ञानादि न सम्पूर्ण ही है और न अंशमात्र भी है। वह जड़ पदार्थ है । क्योंकि जो आत्मा है, वह सुख, दुःख, ज्ञान, दर्शन का अनुभव करता है - इसी से इसे आत्मा कहा गया है और इन कारणों से ही आत्मा की पहचान मानी गई है ।
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निर्गन्थ-प्रवचन
मूल:--सबंधयारउज्जोओ, पहा छायाऽऽतवे इ वा।
वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥१७॥ छाया:-- शब्दोऽधकार उद्योतःप्रभाच्छायाऽऽतप इति वा ।
वर्णरसगन्धस्पर्शा: पुद्गलानाञ्च लक्षणम् ।।१७।। अन्वयार्थः---हे इन्द्रभूति ! (सइंधमार) शब्द अन्धकार (उज्जोओ) प्रकाश (पहा) प्रभा (छायालवेइ) छाया, धूप आदि ये (वा) अथवा (वष्णरसगंधफासा)
, बा, गन्ध, २५शाद को पस) शुद्लों का (लखणं) लक्षण कहा है। (तु) पाद पूर्ति ।
भावार्थ:-हे गौतम ! शब्द, अन्धकार, रत्नादिक का प्रकाश, चन्द्रादिक की काति, शीतलता, छाया, धूप आदि ये सब और पौधों वर्णादिक, गन्ध, पांचों रसादिक और आठों स्पादि से पुद्गल जाने जाते है । मूलः-गुणाणमासओ दव्वं, एगदबस्सिया गुणा ।
लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे ।।१८।। छाया:-गुणानामाश्रयो द्रव्यं, एकद्रव्याश्रिता गुणाः ।
लक्षणं पर्यवाणां तु उभयोराश्रिता भवन्ति ।।१८।। अन्वयार्थः-है इन्द्र भूति ! (गुणाणं) रूपादि गुणों का (आसओ) आश्रय जो है वह (दग्वं) द्रव्य है । और जो (एगदम्वस्सिया) एक द्रश्य आश्रित रहते आये हैं वे (गुणा) गुण है (तु) और (उमओ) दोनों के (अस्सिया) आश्रित (मये) हो, वह (पज्जवाणं) पर्यायों का (लक्खण) लक्षण है।
भावार्थ:-हे गौतम ! रूपादि गुणों का जो आश्रय हो, उसको द्रव्य कहते हैं । और द्रव्य के आश्रित रहने वाले रूप, रस आदि से सब गुण कहलाते हैं । और द्रव्य तथा गुण इन दोनों के आश्रित जो होता है, अर्थात् द्रव्य के अन्दर तथा गणों के अन्दर जो पाया जाय वह पर्याय कहलाता है । अर्थात् गुण द्रव्य में ही रहता है किन्तु पर्याय द्रष्य और गुण दोनों में रहती है। यही गुण और पर्याय में अन्तर है। मूलः-एगत्तं च पुहत्त च, संखा संठाणमेव य ।
संजोगा य विभागा य, पज्जवाणं तु लक्खणं ।।१६।।
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¦
!
षट् द्रव्य निरूपण
छाया:- एकत्वञ्च पृथक्त्वञ्च संख्या संस्थानमेव च । संयोगाश्च विभागाश्च पर्यंवाणां तु लक्षणम् ||१६||
११
अग्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (पज्ञवाणं) पर्यायों का ( लक्खणं) लक्षण यह है, कि ( एगत ) एक पदार्थ के ज्ञान का (च) और ( पुहत्तं ) उससे भिन्न पदार्थ ज्ञान का (च) ()का (य) और (संठाणमेव ) आकार-प्रकार का ( संजोगा ) एक से दो मिले हुओं का (य) और ( विभागाय ) यह इससे अलग है, ऐसा ज्ञान जो करावे वही पर्याय है ।
भावार्थ :- हे गौतम ! पर्याय उसे कहते है, कि यह अमुक पदार्थ है, यह उससे अलग हैं, यह अमुक संख्या वाला है, इस आकार-प्रकार का है, यह इसने समूह रूप में हैं, आदि ऐसा जो ज्ञान करावे वही पर्याय है । अर्थात् जैसे मह मिट्टी थी पर अब घट रूप में है । यह घट, उस घट से पृथक् रूप में है। यह घट संख्या बल है । पहले नम्बर का है या दूसरे नम्बर का है। यह गोल आकार का है। यह चौरस आकार का है। यह दो घट का समूह है। यह घट उस घट से भिन्न है | यदि ऐसा ज्ञान जिसके द्वारा हो वही पर्याय है ।
॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(द्वितीय अध्याय)
कर्म निरूपण ॥ श्री भगवानुवाच ॥
मूल:--अठ्ठ कम्माई वोच्छामि, आणवि जहक्कम ।
जेहिं बद्धो अयं जीवो, संसारे परियत्तइ ॥१॥ छाया:-अष्ट कर्माणि वक्ष्यामि, आनुपूर्व्या यथाक्रमम् ।
यद्धोऽयं जीवः संसारे परिवर्तते ॥१॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अट्ट) आठ (कम्माइं) कर्मों को (आणुपुचि) अनुपूर्वी से (जह्नकम) क्रमवार (वोच्छामि) कहता है, सो सुनो । क्योंकि (बेहि) उन्हीं कर्मों से (बद्धो) बंधा हुआ (अप) यह (जीवो) जीव (संसारे) संसार में (परियत्तइ) परिभ्रमण करता है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! जिन कर्मों को करके यह आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है, जिनके द्वारा संसार का अन्त नहीं होता है, वे कम आठ प्रकार के होते हैं । मैं उन्हें क्रमपूर्वक और उनके स्वरूप के साथ कहता हूँ। मूल:--नाणस्सावरणिज्ज, दंसणावरणं तहा ।
वेणिज्ज तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य ॥२॥ नामकम्मं च गोयं च, अन्तरायं तहेव य । एवमेयाइ कम्माइं, अट्ठव उ समासओ ॥३॥
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झम निरूपण
छाया:--ज्ञानस्यावरणीयं, दर्शनावरणं तथा।
वेदनीयं तथा मोहं, आयु: कर्म तथैव च ॥२॥ नामकर्म च सोनं च, अन्त रायं तथैव च ।
एवमेतानि कमाणि, अटो तु समासतः ॥३:! अन्वयार्थ: हे इन्द्रभूति ! (नाणस्सावरणिज्ज) ज्ञानावरणीय (तहा) तथा (दसणावरणं) दर्शनावरणीय (तहा) तथा (वेयणिज्ज) वेदनीय (मोह) मोहनीय (तथैव) और (आउकम्म) आयुष्कर्म (च) और (नामकम्म) नाम कर्म (च)
और (गोयं) गोत्र कम (य) और (तहेव) दैसे ही (अन्तरायं) अन्तराय कर्म (एघमेग्राइ) इस प्रकार ये (कम्माइं) कर्म (अट्ठव) आठ ही (समासओ) संक्षेप से ज्ञानी जनों ने कहे हैं । (उ) पादपूर्ति अर्थ में ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिसके द्वारा बुद्धि एवं ज्ञान की न्यूनता हो, अर्थात् ज्ञान वृद्धि में बाधा रूप जो हो उसे ज्ञानावरणीय अथति ज्ञान शक्ति को दबाने वाला कर्म कहते हैं । पदाचं को साक्षात्कार करने में जो बाधा डाले, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहा गया है। सम्यवत्व और चारित्र को जो बिगाड़े, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । जन्म-मरण में जो सहाय्यभूत हो वह आयुष्कर्म माना गया है। जो शरीर आदि के निर्माण का कारण हो वह नामकर्म है। जीव को जो लोकप्रतिष्ठित या लोकनिध कूलों में उत्पन्न करने का कारण हो वह गोत्रकर्म कहलाता है । जीव की अनन्त शक्ति प्रकट होने में जो बाधक रूप हो वह अन्तराय कर्म कहलाता है । इस प्रकार ये आठों ही कमं इस जीव को चौरासी के चक्कर में डाल रहे हैं। मूलः-नाणावरण पंचविहं, सुयं अभिणिबोहियं ।
ओहिनाणं च तइयं, मणनाणं च केवलं ॥४॥ छाया:- झानावरणं पञ्चविधं, श्रुतमाभिनिवोधिकम् ।
अवधिज्ञानं च तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम् ॥४॥ अम्बयार्थ:-हे इंद्रभूति ! (माणावरण) झानावरणीय कर्म (पंचविह) पांच प्रकार का है। (सुर्य) श्रुत-शानावरणीय (आभिणिबोयिं) मतिज्ञानावरणीय (तक्ष्य) तीसरा (ओहिनाणं) अवधिज्ञानादरणीय (च) और (मणनाणं) मनः पर्यय ज्ञानावरणीय (च) और (केवलं) केवल ज्ञानावरणीय ।
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निग्रन्थ-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम ! अब ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद कहते हैं। सो सुनो-(१) श्रतज्ञानावरणीय क्रम जिसके द्वारा ज्ञान शक्ति आदि में न्यूनता हो । (२) मलिशानावरणीय जिसके द्वारा समझाने की शक्ति कम हो (३) अवधिज्ञानावरणीय-जिसके द्वारा परोक्ष की बातें जानने में न आवे (४) मनः पर्यवज्ञानावरणीप-- दूसरों के मन की बात जानने में शक्तिहीन होना (५) केवलज्ञानावरणीय-संपूर्ण पदार्थों के जानने में असमर्थ होना । ये सब ज्ञानावरणीय कर्म के फरन हैं।
हे गौतम ! अब ज्ञानवरणीय कर्म बंधने के कारण बताते हैं, सो सुनो (१) ज्ञानी के द्वारा बताये हुए तत्त्वों को असत्य बताना, तथा उन्हें असत्य सिद्ध करने की चेष्टा करना (२) जिस ज्ञानी के द्वारा ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका नाम तो छिपा देना और मैं स्वयं ज्ञानवान् बना हूँ ऐसा वातावरण फैलाना (३) ज्ञान की असारता दिखलाना कि इस में पड़ा ही क्या है ? आदि कह कर ज्ञान एवं ज्ञानी को अवज्ञा करना (४) शाती से द्वेष भाव रखते हुए कहना कि वह पल है है ? कुनही । रानडगी होकर इ.ानी ईद का दम भरता है, आदि कहना । (५) जो कुछ सीख पढ़ रहा हो उसके काम में बाधा डालने में हर तरह से प्रयत्न करना (६) ज्ञानी के साथ अण्ट सण्ट बोल कर व्यर्थ का झगड़ा करना । आदि-आदि कारणों से ज्ञानाबरणीय कर्म बंधता है । मूलः-निदा तहेव पयला; निहानिद्दा य पयलपयला य ।
तत्तो अ थाणगिद्धी उ, पंचमा होइ नायव्वा ॥५॥ चक्नुमचक्खू ओहिस्स, दसओ केवले अ आवरणे ।
एवं तु नवविगप्प, नायव्वं दसणावरणं ।।६।। छापा:-निद्रा तथैव प्रचला, निद्रानिद्रा च प्रचलाप्रचला च ।
ततश्च स्त्यानगृद्धिस्तु, पञ्चमा भवति ज्ञातव्या ।।५।। चक्षुरचक्षुरवधेः दर्शने केवले चावरणे ।
एवं तु नवविकल्प, ज्ञातव्यं दर्शनावरणम् ।।६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (निदा) सुख पूर्वक सोना (तहेव) से ही (पयला) बैटे बैठे अंघना (य) और (निदानिहा) खूब गहरी नींद (म) और (पयल
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कर्म निरूपण
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पला ) चलते चलते कंचना (तत्ती अ ) और इसके बाद (पंचमा) पांचवीं (याण गिट्टी उ) स्त्यानगृद्धि (होई) है, ऐसा (नामच्या) जानना चाहिये (चतुभचक्खू ओहिस्स) चक्षु, अचक्षु, अवधि के ( दंसणं ) दर्शन में (य) और ( केवले) केवल में (आवरण) आवरण ( एवं तु) इस प्रकार ( नवबिगप्पं ) नौ भेदवाला ( दंसणावरणं) दर्शनावरणीय कर्म (नायचं) जानना चाहिए ।
भावार्थ :- हे गौतम! अब दर्शनावरणीय कर्म के भेद बतलाते हैं, सो सुनो
से युक्त होना (२) बैठे-बैठे कंचना भी कठिनता से जागना ( ४ ) चलतेषो
(१) अपने बाप ही नियत समय पर निद्रा अर्थात् नींद लेना (३) नियत समय पर फिरते ॐ घना और (()
स्वाद
ये सब दर्शनावरणीय कर्म के फल हैं। इसके सिवाय वक्ष में दृष्टिमान्य या अन्धेपन आदि प्रकार की होनता का होना तथा सुनने की, सूचने की, लेने की, स्पर्श करने की शक्ति में हीनता अवधिदर्शन होने में और केवलदर्शन अर्थात् सारे जगत को हाथ की रेखा के समान देखने में रुकावट का आना ये सब के सब नौ प्रकार के दर्शनावरणीय कर्म के फल हैं। हे आये ! जब आत्मा दर्शनावरणीय कर्म बांध लेता है तब वह जीव कपर कड़े हुए फलों को भोगता है। अब हम यह बतायेंगे कि जीव फिन कारणों से दर्शनावरणीय कर्म बाँध लेता है । सुनो- (१) जिसको अच्छी तरह से दीखता है उसे भी अन्धा और काना कह कर उसके साथ विरुद्धता करना ( २ ) जिसके द्वारा अपने नेत्रों को फायदा पहुँचा हो और न देखने पर भी उस पदार्थ का सच्चा ज्ञान हो गया हो उस उपकारों के उपकार को भूल जाना (३) जिसके पास चक्षु ज्ञान से परे अवधिदर्शन है, जिस अवधिदर्शन से वह कई भव अपने एवं औरों के देख लेता है । उसको अवज्ञा करते हुए कहना कि क्या पड़ा है ऐसे अवधिदर्शन में ? (४) जिसके दुखते हुए नेत्रों के अच्छे होने में वा चक्षुदर्शन से भिनयचक्षु के द्वारा होने वाले दर्शन में और अवधिदर्शन के प्राप्त होने में एवं सारे जगत् को हस्तामलकवत् देखने वाले के दर्शन प्राप्त करने में रोड़ा अटकाना । (५) जिसको नहीं दिखता है या कम दिखता है, उसे कहे कि इस धूर्त फो अच्छा दिखता है तो भी अन्धा बन बैठा है । चक्षुदर्शन से भिन्न अचक्षुदर्शन का जिसे अच्छा बोध नहीं होता हो उसे कहे कि जान-बूझ कर मूर्ख बन रहा है । और जो अवधिदर्शन से भव भवान्तर के कर्त्तव्यों को जान लेता है उसको कहे कि ढोंगी है। एवं केवलदर्शन से जो प्रत्येक बात का स्पष्टीकरण करता है
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निर्यय-प्रवचन
उसे असत्यवादी कह कर जो दर्शन के साथ द्वेष भाव करता है । ( ६ ) इसी प्रकार चक्षुदर्शनीय अवधिदर्शनीय एवं केवलदर्शनीय के साथ जो ठण्ठा करता है ।
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मूलः -- वेयणीयं पि दुविहं, सायमसायं च आहियं । सायरस उ बहू भैया, एमेव आसायस्स वि ॥७॥ छाया:- वेदनीयमपि च द्विविधं सातमसातं चाख्यातम् ।
सातस्य तु बहवो भेदा, एवमेवासातस्यापि ॥७॥
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभृति ! (वेयणीयं पि) वेदनीय कर्म भी (सायमसायं च ) साता और असाता (दुबि) यों दो प्रकार का ( आहियं ) कहा गया है । (सायस्स) साता के ( उ ) तो (बहू) बहुत से ( भैया ) भेव हैं। ( एमेच आसायस्स वि) इसी प्रकार असातावेदनीय के भी अनेक भेद हैं ।
भावार्थ:- हे गौतम! फुंसी, फोड़े, ज्वर, नेत्रशूल आदि अन्य तथा सब शारीरिक और मानसिक वेदना असातावेदनीय कर्म के फल हैं। इसी तरह निरोग रहना, चिन्ता, फिक्र कुछ भी नहीं होना ये सब शारीरिक और मानसिक सुख सातावेदनीय कर्म के फल हैं । हे गौतम! यह जीव साता और असाता वेदनीय कर्मों को किन-किन कारणों से बांध लेता है, सो अब सुनो-धन सम्पत्ति आदि ऐहिक सुख प्राप्ति होने का कारण सातावेदनीय का बंधन है । यह साता वेदनीय बन्धन इस प्रकार बँधता है दो इन्द्रिय वाले लट गिण्ढोरे आदि; तीन इन्द्रिय वाले मकोड़े, चींटियाँ, जूं आदि; चार इन्द्रिय वाले मक्खी, मच्छर, मोरे आदि पाँच इन्द्रिय वाले हाथी, घोड़े, बैल, ऊँट, गाय, बकरी आदि तथा वनस्पति स्थित जीव और पृथ्वी, पानी, याग, वायु इन जीवों को किसी प्रकार से कष्ट और शोक नहीं पहुँचाने से एवं इनको सुराने तथा अश्रुपात न कराने से, लात-घूंसा आदि से न पोटने से परितापना न देने से इनका विनाश न करने से, सातावेदनीय का बंध होता है ।
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शारीरिक और मानसिक जो दुःख होता है, वह असातावेदनीय कर्म के उदय के कारणों से होता है। वे कारण यों हैं प्राण, भूत, जीव और सत्व इस चारों ही प्रकार के जीवों को दुःख देने से, फिक्र उत्पन्न कराने से, शुराने से, अनुपात करने से पीटने से, परिताप व कष्ट उत्पन्न कराने से असातावेदनीय का बंध होता है।
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- कर्म निरूपण
मूल:--मोहणिज्ज पि विहं, सणे चरणे तहा।
दसणे तिबिहं बुत्त, चरणे दुविहं भवे ।।८।। छाया:--मोहनीयमपि द्विविधं, दर्शने चरणे तथा।
दर्शने त्रिविधमुक्तं, चरणे द्विविधं भवेत् || अन्वयार्थः-हे इन्द्रभूति ! (मोणिज्जं पि) मोहनीय कर्म भी (दुविह) दो प्रकार का है। (दसणे) दर्शनमोहनीय (तहा) तथा (चरण) चारित्रमोहनीय । अछ (दंसणे) दर्शन मोहनीय कर्म (तिविह) तीन प्रकार का (वुत्त) कहा गया है और (चरणे) चारित्रमोहनीय (दुविद्र! दो प्रकार का (मवे) होता है।
भावार्थ:-है गौतम ! मोहनीय कर्म जो जीव बांध लेता है उसको अपने आत्मीय गुणों का मान नहीं रहता है। जैसे मदिरापान करने वाले को कुछ मान नहीं रहला उसी तरह मोहनीय कर्म के उदय काल में जीव को शुद्ध श्रद्धा और क्रिया की तरफ भान नहीं रहता है। यह कर्म दो प्रकार का कहा गया है। एक दर्शनमोहनीव, दूसरा चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय के तीन प्रकार और चारित्रमोहनीय के दो प्रकार होते हैं। मूलः-सम्मत्त चेव मिच्छत्त, सम्मामिच्छत्तमेव य ।
एयाओ तिण्णि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दसणे ॥६॥ छाया:-सम्यक्त्वं चंब मिथ्यात्वं, सम्यमिथ्यात्वमेव च ।
एतास्तिस्रः प्रकृतयः मोहनीयस्य दर्शने ॥६॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (मोहणिज्जस्स) मोहनीय सम्बन्ध के (दंसणे) दर्शन में अर्थात् दर्शनमोहनीय में {एमाओ) ये (तिण्णि) तीन प्रकार की (पयहोओ) प्रकृतियां हैं (सम्मत्तं) सम्यक्त्वमोहनीय (मिच्छत्तं) मिथ्यात्वमोहनीय (य) और (सम्मामिच्छत्तमेव) सम्यमिथ्यारवमोहनीय ।
भावार्थ:-हे गौतम ! दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रकार का होता है । एक तो सम्यक्त्वमोहनीय, इसके उदय में जीव को सम्यक्स्व की प्राप्ति तो हो जाती है, परन्तु मोहवश ऐहिक सुख के लिए तीर्थंकरों की माला जपता रहता है । यह सम्यक्त्वमोहनीय कर्म का उदय है। यह कर्म जब तक बना रहता है तब
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
तक उस जीव के मोक्ष के सान्निध्यकारी क्षायिक गुण को रोक रखता है । और दूसरा मिथ्यात्वमोहनीय है। इसके उदयकाल में जीव सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझता है। और इसीलिए वह जीव चौरासी का अन्त नहीं पा सकता | चौदहवें गुणस्थान के बाद ही जीव की मुक्ति होती है। पर यह मिथ्यात्वमोहनीय फर्म जीव को दूसरे गुणस्थान पर भी पैर नहीं रखने देता । तब फिर तीसरे और चौथे गणस्थान की तो बात ही निराली है। इसका तीसरा भेद सममिथ्यात्वमोहनीय है। इसके उदयकाल में जीव सत्य-असत्य दोनों को बराबर समझता है। जिससे हे गौतम ! यह आत्मा न तो रामदृष्टि की श्रेणी में है और न पूर्ण रूप से मिथ्यात्वी ही है । अर्थात् यह कर्म जीव को तीसरे गुणस्थान के ऊपर देखने तक का भी मौका नहीं देता है। हे गौतम ! अब हम चारित्रमोहनीय के भेद कहते हैं, सो सुनो। मूलः-चरितमोहणं कम, दविह तं विनादि ।
कसायमोहणिज्जं तु, नोकसायं तहेव य ॥१०॥ छाया:--चारित्रमोहनं कर्म द्विविधं तद् ब्याख्यातम् ।
कषायमोहनीयं तु, नोकषायं तथैव च ॥१०॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (चरितमोहण) चारित्रमोहनीय (कम्म) कर्म (स) वह (दुविह) दो प्रकार का (विआहियं) कहा गया है । (कसायमोहणिज्ज) क्रोधादि रूप भोगने में आवे यह (य) और (तहेब) वैसे ही (नोकसाय) क्रोधादि के सहचारी हास्यादिक के रूप में जो अनुभव में आवे ।
भावार्थ:-हे गौतम ! संसार के सम्पूर्ण वैभव को स्यागना चारित्र धर्म कहलाता है, उस चारित्र के अंगीकार करने में जो रोड़ा अटकाता है उसे चारित्र मोहनीय कहते हैं। यह कर्म दो प्रकार का है। एक तो क्रोधादि रूप में अनभव में माता है । अर्थात् हसना, भोगों में आनन्द मानना, धर्म में नाराजी आदि होना यह इस क्रम का उदय है ।
मूल:--सोलसविहभेएणं, कम तु कसायज ।
सत्तविहं, नवविहं वा, कम्मं च नोकसायज ॥११||
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कर्म निरूपण
कर्म तु
कषायजम् ।
छाया: - षोडशविधभेदेन सप्तविधं नवविधं वा कर्म च नोकषायजम् ॥११॥
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अम्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( कसायजं ) क्रोषादिक रूप से उत्पन्न होने वाला (कम्मं लु) कर्म तो भएन) भेदों करके ( सोलसविह) सोलह प्रकार का है। (च) और ( नोकसायर्ज) हास्यादि से उत्पन्न होने वाला जो (कम्मं ) कर्म है वह ( सत्तविहं ) सात प्रकार का (वा) अथवा ( नवविहं) नौ प्रकार का माना गया है ।
भावार्थ :- हे गौतम! क्रोधादि से उत्पन्न होने वाले कर्म के सोलह भेद हैं । मनन्तानुबन्धी कोष, मान, माया, लोभ, यों प्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन के चार-चार भेदों के साथ इसके सोलह भेद हो जाते हैं और नोकषाय से उत्पन्न होने वाले कर्म के सात अथवा नो भेद कहे गये हैं । ये यों हैं - हास्य, रति, अरति, मध, शोक, जुगुप्सा और वेद यों सात भेद होते हैं और वेद के उत्तरभेद (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद) लेने से नौ भेद हो जाते हैं । अत्यन्त क्रोध, मान, माया और लोभ करने से तथा मिथ्या श्रद्धा में रत रहने से और अती रहने से मोहनीय कर्म का बंध होता है ।
हे गौतम ! अब हम आयुष्यकर्म का स्वरूप बतलायेंगे ।
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मूलः - नेरइयतिरिक्खाउं मणुस्साउं तहेव य । देवाउअं चउत्थं तु, आउकम्मं चउन्विहं ॥ १२ ॥ छाया: - नरयिकतिर्यगायुः मनुष्यायुस्तथैव च । देवायुश्चतुर्थं तु आयुः कर्म चतुविधम् ||१२||
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( आउकम्मं ) आयुष्य कर्म ( चउब्बिह) चार प्रकार का है (नेरइयतिरिक्खा उं) नरकायुष्य तिर्यंचायुष्य ( तहेब) से हो ( मणुस्सा) मनुष्यायुष्य (य) और (चवत्थं तु) चौथा ( देवा उनं ) देवायुष्य है । भावार्थ:- हे गौतम! आत्मा को नियत समय तक एक ही शरीर में रोक रखने वाले कर्म को आयुष्य कर्म कहते हैं । यह आयुष्य कर्म चार प्रकार का है - ( १ ) नरक योनि में रखने वाला नरकायुष्य, (२) तिच योनि में रखने वाला तिचायुष्य, (३) मनुष्य योनि में रखने वाला मनुष्यायुष्य और (४) देव योनि में रखने वाला देवायुष्य कहलाता है ।
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निर्गम्य-प्रवचन
हे गौतम ! अब हम इन चारों जगह का आयुष्य किन-किन कारणों से बँधता है, उसे कहते हैं । म हारम्म करना, अत्यन्त लालसा रखना, पंपेन्द्रिय जीवों का वध करना लथा मांस खाना, आदि ऐसे कार्यों से नरकायुष्य का बंध होता है। कपट करना, कपटपूर्वक फिर कपट करना, असत्य भाषण करना, तौलने की वस्तुओं में और नापने की प्रस्तयों में कमीठी लेटा देर दिपेगे कार्यों को करने से तिपंचामुष्य का बन्ध होता है। निष्कपट व्यवहार करना, नम्रभाव होना, सब जीवों पर दयाभाव रखना, तथा ईया नहीं करना आदि कार्यों से मनुष्यायुष्य का बंध होता है। सरागसंयम व गृहस्थधर्म के पालने, अज्ञानयुक्त तपस्या करने, बिना इच्छा से भुग्म, प्यास आदि सहन करने तथा शीलवत पालने से देवायुष्य का बंध होता है।
हे गौतम ! अब हम आगे नामकर्म का स्वरूप कहते हैं, सो सुनोःमूल:-नामकम्मं तु दुविहं. सुहं असुहं च आहियं ।
सुहस्स तु बहू भेया, एमेव असुहस्स वि ॥१३॥ छाया:-नामकर्म तु द्विविधं शुभमशुभं चाख्यातम् ।
शुभस्य तु बह्वो भेदा एबमेवाशुभस्याऽपि ॥१३।। अन्वयार्ष:-हे इन्द्रभूति I (नामकम्मं तु) नाम कर्म तो (दुविह) दो प्रकार का (आहियं) कहा गया है। (सुह) शुम नाम कर्म (च) और (असुह) अशुभ नाम कर्म जिसमें (सहस्स) शुभ नाम कर्म के (तु) तो (बहू) बहुत (भेया) भेद हैं। (असुहस्स वि) अशुम नाम कर्म के भी (एमेव) इसी प्रकार अनेक भेद माने गये हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिसके द्वारा शरीर सुन्दराकार हो अथवा जो असुन्दराकार होने में कारणभूत हो वहीं नाम कर्म है। यह नाम कर्म दो प्रकार का माना गया है | उनमें से एक शुभ नाम कर्म और दूसरा अशुभ नाम कर्म है । मनुष्य शरीर, देव शरीर, सुन्दर अंगोपांग, गौर वर्णादि, वचन में मधुरता का होना, लोकप्रिय, यशस्वी, तीर्थकर आदि-आदि का होना, ये सब शुभ नाम कर्म के फल हैं। नारकीय, तिर्यम का शरीर धारण करना, पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि में जन्म लेना, बेडौल अंगोपांगों का पाना, कुरूप और अयशस्वी होना । ये सब अशुभ नाम कर्म के फल हैं ।
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कर्म निरूपण
हे गौतम ! शुभ अशुभ नाम कर्म कसे बंधता है सो सुनो:- मानसिक, वाचिक और कायिक कृत्य की सरलता रखने से और किसी के साथ किसी भी प्रकार का वर विरोध न करने व न रखने से शुभनाम कर्म बंधता है। शुमनाम कर्म के बंधन से विपरीत बर्ताव के करने से अशुभ नाम कर्म बंधता है ।
हे गौतम ! अब हम आगे गोत्र कर्म का स्वरूप बतलावेंगे ।
मूलः -गोयकम्मं तु दुविह, उच्च नीच आहिअं ।
उच्च अट्टविहं होइ, एवं नीअं वि आहि ।।१४।। छायाः-गोत्रकर्म तु द्विविधं, उच्च नीचं चाख्यातम् ।
उच्चमष्टविधं भवति, एवं नीचमप्याख्यातम् ॥१४॥
अम्बयाधः-हे इन्द्रभूति ! (गोयकम्म तु) गोत्र कर्म (दुविह) दो प्रकार का (आहिम) कहा गया है। (उच्च) उच्च गोत्र कर्म (च) और (नी) नीच गोत्र कर्म (उच्च) उच्च गोत्र कर्म (अट्ठविह) आठ प्रकार को (होइ) है {नी वि) नीच गोत्र कर्म भी (एवं) इसी तरह आठ प्रकार का होता है ऐसा (माहि) कहा गया है।
भावार्थ-हे गौतम ! उच्च तथा नीच जाति आदि मिलने में जो कारणभूत हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं। यह गोत्र कर्म ऊँच, नीच में विभक्त होकर आठ प्रकार का होता है । ऊँच जाति और ऊँचे कुल में जन्म लेना, बलवान होना, सुन्दराकार होना, तपवान् होना, प्रत्येक व्यवहार में अर्थ प्राप्ति का होना, विद्वान् होना, ऐश्वर्यवान होना ये सब ऊँचे गोत्र के फल है । और इन सब बातों के विपरीत जो कुछ है उसे नीष गोत्र कर्म का फल समझो।।
है गौतम ! वह ऊँच नीच गोत्र कर्म इस प्रकार से बँधता है । स्वकीय, माता के वंश का, पिता के वंश का, ताकत का, रूप का, तप का, विद्वत्ता का और सुलभता से लाभ होने का घमण्ड न करने से ऊंच गोत्र कर्म का बंध होता है। और इसके विपरीत अभिमान करने से नीच गोत्र का बंध होता है । हे गौतम [ अब अन्तराम कर्म का स्वरूप बतलाते हैं।
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निर्गन्य-प्रवचन
मूलः दाणे लाभे य भोगे य, उपभोगे वीरिए तहा ।
पंचविहमंतरायं, समासेण विआयिं ॥१५॥ छाया:-दाने लाभे च भोगे च, उपभोगे वीर्थे तथा ।
पञ्चविधमन्तराय, समासेन व्याख्यातम् ॥१५।। अन्वयार्थः हे इन्द्रभूति ! (अन्तराय) अन्तराय कर्म (समासण) संक्षेप से (पंचविहं) पाँच प्रकार का (विआहियं) कहा गया है । (दाणे) दानान्तराय (य) और (लाभे) लाभान्तराय (मोगे) भोगान्त राय (य) और (उपभोगे) उपभोगातराय (तहा) वैसी ही (पीरिए) वीर्यान्तराय ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिसके उदय से इच्छित वस्तु की प्राप्ति में बाधा आये वह अन्तराय कर्म है। इसके पाँच भेद हैं । दान देने की वस्तु के विद्यमान होते हुए भी, दान देने का अच्छा फल जानते हुए. मी, जिसके कारण दान नहीं दिया जा सके वह वामास्तरस्य है। व्यवहार में व मांगने में सब प्रकार की सुविधा होते हुए भी जिसके कारण प्राप्ति न हो सके वह लाभान्तराय है। खान-पान आदि की सामग्री के व्यवस्थित रूप से होने पर मी जिसके कारण खा-पी न सके, खा और पी भी लिया तो हजम न किया जा सके, वह भोगास्तराप कर्म है । मोग पदार्थ बे हैं, जो एक बार काम में आते हैं जैसे भोजन, पानी आदि और जो बार-बार काम में आते हैं उन्हें उपभोग माना गया है जसे वस्त्र, आभूषण आदि 1 अतः जिसके उदय से उपभोग की सामग्री संघटित रूप से स्वाधीन होते हुए भी अपने काम में न ली जा सके उसे उपभोगान्त राय कर्म कहते हैं । और जिसके उदय से युवान और बलवान होते हुए भी कोई फायं न किया जा सके, वह बीर्यास्तराय कर्म का फल है।
है गौतम ! यह अन्तराम कम निम्न प्रकार से बंधता है । दान देते हुए के बीच बाधा डालने से, जिसे लाम होता हो उसे धक्का लगाने से, जो खा-पी रहा हो या खाने-पीने का जो समय हुआ हो उसे टालने से, जो 'उपमोम की सामग्री को अपने काम में ला रहा हो उसे अन्तराय देने से तथा जो सेवा धर्म का पालन कर रहा हो उसके बीच रोड़ा अटकाने से आदि-आदि कारणों से यह जीव अन्तराय कर्म बौष लेता है ।
हे गौतम ! अब हम आठों कर्मों की पृथक-पृथक स्थिति कहेंगे सो सुनो ।
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फर्म निरूपण
मूल:--उदहीसरिसनामाणं, तीसई कोडिकोडीओ।
उक्कोसिया ठिई होइ, अंतोमुहत्तं जण्णिया ।।१६।। आवरणिज्जाण दुण्हं पि, बेयणिज्जे तहेब य ।
अंतराए य कम्माम, ०३ एसा बिमाहिमा ।।१७।। छाया:--उदधिसङ नाम्नां त्रिशत्कोटाकोटयः ।
उत्कृष्टा स्थितिर्भवति, अन्तर्मुहुर्ता जघन्यका ॥१६॥ आवरयोद्वयोरपि वेदनीये तथैव च ।
अन्तराये च कर्मणि स्थितिरेषा व्याख्याता ।।१७।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (दुहं पि) दोनों ही (आवणिजाण) ज्ञानाबरणीम व दर्शनावरणीय कर्म की (तीसई) तीस (कोडिकोडोओ) कोटाकोटि (उदहीसरिसनामाण) समुद्र के समान है नाम जिसका ऐसा सागरोपम (उकोसिमा) ज्यादा से ज्यादा (ठिई) स्थिति (हाई) है (तहेव) वैसे ही (वेयणिज्जे) वेदनीय (य) और (अन्तराए) अन्तराय (कम्मम्मि) कर्म के विषय में भी (एसा) इतनी ही उत्कृष्ट स्थिति है और (जष्णिया) कम से कम चारों कर्मों की (अन्तोमुहृत्त) अन्तर्मुहूर्त (लिंई) स्थिति (विाहिया) कही है।
भावार्थ:--हे गौतम ! ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय ये चारों कर्म अधिक से अधिक रहें तो तीस क्रोहाकोडी (तीस फोड़ को तीस क्रोड़ से गुणा करने पर जो गुणनफस आने उतने) सागरोपम की इनकी स्थिति मानी गई है । और कम से कम रहें तो अन्तर्मुहत्तं की इनकी स्थिति होती है। मूलः-उदहीसरिसनामाणं, सत्तरि कोडिकोडीओ ।
मोहणिज्जस्स उक्कोसा, अन्तोमुहुत्त जहणिया ॥१८॥ तेत्तीसं सागरोवम, उक्कोसेण विआहिया । ठिई उ आउकम्मस्स, अन्तोमुहुत्त जहष्णिया ॥१६॥ उदहीसरिसनामाणं, बीसई कोडिकोडीओ। नामगोत्ताण उक्कोसा, अट्ठ मुहत्ता जहणिया ।।२०।।
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निय-प्रवचन
छाया:-उदषिसहङ नाम्नां सप्ततिः कोटाकोटयः ।
मोहनीयस्योत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्ता जघन्यका ॥१८।। त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमा, उत्कर्षेण व्याख्याता। स्थितिस्तु आयु: कर्मणः, अन्तर्मुहुर्ता जघन्यका ।।१६।। उदधिसदृङ नाम्नां, विंशतिः कोटाबोटयः ।
नामगोत्रयोरुत्कृष्टा अष्ट मुहूर्ता जघन्यका ॥२०॥ अन्वयाः-हे इन्द्रभूति ! (मोहणिज्जस्स) मोहनीय कर्म की (उक्कोसा) उस्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक स्थिति (सर) सत्तर (कोडिकोडीओ) कोटा कोटि (उदहीसरिसनामाणे) सागरोपम है । और (अहणिया) जयन्य (अन्तोमुहत्त) अन्तर्मुहूर्त और (लाउकम्मस्स) आयुष्य कर्म की (उक्कोसेण) उत्कृष्ट स्थिति (तेत्तीसं सागरोदम) तेतीस सागरोपम की है । और (जहणिया) जघन्य (अन्तोमुहत्तं) अन्तर्मुहुर्त की और इसी प्रकार (नामगोताणं) नाम कर्म और गोत्र कर्म की (उकोसा) उत्कृष्ट स्थिति (वीसई) बीस (कोडिकोडिओ) फोटाकोटि (उदहीसरिसनामाणं) सागरोपम की है । और (जहणिया) जघन्य (अट्ठ) आठ (मुहत्ता) मुहूर्त की (ठिई) स्थिति (विआह्यिा ) कही है।
भावार्थ:-हे गौतम ! मोहनीय फर्म की ज्यादा से ज्यादा स्थिति सत्तर कोडाकोड़ सागरोपम की है । और जघन्य (कम से कम) स्थिति अन्तर्महत की है। आयुष्य कर्म को उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की और जघन्य अन्तमहतं की है। नाम कर्म एवं गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाफोड़ सागरोपम की है और जघन्य आठ मुहूर्त की कही है । मूलः–एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया ।
एगया आसुरं कायं, अहाकम्मेहिं गच्छइ ।।२१।। छायाः- एकदाः देवलोकेषु नरकेष्वेकदा।
एकदा आसुरं कायं, यथा कर्मभिर्गच्छति ।।२१।। अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अहाकम्मेह) जैसे कर्म किये हैं, उनके अनुसार आत्मा (एगया) कमी तो (देवलोएसु) देवलोक में (एगया) कमी (नरएस वि)
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कर्म निरूपण
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नरक में ( एगया) कभी (आसुरं ) मवनपति आदि असुर की ( कार्य ) काय में ( गच्छद) जाता है ।
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भावार्थ: है गौतम ! आत्मा जब शुभ कर्म उपार्जन करता है तो वह देवलोक में जाकर उत्पन्न होता है । यदि वह आत्मा अशुभ कर्म उपार्जन करता है तो नरक में जाकर घोर यातना सहता है । और कभी अज्ञानपूर्वक बिना इच्छा के क्रियाकाण्ड करता है तो वह भवनपति आदि देवों में जाकर उत्पन्न होता है। इससे सिद्ध हुआ कि यह आत्मा जैसा कर्म करता है वैसा स्थान पाता है ।
मूलः -- तेणे जहा संधिमुहे गहीए;
सकम्मुणा किच्च पावकारी | एवं पया पेच्च इहं च लोए;
कडाण कम्माण न मुक्ख अस्थि ||२२||
छात्रस्तेनो धराध
गृही
स्वकर्मणा क्रियते पापकारी ।
एवं प्रजा प्रेत्य दह च लोके,
कृतानां कर्मणां न मोक्षोऽस्ति ॥ २२॥
पकड़ा जा कर (सकम्मुणा )
अन्वयार्थः - हे इन्द्रभूति ! ( जहा ) जैसे ( पायकारी) पाप करने वाला ( तेणें ) चोर (संधिमुहे ) खात के मुंह पर (गहीए) अपने किए हुए कर्मों के द्वारा ही ( किञ्चइ ) छेदा जाता है, दुःख उठाता है, ( एवं ) इसी प्रकार (पया) प्रजा अर्थात् लोक (पेष्वा ) परलोक (च) और ( इहलोए) इस लोक में किये द्वारा दुःख उठाते हैं। क्योंकि (क) किये हुए (कम्माण ) कर्मों को भोगे बिना ( मुक्ख ) छुटकारा (न) नहीं ( अस्थि) होता ।
हुए दुष्कर्मों के
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भाषार्यः - हे गौतम ! कर्म कैसे हैं ? जैसे कोई अत्याचारी चोर खात के मुंह पर पकड़ा जाता है, और अपने कृत्यों के द्वारा कष्ट उठाता है अर्थात् प्राणान्त कर बैठता है। वैसे ही यह आत्मा अपने किये हुए कर्मों के द्वारा इस
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
लोक और परलोक में महान् दुःख उठाता है। क्योंकि किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता है । मूल:-संसारमावण्ण परस्स अट्ठा,
साहारण जप करे कम्म । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले,
न बंधवा बंधवयं उविति ॥२३।। छायाः-संसारमापन्नः परस्याय,
साधारणं यच्च करोति कम। कर्मणरते तस्य तु वेदकाले,
न बान्धवा बान्धवत्वमुपयान्ति ॥२३॥
१ किसी समय कई एक चोर चोरी करने जा रहे थे। उन में एक सुधार
मी शामिल हो गया। वे चोर एक नगर में एक धनाड्य सेठ के यहाँ पहुँचे । वहां उन्होंने सेंध लगाई। संघ लगाते-लगाते दीवार में काठ का एक पटिया' दिख पड़ा, तब दे चोर साथ के उस सुथार से बोले कि अब तुम्हारी बारी है, पटिया काटना तुम्हारा काम है । अतः सुथार अपने शस्त्रों द्वारा काठ के पटिये को काटने लगा। अपनी कारीगरी दिखाने के लिए सेंध के वेदों में चारों ओर तीखे-तीखे फंगरे उसने बना दिये । फिर बह खुद चोरी करने के लिए अन्दर घुसा । ज्योंही उसने अन्दर पैर रखा, त्यों ही मकान मालिक ने उसका पैर पकड़ लिया। सुधार चिल्लाया, दौड़ो-दौड़ो, और बोला मकान मालिक मकान मा"." लिक ! मेरे पांव छुड़ाओ। यह सुनते ही चोर सपटे, और लगे सर पकड़ कर खींचने । सुथार बेचारा बड़े ही अमेले में पड़ गया । मीतर और बाहर दोनों तरफ से जोरों की खींचातानी होने लगी । बस, फिर क्या था ? जैसे बीज उसने बोये फसल भी वैसी ही उसे काटनी पड़ी। उसके निज के बनाये हुए संघ के पैने-पने कंगूरों ने ही उसके प्राणों का अंत कर दिया। आत्मा के लिए भी यही बात लागू होती है । बह भी अपने ही अशुम कर्मों के द्वारा लोक और परलोक में महान् कष्टों के झकझोरों में पड़ता है।
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कर्म निरूपण
२७
1
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____ अवयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (संसारमावण्ण) संसार के प्रपंच में फरारा हुआ आत्मा (परस्स) दूसरों के (अट्ठा) लिए (प) तथा (साहारण) स्व और पर के लिए (जे) जो (कम्म) कर्म (करेइ) करता है । (तस्स उ) उस (कम्मस्स) कर्म के (वेयकाले) मोगते समय (ते) वे (बंधवा) कौटुम्बिक जन (बंधवयं ) बन्धुत्वपग को (न) नहीं (उविति) प्राप्त होते हैं । ___भान:--हे गौतम ! संभारी भान्मा ने दूसरों के तथा अपने लिए जो दृष्ट कर्म उपार्जन किये हैं, वे कर्म जब उसके फल स्वरूप म आवेंगे उस समय जिन बन्धु-बान्धवों और मित्रों के लिए तथा स्वतः के लिए वे दुष्कर्म किये थे वे कोई मौ जाकर पाप के फल मोगन में सम्मिलित नहीं होंगे । मूल:--न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ,
न मित्तबम्गा न सुया न बन्धवा । इक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं
कत्तारमेव अणुजाइ कम्म ॥ २४ ।। छायाः- न तस्य दुःखं विभजन्ते ज्ञातयः,
न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः । एक: स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखं,
कर्तारमेवानुयाति कर्म ॥२४॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (तस्स) उस पाप कर्म करने वाले के (दुर) दुःस्व को (माइलो) स्वजन वगैरह मी (न) नहीं (विभयंति) विभाजित कर सकते हैं और (न) न (मित्तवम्गा) मित्रवर्ग (न) न (सुथा) पुत्र वर्ग (न) न (बंधवा ) बन्धुजन, कर्मों के फल में भाग ले सकते हैं । (इक्को) वही अकेला (दुषख) दुःख को (पञ्णुहोइ) मोगता है। क्योंकि (कम्म) कर्म (कतारमेव) करने वाले ही के साथ (अणुजाइ) जाता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! किये हुए कर्मों का जब उदय होता है उस समय ज्ञातिजन, मित्र लोग, पुत्रवर्ग, बन्धुजन आदि कोई भी उस में हिस्सा नहीं बंटा सकते हैं । जिस आत्मा ने कर्म किये हैं यही आत्मा अकेला उसका फल भोगता है । यहाँ से मरने पर किये हुए कर्म करने वाले के साथ ही जाते हैं ।
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२८
निग्रंन्य-प्रवचन
मूल:--चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च,
खित्त गिहं धणधन्नं च सव्वं । सकम्मबीओ अवसो पयाइ,
परंभवं सुन्दरं पावर्ग वा ॥२५।।
छाया:-त्यक्त्वा द्विपदं चतुष्पदं च,
क्षेत्रं गृहं धनधान्यं च सर्वम् । स्वकर्म द्वितीयोऽवश: प्रयाति,
परं भयं सुन्दरं पापकं वा ॥२५।।
अम्बयाष:-हे इन्द्रभूति ! (सकम्मबीओ) आत्मा का दूसरा साथी उसका अपना किया हुआ कर्म ही है । इसी से (अबसो) परवश होता हुआ यह जीव (सन्नं) सब (दुपयं) स्त्री, पुत्र, दास, दासी आदि (च) और (च उप्पयं) हाथी, घोड़े आदि (च) और (खित) खेत वगैरह (गिहू) घर (घण) रुपया, पैसा, सिक्का वगैरह (धन) अन्न वगैरह को (चिच्चा) छोड़कर (सुन्दर) स्वर्गादि उत्तम (वा) अथवा (पावर्ग) नरकादि अधम ऐसे (परंभव) परमव को (फ्याइ) जाता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! स्वकृत कर्मों के अधीन होकर यह आत्मा स्त्री, पुत्र, हाथी, घोड़े, खेत, घर, छाया, पंसा, धान्य, चांदी, सुवर्ण आदि सभी को मृत्यु की गोद में छोड़कर जैसे भी शुमाशुभ कर्म इसके द्वारा किये होते हैं उनके अनुसार स्वर्ग तथा नरक में जाकर उत्पन्न होता है।
मूल:—जहा य अंडप्पभवा बलागा,
अंडं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं तु तण्हा,
मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥२६।।
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कर्म निरूपण
छाया:-न्यथा चाण्डप्रभवा बलाका,
अण्डु बलाकाप्रभवं यथा च । एवमेव मोहायतनं खलु तृष्णा:
मोहं च तृष्णायतनं वदन्ति ।।२६।। अश्ययार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जहा य) जैसे (अंडप्पभवा बलागा) अण्डा से बगुली उत्पन्न हुई (य) और (जहा) जैसे (अंडं बलागणभवं) बगुली से अण्डा उत्पन्न हुआ (एमेय) इसी तरह (ख) निश्चय करके (मोहाय यणं) मोह का स्थान
तण्टा) तृष्णा (च) और (तष्हाययगं) ताणा का स्थान (मोह) मोह है, एसा (वयंति) ज्ञानी जन कहते हैं। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे अण्डे से बगुली (मादा नगला) उत्पन्न होती है और बगुसी से अण्डा पैदा होता है। इसी तरह से मोह कर्म से तृष्णा उत्पन्न होती है और तृष्णा से मोह उत्पन्न होता है । हे गौतम ! रोमा ज्ञानीजन कहते हैं । मूल:- रागो य दोसो वि य कम्मबीयं,
कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाईमरणस्स मूलं,
दुक्खं च जाईमरणं वयंति ।।२७ ।। छाया:-रागश्च द्वेषोऽपि च कर्मबीज,
कर्म च मोहप्रभवं वदन्ति । कर्म च जातिमरणयोर्मूलं,
दु:खं च जातिमरणं वदन्ति ।।२७।। अन्वयार्य:-हे इन्द्र भूति ! (रागो) राग (य) और (दोसो वि य) दोष ये दोनों (कम्मबीर्य) कर्म उत्पन्न करने में कारणभूत है (च) और (कम्म) कर्म (मोहपमवं) मोह से उत्पन्न होते हैं। ऐसा (वयं ति) जानी जन कहते है । (च) और (जाईमरणस्स) जन्म मरण का (मूलं) मूल कारण (कम्म) कर्म है (घ) और (जाईमरणं) जन्म-मरण ही (दुक्खं) दुःण्ड है, ऐसा (अयंति) ज्ञानीजन कहते हैं ।
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निर्धन्य-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम बे राग और ष कम से उत्पन्न होते हैं और फर्म मोह से पैदा होते हैं । यही कर्म जन्म-मरण का मूल कारण है और जन्म-मरण ही दुःख है, ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं। तात्पर्य यह है कि राग-द्वेष और कर्म में परस्पर द्विमुख कार्यकारण भाव है। जैसे बीज, वृक्ष का कारण और कार्य दोनों है तथा वृक्ष भी बीज का कार्य और कारण है, उसी प्रकार कर्म राग-द्वेष का कार्य भी है और कारण मी; सथा राग-द्वेष कर्म का कार्य भी है और कारण भी है। मूलः-दुक्खं ह्यं जस्स न होइ मोहो,
मोहो हो जस्स न होइ तण्हा। तण्हा हया जस्स न होइ लोहो,
लोहो हओ जस्स न किंचणाई ॥२८॥
छाया:-दुःखं हतं यस्य न भवति मोहः,
___ मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा । तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः,
लोभो हतो यस्य न किञ्चन ।।२।। अन्वयार्षः-(जस्स) जिसने (दुक्ख) दुःख को (यं) नाश कर दिया है उसे (मोहो) मोह (न) नहीं (होइ) होता है और (जस्स) जिसने (मोहो) मोह (हमओ) नष्ट कर दिया है उसे (तण्हा) तृष्णा (न) नहीं (होइ) होती । (जस्स) जिसने (तोहा) तृष्णा (हया) नष्ट करदी उसे (लोहो) सोम (न) नहीं (होइ) होता, और (जस्स) जिसने (लोहो) लोम (हओ) नष्ट कर दिया उसके (किंचणाई) ममत्व (न) नहीं रहना । । ___ भावार्यः-हे गौतम ! जिसने दुःख रूपी भयंकर सागर फा पार पा लिया है वह मोह के बन्धन में नहीं पड़ता। जिसने मोह का समूल उन्मूलन कर दिया है उसे तष्णा नहीं सता सकती। जिसने तुष्णा का त्याग कर दिया है उसमें लोम की वासना कायम नहीं रह सकती। जो पाप के बाप लोम से मुक्त हो गया, उसके समी कुछ मानों नष्ट हो गया । निर्लोभता के कारण वह अपने को अकिंचन समझने लगता है।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(तृतीय अध्याय) धर्म-स्वरूप वर्णन
(श्री भगवानुवाच) मूलः कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुब्बी कयाइ उ ।
जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं ॥१॥ छायाः-कर्मणां तु प्रहाण्या, आनुपूर्ध्या कदापि तु ।
जीवा शुद्धिमनुप्राप्ताः, आददते मनुष्यताम् ।।१।। अग्धयार्य:-हे इन्द्रभूति ! (आणुपुष्वी) अनुक्रम से (कम्माण) कर्मों की (पहाणाए) न्यूनता होने पर (कयाइ उ) कमी (जीवा) जीव (सोहिमणुष्पत्ता) गुसता प्राप्त कर (मणुस्सयं) मनुष्यत्व को (आयर्गति) प्राप्त होते हैं । ___ भावार्थ:-हे गौतम ! अब यह जीव अनेक जन्मों में दुःख सहन करता हुआ धीरे-धीरे मनुष्य जन्म के बाधक कर्मों को नष्ट कर लेता है। तब कहीं कमों के मार से हलका होकर मनुष्य जन्म को प्राप्त करता है। मूल:--मायाहिं सिवस्वाहि, जे नरा गिहिसुब्बया ।
उविति माणुस जोणि, कम्मसच्चा हु पाणिणो ।।२।। छायाः-विमात्राभि: शिक्षाभिः, ये नरा गृहि-सुव्रताः ।
उपयान्ति मानुष्यं योनि, कर्मसत्या हि प्राणिनः ।।२।। शम्बया: है इन्द्रभूति ! (जे) जो (नरा) मनुष्य (धेमायाहि) विविध प्रकार की (सिक्खाह) शिक्षाओं के साथ (गिहिसुःखया) गृहस्थावास में
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निग्रंन्ध-प्रवचन
सुव्रतों 'अणुव्रतों' का आचरण करने वाले हों, वे मनुष्य किर (माणसं) मनुष्य (जोणि) योनि को (उविति) प्राप्त होते हैं । (ह) क्योंकि (पाणिणो) प्राणी (कम्मसच्चा) सत्य कर्म करने वाला है, अर्थात जैसे कर्म वह करता है वैसी ही उसकी गति होती है।
भावार्थ:-हे गौसम ! जो नाना प्रकार के त्याग धर्म को धारण करता है, प्रत्येक के साथ निष्कपट व्यवहार करता है, वही मनुष्य पुनः मनुष्य भव को प्राप्त हो सकता है। क्योंकि जैसे कर्म वह करता है, उसी के अनुसार गति मिलती है। मूल:--बाला किड्डा य मंदा य, बला पन्ना य हायणी ।
पवंच्चा पन्भारा य, मुम्मुही सायणी तहा ।।३।। छाया:-बाला क्रीडा च मन्दा च, बला प्रज्ञा च हायनी ।
प्रपञ्चा प्राग्भारा च मुन्मुखी शायिनी तथा ||३|| अन्वयाप:-हे इन्द्रभूति ! मनुष्य की दश अवस्थाएं हैं। प्रथम (बाला) बाल्यावस्था (य) और दूसरी (किड्डा) क्रीडावस्था (मंदा) तीसरी मन्दावस्था (बला) चौथी बलावस्था (य) और (पन्ना) पाँचवी प्रज्ञावस्था छठी (हायणी) हायनी अवस्था तथा सातनी (पवंचा) प्रपंचावस्था (य) और आरक्षी (पारा) प्राम्मारावस्था । नौवीं (मुम्मूही) मुम्मुखी अवस्था (सहा) तथा मनुष्य की दशी अवस्था (सायणी) शायनी अवस्था होती है।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिस समय मनुष्य की जितनी आयु हो उतनी आयु को दश भागों में बाँटने से दश अवस्थाएं होती है । जैसे सौ वर्ष की आयु हो तो दश वर्षों की एक अवस्था, यो दश-दहा वर्षों की दश अवस्थाएं है। प्रथम बाल्यावस्था है कि जिस में खाना, पीना, कमाना, रूप आदि सुख-दुःख का प्रायः मान नहीं रहता है। दश वर्ष से बीस वर्ष तक खेलने-कूदने की प्रायः धून रहती है, इसलिए दूसरी अवस्था का नाम क्रीड़ावस्था है। बीस वर्ष से तीस वर्ष तक अपने गृह में जो काम-मोगों की सामग्री जुटी हुई है उसी को भोगते रहना और नवीन अर्य सम्पादन करने में प्रायः बुद्धि की मन्दता रहती है, इसी से तीसरी मन्दाबस्था है। तीस से चालीस वर्ष पर्यंत यदि वह स्वस्थ रहे सो उस हालत में वह कुछ बली दिखलाई देता है, इसी से चौथी बलावस्था
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धर्म-स्वरूप वर्णन
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कही गयी है । चालीस से पचास वर्ष तक इच्छित अर्थ का सम्पादन करने के लिये तथा कुटम्न वृद्धि के लिए बुद्धि का नव प्रयोग करता है, इसी से पांचवीं प्रज्ञावस्था है । ५० से ६० वर्ष तक जिसमें इन्द्रियजन्य विषय ग्रहण करने में कुछ हीनता आजाती है इसीलिए छपी हायनी अवस्था है। साठ से सत्तर वर्ष तक बार-बार कफ निकलने, थूकने और खांसने का प्रपंच बढ़ जाता है। इसी से सातवीं प्रपंचायस्था है। शरीर पर सलवट पड़ जाते हैं और शरीर भी कुछ झुक जाता है इसी रो सत्तर मे अस्सी वर्ष तक की अवस्था को प्राग्मार अवस्था कहते है । नौवीं अस्सी से नवे वर्ष तक मुम्मुखी अवस्था में जीब जरारूप राक्षसी से पूर्ण रूप से घिर जाता है । या तो इसी अवस्था में परलोक वासी बन बैठता है और यदि जीवित रहा तो एक मृतक के समान ही है। नये से सौ वर्ष तक प्रायः दिन-रात सोते रहना ही अच्छा लगता है। इसलिए दशवी शायनी अवस्था कहो जाती है । मूल:--माणुस्सं विग्गहं लधु, सुई धम्मस्स दुल्लहा ।
जं सोच्चा पडिबज्जति, तवं खंतिमहिसयं ॥४॥ छापा:-मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा श्रुति धर्मस्य दुर्लभा ।
यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तप: क्षाम्तिमहिंस्रताम् ।।४।। मन्वयार्थः हे इन्द्रभूति ! (माणुस्स) मनुष्य के (दिग्गह) शरीर को (सध) प्राप्त कर (धम्मस्स) धर्म का (सई) श्रवण करना (दुस्लहा) दुर्लभ है। (ज) जिसको (सोच्चा) सुनने से (तबं) तप करने की (खंतिमहिंसर्य) तथा क्षमा और अहिंसा के पालन करने की इच्छा उत्पन्न होती है । ___ भावार्थ:-हे गौतम ! दुर्लभ मानव देह को पा भी लिया तो मी धार्मिक तत्त्व का श्रवण करना महान् दुर्लभ है। जिसके सुनने से तप, क्षमा, अहिंसा बादि करने की प्रबल इच्छा जाग उठती है। मुल-धम्मो मंगलमुक्कि, अहिंसा सजमो तबो।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥५॥ थायाः--बर्मो मङ्गलमुत्कृष्ट, अहिंसा संयमस्तपः।
देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्म सदा मनः॥५।।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन ____ अन्वयार्थः--हे इन्द्रभूति ! (अहिंसा) जीव दया (संयम) यत्ना और (तयो) तप रूप (धम्मो) धर्म (उस्किट्ठ) सब से अधिक (मंगल) मंगलमय है । इस प्रकार के (पम्मे) धर्म में (जस्स) जिसका (सया) हमेशा (मणो) मन है, (तं) उसको (देवा वि) देवता भी (नमसंति) नमस्कार करते हैं ।
भावार्थ:--हे गौतम ! किंचितमात्र भी जिसमें हिंसा नहीं है, ऐसी अहिंसा, संयम और मन-वचन-काया के अशुभ योगों का घातक तथा पूर्वकृतापों का नाश करने में अग्रसर ऐसा तम, ये ही जगत में प्रधान और मंगलमय धर्म के अंग हैं 1 बस एकमात्र इसी धर्म को हृदयंगम करने वाला भानव देवों से मी सदैव पूजित होता है, तो फिर मनुष्यों द्वारा वह पूज्य दृष्टि से देखा जाय इस में आश्चयं ही क्या है ? मूल:--मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स,
खंधाउ पच्छा समुविति साहा । साहप्पसाहा विरहंति पत्ता,
। तओ से पुष्पं च फलं रसो अ ।।६।।
छायाः-मूलात्स्कन्धप्रभवो द्रुमस्य,
__ स्कन्धात् पश्चात समुपयान्ति शाखाः । शाखाप्रशाखाभ्योविरोहन्ति पत्राणि,
ततस्तस्य पुष्पं च फलं रसश्च ॥!| अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (दुमस्स) वृक्ष के (मूलाउ) मूल से (खंधप्पभयो) स्कन्ध अर्थात् "पीड" पैदा होता है (पच्छा) पश्चात् (खंधाउ) स्कंध से (साहा) शाखा (समुविति) उत्पन्न होती है। और (माहप्पसाहा) साखा प्रतिशाखा से (पत्ता) पत्ते (विरुहति) पैदा होते हैं । (तओं) उसके बाद (से) वह वृक्ष (पुप्फं) फूलदार (च) और (फलं) फलदार (अ) और (रसो) रस वाला बनता है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है। तदनन्तर स्कन्ध से शास्त्रा, टहनिर्या और उसके बाद पत्ते उत्पन्न होते हैं। अन्त में वह वृक्ष फूलदार, फसदार व रस वाला होता है ।
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धर्म स्वरूप वर्णन
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मूला--एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो ।
जेण कित्ति सुअं सिग्छ, नीसेसं चाभिगच्छइ ।।७।। छायाः-एवं धर्मस्य बिनयो मूलं परमस्तस्य मोक्षः ।
येन वीति श्रुतं शीघ्र निश्शेष चाभिगच्छति ॥७॥ अग्यमार्यः- - हे इन्द्रभूति ! (एव) इसी प्रकार (धम्मस्स) धर्म की (परमो) मुरूप (मूलं) जड़ (विणओ) विनय है। फिर उससे क्रमशः आगे (से) वह (मुबलो) मुक्ति है। इसलिए पहले विनय आदरणीय है। (जेण) जिससे वह (कित्ति) कीति को (च) और (नीसेस) सम्पूर्ण (सुअं) श्रुत ज्ञान को (सिग्घं) शीन (अभिगच्छइ) प्राप्त करता है।
भावार्थ:- गौना ! जिस प्रकार म अपनी लह के द्वारा कमपर्वक रस वाला होता है। उसी प्रकार धर्म की जड़ विनय है । विनय के पश्चात ही स्वर्ग, पाक्नध्यान, अपकवेणी आदि उत्तरोत्तर गुणों के साथ रसवान वृक्ष के समान
आत्मा मुक्ति रूपी रस को प्राप्त कर लेती है। जब मूल ही नहीं है तो शाखा पत्ते फूल फल रस कहाँ से होंगे ? ऐसे ही जब विनय धर्म रूप मूल ही नहीं हो तो मुक्ति का मिलना महान् कठिन है। हे गौतम ! सबों के लिए विनय आदरणीय है। विनय से कीति फैलती है और विनयवान् शीघ्र ही सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेता है । मूलः-अणुसट्टपि बहुविह,
मिच्छ दिट्ठिया जे नरा अबुद्धिया । बद्धनिकाइयकामा,
सुणंति धम्म न पर करति ॥८॥ छायाः-अनुशिष्टमपि बहुविधं,
मिथ्यादृष्टयो ये ना अबुद्धयः । बद्धनिकाचितकर्माण:
शृण्वन्ति' धर्म न परं कुर्वन्ति ॥1
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निम्रन्थ-प्रवचन
अन्वयार्थ:-हे अन्धति ! (हुटिह! अनेक प्रकार से (धम्म) धर्म को (अणुसट्टपि) शिक्षित गुरु के द्वारा सीखने पर भी (बद्धनिकाइयकम्मा) बंधे हैं निकाचित कर्म जिसके ऐसे (अबुद्धिया) बुञ्चिरहित (मिच्छादिट्ठिया) मिथ्या दृष्टि (नरा) मनुष्य (जे) वे केवल (धम्म) धर्म को (सुगंलि) सुनले हैं (घर) परन्तु (न) नहीं (करेंति) अनुसरण करते हैं। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! गृहस्थधर्म और चारित्रधर्म को शिक्षित गुरु के द्वारा सुन लेने पर भी बुद्धिरहित मिथ्यादृष्टि मनुष्य केवल उन धर्मों को सुन कर ही रह जाते हैं। उनके अनुसार अपने कर्तव्य को नहीं बना सकते हैं। क्योंकि उनके प्रगाढ़-निकाचित कर्म का उदय होता है। मूलः-जरा जाव न पीडेइ, बाही जाव न बड्ढइ ।
जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ।।६।। छाया:-जरा यावन्न पीडयति, व्याधिर्यावन्न वर्धते ।
यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावद्धर्म समाचरेत् ।।६।। अन्वयार्थ:- हे इन्द्रभूति ! (जाब) जब तक (जरा) वृद्धावस्था (न) नहीं (पीडेइ) सताती और (जाव) जब तक (वाही) व्याधि (न) नहीं (चटई) बढ़ती
और (जाविदिया) जब तक इन्द्रियाँ (न) नहीं (हायति) शिथिल होती (ताव) सब तक (धर्म) धर्म का (समायरे) आचरण कर ले ।
भावार्थ:-हे गोतम ! जब तक वृद्धावस्था नहीं सताती, धर्म घातक व्याधि की बढ़ती नहीं होती, निम्रन्थ प्रवचन सुनने में सहायक थोत्रेन्द्रिय तथा जीव दया पालन करने में सहायक चक्षु आदि इन्द्रियों को शिथिलता नहीं आ घेरती तब तक धर्म का आचरण बड़े ही दृढ़तापूर्वक कर लेना चाहिए। मूलः --जा जा बच्चइ रयणी, न सा पडिनिअत्तइ ।
अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जंति राइओ ॥१०॥ छाया:- या या अजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते ।
अधर्म कुर्वाणस्य, अफला यान्ति रात्रयः ।।१०।।
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धर्म-स्वरूप वर्णन
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___अन्वयार्थः हे इन्द्रभूति ! (जा जा) जो जो (रयणी) रात्रि विश्वर) जाती है (मा) बह रात्रि (न) नहीं (पडिनिअत्तइ) लोट कर आती है। अतः (अहम्म) अधर्म (कुणमाणस्स) करने वाले को (राइमो) रात्रियों (अफला) निष्फल (जंति) जाती है।
भावार्थ:-हे मौतम ! जो जो रात और दिन बीत रहे हैं वह समय पीछे लोट कर नहीं आ सकता। अतः ऐसे अमुल्य समय में मानव शरीर पाकर के भी जो अधर्म करता है, तो उस अधर्म करने वाले का समय निष्फल जाता है। मूलः--जा जा बच्चइ रयणी, न सा पडिनिअत्तइ ।
धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जति राइओ ॥११॥ छाया:--या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते । ।
धर्म च कुर्वाणस्य, सफला यान्ति रात्रयः ।।११।। अम्पयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जा जा) जो जो (रयणी) रात्रि (बच्चइ) निकलती है (सा) वह (म) नहीं (पलिनिअत्तइ) लौट कर आती है । अतः (धम्म च) धर्म (कुणमाणस्स) करने वाले की (राइओ) रानियाँ (सफला) सफल (जति) जाती हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! रात और दिन का जो सगय जा रहा है वह पुनः लौट कर किसी भी तरह नहीं आ सकता । ऐसा समझ कर जो धार्मिक जीवन बिताते हैं उनका समय (जीवन) सफल है । मूल:--सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ ।
णिव्वाणं परम जाइ, धयसित्ति ब्व पावए ॥१२॥ छायाः-शुद्धि ऋजुभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति ।
निर्वाणं परमं याति, घृतसिक्त इव पावकः ।।१२।। अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (उज्जुअभूयस्य) सरल स्वमावी का हृदय (सोही) शुद्ध होता है । उस (सुद्धस्स) शुद्ध हृदय वाले के पास (धम्मो) धर्म (चिट्ठइ) स्थिरता से रहता है। जिससे वह (परम) प्रधान (णिब्याण) मोक्ष
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निग्रन्थ-प्रवचन
को (जाइ) जाता है । (व्य) जैसे (पावए) अग्नि में (घयसित्ति) घी सींचने पर अग्नि प्रदीप्त होती है। ऐसे ही आत्मा भी बलवती होती है ।
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भावार्थ:---- हे गौतम! स्वभाव को सरल रखने से आत्मा कषायादि से रहित होकर (शुद्ध) निर्मल हो जाती है । उस शुद्धात्मा के धर्म की भी स्थिरता रहती है। जिससे उसकी आत्मा जीवन मुक्त हो जाती है। जैसे अग्नि में घी डालने से वह चमक उठती है उसी तरह आत्मा के कषायादिक आवरण दूर हो जाने से वह भी अपने केवलज्ञान आदि गुणों से देदीप्यमान हो उठती है ।
पाणिणं ।
मूल:- जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण धम्मो दीवो पट्टा य, गई छायाः - जरामरणवेगेन वाह्यमानानाम्
सरणमुत्तमं ॥ १३॥ प्राणिनाम् । धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च गतिः शरणमुत्तमम् ||१३|| अग्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( जरामरणवेगेणं) जरा मृत्यु रूप जल के वेग से ( बुज्झमाषाण) डूबते हुए (पाणिण ) प्राणियों को (धम्मो ) धर्म (पट्टा ) निश्चल आधारभूत ( गई ) स्थान (य) और (उत्तमं ) प्रधान ( सरणं) शरणरूप ( दीयो ) द्वीप है ।
भावार्थ : हे गौतम ! जन्म, जरा, मृत्यु रूप जल के प्रवाह में डूबते हुए प्राणियों को मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला धर्म ही निश्चल आधारभूत स्थान और उत्तम शरण रूप एक टापू के समान है ।
मूलः -- एस धम्मे धुवे णितिए, सासए जिणदेसिए ।
सिद्धा सिज्झति चाणेणं, सिज्झिसंति तहावरे || १४ ||
छाया: - ऐषो धर्मो ध्रुवो नित्यः शाश्वतो जिनदेशितः ।
सिद्धाः सिद्धयन्ति चानेन, सेत्स्यन्ति तथाऽपरे ॥ १४॥
अन्धयार्थः - हे इन्द्रभूति | ( जिणदेसिए) तीर्थंकरों के द्वारा कहा हुआ ( एस ) यह (धम्मे ) धर्म (धुवे) व है (पितिए) नित्य है ( सासए) ज्ञात है (अ) इस धर्म के द्वारा अनंत जीव भूतकाल में सिद्ध हुए हैं (च) और वर्तमान काल में (सिजांति) सिद्ध हो रहे हैं (तहा) उसी तरह (अवरे ) भविष्यत काल में भी (सिमिति) सिद्ध होंगे।
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धर्म स्वरूप वर्णन
भावार्थ:-हे गौसम ! पूर्ण ज्ञानियों के द्वारा कहा हुआ मह धर्म ध्रव के समान है। तीन काल में निश्य है। शाश्वत है । इसी धर्म को अङ्गीकार कर के अनंत जीव भूतकाल में कर्मों के बंधन से मुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो गये हैं। वर्तमान काल में हो रहे हैं। और भविष्यत् काल में भी इसी धर्म का सेवन करते हुए अनंत जीव मुक्ति को प्राप्त करेंगे।
इति तृतीयोऽध्याय:
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(चतुर्थ अध्याय) आत्म शुद्धि के उपाय ॥श्री भगवानुवाच ॥
मुल:--जह णरगा गम्मति, जे णरगा जा य वेयणा णरए।
सारीरमाणसाई, दुक्खाई तिरिक्वजोणीए ।।१।। छाया:-यथा नरका गच्छन्ति ये नरका या च वेदना नरके |
शारीरमानसानि दुःखानि तिर्यग् योनौ ॥१॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जह) जैसे (परगा) नारकीय जीव (णरए) नरक में (गम्मति) जाते हैं। (ज) वे (णरगा) नारकीय जीव (जा) नरक में उत्पन्न हुई (वेयणा) वेदना को सहन करते है। उसी तरह (तिरिक्खजोणीए) तिथंच योनियों में जाने वाली आरमाएँ भी (सारीरमाणसाई) शारीरिक, मानसिक (दुक्लाई) दुःखों को सहन करती हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिस प्रकार नरक में जाने वाले जीव अपने कृत कर्मों के अनुसार नरक में होने वाली महान धेदना को सहन करते हैं, उसी तरह तिर्यच योनि में उत्पन्न होने वाले आस्मा भी कर्मों के फल रूप में अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक वेदनाओं को सहन करते हैं । मूल:- माणुस्सं च अणिचं, वाहिजराम रणवेयणापउरं ।
देवे य देवलोए, देविति देवसोक्खाइ ॥२॥
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आत्म शुचि के उपाय छायाः-मानुष्यं चानित्यं व्याधिजरामरणवेदना प्रचुरम् ।
देवश्च देवलोको देवद्धि देवसोख्यानि 1॥२॥ ___ अन्वयापं:-हे इन्द्रभूति ! (माणुस्म) मनुष्य जन्म (अणिच्च) अनित्य है (च) और वह (वाहिजरामरणवेयणापउर) व्याधि, बरा, मरण, रूप प्रचुर वेदना से युक्त है (प) और (देवलोए) देवलोक में (देवे) देवपर्याय (देविति) देव ऋद्धि और (देवसोक्खाई) देवता संबंधी सुख भी अनित्य है । ____ भावार्थ हे गौतम ! मनुष्य जन्म अनित्य है । साय हो जरा-मरण आदि व्याधि की प्रचुरता से भरा पड़ा है। और पुण्य उपार्जन कर जो स्वर्ग में गये हैं, वे वहाँ अपनी देव ऋद्धि और देवता संबंधी सुखों को भोगते हैं । परन्तु आखिर वे मी वहां से चलते हैं। मूल:--ण रगं तिरिक्खजोणि, माणसभा च देवलोगं च ।
सिद्धे अ सिद्धवसहि, छज्जीवणियं परिकहेइ ॥३॥ छायाः-नरक तिर्यग्योनि मानुष्यभवं देवलोकं च ।
सिद्धिश्च सिद्धवसति षट्जीवनिकायं परिकथति ।।३।। शम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! जो जीव पाप कर्म करते है, वे (णरर्ग) नरक को और (तिरिक्खजोणि) तिर्यच योनि को प्राप्त होते हैं । और जो पुण्य उपार्जन करते हैं, वे (माणुसमावं) मनुष्य मव को (च) और (देवलोग) देवलोक को जाते हैं, (अ) और जो (छज्जीवणियं) षट्काय के जीवों की रक्षा करते हैं, वह (सिद्धवसहि) सिद्धावस्था को प्राप्त करके अर्थात् सिद्ध गति में जाकर (सिद्धे) सिद्ध होते हैं । ऐसा सभी तीर्थंकरों ने (परिकहेइ) कहा है।
भावार्थ:--हे आर्म ! जो आत्मा पाप कर्म उपार्जन करते हैं, वे नरक और तिर्यंच योनियों में जन्म लेते हैं | जो पुण्य उपार्जन करते हैं, वे मनुष्यजन्म एवं देव-गति में आते हैं। और जो पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा बनस्पति के जीवों की तथा हिलते-फिरते त्रस जीवों की सम्पूर्ण रक्षा कर अष्ट कर्मों को बुर चूर कर देने में समर्थ होते हैं, वे आत्मा सिद्धालय में सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं । ऐसा शानियों ने कहा है ।
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निग्रन्थ-प्रवचन
मूलः--जह जीवा बज्झंति,
मुच्चंति जह य परिकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंत,
करेंति केई अपडिबद्धा ।।४॥ छाया:-यथा जीवा बध्यन्ते, मुच्यन्ते यथा च परिक्लिश्यन्ते ।
यथा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति' केऽपि अप्रतिबद्धाः ।।४।। अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (जह) जैसे (केई) कई (जीया) जीव
ति) पंचते ३, से हो (मुच्चात) मुक्त मी होते हैं (य) और (जह) जैसे कर्मों की वृद्धि होने से (परिकिलिसति) महान् कष्ट पाते हैं । वैसे ही (दुक्स्नाण) दुःखों का (अन्त) अन्त मी (करेंति) कर डालते हैं । ऐसा (अपडिबद्धा) अप्रतिबद्ध विहारी नियों ने कहा है। ___ भावार्ष:- गौतम ! यही आत्मा कर्मों को बांधता है, और मही कर्मों से मुक्त मी होता है। यही आत्मा कर्मों का गान लेप करके चुःखी होता है, और सदाचार सेवन से सम्पूर्ण कमों को नाश करके मुक्ति के सुखों का सोपान मी यही आत्मा तैयार करता है । ऐसा निग्रन्यों का प्रवचन है । मूल:--अट्टदुहट्टियचित्ता जह, जीया दुक्खसागर मुवेति ।
जह वेरम्गमुवगया, कम्मसमुग्गं विहाडेंति ।।५।। छाया:-आतंदु:खातं चित्ता यथा जीवा,
दुःजीवा दुःखसागरमुपयान्ति । यथा वराग्यमुपगता,
___ कर्मसमुद्रं विधाटयन्ति ।।५।। अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! जो (जीवा) जीव वैराग्य माव से रहित हैं वे (अट्टदुट्टियचित्ता) मातं रौद्र ध्यान से युक्त चित्त वाले हो (जह) जैसे (दुक्खसागर) दुःख सागर को (जवेंसि) प्राप्त होते हैं। वैसे ही (बेस) वैराग्य को (उवगया) प्राप्त हुए जीव (कम्मसमुम्ग) कम समूह को (विहाउति) नष्ट कर डालते हैं।
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आरम शुद्धि के उपाय
भावार्थ:-हे गौतम ! जो आत्मा वैराग्य अवस्था को प्राप्त नहीं हुए हैं, सांसारिक मोगों में फंसे हुए हैं, वे आतं रौद्र ध्यान को ध्याते हुए मानसिक कुभावनाओं के द्वारा अनिष्ट कर्मों का संचय करते हैं ! और जन्मजन्मान्तर दे लो इस सागर में गोता लगा। जिन आत्मायों की रग-रग में वराम्म रस मरा पड़ा है, वे सदाचार के द्वारा पूर्व संचित कर्मों को बात की बात में नष्ट कर डालते हैं । मूलः--जह रागेण कडाण कम्माणं, पावगो फलविवागो ।
जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुवेति ।।६।। छायाः-यथा रागेण कृतानां कर्मणाम्, पापक:फलविपाकः ।
यथा च परिहीणकर्मा, सिद्धा:सिद्धालयमुपयान्ति ॥६॥ अन्वयार्पः-हे इन्द्रभूति ! (जह) जैसे यह जीव (रागेण) राग-द्वेष के द्वारा (कडाणं) किये हुए (पागो) पाप (क्रम्माणं) कर्मों के (फचदिवागो) फलोदय को मोगता है। वैसे ही शुभ कर्मों के द्वारा (परिहीणकम्मा) कर्मों को नष्ट करने वाले जीव (सिक्षा) सिद्ध होकर (सिद्धालय) सिद्धस्थान को (उति) प्राप्त होते हैं।
भावार्थ:-हे आर्य ! जिस प्रकार यह आल्मा राग-द्वेष करके कर्म उपार्जन कर लेता है और उन कर्मों के उदय काल में उनका फल मी चखता है वैसे हो सदाचारों से जन्म-जन्मान्तरों के कृत कर्मों को सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर डालता है। और फिर वही सिद्ध हो कर सिहालय को भी प्राप्त हो जाता है। मलः-आलोयण निरवलावे, आवईसु दधम्मया ।
अणिस्सिओवहाणे य, सिक्खा निप्पडिकम्मया ॥७।। छायाः-आलोचना निरपलापा, आपत्ती सुदृढ़धर्मता 1
अनिश्रितोपधानश्च, शिक्षा नि:प्रतिकर्मता ॥७॥ ___अन्वयार्थः-है इन्द्रभूति 1 (आलीयण) आलोचना करना (निरवलावे) की हुई आलोचना अश्य के सम्मुख नहीं करना (आवईसु) आपदा आने पर
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निग्रन्य-प्रवचन
भी (दधम्मया) धर्म में हड़ रहना (अपिस्सिओवहाणे) बिना किसी चाह के उपधान तप करना (सिक्खा) शिक्षा ग्रहण करना (य) और (निप्परिकम्मया) परीर की शुश्रूषा नहीं करना ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जानते में आ अजानते में किसी भी प्रकार दोषों का सेवन कर लिया हो, तो उसको अपने आचार्य के सम्मुख प्रकट करना और आचार्य उसके प्रायश्चित रूप में जो भी दण्ड दें उसे सहर्ष ग्रहण कर लेना, अपनी श्रेष्ठता बताने के लिए पुनः उस बात को दूसरों के सम्मुख नहीं कहना और अनेक आपदाओं के बादल क्यों न उमड़ आवै मगर धर्म से एक पर भी पीछे न हटना चाहिए । ऐहिक और पारलौकिक पोद्गलिक सुखों की इच्छा रहित उपधान तप उत करना, सूत्रार्थ ग्रहण रूप शिक्षा धारण करना, और कामभोगों के निमित्त शरीर की शुश्रूषा भूल कर भी नहीं करना चाहिये । मूल:- अण्णायया अलोभे य, तितिक्खा अज्जवे सुई।
सम्मदिट्टी समाही य, आयारे विणओवए ।।८t} छायाः- अज्ञातता अलोभश्च , तितिक्षा आर्जवः शुचिः ।
सम्यग्दृष्टिः समाधिश्च आचारोविनयोपेतः ।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अण्णायया) दूसरों को कहे बिना ही तप करना (अलोभे) लोम नहीं करना (तितिक्ला) परीषहों को सहन करना (अज्जये) निष्कपट रहना (सुई) सस्य से शुचिता रखना (सम्मचिट्ठी) श्रद्धा को शुद्ध रखना (थ) और (समाही) स्वस्थापित रहना (आमारे) सदाचारी होकर कपट न करना (विणओवए) विनयी होकर कपट न करना ।
भावार्थ:-हे गौतम ! तप प्रत धारण करके यश के लिए दूसरों को न कहना, इच्छित वस्तु पाकर उस पर लोभ न करना, दंश-मशकादिकों का परिषह उत्पन्न हो तो उसे सहर्ष सहन करना, निष्कपटतापूर्वक अपना सारा व्यवहार रखना, सत्य संयम द्वारा शुचिता रखना, श्रद्धा' में विपरीतता न माने देना, स्वस्थचित्त हो कर अपना जीवन बिताना, आचारवान हो कर कपट न करना और बिनयी होना । मूलः-धिईमई य संवेगे, पणिहि सुविहि संबरे ।
अत्तदोसोवसंहारे, सव्वकामविरत्तया ॥६॥
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आत्म शुद्धि के उपाय छायाः-धृतिमतिश्च संवेगः प्रणिधि: सुविधिः संबर ।
आत्म दोषापसंहारः सर्वकामविरक्तता ।।९।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (धिईमई) अदीनवृत्ति से रहना, (संवेगे) संसार से विरक्त हो कर रहना, (पणिहि) कायादि के अशुभ योगों को रोकना, (सुविहि) सदाचार का सेवन करना। (संवरे) पापों के कारणों को रोकना, (अत्तदोसोबसंहारे) अपनी आत्मा के दोषों का संहार करना, (य) और (सधषकामविरत्तया) सर्व कामनाओ से विरत रहना । ___ भाषार्थ:-हे गौतम ! दीन-हीन वृत्ति से सदा विमुख रहना, संसार के विषयों से उदासीन हो कर मोक्ष की इच्छा को हृदय में धारण करना, मनअपन-काया के अशुभ व्यापारों को रोक रखना, सदाचार सेवन में रत रहना, हिंसा, झूठ, चोरी, संग, ममत्व के द्वारा आते हुए पापों को रोकना, आत्मा के दोषों को ढूंढ-कर संहार करना, और सब तरह की इच्छाओं से अलग रहना । मूल:--पच्चक्खाणे विउस्सग्गे, अप्पमादे लबालवे ।
ज्झाणसंवरजोगे य, उदए मारणतिए ॥१०॥ छाया:-प्रत्याख्यानं व्युत्सर्ग:, अप्रमादी लवालवः ।
ध्यानसंवर योगाश्च, उदये मारणान्तिके |॥१०॥ अग्ययाः हे इन्द्रभूति ! (पच्चरखाणे) त्यागों की वृद्धि करना (विउस्सग्गे) उपाधि से रहित होना, (अप्पमादे) प्रमाद रहित रहना (लवालवे) अनुष्ठान करते रहना (झाण) ध्यान करना (संवरजोगे) संवर का व्यापार करना, (य) और (भारणतिए) मारणांतिक कष्ट (उदए) उदय होने पर भी क्षोभ नहीं करता।
भावार्थ:-हे गौतम ! त्याग धर्म की वृद्धि करते रहना, उपाधि से रहित होना, गर्व का परित्याग करना, क्षणमात्र के लिए भी प्रमाद न करना, सदैव अनुष्ठान करते रहना, सिमान्तों के गंभीर आशयों पर विचार करते रहना, कर्मों के निरोष रूप संवर की प्राप्ति करना और मृत्यु भी यदि सामने आ खड़ी हो तम भी क्षोम न करना ।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
मूलः - संगाणं य परिष्णाया, पायच्छित्त करणे विय । आराहणा य मरणंते, बत्तीसं जोगसंगहा ॥ ११ ॥ छाया:- सङ्गानाञ्च परिज्ञेया प्रायश्चित्तकरणमपि च । आराधना च मरणान्ते, द्वात्रिंशतिः योग संग्रहाः ||११||
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( संगाणं ) संभोगों के परिणाम को ( परिणाया ) जान कर उनका त्याग करना (य) और ( पायचित करणे ) प्रायश्चित करना ( आराणा य मरणंते) आराधक हो समाधिमरण से मरना ये (बत्तीस ) बत्तीम ( जोगसंगहा ) योग संग्रह हैं ।
भावार्थ:- हे गौतम! स्वजनादि संग रूप स्नेह के परिणाम को समझ करा दिला करना भूल से गलती हो जाये तो उसके लिए प्रायश्चित करना, संयमी जीवन को सार्थक कर समाधि से मृत्यु लेना, ये बत्तीस शिक्षाएँ योग बल को बढ़ाने वाली है । अतः इन बत्तीस शिक्षाओं का अपने जीवन के साथ सम्बन्ध कर लेना मानो मुक्ति को वर लेना है | मूल: -- अरहंत सिद्धपवयण गुरूथे रब हुस्सुएत वस्सीसु । वच्छलया यसि अभिवखणाणोवओगे य ॥ १२ ॥ छाया:- अर्हत्सिद्धप्रवचनगुरूस्थविर बहुश्रुतेषु तपस्विषु । तेषां अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगश्च ॥ १२ ॥
वत्सलता
अग्वयायः -- हे इन्द्रभूति ! ( अरहंत ) तीर्थंकर (सिद्ध) सिद्ध ( स्वयण ) आगम (गुरु) गुरु महाराज (थेर) स्थविर ( बहुस्सुए ) बहुश्रुत ( तबस्सी सु) तपस्वी में (वल्लया) वात्सल्य भाव रखता हो, (यसि ) उनका गुण कीर्तन करता हो, (य) और (अभिक्ख) सदैव ( णाणोओगे) शान में जो उपयोग रक्खें । भावार्थ :- हे गौतम! जो रागादि दोषों से रहित हैं, जिन्होंने घनघाती कर्मों की जीत लिया है, वे अरिहंत हैं। जिन्होंने सम्पूर्ण कर्मों को जीत लिया है, वे सिद्ध हैं। असामय सिद्धान्त और पंच महाव्रतों को पालने वाले गुरु हैं। इनमें और स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी इन सभी में बारसस्य भाव रखता हो, इनके गुणों का हर जगह प्रसार करता हो और इसी तरह ज्ञान के ध्यान में सदा लीन रहता हो ।
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आत्म शुद्धि के उपाय
मुल:-दसणविणए आवस्सएय, सीलव्वए निरइयारो।
खणलबतवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य ।।१३।। छायाः-दर्शनविनय आवश्यक: शीलवतं निरतिचारं ।
क्षणलवस्तपस्त्यागः वयावृत्यं समाधिश्च ।। १३॥ अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (सण, शुद्ध प्रद्धा रखता हो (विणए) बिनयो हो (आवस्सए) आवश्यक प्रतिक्रमण दोनों समय करता हो, (निरइयारो) दोषरहित (सीलब्जए) शील और व्रत को जो पालता हो, (खणलय) अच्छा ध्यान ध्याता हो अर्थात् सुपात्र को दान देने की भावना रखता हो (तव) तप करता हो (चियाए) त्याग करता हो, (वेयावच्चे) सेवा भाव रखता हो (य) और (समाही) स्वस्थचित्त में रहता हो ।
भावार्थ:--हे गौतम ! जो शुद्ध श्रद्धा का अवलम्बी हो, नम्रता ने जिसके हृदय में निवास कर लिया हो, दोनों समय-संध्या और सूबह अपने पापों की आलोचना रूप प्रतिक्रमण को जो करता हो, निर्दोष शील व्रत को जो पालता हो, आर्त रौद्र ध्यान को अपनी और माकने तक न देता हो, अनशन व्रप्त का जो प्रती हो, या नियमित रूप से कम खाता हो, मिष्टान्न आदि का परित्याग करता हो, आदि इन बारह प्रकार के तपों में से कोई भी तप जो करता हो, सुपात्र दान देता हो, जो सेवा भाव में अपना शरीर अर्पण कर चुका हो, और सदैव चिन्ता रहित जो रहता हो । मूलः -अप्पुव्वणाणगहणे, सुयभत्ती पचयणे पभावणया ।
एएहिं कारणेहि, तित्थयरत्तं लहइ जीओ ।।१४।। छाया:--अपूर्वज्ञानग्रहणं, श्रुतभक्तिः प्रवचनप्रभावनया।
एतैः कारणैस्तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥१४॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! जो (अप्युवणाणगहणे) अपूर्व ज्ञान को ग्रहण करता हो (सुयभत्ती) सूत्र शास्त्रों को आदर की दृष्टि से देखता हो, (पवयणे) निन्य प्रवचन की (पभाषणया) प्रभावना करता हो, (एएहिं) इन (कारणेहिं) सम्पूर्ण कारणों से (जीओ) जीव (तिरथयरत्त) तीर्घकरत्व को (लइह) प्राप्त कर लेता है।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन भाषार्थ:-हे आर्य ! आये दिन कूष्ट न कुछ नवीन ज्ञान को जो ग्रहण करता रहता हो, सूत्र के सिद्धान्तों को आदर-भावों से जो अपनाता हो, जिन शासन की प्रभावना उन्नति के लिए नये-नये उपाय जो ढूंढ निकालता हो, इन्हीं कारणों में से किसी एक बात का भी प्रगाढ़ रूप से सेवन जो करता हो, वह फिर चाहे किसी भी जाति ५ कोम का क्यों न हो, भविष्य में तीर्थकर होता है। मूलः-पाणाइवायमलियं, चोरिक्व मेहुणं दवियमुच्छं ।
कोहं माणं मायं, लोभं पेज्जं तहा दोसं ॥१५॥ कलह अब्भक्खाणं, पेसुन्नं रइअरइसमाउत्तं ।
परपरिवायं माया, मोसं मिच्छत्तसल्लं च ।। १६॥ छाया:- प्राणातिपातमलीकं चौर्य मैथुनं द्रव्यमूर्छाम् ।
क्रोधं मानं मायां लोभ प्रेमं तथा द्वेषम् ।।१५।। कलहमभ्याख्यान पैशुन्यं रत्यरती सम्यगुक्तम् ।
परपरिवादं मायामृषा मिथ्यात्वशल्यं च ॥१६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (पाणाकाय) प्राणातिपात-हिंसा (अलिय) मूंठ (चोरिक्वं) चोरी (मेहुणे) मथुन (धवियमुच्छ) द्रव्य में मूळ (कोह) क्रोध (माण) मान (मायं) माथा (लोभ) लोम (पेज्ज) राग (तहा) तथा (दोस) द्वेष (कलह लड़ाई (अन्मक्खाणं) कलंक (पेसुन्न) चुगली (परपरिवायं) परापवाद (रइअरइ) अधर्म में आनंद और धर्म में अप्रसन्नता (मायमोस) कपट युक्त झूठ (च) और (मिच्छत्तसल्लं) मिथ्यात्व रूप शल्य, इस प्रकार अठारह पापों का स्वरूप शानियों ने (समाउत्तं) अच्छी तरह कहा है।
भावार्थ:-हे गौतम ! प्राणियों के दश प्राणों में से किसी भी प्राण को हनन करना, मन-वचन-काया से दूसरों के मन तक को भी दुखाना, हिंसा है। इस हिंसा से यह आत्मा मलीन होता है। इसी तरह झूठ बोलने से, चोरी करने से, मैथुन सेवन से, वस्तु पर मूर्खा रखने से, कोष, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष करने से, और परस्पर लड़ाई-झगड़ा करने से, किसी निर्दोष पर कलंक का आरोप करने से, किसी की चुगली खाने से, दूसरों के अवगुणा
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आत्म शुद्धि के उपाय
वाद बोलने से, और इसी तरह अधर्म में प्रसन्नता रखने से और धर्म में अप्रसन्नता दिखाने से, दूसरों को ठगने के लिये कपटपूर्वक झूठ का व्यवहार करने से, और मिथ्यात्व रूप शल्य के द्वारा पीड़ित रहने से, अर्थात् कुदेव कुगुरु, कुधर्म के मानने से आदि इन्हीं अठारह प्रकार के पापों से जकड़ी हुई यह आत्मा नाना प्रकार के दुःख उठाती हुई, चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करती रहती है ।
मूलः --- अज्झवसाणनिमित्ते, आहारे वेयणापराधाते ।
फासे आणापाणू, सत्तविहं झिझए आउं ॥ १७॥ छाया:-- अध्यवसाननिमित्ते आहारः वेदना पराघातः । स्पर्श आनप्राणः सप्तविधं क्षियते आयु ।।१७।।
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अन्ययार्थ:- हे इन्द्रभूति ! ( आई ) आयु (सत्तविहं ) सात प्रकार से (झिझाए) टूटता है । (अज्झषसाणनिमित्ते ) भयात्मक अध्यवसाय और दण्ड लकड़ी कशा चाबुक शस्त्र आदि निमित्त (आहारे) अधिक आहार ( वेयणा ) शारीरिक वेदना (पराधाते ) खड्डे आदि में गिरने के निमित्त (फासे) सर्पादिक का स्पर्श (आणापाणू) उच्छ्वास निश्वास का रोकना आदि कारणों से आयु का क्षय होता है ।
भावार्थ:-- हे मायें ! सात कारणों से आयु अकाल में ही क्षीण होती है । वे यों हैं:- राग, स्नेह, भयपूर्वक अध्यवसाय के आने से दंड (लकड़ी) कशा ( चाबुक ) शस्त्र आदि के प्रयोग से अधिक भोजन या लेने से, नेत्र आदि की अधिक व्याधि होने से, खड्डे आदि में गिर जाने से, और उच्छ्वास निश्वास के रोक देने से ।
मूल:-जह मिउलेवालित्तं, गरुयं तुबं अहो वयइ एवं ।
आसवकयकम्मगुरू, जीवा वच्चति अहरगई ||१८||
छाया: - यथा मृल्लेपालिप्तं गुरु तुम्बं अधोव्रजत्येवं । आस्रवकायक मंगुरवो जीवा व्रजन्त्यधोगतिम् ॥१८॥
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निग्रंथ प्रमषन
अषमार्गः-हे इन्द्रभूति ! (जह) जैसे (मिजलेवालित्तं) मिट्टी के लेप से लिपटा हुआ वह (गरुयं) भारी (तुर्व) तूंबा (अहो) नीचा (वयई) जाता है । (एवं) इसी तरह (आसवकपकम्मगुरू) आस्रव कृत कर्मों द्वारा भारी हुआ (जीया) जीव (अहगई) अधोगति को (बच्चंति) जाते हैं ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे मिट्टी का लेप लगने से तूंबा मारी हो जाता है, अगर उसको पानी पर रख दिया जाय तो वह उसकी तह तक नीचा ही चला जायगा ऊपर नहीं उठेगा । इसी तरह हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और मूर्छा आदि आस्रब-रूप कर्म कर लेने से, यह आत्मा भी मारी हो जाता है । और यही कारण है कि तब यह आत्मा अधोगति को अपना स्थान बना लेता है। मूल:-तं चेव तबिमुक्के, जलोवरि ठाइ जायलहुभावं ।
जह तह कम्मविमुक्का, लोयग्गपइट्ठिया होति ॥१६॥ छाया:--स चैव तद्विमुक्त: जलोपरि तिष्ठति जातलघुभावः ।
यथा तथा कर्मविमुक्ता लोकानप्रतिष्ठिता भवन्ति ॥१६॥ अन्वयार्थ:-हे इन्दभूति ! (जह्) जैसे (तं चेव) वहीं तूंबा (तविमुषक) उस मिट्टी के लेप से मुक्त होने पर (जायलकुमाव) हलका हो जाता है, तब (जलोबरि) जल के ऊपर (ठाइ) ठहरा रह सकता है। (तह) उसी प्रकार (कम्मषिमुक्का) कम से मुक्त हुए जीन (लोअग्गपहटिया) लोक के अग्रभाग पर स्थित (होति) होते हैं।
भावार्थ:- हे गौतम ! मिट्टी के लेप से मुक्त होने पर वही तू'बा जैसे पानी के ऊपर आ जाता है, वैसे ही आस्मा भी कर्म रूपी बन्धनों से सम्पूर्ण प्रकार से मुक्त हो जाने पर सोक के अग्र भाग पर जाकर स्थित हो जाता है । फिर इस दुःखमय संसार में उसको चक्कर नहीं लगाना पड़ता।
॥ श्रीगौतमउवाच । मूल:--कहं चरे ? कहं चिट्ठ ? कहं आसे? कहं सए ।
__ कह भुजतो? भासंतो, पावं कम्म न बंधई ॥२०॥
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आत्म शुद्धि के उपाय छाया:-कथञ्चरेत् ? कथं तिष्ठेत् ? कथमासीत् कथं शयीत् ।
कथं भुजानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति ॥२०॥
___ अन्वयार्ष: है प्रभु ! (कह) कैसे (घरे) चलना ? (कह) कसे (घि8) ठहरना ? (कह) कैसे (आसे) बैठना ? (कह) कैसे (सए) सोना ? जिससे (पाव) पाप (कम्म) कर्म (न) नहीं (बंधई) बंधते, और (कह) किस प्रकार ( अंतो) खाते हुए, एवं (भासंतो) बोलते हुए पाप कर्म नहीं बंधते ।
भावार्थ:-हे प्रम ! कृपा करके इस सेवक के लिए फरमाचे कि किस तरह चलना, खड़े रहना, बैठना, सोना, खाना और बोलना चाहिए जिससे इस आत्मा पर पाप कर्मों का लेप न चढ़ने पावे ।
॥ श्रीभगवानुवाच ॥ मूल:----जयं चरे जयं चिट्ट, जयं आसे जयं सए ।
जयं भुजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ॥२११६ छायाः—यतं चरेत् यतं तिष्ठेत् यतमासीत यतं शयीत् ।
यतं भुजानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति ।।२।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जयं) यत्तापूर्वक (परे) चलना (जयं) यत्नापूर्वक (चिट्ठ) ठहरना (जयं) यत्नापूर्वक (आसे) बैठना (जयं) यत्नापूर्वक (सए) सोना, जिससे (पाव) पाप (कम्म) कर्म (न) नहीं (बंधई) बंधता है। इसी तरह (जयं) यस्तापूर्वक ( जंतो) खाते हुए (गासंतो) और बोलते हुए भी पाप कर्म नहीं बँधते ।
__ भावार्थ:-हे गौतम ! हिंसा, झूठ, चोरी आदि का जिसमें तनिक भी व्यापार न हो ऐसी सावधानी को पल्ला कहते हैं। यत्नापूर्वक चलने से, खड़े रहने से, बैटने से और सोने से पाप कर्मों का बंधन इस आत्मा पर नहीं होता है। इसी तरह पत्नापूर्वक भोजन करते हुए और बोलते हुए भी पाप कमों का बंध नहीं होता है। अतएव, हे आर्य ! तू अपनी दिनचर्या को खूब ही सावधानी पूर्वक बना, जिससे आत्मा अपने कर्मों के द्वारा मारी न हो।
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५२
निर्ग्रन्थ-प्रवचन
मुल:--पच्छा बि ते पयाया
खिए , चंति अपरमवणाई । जेसि पियो तवो संजमो
य खंती य बम्भचेरं च ॥२॥ छाया:-पश्चादपि ते प्रयाता:
क्षिप्रं गच्छन्त्यमर भवनाति । येषां प्रियं तप: संयमश्च
___ शान्तिश्च ब्रह्मचर्य च ॥२२॥ अस्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (पच्छा वि) पीछे भी अर्थात् वृद्धावस्था में (ते) ये मनुष्य (पयाया) सन्मार्ग को प्राप्त हुए हों (य) और (जसि) जिस को (तवो) तप (संजमो, संयम (य) और (खंती) समा (चें) और (बम्सचर) ब्रह्मचर्य (पियो) प्रिय है, वे (खिप्पं) शीघ्र (अमरमवणाई) देव-भवनों को (गच्छंति) जाते हैं। ___ भावार्थ:-हे आर्य ! जो धर्म की उपेक्षा करते हुए वृद्धावस्था तक पहुंच गये हैं उन्हें भी हताश न होना चाहिए। अगर उस अवस्था में भी वे सदाचार को प्राप्त हो जायें, और तप, संयम, क्षमा, ब्रह्मचर्य को अपना लाइला साथी बना लें, तो वे लोग देवलोक को प्राप्त हो सकते हैं। मुल:-तवो जोई जीवो जोइठाणं,
जोगा सुया सरीर कारिसंग । कम्मेहा संजम जोगसंती,
होम हुणामि इसिणं पसत्थं ॥२३।। छाया:--तपो ज्योतिर्जीवोज्यातिः स्थान
योगाः मुत्रः शरीरं करीषाङ्गम् । कर्मधाः संयमयोगाः शान्तिोमेन
जुहोम्य॒षिणा प्रशस्तेन ॥२३॥
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। बारम शुद्धि के उपाय
५३ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (तो) तप रूप तो (जोई) अग्नि (जीको) जीव रूप (जोइठाणे) अग्नि का स्थान (जोगा) योग रूप (सुया) कड़छी (सरीरं) : शरीर रूप (कारिसंग) कण्डे (कम्मेहा) कर्म रूप इंघन-काष्ठ (संजम जोग)
संयम व्यापार रूप (संती) शांति-पाठ है । इस प्रकार का (इसिणं) ऋषियों से (पसत्यं) श्लाघनीय चारित्र रूप (होम) होम को (हुणामि) करता हूँ। ___ भावार्षः-हे गौतम ! तप रूप जो अग्नि है, वह कर्म रूप ईधन को भस्म करती है। जीव अग्नि का कुण्ड है। क्योंकि तप रूप अग्नि जीव संबंधिनी ही है एतदर्थ जीव हो अग्नि रखने का कुण्ड हुआ। जिस प्रकार कड़छी से घी आदि पदार्थों को डाल कर अग्नि को प्रदीप्त करते हैं। ठीक उसी प्रकार मन, असन और काया के शुभ व्यापारों के द्वारा तप रूप अग्नि को प्रदीप्त करना चाहिए । परन्तु शरीर के बिना तप नही हो सकता है । इसीलिः हम कण्डे, कर्म रूप ईंधन और संयम व्यापार रूप शान्ति पाय पढ़ करके, मैं इस प्रकार कृषियों के द्वारा प्रशंसनीय चारित्र साधन रूप पज्ञ को प्रतिदिन करता
मूलः-धम्मे हरए बंभे संतितित्थे,
___ अणाविले अत्तपसन्नलेसे । जहि सिपणाओ विमला विसुद्धो,
सुसी तिभूओ पजहामि दोसं ॥२४॥ छायाः-धर्मो ह्रदो बह्म शान्तितीर्थ
मनाविल आत्मप्रसन्नलेश्यः । यस्मिन् स्नातो विमलो विशुद्धः
सुशीतीभूतः प्रजहामि दोषम् ।।२४॥ अन्वयार्थः-हे इन्द्रभूति ! (अणाबिले) मिथ्यात्व करके रहित स्वच्छ (अत्तपसनलेसे) आत्मा के लिए प्रशंसनीय और अच्छी मावनाओं को उत्पन्न करने वाला ऐसा जो (धम्मे) धर्म रूप (हरए) द्रह और (बंभे) महाचर्य रूप (संतितित्थे) शान्ति तीर्थ है। (जहिं) उस में (सिष्णाओ) स्नान करने से तथा
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५४
निग्य-प्रवचन उस तीथं में आत्मा के पर्यटन करते रहने से (विमलो) निर्मल (विसुद्धो) शुद्ध और (सुसीतिभूभी) राग-द्वेषादि से रहित वह हो जाता है। उसी तरह मैं भी उस ब्रह और तीर्थ का सेवन करके (दोसं) अपनी आत्मा को दूषित करे, उस कर्म को (पजहामि) अत्यन्त दूर करता हूँ।
भावार्थ:-है आर्य ! मिथ्यात्यादि पापों से रहित और मास्मा के लिए प्रवासनीय एवं उच्च भावनाओं को प्रगट करने में सहाय्यभूत ऐसा, जो स्वच्छ धर्म रूप द्रह है उसमें इस आरमा को स्नान कराने से, तथा ब्रह्मचर्य रूप शान्ति-तीर्य की यात्रा करने से शुद्ध निर्मल और रागद्वेषादि से रहित यह हो जाता है। अतः मैं भी धर्म रूप द्रह और ब्रह्मचर्य रूप तीर्थ का सेवन करके आन्या को दुषित काले गाने गगु को सांगोपन उट कर रहा हूँ। बस, यह आत्म-शुद्धि का स्नान और उसकी तीर्थ यात्रा है।
॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ।।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(पांचया अध्याय)
ज्ञान प्रकरण
(श्री भगवानुवाच) सूल:-तत्थ पंचविहं नाणं, सुअं अभिणिबोहिअं।
__ ओहिणाणं च तइअं, मणणाणं च केवलं ॥१॥ छायाः-तत्र पञ्चविध ज्ञान, श्रुतमाभिनिबोधिकम् ।
अवधिज्ञानं च तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम् ॥१॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति (तत्य) ज्ञान के सम्बन्ध में (माणं) ज्ञान (पंचविहं) पाच प्रकार का है, वह यों है :---(मुअं) श्रुत (अमिणिबोझिं) मति (तइ) तीसरा (ओहिणाणं) अबधिज्ञान (च) और (मणणाणं) मनःपर्यवज्ञान (च) और पांचवां (केबल) केवलज्ञान है ।
भावार्थ:-हे आयें ! ज्ञान पाँच प्रकार का होता है, वे पांच प्रकार यों है :-(१) मतिज्ञान के द्वारा श्रवण करते रहने से पदार्थ का जो स्पष्ट Ji भेदाभेद आन पड़ता है यह अतमान' है । (२) पांचों इन्द्रियों के द्वारा जो |: शान होता है वह भतिज्ञान कहलाता है । (३) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि की
१ नंदीसूत्र में श्रुतज्ञान का दूसरा नम्बर है। परन्तु उत्तराध्ययन सूत्र में
श्रुतज्ञान को पहला नम्बर दिया गया है। इसका तात्पर्य यों है कि पांचों ज्ञानों में श्रुत-ज्ञान विशेष उपकारी है । इसलिए यहां श्रुतज्ञान को पहले ग्रहण किया है।
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निर्मन्य-प्रवचन
मर्यादा पूर्वक रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से जानना यह अवधिज्ञान है। (४) दूसरों के हृदय में स्थित मावों को प्रत्यक्ष रूप से जान लेना मनःपर्यवज्ञान है। और (५) त्रिलोक और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् हस्तरेखावत जान लेना मदतान करना है मल:--अह सव्वदवपरिणामभावविष्णत्तिकारणमणतं ।
सासयमप्पडिबाई एगविहं केवलं नाणं ।।२।। छाया:- अथ सर्वद्रव्यपरिणाम भावविज्ञप्ति कारणमनन्तम् ।
शाश्वतमप्रतिपाति च, एकविध केवलं ज्ञानम् ।।२।। ___ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (केवलं) कैवल्य (नाणं) ज्ञान (एगविह) एक प्रकार का है। (सबदवपरिणाममाववित्तिकारणं) सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति, ध्रौव्य, नाश और उनके गुणों का विज्ञान कराने में कारणभूत है। इसी प्रकार (अणतं) झेम पदार्थों की अपेक्षा से अनंत है, एवं (सासयं) शाश्वत और (अप्पहिवाई) अप्रतिपाती है।
भावार्थ:-हे गौतम ! कंबल्य ज्ञान का एक ही भेद है । और वह सर्व वख्य मात्र के उत्पत्ति, विनाश, ध्रुवता और उनके गुणों एवं पारस्परिक पदार्थों को भिन्नता का विशान कराने में कारणभूत है। इसी प्रकार ज्ञेय पदार्थ अनंत होने से इरो अनंत मी कहते हैं और यह शाश्वत भी है। भावलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् पुनः नष्ट नहीं होता है इसलिए यह अप्रतिपाती भी है। मूल:--एयं पंचविहं गाणं, दवाण य गुणाण य ।
पज्जवाणं च सब्वेसि, नाणं नाणीहि देसियं ।।३।। छायाः--एतत् पञ्चविघं ज्ञानम्, द्रव्याणाम् च गुणाणांच ।
पर्यवाणां च सर्वेषां, ज्ञानं ज्ञानिभिर्देशितम् ॥३॥ अन्वयार्ष:-हे इन्द्रभूति ! (एयं) यह (पंचविह) पाच प्रकार का (नाणं) सान (सवेसि) सर्व (दव्वाणं) द्रव्य (म) और (गुणाण) गुण (य) और (पजवाणं) पर्मायों को (नाणं) जानने वाला है, ऐसा (नाणीहि) तीर्थंकरों द्वारा (देसिय) कहा गया है।
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जान प्रकरण
___ भावार्थ:-हे गौतम ! संसार में ऐसा कोई भी द्रव्य, गुण या पर्याय नहीं है जो इन पांच ज्ञानों से न जाना जा सके । प्रत्येक ज्ञेय पदार्थ यथायोग्य रूप से किसी न किसी ज्ञान का हिोता ही है ! पेमा डी नीकरों ने कहा है। मूल:-पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए।
अन्नाणी कि काही कि वा, नाहिइ छेयपावगं ||४|| छायाः-प्रथमं ज्ञानं ततो दया, एवं तिष्ठति सर्व संयतः।
___ अज्ञानी किं करिष्यति, किं वा ज्ञास्यति श्रेयः पापकम् ।।४।।
अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (पढम) पहले (नाणं) ज्ञान (तओ) फिर (दमा) जीव रक्षा (एवं) इस प्रकार (सध्वसंजए) सब साधु (चिटुइ) रहते हैं। (अनाणी) अज्ञानी (किं) क्या (काही) क्या करेगा ? (वा) और (किं) केसे वह अज्ञानी (छेय पावंग) श्रेयस्कर और पापमय मार्ग को (नाहिइ) जानेगा ?
भावार्थ:- है गौतम ! पहले जीव रक्षा संबंधी ज्ञान की आवश्यकता है। क्योंकि, बिना ज्ञान के जीव-रक्षा प क्रिया का पालन किसी भी प्रकार हो नहीं सकता, पहले ज्ञान होता है, फिर उस विषय में प्रवृत्ति होती है। संयमधील जीवन बिताने वाला मानव वर्ग भी पहले झान ही का सम्पादन करता है, फिर जीव रक्षा के लिए कटिबद्ध होता है। सच है, जिनको कुछ मी ज्ञान महीं है, वे क्या तो दया का पालन करेंगे ? और क्या हिताहित ही को पहनानेंगे? इसलिए सबसे पहले ज्ञान का सम्पादन करना आवश्यकीय है । यहाँ 'दया' पाब्द उपलक्षण है, इसलिए उससे प्रत्येक क्रिया का अर्थ समझना चाहिए । मूलः-सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावमं ।
उभयं पि जाणई सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ||५|| छाया:-श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम् ।
उभयेऽपि जानाति श्रुत्वा, यच्छे यस्तत् समाचरेत् ।।५।। अग्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (सोच्चा) सुन कर (कस्लाणं) कल्याणकारी मार्ग को (जाणइ) जानता है, और (सोच्चा) सुनकर (पावगं) पापमय मार्ग
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५८
निग्रंन्य-प्रवचन
को (जागइ) जानता है । (उमयं पि) और दोनों को मी (सोच्चा) सुनकर (जाणई) जनता है। (ज) जो (छेयं) अच्छा हो (त) उसको (समायरे) अंगीकार करे।
भावार्थ:-हे गौतम ! सुनने से हित-अहित, मंगल-अमंगल, पुण्य और पाप का बोध होता है । और बोध हो जाने पर यह आत्मा अपने आप श्रेयस्कर मार्ग को अंगीकार कर लेता है। और इसी के आधार पर आखिर में अनंत सुखमय मोक्षधाम को भी यह पा लेता है। इसलिए मर्षियों ने श्रुतज्ञान ही को प्रथम स्थान दिया है। मूल:--जहा सूई ससुत्ता, पडिआ वि न विणस्सइ ।
तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ॥६॥ छाया:- यथा शूची ससूत्रा, पतिताऽपि न विनश्यते।
तथा जीव: ससूत्रः, संसारे न विनश्यते ॥६॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (ससुत्ता) सूत्र सहित-धागे के साथ (पडिआ) गिरी हई (सूई) सूई (न) नहीं (विणस्सइ) खोती है। (तहा) उसी तरह (ससुत्ता) सूत्र श्रुत-ज्ञान सहित (जीवे) जीव (संसारे) संसार में (वि) मी (न) नहीं (विणस्सइ) नाश होता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिस प्रकार धागे बाली सुई गिर जाने पर भी खो नहीं सकती, अर्थात् पुन: शीन मिल जाती है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान संयुक्त आत्मा कदाचित् मिथ्यात्वादि अशुभ कर्मोदय से सम्यक्त्व धर्म से च्युत हो भी जाय तो वह आस्मा पुनः रनत्रय रूप धर्म को शीघ्रता से प्राप्त कर लेता है । इसके अतिरिक्त श्रुतज्ञानवान् आत्मा संसार में रहते हुए भी दुःखी नहीं होता अर्थात् समता और शान्ति से अपना जीवन व्यतीत करता है। मूल:--जावंतऽविज्जापुरिसा, सब्चे ते दुक्खसंभवा ।
लुप्पंति बहुसो मुढा, संसारम्मि अणंतए ।।७।। छाया:--यावन्तोऽविधा:पुरुषाः, सर्वे ते दुःखसंभवाः ।
लुप्यन्ते बहुशो मूढाः, संसारे अनन्तके ।।७।।
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शान प्रकरण
अन्नपार्थः हे इन्द्रभूति ! (जावंत) जितने (अबिज्जा) तत्त्वज्ञान रहित (पुरिसा) मनुष्य हैं (ते) वे (सव्वे) सब (दुक्खसम्मवा) दुःख उत्पन्न होने के स्थान रूप हैं । इसी से वे (मूढा) मुर्ख (अणतए) अनंत (संसारम्मि) संसार में (बहुसी) अनेकों बार लुति ; पीडिरा होते हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! तत्त्वज्ञान से होन जितने भी आत्मा हैं, वे सबके सब अनेकों दुःखों के मामी है। इस अनंत संसार की पक्र फेरी में परिभ्रमण करते हुए वे नाना प्रकार के दुःखों को उठाते हैं । उन आत्माओं का क्षणभर के लिए भी अपने कृत कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है । हे गौतम ! इस कदर ज्ञान की मुख्यता बताने पर तुझे यों न समझ लेना चाहिए कि मुक्ति फेवल ज्ञान ही से होती है बल्कि उसके साथ किया की भी जरूरत है । ज्ञान और क्रिया इन दोनों के होने पर ही मुक्ति हो सकती है।
मूल;--इहमेगे उ मण्णंति, अप्पच्चक्खाय पावगं ।
___ आयरिसं विदित्ताणं, सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥८॥ छाया:--इहेके तु मन्यन्ते अप्रत्याख्याय पापकम् ।
आर्यत्वं विदित्वा, सर्वदुःनेभ्यो विमुच्यन्त ||८|| अन्वयार्थः-हे इन्द्रभूति ! (उ) फिर इस विषय में (इह) यहाँ (मेगे) कई एक मनुष्य यों (मण्णंति) मानते हैं कि (पावगं) पाप का (अप्पचक्खाय) बिना त्याग किये ही केवल (आमरिअं) अनुष्ठान को (विदित्ताणं) जान लेने ही से (सबदुवाला) सब दुःखों से (विमुच्चई) मुक्त हो जाता है ।
भावार्थ:-हे आर्य ! कई एक लोग ऐसे भी हैं, जो यह मानते हैं कि पाप के बिना ही त्यागे, अनुष्ठान मात्र को जान लेने से मुक्ति हो जाती है । पर उनका ऐसा मानना नितान्त असंगत है । क्योंकि अनुष्ठान को जान लेने ही से मुक्ति नहीं हो जाती है। मुक्ति तो तभी होगी, जब उस विषय में प्रवृत्ति की जायगी। अत: मुक्ति पथ में ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता होती है । जिसने सद् ज्ञान के अनुसार अपनी प्रवृत्ति करली है, उसके लिए मुक्ति सचमुच ही अति निकट हो जाती है। अफेले ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है।
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निर्गन्ध-प्रवचन
मूलः--भणंता अकरिता य, बंधमोक्खपइण्णिणो ।
___ वायाविरियमत्तणं, समासासंति अप्ययं ॥९॥ छाया:-भणन्तोऽकुर्वन्तश्च, बन्धमोक्ष प्रतिजिनः ।
वाग्वीर्यमाण, समाश्वसन्त्यात्मानम् ।।९।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति । (बधभोक्खपइमिणो) ज्ञान ही को बंध और मोक्ष का कारण मानने वाले, कई एक लोग ज्ञान ही से मुक्ति होती है, ऐसा (मणता) बोलते हैं । (य) परन्तु (मकरिता) अनुष्ठान वे नहीं करते । अत: वे लोग (वायाविरियमत्तेणं) इस प्रकार वचन की वीरता मात्र ही से (अप्पयं) आत्मा को (समासासंति) अच्छी तरह आश्वासन देते हैं । ___ भावार्थ:-हे गौतम ! कर्मों का बंधन और शमन एक ज्ञान ही से होता है, ऐसा दावा--प्रतिज्ञा करने वाले कई एक लोग अनुष्ठान की उपेक्षा फरके यों बोलते हैं, कि ज्ञान ही से मुक्ति हो जाती है, परन्तु वे एकान्त ज्ञानवादी लोग केवल अपने बोलने की वीरता मात्र ही से अपने आत्मा को विश्वास देते हैं, कि हे आत्मा ! तु कुछ मी चिन्ता मत कर । तू पढ़ा-लिखा है, बस, इसी से कर्मों का मोचन हो जावेगा। तप, जप किसी भी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। हे गौतम ! इस प्रकार आत्मा को आश्वासन देना, मानो आस्मा को धोखा देना है। क्योंकि, ज्ञानपूर्वक अनुष्ठान करने ही से कर्मों का मोचन होता है। इसीलिए मुक्ति-पथ में ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता होती है। मुल:-ण चित्ता तायए भासा; कओ विज्जाणुसासणं ।
विसण्णो पावकम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो ।।१०।। छायाः- चित्रास्त्रायन्ते भाषा:, कुतो विद्यानुशासनम् ।
विपण: पापकर्मभिः, बाला:पण्डितमानिनः ।।१०।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (पंडियमाणिशो) अपने आपको पण्डित मानने वाले (बाला) अज्ञानी जन (पावकम्मेहि) पाप कर्मों द्वारा (विसण्णा) फंसे हुए यह नहीं जानते हैं कि (चित्ता) विपित्र प्रकार की (मासा) भाषा (तायए)
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ज्ञान प्रकरण
त्राण-शरण (ण) नहीं होती है । तो फिर (विमाणुसासणे) तांत्रिक या कलाकौशल की विद्या सीख लेने पर (कओ) कहाँ से त्राण शरण होगी।
भावार्थ:-हे गौतम ! थोड़ा-बहुत लिख-पढ़ जाने हो से मुक्ति हो। जायगी इस प्रकार का गर्व करने वाले लोग मूर्ख हैं । कर्मों के आवरण ने उनके असली प्रकाश को ढक रक्खा है। वे यह नहीं जानते कि प्राकृत संस्कृत आदि अनेकों विचित्र भाषाओं के सीख लेने पर भी परलोक में कोई माषा रक्षक नहीं हो सकती है। तो फिर बिना अनुष्ठान के तांत्रिक कलाकौशल' की साधारण विद्या की तो पूछ ही क्या है ? वस्तुतः साधारण पढ़लिखकर यह कहना कि ज्ञान ही से मुक्ति हो जायगी, मात्मा को धोखा देना है, आत्मा को अघोगति में डालना है । मुल:-जे केइ सरीरे सत्ता, वण्णे रूवे अ सव्वसो ।
मणसा कायवक्तामा, सच ते दुक्खसम्भवा ॥११॥ छाया;-ये केचित् शरीरे सक्ताः , वर्ण रूपे च सर्वशः ।
__ मनसा कायवाक्येन, सर्वे ते दुःखसंभवाः ।।११।।
अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जे केई) जो कोई भी ज्ञानवादी (मणसा) मन (कायवक्केणं) काय, वचन करके (सरीरे) शरीर में (वण्णे) वर्ण में (रूबे) रूप में (अ) बान्दादि में (सव्वसो) सर्वथा प्रकार से (सत्ता) आसक्त रहते हैं (ते) वे (सब्वे) सब (दुक्ख सम्भवा) दुःस्व उत्पन्न होने के स्थान
भावार्थ:-हे गौतम ! ज्ञानवादी अनुष्ठान को छोड़ देते हैं। और रूप गर्व में मदोन्मत्त होने वाले अपने शरीर को हष्ट-पुष्ट रखने के लिए वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आदि में मन, वचन, काया से पूरे-पूरे आसक्त रहते हैं, फिर भी वे मुक्ति की आशा करते हैं । यह मृग-पिपासा है, अन्ततः ये सब दुःख ही के मागी होते हैं।
मूल:-निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो।
समो अ सधभूएसु, तसेसु थावरेसु थ ॥१२॥
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निम्रन्थ-प्रवचन
छायाः-निर्ममो निरहङ्कारः, निस्संगस्त्यक्तगौरवः ।
समश्च सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च ॥१२॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! महापुरुष वही है, जो (निम्ममो) ममतारहित (निरहंकारो) अहंकाररहित (निस्संगो) बाह्य अभ्यन्तर संगरहित (अ) और (चत्तगारो) त्याग दिया है अभिमान को जिसने (सधभूएस) तथा सर्व प्राणी माश्व क्या (तसेसु) स (अ) और (पावरेसु) स्थावर में (समो) समान भाव है जिसका।
भावार्थ:-हे गौतम ! महापुरुष नहीं है जिसने ममता, अहंकार, संग, बड़प्पन आदि सभी का साथ एकान्त रूप से छोड़ दिया है। और जो प्राणी मात्र पर फिर चाहे वह कीड़े-मकोड़े के रूप में हो. या हाथी के रूप में. सभी के ऊपर समभाव रखता है।
मुलः-लाभालाभे सृहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा।
समो निंदापसंसास समी माणावमाणओ ॥१३॥ छाया:-लाभालाभे सुखे दुःखे, जीविते मरणे तथा।
समो निन्दाप्रशंसासु, समो मानापमानयोः ।।१३।। अग्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! महापुरुष यही है जो (लामालाभे) प्राप्तिअप्राप्ति में (सुहे) सुख में (दुस्खे) दुःख में (जीविए) जीवन में (मरणे) मरण में (सभो) रामान भाव रखता है। तथा (निंदापसंसारा) निंदा और प्रशंसा में एवं (माणावमाणओ) मान-अपमान में (समो) समान माय रखता है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! मानव देहधारियों में उत्तम पुरुष वही है, जो इच्छिस अर्थ की प्राप्ति-अप्राप्ति में, सुख-दुःख में, जीवन-मरण में तथा निन्दा और स्तुति में और मान-अपमान में सदा समान भाव रखता है। मुल:-अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ।
वासीचंदणकप्पो अ, असणे अणसणे तहा ।।१४।। छाया:-अनिश्चित इह लोके, परलोकेऽनिश्चित: ।
वासी चन्दनकल्पश्च, अशनेऽनशने तथा ॥१४||
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ज्ञान प्रकरण
अन्वयार्थः हे इन्द्रभूति ! (ह) इरा (लोए) लोवा में (अग्गिस्सिओ) अनैनित (परलोए) परलोक में (अणिस्सिओ) अनैनित (अ) और किसी के द्वारा' (वासीचंदणकप्पो) वसूले से छेदने पर या चंदन का दिलेपन करने पर
और (असणे) भोजन खाने पर तिहा) तथा (अणामणे अाशन ना, रामी में समान भाव रखता हो, वही महापुरुष है।
भावार्थ:-हे गौतम ! मोक्षाधिकारी वे ही मनुष्य हैं, जिन्हें इस लोक बे वैभयों और स्वर्गीय सुखों की चाह नहीं होती है। कोई उन्हें वसूले (शस्त्र विशेष) से छेदे या कोई उन पर चन्दन का विलेपन करे, उन्हें भोजन मिले या फाकाकशी करनी पड़े, इन सम्पूर्ण अवरथाओं में सदा रार्वदा समभाव में रहते हैं।
॥ इति पञ्चमोऽध्याय ।।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(अध्याय छट्ठा) सम्यक् निरूपण
॥ श्रीभगवानुवाच ।। मूल:--अरिहंतो महदेवो, जाबज्जीवाए सुसाहुणो गुरुणो।
जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियं ।।१।। छाया:--अर्हन्तो महदेवा:, यावज्जीवं सुसाधवो गुरवः ।
जिन प्रज्ञप्तं तत्त्वं, इति सम्यक्त्वं मया गृहीतम् ॥१॥ अन्वयार्ष: है इन्द्रभूति ! (जावज्जीवाए) जीवन पर्यन्त (अरिहंतो) अरिहंत (महदेवो) बड़े देव (सुसाढणो) सुसाधु (गुरुणो) गुरु और (जिणपण्णत्त) जिनराज द्वारा प्ररूपित (तत्त) तत्व को मानना यही सम्यक्त्व है (अ) इस (सम्मत्त) सम्यक्त्व को (मए) मैंने (गहियं) ग्रहण किया ऐसी जिसकी बुद्धि है। वही सम्यक्त्वधारी है।
भावार्थ:-हे गौतम ! कर्म रूप शत्रुओं को नष्ट करके जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है और जो अष्टादश दोषों से रहित हैं वही मेरे देव हैं। पांच महायतों को यथायोग्य पालन करते हैं वह मेरे गुरु हैं । और वीतराग के कहे हुए तत्त्व ही मेरा धर्म है। ऐसी दृढ़ श्रद्धा को सम्पयत्व कहते है । इस प्रकार के सम्मक्त्व को जिसने हृदयंगम कर लिया है, वहीं सम्यक्त्वधारी है । मूलः-परमत्थसंथवो वा सुदिट्टपरमत्थसेवणा यावि ।
धावण्णकुदंसणवज्जणा, य सम्मत्तसद्दणा ॥२॥
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सम्यक् निरूपण | छाया:-परमार्थसंस्तबः सुदृष्टपरमार्थसेवनं वाऽपि ।
व्यापम्नकुदर्शनवर्जनं च सम्यक्त्वश्रद्धानम् ॥२॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति । (परमत्थसंथवो) तात्त्विक पदार्थ का चिन्तबन करना (वा) और (सुदिपरमत्सवणा) अच्छी तरह से देखे हैं तात्त्विक अर्थ जिन्होंने उनकी सेवा शुश्रूषा करना (य) और (अवि) समुच्चय अर्थ में (पापण्ण कुसणवजणाए) नष्ट हो गया है सम्यक्रव वर्शन जिसका, और जो दोषों से सहित है दर्शन जिसका, उसकी संगति परित्यागना, यही (सम्मतसद्दहणा) सम्यक्त्व को श्रद्धना है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! फिर जो बारंबार तात्त्विक पदार्थ का चिन्तवन करता है । और जो अच्छी तरह से तात्त्विक अर्थ पर पहुंच गये हैं, उनकी यथा पोग्य सेवा शुश्रूषा करता हो, यमा जो सम्यक्त्व दर्शन से पतित हो गये हैं, व जिनका "दर्शन सिद्धान्त" दूषित है, उनकी संगति का त्याग करता हो वही सम्यक्त्वपूर्वक श्रद्धावान् है। मूल:-कुप्पवयणपासंडी, सब्वे उम्मग्गपटुिआ ।
सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे ।।३।। छाया:-कुप्रवचनपाषण्डिनः, सर्व उन्मार्गप्रस्थिताः ।
सन्मागं तु जिनाख्यातं, एष मार्गो ह्य त्तम: ॥३॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (कुप्पवयणपासंडी) दूषित वचन कहने वाले (सम्वे) सभी (उम्मग्गपद्विआ) उन्मार्ग में चलने वाले होते हैं । (तु) और (जिण
खाय) श्री वीतराग का कहा हुआ मार्ग ही (सम्मगं) सन्मार्ग है। (एस) यह (मा) मार्ग (हि) निश्चम रूप से (उत्तमे) प्रधान है। ऐसी जिसकी मान्यता है वही सम्यक्त्वपूर्वक श्रद्धावान् है ।
भावार्थ:-हे गौतम [ हिंसामय दूषित वचन बोलने वाले हैं वे सभी जन्मार्ग गामी हैं। राग-द्वेष रहित और आप्त पुरुषों का बताया हुआ मागं ही सन्मार्ग है । वही मार्ग सब से उत्तम है, प्रधान है, ऐसी जिसकी निश्चयपूर्वक मान्यता है वही सम्यक् प्रतावान् है।
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पिंप्रमः
मूलः-तहिआणं तु भावाणं; सब्भावे उवएसणं 1
भावेण सद्दहतस्स; सम्मत्तां तं विआहिअं ।।४।। छायाः–तथ्यानाम् तु भावानाम् सद्भाव उपदेशनम् ।
भावेन श्रद्दयतः, सम्यक्त्वं तद् व्याख्यातम् ॥४|| मन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (समावे) सद्भावना वाले के द्वारा कहे हुए (तहिआणं) सत्य (मावाणं) पदार्थों का (वासणं) उपदेश (माण) मावना से (सदहतस्स तं) अद्यापूर्वक वर्तने वाले को (सम्मत्त) सम्यक्त्वी ऐसा (विआहि) वीतरागों ने कहा है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिसकी भावना विशुद्ध है उसके द्वारा कहे हुए यथार्य पदार्थों को जो भावनापूर्वक श्रद्धा के साथ मानता हो, वहीं सम्यक्त्वी है ऐसा समी तीर्थकरों ने कहा है। मूल:-निस्सग्गुबएसरुई, आणरुई सुत्तबीअरुइमेव ।
अभिगमवित्थाररुई, किरियासंखेबधम्मरुई ॥५।। छाया:--निसर्गोपदेशरुचिः, आज्ञाचिः सूत्रबीज रुचिरेव ।
अभिगमविस्ताररुचि:, क्रिया संक्षेपधर्मरुचिः ।।५।। अम्बया:-- हे इन्द्रभूति ! (निस्सरगुवएसरुई) बिना उपदेश, स्वमाव से और उपदेश से जो रुचि हो (आणरुई) आज्ञा से रुचि हो (सुत्तबीअरुइमेव) श्रुत श्रवण से एवं एक से अनेक अर्थ निकलते हों वैसे वचन सुनने से रुचि हो (अभिगमवित्थाररुई) विशेष विज्ञान होने पर तथा बहुत विस्तार से सुनने से कचि हो (किरियासंखेवधम्मरुई) क्रिया करते-करते तथा संक्षेप से य। श्रुत धर्म श्रवण से रुचि हो। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! उपदेश श्रवण न करके स्वमाव से ही तत्त्व की रुचि होने पर किसी-किसी को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। किसी को उपदेश सुनने से, किसी को भगवान की इस प्रकार की आज्ञा है, ऐसा सुनने से,
१ तुगन्दस्तुपादपूर्थि ।
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सम्यक-निरूपण सूत्रों के श्रवण करने से, एक शब्द को जो बीज की तरह अनेक अर्थ बताता हो ऐसा वचन सुनने से, विशेष विज्ञान हो जाने से, विस्तारपूर्वक अर्थ सुनने से, धार्मिक अनुष्ठान करने से, संक्षेप अर्थ सुनने से, श्रुत धर्म के मननपूर्वक श्रवण करने से तत्त्वों की रुचि होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। मूलः --नस्थि चरित्तं सम्मत्तविहर्ण, दसणे उ भइअव्वं ।
सम्मत्तचरित्ताई, जुगवं पुब्बं व सम्मत्तं ।।६।। छाया:-नास्ति चारित्रं सम्यक्त्वविहीनं, दर्शने तु भक्तव्यम् ।
सम्यक्त्व चारित्र, युगपत् पूर्व वा सम्यक्त्वम् ॥६|| अन्वयार्थ:-हे इन्द्र भूति ! (सम्मत्तनिहूर्ण) सम्यक्त्व के बिना (चरित्त) चारित्र (नत्यि) नहीं है (ज) और (दसणे) दर्शन के होने पर (महसव) चारित्र मजनीय है । (सम्मत्तरिनाई) सम्यक्त्व और चारित्र (जुगवं) एक साथ भी होते हैं । (व) अथवा (सम्मत्तं) सम्मक्त्व चारित्र के (पुर्व) पूर्व मी होता है ।
भावार्थ:-हे आर्य ! सम्यक्त्व के बिना चारित्र का उदय होता ही नहीं है । पहले सम्यक्त्व होगा, फिर चारित्र हो सकता है, और सम्यक्त्व में चारित्र का भावाभाव है, क्योंकि सम्यक्त्वी कोई गृहस्थधर्म का पालन करता है, और कोई मुनिधर्म का । सम्यक्त्व और चारित्र को उत्पति एक साथ भी होती है अथमा बारिश के पहले भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है। मल::--नादंसणिस्स नाणं,
नाणेण विणा न होति चरण गृणा । अगुणिस्स नत्स्थि मोक्खो,
___ नत्स्थि अमुक्कस्स निव्वाणं ।।७।। छाया:-नादर्शनिनो ज्ञानम्, ज्ञानेन विना न भवन्ति चरणगुणा: ।
अगुणिनो नास्ति मोक्षः, नास्त्यमोक्षस्य... निर्वाणम् ॥७॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अदंसणिस्स) सम्यक्त्व से रहित मनुष्य को (नाणं) ज्ञान (न) नहीं होता है। और (नाणेग) शान के (विणा) बिना
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निर्गुण्य-प्रवचन
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( चरणगुणा ) चारित्र के गुण (न) नहीं ( होंति) होते हैं। और (अगुणिस्स ) चारित्र रहित मनुष्य को ( भोक्खो ) कर्मों से मुक्ति (नथि) नहीं होती है । और (अमुक्करस) कर्मरहित हुए बिना किसी को (निष्वाणं ) निर्वाण (नत्थि ) नहीं प्राप्त हो सकता है ।
भावार्थ:- हे गौतम! सम्भवत्य के प्राप्त हुए बिना मनुष्य को सम्यक् ज्ञान नहीं मिलता है; ज्ञान के बिना आत्मिक गुणों का प्रकट होना दुर्लभ है । विना आस्मिक गुण प्रकट हुए उसके जन्म-जन्मान्तरों के संचित कर्मों का क्षय होना दुःसाध्य है और कर्मों का नाश हुए बिना किसी को मोक्ष नहीं मिल सकता है । अतः सब के पहले सम्यक्त्व की आवश्यकता है ।
मूलः -- निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमुहृदिट्ठी य । उववूह थिरीकरणे, बच्छल्लपभावणे अटू ||८|| निर्विचिकित्सा मूढदृष्टिच । वात्सल्यप्रभावतेऽष्टो || ||
छाया: --- निःशंकितं निःकांक्षितम् उपबृंहा- स्थिरीकरणे,
अर्थ: है हन्द्रभूति ! सम्यक्त्वधारी वही है, जो ( निस्संकिय ) निःशंकित रहता है, (निक्कंखिय) अतस्वों की कांक्षारहित रहता है । (निब्बिति छा) सुकृतों के फल होने में संदेह रहित रहता है। (य) और ( अमुक दिट्ठी) जो अतत्त्वचारियों को ऋद्धियन्स देख कर मोह न करता हुआ रहता है। (उबवूह थिरीकरणे ) सम्यक्वी की दृढ़ता की प्रशंसा करता रहता है । सम्यवत्व से पतित होते हुए को स्थिर करता ( वच्छल्लप भावणें ) स्वधर्मो जनों की सेवा-शुश्रूषा कर वात्सल्य भाव दिखाता रहता है। मौर आठवें में जो सन्मार्ग की उन्नति करता रहता है ।
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भावार्थ :- हे आयें ! सम्यक्त्वधारी वही है, जो शुद्ध देव, गुरु, धर्मरूप तत्वों पर निःशंकित होकर श्रद्धा रखता है। कुदेव कुगुरु कुधर्मं रूप जो अतत्त्व हैं, उन्हें ग्रहण करने की तनिक भी अभिलाषा नहीं करता है। गृहस्थ षमं या मुनिधमं से होने वाले फलों में जो कभी मी संदेह नहीं करता । अन्य दर्शनी को धन-सम्पत्ति से भरा-पूरा देख कर जो ऐसा विचार नहीं करता कि मेरे दर्शन से इसका दर्शन ठीक है, तभी तो यह इतना धनवान् है । सम्यक्त्वधारियों की यथायोग्य प्रशंसा करके जो उनके सम्यक्त्व के गुणों की वृद्धि करता है,
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सम्यक् निरूपण
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सम्धनस्व से पतित होते हुए अन्य पुरुष को यथाशक्ति प्रयत्न करके सम्यक्रव में जो दृढ़ करता है। स्वर्थी नोंकी वाले को वात्सल्य भाव दिखाता है ।
पति
मूल:- मिच्छादंसणरत्ता, सनियाणा हु हिंसगा । इय जे मरंति जीवा, तेसि पुण दुल्लहा बोहि ॥ छाया:- मिथ्यादर्शन रक्ताः सनिदाना हि हिंसकाः । इति ये म्रियन्ते जीवाः, तेषां पुनः दुर्लभा बोधिः ॥ ९ ॥
अन्वयार्थ हे इन्द्रभूति ( भिच्छादंसणरत्ता) मिथ्या दर्शन में रत रहने घाले और (सनियाणा) निदान करनेवाले (हिमगा) हिंसा करने वाले ( इय) इस तरह (जे) जो (जीवा) जीष (मरति ) मरते हैं । (तसि) उनको ( पुणे ) फिर (बोहि) सम्यक्त्व धर्म का मिलना ( हु ) निश्चय ( दुल्लहा ) दुर्लभ है ।
,
भावार्थ: - हे भयं ! कुदेव कुगुरु कुधर्म में रत रहने वाले और निदान सहित धर्मक्रिया करने वाले एवं हिंसा करने वाले जो जीव हैं, वे इस प्रकार अपनी प्रवृत्ति करके मरते हैं, तो फिर उन्हें अगले भव में सम्यक्त्व बोध का मिलना महान कठिन है ।
मूलः -- सम्मद्द सणरत्ता अनियाणा, सुक्कलेसमोगाडा | इय जे मरति जीवा, सुलहा तेसि भवे बोहि ॥ १० ॥ छायाः - सम्यग्दर्शन रक्ता अनिदाना शुक्ललेश्यामवगाढाः ।
इति ये म्रियन्ते जीवाः, सुलभा तेषां भवति बोधिः || १०|| अम्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( सम्म हंसणरता ) सम्यक्त्वदर्शन में रत रहने वाले (अनियाणा) निदान नहीं करनेवाले एवं ( सुक्कलेस मोगाढा) शुक्ल लेश्या से समन्वित हृदय वाले ( इय) इस तरह (जे) जो (जीवा) जीव (मरंति) मरते हैं ( तसि) उन्हें (बोहि ) सम्पनत्व ( सुलहा ) सुलभता से ( मदे ) प्राप्त हो सकता है।
भावाः हे गौतम! जो शुद्ध देव, गुरु और धर्म रूप दर्शन में श्रद्धा पूर्वक सवैष रत रहता हो। निदानरहित तप, धर्मक्रिया करता हो, और शुद्ध
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
परिणामों से जिसका हृदय उमंग रहा हो। इस तरह प्रवृत्ति रस करके जो जीव' मरते हैं। उन्हें धर्म बोध की प्राप्ति अगले मव में सुगमता से होती। जाती है। मूल:--जिण वयणे अणुरत्ता,
जिणवयणं जे करिति भावेण । अमला असं किलिङ्का,
ते होंति परित्तसंसारी ॥११॥ छाया:--जिनवचनेऽनुरक्ताः , जिनवचनं ये कुर्वन्ति भावेन ।
अमला असंक्लिष्टास्ते भवन्ति परीतसंसारिणः ॥१।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्र भूति ! (ज) जो जीव (जिणवयणे) वीतरागों के वचनों में (अणुरत्ता) अनुरत रहते हैं और (भावेणं) श्रद्धापूर्वक (जिणवयणं) जिन वचनों को प्रमाण रूप (करिति) मानते हैं (अमला) मिथ्यात्व रूप मल से रहित एवं (असंफिलिट्ठा) संक्लेश करक रहित जो हों, (त) वे (परित्तसंसारी) अल्प-संसारी होते हैं।
भावार्थ:-हे आर्य ! जो वीतराग के कहे हुए बननों में अनुरक्त रह कर उनके वचनों को प्रमाणभूत मानते हैं, तथा मिथ्यात्व रूप दुगुणों से बचते हुए राग-द्वेष से दूर रहते हैं, वे ही सम्यक्त्व को प्राप्त करके, अल्प समय में ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। मूलः–जाति च बुडि च इहज्ज पास,
भूतेहि जाणे पडिलेह सायं । तम्हाऽतिविज्जो परमति जच्चा,
सम्मत्तदंसी ण करेति पावं ।।१२।। छायाः-जाति च वृद्धिं च इह दृष्ट्वा ,
भूतंत्विा प्रतिलेख्य सातम् । तस्मादतिविज्ञः परमिति ज्ञात्वा,
सम्यक्त्वदर्शी न करोति' पापम् ।।१२॥
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सम्यक् निरूपण
अन्वयार्थः - हे इन्द्रभूति (जाति) जन्म (च) और (बुबि) वृद्धपन को ! ( हुज्ज) इस संसार में (पास) देख कर (घ) और (भूतेहि ) प्राणियों करके (सास) साता को ( जाणे ) जान ( पडिलेह) देख ( तम्हा) इसलिये ( अतिविज्जो ) (प) गो मार्ग (कला) जान कर ( सम्मत्तदंती ) सम्यक्त्व दृष्टि वाले (पा) पाप को (ण) नहीं (करेति ) करता है ।
तू
भावार्थ:- हे गौतम! इस संसार में जन्म और मरण के महान् दुखों को देख और इस बात का ज्ञान प्राप्त कर कि सब जीवों को सुखप्रिय है और दुख अप्रिय है । इसलिये ज्ञानीजन मोक्ष के मार्ग को जानकर सम्यक्त्वधारी बनकर किंचित् मात्र भी पाप नहीं करते हैं ।
मूलः -- इओ बिद्ध समाणस्स, पुणो दुल्लहाओ तहच्चाओ, जे
संबोहि दुल्लहा । धम्मटुं वियागरे ॥ १३॥
छाया: - इसी विध्वंसमानस्य पुनः संबोधिदुर्लभा । ये धर्मार्थं व्याकुर्वन्ति ॥ १३॥
दुर्लभ तथा
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अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( ६ओ) यहाँ से (विद्ध समाणस्स ) मरने के बाद उसको ( पुणो ) फिर (संबोहि) धर्मबोध की प्राप्ति होना ( दुल्लहा ) दुर्लभ है। उससे भी कठिन (जे) जो (म्मटु ) धर्म रूप अर्थ का ( वियागरे ) प्रकाश करता है, ऐसा ( सहच्चाओ) तथा भूत का मानव शरीर मिलना अथवा सम्यक्त्व की प्राप्ति तथा योग्य भावना का उस में आना ( दुलहाओ ) दुर्लभ है ।
भावार्थ :- हे गौतम! जो जीव सम्यक्त्व से पतित होकर यहाँ से मरता है उसको फिर धर्म बोध की प्राप्ति होना महान् कठिन है। इससे मी तथ्य धर्म रूप अर्थ का प्रकाशन जिस मानव शरीर से होता रहता है। ऐसा मनुष्य देह अथवा सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग्य उच्च लेश्याओं ( भावनाओं) का आना महान कठिन है ।
|| इति षष्ठोऽध्यायः ॥
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ॐ
निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(सातवाँ अध्याय)
धर्म-निरूपण
॥ श्री भगवानुवाच ॥
मूल: - महब्बए पंच अणुव्वए य. तहेव पंचासव संवरे विरति इह स्सामणियंमि पन्ने, लवावसक्की समणेत्तिबेमि ||१||
छाया :- महाव्रतानि पञ्चाणुव्रतानि च
तथैव पञ्चास्त्रवान् विरतिमिह श्रामण्ये प्राज्ञः
य |
सवरंच |
लवापशाङ्की : श्रमण इति ब्रवीमि ॥१॥
अन्वयार्थः - हे मनुजो ! (ह) इस जिन शासन में (स्लामणियम ) चारित्र पालन करने में ( पन्ने) बुद्धिमान् और (लवावसक्की) कर्म तोड़ने में समर्थ ऐसे ( समणे) साधु (पंच) पाँच (महब्वए) महाव्रत (घ) और (अणुध्वए) पाँच अणुव्रत (य) और (तहेच) वैसे ही (पंचासवसंवरे थे ) पाँच आस्रव और संदर रूपा ( विरति ) विरति को ( तिबेमि ) कहता हूँ ।
भावार्थ:- हे मनुजो ! सच्चरित्र के पालन करने में महा बुद्धिशाली और कर्मों को नष्ट करने में समर्थ ऐसे श्रमण भगवान महावीर ने इस शासन में साधुओं के लिए तो पांच महाव्रत अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अकिंचन को पूर्ण रूप से पालने की आज्ञा दी है, और गृहस्थों के लिये
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धर्म-निरूपण
कम से कम पांच अणुव्रत और सात शिक्षानत यह बारह प्रकार के धर्म को धारण करना आवश्यकीय बताया है। वे इस प्रकार हैं-युलाओ पाणावायाओ बेरमणं-हिलते-फिरते स जीवों की बिना अपराध के देखमाल कर वेष वश मारने की नीयत से हिंसा न करना । मुसावापामो रमणं-जिस भाषा से अनर्थ पैदा होता हो और राम एवं भारत में भगासर हो. मी जोक विरुद्ध असत्य भाषा को तो कम से कम नहीं बोलना 1 लामो अविभावाणाओ वेरम-गुप्त रीति से किसी के घर में घुस कर, गांठ खोल कर, ताले में कुंजी लगा कर, लुटेरे की तरह पा और भी किसी तरह की जिससे व्यवहार मार्ग में मी लज्जा हो, ऐसी चोरी तो कम से कम नहीं करना 1 सरारसंतोसे'
–कूल के अग्रसरों की साक्षी से जिसके साथ विवाह किया है उस स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों को माता एवं बहिन और बेटी की निगाह से देखना
और अपनी स्त्री के साथ भी कम से कम अष्टमी, चतुर्दशी, एकादशी, द्वितीया, पंचमी, अमावस्या, पूर्णिमा के दिन का संभोग त्याग करना । इच्छापरिमाणेखेत, कूप, सोना, चाँदी, धान्य, पशु आदि सम्पत्ति का कम से कम जितनी इच्छा हो उतनी ही का परिमाण करना ताकि परिमाण से अधिक सम्पत्ति प्राप्त करने की लालसा रुक जाय । यह मी गृहस्थ का एक धर्म है। गृहस्थ को अपने छठे धर्म के अनुसार, विसिव्वयचारों दिशा और ऊंची-नीची दिशाओं में गमन करने का नियम कर लेना । सातवें में उपभोग-परिभोग-परिमाण --खानेपीने की वस्तुओं की और पहनने की वस्तुओं की सीमा बांधना । ऐसा करने से कभी वह तष्णा के साथ भी विजय प्राप्त कर लेता है। फिर उससे मुक्ति भी निकट आ जाती है । इसका विशेष विवरण यों है
मूल:-इंगाली, वण, साडी, भाडी फोडी सुबज्जए कम्म ।
वाणिज्ज चेव य दंत-लक्खरसकेसविसविसयं ॥२॥
१ गृहस्थ-धर्म पालन करने वाली महिलाओं को भी अपने कुल के
अग्रसरों की साक्षी से विवाहित पुरुष के सिवाय समस्त पुरुष वर्ग को पिता, भ्राता और पुत्र के समान समझना चाहिए। और स्वपति के साय मी कम से कम पर्व तिमियों पर कुशील सेवन का परित्याग करना चाहिए ।
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निन्ध-प्रवचन
छाया:--अङ्गार-वन-शाटी, भाटि: स्फोटि: सुवर्जयेत् कर्म।
बाणिज्यं चैव च दन्त-लाक्षा-रस-केश-विष-विषयम् ॥२॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (हंगाली) कोयले पड़वाने का विण) बन कटवाने का (माडी) गाड़ियां बनाकर बेचने का (माडी) गाड़ी, घोड़े, बैल, आदि से माड़ा कमाने का (फोडी) खाने आदि खुदवाने का (क्रम्म) कर्म गृहस्थ को (सुपज्जए) परित्याग कर देना चाहिए । (म) और (दत) हाथी दांत का (लाख) लाख का (रस) मधु आदि का (केस) मुगी, कबूतरों आदि के बेचने का (विसविसयं) जहर और शस्त्रों आदि का (वाणिज्ज) व्यापार (नेव) यह भी निश्चय रूप से गृहस्थों को छोड़ देना चाहिए।
भावार्थ:- हे आर्य ! गृहस्पधर्म पालन करने वालों को कोयले तयार करवा कर बेचने का या कुम्हार, लुहार, भड़भूज आदि के काम जिनमें महान अग्नि का आरंभ होता है, नहीं गारमा काहिए । 41, शा। करवा पा का वगैरह लेने का, इक्के, गाड़ी, वगैरह तैयार करवा कर बेचने का, बैल, घोड़े, अॅट आदि को भाड़े से फिराने का, या इषके, गाडी, वगैरह माले फिरा करके माजीविका कमाने का और खाने आदि खुदवाने का कर्म आजीवन के लिए छोड़ देना चाहिए । और व्यापार संबंध में हाथी दांत, चमड़े आदि का, लास्त्र का, मदिरा, शहद आदि का, कबूतर, बटेर, तोते, कुक्कुट, बकरे आदि का, संखिया, वच्छनाग मादि जिनके खाने से मनुष्य भर जाते हैं ऐसे जहरीले पदार्थों का, या तलवार, बन्दुक, बरछी आदि का व्यापार कम से कम गृहस्प-धर्म पालन करनेवाले को कभी भूल कर भी नहीं करना चाहिए। मूल:--एवं खु जंतपिल्लणकम्म, निलंछणं च दबदाणं ।
सरदहतलायसोस, असइपोसं च वज्जिज्जा ॥३॥ छाया:—एवं खलु यन्त्रपीडनकर्म, निर्लाञ्छनं दवदानम् |
सरद्रहत्तडागशोषं, असती पोषम् च वर्जयेत् ।।३।।
बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (एवं) इस प्रकार (खु) निश्चय करके (जंतपिल्लण) यंत्रों के द्वारा प्राणियों को बाधा पहुंचे ऐसा (घ) और (निल्लंधणं) अण्डकोष फुड़वाने का (देवदाणं) दावानल लगाने का (सरदह
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धर्म-निरूपण
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तलायसोस) सर, द्रह, तालाब की पाल फोड़ने का (च) और (असईपोस) दासी वेश्यादि के पोषण वा (कम्म) कर्म (वज्जिज्जा) छोड़ देना चाहिए ।
भावार्य हे गौतम ! ऐसे कई प्रकार के यंत्र हैं कि जिनके द्वारा पंचेन्द्रियों के अवयवों का छेदन-भेदन होता हो, अथवा यंत्रादिकों के डनाने से प्राणियों को पीड़ा हो, आदि ऐसे घंन सम्बन्धी-धंधों का गृहस्थ-धर्म पालन करने वालों को परित्याग कर देना चाहिए और बैल आदि को नपुंसक अर्थात् खस्सी करने का, दावानल सुलगाने का, बिना खोदी हई जगह पर पानी भरा हुआ हो, ऐसा सर, एवं खूब जहाँ पानी मरा हुआ हो सा ह तथा तालाब, यूया, बावड़ी आदि जिसके द्वारा बहुत से जीन पानी पीकर अपनी तुषा बुझाते हैं । उनकी पाल फोड कर पानी निकाल देने का, दासी वेश्या आदि को व्यभिचार के निमित्त या बहों को मान लि. बिल्ली आदि IT करना, आदि-आदि कर्म गृहस्थी को जीवन भर के लिए छोड़ देना ही सच्या गृहस्थ-धर्म है। गृहस्थ का आठयां धर्म अगत्थदंडवेरमणं-हिसक विचारों, अनर्थकारी बातों आदि का परित्याग करना है। गृहस्थ का नौवा धर्म यह है, कि सामायं-दिन भर में कम से कम एक अन्तर्महतं । ४८ मिनट) तो ऐसा बितादें कि संसार से बिलकुल ही विरक्त हो कर उस समय यह आस्मिक गुणों का चिन्तबन कर सकें। गृहस्थ का दशवा धर्म है वेसावागासियं-जिन पदार्थों की छूट रक्खी है, उनका फिर भी त्याग करना और निर्धारित समय के लिए मांसारिक झंझटों से पृथक् रहना । ग्यारहवां धर्म यह है कि पोसहोववासे-- कम से कम महीने भर में प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या को पौषध करे अर्थात् इन दिनों में दे सम्पूर्ण सांसारिक झंझटों को छोड़ कर अहोरात्रि आध्यात्मिक विचारों का मनन किया करें। और बारहवां गृहस्प का धर्म यह है कि अतिहिसंयक्षस्सविभागे-अपने घर आये हुए अतिथि का सत्कार कर उन्हें भोजन वे देते रहें। इस प्रकार गृहस्थ को अपने गृहस्पधर्म का पालन करते रहना चाहिये ।
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१ आगार 2 The eleventh vow of a layman in which he has to abandon
all sinful activities for a day and has to remain in a Reli gious place fasting.
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
यदि इस प्रकार गृहस्य का धर्म पालन करते हुए कोई उत्तीर्ण हो जाय और वह फिर आगे बढ़ना चाहे तो इस प्रकार प्रतिमा धारण करें गृहस्थ जीवन को सुशोभित करे ।
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मूलः -- दंसणवयसामाइयपो सहपांडेमा य बंभ अचित्त । आरंभपेस उदि वज्जए समणभूए य ||४||
छाया: - दर्शनव्रत सामायिकपौषघप्रतिमा व ब्रह्म अचित्तम् । आरंभप्रेषणोद्दिष्टवर्जकः,
श्रमणभूतश्च ||४||
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( दंसणवयसामाहय ) दर्शन, व्रत, सामायिक, पडिमा ( ) और ( पोसह) पौषध (य) और (पडिमा ) पाँचवों में पाँच बातों का परित्याग वह करे (बंभ ) ब्रह्मचयं पाले (अचित्ते ) सचित का भोजन न करे (आरंभ) आरंभ त्यागे (पेस) दूसरों से आरम्भ करवाने का त्याग करना, ( उद्दिट्ठवज्जर) अपने लिए बनाये हुए भोजन का परित्याग करना (य) और अन्तिम पहिमा में (समणभूए) साधु के समान वृत्ति को पालना ।
भावार्थ:- हे गौतम! गृहस्थधर्म की ऊँची पायरी पर चढ़ने की विधि इस प्रकार है: - पहले अपनी श्रद्धा की ओर दृष्टिपात करके वह देख ले, कि मेरी श्रद्धा में कोई भ्रम तो नहीं है। इस तरह लगातार एक महीने तक श्रद्धा के विषय में ध्यानपूर्वक अभ्यास वह करता रहे। फिर उसके बाद दो मास तक पहले लिये हुए व्रतों को निर्मल रूप से पालने का अभ्यास वह करे । तीसरी पडिमा में तीन मास तक यह अभ्यास करे कि किसी भी जीव पर रागद्वेष के भावों को वह न आने दें। अर्थात् इस प्रकार अपना हृदय सामायिक मय बना ले। चौथी पडिमा में चार महीने में छः-छः के हिसाब से पौषध करे । पाँचर्थी पडिमा में पाँच महीने तक इन पाँच बातों का अभ्यास करे(१) पौषध में ध्यान करे, (२) श्रृंगार के निमित्त स्नान न करे, ( ३ ) रात्रि भोजन न करे ( ४ ) पौषध के सिवाय और दिनों में दिन का ब्रह्मचर्य पाले, ( ५ ) रात्रि में ब्रह्मचर्यं की मर्यादा करता रहे। छटी पडिमा में छः महीने तक सब प्रकार से ब्रह्मचर्य के पालन करने का अभ्यास वह करे। सातवीं परिमा में सात महीने तक सचित्त भोजन न खाने का अभ्यास करें। आठवीं परिमा में आठ महीने तक स्वत: कोई आरंभ न करे। नौवीं एजिमा में नौ महीने
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धर्म-निरूपण
तक दूसरों से भी आरम्भ न करवाये। दशनी पडिमा म दश महीने तक अपने लिए बनाया हा मोजन न खावे । ग्यारहवीं पडिमा में ग्यारह महीने तक साधु के समान क्रियाओं का पालन वह करता रहे | शक्ति हो तो बालों का लोच मी करे, नहीं शक्ति हो तो हजामत करवाले, खुली दण्डी का रजोहरण बगल में रखे । मुंह पर मुंह-पत्ता हुई रवये । दोषों को दाल कर आपने ज्ञाति वालों के यहीं से भोजन लावे। इस प्रकार उत्तरोत्तर गुण बढ़ाते हुए प्रथम पडिमा में एकान्तर तप करे और दूसरी पडिमा में दो महीने तक बैले-बेले पारणा करे। इसी तरह ग्यारहवीं पडिमा में ग्यारह महीने तक ग्यारह-ग्यारह उपवास करता रहे। अर्थात एक दिन मोजन करे फिर ग्यारह उपवास करे । फिर एक दिन भोजन करे। यों लगातार ग्यारह महीने तक ग्यारह का पारणा करे।।
इस प्रकार गृहस्थ-धर्म पालते-पालते अपने जीवन का अंतिम समय यदि आ जाय तो अपच्छिमा मरणति था लेहणा असणाराहणा-सब सांसारिक व्यवहारों का सब प्रकार से आजन्म के लिए परित्याग करके संथारा' (समाधि) धारण करले, और अपने त्याग धर्म में किसी भी प्रकार की दोषापत्ति भूल से यदि हो गयी हो, तो आलोचक के पास उन बातों को प्रकाशित कर दे । जो वे प्रायश्चित्त उसके लिए दें उसे स्वीकार कर अपनी आत्मा को निर्मल बनाये फिर प्राणीमात्र पर यों मैत्री भाव रखे । मूल:- खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे ।
मित्ती मे सन्वभूएस, वेरं मज्झं ण केणई ।।५।। छाया:-क्षमयामि सर्वान् जीबान्, सर्वे जीवा क्षमन्तु मे ।
मंत्री में सर्वभूतेषु, बरं मम न केनापि ॥५॥ अन्वयार्थ:- (सवे) सब (जीवा) जीवों को (म्बामेमि) क्षमाता हूँ। (मे) मुझे (सधे) सब (जीवा) जीव (नमंतु) क्षमा करो (सम्वभूएसु) प्राणी मात्र में (मे) मेरी (मिती) मंत्री मावना है ( केणई) किसी के भी साथ (मज्म) मेरा (वर) वर (न) नहीं है।
1 Act of meditating that a particular person may die in 80
undistracted coodition of mind.
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निम्रप-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम ! उत्तम पुरुष जो होता है वह सदैव वसुधैव कुटुम्हकम् जैसी भावना रखता हा याचा के द्वारा भी यों बोलेगा कि सब ही जीव स्था छोटे और बड़े उनसे क्षमा याचता है। अतः वे मेरे अपराध को क्षमा करें | चाहे जिस जाति व कुल का हो उन सबों में मेरी मैत्री भावना है । भले ही वे मेरे अपराधी क्यों न हों, तदपि उन जीवों के साथ मेरा किसी भी प्रकार वैर-विरोध नहीं है । बस, उसके लिए फिर मुक्ति कुछ मी दूर नहीं है ।
मूल:-अगारिसामाइअंगाई सड्ढी काएण फासए ।
पोसह दुहओ पक्खं, एगराइं न हावए ।।६।। छाया:-आगारीसामायिकांगानि, श्रद्धी कायेन स्पृशति ।
पौषधमुभयोः पक्षयोः, एकरात्रं न हाययेत् ।।६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (सड्ली) श्रमायान् (अगारि) गृहस्थी (सामाइअंगाई) सामायिक के अंगों को (काएण) काया के द्वारा (फासए) स्पर्श करे, और (दुहओं) दोनों (पखं) पक्ष को (पोसह) पोषध करने में (एगराई) एक रात्रि की भी (न) नहीं (हावए) न्यूनता करे ।
भावार्थ:-हे आर्य ! जो गृहस्थ है, और अपना गृहस्थ-धर्म पालन करता है, वह श्रद्धावान् गृहस्थ सामायिक भाव के अंगों की अर्थात् समता शान्ति आदि गुणों की मन, वचन, काया के द्वारा अभ्यास के साथ अभिवृद्धि करता रहे। और कृष्ण शक्ल दोनों पक्षों में कम से कम छ: पौषध करने में तो न्यूनता एक रात्रि की भी कमी न करे । मुल.—एवं सिक्खासमाधणे, गिहिवास वि सुब्बए ।
मुच्चई छविपवाओ, गच्छे जखसलोगयं ॥७॥ छाया:-एवं शिक्षासमापन्नः, गृहिवासेऽपि सुव्रतः ।
मुच्यते छवि पर्वणो, गच्छेद् यक्षसलोकताम् ।।७।। अन्वयार्थः-है इन्द्रभूति ! (एव) इस प्रकार (सिक्सासमावणे) शिक्षा से युक्त गृहस्थ (गिहिवासे वि) गृहबास में भी (सुब्बए) अच्छे व्रत वाला होता
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धर्म निरूपण
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है । और वह अन्तिम समय में (छविपदाओ ) चमड़ी और हड्डी वाले शरीर को ( मुच्चई) छोड़ता है । और (जक्स लोगयं ) यक्ष देवता के सदृश स्वर्गलोक को ( गच्छे ) जाता है ।
भावार्थ :- हे गौतम! इस प्रकार जो गृहस्थ अपने सदाचार रूप गृहस्थधर्म का पालन करता है, वह गृहस्थाश्रम में भी अच्छे प्रतवाला संयमी होता है। इस प्रकार गृहस्थधर्म के पालते हुए यदि उसका अन्तिम समय भी आ जाय तो भी हड्डी, चमड़ी और मास निर्मित इस बारिश को छोड़कर यक्ष देवताओं के सदृश देवलोक को प्राप्त होता है
मूल:- दीहाउया इड्डिमंता, समिद्धा कामरूविणो । अगोववन्नसंकासा, भुज्जो अच्चिमालिप्पभा ||८||
छाया - दीर्घायुषः द्धिमन्तः समृद्धाः कामरूपिणः । अधुनोत्पन्नसंकाशाः, भूयोऽचमालिप्रभाः ॥८॥
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! जो गृहस्थधर्म पालन कर स्वर्ग में जाते हैं वे वहाँ (हाउया) दीर्घायु ( दिता ) ऋद्धिमान् ( समिद्धा ) समृद्धिशाली (कामरूविणो इच्छानुसार रूप बनाने वाले (अगुणोववन्नसंकासा) मानो तत्काल ही जन्म लिया हो जैसे (भुज्जो अविमालिप्पमा) और अनेकों सूर्यो की प्रभा के समान देदीप्यमाग होते हैं ।
भावार्थ:- हं गौत्तम ! जो गृहस्थ गृहस्थ धर्मं पालते हुए नीति के साथ अपना जीवन बिताते हुए स्वर्ग को प्राप्त होते हैं, वे वहाँ दीर्घायु, ऋद्धिमान, समृद्धिशाली, इच्छानुकूल रूप बनाने की शक्तियुक्त तत्काल के जन्मे हुए जैसे, और अनेकों सूर्यो की प्रसा के समान देदीप्यमान होते हैं ।
मूल:- ताणि ठाणाणि गच्छति, सिक्खिता संजमं तवं । भिक्खाए वा गिहत्थे वा जे संतिपरिनिब्बुडा ||६||
1 External Physical body having flesh, blood and bone.
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निर्गन्य-प्रवचन छायाः-तानि स्थानानि गच्छन्ति, शिक्षित्वा संयमं तपः ।
भिक्षुका वा गृहस्था वा, ये सन्ति परिनिवृताः ।।९।। __ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (संतिपरिनिव्वुडा) मान्ति के द्वारा चहुँ ओर से संताप रहित (जे) जो (मिक्खाए) भिक्षु (वा) अथवा (मिहत्ये) गृहस्थ हों (संजमं) संयम (स) तप को (सिक्खित्ता) अभ्यास करके (ताणि) उन दिव्य (ठाणाणि) स्थानों को (गच्छंति) जाते हैं । ___ भाार्थ:-हे गौतम ! क्षमा के द्वारा सकल संतापों से रहित होने पर साधु हो या गहस्थ चाहे जो हो, जाति-पाति का यहां कोई गौरव नहीं है। संयमो जीवन वाला और तपस्वी हो वही दिव्य स्वर्ग में जाता है। मूलः–बहिया उड्ढमादाय, नाकक्खे कयाइ वि ।
पुबकम्मक्खयहाए, इमं देहं समुद्धरे ।।१०।। छाया: वाह्यमूर्ध्वमादाय, नावकांक्षेत् कदापि च ।
पूर्वकर्मक्षयार्थ, इमं देहं समुद्धरेत् ॥१०॥ अश्वपार्षः-हे इन्द्रमूति ! (बहिया) संसार से बाहर (उड्ढ़) ऊध्वं, ऐसे मोम की अभिलाषा (आदाय) ग्रहण कर (कयाइ वि) कभी मी (नाकंक्ले) विषयाधि सेवन की इच्छा न करे, और (पुटबकम्मक्खयट्ठाए) पूर्व संचित कर्मों को नष्ट करने के लिए (इमं) इस (देह) मानव शरीर को (समुद्धरे) निर्दोष वृत्ति से धारण करके रक्खे ।
भावार्थ:-हे गौतम ! संसार से परे जो मोक्ष है, उसको लक्ष्य में रख कर के कभी भी कोई विषयादि सनान की इच्छा न करे। और पूर्व के अनेक भवों में किये हुए कर्मों को नष्ट करने के लिए इस शरीर का, निर्दोष आहारादि से पालन-पोषण करता हुआ अपने मानव-जन्म को सफल बनावे । मूल:-दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा ।
मुहादाई मुहाजीवी, दो वि गच्छति सोग्गई ।।११।। छाया:-दुर्लभस्तु मुधादायी, मुधाजीव्यपि दुर्लभः ।
मुधादायी मुधाजीबो, द्वापि गच्छतः सुगतिम् ॥११॥
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धर्म-निरूपण
शम्बयार्थः--हे छन्दमूति ! (मुहादाई) स्वार्थ रहित भावना से देने वाला व्यक्ति (दुल्लहा) दुर्लम है (3) और (मुहाजीवी) स्वाधरहित मावना से दिये हुए भोजन के द्वारा जीवन निर्वाह करने वाले (वि) भी (दुस्लहा) दुर्लम है, (मुहादाई) ऐसा देने वाला और (मुहामीवी) ऐसा लेने वाला (दो वि) दोनों ही (सोग्गइं) सुगति को (गच्छंति) जाते हैं। __ भाषा..... म ! 1कार कि तुम प्राप्त होने की स्वार्थ रहित भावना से जो दान देता है, ऐसा व्यक्ति मिलना दुर्लभ ही है । और देने पाले का किसी भी प्रकार सम्बन्ध व कार्य न करके उससे निःस्वार्थ ही भोजन ग्रहण कर अपना जीवन निर्वाह करते हों, ऐसे महान् पुरुष भी कम हैं । अतएव बिना स्वार्थ से देने वाला मुहादाई' और निःस्पृह भाव से लेने वाला मुहाजीवी' दोनों ही सुगति में जाते हैं।
मूल:-संति एगहि भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा।
__ गारत्थेहिं य सव्वेहिं, साबो संजमुत्तरा ॥१२।। छाया:--सन्त्येकेभ्यो भिक्षुभ्यः, गृहस्था: संयमोत्तराः।
अगारस्थेभ्य: सर्वेभ्यः, साधवः संयमोत्तराः ।।१२।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (एगेहिं) कितनेक (मिक्खूहि) शिथिल साधुओं से (गारस्था) गृहस्प (संजमुत्तरा) संयमी जीवन बिताने में अच्छे (संति) होते है । (य) और (सम्वेहि) देशविरति वाले मब (पारस्थेहिं) गृहस्थों से (संजमुत्तरा) निर्दोष संयम पालने वाले श्रेष्ठ हैं।
भावार्थ-हे आर्य ! कितने शिथिलाचारी माधुओं से गृहस्थ-धर्म पालने वाले ग्रहस्थ भी अच्छे होते हैं जो अपने नियमों को निर्दोष रूप से पालन करते रहते हैं । और निर्दोष संयम पालने वाले जो साधु हैं, वे देवाविरति वाले सब गृहस्थों से बहकर हैं।
1 Giving without getting any thing in return. 2 Maintaining oneself without doing any service.
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निर्गन्य-प्रवचन
मूल:-चौराजिणं नगिणिणं, जड़ी संघाडि मडिणं ।
एयाणि विन ताति, दुस्सील परियागयं ।।१३।। छायाः-चीराजिनं नग्नत्वं जटित्वं संघाटित्वमुण्डित्वम् ।
एतान्यपि न वायन्ते, दुःशीलं पर्यायगतम् ॥१३|| अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (दुस्सीलं) दुराचार का धारक (चीरजिणे) केवल वल्कल और चम के नस्त्र मा मिशि2 अवस्थापन (जडी) जटाधारी (संपाडि) वस्त्र के टुकटे सांध साँध कर पहनने बाला (मुंडिणं) केशों का मुण्डन' या लोच करने वाला (एयाणि) ये सब (परियागयं) दीक्षा धारण करके मी (न) नहीं (ताइति) रक्षित होता है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! संयमी जीवन बिताये विना केवल दरख्तों की छाल के वस्त्र पहनने से या किसी किस्म के चर्म के वस्त्र पहनने से, अथवा नान रहने से, अथवा जटाधारण करने से, अथवा फटे-टूटे कपड़ों के टुकड़ों को सीकर पहनने से, और के.शों का मुण्डन व लोचन करने से कमी मुक्ति नहीं होती है । इस प्रकार भले ही वह साधु कहलाता हो, पर वह दुराचारी न तो अपना स्वत: का रक्षण कर पाता है, और न औरों ही का । अतः स्व-परकल्याण के लिए शील-सम्यक् चारित्र का पालन करना ही श्रेयस्कर है ।
मुल: अत्थंगयंमि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए।
आहारमाइयं सवं, मणसा वि न पत्थए ।।१४।। छायाः-अस्तंगत आदित्ये, पुरस्ताच्यानुद्गते ।
आहारमादिक सर्व, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् ।।१४।।
अन्वयार्थ:--हे इन्द्रभूति ! (आइच्चे) सूर्य (अत्यंगमि) अस्त होने पर (य) और (पुरस्था) पूर्व दिशा में (अशुगए) उदय नहीं हो वहाँ तक (आहारमाझ्यं) आहार आदि (सर्व) सब को (मणसा) मन से (वि) भी (न)न (पत्पए) चाहे ।
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धर्म-निरूपण
भावार्थ:-हे गौतम ! सूर्य अस्त होने के पश्चात् जब तक फिर पूर्व दिशा में सूर्य उदय न हो जावे उसके बीच के समय में गृहस्थ सब तरह के पेय अपेय पदार्थों को खाने-पीने की मन से भी कभी इच्छा न करे । भूल:-जायरूवं जहामठ्ठ, निद्धतमलपावगं ।
__ रागदोसभयातीतं, तं वयं बूम माहणं ॥१५॥ छायाः-जातरूप यथा मृष्टं निध्मातमलपापकम् ।
रागद्वेष भयातीतं, तं वयम् बूमो ब्राह्मणम् ।।१५।। __ अग्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (मट्ठ) कसौटी पर कसा हुआ और (निद्धतमलपावगं) अग्नि से नष्ट किया है मल को जिस के ऐसा (जायहर्ष) सुवर्ण गुण युक्त होता है। वैसे ही जो (रागदोसमयातीतं) राग, देष और भय से रहित हो (तं) उसको (वयं) हम (माहणं) ब्राह्मण (बूम) कहते हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिस प्रकार कसौटी पर कसा हुआ एवं अग्नि के ताप से दूर हो गया है मैल जिसका ऐसा सुवर्ण ही वास्तव में सुवर्ण होता है। इसी तरह निर्मोह और पान्ति रूप कसौटी पर कसा हुआ तथा ज्ञान रूप अग्नि से जिसका 'राग द्वेष रूप मैल दूर हो गया हो उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं। मूल:-तवस्सियं किसं दंतं, अवचियमंससोणियं ।
सुब्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं बूम माहणं ॥१६।। छाया:-तपस्विनं कृशं दान्तं. अपचितमांस शोणितम् ।
सुव्रतं प्राप्त निर्वाणं, तं वयम् अ॒मो ब्राह्मणम् ॥१६॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! जो (तस्सिय) तपस्या करने वाला हो, जिससे वह (किसं) दुर्बल हो रहा हो (दंत) इन्द्रियों को दमन करने वाला हो, जिससे (अचियमंससोणिज) सूख गया है मांस और खून जिसका, (सुग्घयं) व्रत नियम सुन्दर पालता हो (पत्तनिवाणं) जो तृष्णारहित हो (तं) उसको (वयं) हम (माहणं) ब्राह्मण (बूम) कहते हैं ।
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निग्रंन्य-प्रवचन
____भावार्ष:-हे गौतम ! तप करने से जिसका शरीर दुबल हो गया हो, इन्द्रियों का दमन करने से लोहू, मांस जिसका सूख गया हो, प्रत नियमों का सुग्दर रूप से पालन करने के कारण जिसका स्वभाव शान्त हो गया हो, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं। मुल:-जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा ।
एवं अलित्त कामेहि, तं वयं बूम माहणं ।।१७।। छाया:-- यथा पद्म जले जातम्, नोपलिप्यते वारिणा ।
एवम लिप्तं कामः, तं वयम् वमो ब्राह्मणम् ॥१७॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (पोम) कमल (जले) जल में (जायं) उत्पन्न होता है तो मी (वारिणा) जल से (नोवलिप्पइ) वह लिप्त नहीं होता है (एवं) ऐसे ही जो (कामेहि) काम भोगों से (अलित) अलिप्स है (तं) उसको (वर्म) हम (माहग) बाह्मण (बूम) कहते हैं ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे कमल जल में उत्पन्न होता है, पर जल से सदा अलिप्त रहता है, इसी तरह कामभोगों से उत्पन्न होने पर भी विषयबासना सेवन से जो सदा दूर रहता है, वह किसी भी जाति व कौम का क्यों न हो, हम उसी को ब्राह्मण कहते हैं। मूलः-न वि मुडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो ।
न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ||१८| छाया:-नाऽपि मुण्डितेन श्रमणा, न ओंकारेण ब्राह्मणः ।
न मुनिरण्ययासेन, कुशचीरेण न तापसाः ।।१८।। अग्षयार्य:-- हे इन्द्रभूति ! (मुंडिएण) मुंडन व लोचन करने से (समणो) श्रमण (म) नहीं होता है। और (ओंकारेण) ओंकार पाट मात्र जप सेने से (वंभणो) कोई ब्राह्मण (वि) भी (न) नहीं हो सकता है। इसी तरह (रणवासेणं) अटवी में रहने से (मुणी) मुनि (न) नहीं होता है। (कुसवीरेण) दर्भ के वस्त्र पहनने से (तावसो) तपस्वी (न) नहीं होता है।
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धर्म-निरूपण
भावार्थ:-हे गौतम ! केवल सिर मुंडाने से या लुंघन मात्र करने से ही कोई साध नहीं बन जाता है। और न ओंकार शब्द मात्र के रटने से हो कोई माह में पाकला है। तीन मेगन सम्न पदवी में निवास कर लेने से ही कोई मुनि नहीं हो सकता है। और न केवल घास विशेष अर्थात् दर्म का कपड़ा पहन लेने से कोई तपस्वी बन सकता है।
मूल:-समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो ।
नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो ॥१६॥ छायाः-समतया श्रमणो भवति, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः ।
ज्ञानेन च मुनिर्भवति, तपसा भवति तापस: ११९|| ___ अन्वयार्थ:-है इन्द्र भूति | (समयाए) शत्रु और मित्र पर समभाव रखने से (समणो) श्रमण-साधु (होइ) होता है। (बंभचेरेण) ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने से (बंभणो) ब्राह्मण होता है (य) और इसी तरह (नाणेणं) ज्ञान सम्पादन करने से (मुणी) मुनि (होइ) होता है, एवं (तवेणं) तप करने से (तावसो) तपस्वी (होइ) होता है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! सर्व प्राणी मात्र, फिर चाहे वे शत्रु जैसा बत्तवि करते हों या मित्र जैसा, ब्राह्मण, श्वःपाक, चाहे जो व्यक्ति हो, उन सभी को समदृष्टि से जो देखता हो, वही साधु है । ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला किसी भी कौम का हो, वह ब्राह्मण ही है, इसी तरह सम्यक् जान सम्पादन कर के उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाला ही मुनि है । ऐहिक सुखों की वांछा रहित बिना किसी को कष्ट दिये जो तप करता है, वही तपस्की है ।
मूल:-कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ ।
कम्मुणा वइसो होइ, सुबो हवइ कम्मुणा ॥२०॥
छाया:-कर्मणा ब्राह्मणो भवति, कर्मणा भवति क्षत्रियः ।
वैश्यः कर्मणा भवति, शूद्रो भवति कर्मणा ॥२०॥
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निर्गन्ध-प्रवचन
अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (कम्मुणा) क्षमादि अनुष्ठान करने से (बमणो) ब्राह्मण (होइ) होता है, और (कम्मुणा) पर-पीड़ाहन व रक्षादि कार्य करने से (खत्तिओ) अत्री (होइ) होता है। इसी तरह (कम्मुणा) नीति पूर्व का व्यवहार कर्म करने से (वइसो) चैश्य (होइ) होता है। और (कम्मुणा) दूसरों को कष्ट पहुँपाने रूप कायं जो करे वह (सुद्दो) शूद्र (हवइ) होता है।
भावा:-हे गौतम ! बाहे सद में कुल का नुष्य क्यों न हो, जो क्षमा, सत्य, शील, तप आदि सदनुष्ठान रूप कर्मों का कर्ता होता है, वही ब्राह्मण है। केवल छापा सिलक कर लेने से ब्राह्मण नहीं हो सकता है। और जो भय, दुःख आदि से मनुष्यों को मुक्त करने का कर्म करता है, वही क्षत्रिय अर्थात् राजपुत्र है । अन्याय पूर्वक राज करने से तथा शिकार खेलने से कोई मी व्यक्ति आज तक क्षत्रिय नहीं बना । इसी तरह नीतिपूर्वक जो व्यापार करने का फर्म करता है वही वैश्य है। नापने, तौलने, लेन, देन आदि सभी में अनीतिपूर्वक व्यवहार कर लेने मात्र से कोई वैश्य नहीं हो सकता है ।
और जो दूसरों को संताप पहुंचाने वाले ही कमों को करता रहता है वहीं शूद है।
।। इति सप्तमोऽध्याय:॥
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(आठवां अध्याय) अम्मचर्य मिपा
॥ श्रीभगवानुवाच ॥ मूल:-आलओ थीजणाइण्णो, थीकहा य मणोरमा ।
संथवो चेव नारीणं, तेसिं इंदियदरिसणं ॥१॥ कू इअं रुइअं गीअं, हासभुत्तासिआणि अ । पणीअं भत्तपाणं च, अइमायं पाणभोअणं ।।२।। गत्तभूसणमिळं च; कामभोगा य दुज्जया ।
नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं ताल उडं जहा ।।३।। छाया:-आलयः स्त्रीजनाकीर्णः, स्त्रीकथा च मनोरमा ।
संस्तवश्चैव नारीणाम्, तासामिन्द्रियदर्शनम् ॥१॥ कूजितं रुदितं गीतं, हास्यभुक्तासितानि च। प्रणीतं भक्तपानं च, अतिमात्र पानभोजनम् ।।२।। गात्र भूषणमिष्टं च, कामभोगाश्च दुर्जयाः ।
नरस्यात्मगवेषिणः, विषं तालपुटं यथा ।।३।। अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (पीजणाइण्णो) स्त्री जन सहित (आसओ) मकान में रहना (य) और (मणोरमा) मन-रमणीय (पीकहा) स्त्री-कथा कहना (अव) और (नारीणं) स्त्रियों के (संथषो) संस्तम अर्थात् एक आसन पर बैठना (अ) और (तसि) स्त्रियों का (इदिनदरिसणं) अङ्गोपांग देखना, ये ब्रह्म
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८८
निर्ग्रन्थ-प्रवचन
चारियों के लिए निषिद्ध है। (अ) और (कूड़ा) कूजित (सइ) रुदित (गीअं) गीत (हास) हास्य वगैरह (मुत्तासिआणि) स्त्रियों के साथ पूर्व में जो कामचेष्टा की है, उसका स्मरण (च) और नित्य (पणीअं) स्निग्ध (मत्तपाण) आहार पानी एवं (अइमाय) परिमाण से अधिक (पाणमोअणं) आहार पानी का खाना पीना (च) और (इ8) प्रियकारी (गत्त भूसणं) शरीर शुश्रूषा विभूषा करना ये सब ब्रह्मचारी के लिए निषिद्ध हैं। क्योंकि {दुज्जया) जीतने में कठिन हैं ऐसे ये (काममोगा) काम माग (अत्तगवेसिस्स) आत्मगवेषी ब्रह्मचारी (नरस्स) मनुष्य के (तालउड) तालपुट (विसं) जहर के (जहा) समान हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! स्त्री व नपुंसक (हीजड़े) जहाँ रहते हों यहाँ ब्रह्मचारो को नहीं रहना चाहिए। स्त्रियों की कथा का कहना, स्त्रियों के आसन पर बैठना, उनके अंगोपांगों को देखना, भीत, प्रेच, टाटी के अन्तर पर स्त्री पुरुष सोते हुए हों वहाँ ब्रह्मचारी को नहीं सोना चाहिए। और जो पूर्व में स्त्रियों के सामना की है रामा मरः" , मन्त्रप्रति निष्प प्रोजन करना, परिमाण से अधिक भोजन करना एवं शरीर की शूथषा-विभूषा करना ये सब ब्रह्मचारियों के लिए निषिद्ध हैं। क्योंकि ये दुजंयी कामभोग ब्रह्मचारी के लिए तालपुट जहर के समान होते है।
मूल:-जहा कुक्कुडपोअस्स, निच्च कुललओ भयं ।
एवं खु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं ।।४।। छाया:-यथा कुक्कुटपोतस्य, नित्यं कुललतो भयम् ।
एवं खलु ब्रह्मचारिण:, स्त्रीविद्महतो भयम् ।।४।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्र मूति ! (जहा) जैसे (कुक्कुडपोअस्स) मुर्गी के बच्चे को (निच्च) हमेशा (कुललओ) बिल्ली से (मयं) भय रहता है। (एवं) इसी प्रकार (स्नु) निश्चय करके (बं भयारिस्स) ब्रह्मचारी को (इस्थीविग्गहओ) स्त्री शरीर से (मयं) भय बना रहता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! ब्रह्मचारियों के लिए स्त्रियों को विषयजनित वातासाप तथा स्त्रियों का संसर्ग करना आदि जो निषेध किया है, वह इसलिए है कि जैसे मुगीं के बच्चे को सदैव बिल्ली से प्राणवध का भव रहता है, अतः
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ब्रह्मपर्य-निरूपण
८९ अपनी प्राण रक: सिर वह समता रहता है । सो नरहरियों को स्त्रियों के संसर्ग से अपने ब्रह्मचर्य के नष्ट होने का भय सदा रहता है । अतः उन्हें स्त्रियों से सदा सर्वदा दूर रहना पाहिए । मूलः–जहा बिरालावसहस्स मुले,
__ न सूसगाणं बसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे,
न बम्भयारिस्स खमो निवासो ।।५।। छाया:--यथा विडालावसथस्य मूले, न मूषकाणां वसति: प्रशस्ता ।
एवमेव स्त्रीनिलयस्य मध्ये, म ब्रह्मचारिणः क्षमो निवासः ।।५।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (बिरालावसहस्स) बिलावों के रहने के स्थानों के (मूले) समीप में (मूसगाण) चूहों का (बसही) रहना (पसत्या) अच्छा-कल्याणकर (न) नहीं है, (एमेव) इसी तरह (इत्थीनिलयस्स) स्त्रियों के निवासस्थान के (मज्ञ) मध्य में (बम्मयारिस्स) ब्रह्मचारियों का (निवासी) रहना (स्लमो) योग्य (न) नहीं है। ___ भावार्थ:-है आर्य ! जिस प्रकार बिलाधों के निवासस्थानों के समीप मूहों का रहना बिलकुल योग्य नहीं अर्थात् खतरनाक है । इसी तरह स्त्रियों के रहने के स्थान के समीप ब्रह्मचारियों का रहना भी उनके लिए योग्य नहीं है । मुल: हत्थपायपडिछिन्नं, कन्ननासबिगप्पिों।
अवि वाससयं नारि, बंभयारी विवज्जए ।।६।। छायाः-हस्तपादप्रतिच्छिन्ना, कर्णनासाविकल्पिताम् ।
वर्षशतिवामापि नारी, ब्रह्मचारी विवर्जयेत ॥६॥ मम्वयार्थ:-हे इन्दभूति ! (हत्यपायपरिचिन्न) हाथ-पांव छेदे हुए हों, (कन्ननासविगप्पिक्ष) कान, नासिका विकृत आकार के हों ऐसी (वाससयं) सौ वर्ष वाली' (अवि) मी (नारि) स्त्री का संसर्ग (बंमयारी) ब्रह्मचारी (विवज्जए) छोड़ थे।
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I
निर्ग्रथ-प्रवचन
भावार्थ :- हे गौतम! जिसके हाथ-पैर कटे हुए हों, कान-नाक खराब आकार वाले हों, और अवस्था में सौ वर्ष वाली हो, तो मी ऐसी स्त्री के साथ संसर्ग परिचय करना, ब्रह्मचारियों के लिए परित्याज्य है ।
६०
चारुल्ल विअपेहिअं । इत्थी तं न निज्झाए, कामरागविवढणं ॥७॥
मूल:- अंगपच्चंग संठाणं,
छाया: - अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानं चारुल्लपितप्रेक्षितम् । स्त्रीणां तन्न निध्यायेत्, कामरागविवर्धनम् ॥७॥
S
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति । ब्रह्मचारी (काम) काम-राग आदि को बढ़ाने वाले ऐसे ( इत्मीनं) स्त्रियों के ( तं) तत्सम्बन्धी ( अंगपरजंग संठाणे ) सिर नयन आदि आकार - प्रकार और ( चाल्लविअपेहिनं ) सुन्दर बोलने का रंग एवं नयनों के कटाक्ष बाण की ओर (न) न ( निज्झाए ) देखे ।
भावार्थ:-- हे गौतम ब्रह्मचारियों को कामराग बढ़ाने वाले जो स्त्रियों के हाथ पाँव, आँख, नाक, मुंह आदि के आकार-प्रकार हैं उनकी ओर, एवं स्त्रियों के सुन्दर बोलने की कब तथा उनके नयनों के तीक्ष्ण बाणों की ओर कदापि न देखना चाहिए ।
मूलः णो रक्खसीसु गिज्झिज्जा, मंडवच्छासुणेगचित्तासु । जाओ पुरिसं पलोभित्ता, खेलंति जहा वा दासेहि ||८||
छाया:--- न राक्षसीषु गृध्येत्, गण्डव-क्षस्स्वनेकचित्तासु ।
याः पुरुषं प्रलोभप्प, क्रीडन्ति यथा दासैरिव ||८||
अम्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति । ब्रह्मचारी को (गंडच्छा) फोड़े के समान वक्षस्थल वाली ( अणेगचित्तासु) चंचल चित्त वाली (रक्सी) राक्षसी स्त्रियों में (गो) नहीं (गिमज्जा ) गुढ होना चाहिए, क्योंकि ( जाओ) जो स्त्रिय (पुरिसं ) पुरुष को (पलोभिसा) प्रलोभित करके ( जहा ) जैसे ( दासेहि) दास की (वा) तरह (खे ंति) क्रीडा कराती हैं ।
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ब्रह्मचर्य-निरूपण
___ भावार्थ:-हे गौतम ! ब्रह्मचारियों को फोड़े के समान स्तनवाली एवं चंचल चित्तवासी, जो बातें तो किसी दूसरे से करे, और देखे दूसरे ही की ओर ऐसी अनेक चित्तबाली, राक्षसियों के समान स्त्रियों में कभी आसक्त नहीं होना चाहिए। क्योंकि वे स्त्रियां मनुष्यों को विषय-वासना का प्रलोभन दिखा कर अपनी अनेक आज्ञाओं का पालन कराने में उन्हें दासों की मांति दत्तचित्त रखती हैं। मूल:--भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे ।
बाले य मंदिए मूढे, बज्झई मच्छिया व खेल म्मि ॥६॥ छाया:--भोगामिषदोषविषण्णः, हितनिश्रेयससबुद्धि विपर्यस्तः ।
बालश्च गन्दो मूढः, नभ्यते प्रथिनोन श्लेषि !!!! अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (भोगामिसदोसविसन्ने) मोग रूप मांस जो आरमा को दूषित करने वाला दोष रूप है, उसमें आसक्त होने वाले तथा (हियनिस्सेयसबुद्धि वोच्चत्थे) हितकारक जो मोक्ष है उसको प्राप्त करने की जो बुद्धि है उससे विपरीत बर्ताव करने वाले (य) और (मंदिए) धर्म-क्रिया में आलसी (मूळे) मोह में लिप्त (बाले) ऐसे अज्ञानी जीव कमों में बंध जाते हैं और (खेलम्मि) श्लेएम-कफ में (मच्छिा ) मक्खी की (8) तरह (बज्झई) फेस जाते हैं।
भावार्थ:-हे गौतम | विषय वासना रूप जो मांस है, यही आत्मा को दूर्षित करने वाला दोष रूप है। इसमें आसक्त होने वाले तया हितकारी जो मोक्ष है उसके साधन की बुद्धि से विमुख और धर्म करने में आलसी तषा मोह में लिप्त हो जाने वाले अज्ञानी जन अपने गाढ कर्मों में जैसे मक्खी एलेश्म (कफ) में लिपट जाती है वैसे ही फंस जाते है। मुलः सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा ।
कामे पत्थेमाणा, अकामा जंति दुगगई ॥१०॥ छायाः-शल्यं कामा विष कामाः, कामा आशीविषोपमा:।
कामान् प्रार्थयमाना, अकामा यान्ति । दुर्गतिम् ॥१०॥
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निम्रन्थ-प्रवचन
अन्वयार्थ :--हे इन्द्रभूति ! (कामा) कामभोग (सल्लं) कोटे के समान हैं, (कामा) काममोग (विसं) विष के समान हैं (कामा)कामभोग (आसीविसोवमा) दृष्टि-विष सर्प के समान हैं, (कामे) कामनाओं की (परमाणा) इच्छा करने पर (अकामा) बिना ही विषय-वासना सेवन किये यह जीव (दुग्गइं) दुर्गति को (जति) प्राप्त होता है।
भावार्थ:-हे आर्य ! यह काममोग चुमने वाले तीक्ष्ण कांटे के समान हैं, विषय-वासना का सेवन करना तो बहुत ही दूर रहा, पर उसकी इच्छा मात्र करने हो में मनुष्यों की दुर्गति होती है। मूल:-खणमेत्तसुक्खा बहुकाल दुक्खा
पगामदुक्खा अनिगामसुक्खा । संसारमोन्स निलभामा
खाणी अणत्याण उ कामभोगा ॥१५॥ छायाः-क्षणमात्रसौख्या बहुकालदु:खाः,
प्रकामदुःस्त्रा अनिकामसौख्या: । संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः,
खानिरनर्थानां तु कामभोगाः ।।११।। अन्वयार्थः-हे इस्द्रभूति ! (काम भोगा) ये कामभोग (खणमेत्तसुक्खा) क्षण भर सुख देने वाले हैं, पर (बहुकालदुक्खा) बहुत काल तक के लिए दुह रूप हो जाते हैं। अतः ये विषयमोग (पगामदुबला) अत्यन्त दुःख देने वाले और (अनिगामसुक्खा) अत्यल्प सुख के दाता हैं । (संसारमोक्खस्स) मंसार से मुक्त होने वालों को ये (विपक्खमया) विपक्षभूत अर्थात यात्रु के समान है। और (अणत्थाण) अनर्थों की (खाणी उ) खदान के समान हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! ये काममोग केवल सेवन करते समय ही क्षणिक सुखों के देने वाले हैं और भविष्य में वे बहुत अर्से तक दुखदायी होते हैं। इसलिए हे गौतम ! ये भोग अत्यन्त दुख के कारण है ; सुख जो इनके द्वारा प्राप्त होता है वह तो अत्यल्प ही होता है । फिर ये मोग संसार से मुक्त होने वाले के लिए पूरे-पूरे शत्रु के समान होते हैं । और सम्पूर्ण अनर्थों को पैदा करने वाले हैं।
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ब्रह्मचर्यं निरूपण
मूलः - जहा किंपागफलाणं, परिणामो न सुन्दरो । एवं भुताण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो ॥ १२ ॥
छाया: - यथा किम्पाकफलानां परिणामो न सुन्दर: 1
--
एवं भुक्तानां भोगानां परिणामो न सुन्दरः ॥ १२॥
ह ३
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अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति 1 ( जहा ) जैसे (किपागफलाणं ) किंपाक नामक फलों के खाने का ( परिणामो ) परिणाम ( सुन्दरी) अच्छा ( 7 ) नहीं है, ( एवं ) इसी तरह (भुत्ताण) मोगे हुए ( भोगाणं ) भोगों का ( परिणामो) परिणाम (सुन्दरो) अच्छा (न) नहीं होता है ।
भावार्थ:-- है आर्य ! किपाक नाम के फल खाने में स्वादिष्ट, सूंघने में सुगंधित और आकार-प्रकार से भी मनोहर होते हैं। तथापि खाने के बाद वे फल हलाहल जहर का काम करते है। इसी तरह ये भोग भी भोगते समय तो क्षणिक सुख से देते हैं । परन्तु उसके परचात् ये परासी की चक्रफेरी में दुखों का समृद्र रूप हो सामने आड़े आ जाते हैं । उस समय इस आत्मा को बड़ा ही पश्चात्ताप करना पड़ता है ।
मूल:- दुपरिचया इमे कामा, तो सुजहा अधोरपुरिसेहि ।
अह संति सुब्वया साहू, जे तरंति अपरं वणिया वा ।। १३ ।। छाया:-- दु:परित्याज्या इमे कामा:, नसुत्यजा अधीरपुरुषः । अथ सन्ति सुव्रताः साधवः ये तरन्त्यतरं वणिके मंत्र || १३ ||
!
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति (इमे) ये ( कामा) कामभोग (दुपरिच्चया) मनुष्यों द्वारा बड़ी ही कठिनता से छूटने वाले होते हैं, ऐसे मोग (अधीरपुरिसेहि) कायर पुरुषों से तो (नो) नहीं (सुजा) सुगमता से छोड़े जा सकते हैं । (अ) परस्तु ( सुव्वया) सुव्रत वाले (साहू) अच्छे हैं (जे) वे (अतर) तिरने में कठिन ऐसे भव की (वा) तरह (तरंति) तिर जाते हैं ।
पुरुष जो (संति) होते समुद्र को भी ( वणियो) वणिक
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निर्ग्रस्य प्रवचन
"
भावार्थ :- हे गौतम ! इन कामभोगों को छोड़ने में जब बुद्धिमान मनुष्य भी बड़ी कठिनाइयाँ उठाते है, तब फिर कायर पुरुष तो इन्हें सुलभता से छोड़ हो कैसे सकते है ? अतः जो शूर वीर और धीर पुरुष होते हैं, वे ही इस कामभोग रूपी समुद्र के परले पार पहुँच सकते हैं, उसी प्रकार संग्रम आदि व्रत नियमों को धारणा करने वाले पुरुष ही ब्रह्मचर्य रूप जहाज के द्वारा संसार रूपी समुद्र के परले पार पहुँच सकते हैं ।
ε४
मूलः - उवलेवो होइ भोगे, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विष्पमुच्चई ॥ १४॥
छाया:- उपलेपो भवति भोगेषु, भोगी भ्रमति संसारे,
अभोगी नोपलिप्यते । अभोगी विप्रमुच्यते || १४ ||
अभ्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( भोगेसु) भोग भोगने में कर्मों का ( उवलेवो) उपलेप ( होइ ) होता है । और (अभोगी) अभोगी (नोवलिप्पई) कर्मों से लिप्त नहीं होता है । ( भोगी) विषय सेवन करने वाला (संसारे) संसार में ( ममइ ) भ्रमण करता है । और (अगोगी) विषय सेवन नहीं करने वाला (विप्पमुचाई) कर्मों से मुक्त होता है।
आत्मा कर्मों के
भावार्थ: हे गौतम! विषय वासना सेवन करने से बंधन से बँध जाती है। और उसको त्यागने से वह अलिप्त रहती है | अतः जो काम मोगों को मेवन करते हैं वे संसार चक्र में गोता लगाते रहते हैं। और जो इन्हें त्याग देते हैं वे कर्मों से मुक्त होकार अटल मुखों के धाम पर जा पहुँचते हैं ।
मूलः - मोक्खाभिकंखिस्स वि माणवस्स,
संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे ।
नेयारिस्सं दुत्तरमस्थि लोए,
जहित्थिओ बालमणोहराओ ||१५||
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ब्रह्मचर्य-निरूपण
छाया:-मोक्षाभिकांक्षिणोऽपि मानवस्य,
__संसारभीरोः स्थितस्य धर्म । नेतादृशं दुस्तरमस्ति लोके,
यथा स्त्रियों बाल मोहसः ॥१५!!
अम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (मोक्खामिक खिस्स) मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले (संसारभीरुस्स) संसार में जन्म-मरण करने से डरने वाले और (पम्मे) धर्म में (ठियस्स) स्थिर है आस्मा जिनकी ऐसे (मावस्स) मनुष्य को (वि) मी (जहा) जैसे (बालमणोहराओ) मुखों के मन को हरण करने वाली (स्थिओ) स्त्रियों से दूर रहना कठिन है, तब (एयारिसं) ऐसे (सोए) लोक में (दुत्तरं) विषय रूप समुद्र को लांघ जाने के समान दूसरा कोई कार्य कठिम (न) नहीं (अस्थि) है।
भावार्थ:-हे गौतम ! जो मोक्ष की अभिलाषा रखते है, और जन्ममरणों से भरमीत होते हुए धर्म में अपने आत्मा को स्थिर किये रहते हैं, ऐसे मनुष्यों को भी मुत्रों के मनोरंजन करने वाली स्त्रियों के कटाक्षों को निष्फल करने के समान इस लोक में दूसरा कोई कठिन कार्य नहीं है। तात्पर्य यह है कि संयमी पुरुषों को इस विषय में सदैव जागरूक रहना चाहिए ।
मूल:-एए य संगे समइक्क मित्ता,
सहुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासागरमुत्तरित्ता,
__ नई भवे अवि गंगासमाणा ॥१६॥ छाया:-एताश्च संगान् समतिक्रम्य,
सुखोत्तराश्चंब भवन्ति शेयाः । यथा महासागरमुत्तीर्य,
नदी भवेदपि गंगासमाना ॥१६॥
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EE
निर्गन्ग-प्रवचन
___ अवार्थ:-हे इन्द्रभूति (एए य) इस (संगे) स्त्री-प्रसंग को (समइक्कमित्ता) छोड़ने पर (सेसा) अवशेष धनादि का छोड़ना (चेव) निश्चय करके (सुहत्तरा) सुगमता से (मवंति) होता है (जहा) जैसे (महासागर) बड़ा समुद्र (उत्तरित्ता) तिर जाने पर (गंगासमाणा) गंगा के समान (नई) नदी (अवि) मी (मवे) सुख से पार की जा सकती है।
भावार्थ:---हे इन्द्रभूति ! जिसने स्त्री-संमोग का परित्याग कर दिया है उसको अवशेष धनादि के त्यागने में कोई भी कठिनाई नहीं होती, अर्थात् शीच ही वह दूसरे प्रपंचों से भी अलग हो सकता है। जैसे-कि महासागर के परले पार जाने मान के लिए गंगा नदी को लांघना कोई कठिन कार्य नहीं होता। मूलः-कामणुगिद्धिप्प भवं खु दुक्खं,
सवस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइझ माणसि च किंचि,
तस्संतगं गच्छइ बीयरागो ॥१७॥
छायाः-फामानुगृद्धिप्रभवं खलु दु:खं,
सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य । यत् कायिक मानसिकं च किञ्चित्,
तस्मानिकं गच्छति वीतराग: ।।१७।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (सदेवगस्स) देवता सहित (सव्वस्स) सम्पूर्ण (लोगम्स) लोक के प्राणी मात्र को (कामाणुगिद्धिष्पमयं) काममोग की अभिलाषा से उत्पन्न होने वाला (खु) ही, (दुक्ख) दुःख लगा हुआ है (ज) जो (काइअं) कायिका (च) और (माणसिअं) मानसिक (किंचि) कोई भी दुख है (तस्स) उसमे (अंतगं) अन्त को (बीयरागो) वीतराग पुरुष (गच्छइ) प्राप्त करता है। ___ भावार्थ:--हे गौतम ! भवनपति, बागव्यन्तर, ज्योतिषी आदि सभी तरह के देवताओं से लगाकर सम्पूर्ण लोक के छोटे से प्राणी तक को काम
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ब्रह्मचर्य-निरूपण
मोगों को अभिलाषा से उत्पन्न होने वाला दुख सताता रहता है। उस कायिक और मानसिक दुख का अन्त करने वाला केवल वही मनुष्य है, जिसने कामभोगों से सदा के लिए अपना मुंह मोड़ लिया है। मूलः-देवदाणवगंधवा, जक्खरक्खसकिन्नरा ।
बंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेंति ते ॥१८॥ छाया:-देवदानवगन्धवाः, यक्षराक्षसकिन्नराः ।
ब्रह्मचारिणं नमस्यन्ति, दुष्करं यः करोति तम् ॥१८॥ मन्वयार्ष:-हे इन्द्रभूति ! (दुक्करं) कठिनता से आचरण में आ सके ऐसे ब्रह्मचर्य को (जे) जो (करेंति) पालन करते हैं (ते) उस (मम्मयारि) ब्रह्मचारी को (देवदाणवगंधवा) देव, दानव और गंधर्व (जक्ख रक्खसकिन्नरा) यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी तरह के देव (नमसंति) नमस्कार करते हैं । ___ भावापं:-हे गौतम 1 इस महान् ब्रह्मवयं व्रत का जो पालन करता है, उसको देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर आदि सभी देव नमस्कार करते हैं । वह लोक में पूज्य हो जाता है।
॥ इति अष्टमोऽध्यायः ।।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(नवा अध्याय) साधुधर्म-निरूपण
॥ श्री भगवानुवाच ।। मूल:--सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जि उं ।
तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥शा छाया:-सर्वे जीवा अपि इच्छन्ति, जीवितु न मर्तम् ।
तस्मात् प्राणिवधं घोरं, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति तम् ॥१॥ मान्वयार्थ:-हे इम्वभूति ! (सन्दे) समी (जीवा) जीव (जीविउं) जीने की (इच्छंति) इच्छा करते है (वि) और (मरिजि) मरने को कोई जीव (न) नहीं चाहता है । (तम्हा) इसलिए (निग्गया) निन्य साधु (घोरं) रौद्र (पाणिवह) प्राणीयध को (वजयंति) छोड़ते हैं । (णं) वाक्यालंकार । ___ भावार्थ:-- हे गौतम ! सब छोटे-बड़े जीव जीने की इच्छा करते हैं, पर कोई मरने की इच्छा नहीं करते हैं। क्योंकि जीवित रहना सब को प्रिय है। इसलिए निन्य साधु महान् दुख के हेतु प्राणीवध को आजीवन के लिए छोड़ देते हैं। मूलः-मुसावाओ य लोगम्मि, सन्चसाहूहि गरहिओ।
अविस्सासो य भूयाण, तम्हा मोसं विवज्जए ॥२॥ छाया:-मृषावादश्च लोके, सर्वसाधुभिर्गहित: ।
अविश्वासश्च भूतानां, तस्यान्मृषां विवर्जयेत् ॥२॥
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साधुधर्म-निरूपण
RE
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (लोगम्मि) इस लोक में (4) हिंसा के सिकाय और (मुसाबाओ) मृषावाद को भी ( सबसाहूहि ) सब अच्छे पुरुषों ने (गरहिंओ) निन्दनीय कहा है । (य) और इस मृषावाद से (भूयाणं ) प्राणियों को ( अविस्सासो) अविश्वास होता है। ( लम्हा ) इसलिए (मोस ) झूठ को (विवज्जए) छोड़ देना चाहिए ।
भावार्थ :- हे गौतम ! इस लोक में हिंसा के सिवाय और भी जो मृषावाद (मूह) है, वह उों के द्वारा निन्दनीय बल है। बोलने वाला अविश्वास का पात्र मी होता है। इसलिए साधु पुरुष झूठ बोलना आजीवन के लिए छोड़ देते हैं ।
मूलः -- चित्तमंतमचित्त वा अप्पं वा जइ वा बहुं । दत्तसोहणमेत्तं पि, उग्गहंसि अजाइया || ३ ||
छाया: - चित्तवन्तमचित्त वा अल्पं वा यदि वा बहुं । दन्तशोषनमात्रमपि, अवग्रहमयाचित्वा ॥३॥
अन्वयार्थः – हे इन्द्रभूति ! ( अप्पं ) अल्प (जह वा ) अथवा ( बहु ) बहुत (चिसमंत) सचेतन (वा) अथवा (अधिसं) अचेतन ( दत्तसोहणमेत्तं पि) दाँत साफ करने का तिनका भी ( बजाया ) याचे बिना ग्रहण नहीं करते हैं । (उन्गहंसि ) पडियारी वस्तु तक भी गृहस्थ के दिये बिना वे नहीं लेते हैं ।
भावार्थ:-- हे गौतम! चेतन वस्तु जैसे शिष्य, अचेतन वस्तु वस्त्र, पात्र गैर यहाँ तक कि दाँत कुचलने का तिनका वगैरह भी गृहस्थ के दिये बिना साधु कभी ग्रहण नहीं करते हैं, और अवग्रहिक पडियारी वस्तु' अर्थात् कुछ समय तक रखकर बाद में सौंपदे, उन चीजों को भी गृहस्थों के दिये बिना साधु कभी नहीं लेते हैं ।
महादोससस्यं । तम्हा मेहुण संसग्गं, निगंधा वज्जयंति णं ॥ ४ ॥
मूलः-- मूलमेयमहम्मस्स
1 An article of use (for a monk) to be used for a time and then to be returned to its owner.
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निग्रंन्य-प्रवचन
छायाः-मूलमेतदधर्मस्य, महादोषसमुच्छ्रयम् ।
तस्मान्मथुनसंसर्ग, निर्ग्रन्थाः परिवर्जयन्तितम् ॥४॥ अग्नपार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (एमं) यह (मेगुणसंसग्गं) मैथुन विषयक संसर्ग (अहम्मस्स) अधर्म का (मूस) मूल है । और (महादोससमुस्सयं) महान् दूषित हिमानों को अच्छी तरह से मढ़ाने ला है। (सहा पसलिए (निग्गंगा) निग्रंन्य साधु मथुन संसर्ग को (वअयंति) छोड़ देते हैं । (i) दाक्यालंकार में।
भावार्थ:-हे गौतम ! यह अब्रह्मचर्य अधर्म उत्पन्न कराने में परम कारण है, और हिंसा, झूठ, पोरी, कपट आदि महान् दोषों को खूब बढ़ाने वाला है। इसलिए मुनिधर्म पालने वाले महापुरुष सब प्रकार से मथुन संसर्ग का परिरमाय कर देते हैं। मूल:--लोभस्से समणुप्फासो, मन्ने अन्नयरामवि ।
जे सिया सन्निहीकामे गिही पवइए न से ॥५॥ छाया:-लोभस्यष अनुस्पर्शः, मन्येऽन्यतरामपि ।
य: स्यात् सनिधि कामयेत्, गृही प्रवजितो न सः ॥५॥ अन्वयार्पः-हे इन्द्रभूति ! (लोमस्स) लोम की (एस) यह (अणुप्फासो) महत्ता है कि (अमायरामवि) गुड़, घी, शक्कर आदि में से कोई एक पदार्य को भी (जे) जो साधु होकर (सिया) कदाचित् (सग्निहीकामे) अपने पास रात मर रखने की इच्छा करले तो (से) वह (न) न तो (गिही) गृहस्थी है और न (पदइए) प्रवजित दीक्षित ही है, ऐसा तीर्थकर (मग्ने) मानते हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! लोम, चारित्र के सम्पूर्ण गुणों को नाश करने वाला। है। इसीलिए इसकी इतनी महत्ता है | तीर्थंकरों ने ऐसा माना है और कहा है कि गुड़, बी, शक्कर आदि वस्तुओं में किसी भी वस्तु को साधु हो कर ।। कदाचित् अपने पास रात भर रखने की इच्छा मात्र करे था औरों के पास रखवा लेवे तो वह गृहस्थ भी नहीं है क्योंकि उसके पहनने का बेच साधु का है और वह साधु मी नहीं है क्योंकि जो साघु होते हैं। उनके लिए उपरोक्त कोई । भी चीजें रात में रखने की इच्छा मात्र भी करना मना है। अतएव साधु को ।। दूसरे दिन के लिए खाने तक की कोई वस्तु का भी संग्रह करके न रखना चाहिए।
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साधर्म-निरूपण मुल:- पि वत्थं व पाय वा कम्बलं पायपुच्छणं ।
तं पि संजमलज्जट्टा, धारेन्ति परिहरति य ।।६।। | छापा:-यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादपुन्छनम् ।
तदपि संयमलज्जार्थम्, धारयन्ति परिहरन्ति च ॥६।। सम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (ज) जो (पि) मी (वत्यं) वस्त्र (वा) अथवा (पाय) पात्र (वा) अथवा (कम्बलं) कम्बल (पायच्छणं) पग पोंछने का वस्त्र (स) उसको (पि) मी (संजमलज्जट्ठा) संयम लज्जा 'रक्षा' के लिए (धारेन्ति) लेते हैं (य) और (परिहरति) पहनते हैं ।
भावार्थ:-हे गौतम ! अब यह कह दिया कि कोई भी वस्तु नहीं रखना और पस्त्र पात्र वगैरह साधु रखते है, तो मला लोम के संबंध में इस जगह सहज ही प्रश्न उठता है । किन्तु जो संयम रखने वाला साधु है, वह केवल संयम की रक्षा के हेतु वस्त्र पात्र वगैरह लेता है और पहनता है। इसलिए संयम पानने के लिए उसके साधन वस्त्र, पात्र वगैरह रखने में लोम नहीं है क्योंकि मुनियों को उनमें ममता नहीं होती।
|| सुधर्मोवाच ॥ मूलः न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्ते ण ताइणा।
मुच्छा परिंगहो वुत्तो, इइ वुत्त महेसिणा ।।७।। बायाः- सः परिग्रह उक्तः, ज्ञातपुत्रेण त्रायिणा ।
मूपिरिग्रह उक्तः, इत्युक्तं महर्षिणा ॥७।। अन्वयार्थः हे जम्बू ! (सो) संयम की रक्षा के लिए रखे हुए वस्त्र, पात्र वगरह हैं उनको (परिंग्गहो) परिग्रह (ताइणा) त्राता (नावपुतण) महावीर (न) नहीं (वुत्तो) कहा है, किन्तु उन वस्तुओं पर (मुम्छा) मोह रखना वही (परिगहो) परिग्रह (वृत्तो) कहा जाता है (इइ) इस प्रकार (महेसिणा) तीर्थंकरों मे (वृत्त) कहा है।
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निर्ग्रन्थ प्रवचन
भावार्थ : हे जम्मू ! संयम को पालने के लिए जो वस्त्र, पात्र वरह रक्खे जाते हैं, उनको तीर्थंकरों ने परिग्रह नहीं कहा है। हाँ, यदि वस्त्र, पात्र आदि पर ममत्व भाव हो, या वस्त्र, पात्र ही क्यों, अपने शरीर पर देखो न, इस पर भी ममत्व यदि हुआ, कि अवश्य वह परिग्रह के दोष से दूषित बन जाता है। और वह परिग्रह का दोष चारित्र के गुणों को नष्ट करने में सहायक होता है । मूलः - एयं च दोसं दहूणं, नायपुत्त्रेण भासियं । सब्याहारं न भुजति, निग्गंधा राइभोयणं ॥ ८ ॥
१०२
छाया:- एतं च दोषं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम् । सर्वाहारं न भुञ्जते निर्ग्रन्था रात्रिभोजनम् ||८||
अन्वयार्थ – हे इन्द्रभूति ! (च) और ( एवं ) इस (दो) दोष को (ट्टणं ) देख कर (नापु ) तीर्थंकर श्री महावीर ने ( मासियं) कहा है। (निम्गंथा) निर्ब्रम्य जो हैं वे (सव्वाहारं ) सब प्रकार के आहार को ( राहभोगणं ) रात्रि के भोजन अर्थात् रात्रि में (नो) नहीं (भुजंति ) मोगते हैं।
कई तरह के जीव वालों से हिंसा हो
अतः रात्रि भोजन
भावार्थ:-- हे गौतम! रात्रि के समय भोजन करने में भी खाने में आ जाते हैं। अतः उन जीवों को भोजन करने जाती है । और वे फिर कई तरह के रोग भी पैदा करते हैं । करने में ऐसा दोष देख कर वीतरागों ने उपदेश किया है कि जो निय होते हैं बे सब प्रकार से खाने-पीने की कोई भी वस्तु का रात्रि में सेवन नहीं करते हैं ।
मूल:- पुढवि न खणे न खणावए,
सीओदगं न पिए न पियावए । अगणिसत्थं जहा सुनिसियं,
तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ||६||
1 Attachment to mammon; the fifth papasthanaka. 2 Possessionless or passionless ascetic.
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साधुधर्म-निरूपण छाया-पृथिवीं न खनेन खानयेत्
___ शीतोदकं न पिवेन्न पाययेत् । अग्निशस्त्रं यथा सुनिशितम्,
सं न ज्वलन्न ज्वालयेत् यः स भिक्षुः ।।६।। अभ्यया:-हे इन्द्रभूति ! (जे) जो (पुढवि) पृथ्वी को स्वयं (न) नहीं (खणे) खोदे औरों से भी (न) न (खणावए) खुदवाये (सीओदगं) शीतोदकसचित्तजल को (न) नहीं पीथे, औरों को भी (न) नहीं (घियावए) पिलावे; (पहा) जैसे (सुनिसियं) खूब अच्छी तरह तीक्ष्ण (सत्थं) शस्त्र होता है, उसी तरह (अगणि) अग्नि है (त) उसको स्वयं (न) नहीं (जले) जलावे, औरों से भी (न) न (जलावए) अलवावे (स) वही (मिक्खू) साघु है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! सर्वथा हिंसा से जो बचना चाहता है वह म स्वयं पृथ्वी को खोदे और न औरों से खुदवाये । इसी तरह न सचित्त (जिसमें जीव हो उस) जल को तुद पीवे और न औरों को पिलाये। उसी तरह न अग्नि को भी स्वयं प्रदीप्त करे और न औरों ही से प्रदीप्त करवाये बस, वही साधु है ।
मूल:-अनिलेण न बीए न वीयावए,
हरियाणि न छिदे न छिदावए । बोयाणि सया विवज्जयंतो,
____ सच्चित्त नाहारए जे स भिक्खू ॥१०॥ छाया:-अनिलेन न बीजयेत् न बीजायेत्,
हरितानि न च्छिदयेन्नच्छेदयेत् । बीजानि सदा विवर्जयन,
सचित्तं नाहरेद् यः स भिक्षुः ॥१०॥ अन्वयार्थ:-हे इन्ट्रभूति ! (जे) जो (अनिलेण) वायु के हेतु पंखे को (न) नहीं (वीए) चलाता है, और (न) म औरों से ही (वीयावए) चलवाता है (हरि
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निग्रन्थ-प्रवचन
याणि) बनस्पतियों को स्वतः (न) नहीं (छिदे) खेवता और (न) न औरों ही से (शिंदावए) शिददाता है, (बीयाणि) बीजों को छेदना (सया) सदा (विवज्जयंतो) छोड़ता हुआ (सच्चित्तं) सचित्त पदार्थ को जो (न) न (आहारए) माता है । (स) वही (भिक्खू) साधु है ।
भावार्थ:--हे गौतम ! जिसने इन्द्रिय-जन्य सुखों की ओर मे अपना मुंह मोड़ लिया है, वह कभी भी हवा के लिये पंखों का न तो स्वतः प्रयोग करता है और न औरों से उसका प्रयोग करवाता है। और पान, फल, फूल आदि वनस्पतियों का भक्षण छोड़ता हुआ, सचित्त पदार्थों का कभी आहार नहीं करता, वही साधु है । तात्पर्य यह है कि साधु किसी भी प्रकार का हिंसाजनक आरंम नहीं करते। मूल:-महुकारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया।
नाणापिण्डरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो ॥११॥ छाया:-मधुकरसमा बुद्धाः, ये भवन्त्यनिश्रिताः ।
नानापिण्डरता दान्ताः, तेनोच्यन्ते साधवः ||११|| अम्बयार्थ:--हे इन्द्रभूति ! (महकारसमा) जिस प्रकार थोड़ा-थोड़ा रस लेकर भ्रमर जीवन बिताते हैं, ऐसे ही (जे) जो (दंता) इन्द्रियों को जीतते हुए (नाणापिंडरया) नाना प्रकार के आहार में उद्वेग रहित रहने वाले हैं ऐसे (बुद्धा) तत्त्वा (अपिस्सिया) नेत्राय रहित (भवंति) होते हैं (तेण) इसी से उन्हें (साहणो) साधु (बुच्चंति) कहते हैं। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! जिस प्रकार भ्रमर फूलों पर से थोड़ा-थोड़ा रस लेकर अपना जीवन बिताता है । इसी तरह जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करते हुए तीखे, कडवे, मधुर आदि नाना प्रकार के मोजनों में उद्वेग रहित होते हैं तथा जो समय पर जैसा भी निर्दोष भोजन मिला, उसी को खाकर मानंदमय संयमी जीवन को अनेश्रित होकर बिताते हैं, उन्हीं को हे गौतम ! साधु कहते हैं।
1 An animate thing; as water, flower, fruit, greep grass etc.
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साधुधर्म निरूपण
मूलः - जे न वंदे न से कुप्पे, बंदिओ न समुक्कसे । एवमन्ते समाणस्स
सामण्णमचि ॥ १२॥
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छाया:-यो न वन्देत् न तस्मै कुप्येत्, वन्दितो न समुत्कर्षत् । भागण्यमनुतिष्ठति ॥१२॥
एक्दमेषा नत्य,
अन्वयार्थ: हे इन्द्रभूति ! (जे) जो कोई गृहस्थ साधु को (न) नहीं ( बंदे ) बन्दना करता (से) वह साधु उस गृहस्थ पर (न) न ( कुप्पे ) क्रोध करे, और ( बंदिओ) वंदना करने पर न ( स मुक्कसे) उत्कर्षता ही दिसावे ( एवं ) इस प्रकार ( अन्ने समाणस्स ) गवेषणा करने वाले का ( सामण्णं ) श्रामण्य अर्थात् साधुता ( अणुचि) रहता है ।
भावार्थ :- हे गौतम! साधु को कोई बन्दना करे या न करे तो उस गृहस्थ पर वह सानु क्रोधित न हो। साधुता के गुणों पर यदि कोई राजादि मुग्ध हो जाय और वह वन्दनादि करे तो वह साधु गर्वान्वित भी कमी न हो, बस, इस प्रकार चारित्र को दूषित करने वाले दूषणों को देखता हुआ उनसे बालबाल बचता रहे उसी का पारित्र' अखण्ड रहता है ।
मूलः - पण्णसमत्ते सया जए, समताधम्ममुदाहरे मुणी ।
सुहमे उसया अलूस, णो कुज्झे णो माणि माहणे ॥ १३ ॥
छाया: – प्रज्ञा समाप्तः सदा जयेत् समतया धर्म मुदाहरेन्मुनिः । सूक्ष्मे तु अनूषकः, न कुष्येश मानी मान् ॥१३॥ अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ( मुणी ) वह साधु ( पण्णसमत्ते ) समग्र प्रशा करके सहित तथा प्रश्न करने पर उत्तर देने में समर्थ (सया ) हमेशा (जए) कषायादि को जीते ( समताधम्ममुदाहरे ) समभाव से धर्म को कहता हो, और (सया ) सदैव ( सुहमे ) सूक्ष्म चारित्र में (अलूस ए ) अविराधक हो, उन्हें ताड़ने पर (पो) नहीं ( कुज्झे ) कोधित हो एवं सत्कार करने पर ( णो) नहीं (माणि) मानी हो, वही ( माहणे ) साधु है ।
1 Right conduct; ascetic conduct inspired by the subsidence of obstructive Karma.
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नियन्व-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम! तीक्ष्ण बुद्धि से सहित हो, प्रश्न करने पर जो शान्ति से उत्तर देने में समर्थ हो, समता माव से जो धर्मकथा कहता हो. चारित्र में सूक्ष्म रीति से भी जो विराधक न हो, ताड़ने सर्जने पर क्रोषित और सत्कार करने पर गर्वाम्वित जो न होता हो, सचमुच में वही साधु पुरुष है।
मूल:—न तस्स जाई व कुलं व ताणं,
णण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिन्न । णिक्खम से सेवइ गारिकम्म, ___ण से पारए होइ विमोयणाए ॥१४||
छायाः-न तस्य जाति, कुलं वा त्राणं,
नान्यत्र विद्या चरणं सूचीर्णम् । निष्क्रम्य सः सेवतेऽगारिकर्म,
न सः पारगो भवति विमोचनाय ॥१४॥
अरबपा-हे इन्द्रभूति ! (सुचिम्न) अच्छी तरह आचरण किये हुए (चरण) चारित्र (विज्ञा) ज्ञान के (णण्णस्थ) सिवाय (तस्स) उसके (जाई) जाति (व) और (कुलं) कुल (ताणं) शरण (न) नहीं होता है। जो (से) वह (पिक्सम) संसार प्रपंच से निकल कर (गारिकामं) पुनः प्रहस्थ कर्म (सेवइ) सेवन करता (से) वह (विमोयणाए) कर्म मुक्त करने के लिए (पारए) संसार से परले पार (ण) नहीं (होइ) होता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! साधु होकर जाति और कुल का बो मद करता है, इसमें उसकी साघुता नहीं है । प्रत्युत वह गर्व त्राणभूत न होकर हीन जाति और कुल में पैदा करने की सामग्री एकत्रित करता है। केवल ज्ञान एवं क्रिया के सिवाय और कुछ भी परलोक में हित कारक नहीं है । और साधु होकर गृहस्थ जैसे कार्य फिर करता है वह संसार समुद्र से परले पार होने में समर्थ नहीं है।
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साधुधर्म-निरूपण मूल:-एवं ण से होइ समाहिपत्त,
जे पनवं भिक्खु विउक्कसेज्जा । अहवा वि जे लाभमयावलित,
अन्नं जणं खिसति बालपन्ने ॥१५॥
छाया:-एवं न स भवति समाधिप्राप्तः,
यः प्रज्ञया भिक्षः व्युत्कर्षेत् । अथवाऽपि यो लाभमदावलिप्तः,
अन्यं जनं खिसति बालप्रज्ञः ।।१५।।
अन्वयार्ष:-हे इन्द्रभूति ! (एवं) इस प्रकार से ( वह गर्व करने का साधु (समाहिपते) समाधि मार्ग को प्राप्त (ण) नहीं (होइ) होता है । और (जे) जो (पनव) प्रज्ञावंत (मिक्यु) साधू होकर (विउक्कसेम्जा) आत्म-प्रशंसा करता है । (अहवा) अथवा (जे) जो (लाममयावलिते) लाम मद में लिप्त हो रहा है वह (बालपन्ने) मूर्ख (अन्न) अभ्य (जणं) जन की (खिसति) निन्दा करता है।
भावार्थ:--हे गौतम ! मैं जातिवान हूँ, कुलवान् है इस प्रकार का गर्व करने वाला साधु समाधि मार्ग को कभी प्राप्त नहीं होता है । जो बुद्धिमान हो कर फिर भी अपने आप ही की आत्म-प्रशंसा करता है, अथवा यों कहता है, कि मैं ही साधुओं के लिये वस्त्र, पात्र आदि का प्रबन्ध करता हूं। बेचारा दूसरा क्या कर सकता है? वह तो पेट भरने तक की चिम्ता दूर नहीं कर सकता, इस तरह दूसरों की निन्दा जो करता है, वह साधु कभी नहीं है ।
मुला-नो पूयणं चेव सिलोयकामी,
पियमप्पिय कस्सइ णो करेज्जा। सव्वे अण? परिवज्जयंते,
अणाउले या अकसाइ भिक्खू ।।१६।।
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निग्रन्थ-प्रवचन
छाया:-न पूजनं चैव श्लाककामी,
प्रियमप्रियं कस्यापि नो कुर्यात् । सर्वानर्थान् परिवर्जयन्,
___ अनाकुलश्च अकषायी भिक्षुः ॥१६॥ अन्वयार्थः- हे इन्द्रभूति ! (मिक्खू) साधु (पूयणं) वस्त्र पाचादि की (न) इच्छा न करे (चव) और न (सिलोयकामी) आस्म-प्रशंसा का काभी ही हो (कस्सइ) किसी के साथ (पियमप्पियं) राग और द्वेष (गो) न (करेज्जा) करे (सब्वे) समी (अणट्ठ) अनर्थकारी बातों को जो (परिवज्जयते) छोड़ दे (अणाउले) फिर भय रहित (या) और (अकसाइ) कषाय रहित हो ।
भाषार्थ:--हे गौतम ! साषु प्रवचन करते समय वस्त्रादि की प्राप्ति की एवं आत्म-प्रशंसा की वांछा कभी न रखे। या किसी के साथ राग और द्वेष से संबंध रखने वाले कथन को भी वह न कहे । इस प्रकार आत्मा को कलुषित करने वाली सभी अनर्थकारी बातों को छोड़ते हुए मय एवं कषाय रहित होकर साधु को प्रवचन करना चाहिए। मूल:-जाए सद्धाए निक्खंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं ।
तमेव अणुपालिज्जा, गुणे आरियसम्मए ॥१७।। छाया:-यया श्रद्धया निष्कान्त:, पर्यायस्थानमुत्तमम् ।
। तदेवानुपालयेत् गुणेषु आचार्यसम्मतेषु ।।१।।
अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जाए) जिस (सद्धाए) श्रद्धा से (उत्तम) प्रधान (परियायट्ठाणं) प्रवज्यास्थान प्राप्त करने को (निक्वंतो) मायामय कर्मों से निकला (तमेव) वैसी ही उपस भावनाओं से (आरिमसम्मए) तीर्थकर कथित (गुणे) गुण (अणुपालिज्जा) पालना चाहिए ।
भावार्ष:-- हे गौतम ! जो गृहस्थ जिस श्रद्धा से प्रधान दीक्षा स्थान प्राप्त करने को मायामय काम रुप संसार से पृथक् हुआ उसी भावना से जीवन-पर्यन्त उसको तीर्थंकर प्ररूपित गुणों में वृद्धि करते रहना चाहिये ।
|| इति नवमोऽध्यायः ।।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(दसवां अध्याय) प्रमाद-परिहार
॥ श्रीभगवानुवाच॥ मूलः–दुमपत्तए पंडुरए जहा,
निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुआण जीवि,
समयं गोयम ! मा पमायए ।।१।। छाया:-द्रुमपत्रकं पाण्डुरकं यथा, निपतति रात्रिगणाणामत्यये ।
एवं मनुजानां जीवितं, समयं गौतम ! मा प्रमादी: ॥१॥ सम्वयार्थ:-(गोयम !) हे गौतम ! (जहा) जैसे (राइगणाणअच्चए) रात दिन के समूह बीत जाने पर (पंडुरए) पक जाने से (दुमपत्तए) वृक्ष का पत्ता {निवडइ) गिर जाता है (एवं) ऐसे ही (मणुआणं) मनुष्यों का (जीवि) जीवन है । अतः (समय) एक समय मात्र के लिए भी (मा पमामए) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे समय पाकर वृक्ष के पत्ते पीले पड़ जाते हैं; फिर वे पक कर गिर जाते हैं । उसी प्रकार मनुष्यों का जीवन नाशशील है । अतः हे गौतम ! धर्म का पालन करने में एक क्षण मात्र भी व्यर्य मत गॅवाओ । मूलः-कुसग्गे जह ओस बिंदुए, थोब चिट्टइ लंबमाणए ।
एवं मणुआण जीवि, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२॥
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निग्रंन्य-प्रवचन
छाया:-कुशाग्र यथाऽवश्यायविन्दुः, स्तोक तिष्ठति लम्बमानकः ।
एवं मनुजानां जीवितं, समयं गौतम ! मा प्रमादी: ।।२।। अग्नया:--(गोयम !) हे गौतम ! (जह) जैसे (कुसग्गे) कुष के अग्रभाग पर (लंघमाणए) लटकती हुई (मोनिंदुए) ओस की बूंद (पोथ) अल्प समय (चिर) .इसी है (4) शी कामगुआ मनुष्य का जीविय) जीवन है । अतः (समय) एक समय मात्र (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे घास के अग्रभाग पर तरल ओस की बूंद थोड़ें ही समय तक टिक सकती है। ऐसे ही मानव शरीर धारियों का जीवन है। अतः हे गौतम ! जरा से समय के लिए भी गाफिल मत रह । मल:-इइ इत्तरिअम्मि आउए,
जीविअए बहुपच्चवायए। विहुणाहि रयं पुरेकर्ड,
समयं गोयम ! मा पमायए ।।३।। छाया:-इतीत्वर आयुषि, जीवितके बहु प्रत्यवायके ।
विधुनीहि रज: पूराकृतं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।३।। अम्बयार्थ:- (गोयम !) हे गौतम ! (इइ) इस प्रकार (आजए) निरुपक्रम आयुष्य (इत्तरिअम्मि) अल्प काल का होता हुआ और (जीविमए) जीवन सोपक्रमी होता हुआ (बहुपन्धवायए) बहुत विघ्नों से घिरा हुआ समझ करके (पुरेफर्ड) पहले की हुई (रय) कर्म रूपी रज को (विहणाहि) दूर करो । इस कार्य में (समय) समय मात्र का भी (मा पभायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिसे शस्त्र, विष, आदि उपक्रम मी बाधा नहीं पहुंचा सकसे, ऐसा नोपक्रमी (अकाल मृत्यु से रहित) आयुष्य भी पोड़ा होता है । और शस्त्र, विष आदि से जिसे बाधा पहुँच सके ऐसा सोपक्रमी जीवन पोड़ा ही है। उसमें भी ज्वर, नासी आदि अनेक व्याधियों का विघ्न भरा पड़ा होता है। ऐसा समम कर हे गौतम ! पूर्व के किये हुए कमी को दूर करने में क्षणभर प्रमाद न करो।
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प्रमाद- परिहार
मूल:-- दुल्ल हे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं । गाढा य विवाग कम्मुणो,
समयं गोयम ! मा पमायए ||४||
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छाया:-- दुर्लभः खलु मानुष्यो भवः चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् । गादाश्च विपाकाः कर्मणां समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ ४ ॥
अन्वयार्थ :- ( गोयम !) हे गौतम ! (सम्वपाणिणं) सब प्राणियों को (चिरकाले चि) बहुत काल से भी ( खलु ) निश्चय करके ( माणुसे) मनुष्य (मये) सब (दुल्हे) मिलना कठिन है । (य) क्योंकि (कम्भुणो ) कर्मों के ( विभाग) विपाक को (गाढा) नाश करना कठिन है । अतः (समय) समय मात्र का ( मा पमायए) प्रमाद मत कर।
भावार्थ :- हे गौतम! जीवों की एकेन्द्रिय आदि योनियों में इधर-उधर जन्मते मरते हुए बहुत काल गया । परन्तु दुर्लभ मनुष्य जन्म नहीं मिला । क्योंकि मनुष्य जन्म के प्राप्त होने में जो रोड़ा अटकाते हैं ऐसे कर्मों का विक नाश करने में महान् कठिनाई है। अतः हे गौतम! मानव देह पाकर पल मर भी प्रमाद मत कर !
मूलः --- पुढविकाय मइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईयं समयं गोयम ! मा पमायए ||५||
छाया:- पृथिवीकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् । कालं संख्यातीतं समयं गौतम ! मा प्रमादीः ||५||
अभ्ययार्थ:-- ( गोयम !) हे गौतम! ( पुढविकायमगओ) पृथ्वीकाय में गया हुआ (जीवो) जीव ( उक्कोस) उत्कृष्ट ( संखाईम) संख्या से अतीत अर्थात् असंख्य (काल) काल तक (सबसे) रहता है। अतः ( समयं ) समय मात्र का ( मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
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निर्गन्ध-अपना भावार्थ:-हे गौतम ! यह जीव पृथ्वीकाय' में जन्म-मरण को धारण करता हुआ उत्कृष्ट असंख्य काल अर्थात् असंस्य अवसर्पिणी उत्सपिणी काल तक को बिताता रहता है । अतः हे मानव देह-धारी गौतम ! तुसे एक क्षण मात्र की मी गफलत करमा' ब नहीं है। मूलः--आउक्कायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संबसे ।
कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥६॥ तेउक्कायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संबसे । कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ।।७।। बाउक्कायमइगओ, उक्कोस जीवो उ संवसे ।
कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥८॥ छाया:--अपकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् ।
कालं संख्यातीत, समयं गौतम ! मा प्रमादी: ॥६॥ तेजःकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् । कालं संख्यातीतं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ||७11 वायुकायमतिगतः उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् ।
काल संख्यातीतं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।८।। अन्वयार्थ:-(गोयम !) हे गौतम ! (जीवो) जीव (आउक्कायमइगो) अपकाय को प्राप्त हुआ (उपक्रोस) उत्कृष्ट (संखाईय) असंख्यात (काल) काल तक (संबसे) रहता है । अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमा मत कर ।।६।। इसी सरह (तेउकायमहगओ) अग्निकाय को प्राप्त हुआ जीव और (वाउनकायमइगमओ) वायुकाय को प्राप्त हुआ जीव असंख्य काल तक रह जाता है |७-८॥ ___ भावार्थ:-हे गौतम | इसी तरह यह आत्मा जल, अग्नि तथा वायु काथ में असंख्य काल तक जन्म-मरण को धारण करता रहता है। इसीलिए तो कह | Body of the living beiogs of the carth.
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प्रमाद- परिहार
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जाता है कि मानव जन्म मिलन महान कठिन है। नराश्य हे गौतम | तुझे धर्म का पालन करने में तनिक भी गाफिल न रहना चाहिए।
मूलः -- वणस्सइकायमइगओ, उनकोसं जीवो उ सबसे । कालमणतं दुरंतयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥६॥
छाया: - वनस्पत्तिकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् 1 कालमनन्तं दुरन्तं समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥६॥
P
अन्वयार्थ:- ( गोयम !) हे गौतम! ( गणस्सइकायम गओ ) वनस्पतिकाय में गया हुआ (जीवो) जीव (उक्को) उत्कृष्ट ( दुरंतयं) कठिनाई से अन्त आवे ऐसा (अनंत) अनंत (काल) काल तक (सबसे) रहता है। अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:- हे गौतम ! यह आत्मा वनस्पतिकाय में अपने कृत-कर्मों द्वारा जन्म-मरण करता है, तो उत्कृष्ट अनंत काल तक उसी में गोता लगाया करता है। और इसी से उस आत्मा को मानव शरीर मिलना कठिन हो जाता है । इसलिए है गौतम ! पल भर के लिए भी प्रमाद मत कर
सुलः - - बे इंदिअकायम गओ,
उक्कोसं जीवो उ सबसे । कालं संखिज्जसण्णिअं,
समयं गोयम ! मा पमायए ॥ १०॥
छाया: - द्वीन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् । कालं संख्येयसंज्ञितं समयं गौतम ! मा प्रमादीः ||१०||
J
अन्वयार्थः - ( गोयम !) हे गौतम! ( बेइंदिकायम इगओ) द्वीन्द्रिय योनि को प्राप्त हुआ (जीवो) जीव ( जक्कोर्स) उत्कृष्ट ( संखिज्जसं णि) संख्या कौ संज्ञा है जहां तक ऐसे (काल) काल तक (संवसे) रहता है। अतः ( समयं ) समय मात्र का भी ( मा पसायए) प्रमाद मत कर ।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
भावार्थ :- हे गौतम! जब यह आत्मा दो इंद्रियवाली योनियों में आकर जम्म धारण करता है तो काल गणना की जहाँ तक संख्या बताई जाती है वहाँ तक अर्थात् संख्यात काल तक उसी योनि में जन्ममरण को धारण करना रहता है | अतः हे गौतम! क्षणमात्र का भी प्रमाद न कर । मूलः -- वैइदियकाय मनाओ,
उक्कोसं जीवी उ सबसे । कालं संखिज्जसंणिअं,
११४
समयं गोयम ! मा प्रमायए ।। ११ ।।
चउरिदिय कायम इगओ,
उक्कोसं जीवो उ सबसे ।
कालं संखिज्जसंणिअं,
समयं गोयम ! मा पमायए ||१२||
छाया:- त्रीन्द्रियकायमतिगतः उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् । कालं संख्येयसंज्ञितं समयं गौतम ! मा प्रमादीः ||११||
P
i
चतुरिन्द्रियकायमतिगतः उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् ।
कालं संख्येयसंज्ञितं समयं गोतम ! मा प्रमादीः || १२ || अन्वयार्थः -- ( गोयम !) हे गौतम ! (ते इंदियकायमओ) तीन इन्द्रियवाली योनि को प्राप्त हुआ (जीवो) जीव (उक्कोसं ) उत्कृष्ट ( संखिज्जसं ण्णिां) काल गणना की जहाँ तक संख्या बताई जाती है वहाँ तक अर्थात् संख्यात ( काल ) काल तक (सबसे) रहता है। इसी तरह ( चउरिदियकायमइगओ ) चतुरिद्रिय वाली योनि को प्राप्त हुए जोव के लिए भी जानना चाहिए अतः ( समयं ) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर
भावार्थ:- हे गौतम! जब यह आत्मा तीन इन्द्रिय तथा चार इन्द्रियवाली योनि में जाता है तो अधिक से अधिक संख्यात काल तक उन्हीं योनियों में जन्म-मरण को धारण करना रहता है। अतः हे गौतम! धर्म की वृद्धि करने में एक पल भर का भी कभी प्रमाद न कर ।
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प्रमाद-परिहार
मूल:--पंचिदिकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे !
सत्तभवग्गहणे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१३॥ छाया:-पंचेन्द्रिय कायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् ।
सप्ताष्टभवग्रहणानि, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥१३॥ अन्वयार्थ:-(गोयम !) हे गौतम ! (पंचिदियकायमहगओ) पाँच इन्द्रिय वाली योनि को प्राप्त हुआ (जीवो) जीव (उवकोस) उत्कृष्ट (सत्तट्टमवागहणं) सात बाठ भव तक (संवसे) रहता है। अत: (समय) समय मात्र का मी (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:-हे गौतम ! यह आत्मा पंचेन्द्रियवाली तिर्यंच की योनियों में जब जाता है, तब यह अधिक से अधिक सात आठ भव तक उसी योनि में निवास करता है अतः हे गोतम ! समय मात्र का भी प्रमाद कमी मस कर | मुल:--देवे नेरइए अइगओ, उक्कोसं जीवो उ संबसे ।
इक्किक्क भवग्गहरो, समयं गोयम ! मा पमायए ।।१४।। छाया:-- देवेन रयिकेचातिगत:, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् ।
एककभव ग्रहणं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।१४।। अन्वयार्थः-(गोयम !) हे गौतम ! (देवे) देव (नेरइए) नारकीय भवों में (अइगओ) गया हुआ (जीवो) जीव (इश्किक्कमवगहणे) एक एक भव तक उसमें (संवसे) रहता है । अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद कभी मत कर।
भावार्थ:-हे गौतम ! जब यह आत्मा देव अथवा नारकीय भवों में जन्म लेता है तो वहाँ एक एक जन्म तक यह रहता है (बीच में नहीं निकल सकता) अतएव हे गौतम 1 समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
मुल:-एवं भवसंसारे, संसरइ सुहासहेहि कम्मेहि ।
जीवो पमायबहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए ।।१५।।
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निग्रन्थ-प्रवचन छाया:--एवं भवसंसारे, संसरति शुभाशुभैः कर्मभिः ।
जीवो बहुल प्रमादः, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥१५॥ सम्वयार्थः- (गोयम !) हे गौतम ! (एवं) इस प्रकार (भवसंसारे) जन्ममरण रूप संसार में (पमायबहुलो) अति प्रमाद वाला (जीको) जीव (सुहासुहेहि) शुभ-अशुम (कम्मेह) कर्मों के कारण से (संसरइ) भ्रमण करता रहता है । अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर।
भावार्थ:-हे गौतम ! इस प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि एकेन्द्रिय द्वौन्द्रिय, सीन इन्द्रिम, पार इन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय वाली तिपंच योनियों में एवं देव तथा नरक में संख्यात, असंख्यात और अनंत काल तक अपने शुभाशम कर्मों के कारण यह जीव भटकता फिरता है। इसी से कहा गया है कि इस आत्मा को मनुष्य भव मिलना महान् कठिन है। इसलिए मानव-देह-धारी हे गौतम ! अपनी आत्मा को उत्सम अवस्था में पहुंचाने के लिए समय मात्र का मी प्रमाद कमी मत कर। मूलः-लक्ष्ण वि भानुसत्तणं,
आरिअत्त पुणरावि दुल्लहं । बहवे दसुआ मिलक्खुमा,
समयं गोयम ! मा पमायए ।।१६।। छाया:--लब्ध्वाऽपि मानुषत्वं, आर्यत्वं पुनरपि दुर्लभम् ।
बहवो दस्यवो म्लेच्छाः , समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।१६।।
अम्बयार्थ:-(गोयम ! ) हे गौतम ! (माणुसत्तणं) मनुष्यस्व (लभूप वि) प्राप्त हो जाने पर भी (पुणरावि) फिर (आरिअत्त) आर्यख का मिलना (बुरुषह) दुसंभ है । क्योंकि (बहवे) बहुतों को यदि मनुष्य भव मिल भी गया तो वे (पसुआ) चोर और (मिलक्षुआ) म्लेच्छ हो गये अतः (समय) समय मात्र का भी (पमायए) प्रमाद मत कर।
भावार्थ:-हे गौतम ! यदि इस जीव को मनुष्य जन्म मिल भी गया तो आर्य होने का सौभाग्य प्राप्त होना महान् दुलंम है । क्योंकि बहुत से नाम भाष
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प्रमाद-परिहार
के मनुष्य अनार्य क्षेत्रों में रहकर चोरी वगैरह करके अपना जीवन बिताते हैं । ऐसे नाम मात्र के मनुष्यों की कोटि में और म्लेच्छ जाति में जहाँ कि घोर हिंसा के कारण जीव कमी ऊँधा नहीं उठता ऐसी जाति और देषा में जीव ने मनुष्य पेट पर भी ली तो किस काम को ? प्रमसिार आर्य देश में जन्म लेने वाले और कर्मों से आयें है गौतम ! एक पल भर का भी प्रमाद मत कर । मूल:--लद्धण वि आरियत्तणं,
अहीणपंचिदियया हु दुल्लहा । विगलिदियया ह दीसई,
समयं गोयम ! मा पमायए ॥१७॥ छायाः-लब्ध्वाऽप्यार्यत्वं, अहीनपञ्चेन्द्रियता हि दुर्लभा ।
विकलेन्द्रियता हि दृश्यते, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।१७।। अम्बयार्पः- (गोयम !) हे गौतम ! (आरियत्तणे) आर्यत्व के (लट्टण वि) प्राप्त होने पर भी (ह) पुनः (अहोणपंचिदियया) अहीन पंचेन्द्रियपन मिलना (दुल्लहा) दुर्लभ है (ह) क्योंकि अधिकतर (विलिदियया) विकलेन्द्रिय वाले (दीसई) दीन पड़ते हैं । अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाव मत कर।
भावार्थ:-हे गौतम ! मानव-देह आर्य देश में भी पा गया परन्तु सम्पूर्ण इन्द्रियों की शक्ति सहित मानव देह मिलना महान कठिन है। क्योंकि बहुत से ऐसे मनुष्य देखने में आते हैं कि जिनकी इन्द्रियाँ विकल हैं । जो कानों से वषिर हैं। वो आंखों से अन्धे या पैरों से अपंग हैं। इसलिए सशक्त इन्द्रियों वाले है गौतम ! बौदहा गुणस्थान प्राप्त करने में कमी आलस्य मत कर । मूल:--अहोणपंचिदियत्त पि से ल हे,
उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा । कुतिस्थिनिसेवए जणे,
समयं गोयम ! मा पमायए॥१८॥
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निग्रंन्य-प्रवचन।
छाया:-अहीनपञ्चेन्द्रियत्वमपि स लभते. उत्तमधर्मश्रुतिहि दुर्लभा।
कृतीथिनिषेत्रको जनी. समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।१८।।
आपयार्थ:- (गोयम) हे गौतम ! (अहोणपंचिदियत्तं पि) पाँचों इन्द्रियों की सम्पूर्णता मी (स) वह जीव (लहे) प्राप्त करे तदपि (उत्तमधम्मसुई) ! यथार्थ धर्म का प्रवण होना (दुल्लहा) दुर्लभ है । () निश्चय करके, क्योंकि ! (जणे) बहुत से मनुज्य (कृतिस्थिनिसेवए) कुतीर्थी की उपासना करने वाले हैं। अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्यः हे गौतम ! पांचों इन्द्रियों की सम्पूर्णता वाले को आर्य देश में | मनुष्य जन्म भी मिल गया तो अच्छे शास्त्र का श्रवण मिलना और भी कठिन है । क्योंकि बहुत से मनुष्य जो इहलौकिक सुखों को ही धर्म का रूप देने वाले हैं कुतीर्थी रूप हैं। नाम मात्र के गुरु कहलाते हैं। उनकी उपासना करने वाले हैं। इसलिए उत्तम शास्त्र श्रोता हे गौतम ! कर्मों का नाश करने में तनिक भी ढील मत कर।
मूल:--लद्धणवि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा ।
मिच्छत्तनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए ।।१६।।। छाया:-लब्ध्वाऽपि उत्तमां श्रुति, श्रद्धानं पुनरपि दुर्लभम् ।
मिथ्यात्वनिषेवको जनो, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।१९।।
अन्वयार्थ:- (गोयम) हे गोतम ! (उत्तम) प्रधान शास्त्र (सुई) श्रवण (लखूण वि) मिलने पर भी (पुणरावि) पुन: (सद्दहणा) उस पर श्रद्धा होना (दुल्लहा) दुर्लभ है। क्योंकि {जणे ] बहुत से मनुष्य (मिछत्तनिसेवए) मिथ्यात्य का सेवन करते हैं। अतः (समयं ) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:-हे गौतम ! सप्यास्त्र का श्रवण मी हो जाय तो भी उस पर श्रद्धा होना महान् कठिन है। क्योंकि बहुत से ऐसे भी मनुष्य हैं जो सच्छास्त्र श्रवण करके भी मिथ्यात्व का बड़े ही जोरों के साथ सेवन करते हैं । अत: है श्रद्धावान् गौतम ! सिद्धावस्था को प्राप्त करने में आलस्य मत कर ।
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प्रमाद-परिहार
मूलः--धम्म पि हु सद्दहंतया,
दुल्लहया काएण फासया । इह कामगुणेहि मुच्छिया,
समयं गोयम ! मा पमायए ।।२०।। छाया:-धर्ममपि हि श्रद्धतः, दुर्लभकाः कायेन स्पर्शकाः ।
इह कामगुणर्मूच्छिताः, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।२०।। अन्वयार्थः-(गोयम) हे गौतम ! (धम्म पि) धर्म को मी (सहितया) श्रखते हुए (काएण) काया करके (फासया) स्पर्श करना (दुल्लहमा) दुर्लम है (ह) क्योंकि (इह) इस संसार में बहुत से जन (कामगुणे हि) मोगादि के विषयों थे (भुजिया) मूच्छित हो रहे हैं अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर।
भावार्थ:-हे गौतम ! प्रधान धर्म पर श्रद्धा होने पर भी उसके अनुसार पलना और भी कठिन है । धर्म को सत्य कहने वाले वाचाल तो बहुत लोग मिलेंगे पर उसके अनुसार अपना जीवन बिताने वाले बहुत ही पोड़े देखे जायेंगे। क्योंकि इस संसार के काम-मोगों से मोहित होकर अनेकों प्राणी अपना अमूल्य समय अपने हाथों लो रहे हैं। इसलिए श्रद्धापूर्वक क्रिया करने वाले हे गौतम ! कर्मों का नाश करने में एक क्षणमात्र का भी प्रमाद मत
मुल:--परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते।
से सोयबले य हायई, समयं गोयम! मा पमायए ।॥२१॥ छाया:---परिजीयति ते शरीरके, केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते ।
तत् श्रोत्रबलं च हीयते, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥२१॥ मनायार्य:- (गोयम) हे गौतम ! (ते) तेरा (सरीरयं) शरीर (परिजूरइ) जीर्ण होता जा रहा है । (ते) लेरे (केसा) बाल (पंडुरया) सफेद (हवंति) होते जा रहे हैं । (य) और (से) वह शक्ति जो पहले पी (सोयबले) श्रोत्रेन्द्रिय की
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१२०
निर्ग्रन्य-प्रवचन
शक्ति अथवा "सबब ले" कान, नाक, आँख, जिल्हा आदि की शक्ति (हाई) हीन होती जा रही है। अतः ( समयं ) समय मात्र का मी ( मा पमायए) प्रमाद
मत कर ।
भावार्थ :- हे गौतम! आये दिन तेरी वृद्धावस्था निकट आती जा रही है । बाल सफेद होते जा रहे हैं। और कान, नाक, आंख, जीभ, शरीर, हाथ, पैर आदि की शक्ति मी पहले की अपेक्षा न्यून होती जा रही है। अतः हे गौतम ! समय को अमूल्य समझ कर धर्म का पालन करने में क्षण भर का भी प्रमाद मत कर |
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मूलः - अरई गंड विसूइया,
आयंका विविहा फुसंति ते । विहडइ विद्वंसह ते सरीरयं, समयं गोयम ! मा पमायए ||२२||
छाया:- अरतिर्गण्डं विसूचिका,
आतंका विविधा स्पृशन्ति ते । विह्नियते विध्वस्यति ते शरीरकं,
समयं गौतम ! मा प्रमादीः ||२२||
अन्वयार्थ : --- ( गोयम !) हे गौतम! ( अरई) चित्त को उद्वेग (गंड ) गाँठ, गूमड़े ( विसूइया) दस्त, उल्टी और (विविधा) विविध प्रकार के ( आयंका) प्राण घातक रोगों को (ते) तेरे जैसे ये बहुत से मानव शरीर (फुसंति) स्पर्श करते हैं ( ते सरीर) तेरे जैसे ये बहुत मानव से शरीर (विड) बल की हीनता से गिरते जा रहे हैं । और (बिद्धसह) अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अतः ( समयं ) समय मात्र का ( मा पमायए) प्रमाद मत कर।
भावार्थ:- हे गौतम ! यह मानव शरीर उद्वेग, गाँठ, गूमड़ा, वमन, विरेचन और प्राणघातक रोगों का घर है और अन्त में बलहीन होकर मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है। अत्तः मानव शरीर को ऐसे रोगों का घर समझ कर है गौतम ! मुक्ति को पाने में विलम्ब मत कर |
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प्रमाव-परिहार मृल:--बोच्छिद सिरोहमप्पणो,
___ कुमुयं सारइयं वा पाणियं । से सम्बसिरोह वज्जिए,
समयं गोयम ! मा पमायए ॥२३॥ छाया:-व्युच्छिन्धि स्नेहमात्मनः, कुमुदं शारदमिव पानीयम् ।
___ तत् सर्वस्नेहजितः, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥२३॥
अन्वयार्थ:-(गोयम !) हे गौतम ! (सारइये) शरद ऋतु के (कुमुर्य) कुमुद (पाणियं) पानी को (वा) जैसे त्याग देते हैं। ऐसे ही (अप्पणो) तू अपने (सिणेह) स्नेह को (बोच्छिद) दूर फर (से) इसलिये (सम्वसिणेहजिमए) सर्व प्रकार के स्नेह को त्यागता हुआ (समय) समय मात्र का मी (मा पमायए) प्रमाद मत फर।
भावार्थ:-हे गौतम ! शारद ऋतु का चन्द्र विकासी कमल जैसे पानी को अपने से पृथक् कर देता है । उसी तरह तू अपने मोह को दूर करने में समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।। मृलः--चिच्चाण धणं च भारियं,
पब्वइओ हि सि अणगारियं । मा वंतं पुणो वि आबिए,
समयं गोयम ! मा पमायए ॥२४॥ छाया:-त्यक्त्वा धनं च भार्या, प्रजितो ह्यस्य नगारताम् ।
मा वान्तं पुनरप्यापिवेः, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥२४॥ अन्वया:- (गोयम !) हे गौतम ! (हिं) यदि तूने (घणं) धन (च) और (मारिय) मार्या को (चिच्चाण) छोड़कर (अणगांरिय) साघुपन को (पन्याइओ सि) प्राप्त कर लिया है। अतः (वंत) वमन किये हुए को (पुणो वि) फिर मी (मा) मत (आविए) पी, प्रत्युत त्याग वृत्ति को निश्चल रखने में (समय) समय मात्र का मी (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
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निग्रंन्य-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम ! तूने धन और स्त्री को त्याग कर साधु वृत्ति को धारण करने की मन में इच्छा करली है । तो उन त्यागे हए विषैले पदार्थों का पुनः सेवन करने की इच्छा मत कर । प्रत्युत' त्याग वृत्ति को रद्द करने में एक समय मात्र का भी प्रमाद कभी मत कर । मूलः--न हु जिप न दिसई,
बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए । संपइ नेयाउए पहे,
समयं गोयम ! मा पमायए ॥२५।। छाया:-न स्खलु जिनोऽद्य दृश्यते, बहुमतो दृश्यते मार्गदेशनः ।
सम्प्रति नैयायिके पथि, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।२५।। मान्वया:- (गोयम !) हे गौतम ! (मज) आज (ह) निश्चय करके (जिणे) तीर्थकर (न) नहीं (दिसई) दिखते हैं, किन्तु (मगदेसिए) मार्गदर्शक और (बहुमए) बहुतों का माननीय मोक्षमार्ग (दिस्राई) दिखता है। ऐसा कहकर पंचम काल के लोग धर्मध्यान करेंगे। तो मला (संपइ) वर्तमान में मेरे मौजूद होते हुए (नेयाउए) नयायिक (पहे) मागं में (समय) समय मात्र का मी (मा पमाया) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:--हे गोतम ! पंचम काल में लोग कहेंगे कि आज तीर्थकर तो हैं नहीं, पर तीर्थकर प्ररूपित मार्गदर्शक और अनेकों के द्वारा माननीय यह मोक्षमार्ग है। ऐसा वे सम्पक प्रकार से समझते हुए धर्म की आराधना करने में प्रमाद नहीं करेंगे। तो मेरे मौजूद रहते हुए न्याय पप से साध्य स्थान पर पहुँचने के लिए है गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । मूल:--अवसोहियकंटगापह,
ओइण्णो सि पहं महालयं । गच्छसि मग्गं विसोहिया,
समय गोयम ! मा पमायए ।।२६।।
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प्रमाद-परिहार छाया:-अवशोध्य कण्टकपथं, अवतीर्णोऽसि पन्थानं महालयं ।
गच्छसि मार्ग विशोध्य, समयं गोतम ! मा प्रमादीः ॥२६।। मम्वयार्थ:-(गोयम !) हे गौतम ! (कंटगापह) कंटक सहित पंथ को (अवसोहिया) छोष्ट कर (महालयं) विशाल मार्ग को (ओइण्णोसि) प्राप्त होता हुआ, उसी (विसोहिया) विशेष प्रकार से शोधित (मग्ग) मार्ग को (गच्छसि) जाता है । अतः इसी मार्ग को तय करने में (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर।
भावार्षः-हे गौतम ! संकुचित अतथ्य पथ को छोड़ कर जो तूने विशाल तथ्य मार्ग को प्राप्त कर लिया है । और उसके अनुसार तू उसी विशाल मार्ग का पथिक भी बन चुका है। अतः इसी मार्ग से अपने निजी स्थान पर पहुंचने के लिये हे गौतम ! तू एक समय मात्र का मी प्रमाद मत कर । भूल:--अबले जह भारवाहए,
मा मग्गे विसमेऽवगाहिया। पच्छा पच्छाणुतावए,
समयं गोयम ! मा पमायए ॥२७॥ छाया:--अबलो यथा भारवाहकः, मा मार्ग विषममनाह्य ।
पश्चात्पश्चादनुताप्यते, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥२७|| अन्वयार्थ:--(गोयम !) हे गौतम ! (जह) जैसे (अबने) बलरहित (भारघाहए) बोझा ढोने वासा मनुष्य (विसमे) विषम (मग्गे) मार्ग में (अवगाहिया) प्रवेश हो कर (पच्छा) फिर (पच्छाणुतावए) पश्चाताप करता है। (मा) ऐसा मत बन । परन्तु जो सरल मार्ग मिला है उसको तय करने में (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर।।
भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे एक दुर्बल आदमी बोझा उठा कर विकट मार्ग में चले जाने पर महान् पश्चात्ताप करता है। ऐसे ही जो नर अल्पज्ञों के द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों को ग्रहण कर कुपंथ के पथिक होंगे, वे चौरासी की पक-फेरी में जा पड़ेगे और यहाँ वे महान् कष्ट उठायेंगे । अतः पश्चात्ताप करने का मौका न आवे ऐसा कार्य करने में हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।
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मूल:- तिष्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ ।
अभितुर पारं गमित्तए,
समयं गोयम ! मा पमायए ||२८||
"
छाया:- तीर्णः खत्वस्यर्णवं महान्तं किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः । अभिवरस्व पारं गन्तुं समयं गौतम ! मा प्रमादीः ||२६||
अन्वयार्थः - ( गोयम ! )
(मह) वा (अपणी बुद्र (हिष्ण सि) मानो तू पार कर गया ( पुणे ) फिर ( तौरमागओ ) किनारे पर आया हुआ (क) क्यों (चिसि ) रुक रहा है । अतः (पारं ) परले पार ( गमितए) जाने के लिए ( अभितुर ) शीघ्रता कर, ऐसा करने में (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:- हे गौतम! अपने आप को संसार रूप महान् समुद्र के पार गया हुआ समझ कर फिर उस किनारे पर ही क्यों रुक रहा है ? परने पार होने के लिए अर्थात् मुक्ति में जाने के लिए शोधता कर ऐसा करने में हे गौतम ! तू क्षण मर का भी प्रमाद मत कर ।
मूल:-- अकलेवरसेणिसूसिया,
सिद्धि गोयम ! लोयं गच्छसि । खेवं च सिवं अणुत्तरं,
समयं गोयम ! मा पमायए ||२६|
नियंग्य-प्रवचन
श्रेणिमुच्छित्य,
सिद्धि गौतम ! लोकं गच्छसि । शिवमनुत्तरं,
समयं गौतम ! मा प्रमादीः ||२६||
छाया:- अकलेवर
क्षेमं च
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प्रमाद-परिहार
१२५
अन्वयार्प:----(गोयम !) हे गौतम ! (अकलेवरसणि) कलयर रहीं होने में सहायक भूत श्रेणी को (सिआ) बढ़ा कर अर्थात् प्राप्त कर (खेमं) पर चक्र का भय रहित (च) और (सिव) उपद्रव रहित (अणुत्तर) प्रधान (सिदि) सिद्ध (लोय) लोक को (गम्छसि) जाना ही है, फिर (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:-हे गौतम ! सिद्ध पद पाने में जो शुम अध्यवसाय रूप क्षपक श्रेणि सहायमूत है, उसे पाकर एवं उत्तरोत्तर उसे बढ़ाकर, भय एवं उपद्रव रहित बटल सुखों का जो स्थान है, वहीं सुझे जाना है। अतः हे गौतम ! धर्म आराधना करने में पल मात्र की भी ढील मत कर।
इस प्रकार निमंन्य की ये सम्पूर्ण शिक्षाएं प्रत्येक मानव देह-धारी को अपने लिए भी समझनी चाहिए और धर्म की आराधना करने में पल भर का भी प्रमाद कभी न करना चाहिए।
॥ इति दशमोऽध्यायः ।।
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॥ॐ॥
निर्ग्रन्थ-प्रवचन (अध्याय ग्यारहवा) भाषा-स्वरूप
॥ श्रीभगवानुवाच ।। मूल:---जा य सच्चा अवत्तवा, सच्चामोसा य जा मुसा ।
जा य बुद्धेहिणाइण्णा, न तं भासिज्ज पनवं ॥ १।।
छाया:—या च सत्याऽवक्तध्या, सत्याभूषा च या मुषा ।
या च बुद्ध चीर्णा, न ता भाषेत प्रज्ञावान् ||१||
अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जा) जो (सध्चा) सत्य माषा है, तदपि वह (अवत्तब्वा) नहीं बोलने योग्य (य) और (जा) जो (सच्चामोसा) कुछ सत्य कुछ असरम ऐसी मिश्रित भाषा (य) और (मुसा) झूठ, इस प्रकार (आ) जो माषाएं (बुद्धेहि) तीथंकरों द्वारा (अणाइण्णा) अनाचीर्ण हैं (तं.) उन भाषाओं को (पन्नव) प्रजावान् पुरुष (न मासिज्ज) कभी नहीं बोलते ।।
भावार्थ:-हे गौतम ! सत्य गाषा होते हुए भी यदि सावध है तो वह बोलने के योग्य नहीं है, और कुछ सत्य कुछ असत्य ऐसी मिश्रित माषा तथा बिलकुल असत्य ऐसी जो भाषाएं हैं जिनका कि तीर्थंकरों ने प्रयोग नहीं किया
और बोलने के लिए निषेध किया है, ऐसी भाषा बुद्धिमान् मनुष्य को कमी नहीं बोलनी चाहिये । मूल:--असच्चमोसं सच्चं च, अणबज्जमकक्कसं ।
समुप्पेहमसं दिखें, गिरं भासिज्ज पनवं ॥२।।
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भाषा-स्वरूप
१२७ छाया:-असत्यामृषां सत्यां च, अनवद्यामकर्कशाम् ।
समुत्प्रेक्ष्याऽसंदिग्धां गिरं भाषेत प्रज्ञावान् ।।२।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (असच्चमोसं) व्यावहारिक भाषा (च) और (अणवज्ज) वध्य रहित (अकक्कस) फर्कशता रहित (असंदिद्ध) संदेहरहित (समुप्पेह) विचार कर ऐसी (सच्च) सत्य (गिर) भाषा (पन्नव) बुद्धिमान् (मासिज्ज) बोले ।
भावार्थ:-हे गौतम ! सत्य भी नहीं, असत्य भी नहीं ऐसी व्यावहारिक भाषा जैसे वह गांव आ रहा है आदि और किसी को कष्ट न पहुँचे बसी एवं कर्णप्रिय तपा संदेहरहित ऐसी भाषा को भी बुद्धिमान् पुरुष समयानुसार विचार कर बोलते हैं। मूल:---तहेब फरसा भासा, गुरुभूओवघाइणी ।
सच्चा वि सा न बत्तब्बा, जओ पावस्स आगमो ॥३॥
छाया:-तर्थव परुषा भाषा, गुरु भूतोपधातिनी।
सत्यापि सा न वक्तव्या, मतः पापस्यागमः ॥३॥
अम्बयार्थः-है इन्द्रभूति ! (तहेव) इसी प्रकार (फरसा) कठोर (गुरुभूओयघाइणी) अनेकों प्राणियों का नाश करने वाली (सच्चा वि) सत्य है तो भी (जओ) जिससे (पावस्स) पाप का (आगमो) आगमन होता है (सा) वह भाषा (दत्तब्बा) बोलने योग्य (न) नहीं है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! जो मनुष्य कहलाते हैं उनके लिए काटोर एवं जिससे अनेकों प्राणियों की हिंसा हो, ऐसी सत्य भाषा भी बोलने योग्य नहीं होती है। यद्यपि वह सत्य भाषा है, तदपि वह हिंसाकारी भाषा है, उसके बोलने से पाप का आगमन होता है, जिससे आस्मा मारवान् बनती है ।
मूल:--तहेव काणं काणे ति, पंडगं पंडगे ति वा ।
वाहि वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए ॥४||
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१२८
निम्य-प्रवचन
छायाः-तथैव काणं काण इति,
पण्डकं पण्डक इति बा। व्याधिमन्तं वाऽपि रोगीति,
__स्तेनं चौर इति न वदेत् ।।४।। अम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (तहेव) वैसे ही (काणं) काने को (काणे) काना है (त्ति) ऐसा (वा) अथवा (पंडग) नपुंसक को (पंडगे) नपुंसक है (ति) ऐसा (वा) अथवा (बाहिरं) व्याधिवाले को (रोगि) रोगी है (त्ति) ऐसा और (तण) पोर को (चौरे) घोर है (त्ति) ऐसा (नो) नहीं (वए) बोलना चाहिए ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जो मनुष्य कहलाते है वे काने को काना, नपुसक को नपुसक, व्याधि बाल को रोगी ओर चोर को पोर ऐसा कमी नहीं बोलते हैं । क्योंकि वैसा बोलने में भाषा भले ही सत्य हो, पर ऐसा बोलने से उनका दिल दुखता है। इसीलिए यह असत्य माषा है, और इसे कमी न बोलना चाहिए। मूल:--देवाणं मणुयाणं च, तिरियाणं च वुगहे ।
अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ त्ति नो वए ।।५।। छायाः-देवानां मनुजानां च, तिरश्चां च विग्रहे ।
अमुकानां जयो भवतु, मा वा भवत्विति नो वदेत् ।।५।। सम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (देवाण) देवताओं के (घ) और (मणुयाण) मनुष्यों के (च) और (तिरिमाणं) तियचों के (बुग्गहे) युद्ध में (अमुगाणं) अमुक की (जओ) जय (होउ) हो (वा) अथवा अमुक की (मा) मत (होउ) हो (त्ति) ऐसा (नो) नहीं (वए) बोसना चाहिए। ____भावार्थ:-हे गौतम ! देवता, मनुष्य और तिर्यंचों में जो परस्पर युद्ध हो रहा हो उसमें भी अमुक की जय हो अथवा अमुक की पराजय हो, ऐसा कभी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि एक की जय और दूसरे की पराजय बोलने से एक प्रसन्न होता है और दूसरा नाराज होता है । और जो बुद्धिमान् मनुष्य, ज्ञानीजन होते हैं वे किसी को दुःखी नहीं करते हैं।
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भाषा-स्वरूप
__ १२६ मुल:---तहेव सावज्जणमोयणी गिरा,
ओहारिणी जा य परोवघाइणी । से कोह लोह भय।। २ आणदो,
न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ॥६।। छाया:--तथैव सावधानुमोदिनी गिरा,
अवधारिणी या च परोपघातिनी। तां क्रोधलोभभयहास्येभ्यो मानवः,
न हसन्नपि गिरं वदेत् ॥६॥
अन्वयार्थः हे इन्द्रभूति ! (माणबों) मनुष्य (हासमाणो) हँसता हुआ (वि) भी (गिरं) भाषा को (न) न (वएज्जा) बोले (य) और (लहेव) वैसे ही (से) यह (कोह) क्रोध से (लोह) लोभ से (मयसा) मय से (सावज्जणमोयणी) सावध अनुमोदन के साथ (ओहारिणी) निश्चित और (परोवघाइणी) दूसरे जीवों की हिंसा करने वाली, ऐसी (जा) जो (गिरा) भाषा है, उसको न बोले ।
भावार्थ:-हे गौतम ! बुद्धिमान् मनुष्य वह है जो हड़-हड़ हँसता हुआ भी कमी नहीं बोलता है और इसी तरह सावध भाषा का अनुमोदन करके तथा निश्चयकारी और दूसरे जीवों को दुःख देने वाली भाषा कभी नहीं बोलता है। मूल:--अपूच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा ।
पिट्टिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए ॥७॥ छाया:-अपृष्ठो न भाषेत, भाषमाणस्यान्तरा ।
पृष्ठमांस न खादेत, मायामृषां विवर्जयेत् ।।७।। अन्वयार्य:- हे इन्द्रभूति ! बुद्धिमान मनुष्यों को (मासमाणस्स) बोलते हुए के (अन्तरा) बीच में (अच्छिओ) नहीं पूछने पर (न) नहीं (मासिज्ज) बोलना चाहिए और (पिट्टिमंस) चुगली भी (न) नहीं खाएज्जा) खानी चाहिए एवं (मायामोसं) कपटयुक्त असत्य बोलना (विवज्जए) छोड़ना चाहिए ।
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१३०
निर्ग्रन्य-प्रवचन
____ भावार्थ:-हे गौतम ! बुद्धिमान् वह है, जो दूसरे बोल रहे हों उनके बीच में उनके पूछे बिना न' बोले और जो उनके परोक्ष में उनके अवगुणों को भी कभी न बोलता हो, तथा जिसने कपटयुक्त असत्य भाषा को भी सदा के लिए छोड़ रक्खा हो । मूल:--सक्का सहेउं आसाइ कंटया,
अओमया उच्छया नरेणं । अणासए जो उ सहेज्ज कंटए,
वइमए कण्णसरे स पुज्जो ॥५॥ छायाः--शक्या: सोढमाशयावण्टकाः,
अयोमया उत्साहमानेन नरेण । अनाशया यस्तु स हेत कण्टवान,
वाङमयान् कर्णशरान् सः पूज्यः ॥६॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (उच्छहया) उत्साही (नरेणं) मनुष्य (आसाद) । आशा से (अओमया) लोहमय (कंटया) कंटक या तीर (सहे) सहने को (सक्का) समर्थ है । परन्तु (कण्णसरे) वान के छिद्रों में प्रवेश करने वाले (कंट) कोटे के समान (वइमए) वचनों को (अणासए) बिना आशा से (जो) जो (सहेज्ज) सहन करता है (स) वह (पुज्जो) श्रेष्ठ है।
भावार्थ:-हे गौतम ! उत्साहपूर्वक मनुष्य अर्ष-प्राप्ति की आशा से लोह ग्लण्ड के तीर और कांटों तक की पीड़ा को खुशी-खुशी सहन कर जाते है । परन्तु उन्हें वचन रूपी कण्टक सहन होना बड़ा ही कठिन मालूम होता है । तो फिर आशा रहित होकर कठिन वचन सुनना तो बहुत ही दुष्कर है। परन्तु बिना किसी भी प्रकार की आशा के, कानों के छिद्रों द्वारा कण्टक के समान वचनों को सुन कर जो सह लेता है, बस उसी को श्रेष्ठ मनुष्य समझना चाहिए । मूल:-मुहत्तदुक्खा उ हवंति कंटया,
__ अओमया ते वि तओ सुउद्धरा । वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि,
वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥६॥
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भाषा-स्वरूप
छाया:-मुहूर्त दुःस्वास्तु भवन्ति कण्टकाः,
___ अयोमयास्तेऽपि ततः सद्धराः। वाचा दुरुक्तानि दुरुद्धराणि,
__ वैरानुबन्धीनि महाभयानि ||६॥ अग्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अओमया) लोह निर्मित (कंटया) कांटों से (3) तो (मुहुसदुक्खा) मुहूर्त मात्र दुख (हवंति) होता है (ते वि) यह भी (तो) उस शरीर से (सुद्धरा) सुखपूर्वक निकल सकता है । परन्तु (वेराणुबंधीणि) वर को बढ़ाने वाले और (महम्मयाणि) महाभय को उत्पन्न करने वाले (बायादुरुत्ताणि) कहे हुए कठिन वचनों का (दुरुदराणि) हृदय से निकलना मुश्किल है।
भावार्थ:-हे गौतम ! लोह निर्मित कण्टक-तीर से तो कुछ समय तक ही दुःख होता है, और यह नी हारीर से अनी तरह निकाला जा सकता है। किन्तु कहे हुए तीक्ष्ण मार्मिक वचन वैर को बढ़ाते हुए नरकादि दुःखों को प्राप्त कराते हैं। और जीवन पर्यन्त उन कटु वचनों का हृदय से निकलना महान् कठिन है।
मूल:-अवण्णवायं च परंमुहस्स,
पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं । ओहारिणि अप्पियकारिणि च, ___ भास न भासेज्ज सया स पुज्जो ॥१०॥
छाया:-अवर्णवादं च पाराङ मुस्खस्य,
प्रत्यक्षतः प्रत्यनीकां च भाषाम् । अवधारिणीमप्रियकारिणीं च,
भाषां न भाषेत् सदा स: पूज्य: ॥१०॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (परंमुहस्स) उस मनुष्य के बिना मौजूदमी में (च) और (पच्चक्खउ) उसके प्रत्यक्ष रूप में (अण्णवायं) अवर्णवाद (मास)
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
माषा को (सगा) हमेशा (न) नहीं (भामेज्ज) बोलना चाहिए (म) और (पडि-।। णीयं) अपकारी (उहारिणि) निश्चयकारी (अप्पियकारिणि) अप्रियकारी (भास) । भाषा को भी हमेशा जो नहीं बोलता हो (स) वह (पुज्को) पूजनीय मानव है ।।
भावार्थः - हे गौतम ! जो प्रत्यक्ष या परोक्ष में अवगुणवाद के वचन | कभी भी नहीं बोलता हो। जैसे तू चोर है। पुरुषार्थी पुरुष का कहना कि तू नपुंसक है। ऐमी भाषा तथा अप्रियकारी, अपकारी, निश्चयकारी भाषा जो ! कभी नहीं बोलता हो, वह पूजनीय मानक है। मूल:-जहा सुणी पूइकण्णी, निक्कसिज्जइ सम्बसो ।
एवं दुस्सीलपाडणीए, मुहरी निक्कसिज्जइ ।।११।। छाया:-यथा शुनी पूर्तिकर्णी, नि:कास्यते सर्वतः।
एवं दुःशीलः प्रत्यनीकः, मुखारिनि:कास्यते ॥११।। अन्वयार्थ:--- है इन्द्रभूति ! (जाह) जैसे (गुइकण्णी) सहे कान वाली (सुणी) कुत्तिया को (सव्वसो) सब जगह रो (निवासिज्जइ) निकालते हैं । (एवं) इसी प्रकार (दुम्सील) खराब आचरण बाले (पडिणीए) गुरु और धर्म से द्वेष करने वाले और मुहरी) अंट संट बड़बड़ाने वाले को (निक्कासिज्जइ) कुल में से बाहर निकाल देते है।
भावार्थ:- हे गौतम ! सड़े कान वाली फुतिया को सब जगह धुत्कार मिलता है और वह हर जगह से निकाली जाती है। इसी तरह दुराचारियों एवं धर्म से द्वेष करने वालों और मुंह से कटुवचन बोलने वालों को सब जगह से घुल्कारा मिलता है । और वहाँ से निकाल दिया जाता है।
मल:-- कणकुण्ड चइत्ताणं, विट्ठ भृजइ सूयरे ।
एवं सील चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए ॥१२॥ छाया:--कणकुण्डकं त्यक्त्वा, विष्टां भुङ क्ते शुकरः ।
एवं शीलं त्यक्त्वाः दुःशीलं रमते मृगः ॥१२।।
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भाषा-स्वरूप
१३३
___ अन्ययात्र.-हे इन्द्रभूति ! जैसे (सूयरे) शूकर (कणकुंडग) धान के कूड़े को (चहप्ताणं) छोड़ कर (विट्ठ) विष्टा ही को (मुंजइ) लाता है, (एवं) इमो तरह (मिए) पशु के समान मूखं मनुष्य (सील) अच्छी प्रवृत्ति को (चहत्ताणं) छोड़ कर ( दुस्मीले) खराब प्रवृत्ति ही में (रमई) आनंद मानता है।
भावार्थ:- हे गौतम ! जिस प्रकार सुअर घान्य के भोजन को छोड़ कर विष्टा ही स्वाता है, इसी तरह मूर्ख मनुष्य सदाचार-सवन और मधुर भाषण आदि अच्छी प्रवृत्ति को छोड़ कर दुराचार-सेवन करने तथा कटुभाषण करने ही में आनंद मानता रहता है, परन्तु उस मूर्ख मनुष्य को इस प्रवृत्ति से अन्त में बड़ा पश्चात्ताप करना पड़ता है । मूल:--आहच्च चंडालियं कट्ट।
न निण्हविज्ज कयाइ वि। कई कडेत्ति भासेज्जा,
समाई णो नदि य !॥१३॥ छाया:कदाचिच्च चाण्डालिकं कृत्वा,
न निल बीत वादापि च । कृतं कृतमिति भाषेत,
अकृतं नो कृतमितिच ॥१३॥ सम्बया:-हे इन्द्रभूति (आहच्च) कदाचित् (चंडालियं) क्रोध से मुठ भाषण हो गया हो तो झूठ भाषण (कटु) करके उसको (कयाइ) कमी (वि) भी (न) न (निण्हविज) छिपाना चाहिए (कर्ड) किया हो तो (कडेत्ति) किया है ऐसा (मासेज्जा) बोलना चाहिए (य) और (अकई) नहीं किया हो तो (णो) नहीं (कडेत्ति) किया ऐसा बोलना चाहिए।
भावार्थ:--- हे गोतम ! कमी किमी से नोध के आवेश में आकर झूठ भाषण हो गया हो तो उसका प्रायश्चित्त करने के लिए उसे कभी भी नहीं छिपाना चाहिए। कटमाषण किया हो तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि हाँ मुझसे हो तो गया है । और नहीं किया हो तो ऐसा कह देना चाहिए कि मैंने नहीं किया है।
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निम्रन्थ-प्रवचन मूल:--पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा ।
आवी वा जइ वा रहस्से, व कुज्जा कयाई वि ॥१४॥ छाया:-प्रत्यनीक च बुद्धानां, वाचाऽथवा कर्मणा।
आविर्वा यदि वा रहसि, नैव कुर्यात् कदापि च ।।१४||
मन्त्रयाः-हे हन्द्रभूति ! (बुद्धाण) तत्त्वज्ञ (थ) और सभी साधारण मनुष्यों से (परिणीय) शत्रुता (वाया) वचन द्वारा और (अदुव) अथवा (कम्मुणा) काया द्वारा (आवीया! मनुष्यों के देखते कपट रूप में (जइ वा) अथवा (रहस्से) एकान्त में (कयाइ वि) कमी भी (णब) नहीं (कुज्जा) करना चाहिए।
भावार्थ:-हे गौतम ! क्या तो तत्त्वज्ञ और क्या साधारण सभी मनुष्यों के साथ कटुवचनों से तथा शरीर द्वारा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में कमी भी शत्रुता करना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। मूल:-जणवयसम्मयठवणा, नामे स्वे पडुच्च सच्चे य ।
बवहारभावजोगे, दसमे ओवम्म सच्चे य ॥१५॥ छायाः-जनपद-सम्यक्त्वस्थापना च, नाम रूपं प्रतीत्य सत्यं च ।
व्यवहारभावे योगानि दशमोपमिक सत्यं च ॥१५॥ __ अन्वयार्थ:---हे इन्द्रभूति ! (जणवय) अपने अपने देश को (य) और (सम्ममठवणा) एकमत की, स्थापना की (नामे) नाम की (रूवे) रूप की (पडुच्च सच्चे) अपेक्षा से कही हुई (य) और (ववहार) घ्यावहारिक (भाव) भाव ली हुई (जोगे) यौगिक (य) और (दसमे) दशवी (ओवम्म) औपमिक भाषा (सम्ने) सत्य है।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिस देश में जो भाषा बोली जाती हो, जिसमें अनेकों का एकमत हो, जैसे पंक से और भी वस्तु पैदा होती है, पर कमल दी को पंकज कहते हैं जिसमें एकमत है । नापने के गज और तोलने के बोट
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भाषा-स्वरूप
वगैरह को जितना लम्बा और जितना बजन में लोगों ने मिलकर स्थापन कर रुखा हो। गुपा सहित या गुण शूण्य जिसका जसा नाम हो, वैसा उधारण करने में, जिसका जैसा वेष हो उसके अनुसार कहने में, और अपेक्षा से, जैसे एक की अपेक्षा से पुत्र और दूसरे की अपेक्षा से पिता उच्चारण करने में जो भाषा का प्रयोग होता है, वह सस्य भाषा है। और ईधन के जसने पर मी चूल्हा जल रहा है, ऐसा व्यावहारिक उच्चारण एवं सोते में पांचों वर्णो के होते हए भी "हरा" ऐसा मावमय वचन और अमुक सेठ क्रोड़पति है फिर भले दो चार हजार अधिक हों या कम हों उसको कोड़पति कहने में। एवं दशवीं उपमा में जिन वाक्यों का उच्चारण होता है, वह सत्य माषा है। यों दस प्रकार की भाषाओं को ज्ञानी जनों ने सत्म माषा कहा है। मूल:-कोहे माणे माया, लोभे पेज्ज तहेव दोसे य ।
हासे भए अक्खाइय, उवघाए निस्सिया दसमा ।।१६।। छाया:---कोधं मानं माया, लोभं रागं तथैव द्वेषञ्च ।
हास्यं भयं आख्यातिक: उपघातो नि:श्रितो दशमाः ।।१६।। अन्वयार्थ:-हे इन्नभूति ! (कोहे) क्रोध (माणे) मान (माया) कफ्ट (लोभे) लोम (पेज) राग (लहेव) वैसे ही (दोसे) द्वेष (य) और (हासे) हसी (य) और (मए) भय और (अवस्याइय) कल्पित व्याख्या (दसमा) दशवी (अवधाए) उपधात के (निस्सिया) आश्रित कही हुई भाषा असत्य है।
भावार्थ:-हे गौतम ! क्रोध, मान, माया, लोम, राग, द्वेष, हास्य और भय से बोली जाने वाली भाषा तथा काल्पनिक व्याख्या और दशवी अपघात (हिंसा) के आश्रित जिस भाषा का प्रयोग किया गया हो, यह असत्य भाषा है । इस प्रकार की भाषा बोलने से आत्मा की अधोगति होती है। मूलः--इणमन्न तु अनाणं इहमेगेसिमाहियं ।
देवउत्त अयं लोए, बंभउत्त ति आवरे ॥१७॥ ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे । जीवाजीवसमाउत्त, सुहदुक्खसमनिए ||१८||
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निग्रंन्य-प्रवचन ।
सयंभुणा कडे लोए, इति वुत्त महेसिणा । मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए ।।१६।। माणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे ।
असो तत्तमकासो य, अयाणंता मुसं बदे ।।२०।। छाया:- इदमन्यत्त अज्ञानं, इहैकौतदाख्यातम् ।
देवाप्तोऽयं लोकः, ब्रह्मोप्त इत्यपरे ।।१७।। ईश्वरेण कृतोलोकः प्रधानादिना तथाऽपरे । जीवाजीबसमायुक्तः, सुखदुःखसमन्वितः ॥१८|| स्वयम्भुवा कृतो लोक: इत्युक्तं महर्षिणा । मारेण संस्तुता माया, तेन लोकोऽशाश्वत: ॥१६॥ मानाः श्रमणा एके, आहुर प्रकृतं जगत् ।
असो तस्वमकार्षीत्, अजानन्तः मृषा वदन्ति ॥२०॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (इह) इस संसार में (मेगेसि) कई एक (अन्न) अन्य (अनाण) अज्ञानी (इण) इस प्रकार (आहियं) कहते है कि (अयं) इस (जीवाजीव समाउत्ते) जीव और अजीव पदार्थ से युक्त (सुहदुक्खसमनिए) सुख और दुखों से युक्त ऐसा (लोए) लोक (देवउत्ते) देवताओं ने बनाया है (मावरे) और दूसरे यों कहते हैं कि (बंमउत्तति) ब्रह्मा ने बनाया है। कोई कहते हैं कि (लोए) लोक (ईसरेण) ईश्वर ने (कडे) बनाया है (तहावरे) तथा दूसरे यों कहते हैं कि (पहाणाइ) प्रकृति ने बनाया है तथा नियति ने बनाया है। कोई घोसते हैं कि (लोए) लोक (सयंमुणा) विष्णु ने (कडे) बनाया है। फिर मार "मृत्यु" बनाई । (भारण) मृत्यु से (माया) माया (संयुया) पैदा की (तग) इसी से (लोए) लोक (असासए) अशाश्वत है। (इति) ऐसा (महेसिणा) माहपियों ने (वृत्त) कहा है । और (एगे) कई एक (माहणा) ब्राह्मण (समणा) संन्यासी (जगे) जगत् (अंडकडे) अण्डे से उत्पन्न हुआ ऐसा (आर) कहते हैं । इस प्रकार (असो) ब्रह्मा ने (तत्तमकासी य) सत्त्व बनाया ऐसा कहने वाले । (अयाणता) तत्त्व को नहीं जानते हुए (मुस) झूठ (वदे) कहते हैं।
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भाषा स्वरूप
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भावार्थ :- हे गौतम 1 इस संसार में ऐसे भी लोग हैं, जो कहते है कि जड़ और चेतन स्वरूप एवं सुख-दुख युक्त जो यह लोक है, इसकी इस प्रकार की रचना देवताओं ने की है । कोई कहते हैं कि ब्रह्मा ने सृष्टि बनाई है । कोई ऐसा भी कहते हैं कि ईश्वर ने जगस् की रचना की है। कोई यों बोलते हैं कि सत्य, रज, तम, गुण की सम अवस्था को प्रकृति कहते है। उस प्रकृति ने सार की रचना की है। कोई यों भी मानते हैं कि जिस प्रकार कांटे तीक्ष्ण, मयूर के पंख विचित्र रंग वाले, गन्ने में मिठास, लहसुन में दुर्गन्ध, कमल सुगंधमय स्वभाव से ही होते हैं; ऐसे ही सृष्टि की रचना भी स्वभाव से ही होती है । कोई इस प्रकार कहते हैं कि इस लोक की रचना में स्वयंभू विष्णु अकेले थे । फिर सृष्टि रचने की चिन्ता हुई जिससे शक्ति पैदा हुई। तदनंतर सारा ब्रह्माण्ड रचा और इतनी विस्तार वाली सृष्टि की रचना होने पर यह विचार हुआ कि इस का समावेश कहाँ होगा ? इसलिए जन्मे हुओं को मारने के लिए यम बनाया। उसने फिर गाया को जन्म दिया। कोई यों कहते हैं कि पहले ब्रह्मा ने अण्डा बनाया। फिर वह फूट गया। जिसके आधे का कष्वं लोक और आधे का अधोलोक बन गया और उसमें उसी समय समुद्र, नदी, पहाड़, गोव आदि सभी की रचना हो गई। इस तरह सृष्टि बनायी। ऐसा उनका कहना, हे गौतम! सत्य से पृथक है ।
मूल:- सएहि परियाएहि, लोयं या कडे त्तिय । तस ते ण बिजाणति, ण विणासी कयाइ वि ॥ २१ ॥
छाया: स्वर्क: प्रयायै लोकमब्रुवन् कृतमिति च ।
तस्त्वं ते न विजानन्ति न विनाशी कदापि च ॥ २१ ॥
अन्यमार्थ :- हे इन्द्रभूति ! जो (सएहि ) अपनी-अपनी (परिया एहि ) पर्याय कल्पना करके (लोय) लोक को अमुक अमुक ने (कडे ति) बनाया है, ऐसा ( बूमा) बोलते हैं । (ते) के ( तत्तं ) यथातथ्य तत्व को (ण) नहीं (विजाति) जानते हैं। क्योंकि लोक ( क्या वि) कभी भी ( विणासी) नाशवान (ण) नहीं है।
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१६८
निग्रन्थ-प्रवचन ।
___भावार्थ:-है गोतम ! जो लोग यह कहते हैं कि इस सृष्टि को ईश्वर ने. देवताओं ने, ब्रह्मा ने तथा स्वयंभ ने बनाया है जनका यह कहना अपनी अपनी कल्पना मात्र है वास्तव में यथातथ्य बात को ये जानते ही नहीं हैं । क्योंकि यह लोक सदा अविनाशी है। न तो इस सृष्टि के बनने का आदि ही है और न अन्त ही है । हाँ, कालानुसार इसमें परिवर्तन होता रहता है परन्तु सम्पूर्ण रूप से सृष्टि का नाश कभी नहीं होता है ।
॥ इति एकादशोऽध्यायः ।।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(अध्याय बारहवाँ )
लेश्या स्वरूप
॥ श्रीभगवानुवाच ॥
मूलः --- किव्हा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तब य ।
सुक्कलेसा य छट्टा य, नामाई तु जहक्कभं || १ || छाया : - कृष्णा नीला च कापोतीच, तेज: पद्मा तथैव च । शुक्ललेश्या कठीण तु खकम् ॥१॥
और (काक) कापोत (थ) और (तेक) तेजो और (छट्टा) छठी (सुमकलेसा) शुक्ल लेवया यथाक्रम जानो ।
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ( किण्हा) कृष्ण (य) और (नीला) नील (य) (साहेब) तथा (पम्हा) पद्म (य) (नामाई ) ये नाम ( जहकम्मे )
आत्मा के जैसे परिणाम होते छः भागों में विभक्त है उनके
भावार्थ:- हे आर्य ! पुण्य-पाप करते समय हैं उसे यहाँ लेश्या के नाम से पुकारेंगे। वह लेश्या यथाक्रम से नाम यों है -- (१) कृष्ण (२) नील (३) कापोत (४) तेज: ( ५ ) पद्म और ( ६ ) शुक्ल लेश्या । हे गौतम! कृष्णलेश्या का स्वरूप यों हैं:
१ (१) कृष्णलेश्या वाले की भावना यों होती है कि अमुक को मार डालो, काट डालो, सत्यानाश कर दो आदि-आदि। ( २ ) नीललेश्या के परिणाम वे हैं जो कि दूसरे के प्रति, हाथ-पैर तोड़ डालने के हों (३) कापोत लेश्या भावना उन मनुष्यों की है जो कि नाक, कान, अंगुलियाँ आदि को कष्ट पहुंचाने में तत्पर हों । ( ४ ) तेजोलेश्या के भाव वह है जो दूसरे को लात घूँसा, मुक्की आदि से कष्ट पहुँचाने में अपनी बुद्धिमत्ता समझता हो । (५) पद्मलेश्या वाले की भावना इस प्रकार होती है कि कठोर शब्दों की बौछार करने में आनन्द मानता हो । (६) शुक्ललेश्या के परिणाम वाला अपराध करने वाले के प्रति भी मधुर शब्दों का प्रयोग करता है ।
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निर्गन्य-प्रवचन
मुल:-कारूवपक्सो, तीहि सुतो छसु पिरोय।।
तिब्बारंभपरिणओ, खुद्दो साहस्सिओ नरो ।।२।। निदधसपरिणामी, निस्संसो अजिइंदिओ।
एअजोगसमाउत्तो, किण्हलेसं तु परिणमे ।।३।। छायाः-पञ्चास्रवप्रवृत्तस्त्रिभिरगुप्त षट्सु अविरतश्च ।
तीव्रारम्भ परिणतः क्षुद्रः साहसिको नरः ।।२।। निध्वंसपरिणामः, नृशंसोऽजितेन्द्रियः । एतद्योग समायुक्त:, कृष्णलेश्यां तु परिणमेत् ।।३।।
अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (पंचासबप्पवत्तो) हिंसादि पांच आसवों में प्रवृत्ति करने वाला (तीहि) मन, वच, काय के तीनों योगों को बुरे कामों में जाते हुए को (अगुत्तो) नहीं रोकने वाला (य) और (छमु) षट्काय जीवों की हिंसा से (अवरिओ) निवृत्त नहीं होने वाला (तिवारंमपरिणओ) तीब है आरम्म करने में लगा हुआ (खुद्दो) क्षुद्र बुद्धि वाला, (सास्सिओं) अकार्य करने में सासिक (निबंधसपरिणागो) नष्ट करने वाले हिताहित के परिणाम को और (निस्संसो) निःशंक रूप से पाप करने वाला (अजिइंदिओ) इन्द्रियों को न जीतने बाला (एअजोगगमा उत्तो) इस प्रकार के आचरणों से युक्त (नरो) मनुष्य (किण्हलेस) कृष्णने श्या के (परिणमे) परिणाम वाले होते हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिसकी प्रवृत्ति हिंसा, झूट, चोरी, व्यभिचार और ममता में अधिकतर फँसी हुई हो, एवं मन द्वारा जो हर एक का बुरा चितवन करता हो, जो कटु और मर्मभेदी बोलता हो, जो प्रत्येक के साथ केपट का व्यवहार करने यासा हो, जो बिना प्रयोजन के भी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, धनस्पति और अस काय के जीवों की हिंसा से निवृत्त न हुआ हो, बहुत जीवों की हिंसा हो ऐरो महारम्भ के कार्य करने में तीव मावना रखता हो, हमेशा जिसकी बुद्धि सुच्छ रहती हो, अकार्य करने में बिना किसी प्रकार की हिचकिचाहट के जो प्रवृप्त हो जाता हो, निःस कोच भावों से पापाचरण करने में जो रत हो, इन्द्रियों को प्रसन्न रखने में अनेक दुष्कार्य जो करता हो, ऐसे मार्गों में जिस
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नेश्या-स्वरूप
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किसी भी आत्मा की प्रवृत्ति हो वह आत्मा कृष्णलेश्या वाली है। ऐसी लेश्या वाला फिर चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, मर कर नीची गति में जावेगा । हे गौतम । नीललेण्या का वर्णन यों हैमूल:--इस्साअमरिस अतको. अविज्ज माया अट्टीरिया य !
गेद्धी पओसे य सढे, पमत्त रसलोलुए ॥४॥ सायगवेसए य आरम्भा अविरओ,
खुद्दो साहस्सिओ नरो। एअजोगसमाउत्तो,
नीललेसं तु परिणमे ।।५।। छाया:--.ईयोऽमर्षातपः, अविद्या मायाह्रिकता ।
गृद्धिः प्रदेषश्च शठः, प्रमत्तो रसलोलुपः ।।४।। सातागवेष कश्चारंभादविरतः क्षुद्रः, साहसिको नरः ।
एतद्योगसमायुक्तः, नीललेश्यां तु परिणमेत् ।।५।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (इस्सा) इO (अमरिस) अत्यन्त क्रोध, (अतवो) अतप (अविज्ज) कुशास्त्र पठन (माया) कपट (अहीरिया) पापाचार के सेवन करने में निलंग्ज (गेली) गुद्धपन (य) और (पओसे) द्वेषभाव (सढे) धर्म में मंद स्वभाव (पमते) मदोन्मत्तता (रसलोलुए) रसलोलुपता (सायगवेसए) पौद्गलिक सुख की अन्वेषणा (अ) और (आरम्मा) हिमादि आरम्भ से (अविरओ) अनिवृत्ति (छुट्टो) क्षुद्र मावना (साहस्सिओ) अकार्य में साहसिवता (एअजोगसमाउत्तो) इस प्रकार के आपरणों से युक्त (नरो) जो मनुष्य हैं, वे (नीललेस) नीललेशमा को (परिणमे) परिणमित होते है।।
भावार्थ:-हे गौतम ! जो दूसरों के गुणों को सहन न करके रात-दिन उनसे इर्ष्या करने करने वाला हो, बात-बात में जो क्रोध करता हो । खा-पी कर जो सण्ड-मुसण्ड बना रहता हो, पर कभी भी तपस्या न करता हो, जिनसे अपने जन्म-मरण की वृद्धि हो ऐसे कुशास्त्रों का पठन-साठन करने वाला हो, कपट करने में किसी भी प्रकार की कोर कसर न रखता हो, जो मली बात कहने वाले के साथ वेष-भाव रखता हो, धर्म कार्य में शिथिलता दिखाता हो, हिंसावि महारम्म से तनिक भी अपने मन को न खींचता हो, दूसरों के अनेकों
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निर्गन्य-प्रवचन
गुणों की तरफ दृष्टिपात तक न करते हुए उसमें जो एकआष अवगुण हो, उसी | की ओर निहारने वाला हो, और अकार्य करने में बहादुरी दिखाने वाला हो, जिस आत्मा का ऐसा व्यवहार हो, उसे नीरलेश्यी कहते हैं। इस तरह की भावना रखने वाला व उसमें प्रवृत्ति करने वाला चाहे कोई पुरुष हो, या स्त्री वह मर अधोगति में ही जायगा । मुल:---बके बंकसमायरे, नियडिल्ले अणुज्जुए ।
पलिउंचगओवहिए, मिच्छदिट्ठी अणारिए ॥६॥ उप्फालग दुवाई य, तेणे आवि य मच्छरी ।
एअजोगसमाउत्तो, काऊलेसं तु परिणमे ॥७|| छाया:- चको वक्रसमाचार:, निकृतिमाननः ।
परिकुंचक औषधिक:, मिथ्यावृष्टिरनार्यः ।।६।। उत्स्यार्शक दुष्टवादी च, स्तेनश्चापिचमत्सरी ।
एतद्योगसमायुक्तः, कापोतलेश्यां तु परिण मेत् ॥७॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (वके) वक्र भाषण करना (वकसमायरे) वक्र क्रिया अंगीकार करना, (नियडिल्ले) मन में कपट रखना, (अनुज्जए) टेलेपन से रहना (पलिगंधग) स्वकीय दोषों को ढकना, (ओवहिए) सब कामों में कपटता (मिच्छदिट्ठी) मिथ्यात्व में अभिरुचि रखना (अणारिए) अनार्य प्रवृत्ति करना (य) और (तेणे) चोरी करना (अविमच्छरी) फिर मारसयं रखना (एअजोगसमाउत्तो) इस प्रकार के व्यवहारों से जो युक्त हो वह (काऊलेस) कापोतलेश्या को (परिणमे) परिणमित होता है। __ भावार्थ:-हे गोतम ! जो बोलने में सीधा न बोलता हो, व्यापार भी जिसका टेढ़ा हो दूसरे को न जान पड़े ऐसे मानसिक कपट से व्यवहार करता हो, सरलता जिसके दिल को छकर भी न निकली हो, अपने दोषों को ढंकने की भरपूर चेष्टा जो करता हो, जिसके दिनमर के सारे कार्य अल-कपट से भरे पड़े ही, जिसके मन में मिथ्यात्व को अभिरुचि बनी रहती हो, जो अमानुषिक कामों को मी कर बैटता हो, जो वचन ऐसे बोलता हो कि जिससे प्राणिमात्र को पास होता हो, दूसरों की वस्तु को चुराने में ही अपने मानव जाम की सफलता समझता हो, मात्सर्य से युक्त हो, इस प्रकार के व्यवहारों में जिस
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लेश्या-स्वरूप
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मात्मा की प्रवृत्ति हो, वह कापोतलेश्मी कहलाता है । ऐसी भावना रखने वाला चाहे पुरुष हो या स्त्री, वह मर कर अधोगति में जावेगा। है गौतम ! तेजोलेश्या के सम्बन्ध में यों हैंमूलः-नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले।
विणीयविणा दो, जोगन उदहागावं !!८।। पियधम्मे दढधम्मेऽवज्जभीरू हिएसए ।
एयजोगसमाउत्तो, तेऊलेसं तु परिणमे ||६| छाया:--नीचवृत्तिरचपल:अमाय्यकुतूहल: ।
विनीतविनयो दान्तः, योगबानुपधानवान् ।।६।। प्रियधर्मा हद्धधर्मा, अवधभीरुहित षिकः ।
एतद्योगरामायुक्तः, तेजोलेश्या तु परिणमेत् ॥६।। अन्वयार्थ:--हे इन्द्रभूति ! (मीयावित्ती) जिसकी वृत्ति नम्र स्वभाव वासी हो (अचवले) अचपल (अमाई) निष्कपट (अकुले) कुतूहल से रहित (विणीयविणए) अपने से बड़ों का विनय करने में विनीत वृत्ति वाला (दस्ते) इन्द्रियों को दमन करने वाला (जोगवं) शुभ योगों को लाने वाला (उबहाणवं) शास्त्रीय विधि से तप करने वाला (पियघम्मे) जिसकी धर्म में प्रीति हो, (विषम्मे) हक है मन धर्म में जिसका (अवजमीरू) पाप से करने वाला (हिएसए) हित को दूसने बाला, मनुष्य (तेकलेस) तेजोलेश्या को (तु परिण मे) परिणमित होता है।
भावार्थ:-हे आर्य ! जिसको प्रकृति नम्र है, जो स्थिर बुद्धिवाला है, जो निष्कपट है, हँसी-मजाक करने का जिसका स्वभाव नहीं है, बड़ों का विनय कर जिसने विनीत की उपाधि प्राप्त करती है, जो जितेन्द्रिय है, मानसिक, वाषिक, और कायिक इन तीनों योगों के द्वारा जो कमी किसी का अहित न चाहता हो, शास्त्रीय विधि-विधान युत् तपस्या करने में दत्तचित रहता हो, धर्म में सदैव प्रेम भाव रखता हो, चाहे उस पर प्राणातक कष्ट ही क्यों न आ जावे, पर धर्म में जो दृढ रहता है, किसी जीव को फष्ट न पहुंचे ऐसी भाषा जो बोलता हो, और हितकारी मोक्ष धाम को जाने के लिए शुद्ध क्रिया करने की गवेषणा जो करता रहता हो, वह तेजोलेश्या कहलाता है। जो जीव इस प्रकार की
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निर्ग्रन्य-प्रवचन
भावना रखता हो वह मर कर कव्यंगति अर्थात् परलोक में उक्षम स्थान को प्राप्त होता है । है गौतम ! पद्मलेश्या का वर्णन यों है:
मूल:- पयणुक्कोमाणे य, मायालोभे य पयणुए ।
पसंतचित्तं दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ॥ १०॥ तहा पयणुवाई य, उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमाउतो, पम्हलेसं तु परिणमे ॥। ११॥
छाया:- प्रतनुक्रोधमानश्च मायालोभौ च प्रतनुकौ ।
प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, योगवानुपधानवान् ||१०|| तथा प्रतनुवादी च उपशान्तो जितेन्द्रियः । एतद्योगसमायुक्तः, पद्मलेश्यां तु परिणमेत् ॥ ११ ॥ |
,
अन्वयार्थ:-- हे इन्द्रभूति ! ( पक्की हमाणं ) पतलं हें क्रोध और मान जिसके ( अ ) और ( मायालोमे) माया तथा लोभ भी जिसके ( पयणुए) अल्प है, ( पसंतचित्ते ) प्रशान्त है चित्त जिसका (दंतप्पा) जो आत्मा को दमन करता है, (जोगवं ) जो मन, वच, काया के शुभ योगों को प्रवृत्त करता है, ( उवहाणवं ) जो शास्त्रीय तप करता है, ( तहा) तथा ( पयणुचाई) जो अल्पभाषी है और वह भी सोच-विचार कर बोलता है, (य) और ( उवसंते ) शान्त है स्वभाव जिसका, (य) और ( जिई दिए ) जो इन्द्रियों को जीतता हो, (एयजोगसमाउत्तो) इस प्रकार की प्रवृति वाला जो मनुष्य हो, वह ( पहले सं ) पद्म लेश्या को ( तु परिणमे) परिणति होता है ।
भावार्थ:-- हे गौतम! जिसको क्रोध, मान, माया, लोभ कम हैं, जो सदैव शान्तचित्त रहता है, आत्मा का जो दमन करता है, मन, वचन, काया के शुभ योगों में जो अपनी प्रवृत्ति करता है, शास्त्रीय विधि से तप करता है, सोच-विचार कर जो मधुर भाषण करता है, जो शरीर के अंगोपांगों को शान्त रखता है । इन्द्रियों को हर समय जो कानू में रखता है, वह पद्मलेश्यो कह लाता है। इस प्रकार की भावना का एवं प्रवृत्ति का जो मनुष्य अनुशीलन करता है, वह मनुष्य मर कर ऊर्ध्वगति में जाता है। हे गौतम ! का कथन यों है
शुक्ल लेण्या
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लेश्या-स्वरूप
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मूल:-अट्टरुहाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि शायए ।
पसंतचित्त दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु ।।१२।। सरागो वीरगो वा, जवसते जिदिए । एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे ॥१३॥
छाया:-आर्त रौद्रे वर्जयित्वा, धर्मशुक्ले ध्यायति ।
प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, समितो गुप्तश्च गुप्तिभिः ।।१२।। सरागों बीतरागो बा, उपशांतो जितेन्द्रियः । एतद्योग समायुक्तः, शुक्ललेश्यांतु परिणमेत् ।।१३।।
सम्बया:--है इन्द्रभूति ! (अट्टरुद्दाणि) आर्त और रौद्र ध्यानों को (वज्जिता) छोड़कर (धम्मसुक्काणि) धर्म और शुक्ल ध्यानों को (झायए) जो चितवन करता हो, (पसंतचित्ते) प्रशान्त है चित्त जिसका (दंतप्मा) दमन किया हे अपनी आत्मा को जिसने (समिए) जो पांच समिति करके युक्त हो, (च)
और (गुत्ति सु) तीन गुप्ति से (गुत्ते) गुप्त है (सरागो) जो सराग (वा) अथवा (वीयरागो) वीतराग संयम रखता हो, (उपसंते) शांत है चित्त और (जिईदिए) जो जितेन्द्रिय है, (एयजोगसमाउत्सो) ऐसे आचरणों से जो युक्त है, वह मनुष्य (सुक्कलेसं) शुक्ल लेश्या को (तु परिणमे) परिणमित होता है ।
भावार्थ:-हे आर्य ! जो आर्त और रौद्र ध्यानों को परित्याग करके सदेव धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तवन करता है। क्रोध, मान, माया और लोम आदि के शान्त होने से प्रशान्त हो रहा है चित्त जिसका, सम्यकज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से जिसने अपनी आत्मा को दमन कर रखा है, चलने, बैठने, खाने, पीने, आदि सभी व्यवहारों में संयम रखता है, मन, वचन, काया की अशुभ प्रसि से जिसने अपनी आत्मा गोपी है, सराग यहा वीतराग संयम जो रखता है, जिसका चेहरा शान्त है, इन्द्रियजन्य विषयों को विष सममकर उन्हें जिसने छोड़ रखे हैं, वही आत्मा शुक्ललेश्यी है। यदि इस अवस्था में मनुष्य मरता है तो वह कध्वंगति को प्राप्त करता है।
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निष-प्रवचन
मुल:-किण्हा नीला काऊ तिपिण वि,
एयाओ अहमलेस्साओ । एयाहिं तिहिं वि जीवो,
दुग्गइं उववज्जई ।।१४।। छाया:-कृष्णा नीला कापोता, तिस्रोऽप्येता अधर्मलेश्याः ।
एताभिस्तिसृभिरपि जीवः, दुर्गतिमुपपद्यते ।।१४।। अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (किण्हा) कृष्ण (नीला) नील (काऊ) कापोत (एमाओ) ये (तिण्णि) तीनों (वि) ही (अहमलेसाओ) अधर्म लेल्याएं हैं। (एयाहिं) इन (तिहि) तीनों (वि) ही लेश्याओं से (जीवो) जीव (दुग्गइ) दुर्गति को (उवबज्जई) प्राप्त करता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! कृष्ण, नील और कापोत, इन तीनों को ज्ञानी जनों ने अबम लेश्याएं (अधर्म भावनाएं) कहा है। इस प्रकार की अधर्म मायनामों से जीव दुर्गति में जाकर महान् कष्टों को मोगता है। अत: ऐसी बुरी भावनाओं को कभी भी हृदयंगम न होने देना, यही श्रेष्ठ मार्ग है । मल:----तेऊ पम्हा सुक्का,
तिणि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहिं वि जीवो, __ सुग्गई
उववज्जई ॥१५॥ छाया:-तेजसी पद्मा शुक्ला, तिस्रोग्येता धर्मलेश्याः ।
एताभिस्तिसृभिरपि जीवः, सुगतिमुपपद्यते ॥१५॥ अन्वयाः - हे इन्द्रभूति ! (तेक) तेजो (पाहा) पन और (सुक्का) शुक्ल (एयाओ) ये (तिण्णि) तीनों (वि) ही (धम्म लेसाओ) धर्म लेश्याएँ हैं । (एयाहि) इन (तिह) तीनों (वि) ही लेश्याओं से (जीवो) जीव (सगई) सुगति को (उववजई) प्राप्त करता है।
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लेण्या स्वरूप
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भावार्थ:-हे आर्य } तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीनों, ज्ञानी जन द्वारा धर्म लेश्याएं (धर्म मावनाएं) कही गयी है। इस प्रकार धर्म मावना रखने से वह जीप यहाँ भी प्रशंसा का पात्र होता है, और मरने के पश्चात् भी वह सुगति ही में जाता है । अतएव मनुष्यों को चाहिए कि वे अपनी भावनाओं को सका शुम या शुद्ध रक्खें । जिससे उस आत्मा को मोक्ष धाम मिलने में विलम्ब न हो। मुला-अन्तमुहत्तम्मि गए, अंतमुहत्तम्मि सेसए चेव ।
लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोयं ।।१६।। छाया:-अन्तर्मुहूर्ते गते, अन्त महत्तै शेषे चंव ।
लेश्याभिः परिणताभिः, जीवा गच्छन्ति परलोकम् ॥१६॥ अग्वयार्थः- हे इन्द्रमति ! (परिणयाहि परिणमित हो गयी है (लेसाहि) लेण्या जिसके ऐसा (जीचा) जोय (अलमुहुत्त म्मि) अन्तमु हूत (गए) हान पर (धेष) और (अंतमुत्तम्मि) अन्तर्मुहर्त (सेसए) अवशेष रहने पर (परलोयं) परलोक को (गल्छति) जाते हैं।
भावार्थ:-हे आर्य ! मनुष्य और तिर्यञ्चों के अन्तिम समय में, योग्य वा अयोग्य, जिस किसी भी स्थान पर उन्हें जाना होता है उसी स्थान के अनुसार उनकी भावना मरने के अन्त मुहूर्त पहले आती है और वह भावना उसने अपने जीवन में भले और बुरे कार्य किये होंगे उसी के अनुसार अन्तिम समय में सी ही लेश्मा (मावना) उसकी होगी और देवलोक तथा नरक में रहे हुए देव और नेरिया मरने के अन्तर्मुहूर्त पहले अपने स्थानानुसार लेश्या (मावना) ही में मरेंगे ।
मूलः-तम्हा एयासि लेसाणं, अणुभाव बियाणिया ।
अप्पसत्थाओ वज्जित्ता, पसस्थाओऽहिट्ठिए मुणी 11१७|| छाया:-तस्मादेतासां लेश्यानां, अनुभावं विज्ञाय ।
अप्रशस्तास्तु वर्जयिस्वा, प्रशस्ता अघितिष्ठन् मुनिः ॥१७॥
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नित्य-प्रवचन
अम्वयार्थ : - ( तम्हा ) इसलिए (एयासि ) इन (लेसाण ) लेश्याओं के ( अणु-) मायं) प्रभाष को (वियाणिया) जानकर (अप्पसत्याओ ) बुरी लेश्याओं ( मावनामों) को (fr) छोड़कर (प) ड़ी ठान लेखाओं को (मुणी) मुनि (अहिट्टिए) अंगीकार करे ।
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भावार्थ:- हे भले-बुरे के फल जानने वाले ज्ञानी सानु जनो ! इस प्रकार ग्रहों लेoयाओं का स्वरूप समझ कर इनमें से बुरी लेश्याओं ( भावनाओं) को तो कभी भी अपने हृदय तक में फटकने मत दो और अच्छी भावनाओं को सदेव हृदयंगम करके रखो इसी में मानव जीवन की सफलता है ।
|| इति द्वादशोऽध्यायः ॥
ជ
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(अध्याय तेरहवां) कषाय-स्वरूप
॥श्री भगवानुवाच ।। मूल:--कोहो अ माणो अ अणिग्गहीआ,
माया अ लोभो अ पवड्ढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया,
सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥१।। छाया:--- क्रोधश्च मानश्चातिगृहीती,
___ माया च लोभश्च प्रवर्धमानी। चत्वार एते कृत्स्नाः कषायाः,
सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्भवस्य ॥१३॥ सम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अणिम्गहीआ) अनिग्रहीत (कोहो) क्रोध (म) और (माणो) मान (पवड्डमाणा) बढ़ता हुआ (माया) कपट (अ) और (लोभो) लोभ (एए) में (कसिणा) सम्पूर्ण (चत्तारि) पारों ही (कसाया) कषाय (पुणग्भवस्स) पुनर्जन्म रूप वृक्ष के (मूलाई) मूलों को (सिंचंति) सींचते हैं।
भावार्थ:-हे आर्य ! जिसका निग्रह नहीं किया है ऐसा क्रोध और मान तथा बढ़ता हुआ कपट और सोम ये चारों ही सम्पूर्ण कषाय पुनः-पुनः जम्मभरण रूप वृक्ष के मूलों को हरा-भरा रखते हैं । अपति क्रोध, मान, माया और लोम ये चारों ही कषाय वीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण कराने बाले हैं।
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मूलः -- कोहगे होइ उगट्टभासी, विओसियं जे उ उदीरएज्जा । अंबे व से दंडपहं गहाय,
अविओसिए घासति पावकम्मी || २ ||
निर्व्रन्य-प्रवचन
छाया: - यः कोधनो भवति जगदर्थभाषी, व्यपशमितं यस्तु उदीरयेत् । अन्ध इव सदण्डपथं गृहीत्वा.
अभ्यपशमितं घृष्यति पापकर्मा ||२||
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (ज) जो (कोहणे) क्रोधी (होर) होता है वह ( जगह मासी) जगत् के अर्थ को कहने वाला है । ( उ ) और (जे) वह ( विलो - सियं ) उपशान्त क्रोध को ( उदीरएज्जा ) पुनः जागृत करता है । (ब) जसे (मंषे) अपा (दंड) लकड़ी (गाय) ग्रहण कर मार्ग में पशुओं से कष्ट पाता हुआ जाता है, ऐसे ही (से) वह (अविओसिए) अनुपशान्त (पावकम्मी ) पाप करने चाला (घासति ) चतुर्गति रूप मार्ग में कष्ट उठाता है ।
भावार्थ: है गोतम ! जिसने बात-बात में क्रोष करने का स्वभाव कर रक्खा है, वह जगत् के जीवों में अपने कर्मों से लूलापन, अस्थापन, अधिरता, आदि न्यूनताओं को अपनी जिह्वा के द्वारा सामने रख देता है और जो कलह उपशान्त हो रहा है, उसको पुनः चेतन कर देता है । जैसे अन्धा मनुष्य लकड़ी को लेकर चलते समय मार्ग में पशुओं आदि से कष्ट पाता है, ऐसे ही वह महाकोषी चतुर्गति रूप मार्ग में अनेक प्रकार के जन्म-मरणों का दुख उठाता रहता है ।
मूलः -- जे आवि अप्पं वसुमति मत्ता,
संखाय वायं अपरिक्ख कुज्जा । तवेण वाहं सहिउं त्ति मत्ता,
अण्णं जणं पस्सति विभूयं ||३||
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कषाय स्वरूप
छाया: - पश् चापि आत्मानं वसुमान् मत्त्वा, संख्यां च वादमपरीक्ष्य कुर्यात् । तपसा वाऽहं सहित इति मत्वा, अन्यं जन पश्यति बिम्बभूतम् ||३||
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (जे आवि) जो अल्पमति है, वह (अप्पं ) अपनी आत्मा को (वसुमति ) संयमवान् है, ऐसा ( मत्ता) मान कर और ( संखाय ) अपने को ज्ञानवान् समझता हुआ (अप्परिवख) परमार्थ को नहीं जानकर ( कार्य ) वाद-विवाद करता है । (अहं) मैं ( तवेष ) तपस्या करके ( सहिउत्ति ) सहित हूँ, ऐसा ( मत्ता ) मानकर (अण्णं) दूसरे ( जणं) मनुष्य को (विभूयं ) केवल आकार मात्र ( पसति) देखता है ।
भावार्थ: है आर्य ! जो अल्प मतिवाला मनुष्य है, वह अपने ही को संयमवान् समझता है और कहता है कि मेरे समान संयम रखने वाला कोई दूसरा है ही नहीं । जिस प्रकार में ज्ञान वाला हूँ, वैसा दूसरा कोई है ही नहीं, इस प्रकार अपनी श्रेष्ठता का ढिढोरा पीटता फिरता है। तथा तपवान् भी मैं ही हूँ ऐसा मानकर वह दूसरे मनुष्य को गुणशून्य और केवल मनुष्याकार मात्र ही देखता है । इस प्रकार मान करने से वह मानी, पायी हुई वस्तु से होनावस्था में जा गिरता है।
मूल: -- पूयणट्ठा जसोकामी, माणसम्माणकामए ।
बहु पसवइ पावं, मायासल्लं च कुव्वइ ॥४॥ छाया:- पूजनार्थी यशस्कामी, मानसन्मानकामुकः । बहु प्रसूते पापं मायाशल्यं च कुरुते ||४|
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (पुराणट्ठा) ज्यों की त्यों अपनी शोमा रखने के अर्थ ( लोकामी) यश का कामी और (माणसम्माण) मान सम्मान का ( कामए) चाहने वाला (बहु) बहुत (पाव) पाप ( पसव ) पैदा करता है (च) और ( मायासह ) कपट शल्य को ( कुम्बइ ) करता है ।
भावार्थ हे गौतम! जो मनुष्य पूजा, यश, मान और सम्मान का भूखा है, वह इनकी प्राप्ति के लिए अनेक तरह के प्रपंच करके अपने लिए पाप पेक्षा करता है और साथ ही कपट करने में भी वह कुछ कम नहीं उतरता है।
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मूल:- कसिणं पि जो इमं लोगं, पडिपुण्णं दलेज्जं इक्कस्स । तेणावि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया || ५ ||
छाया : - कृत्स्नमपि य इमं लोकं प्रतिपूर्ण दद्यादेकस्मै ।
T
तेनापि स न संतुष्येत् इति दुःपूरकोऽयमात्मा ॥५॥
अम्वयार्थ :- हे इन्द्र भूति ! (जो ) यदि ( इक्कम) एक मनुष्य को (पंहिपुष्णं ) धन-धान्य से परिपूर्ण ( इमं ) यह (कसिणं पि) सारा ही (लोग) लोक (दलेज्म ) दे दिया जाय तो (तणाति) उससे भी (से) यह (त) नहीं (
होता है। (इइ) इस प्रकार से (इमे ) यह ( आया) आत्मा (दुप्पूर) इच्छा से पूर्ण नहीं हो सकता है ।
नियंण्य-प्रवचन
भाषार्थ :- हे गौतम! वैश्रमण देव किसी मनुष्य को हीरे, पत्रे, माणिक मोती तथा धन-धान्य से भरी हुई सारी पृथ्वी दे दे तो भी उससे उसको संतोष नहीं हो सकता है। अतः इस आत्मा की इच्छा को पूर्ण करना महान् कठिन है ।
मूलः -- सुव्वणरूप्पस उ पव्वया भवे,
सियाह केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि,
इच्छा हु आगाससमा अतिआ || ६ ||
छाया:- सुवर्णरूप्ययोः पर्वता भवेयुः
स्यात्कदाचित्खलु कैलाशसमा असंख्यकाः । नरस्य लुब्धस्य न तैः किंचित्, इच्छा हि आकाशसमा
अनन्तिका ॥६॥
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फपाय स्वरूप
१५३
धम्ययार्थ:-- हे इन्द्रभूति ! ( कलाससमा ) कैलाश पर्वत के समान ( सुवण्णरूप्परस ) सोने, चांदी के ( असंख्या) अगणित ( पब्वया) पर्वत (ड) निश्चय (म) हों और वे (सिया) कदाचित् मिल गये, तदपि ( तेहि) उससे (लुखस्स) नोमी (नरस्स) मनुष्य की ( किचि ) किंचित् मात्र मी तृप्ति (न) नहीं होती है, (ड) क्योंकि (इच्छा) तृष्णा ( आगाससमा ) आकाश के समान ( अतिया ) अनंत है ।
भाषार्थ :- हे गौतम! कैलाश पर्वत के समान लम्बे-चौड़े असंख्य पर्वतों के जितने सोने-चांदी के ढेर किसी लोभी मनुष्य को मिल जायें तो भी उसकी तृष्णा पूर्ण नहीं होती है। क्योंकि जिस प्रकार आकाश का अन्त नहीं है, उसी प्रकार इस तुष्णा का भी कभी बन्द नहीं बात है ।
मूलः --- पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं पसुभिस्सह । पडिपुण्णं नाल मेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे ||७||
छाया: - पृथिवी शालिर्यवाश्चैव हिरण्यं पशुभिः सह ।
प्रतिपूर्ण नालमेकरम, इति विदित्वा तपश्चरेत् ॥७॥
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रमूति ! (साली) शालि (जब) जो यब (बेव) और (पसुमिस्सह) पशुओं के साथ ( हरिण ) सोने वाली (पखिपुष्णं ) सम्पूर्ण मरी हुई ( पुढवी ) पृथ्वी ( एस्स) एक की तृष्णा को बुझाने के लिए ( नाल) समर्थवान् नहीं है। ( ६ ) इस तरह (विज्जा) जान कर (त) तप रूप मार्ग में (बरे) विचरण करना चाहिए ।
भावार्थ:- हे गौतम ! शालि, जब, सोना, चांदी पृथ्वी भी किसी एक मनुष्य की इच्छा को तृप्त करने जान कर तप रूप मार्ग में घूमते हुए लोभद
और पशुओं से परिपूर्ण में समर्थ नहीं है । ऐसा
→→→→ I
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१५४
निर्ग्रन्थ-प्रवचन
छाया:-अघोजति क्रोधेन, मानेनाधमा गतिः ।
मायया सुगति प्रतिघातः, लोभाद् द्विधा भयम् ।।६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! आत्मा (कोहेणं) क्रोध से (अहे) अधोगति में (वयइ) जाता है (माणेणं) मान से उस को (अहमा) अधम (गई) गति मिलती है, (माया) कपट से (गहपडिग्घाओ) अच्छी गति का प्रतिघात होता है। (लोहाओ) लोभ से (दुहृओ) दोनों मव संबंधी (मयं) भय प्राप्त होता है। ___ भावार्थ:-हे आर्य ! जब आत्मा क्रोध करता है, तो उस क्रोध से उसे नरक आदि स्थानों की प्राप्ति होती है। मान करने से वह अधम गति को प्राप्त करता है । माया करने से पुरुषत्व या देवगति आदि अच्छी गति मिलने में रुकाघट होती है और लोम से जीय इस भव एवं पर-मय संबंधी भय को प्राप्त होता है। मूलः-कोहो पोई पणासेइ, माणो विणयनासणो ।
माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्वविणासणो ||६|| छाया:-क्रोध: प्रीति प्रणाशयति, मानो विनयनाशनः ।
माया मित्राणि नाशयति, लोभः सर्वबिनाशनः ।।६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (कोहो) क्रोध (पोइं) प्रीति को (पणासेइ) नाश करता है (माणो) मान (विणय) बिनम को (नासणो) नाश करने वाला है। (माया) कपट (मिसाणि) मित्रता को (नासेइ) नष्ट करता है | और (लोमो) लोभ (सब्ब) सारे सद्गुणों का (विणासणो) विनाशक है।
भावार्थ:-हे गौतम ! क्रोध ऐसा बुरा है कि वह परस्पर की प्रीति को क्षणभर में नष्ट कर देता है। मान विनम्र माव को कमी अपनी ओर झांकने तक भी नहीं देता। कपट से मित्रता का भंग हो जाता है और लोभ समी गुणों का नाश कर देता है। अतः क्रोध, मान, माया और लोम इन चारों ही दुगुणों से अपनी आत्मा को सदा सर्वदा बचाते रहना चाहिए। मूल:--उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे ।
माय मज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।।१०।।
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कषाय-स्वरूप
१५५
छायाः-उपशमेन हन्यात् क्रोध, मान मार्दवेन जयेत् ।
माया मावभावेन, लोभ सन्तोषतो जयेत् ॥१०॥ सम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (उवसमेण) उपशान्त "क्षमा" से (कोह) क्रोष का (हणे) नाश करे (मद्दबया) नम्रता से (माणं) मान को (जिणे) जीते (मजब) सरल (मावण) मावना से माया) कपः को मार सिजना) रोग से (लोभ) लोभ को (जिणे) पराजित करना चाहिए।
भावार्थ:-हे आर्य ! इस कोष रूप पाण्डाल को क्षमा से दूर भगाओ और विनम्र भावों से इस मान का मद नाश करो। इसी प्रकार सरलता से कपट को और संतोष से लोभ को पराजित करो। तभी वह मोक्ष प्राप्त होगा जहाँ पर कि गये बाद, वापिस दुखों में आने का काम नहीं।
मूल:--असंक्खयं जीविय मा पमायए,
जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एअं वियाणाहि जणे पमत्ते,
के नु बिहिंसा अजया गहिति ॥११॥ छाया:-असंस्कृतं जीवितं मा प्रमादी:,
जरोपनीतस्य खलु नास्ति त्राणम् । एवं विजानीहि जनाः प्रभत्ताः,
किं नु विहिस्रा अयता गमिष्यन्ति ॥११॥
अन्वयार्ष: है इन्द्रभूति ! (जीविय) यह जीवन (असंक्खयं) असंस्कृत है । अतः (मा पमायए) प्रमाद मत करो (ह) क्योंकि (जरोवणीयस्स) वृद्धावस्था वाले पुरुष को किसी की (ताण) शरण (नरिय) नहीं है (ए) ऐसा तू (वियाजाहि) अच्छी तरह से जान ले (पमत्ते) जो प्रमादी (विहिंसा) हिंसा करने वाले (अजया) अजितेन्द्रिय (जणे) मनुष्य हैं, वे (नु) बेचारे (क) किसकी परण (गहिति) ग्रहण करेंगे।
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१५६
निन्ध-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम ! इस मानव जीवन के टूट जाने पर न तो पुनः इसकी संधि हो सकती है, और न यह बन्न हो सकता है । अतः धर्माचरण करने में प्रभाद मत करो। यदि कोई वृद्धावस्था में किसी की धारण प्राप्त करना चाहे लो इसमें भी वह असफल होता है। 'मला फिर जो प्रमादी और हिंसा कारन थाले अजिोकि मनुष्य में, वे गलोर में निकली शरण ग्रहण करेंगे? अर्थात्-वहां के होने वाले दुलों से उन्हें कौन छुड़ा सकेगा ? कोई भी बचाने वाला नहीं है। मुल:--वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते,
इमम्मि लोए अदुवा परस्था । दीवप्पणव अणंतमोहे,
नेयाउअं दट्ट मदट्ट मेव ॥१२॥ छाया:-वित्तेन त्राणं न लभेत प्रमत्तः,
अस्मिल्लोकेऽधवा परत्र । दीपंप्रणष्ट इवानन्तमोहः,
नैयायिक दृष्ट्वाऽप्यदृष्ट्वेव ॥१२॥ भावार्थ:-है इन्द्रभूति ! (पमत्त) वह प्रमादी मनुष्य (इमम्मि) इस (लोए) लोक में (अदुवा) अथवा (परत्या) परलोक में (वित्तण) द्रव्य से (ताणं) त्राण, शरण (न) नहीं (लभे) पाता है (अणंतमोहे) बह अनंत मोहवाला (दीवप्पण? २) दीपक के नाश हो जाने पर (ने' याउअं) न्यायकारी मार्ग को (दट्ट मषट्ठ मेव) देखने पर भी न देखने वाले के समान है।
(१) जैसे धातु ढूंढ़ने वाले मनुष्य दीपक को लेकर पर्वत की गुफा की ओर गये और उस दीपक से गुफा देख भी ली, परन्तु उसमें प्रवेश होने पर उस दीपक की उन्होंने कोई पर्वाह न की। उनके आलस्य से दीपक बुझ गया, तब तो उन्होंने अंधेरे में इधर-उधर भटकते हुए प्राणान्त कष्ट पाया। इसी तरह प्रमादी जीव धर्म के द्वारा मुक्ति पथ को देख लेने पर भी उप्त धर्म की द्रव्य के लोभवश फिर उपेक्षा कर बैठते हैं । वहाँ वे जन्म-जन्मान्तरों में प्राणाम्त जैसे कष्टों को अनेकों बार उठाते रहेंगे ।
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कषाय-स्वरूप
१५७
भावार्थ:-हे गौतम ! धर्म-साधन करने में आलस्य करने वाले प्रमादी मनुष्यों की इस लोक और परलोक में द्रव्य के द्वारा रक्षा नहीं हो सकती है। प्रत्युत वे अनन्तमोही पुरुष, दीपक के नाश हो जाने पर न्यायकारी मार्ग को देखते हुए भी नहीं देखने वाले के समान है। मूलः -सुतेसु थाबी पडिबुद्धजीवी,
न वीससे पंडिए आसुपपणे । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं,
भारंडपक्खीव चरऽप्पमत्तो ॥१३॥ छाया:-सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी,
न विश्वसेत् पण्डित आशुप्रज्ञः । घोरा मुहर्ता अवलं शरीरं,
भारण्डपक्षीव चराऽप्रमत्तः ॥१३।। मावयार्थः- हे इन्द्रभूति ! (आसुपणे) तीक्ष्ण बुद्धि वाला (पडिबुद्धजीवी) द्रव्य निद्रा रहित तत्त्वों का जानकार (पंडिए) पण्डित पुरुष (सुत्तेसुयावी) द्रव्य
और भाव से जो सोते हुए प्रमादी मनुष्य हैं, उनका (न) नहीं (विससे) विश्वास करे, अनुकरण करे, क्योंकि (मुहत्ता) समय आयु क्षीण करने में (घोरा) भयंकर है । और (सरीरं) शरीर भी (अबलं) बल रहित है । अतः (भारंगपक्लीय) भारंड पक्षी की तरह (अप्पमत्तो) प्रमादरहित (चर) संयम में बिचरण कर।
भाषा:-हे गौतम ! द्रव्य निद्रा से जामत तीक्ष्णबुद्धि वाले पण्डित पुरुष जो होते हैं, ने द्रव्य और भाव से नींद लेने वाले प्रमादी पुरुषों के आचरणों का अनुकरण नहीं करते हैं । क्योंकि वे जानते हैं कि समय जो है वह मनुष्य का आयु कम करने में भयंकर है। और यह भी नहीं है कि यह शरीर मृत्यु का सामना कर सके । अतएव जिस प्रकार मारंड पक्षी अपना चुगा चुगने में प्रायः प्रमाय नहीं करता है उसी तरह तुम भी प्रमादरहित होकर संयमी जीवन विसाने में सफलता प्राप्त करो।
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१५८
निIव-प्रवचन
मूलः -जे गिद्धे कामभोएस, एगे कूडाय गच्छद ।
__ न मे दिट्टे परे लोए, चक्नुदिट्ठा इमा रई ॥१४॥ छाया: - यो गृद्धा: कामभोगेषु, एक: क्हाय गच्छति ।
न मया दृष्टः परलोकः, चक्षुई ष्टेयं रतिः ॥१४॥ मन्छयायः- हे इन्द्रभूति ! (जे) जो (एगे) कोई एफ (कामभीएसु) काममोगों में (गिद्धे) आसक्त होता है, वह (कूडाय) हिंसा और मृषा भाषा को (गच्छद) प्राप्त होता है, फिर 'लमसे पूछने पर वह बोलता है कि (मे) मैंने (परेलोए) परलोक (न) नहीं (दि?) देखा है। (इमा) इस (रई) पोद्गलिक सुख को (चवस्नुदिट्टा) प्रत्यक्ष आँखों से देख रहा हूँ।
भावार्थ:- हे आर्य ! जो कामभोग में सदैव लीन रहता है वह हिंसा झूठ आदि से बचा हुआ नहीं रहता है। यदि उससे कहा जाय कि हिंसादि कर्म करोगे तो नरक में दुख उठाओगे और सत्कर्म करोगे तो स्वर्ग में दिव्य सुख मोगोगे । ऐसा कहने पर वह प्रमादी बोल उठता है कि मैंने कोई भी स्वर्ग नरक नहीं देखें हैं, कि जिनके लिए इन प्रत्यक्ष कामभोगों का आनंद छोड़ बैठू। मुल:-हत्थागया इमे कामा, कालिआ जे अणागया ।
को जाणइ परे लोए, अस्थि वा नत्थि वा पुणो ॥१५॥
छाया:-हस्तागता इमे कामाः, कालिका येऽनागताः ।
को जानाति पर: लोकः, अस्ति वा नास्ति वा पुनः ॥१५॥
अन्वयार्ष: है धर्मतत्त्वज्ञ ! (इमे) ये (कामा) कामभोग (हत्यागया) हस्तगत हो रहे हैं, और इन्हें त्यागने पर (जे) जो (अणागया) आगामी भव में सुख होगा, यह सो (कालिआ) भविष्यत् की बात है (पुणो) तो फिर (को) कौन (जाणइ) जानता है (परेलोए) परलोक (अपि) है (वा) अथवा (नत्यि) नहीं है।
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कषाय-स्वरूप
१५६
भावार्थ:-अज्ञानी नास्तिक इस प्रकार कहते हैं कि हे धर्म के तत्त्व को जानने वालो ! ये कामभोग जो प्रत्यक्ष रूप में मुझे मिल रहे हैं और जिन्हें त्याग देने पर आगामी भव में इससे भी बढ़ कर तथा आत्मिक सुख प्राप्त होगा, ऐसा तुम कहते हो; परन्तु यह तो भविष्यत् की बात है और फिर कौन जानसा है कि नरक, स्वर्ग और मोक्ष है या नहीं ? मूल:-जणेण सद्धि होक्खामि, इइ बाले पगब्भइ !
कामभोगाणराएणं, केसं संपड़िवज्जइ ॥१६॥ छाया:--जनेन साई भविष्यामि, इति बालः प्रगल्भते ।
कामभोगानुरागेण, क्लेशं स: सम्प्रतिपद्यते ॥१६॥ अन्वयार्थ:--हे इन्द्रभूति ! (जर्णण सदि) इतने मनुष्यों के साथ मेरा भी (होक्खामि) जो होना होगा, सो होगा, (इ) इस प्रकार (बाले) वे अज्ञानी (पगम) बोलते हैं, पर वे आखिर (काम मोगाणुराएणं) फाममोगों के अनुराग के कारण (केस) दुम्न ही को (संपडिबज्जइ) प्राप्त होते हैं । ____ भावार्थ:-हे गौतम ! वे अज्ञानी जन इस प्रकार फिर बोलते हैं कि इतने दुष्कर्मी लोगों का परलोक में जो होगा, वह मेरा भी हो जायगा । इतने सब के सब लोग क्या मूर्ख हैं ? पर हे गौतम ! आखिर में वे काममोगों के अनुरागी लोग इस लोक और परलोक में महान् दुरनों को मोगते हैं । मुलः–तओ से दंडं समारभइ, तसेस थावरेस् य ।
अट्ठाए व अणवाए, भूयग्गामं विहिंसइ ॥१७॥ छायाः ततो दण्ड समारभते, असेष स्थावरेषु च ।
अर्थाय चानाय, भूतनाम विहिनस्ति ।।१७।। अन्वयार्थ:--हे इन्द्र भूति ! यों स्वर्ग नरक आदि की असम्भावना मान करके (तो) उसके बाद (से) वह मनुष्य (तसेसु) अस (अ) और थावरेसु) स्थावर जीवों के विषय में (अट्टाए) प्रयोजन से (व) अथवा (अणट्ठाए) बिना प्रयोजन से (दं) मन, वचन, काया के दण्ड को (समारमा) समारंभ करता है और (मूयग्गाम) प्राणियों के समूह का (विहिंसइ) वध करता है ।
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नियंग्य-प्रवचन
दिल को
भावार्थ :- हे आर्य ! नास्तिक लोग प्रत्यक्ष भोगों को छोड़कर मत्रिष्यत् की कौन आशा करे, इस प्रकार कह कर, है। फिर थे, हलने-चलते उस जीवों और स्थावर जीवों को प्रयोजन से अथवा बिना प्रयोजन से, हिंसा करने के लिए, मन, वचन, काया के योगों को प्रारम्भ कर असंख्य जीवों की हिंसा करते हैं ।
१६०
मूल:- हिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुजमाणे सुरं मंसं, सेयमेअं ति मन्नई ॥ १८६॥
छाया: - हिस्रो बालो मृषावादी, मायी च पिशुनः शठः । भुञ्जानः सुरां मांसं श्रेयों मे इदमिति मन्यते ॥ १८ ॥
+
अग्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! स्वर्ग नरक को न मान कर वह (हिंसे) हिंसा करने वाला (बाले) बजानी (भुसावाई) फिर झूठ बोलता है ( माइल्ले) कपट करता है, (पिसुणे) निन्दा करता है ( सढे ) दूसरों को ठगने की करतूत करता रहता है। ( सुरं) मंदिरा ( मंसं ) मांस ( भुजमाणे) मांगता हुआ (सेयमे) श्रेष्ठ है (ति) ऐसा (मन्नई) मानता है ।
भावार्थ:- हे गौतम! स्वर्ग नरक आदि को असम्भावना करके वह अज्ञानी जीव हिंसा करने के साथ ही साथ झूठ बोलता है। प्रत्येक बात में कपट करता है । दूसरों की निंदा करने में अपना जीवन अर्पण कर बैठता है । दूसरों को ठगने में अपनी सारी बुद्धि खर्च कर देता है और मदिरा एवं मांस खाता हुआ भी अपना जीवन श्रेष्ठ मानता है ।
r
मूलः — कायसा वयसा मत्त वित्ते गिद्धे य इत्थिसु । दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व्व मट्टियं ॥ १६ ॥
-
छाया: – कायेन वचसा मत्तः वित्तं गृद्धश्च स्त्रीषु । द्विधा मलं सश्चिनोति, शिशुनाग इव मृत्तिकाम् ॥ ११॥
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कषाय स्वरूप
अर्थ:-- हे इन्द्रभूति ! ये नास्तिक लोग (कायसा ) काय से ( वायसा ) वचन से ( मते) गर्वान्वित होने वाला (वित्ते ) वन में (य) और (इत्थम्) स्त्रियों में (गिद्ध ) आसक्त हो वह मनुष्य (दुहओ) राग द्वेष के द्वारा ( मलं) कर्म मल को (संचिs) इकट्ठा करता है (य) जैसे ( सिसुणागु) शिशुनाग "अलसिया" (मट्टि) मिट्टी से लिपटा रहता है ।
१६१
भावार्थ :- हे आर्य ! मन, वचन और काया से गर्व करने वाले वे नास्तिक लोग घन और स्त्रियों में आसक्त होकर रागद्वेष से गाढ़ कर्मों का अपनी आत्मा पर लेप कर रहे हैं। पर उन कर्मों के उदय काल में, जैसे अलसिया मिट्टी से उत्पन्न हो कर फिर मिट्टी ही से लिपटाता है, किन्तु सूर्य की आतापना से मिट्टी के सूखने पर वह अलसिया महान कष्ट उठाता है, उसी तरह वे नास्तिक लोग भी जन्म-जन्मान्तरों में महान कष्टों को उठावेंगे |
।
मूल:- तओ पुट्टो आयंकेण गिलाणो परितप्पड़ । पीओ परलोगस्स; कम्माणुप्पेहि अप्पणो ॥ २० ॥
छाया:-- ततः स्पृष्ट आतङ्केन, ग्लान: परितप्यते । परलोकात्, कर्मानुप्रेश्यात्मनः ||२०||
प्रभीत :
अश्वपार्थ :- हे इन्द्रभूति ! कर्म बाँध लेने के ( तओ) पश्चात् (आर्यकेण ) असाध्य रोगों से (पुट्ठो) घिरा हुआ वह नास्तिक ( गिलाणो ) ग्लानि पाता है और (परलोमस्स) परलोक के मय से (पीओ) डरा हुबा ( अपणो ) अपने किये हुए (कम्माणुहि ) कर्मों को देख कर (परित पद्द) खेद पाता है ।
भावार्थ :- हे गौतम! पहले तो ऐसे नास्तिक लोग विषयों के लोलुप हो कर कर्म बांध लेते हैं फिर जब उन कर्मों का उदय काल निकट आता है तो असाध्य रोगों से घिर जाते हैं । उस समय उन्हें बड़ी ग्लानि होती है। नरकादि के दुखों से वे बड़े घबराते है और अपने किये हुए बुरे कर्मों के फलों को देख कर अत्यन्त वेद पाते हैं ।
मूलः -- सुआ
मे नरए ठाणा, असीलाणं च जा गई ।
बालाणं कूरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा ॥ २१ ॥
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निरन्थ-प्रवचन
छाया:-श्रुतानि मया नरकस्थानानि, अशीलानां च या गतिः ।
बालानां क रकर्माणां, प्रगाढा यत्र बेदना ॥२१॥ अम्बयाधः---हे इन्द्रभूति ! थे बोलते हैं, कि (जस्य) जहाँ पर उन (कूर. कम्माणं) क र कर्मों के करने वाले (बालाणं) अज्ञानियों को (पगाढा) प्रगाढ़ ! (वेपणा) वेदना होती है। मैंने (नरए) नरक में (ठाणा) कुम्भी, वैतरणी, आदि । जो स्पान हैं, वे (सुआ) सुने हैं, (च) और (असीलाण) दुराचारियों की (जा) जो (गई) नारकीय गति होती है उसे भी सुना है।
भावार्थ:-हे आय ! नास्तिकजन नकं और स्वर्ग किसी को मी न मान कर खूब पाप करते हैं। जब उन कर्मों का उदय काल निकट आता है तो उनको कुछ असारता मालम होने लगती है । तब ये बोलते हैं कि ग़च है, । हमने तत्त्वों द्वारा सुना है, कि नरक में पापियों के लिए कुम्भिया, वैतरणी नदी आदि स्थान हैं और उन दुष्कमियों की जो नारकीय गति होती है, वहाँ ऋरकर्मी अज्ञानियों को प्रगात वेदना होती है।
मुल:--सब्यं विलविरं गीअं; सव्वं न विडंबिझं 1
सव्वे आभरणा भारा; सव्वे कामा दुहाबहा ॥२२॥
छाया:-सर्व विलपितं गीतं, सर्व नत्यं विम्बितम् ।
सर्वाण्याभरणानि भाराः, सर्वे कामा दुःखावहाः ॥२२॥
अन्वयार्पः-हे इन्द्रभूति ! (सम्बं) सारे गीअं) गीत (लिविझ) विसाप के समान है । (सव्व) सारे (नट्ट) नृत्य (विनि) विडम्बना रूप हैं । (सम्वे) सारे (आहरणा) आमरण (भारा) भार के समान हैं। और (सब्वे) सम्पूर्ण (कामा) काम मोग (दुहाथहा) दुख प्राप्त कराने वाले है।
भावार्थ:-हे गौतम ! सारे गीत विलाप के समान है। सारे नत्य विडम्बना के समान हैं । सारे रत्न जड़ित आमरण मार रूप है। और सम्पुणे : काम भोग जन्म-जन्मांतरों में दुख देने वाले हैं।
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कषाय स्वरूप
मिअं गहाय,
मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले ।
न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मंसहरा भवन्ति ॥ २३ ॥
मूलः -- जहेह सीहो व
छाया -- यह सिंह इव मृगं गृहीत्वा, मृत्युनंरं नयति ह्यन्तकाले । न तस्य माता वा पिता वा भ्राता,
काले तस्यांशधरा भवन्ति ||२३||
अन्वयार्थः इन्द्रभूति ! ( इह ) इस संसार में (जहा) जैसे ( सीहो) सिंह (मिश्र) मृग को (गाय) पकड़ कर उसका अन्त कर डालता है (व) वैसे ही ( मच्चू) मृत्यु (ड) निश्चय करके ( अन्तकाले ) आयुष्य पूर्ण होने पर (नर) मनुष्य को (इ) परलोक में ले जाकर पटक देती है । (कालम्मि) उस काल में ( माया ) माता (खा ) अथवा (पिआ ) पिता (व) अथवा ( माया ) भ्राता ( तम्मंसहरा ) उसके दुःख को अंश मात्र मी बँटाने वाले (न) नहीं (भवति)
होते हैं ।
तं
भाषार्थ :- हे आर्य ! जिस प्रकार सिंह भागते हुए मृग को पकड़ कर उसे मार डालता है। इसी तरह मृत्यु भी मनुष्य का अन्त कर डालती है। उस समय उसके माता-पिता- माई आदि कोई भी उसके दुःख का बंटवारा करके भागीदार नहीं बनते । अपनी निजी आयु में से प्रायु का कुछ भाग दे कर मृत्यु से उसे बचा नहीं सकते हैं ।
मूलः - इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि
१६३
इमं च मे किच्चमिमं अकिच्चं । लालप्यमाणं,
एवमेवं
हरा हरंति त्ति कहं पमाए ||२४||
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निग्रन्थ-प्रवचन
छाया:--इदं च मेऽस्ति, इदम् च नास्ति, इदं च कृत्यमिदमकृत्यम् ।
तमेवमेध लालप्यमानं, हरा हरताति कय प्रमाद: ।२४१ ।
अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (इमं) यह (मे) मेरा (अस्थि) है, (च) और (इम) यह घर (मे) मेरा (नत्यि) नहीं है, यह (किच्च) करने योग्य है (च) ।
और (इम) यह व्यापार (अकिच्चं) नहीं करने योग्य है, (एवमेव) इरा प्रकार | (लासपमाण) बोलने वाले प्रमादियों के (तं) वायु को (हस) रात-दिन रूप चोर (हरंति) हरण कर रहे हैं (त्ति) इसलिए (कह) कैसे (पमाए) प्रमाद कर रहे हो? ____ भावार्थ:-हे गौतम ! यह मेरा है, यह मेरा नहीं है, यह काम करने का है और यह बिना लाभ का व्यापार आदि मेरे नहीं करने का है। इस प्रकार बोलने वालों का आयु तो रात दिन रूप चोर हरण करते जा रहे हैं। फिर प्रमाद क्यों करते हो? अर्थात् एक ओर मेरे तेरे की कल्पना और करने न करने के संकल्प चाल बने रहते हैं और दूसरी ओर काल रूपी चोर जीवन को हरण कर रहा है अतः शीघ्र ही सावधान होकर परमार्थ-साषन में लग जाना। चाहिए।
|| इति प्रयोदशोऽध्यायः ॥
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(अध्याय चौदहवां) वैराग्य सम्बोधन
11 भगवान् श्री ऋषभोवाच ॥ मूल:--संबुज्झह किं न बुज्झह,
संबोही खलु पेच्च दुल्लहा, णो हूवणमंति राइओ,
नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥श छाया:--सबुध्यध्वं कि न बुध्यध्वं,
सम्बोधिः खलु प्रेत्य दुर्लभा । नो खल्वुपनमन्ति रात्रयः,
नो सुलभं पुनरपि जीवितम् ॥१||
अन्वयार्थ:--हे पुत्रो ! (संबुज्झह) धर्म बोध करो (किं) सुविधा पाते हुए क्यों (न) नहीं (बुजाह) बोध करते हो ? क्योंकि (पेच्च) परलोक में (खलु) निश्चय ही (संबोही) धर्म-प्राप्ति होना (दुल्लहा) दुर्लभ है। {राइबो) गयी हुई राशियां (णो) नहीं (ह) निश्चय (उवणमंति) पोछी आती हैं। (पुणरावि) और फिर मी (जीवियं) मनुष्य जन्म मिलना (सुलभ) सुगम (न) नहीं है।
भावार्थ:-हे पुत्रो ! सम्यक्स्वरूप धर्म बोध को प्राप्त करो ! सब तरह से सुविधा होते हुए भी धर्म को प्राप्त क्यों नहीं करते। अगर मानव जन्म में
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
धर्म-बोध प्राप्त न किया, तो फिर धर्म-बोध प्राप्त होना महान् कठिन है । गधा | हुआ समय तुम्हारे लिए वापस लौट कर आने का नहीं, और न मानव जीवन ही सुलमता से मिल सकता है ।
मूलः-डहरा वुड्ढाय पासह,
___ गब्भत्था वि चयंति माणवा । सेणे जह बट्टयं हरे,
एवमाउखयम्मि तुट्टई ॥२॥ छाया:-दिशामलाः पश्यत, या अणि मनम्ति मानवाः!
श्येनो यथा वर्तकं हरेत्, एक्मायुक्षये त्रुट्यति ।।२।। अन्वयापं:-हे पुत्रो ! (पासह) देखो (डहरा) बालक तथा (बुढा) वृद्ध (चयति) शरीर त्याग देते हैं। और (गल्भत्या) गर्भस्थ (माणवा वि) मनुष्य भी शरीर त्याग देते हैं (जह) जैसे (सेणे) बाज पक्षी (वयं) बटेंर को (हरे) हरण कर ले जाता है (एवं) इसी तरह (आउल्लयम्मि) उम्र के बीत जाने पर (तुट्टई) मानव-जीवन टूट जाता है ।
भावार्थ:-हे पुत्रो ! देखो कितनेक तो बालवय में ही तथा कितनेका वृद्धा. वस्था में अपने मानव शरीर को छोड़कर यहाँ से चल बसते है । और कितनेक गर्मावास में ही मरण को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे, दाज पक्षी अचानक बटेर को आ दबोचता है, वैसे ही न मालूम किस समय आयु के क्षय हो जाने पर मृत्यु प्राणों को हरण कर लेगी । अर्थात् आयु के क्षय होने पर मानव-जीवन की श्रृंखला दूट जाती है। भूल:--मायाहिं पियाहिं लुप्पइ,
नो सुलहा सुगई य पेच्चओ । एथाइ भयाई पेयिा ,
आरंभा विरमेज्ज सुव्वए ॥३॥
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वैराग्य-सम्बोधन
छाया:-मातृभिः पितृभिलुप्यते, नो सुलभा सुगतिश्च प्रेत्य तु ।
एतानि भयानि प्रेक्ष्य, आरम्भाद्विरमेत्सुनत: ॥३॥
मन्वयार्थ:-हे पुत्रो ! माता-पिता के मोह में फंसकर जो धर्म नहीं करता है, यह माचाहि) माता (kिaife! ति के द्वारा ही पह) परिभ्रमण करता है (य) और उसे (पेच्चओ) परलोक में (सुगई) सुगति मिलना (सुसहा) सुलम (न) नहीं है। (एमाई) इन (मयाई) मयों को (पेहिया) देख कर (आरंमा) हिंसादि आरंभ से (विरमेज्ज) निवृत्त हो, वही (सुम्वए) सुव्रतवाला है।
भावार्थ:-हे पुत्रो ! माता-पितादि कौटुम्बिक जनों के मोह में फंसकर जिसने धर्म नहीं किया, वह उन्हीं के कारण संसार के चक्र में अनेक प्रकार के कष्टों को उठाता हुआ भ्रमण करता रहता है, और जन्म-जन्मान्तरों में भी उसे सुगति का मिलना सुलम नहीं है। अतः इस प्रकार संसार में भ्रमण करने से होने वाले अनेकों कष्टों को देखकर जो हिंसा, झूठ, घोरी, व्यभिचार बादि कामों से विरक्त रहे वही मानव-जीवन को सफल करने वाला सुप्रती पुरुष है । मूलः--जमिण जगती पुढो जगा,
____ कम्मेहि लुप्पंति पाणिणो ।
सयमेव कडे हि गाहर, ___णो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्ठयं ।।४।।
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छायाः-यदिदं जगति पृथक् जगत्, कर्मभिलृप्यन्ते प्राणिनः ।
स्वयमेव कृतंर्गाहते नो, तस्य मुच्येत् अस्पृष्टः ॥४॥ अन्वयार्थ:-हे पुत्रो ! (जमिणं) जो हिंसा से निवृत्त नहीं होते हैं उनको यह होता है, कि (जगती) संसार में (पाणिणो) के प्राणी (पुढो) पृथक्-पृथक (जगा) पृथ्वी आदि स्थानों में (कम्मेहि) कर्मों से (लुम्पति) भ्रमण करते हैं। क्योंकि (सय मेव) अपने (कठेहिं) किये हुए कर्मों के द्वारा (गाहर) नरकावि
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निग्रंन्य-प्रवचन
स्थानों को प्राप्त करते हैं। (तस्स) उन्हे (पुट्ठय) कम स्पर्श अर्थात् मोये बिना (णी) नहीं (मुच्चेज्ज) छोड़ते हैं।
भावार्थ:-हे पुत्रो ! जो हिंसादि से मुह नहीं मोड़ते हैं, वे इस संसार में पृथ्वी, पानी, नरक ओर तिर्यच्च आदि अनेकों स्थानों और योनियों में कष्टों के साथ घूमते रहते हैं। क्योंकि उन्होंने स्वयमेव ही ऐसे कार्य किये हैं, कि जिन कर्मों के भोगे बिना उनका छुटकारा कमी हो ही नहीं सकता है ।
मूलः-विरया वीरा समुढ़िया, कोहकारियाइपीसणा ।
पाणे ण हणंति सव्वसो, पाबाओ विरयाभिनिबुडा॥५॥
छाया:--विरता वीराः समुत्थिता:, क्रोधकातरिकादिषोषणाः ।
प्राणान्न घ्नन्ति सर्वशः, पापाद्विरता अभिनिवृताः ।।५।।
अम्बयार्थ:-हे पुत्रो ! (विरथा) जो पौद्गलिक सुलों से विरक्त है और (समुट्ठिया) सदाचार के सेवन करने में सावधान है, (कोहकाग्यिाइ) क्रोध, माया और उपलक्षण से मान एवं लोम को (पीसणा) नाश करने वाला है, (सब्यसो) मन, वचन, काया, से जो पाणे) प्राणों को (ण) नहीं (हति) हनता है (पावाओ) हिंसाकारी अनुष्टानों से जो (विरयामिनिबुडा) विरक्त है और क्रोधादि से उपशान्त है चित्त जिसका, उसको (वीरा) बीर पुरुष कहते हैं ।
भावार्थ:-हे पुत्रो ! मारकाट या खुद करके कोई वीर कहलाना चाहे तो वास्तव में यह वीर नहीं है। वीर तो वह है जो पौद्गलिक सुखों से अपना मन मोड़ लेता है, सदाचार का पालन करने में सदैव सावधानी रखता है, कोष, मान, माया और लोम इन्हें अपना आन्तरिक शत्रु समसकर, इनके साथ युद्ध करता रहता है चोर उस युद्ध में उन्हें नष्ट कर विजय प्राप्त करता है, मन, अपन और काया से किसी तरह दूसरों के हक में बुरा न हो, ऐसा हमेशा ध्यान रखता रहता है, और हिंसादि आरम्म से दूर रह कर जो उपशास्त चित्त से रहता है।
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वैराग्य-सम्बोधन
मूल:----जे पारिभवई परं जणं,
संसारे परिवत्तई महं । अदु इंखिणिया उ पाविया,
इति संखाय मुणी ण मज्जई ॥६॥ छाया:-य: परिभवति परं जनं,
संगारे. परितार्दते महत् ! अत इंखिनिका तु पापिका,
इति संख्याय मुनिनं माद्यति ॥६॥ अन्धयार्थ:-हे पुत्रो ! (जे) जो (पर) दूसरे (जणं) मनुष्य को (पारिभवई) अवज्ञा से देखता है, वह (संसारे) संसार में (मह) अत्यन्त (परिवत्तई) परिभ्रमण करता है (अदु) इसलिए (पाविया) पापिनो (इंखिणिया) निदा को (इति) ऐसी (संखाय) जानकर (मुणो) साषु पुरुष (ण) नहीं (मआई) अभिमान करे।
भावामः-है परो । जो मनष्य अपने से जाति, कूल, बल, रूप आदि में न्यून हो, उसकी अवज्ञा या निन्दा करने से, वह मनुष्य दीर्घकाल तक संसार में परिचमण करता रहता है। जिस वस्तु को पाकर निन्दा की थी, वह पापिनी निन्दा उससे भी अधिक होनावस्था में पटकाने वाली है। ऐसा जानकर साधु जन न सो कभी दूसरे की निन्दा ही करते हैं, और न, पायी हुई वस्तु ही का कमी गर्व करते हैं। मूल:--जे इह सायाणुगनरा,
अज्झोबबन्ना कामेहि मुच्छिया। किवणेण समं पब्भिया,
न विजाणति समाहिमाहितं ॥७॥ छाया:-य इह सातानुगनरा, अध्युपपन्ना: कामैच्छिताः ।
___ कृपणेन समं प्रगल्भिताः, न विजानन्ति समाधिमाख्यातम् ।।७।।
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नियंग्य-प्रवचन
अन्वयार्थ :- हे पुत्रो ! (इ) इस संसार में (जे) जो (नरा) मनुष्य (साया जुग ) ऋद्धि, रस साता के ( मज्सोदवत्रा ) साथ ( कामेहि) काम भोगों से ( मुच्छा) मोहित हो रहे हैं, और (कवणेण समं) दीन सरीखे (पब्भिया) बेटे हैं वे (आहित ) कहे हुए (समाहि) समाधि मार्ग को (न) नहीं (वि जाति)
जानते हैं ।
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भावार्थ:- हे पुत्रो ! इस संसार में अनेक प्रकार के वैमबों से युक्त जो मनुष्य हैं वे काम भोगों में आसक्त होकर कायर की तरह बोलते हुए, धर्माचरण में हठीलापन दिखाते हैं, उन्हें ऐसा समझो कि ये वीतराग के कहे हुए समाधि मार्ग को नहीं जानते हैं ।
मूल :- अदक्खुव दक्खुवाहियं सहसु अदबखुदंसणा | हृदि हु सुनिरुद्धदंसणे, मोहणिज्जण कडेण कम्मुणा ||८|| छाया:- अपश्य इव पश्यव्याख्यातं, श्रद्धस्व अपश्यक दर्शनाः । हंहो हि सुनिरुद्धदर्शनाः, मोहनीयेन कृतेन कर्मणा ||८||
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अभ्वयार्थ :- हे पुत्रो ! ( अदवस्तुव ) तुम अन्धे क्यों बने जा रहे हो ! ( दक्खुवाहिय) जिसने देखा है उनके वाक्यों में (सहस्र ) श्रद्धा रखखो और (हंदि अदवखुदंसणा ) हे ज्ञान- शून्य मनुष्यो ! ग्रहण करो वीतराग के कहे हुए आगमों को । परलोकादि नहीं है, ऐसा कहने वालो के (मोहणिज्जेण) मोहवश (कडेण) अपने किये हुए (कम्मुणा) कर्मों द्वारा ( दंसणे ) सम्यक्ज्ञान (सुनिरुद्ध) अच्छी तरह ढका है ।
भावार्थ: है पुत्रो ! कर्मों के शुभाशुभ फल होते हुए भी जो उसकी नास्तिकता बताता है. वह अन्धा ही है । ऐसे को कहना पड़ता है, कि जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप में अपने केवलज्ञान के बल से स्वर्ग नरकादि देखे हैं, उनके वाक्यों को प्रमाण भूत, वह माने और उनके कहे हुए वाक्यों को, ग्रहण कर उनके अनुसार अपनी प्रकृति बनाने हे ज्ञानशून्य मनुष्यो ! तुम कहते हो कि वर्तमान काल में जो होता है, वही है और सब ही नास्तिरूप हैं । ऐसा कहने से तुम्हारे पिता और पितामह की मी नास्तिता सिद्ध होगी। और जब इनकी हो नास्ति होगी, तो तुम्हारी उत्पत्ति कैसे हुई ? पिता के बिना पुत्र की कभी
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वैराग्य-सम्बोधन
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उत्पत्ति हो हो नहीं सकती । अतः भूतकाल में भी पिता था, ऐसा अवश्य मानना होगा। इसी तरह भूत और भविष्य काल में नरक स्वर्ग आदि के होते वाले सुख-दुख भी अवश्य हैं। कर्मों के शुभाशुभ फलस्वरूप नरक स्वर्गादि नहीं है, ऐसा जो कहता है, उसका सम्यक्ज्ञान मोहवश किये हुए कर्मों से ढँका हुआ है ।
मूलः -- गारं पि अ आवसे नरे अणुपुव्वं पाणेहि संजए । समता सव्वत्थ सुब्वते,
देवाणं गच्छे सलोगयं ॥ ६ ॥
छाया:- अगारमपि चावसन्नर, आनुपूर्व्या प्राणेषु संयतः । समता सर्वत्र सुव्रतः, देवानां गच्छेत्सलोकताम् ॥६॥
अन्वयार्थः -- हे पुत्रो ! ( गारं पि अ) घर में ( आव से ) रहता हुआ (नरे) मनुष्य भी ( अणुपुष्वं ) जो धर्म श्रवणादि अनुक्रम से (पाणेहि प्राणों को (संजए) यतना करता रहता है (सव्वत्य ) सब जगह (समता ) समभाव है जिसके ऐसा ( सुते ) सुव्रतवान् गृहस्थ भी (देवा) देवताओं के ( सलोगथं ) लोक को ( गच्छे ) जाता है ।
भावार्थ:- हे पुत्रो ! जो गृहस्थावास में रह कर भी धर्म श्रवण करके अपनी शक्ति के अनुसार अपनों तथा परायों पर सब जगह समभाव रखता हुआ प्राणियों की हिंसा नहीं करता है वह गृहस्थ भी इस प्रकार का व्रत अच्छी तरह पालता हुआ स्वर्ग को जाता है। भविष्य में उसके लिए मोक्ष भी निकट ही है ।
॥ श्रीसुधर्मोवाच ।।
मूल: --- अभविसु पुरा वि भिक्खुवो,
आएसा वि भवंति सुव्वता । एयाई गुणाई आहु ते. कासवस्त अणुधम्मचारिणो ॥ १० ॥
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निर्गन्ध-प्रवचन
छाया:-अभवत् पुराऽपि भिक्षवः, आगमिष्या अपि सुग्रताः ।
एतान् गुणानाहुस्ते, काश्यपस्यानुधर्मचारिणः ॥१०॥ अन्वयार्थ:-हे (भिक्खुवो) भिक्षुओ ! (पुग) पहले (अमविसु) हुए जो (मि) और (आएसा वि) भविष्यत् में होंगे, वे सब (सुब्बप्ता) सुनती होने से जिन (भवंति) होते हैं । (ते) वे सब जिन (एयाइं) इन (गुणाई) मुणों को एकसे (आइ) कहते हैं । क्योंकि, (कासबस्स) महावीर भगवान के (अणुधम्म'चारिणो) वे धर्मानुषारी हैं।
भावार्थ:-हे भिक्षुओ ! जो बीते हुए काल में तीर्थकर हुए है, उनके और मविष्यत् में होंगे उन सभी तीर्थंकरों के कथनों में अन्तर नहीं होता है । सभी का मन्तव्य एक ही सा है । क्योंकि वे सुनती होने से राग व रहित जो जिनपद है, उसको प्राप्त कर लेते हैं और सर्वज्ञ सर्वदशी होते हैं। इसी से ऋषमदेव और भगवान् महावीर आदि सभी "ज्ञान-दर्शन-चारित्र से मुक्ति होती है,” ऐसा एक ही साल वाले हैं।
॥श्रीऋषभोवाच ॥ मूलः-तिविहेण वि पाण मा हणे,
आयहिते अणियाण संयुडे । एवं सिद्धा अणंतसो, ___ संपइ जे अणागयावरे ॥११॥
छाया:-त्रिविधेनापि प्राणान् मा हन्यात्,
आत्महितोऽनिदानः संवृतः । एवं सिद्धा अनन्तशः,
संप्रति ये अनागत अपरे ॥११॥
अम्बयाई:-हे पुत्रों ! (ज) जो (आयहित) आत्म-हित के लिए (तिविहेण वि) मन, वचन, फर्म से (पाण) प्राणों को (मा हणे) नहीं हनते (अणियाण) निदान रहित (संबुडे) इन्द्रियों को गोपे (एवं) इस प्रकार का जीवन करने से
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वैराग्य-सम्बोधन
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(अणंतसो) अनन्त (सिद्धा) मोक्ष गये हैं और (सम्पइ) वर्तमान में जा रहे हैं (अणागयावरे) और अनागत अर्थात भविष्यत् में जावेंगे।
भावार्थ:--हे पुत्रो ! जो आरम-हित के लिए एकेन्द्रिय से लेकर पंषेन्द्रिय पर्यंत प्राणी मात्र की मन, बचन, और कर्म से हिंसा नहीं करते हैं, और अपनी इन्द्रियों को विषय बासना की ओर धूमने नहीं देते हैं, बस, इसी व्रत के पालन करते रहने से भूत काल में अनन्त जीव मोक्ष पहुंचे हैं। और वर्तमान में का रहे हैं। इसी तरह भविष्यत् काल में मी जावेंगे ।
॥श्रीभगवानुवाच ॥ मूलः--संबुज्झहा जंतवो माणुसत्त,
द४ भयं वालिसेणं अलंभो । एगंतदुक्खे जरिए व लोए,
सकम्मुणा विपरियासुवेइ ।।१२।। छायाः-संबुध्यध्वम् जन्तब ! मानुषत्वं,
दृष्ट्वा भयं बालिशेनालंभः । एकान्त दु:खाज्ज्वरित इव लोकः,
स्वकर्मणा विपर्यासमुवैति ॥१२।। अन्वयार्ष:- (जंतवो) हे मनुजो ! तुम (माणुसत्त) मनुष्यता को (संयुशहा) अच्छी तरह जानो। (भयं) नरकादि मय को (दट्ठ) देख कर (वालिसेणं) मूर्खता के कारण विवेक को (अलंगो) जो प्राप्त नहीं करता वह (सकम्मगा) अपने किये हुए कर्मों के द्वारा (जरिए) ज्वर से पीड़ित मनुष्यों की भांति (एगत दुपखे) एकान्त दुख युक्त (लोए) लोक में (विपरियामुवेइ) पुन: पुनः जन्म-मरण को प्राप्त होता है।
भावार्थ:-हे मनुजो ! दुर्लभ मनुष्य भव को प्राप्त करके फिर मी जो सम्यक् शान आदि को प्राप्त नहीं करते हैं, और नरकादि के नाना प्रकार के दुख रूप मयों के होते हुए भी मूर्खता के कारण विवेक को प्राप्त नहीं करते है, वे अपने किये हुए कर्मों के द्वारा ज्वर से पीड़ित मनुष्यों की तरह एकान्त दुखकारी जो यह लोक है, इसमें पुनः-पुनः जन्म-मरण को प्राप्त करते हैं।
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मूल:- जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाइ मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥ १३ ॥
निर्ब्रम्प-प्रवचन
छाया:- यथा कूर्मः स्वाङ्गानि स्वदेहे समाहरेत् । एवं पापानि मेधात्मा साह
अभ्ययार्थ: हे आर्य ! (जहा) जैसे ( कुम्मे ) कछुवा ( अंगाई) अपने अंगोपांगों को (सए) अपने (देहे) शरीर में (समाहरे) सिकोड़ लेता है ( एवं ) इसी तरह (मेधादी) पण्डित जन (पावाई ) पापों को (अज्जप्पेण) अध्यात्म जान से (समाहरे) संहार कर लेते हैं ।
भावार्थ:- हे आर्य ! जैसे कलमा अपना महित होता हुआ देख कर अपने अंगों को अपने शरीर में सिकोड़ लेता है, इसी तरह पण्डित जन मी विषयों की ओर जाती हुई अपनी इन्द्रियों को आध्यात्मिक ज्ञान से संकुचित कर रखते हैं ।
मूलः -- साहरे हत्थपाए य, मंगं पंचेन्द्रियाणि य ।
पावकं च परीणामं भासा दोसं च तारिस || १४ ||
छाया:- संहरेत् हस्तपादी वा मनः पञ्चेन्द्रियाणि च । पापकं च परीणामं भाषादोषं च तादृशम् ||१४||
अपार्थः -- हे आर्य ! (तारिस) कछुवे की तरह ज्ञानी जन (हत्थपाए य ) हाथ और पात्रों की व्यर्थ चलन क्रिया को (मणं) मन की चपलता को (य) और (पंचेन्दियाणि) विषय की ओर घूमती हुई पांचों ही इन्द्रियों को (च) और (पाक) पाप के हेतु ( परीणामं ) आने वाले अभिप्राय को (च) और ( मासादो ) सावद्य भाषा बोलने को (साहरे) रोक रखते हैं ।
भावार्थ:-- हे आर्य ! जो ज्ञानी जन हैं, वे कछुए की तरह अपने हाथ पावों को संकुचित रखते हैं । अर्थात् उनके द्वारा पाप कर्म नहीं करते है । और पापों की ओर घूमते हुए इस मन के वेग को रोकते हैं ! विषयों की ओर इन्द्रियों को सकिने तक नहीं देते हैं। और बुरे भावों को हृदय में नहीं आने देते और जिस भाषा से दूसरों का बुरा होता हो, ऐसी भाषा भी कभी नहीं बोलते हैं ।
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जाद
वैराग्य-सम्बोधन मूलः-एयं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचणं ।
__ अहिंसा समयं चेव, एतावत वियाणिया ।।१।। छायाः—एतत् खलु ज्ञानिनः सारं, यन्न हिस्थति कञ्चनम् ।
___ अहिंसा समयं चैव, एतावती विज्ञानिता ॥१५।।
अन्वयार्थ:-हे आर्य ! (खु) निश्चय करके (गाणिणो) ज्ञानियों का (एक) यह (सार) तत्त्व है, कि (ब) ओ (कंचणं) किसी भी जीव की (न) नहीं (हिंसति) हिंसा करते (अहिंसा) अहिंसा (चेव) ही (समय) शास्त्रीय तत्त्व है (एतादत) बस, इतना ही (वियाणिया) विमान है । यह यथेष्ट ज्ञानीजन है।
भावार्थ:-हे मार्य ! ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात उन शानियों का सारमूत तत्व' यही* किसी जीत की दिशा नहीं करते। वे अहिंसा ही को शास्त्रीय प्रधान विषय समझते हैं । वास्तव में इतना जिसे सम्यक् भान है वहीं यथेष्ट ज्ञानीजन है। बहुत अधिक ज्ञान सम्पादन करके भी यदि हिंसा को न छोड़े, तो उनका विशेष ज्ञान मी अज्ञान रूप है। मूल:-संबुज्झमाणे उ गरे मतीमं,
पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा 1 हिंसप्पसूयाइ दुहाई मत्ता,
वेराण बंधीणि महब्भयाणि ॥१६।। छाया:-संबुद्धयमानस्तु नरो मतिमान्, पापादात्मानं निवर्तयेत् ।
हिंसाप्रसूतानि दुःखानि मत्वा, बैरानुबन्धीनि महाभयानि ॥१६॥ अन्वयार्थ:--हे आर्य ! (संबुज्झमाणे) तस्यों को जानने वाला (मतीम) बुद्धिमान् (गरे) मनुष्य (हिंसप्पसूयाई) हिंसा से उत्पन्न होने वाले (दुहाई) दुखों को (वेराणबंधीणि) कर्मबंधहेतु (महकमयाणि) महाभयकारी (मत्ता) मान कर (पावाउ) पापसे (अप्याण) अपनी आत्मा को (निबट्टएज्जा) निवृत्त करते
भाषार्षः-हे आर्य ! बुद्धिमान् मनुष्य वही है, जो सम्यक्सान को प्राप्त करता हुमा, हिंसा से उत्पन्न होने वाले सुखों को कर्म बंध का हेतु और महामयकारी मान कर, पापों से अपनी आत्मा को दूर रखता है।
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निग्रंन्य-प्रवचन
मूल:-आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे ।
जे धम्म सुद्धमक्खाति, पडिपुन्नमणेलिसं ॥१७॥ छाया:- आत्मगुप्तः सदा दान्तः छिन्न शोकोऽमाथवः ।
यो धर्म शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्णमनीदृशम् ।।१७।। अन्वयार्य:- हे इन्द्र मूति ! (जे) जो (आयगृत) आत्मा को गोपता हो, (सया) हमेशा (दंते) इन्द्रियों का दमन करता हो (छिन्नसोए) संसार के स्रोतों को मूदने वाला या इष्ट वियोग आदि के शोक से रहित और (अण्णासवे) नूतन कर्म बंधन रहित जो पुरुष हो, यह (पडिगुम्न) परिपूर्ण (अगलिस) अनन्य (सुद्ध) शुद्ध (धम्म) धर्म को (अवखाति) कहता है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! जो अपनी आत्मा का दमन करता है, इन्टिमों के विषयों के साथ जो विजय को प्राप्त करता है, संसार में परिभ्रमण करने के हेतुओं को नष्ट कर डालता है, और नवीन फों का बंध नहीं करता है, अथवा इण्ट वियोग और अनिष्ट संयोग आदि होने पर भी जो शोक नहीं करतासमभावी बना रहता है, वही ज्ञानी जन हितकारी धर्म मूलक तत्त्वों को कहता है। मूलः---न कम्मुणा कम्म खति बाला,
अकम्मुणा कम्म खर्वेति धीरा। मेधाविणो लोभमयावतीता,
__ संतोसिणो नो पकरेंति पावं ॥१८॥ छाया:-न कर्मणा कर्म क्षपयन्तिबाला:,
अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः। मेधाधिनो लोभमदध्यतीताः,
___सन्तोषिणो नोपकुर्वन्ति पापम् ॥१८॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रमूति ! (बाला) जो अज्ञानी जन है बे (कामुणा) हिसादि कामों से (कम्म) फर्म को (न) नहीं (खति) नष्ट करते हैं, किन्तु (धोरो) बुद्धिमान् मनुष्य (अकम्मुणा) अहिंसादिकों से (कम्म) कर्म (खति)
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वैराग्य-सम्बोधन
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नष्ट करते हैं, (मेधाविणो) बुद्धिमान् (लोमममा) लोम तथा मद से (वतीता) रहित (संसोसिणो) संतोषी होते हैं, वे (पावं) पाप (नो पकरेंति) नहीं करते हैं।
___ भावार्ष: हे गौतम ! हिंसादि के द्वारा पूर्व-संचित कर्मों को हिंसादि ही से जो अज्ञानी जीव नष्ट करना चाहते हैं, यह उनकी मूल है। प्रत्युत कर्मनाश के बदले उनके गाढ़ कर्मों का बंध होता है। क्योंकि खून में भीगा हुआ कपड़ा खून ही के द्वारा कभी साफ नहीं होता है, बुद्धिमान् नो वही हैं, जो हिंसादि के द्वारा बंधे हुए कर्मों को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, आकिंचम्य आदि के द्वारा नष्ट करते हैं । और वे लोभ और मद से रहित हो कर संतोषी हो जाते हैं । वे फिर मविष्यत् में नबीन पाप कर्म नहीं करते हैं। यहां "लोम' पाब्द राग का सूचक और 'मद' द्वेष का सूचक है । अतएव लोम-मया शब्द का अर्थ राग-द्वेष समझना चाहिए।
मूल-डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे,
ते आत्तो पासइ सव्वलोए । उन्बेहती लोगमिणं महतं,
बुद्धेऽपमत्ते सु परिव्वएज्जा ॥१६॥
छायाः-डिभश्च प्राणो वृद्धश्च प्राणः,
स आत्मवत् पश्यति सर्वलोकान् । उत्प्रेक्षते लोकमिमं महान्तम्,
बुद्धोऽप्रमत्तेषु परिव्रजेत् ॥१९॥ अन्वपापं:-हे इन्द्रभूति ! (डहरे) छोटे (पाणे) प्राणी (य) और (बुड्ढे) बड़े (पाणे) प्राणी (ते) उन सभी को (सम्वलोए) सर्व लोक में (आत्तओ) आत्मवत् (पासइ) जो देखता है (इणं) इस (लोग) लोक को (मईत) बड़ा (उबेहती) देखता है (बुद्ध) वह तत्त्वज्ञ (अपपत्तेसु) बालस्य रहित संयम में (परिवएजा) गमन करता है।
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निर्णय-प्रवचन
भावार्ष:-है गोतम ! चोटियां, मकोड़े, कुपूर्व, आदि छाटे-छोट प्राणी और गाय, भैंस, हाथी, बकरा आदि बड़े-बड़े प्राणी आदि सभी को अपने बात्मा के समान जो समझता है और महान लोक को चराचर जीव के जन्म-मरण से अशाश्वत देख कर जो बुद्धिमान् मनुष्य संयम में रत रहता है वही मोक्ष में पहुंचने का अधिकारी है।
॥इति चतुर्दशोऽध्यायः ॥
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ॐ
निर्ग्रन्थ-प्रवचन
( अध्याय पन्द्रहवां)
मनोनिग्रह
॥ श्रीभगवानुवाच ॥ मूल:- एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामहं ॥ १ ॥
छाया:- एकस्मिन् जिते जिताः पञ्च, पंचसु जितेषु जिता दश । दशघा तु जित्वा, सर्वशत्रून् जयाम्यहम् ||१||
अन्वयार्थ: है मुनि ! (एगे ) एक मन को (जिए) जीतने पर (पंख) पाँचों इन्द्रियाँ (जिया) जीत ली जाती हैं और (पंच) पाँच इन्द्रियाँ (जिए) जीतने पर (दस) एव मन पाँच इन्द्रियां और चार कषाय, यों दसों जिया) जीत लिये जाते हैं । ( दसहा उ ) दशों को (जिविता) जीत कर (पं) वाक्यालंकार (सव्यंसत्तू) सभी शत्रुओं को (मह) मैं ( जिणा ) जीत लेता हूँ ।
भावार्थ:- हे मुनि ! एक मन को जीत लेने पर पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करली जाती है। ओर पाँचों इन्दियों को जीत लेने पर एक मन पाँच इन्द्रिय और क्रोध, मान, माया, लोभ मे दशों ही जीत लिये जाते हैं । मोर इन देशों को जीत लेने से सभी शत्रुओं को जीता जा सकता है । इसीलिए सब मुनि और गृहस्थों के लिए एक बार मन को जीत लेना श्रेयस्कर है।
मूलः - मणो साहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधावई ।
I
तं सम्मं तु निगिहामि, धम्मसिक्खाइ कंथगं ॥२॥
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निम्थ-प्रवचन
छाया:-- मनः साहमिको भीम: दुष्टाश्वः परिधावति ।
तं सम्यक् तु निगृह्णामि, धर्मशिक्षायै कन्धकम् ।।२।। अन्वयार्थ:-हे मुनि (मणी) मन बड़ा (गाहसिओ) साहसिक और (भीमो) भयंकर (दुगुस्स) दुष्ट घोड़े की तरह इधर-उधर (परिधावई) दौड़ता है (तं) उसको (धमसिक्खाइ) धर्म रूप शिक्षा से (कंथग) जातिवंत अन्य की तरह (सम्म) सम्यक् प्रकार से निगिण्हामि) ग्रहण करता हूँ। __भावार्थ:-हे मुनि ! यह मन अनयों के करने में बड़ा साहसिक और भयंकर है । जिस प्रकार दुष्ट घोड़ा इधर-उधर दौड़ता है, उसी तरह पह मन मी जान रूप लगाम के बिना इधर-उधर चक्कार मारता फिरता है। ऐसे इरा मन को धर्म रूप शिक्षा से जातिवंत घोडे की तरह मैने निग्रह कर रक्खा है । इसी तरह सब मुनियों को चाहिए, कि वे ज्ञानरूप लगाम से इस मन को निग्रह करते रहें। मल:--सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य ।
चउत्थी असच्चमोसा य, मणगुत्ती चाउन्विहा ।।३।। छायाः- सत्या तथैव मृषा च, सत्यामृपा तथैव च ।
चतुर्थ्य सत्यामृषा तु, मनोगुप्तिश्चतुर्विधा ॥३॥ अन्ययाः-हे इन्द्रभूति ! (मणगुत्ती) मन गुप्ति (चविहा) चार प्रकार की है । (सपा) सत्म (तहेव) तथा (मोसा) मृषा (य) और (सच्चामोसा) सत्यमृषा (य) और (तहेव) वैसे ही (चउत्थी) चौथी (असच्चमोमा) ! असत्यमृषा है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! मन धारों ओर घूमता रहता है । (१) सत्य विषय में; (२) असत्य विषय में; (३) कुछ सत्य और कुछ असत्य विषय में; (४) सत्य भी नहीं, असत्य भी नहीं ऐसे असत्यमृषा विषय में प्रवृत्ति करता है । जब मह मन असस्य, कुछ सत्य और कुछ असत्य, इन दो विभागों में प्रवृत्ति करता है तो महान् अनर्थों को उपार्जन करता है। उन अनर्थों के भार से आत्मा अधोगति में जाती है। अतएव असत्य और मिथ की ओर घूमते हुए इस मन को निग्रह करके रखना पाहिए ।
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मनो-निग्रह
मूलः--संरंभसमारने, रंगम्भिर राव य :
मणं पवत्तमाणं तु, निअत्तिज्ज जयं जई ।।४।। छाया:---संरंभे समारंभे आरम्भे च तथैव च ।।
मन: प्रवर्त्तमानं तु, निवर्तयेद्यतं यति: ।।४॥ सम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जयं) यत्नवान् (जई) यति (सरंभसमारंभे) किसी को मारने के सम्बन्ध में और पीड़ा देने के सम्बन्ध में (य) और (तहेव) वैसे ही (आरम्भम्मि) हिंसक परिणाम के विषय में (पवत्तमाणं तु) प्रवृत्त होते हुए (मणं) मन को (नितिज्ज') निवृत्त करना चाहिए।
भावार्थ:-हे गौतम ! यत्नवान् साधु हो, या गृहस्थ हो, चाहे जो हो, किन्तु मन के द्वारा कभी भी ऐसा बिचार तक न करे, कि अमुक को मार डालू या उसे किसी तरह पीड़ित कर दं। तथा उसका सर्वस्व नष्ट कर हालं । क्योंकि मन के द्वारा ऐसा विचार मात्र कर लेने से वह आत्मा महापातकी बन जाता है। अतएव हिंसक अशुभ परिणामों की ओर जाते हुए इस मन को पीछा घुमाओ, और निग्रह करके रक्खो 1 इसी तरह कर्म बन्धने की ओर घूमते हुए, बचन और काया को भी निग्रह करके रक्खो। मूल:----वत्थगंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य ।
अच्छंदा जे न भुजंति, न से चाइ ति वुच्चइ ॥५॥ छायाः-वस्त्रगन्धमलङ्कार, स्त्रिय: शयनानि च ।
अच्छन्दा ये न भुञ्जन्ति, न ते त्यागिन इत्युच्यते ॥५॥ अन्वयार्थः हे इन्द्रभूति ! (वत्यगंधमलंकार) वस्त्र, सुगंध, भूषण (इत्पीओ) स्त्रियों (य) और (सयणाणि) शव्या वगैरह को (अच्छदा) पराधीन होने से (जे) जो (न) नहीं (मुंजति) मोगते हैं (से) वे (चाह) त्यागी (न) नहीं (ति) ऐसा (बुच्चइ) कहा है।
(१) नियतिज्ज ऐसा मी कहीं-कहीं आता है, ये दोनों शुद्ध है। क्योंकि क. ग, च, द. आदि वर्णों का लोप करने से "अ" अवशेष रह जाता है । उस जगह 'अव णों य अतिः " इस सूत्र से "अ" की जगह "य" का आदेश होता है ऐसा अन्यत्र मी समा लें।
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नियंभ्य-प्रवचन
भावार्थ:-हे आयं ! सम्पूर्ण परित्याग अवस्था में, या गृहस्प की सामायिक अथवा पोषध अवस्था में, अथवा त्याग होने पर कई प्रकार के बढ़िया वस्त्र, सुगंध, इत्र, आदि भूषण वगैरह एवं स्त्रियों और शय्या आदि के सेवन करने की जो मन द्वारा केवल इच्छा मात्र ही करता है, परन्तु उन वस्तुओं को पराधीन होने से भोग नहीं सकता है, उसे त्यागी नहीं कहते हैं, क्योंकि उसकी इच्छ्या नहीं मिटी, वह मानसिक त्यागी नहीं बना हैं :
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मूलः-जे य कंते पिए भोए, लढे वि पिट्टिकुव्वइ ।
साहीणे चयई भोऐ, से हु चाइ त्ति वुच्चइ ।।६।। छाया:—यश्च कान्तान प्रियान् भोगान्, लब्धानपि वि पृष्ठीकुरुते ।
स्वाधीनान् त्यजति भोगान्, स हि त्यागीत्युच्यते ॥६॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (कते) सुन्दर (पिए) मन मोहना (लद्धे) पाये हुए (मोग) भोगों को (वि) मी (जे) जो (पिदिकुम्वइ) पीठ दे देवें, यही । नहीं, जो (मोए) भोग (साहोणे) स्वाधीन हैं उन्हें (धयई) छोड़ देता है । (ह) : निश्चय (से) वह (चाइ) त्यागी है त्ति) ऐशा (वुच्चाइ) कहते हैं।
भावार्थ:-हे गौतम | जो गृहस्थाश्रम में रह रहा है, उसको सुन्दर और प्रिय मोग प्राप्त होने पर भी उन भोगों से उवासीन रहता है, अर्थात अलिप्त रहता हुआ उन मोगों को पीठ दे देता है, यही नहीं, स्वाधीन होते हुए भी उन भोगों का परित्याग करता है। वही निश्चय रूप से सच्चा त्यागी है ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं। मूलः- समाए पेहाए परिश्वयंतो,
सिया मणो निस्सरई बहिद्धा । "न सा महं नो वि अहं पि तीसे,"
इच्चेव ताओ विण एज्ज रागं ।।७।। छायाः-समया प्रेक्षया परिव्रजतः, स्यान्मनो निःसरति अहिः ।
म सा मम नोऽप्यहं तस्याः , इत्येव तस्या विनयेत रागम् ।।७।।
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मनो-निग्रह
अग्खयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (समाए) समभाव से (पेहाए) देखता हुआ जो (परिवनयंतो) समाचार सेवन में रमण करता है। उस समय (सिया) कदा. चित् (मणो) मन उसका (बहिवा) संयम जीवन से बाहर निस्सरई) निकल जाय तो विचार करे, कि (सा) वह (मह) मेरी (न) नहीं है । और (अहं पि) में भी (वीस) उस पि) नहीं है। इस प्रकार विचार कर (ताओ) उस से (राग) स्नेह भाव को (विणएज्ज) दूर करना चाहिए ।
भावाप:-हे आर्य ! समी जीवों पर समष्टि रख कर आत्मिक ज्ञानादि गुणों में रमण करते हुए मी प्रमादबण यह मन कभी-कमी संयमी जीवन से बाहर निकल जाता है क्योंकि हे गौतम ! यह मन बड़ा चंचल है, वायु की मति से भी अधिक तीव्र गतिमान् है, अतः जब संसार के मन मोहक पदार्थों की ओर यह मन चला जाय, उस समय यों विचार करना चाहिए, कि मन की यह घृष्टता है, जो सांसारिक प्रपंच की ओर घूमता है। स्वी, पुत्र, धन वगैरह सम्पत्ति मेरी नहीं है और मैं भी उनका नहीं हूं। ऐसा विचार कर उस सम्पत्ति से स्नेह माव को दूर करना चाहिए । जो इस प्रकार मन को निग्रह करता है, वही उत्तम मनुष्य है । मूल:-पाणिवहमुसावायाअदत्तमेहुणपरिम्गहा विरओ।
राईभोयणविरओ, जोवो होइ अणासवो ॥८॥ छाया:-प्राणिवधमृषावाद-अदत्तमैथुनपरिग्रहेभ्यो विरत:।
रात्रिभोजनविरतः, जीवो भवति अनाथवः ।।८।। अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जीवो) जो जीव (पाणिवहमुसायाया) प्राणवध, मृषावाद (अदत्तमेहुणपरिग्गाहा) चोरी, मथुन और ममत्व से (बिरओ) विरक्त रहता है । और (राइभोयण विरो) रात्रि भोजन से भी विरक्त रहता है, वह (अणासवो) अनादी (होइ) होता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! आत्मा ने चाहे जिस जाति व कुल में जन्म लिया हो, अगर वह हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, ममत्व और रात्रि भोजन से पृथक रहती हो तो वही आत्मा अनाधव' होती है। अर्थात् उसके भावी नवीन १ Free from the influx of karma.
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निग्रंन्य-प्रवचन पाप रुक जाते हैं । और जो पूर्व भवों के संचित कर्म हैं, वे यहाँ मोग करके नष्ट कर दिये जाते हैं। मलः-जहा महातलागस्स, संनिरुद्ध जलागमे ।
उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥६॥ छाया:-यथा महातडागस्य, सन्निरुद्ध जलागमे ।
उन्सिचनेन तपनेन, क्रमेण शोषणा भवेत् ॥६॥ अन्वयार्ष:-- हे इन्द्र भूति ! (जहा) जैसे (महातलगरस) बड़े भारी एक तालाब के (जलागमे जल के आने के मार्ग को (सन्निरुद्ध) रोक देने पर, फिर उसमें का रहा हुआ पानी (स्सिचणाए) उलीचने से तथा (तवणाए) सूर्य के आतप से (कमेणं) क्रमशः (सोसणा) उसका शोषण (मवे) होता है।
भावार्थ:-हे आर्य ! जिस प्रकार एक बड़े मारी तालाब का जल आने के मार्ग को रोक देने पर नवीन जल उस तालाब में नहीं आ सकता है । फिर उस तालाब में रहे हए जल को किसी प्रकार उलीच कर बाहर निकाल देने से अथवा सूर्य के आतप से क्रमश: वह सरोवर सूख जाता है । अर्थात् फिर उस तालाब में पानी नहीं रह सकता है । मूल:-एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे ।
भवकोडिसंचियं कम्म, तवसा निजरिज्जइ ।।१०।। छाया:-एवं तु संयतस्यापि, पापकर्मनिराश्नवे ।
भवकोटिसञ्चितं कर्म, तपसा निर्जीयते ॥१०॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (एवं) इस प्रकार (पावकम्मनिरासवे) जिसके नवीन' पाप कर्मों का आना रुक गया है। ऐसे (संजयस्सावि) संयमी जीवन बिताने वाले के (मवकोडिसंचियं) करोड़ों भवों के पूर्वोपार्जित (कम्म) कर्म (तपसा) तप द्वारा (निजरिमार) क्षय हो जाते हैं ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे तालाब में नवीन आते हुए पानी को रोक कर पहले के पानी को उलीचने से तथा आतप से उसका शोषण हो जाता है । इसी तरह संयमी जीवन बिताने वाला यह जीव मी हिंसा, मूठ, बोरी, व्यभिचार,
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मनो-निग्रह
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और ममत्व द्वारा आते हुए पाप को रोक कर, जो करोड़ों भवों में पहले संचित किये हुए कर्म हैं उनको तपस्या द्वारा क्षय कर लेता है। तात्पर्य यह है कि बागामी फर्मों का संवर और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा हो कर्म क्षय-मोक्ष-का कारण है। मूलः--सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरभितरो तहा ।
बाहिरो छविहो वुत्तो, एवमभितरो तबो ॥११|| छायाः-तत्तयो द्विविधमुक्त, बाह्यमाभ्यन्तरं तथा।
बाह्य षड्विधमुक्त, एबमाभ्यन्तरं तपः ॥११॥ ___ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (सो) वह (तो) तप (दुविहो) दो प्रकार का (बुसो) कहा गया है । (बाहिरमित तहा) वा तया अभ्यस्तर माहिरी) बाप तप (छविहो) छ: प्रकार का (बुसो) कहा है। (एवं) इसी प्रकार (अमितरो) आभ्यन्तर (तवो) तप भी है।
भावार्थ--हे आर्य ! जिस सम से, पूर्व संचित कर्म नष्ट किए जाते हैं, वह तप दो प्रकार का है । एक बाल और दूसरा माम्यस्तर । बाह्म के छः प्रकार है । इसी तरह आभ्यन्तर के मी छ: प्रकार हैं। मूल:-.अणसणसूणोयरिया,
भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसी सलीयणा,
य बज्झो तवो होई ॥२२॥ छाया:-अनशनमूनोदरिका, भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः ।
कायक्लेशः संलीनता च, बाह्य तपो भवति ॥१२॥ अन्वपार्ष:-हे हदभूति ! बाप तप के छ: भेद यों हैं—(अणसणमूणोयरिया) अनशन, जनोपरिका (य) और (भिक्खापरिया) भिक्षाचर्या (रसपरिम्चाओ) रसपरित्याग (कायकिलसो) काप क्लेश (य) और (संलीगया)
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निथ-प्रवचन
इन्द्रियों को वश में करना । मह छ: प्रकार का (बझो) बाह्य (तयो) तप (होइ) है। ___भावार्थ:-हे गौतम ! एक दिन, दो दिन यों छः छ: महीने तक भोजन का परित्याग करना, या सर्वथा प्रकार से मोजन का परित्याग करके संधारा कर ले उसे अनशन तप कहते हैं। भूख सहन कर फुष्ट कम खाना, उसको ऊनोदरी तप कहते हैं । अनैमित्तिक मोजी होकर नियमानुकूल माग करके भोजन खाना वह भिक्षाचर्या नाम का तप है, घी, दूध, दही, तेल और मिष्टान आदि का परित्याग करना, यह रस परित्याग तप है । शीत व ताप आदि फो सहन करना काय क्लेश नाम का तप है। और पांचों इन्द्रियों को वश में करना एवं क्रोध, मान, माया, लोभ पर विजय प्राप्त करना, मन-वचन-काया के असम योगों को रोकना यह छठा संलीनता तप है। इस तरह बाह्य तप के द्वारा आत्मा अपने पूर्व संचित कर्मों का क्षय कर सकती है। मुल:-पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ ।
झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो ।।१३।। छाया:--प्रायश्चित्तं विनय:, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः ।
ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तप: ।।१३।। भग्वार्थ:-हे इन्द्रभूति ! आभ्यन्तर तप के छः भेद यों हैं। (पायच्छित्त) प्रायश्चित्त (विणओ) विनय (वेयावच्च) वयावृत्य (तहेब) बसे हो (सज्झाओ) स्वाध्याय (शाणो) ध्यान (च) और (विउत्सम्गो) व्युत्सर्ग (एसो) यह (अन्मितरो) आम्यन्तर (तवो) तप है। ___ भावार्थ:--हे आर्य ! यदि भूल से कोई गलती हो गयी हो तो उसकी आलोचक के पास आलोचना करके शिक्षा ग्रहण करना, इसको प्रायश्चित्त तप कहते हैं। विनम्र मावों मय अपना रहन-सहन बना लेना, यह विनय तप कहलाता है । सेवाधर्म के महत्व को समझकर सेवाधर्म का सेवन करना
यावत्य नामक तप है, इसी तरह शास्त्रों का मननपूर्वक पटन-पाठन करना स्वाध्याय तप है । शास्त्रों में बताये हुए तत्त्वों का बारीक दृष्टि से मननपूर्वक
Giving up food and water for some time or permanently.
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मनो-निग्रह
१८७ चिन्तवन करना ध्यान तप कहलाता है, और शरीर से सर्वथा ममत्व को परित्याग कर देना यह छठा व्युत्सगं तप है। यों ये छ: प्रकार के आभ्यन्तर तप हैं। इन बारह प्रकार के तप में से, जितने भी बन सके, उसने प्रकार के तप करके पूर्व संचित करोड़ों जन्मों के कर्मों को यह जीव सहज ही में नष्ट कर सकता है। मूल:--रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिब्द,
अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे,
आलोअलोले समुवेइ मच्चु ॥१४॥ छाया:-रूपेषु यो गृद्धिमुपैति तोनां,
___ अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् रागातरः स यथा वा पतङ्गः,
__ आलोकलोलः समुपैति मृत्युम् ॥१४।। अन्वयार्ष:-हे मन्द्रभूति ! (जो) जो प्राणी (रूवेसु) रूप देखने में (गिति) गुद्धि को (उवेइ) प्राप्त होता है (से) वह (अकालियं) असमय (तिम्व) शीघ्र ही (विणास) विनाश को (पावइ) पाता है (जह वा) जैसे (आलोअलोले) देखने में लोलुप (से) वह (पर्य गे) पतंग (रागाउरे) रागातुर (मच्चु ) मृत्यु को (समुवेइ) प्राप्त होता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे देखने का लोलुपी पतंग जलते हुए दीपक की लो पर गिर कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देता है। वैसे ही जो आरमा इन चक्षओं के बशर्ती हो विषय सेवन में अत्यन्त सोलप हो जाती है, वह शीघ्र ही असमय में अपने प्राणों से हाथ धो बैठती है। मूल:--सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्यं,
अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे हरिणमिए व्व मुद्ध,
सद्दे अतित समुवेइ मच्चु ॥१५॥
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छाया: शब्धेषु को वृद्धिमुपैति सीक अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् ।
मृत्युम् ||१५||
रागातुरो हरिणमृग इव मुग्ध:, शब्देस्तृप्तः समुपैति अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति (ब्ब) जैसे ( रागा उरे) रामातुर ( मुद्धे ) मुग्ध (स) शब्द के विषय से (अतित्ते ) आतुप्त (हरिणमिए) हरिण ( मच्चं ) मृत्यु को (समुवेध ) प्राप्त होता है, वैसे ही (जो) जो आत्मा ( सई सु) शब्द विषयक (गिaि) गृद्धि को ( मुवेइ) प्राप्त होती है (मे) वह (अकालिअं ) असमय में ( तिब्वं ) शीघ्र ही (विणासं) विनाश को (पाव) पाती है। भावार्थ:- हे आर्य ! राग भाव में श्रोत्र के विषय में अतृप्त ऐसा जो वर्ती होकर अपना प्राण खो बैठता है । विषय में लोलूप होती है, वह शीघ्र जाती है।
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लवलीन हित-अहित का अनभिज्ञ, हिरण है वह केवल श्रोत्रेन्द्रिय के वश उसी तरह जो आत्मा श्रोत्रेन्द्रिय के ही असमय में मृत्यू को प्राप्त हो
मूल:--- गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं,
अकालिअं पावइ से विषास । रागाउरे ओस हिगंधगिद्ध,
सप्पे बिलाओ विव निक्खते ॥ १६ ॥
छाया: - गन्धेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां
नियंग्य-प्रवचन
अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् ।
रागातुर औषघमंघगृद्धः, सप
बिलानिव नि:क्रामन् ॥१६॥
अग्वपार्थ :- हे इन्द्रभूति | (ओस हिंगंध गिद्ध ) नाग दमनी औषध की गंध में मग्न (रागाजरे ) रागातुर (सप्पे ) सर्प (विलाओ ) बिल से बाहर (नक्खमंते ) निकलने पर नष्ट हो जाता है (दिव) ऐसे ही (जो ) जो जीव (गंधेसु) गंध में (गिद्धि) गृपने को ( उबेद ) प्राप्त होता है (से) वह (अकालि) असमय ही में ( तिब्वं ) शीघ्र (विणासं) विनाश को ( पावइ) प्राप्त होता है ।
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मनो-निग्रह
१८६
भावार्थ:---हे गौतम ! जैसे मागदमनी गंध का लोलुप ऐसा जो रागातुर सर्प है, वह अपने बिल से बाहर निकलने पर मृत्यु को प्राप्त होता है। वैसे ही जो जीव गंध विषयक पदार्थों में लीन हो जाता है, यह शीघ्न ही असमय में अपनी आयु का अन्त कर बैठता है। मूल:--रसेस जो गिद्धिमुवेइ तिब्वं,
अकालिअं पाबइ से विणासं । रागाउरे बडिसविभिन्नकाए,
मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ।।१७।। छाया:--रसेषु यो गृद्धिमुपैति तीयां,
अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुरो चडिशविभिनाकाः,
मत्स्यो यथाऽमिषभोगगृतः ॥१७॥ अम्बयाप:--हे इन्धभूति ! (जहा) जैसे (आमिस-भोगगिद्धे) मांस भक्षण के स्वाद में लोलुप ऐसा (रागाउरे) रागातुर (मच्छे) मच्छ (बडिसविभिन्नकाए) मांस या घाटा लगा हुआ ऐसा जो तीक्ष्ण कोटा उससे विधकर नष्ट हो जाता है । ऐसे हो (जो) जो जीव (रसेसु) रस में (गिछि) गुद्धिपन को (ज्वेद) प्राप्त होता है, (से) वह (अकालिअं) असमय में ही (तिरुवं) शीघ्र (विणास) विनाश को (पावइ) प्राप्त होता है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिस प्रकार मांस मक्षण के स्वाद में लोलुप जो रागातुर मच्छ है वह मरणावस्था को प्राप्त होता है। ऐसे ही जो आत्मा इस रसेन्द्रिय के वशवर्ती होकर अत्यन्त गुद्धिपन को प्राप्त होती है वह असमय ही में द्रव्य और माव' प्राणों से रहित हो जाता है । मूल:--फासस्स जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं,
अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे सीयजलावसन्न,
गाहग्गहीए महिसे व रणे ॥१८||
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निर्गम्य-प्रवचन छाया:-स्पर्शषु यो गृद्धिमुपैति तीवां,
___ अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुरः शीतजलावसनः
ग्राहा गृहीतो महिष इवारण्ये ॥१८॥ मन्वयार्थ:-- हे इन्द्रभूति ! (4) जैसे (रणे) अरण्य में (सीयबलावसाने) शीतजल में बैठे रहने का प्रलोभी ऐसा जो (रागाउरे) रागातुर (महिसे) भैसा (गाहग्गहीण) मगर के द्वारा पकड़ लेने पर मारा जाता है, से ही (गो) मनुष्य (फासस्स) त्वचा विषयक विषय के (गिद्धि) गृद्धि पन को (उवेइ) प्राप्त होता है (से) वह (अकालिअं) असमय ही में (तिव्य) शीघ्र (विणास) विनाश को (पावइ) पाता है।
भावार्थ:- जैसे बड़ी भारी नदी में स्वधेष्ट्रिय के वशवर्ती हो कर और शीतल जल' में बैठकर आनन्द मानने वाला वह रागातुर मैसा मगर से अब घेरा जाता है, तो सदा के लिए अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। ऐसे ही जो मनुष्य अपनी स्वयेन्द्रिय जन्य विषय में लोलुप होता है, वह शीघ्र ही असमय में नाश को प्राप्त हो जाता है ।
हे गौतम ! जब इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय के वशवर्ती होकर भी ये प्राणी अपना प्राणान्त कर बैठते हैं, तो भला उनकी क्या गति होगी जो पांचों इन्द्रियों को पाकर उनके विषय में लोलुप हो रहे हैं ! मतः पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही मनुष्य मात्र का परम कर्त्तव्य और श्रेष्ठ धर्म है।
॥ इति पंचदशोऽध्याय: ।।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
( अध्याय सोलहवाँ )
आवश्यक कृत्य
॥ श्री भगवानुवाच ॥
मूलः -- समरेसु अगारेसु, संधीसु य महापहे । एगो एगिथिए सद्धि व चिट्ठ ण संलवे ॥ १ ॥
+
छाया: – समरेषु अगारेषु सन्धिषु च महापथे । एक एक स्त्रिया सार्धं नैव तिष्ठेन्न संलपेत् ॥ १ ॥
अग्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (समरेमु) लुहार की शाला में ( अगारेमु ) परों में ( संधीसु) दो मकानों की बीच की संधि में (थ) और ( महामहे ) मोटे पंच में ( एगो) असा (एगिथिए) अकेली स्त्री के (सद्धि) साथ (शेव) न तो (चिट्टे) खड़ा ही रहे और (ण) न ( संलवे) वार्तालाप करे ।
भावार्थ:-- हे गौतम! लुहार को शून्य शाला में, या पड़े हुए खण्डहरों में, तथा दो मकानों के बीच में और जहाँ अनेकों मागं आकर मिलते हों वहाँ अकेला पुरुष अकेली औरत के साथ न कभी खड़ा ही रहे और न कभी कोई उससे वार्तालाप ही करे। वे सब स्थान उपलक्षण मात्र है तात्पर्य यह है कि कहीं भी पुरुष अकेली स्त्री से वार्तालाप न करे ।
मूल:-- साणं सूइअं गावि, दित्तं गोणं हयं गयं । संडिब्भं कलहं जुद्धं, दूरओ परिवज्जए ||२||
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन छाया:-श्वान सूतिका गां, दृप्तं गोणं हयं गजम् ।
सडिम्भं कलहं युद्धं, दूरतः परिवर्जयेत् ।।२।। मन्वया:-- हे इन्द्रभूति ! (माणं) पान (सूइन) प्रसूता (गावि) गो (दित्तं) मतवाला (गोणं) बल (हयं) घोड़ा (गय) हाथी, इनको और (संहिन्म) बालकों के कीड़ास्थल (कलह) वाक्युद्ध की जगह (जुद्धं) शास्त्रमुख की जगह आदि को (दुरमो) दूर ही से (परिवजए) छोड़ देना चाहिए ।
भावार्थ:-हे मार्य ! जहाँ श्वान, प्रसूता गाय, मतवाला बैल, हाथी, घोड़े खड़े हो या परस्पर लड़ रहे हों वहाँ ज्ञानी जन को नहीं जाना चाहिए । इसी तरह जहाँ बालक खेल रहे हों या मनुष्यों में परस्पर वाकयुद्ध हो रहा हो, अमवा शस्त्र-युद्ध हो रहा हो, ऐसी जगह पर जाना बुद्धिमानों के लिए दूर से ही स्याज्य है। मल:--:मया अग्वेलर होइ, संचले आषि एगया ।
एअंधम्महियं णच्चा, णाणी णो परिदेवए ॥३।। छायाः-एकदाऽचेलको भवति, सबेलको वाप्येकदा ।
एतं धर्म हित ज्ञाल्ला, ज्ञानी नो परिदेवेत ।।३।। अन्वयार्थ:- हे इन्द्रभूति ! (एगया) कमी (अचेलए) वस्त्र रहित (होइ) हो (एगया) कभी (सचेलेमावि) बस्त्र सहित हो, उस समय समभाव रखना (ए) यह (धम्महियं) धर्म हितकारी (णच्चा) जान कर (पाणी) ज्ञानी (ण) नहीं (परिदेवए) खेदित होता है ।
भावार्थ:-- हे गौतम ! कभी ओढ़ने को वस्त्र हो या न हो, उस अवस्था में सममाव से रहना, बस इसी धर्म को हितकारी जान कर योग्य वस्त्रों के होने पर अथवा वात्रों के होने पर अथवा वस्त्रों के विसकुल अभाव में या फटे टूटे वस्त्रों के सभाव में ज्ञानी जन कमी स्वेद नहीं पाते । मुल:--अक्कोसेज्जा परे भिक्खू,
न तेसिं पडिसंजले । सरिसो होइ बालाणं,
तम्हा भिक्खू न संजले ।।४।।
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आवश्यक हत्य
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छायाः-आक्रोशेत् परः भिक्षु, न तस्मै प्रतिसंज्वलेत् ।
सदृशो भवति बालानां, तस्माद् भिक्षुर्न संज्वलेत् ।।४।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (परे) कोई दूसरस (मिक्खं) भिक्षु का (अक्कोसेज्जा) तिरस्कार करे (तसि ) उस पर वह (न) न (पडिसंजने) क्रोध करे, क्योंकि क्रोध करने से (बालाणं) मूर्ख के (सरिसो) सदृश (होइ) होता है (तम्हा) इसलिए (मिक्स) भिक्षु (न) न (संजले) क्रोध करे। ____भावार्थ:-हे आर्य ! भिनु या साधु या ज्ञानी वहीं है, जो दूसरों के द्वारा तिरस्कृत होने पर भी उन पर बदले में क्रोध नहीं करता। क्योंकि क्रोध करने से शानी जन भी मूर्ख के सहश कलाता है। इसलिए बुद्धिमान श्रेष्ठ मनुष्य को पाहिए कि वह क्रोध न करे । मूल:--समणं संजय दंतं,
हणेज्जा को वि कत्थइ । नस्थि जीवस्स नासो त्ति,
एवं पेहिज्ज संजए ।।५।। छाया:-श्रमणं संयतं दान्तं, हन्यात् कोऽपि कुत्रचित् ।
नास्ति जीवस्य नाश इति, एवं प्रेक्षेत संयतः ।।५।। अग्षयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (को वि) कोई मी मनुष्य (कत्याइ) कहीं पर (संजय) जीवों की रक्षा करने वाले (दंत) इन्द्रियों को दमन करने वाले (समर्ण) तपस्वियों को (हणेज्जा) ताड़ना करे, उस समय (जीवस्स) जीव का (नासो) नाम (नत्यि) नहीं है (एवं) इस प्रकार (संजए) वह तपस्वी (पेहिज्ज) विचार करे।
भाषा:--हे गौतम ! सम्पूर्ण जीवों को रक्षा करने वाले तथा इन्द्रिय और मन को जीतने वाले, ऐसे तपस्वी मानी अनों को कोई मूर्ख मनुष्य कहीं पर ताडना आदि करे तो उस समय वे ज्ञानी यों विचार करें कि जीव का तो नाश होता ही नहीं है। फिर किसी के ताड़ने पर व्यर्थ ही कोच क्यों करमा चाहिए।
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निसंम्प-प्रवचन
मूल:--बालाणं अकामं तु, मरणं असई भवे ।
पंडिआणं सकामं तु, उक्कोसेणं सई भवे ।।६।। छायाः-बालानामकामं तु, मरणमराकृद् भवेत् ।
पण्डितानां सकामं तु, उत्कर्षेण सकृद् भवेत् ।।६।। अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (बालाणं) अज्ञानियों का (अकाम) निष्काम (मरण) मरण (सु) तो (असई) बार बार (म) होता है। (तु) और (पंडिआणं) पण्डितों का (सकाम) इच्छा सहित (मरणं) मरण (उस्कोसेणं) उत्कृष्ट (सई) एक बार (मवे) होता है ।।
भावार्थ:-हे गौतम ! दुष्कर्म करने वाले अज्ञानियों को तो बार-बार जन्मना और मरना पड़ता है। और जो ज्ञानी हैं वे अपना जीवन ज्ञान पूर्वक सदाचार मय बना कर मरते हैं वे एक ही बार में मुक्ति पाम को पहुंच जाने हैं। या सात-पाठ भव से तो ज्यादा जन्म-मरण करते ही नहीं है।
मूल:--सत्थम्गहणं विसभरखणं च, जलणं च जलपवेसोय ।
अणायारभंडसेबी, जम्मणमरणाणि बंधति ।।७।। पाया:--शस्त्रग्रहणं विषभक्षणं च, ज्वलनं च जलप्रवेशश्च ।
अनाचारभाण्डसेवी च, जन्ममरणानि बध्यते ॥७॥ अन्वयार्थ:-हे इण्टमूति ! जो आत्मघात के लिए (सत्यागहणं) शस्त्र ग्रहण करे (च) और (विसमक्खण) विष भक्षण करे (च) और (जलणं) अग्नि में प्रवेश करे, (जलपवेसो) जल में प्रवेश करे (य) और (अणाचारमंडरोयी) नहीं सेवन करने योग्य सामग्री की इच्छा करे । ऐसा करने से (जम्ममरणागि) अनेक जन्म-मरण हो ऐसा कर्म (बंधति) बांधता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! जो आत्म-हत्या करने के लिए, तलवार, बरछी, फटारी, आदि शास्त्र का प्रयोग करे । या अफीम, संखिया, मोरा, बछनाग, हिरकणी आदि का उपयोग करे, अथवा अग्नि में पड़ कर, या अग्नि में प्रवेश कर या कुआ, बाबड़ी, नदी, तालाब में गिर कर मरे तो उसका यह मरण
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आवश्यक कृत्य
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अज्ञानपूर्वक है। इस प्रकार मरने से अनेक जन्म और मरणों की वृद्धि के सिवाय और कुछ नहीं होता है। और जो मर्यादा के विरुद्ध अपने जीवन को कलुषित करने वाली सामग्री ही को प्राप्त करने के लिये रात-दिन जुटा रहता है, ऐसे पुरुष की आयुष्य पूर्ण होने पर भी उसका मरण आत्म-हत्या के समान ही है। मूल:-अह पंचहि ठाणेहि, जहि सिक्खा न लगभई ।
थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण य ॥८।। छाया:--अथ पञ्चभिः स्थानः, य: शिक्षा न लभ्यते ।
स्तम्भात क्रोधात प्रमादेन, रोगेणालस्येन च ।।८।। अग्यपार्यः-हे इन्द्रभूति । (अह) उसके बाद (जहि) जिन (पंचहि) पांच (गणेहि ) कारणों से (सिक्खा) शिक्षा (न) नहीं (लब्मई) पाता है, वे यों हैं । (मा) मान से (कोहा) क्रोध से (पमाएणं) प्रमाद से (रोगेणामस्सएगय) रोग से और आलस से।
भावार्थ:-हे आर्य ! जिन पौष कारणों में इस आत्मा को ज्ञान प्राप्त नहीं होता है, वे यों है :-क्रोध करने से, मान करने से, किये हुए कण्ठस्थ जान फा स्मरण नहीं करके नवीन ज्ञान सीखते जाने से, रोगी अवस्था से और बालस्य से । मूल:- अह अट्टहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चई ।
अस्सिरे सया दंते, न य मम्ममुदाहरे ।।६।। नासीले न विसीले अ, न सिआ अइलोलुए।
अक्कोहणे सच्चरए, सिक्खासीले ति बुच्चई ॥१०॥ छाया:-अथाष्टभिः स्थानः, शिक्षाशील इत्युच्यते ।
अहसनशील: सदा दान्तः, न च मर्मोदाहर: ।।६।। नाशीलो न विशोलः, न स्यादति लोलुपः । अकोधन: सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते ॥१०॥
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निधन्य-प्रवचन
अग्णयार्थ दे इष्ट मृति 1 (अष) अना हि याक (टोहिं! म्मान कारणों से (सिक्खासील) शिक्षा प्राप्त करने वाला होता है (ति) ऐसा (बुच्चइ) कहा है । (अहस्सिरे) हंसोड़ न हो (सया) हमेशा (दंते) इन्द्रियों को दमन करने वाला हो, (य) और (मम्म) मर्म भाषा (न) नहीं (उदाहरे) बोलता हो, (असीने) सर्वथा शील-रहित (न) नहीं हो, (ड) और (विसील) शील दूपित करने वाला (न) न हो (अइलोलुप) अति लोलुपी (न) न (सिमा) हो, (अक्कोहण) क्रोध न करने वाला हो (सच्चरए) सत्य में रत रहता हो, वह (सिक्यासीले) ज्ञान प्राप्त करने वाला होता है (त्ति) ऐसा (वुच्चइ) कहा है।
भावार्थ:-हे गौतम ! अगर किसी को ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हो तो, यह विशेष न हंसे, सदैव खेल नाटक वगैरह देखने आदि के विषयों से इन्द्रियों का दमन करता रहे, किसी की माणिक बात को प्रकट न करे, भीलवान रहे, अपना आचार-विचार शुद्ध रक्खे, अति लोलुपता से सदा दूर रहे, क्रोध न करे, और सत्य का सदैव अनुयायी बना रहे, इस प्रकार रहने से ज्ञान की विशेष प्राप्ति होती है। मला जे लकवणं मूविणं पउंजमारणे,
निमित्तकोऊहलसंपगाढे। कुहेडविज्जासवदारजीवी,
न गच्छइ सरणं तम्मि काले ॥११।। छाया:--यो लक्षणं स्वप्नं प्रयुजानः, निमित्तकौतुहल संप्रगाढः ।
कुहेटकविद्यालवद्वारजीवी, न गच्छति शरणं तस्मिन् काले ।।११।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जे) जो साधु हो कर (लक्खण) स्त्री, पुरुष के हाथादि की रेखाओं के लक्षण और (सुविणं) स्वप्न का फलादेश बताने का (पउंजमाणे) प्रयोग करते हों एवं (निमित्तकोकहलसंपगा) मावी फल बताने तया कौतूहल करने में, या पुत्रोत्पत्ति के साधन बताने में आसक्त हो रहा हो, इसी तरह (कुहेबबिज्जासवदारजीवी) मंत्र, तन्त्र, विद्या रूप आसव के द्वारा जीवन निर्वाह करता हो वह (सम्मि काले) कोदय काल में (सरणं) दुख से बचने के लिए किसी की शरण (न) नहीं (गई) पाता है।
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आवश्यक-कृत्य
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भावार्थ:--है गौतम ! जो सब प्रपंच छोड़ करके साधु तो हो गया है मगर फिर भी वह स्त्री पुरुषों के हाथ व पैरों की रेखाएँ एवं तिल, मस आदि के मले-बुरे फल बताता है, या स्वप्न के शुभाशुभ फलादेश को जो कहना है, एवं पुलोममि आदि के मापन ताता है. इसी तरह मन्त्र-मन्त्रादि विद्या रूप आश्रव के वारा जीवन का निर्वाह करता है तो उसके अन्त समय में, जब वे कर्म फलस्वरूप में आकर खड़े होंगे उस समय उसके कोई भी शरण नहीं होंगे, अति उस समय उसे दूख से कोई भी नहीं बचा सकेगा। मूलः--पडंति नरए घोरे, जे नरा पावकारिणो।
दिव्वं च गई गच्छंति, चरित्ता धम्ममारियं ।।१२।। छायाः-पतन्ति नरके घौरे, ये नराः पापकारिणः ।
दिव्यां च गति गच्छन्ति चरित्वा धर्ममार्यम् ॥१२॥ अन्वयार्थ:--हे इन्द्रभूति ! (जो) जो (नरा) मनुष्य (पावकारिणो) पाप करने वाले हैं वे (घोरे) महा भयंकर (नरए) नरक में (पडति) जा कर गिरते हैं । (च) और (आरिय) सदाचार रूप प्रधान (धम्म) धर्म को जो (चरित्ता) अंगीकार करते हैं, वे मनुष्य (दिवं) श्रेष्ठ (गई) गति को (गच्छति) जाते हैं । ___ भावार्थ:-हे आर्य ! जो आत्माएँ मानव जन्म को पा करके हिंसा, झूठ, चोरी, आदि दुष्कृत्य करती हैं वे पापात्माएं, महा मयंकर जहाँ दुख हैं ऐसे नरक में जा गिरेंगी । और जिन आत्माओं ने अहिंसा, सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य आदि धर्म को अपने जीवन में खूब संग्रह कर लिया है, वे आत्माएं यहाँ से मरने के पीछे जहाँ स्वर्गीय सुख अधिकता से होते हैं, ऐसे श्रेष्ठ स्वर्ग में जाती हैं । मूल:--बहुआगमविण्णाणा,
समाहिउप्पायगा य गुणगाही । एएण कारणेणं,
अरिहा आलोयणं सोउं ॥१३॥ छाया:-बह्वागमविज्ञानाः, समाध्युत्पादकाश्च गुणग्राहिणः।
एतेन कारणेन, अर्हा आलोचनां श्रोतुम् ॥१३॥
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निग्रन्य-प्रबंधन
अन्वयार्प:-हे इन्द्रभूति ! (बहुआगम विष्णाणा) बहुत शास्त्रों का जानने घाला हो (समाहिउप्यायगा) कहने वाले को समाधि उत्पन्न करने वाला हो (म) और (गुणगाही) गुणग्राही हो (एएण) इन (कारणेणे) कारणों से (आलोपणं) आलोचना की (जो सुनने के लिए विग है।
भावार्थ:-हे आय ! आन्तरिक बात उसके सामने प्रकट की जाय जो कि बहुत शास्त्रों को जानता हो । जो प्रकाशक को सांत्वना देने वाला हो, गुणग्राही हो । उसी के सामने अपने हृदय की बात खुले दिल से करने में कोई आपत्ति नहीं है । क्योंकि इन बातों से युक्त मनुष्य ही आलोचक के योग्य है।
मूल:-भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया ।
नावा व तीरसम्पन्ना, सम्बदुक्खा तिउट्टइ ।।१४।। छाया: - भावना योगशुद्धात्मा, जले नौरिवाख्याता।
नौरिव तीर सम्पन्ना, सर्व दुःखात् युट्यति ॥१४॥
अम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (मावणा) शुद्ध मावना रूप (ोगसुद्धप्पा) योग से शुद्ध हो रही है आत्मा जिनकी ऐसे पुरुष (जले णावा व) नौका के समान जल के ऊपर ठहरे हुए हैं, ऐसा (आहिया) कहा गया है। (नावा) जैसे नौका अनुकूल वायु से (तोरसम्पन्ना) तीर पर पहुंच जाती है (ब) वैसे ही, नौका रूप शुद्धामा के उपदेश से जीव (सव्वदुरुस्खा) सर्व दुखों से (तिउट्टइ) मुक्त हो जाते हैं। ____ भावार्थ:--हे गौतम ! शुदभावना रूप ध्यान से हो रही है आत्मा निर्मल जिनकी, ऐसी शुद्धारमाएँ संसार रूप समुद्र में नौका के समान हैं । ऐसा ज्ञानियों ने कहा है । ये नौका के समान शुद्धात्माएं आप स्वयं तिर जाती है और उनके उपदेश से अन्य जीव भी पारित्रवान् होकर सर्व दुख रूप संसार समुद्र का अन्स करके उसके परले पार पहुंच जाते हैं।
मुल:--सवणे नाणे विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे ।
अणाहए तवे चेव बोदाणे, अकिरिया सिद्धी ॥१५॥
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आवश्यक कृत्य
छाया:-श्रवणं ज्ञानं विज्ञानं प्रत्याख्यानं च संयमः ।
अनासवं तपश्चैव, व्यवदानमक्रिया सिद्धिः ॥१५॥ अषयायः—है इन्द्रमूति ! ज्ञानी जनों के संसर्ग से (सवणे) धर्म श्रषण होता है । धर्म श्रवण से (नाणे) ज्ञान होता है । ज्ञान से (विण्णाणे) विज्ञान होता है । विज्ञान (पाखाणे) रामार का हो.है। बहर स्याग से (संज मे) संयमी जीवन होता है । संयमी जीवन से (अणाहए) अनासवी होता है (चेक) और अनाम्नबी होने से (तो) तपवान होता है। तपमान होने से (वोदाणे) पूर्व संचित कर्मों का नाश होता है और कमों के नाश होने से (अकिरिया) क्रियाहित होता है । और सावद्य क्रिया रहित होने से (सिसी) सिद्धि की प्राप्ति होती है।
भावार्थ-हे गौतम ! सम्यक् ज्ञानियों को संगति से धर्म का श्रवण होता है, धर्म के श्रवण से ज्ञान की प्राप्ति होती है | ज्ञान से विशेष ज्ञान या विज्ञान होता है । विज्ञान से पापों के करने का प्रत्याख्यान होता है। प्रत्याख्यान से संयमी जीवन की प्राप्ति होती है। संयमी जीवन से अनानव अर्थात् आते हुए नवीन कर्मों को रोक हो जाती है। फिर अनास्रव से जीव तपवान बनता है। तपवान होने से पूर्व संचित कर्मों का नाश हो जाता है । कर्मों के आय हो जाने से सावध क्रिया का आगमन भी बंद हो जाता है। जब क्रिया मात्र रुक गयी सो फिर बस , जोष को मुक्ति ही मुक्ति है । यों, सदाचारी पुरुषों की संगति करने से उत्तरोत्तर सद्गुण ही सद्गुण प्राप्त होते हैं। यहाँ तक कि उसकी मुक्ति हो जाती है। मूल:--अवि से हासमासज्ज, हंता गंदोति मन्नति ।
अलं बालस्स संगणं, बेरं बड्दति अप्पणो ॥१६॥ छाया:-अपि स हास्यमासज्य, हन्ता नन्दीति मन्यते ।
अलं बालस्य सङ्गन, वैरं वर्धत आत्मनः ॥१६॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अवि) और जो कुसंग करता है (से) वह (हासमासज्ज) हास्य आदि में आसक्त होकर (हंता) प्राणियों की हिसा ही में (णंदीति) आनन्द है, ऐसा (मन्नति) मानता है। और उस (मालस्स) अज्ञानी की आरमा का (वेर) कर्मबंध (बहति) बढ़ता है।
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निर्ग्रन्थ-3 -प्रवचन
भावार्थ:- हे गौतम ! सत्पुरुषों की संगति करने से इस जीव को गुणों की प्राप्ति होती है और जो हास्यादि में आसक्त होकर प्राणियों की हिसा करके आनन्द मानते हैं । ऐसे अज्ञानियों की संगति कभी मत करो। क्योंकि ऐसे दुराचारियों के संसर्ग से शराब पीना, मांस खाना, हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, व्यभिचार का सेवन करना आदि दुष्कर्म बढ़ जाते हैं । और उन दुष्कर्मो से आत्मा को महान् कष्ट होता है। अतः मोक्षामिलापियों को अज्ञानियों को संगति कभी भूल कर भी नहीं करनी चाहिए ।
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मूलः --- आवस्सय अवस्सं करणिज्जं, धुवनिग्गहो विसोही अ अज्झ यणछक्क वग्गो,
नाओ आराहणा मग्गो || १७||
छाया:- आवश्यकमवश्यं करणीयम्, ध्रुवनिग्रहः विशोधितम् । अध्ययनपट्कवर्गः ज्ञेय आराधना मार्गः ॥ १७॥
अन्वयाचं हे इन्द्रभूति ! ( ध्रुवनिग्गहो) सदैव इन्द्रियों को निग्रह करने बाला (विसोही अ) आत्मा को विशेष प्रकार से शोषित करने वाला (नाओ ) न्याय के काँटे के समान (आराहणा ) जिससे वीतराग के वचनों का पालन हो ऐसा ( मग्गो) मोक्ष मार्ग रूप ( अज्झयणछक्कबरगो) छ: वर्ग "अध्ययन" हैं, पढ़ने के जिसके ऐसा (आवस्यं) आवश्यक प्रतिक्रमण (अवरसं ) अवश्य ( करणिज्जं ) करने योग्य है ।
भावार्थ- हे गौतम! हमेशा इन्द्रियों के विषय को रोकने वाला, और अपवित्र आत्मा को भी निर्मल बनाने वाला, न्यायकारी, अपने जीवन को सार्थक करने वाला और मोक्ष मार्ग का प्रदर्शक रूप : अध्ययन हैं पड़ने के जिसमें; ऐसा आवश्यक सूत्र साधु-साध्वी तथा गृहस्थों को सदैव प्रातः काल और सायंकाल दोनों समय अवश्य करना चाहिये। जिसके करने से अपने नियमों के विरुद्ध दिन-रात भर में भूल से किये हुए कार्यों का प्रायश्चित्त हो जाता है । हे गौतम ! यह आवश्यक यों हैं ।
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आवश्यक-कृत्य
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मूल:- सावज्जजोगविरई,
उक्कित्तण गुणवओ च पडिवत्ती। खलिअस्स निदणा,
वणतिगिच्छ गुगधारणा चेव ।।१८।। छायाः-सावद्ययोगविरतिः, उत्कीर्तनं गुणवतश्च प्रतिपत्तिः ।
खलितस्य निन्दना, वणचिकित्सा गुणधारणा चैव ॥१८|| अग्वयार्थ:- है हन्द्रभूति ! (सावज्जजोगविरई) सावद्ययोग से निवृत्ति (उक्कित्तण) प्रभु की प्रार्थना (प) और (गुणवओ) गुणवान गुरुकों को (परिवत्ति) विधिपूर्वक नमस्कार । (स्वलिअस्स) अपने दोषों का (निदणा) निरीक्षण (वतिगिम्छ) छिद्र के समान लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त ग्रहण करता हुआ निवृत्ति रूप औषधि का सेवन करना (चेव) और (गुणधारणा) अपनी शक्ति के अनुसार त्याग रूप गुणों को धारण करना।
भावार्थ:-हे गौतम ! जहा हरी वनस्पति, चींटियो, कुंथुए बहुत ही छोटे जीव वगैरह न हों ऐसे एकान्त स्थान पर कुछ भी पाप नहीं करना, ऐसा निश्चय करके, कुछ समय के लिए अपने चित्त को स्थिर कर लेना, यह आवश्यक का प्रथम अध्ययन हुआ । फिर प्रभु की प्रार्थना करना, यह द्वितीय अध्ययन है। उसके बाद गुणवान गुरुओं को विधिपूर्वक दृश्य से नमस्कार करना पह तीसरा अध्ययन है। किये हुए पापों की आलोचना करना चौथा अध्ययन और उसका प्रायश्चित ग्रहण करना पांचवां अध्ययन और छठी बार यथाशक्ति त्याग की वृद्धि करे । इस तरह षडावश्यक हमेशा दोनों समय करता रहे । यह साघु और गृहस्थों का नियम है । मूलः -जो समो सब्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य ।
तस्स सामाइयं होइ, इइ केबलिभासियं ॥१६॥ छायाः—यः समः सर्वभूतेषु, असेषु स्थावरेषु च ।
तस्य सामायिक भवति, इति केवलिभाषितम् ॥१६॥
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निग्रंग्य-प्रवचन अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जो) जो मनुष्य (तसेसु) स (य) और (यावरेसु) स्थावर (सब्वभूएसु) समस्त प्राणियों पर (समो) सममाव रखने वाला है। (सस्स) उसके (सामाझ्य) सामायिक (होइ) होती है (इइ) ऐसा (कैथली) वीतराग ने (मासियं) कहा है।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिस मनुष्य का हरी वनस्पति आदि जीवों पर तथा हिलते-फिरते प्राणी मात्र के कार समभाव है अर्थात् सूई चुमोने से अपने को कष्ट होता है ऐसे ही कष्ट दूसरों के लिए भी समझता है। बस, उसी की सामायिक होती है ऐसा वीतरागों ने प्रतिपादन किया है । इस तरह सामायिक करने वाला मोक्ष का पथिक बन जाता है । मूल:--तिण्णिय सहस्सा सत्त सयाई,
तेहुरिं च ऊसासा ! एस मुहत्तो दिट्रो,
सन्वेहि अणतनाणीहि ॥२०॥ छाया:-त्रीणि सहस्राणि सप्तशतानि, त्रिसप्ततिश्च उच्छ्वासः ।
एषो मुहत्तों दृष्टः, सर्वैरनन्तज्ञानिभिः ॥२०॥ सम्पयार्य:-है इन्द्रभूति ! (तिणियसहस्सा) तीन हजार (सत्तसथाई) सात सौ (च) और (तेहत्तरि) तिहसर (मसासा) उच्छ्वासों का (एस) यह (मुहत्तो) मुहूर्त होता है। ऐसा (सध्वहिं) सभी (अर्थतनाणीहि) अनन्त ज्ञानियों के द्वारा (दिट्टो) देखा गया है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! ३७७३ तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वासों का समूह एक मुहूर्स होता है । ऐसा समी अनन्तज्ञानियों ने कहा है ।
॥ इति षोडशोऽध्यायः ।।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(अध्याय सत्रहवाँ) नरक-स्वर्ग-निरूपण
॥ श्रीभगवानुवाच ॥ मुल:-नेरइया सत्तविहा, पुढवीसु सत्तसू भवे ।
रयणाभासक्कराभा, गाय आदिआ 1११ पंकाभा धूमाभा, तमा तमतमा तहा ।
इइ नेरआ एए, सत्तहा परिकित्तिया ।।२।। छाया:-नैरयिकाः सप्तविधा: पृथिवीषु सप्तसु भवेयुः ।
रत्नाभा शर्कराभा, वालुकामा च आख्याता ॥१॥ पङ्काभा धूमाभा, तमः तमस्तमः तथा।
इति नेरयिका एते, सप्तधा परिकीर्तिताः ।।स। अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (नेरझ्या) नरक (सत्तसू) सात अलग-अलग (पुरुषीसु) पृथ्वी में (मवे) होने से (सत्तविहा) सात प्रकार का (आहिमा) कहा गया है । (रपणाभासक्रामा) ररनप्रमा, शकंराममा (य) और (वालयामा) बालुप्रमा (पंकामा) पंकप्रभा (धूमामा) धूमप्रभा (तमा) तमप्रमा (तहा) वैसे ही तथा (तमतमा) तमतमा प्रभा (इइ) इस प्रकार (एए) ये (नरहया) नरक (सत्तहा) सात प्रकार के (परिकिसिया) कहे गये हैं।
भावार्थ:--हे गौतम ! एक से एक भिन्न होने से नरक को ज्ञानीजनों ने सात प्रकार का कहा है। वे इस प्रकार हैं-(१) बैड्यं रत्न के समान है
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સ્
निर्यण्य-प्रवचन
प्रभा जिसकी उसको रत्नप्रभा नाम से पहला नरक कहा है । ( २ ) इसी तरह पापाण, धूल, कर्दम, धूम्र के समान है प्रभा जिसकी उसको यथाक्रम शर्करा प्रभा ( ३ ) चालुका प्रभा ( ४ ) पंक प्रभा और (५) धूम प्रभा कहते हैं । और जहाँ अन्धकार है उसको (६) तम प्रभा कहते हैं। और जहाँ विशेष अन्धकार है उसको ( ७ ) तमतमा प्रभा सातब नरक कहते हैं ।
मूलः -- जे केइ बाला इह जीवियट्ठी, पाबाई कम्माई करंति रुद्दा
तमिसंधयारे,
ते घोररूवे तिब्बाभितावे
नरए
छाया:- ये केजी वाला ह
नि
पडति ॥ ३॥
पापानि कर्माणि कुर्वन्ति रुद्रा: 1
ते घोररूपे तमिस्रान्धकारे,
तीव्राभितापे
नरके पतन्ति ॥३॥
अन्वयार्थः - हे इन्द्रभूति (इ) इस संसार में (ज) जो (केड) कितनेक (जीवियट्ठी) पापमय जीवन के अर्थी (बाला) अज्ञानी लोग ( रुद्दा) रौद्र ( पावा) पाप (कम्माई ) कर्मों को (करंति करते हैं। (ते) व (घोरवे ) अत्यन्त भयानक मोर (तमिसंधयारे ) अत्यन्त अन्धकार युक्त, एवं (तिब्बाभि(पति) जा गिरते है । लावे) तीव्र है ताप जिसमें ऐसे (नरए) नरक
भावार्थ:- हे गौतम! इस संसार में फिलनेक ऐसे जीव हैं, कि वे अपने पापमय जीवन के लिए महान हिंसा आदि पाप कर्म करते हैं । इसीलिए के महान् मयानक और अत्यन्त अन्धकार मुक्त तीव्र सम्तोषदायक नरक में जा गिरते हैं और वर्षो तक अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करते रहते हैं । मूल:- तिब्वं तसे पाणिणो थावरे या,
जे हिंसती आयसुहं पडुच्च । जे लूसए होइ अदत्तहारी,
ण सिक्खती सेयवियस किंचि ॥४॥
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नरक-स्वर्ग-निरूपण
२०५ छाया:-तीयं बसान् प्राणिन: स्थावरान् वा,
यो हिनस्ति आतापमुग्न प्रतीत्य ! यो लुषको भवति अदत्तहारी,
न शिक्षते सेवनीयस्य किञ्चित् ।।४।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (ज) जो (तसे) श्रम (या) और (पाषरे) स्थावर (पाणिणो) प्राणियों की (तिव्वं) तीवता से (हिसती) हिसा करता है, और (आयसुह) आरम सुख के (पडुच्च) लिए (जे) जो मनुष्य (लूसए) प्राणियों का उपमर्दक (होड) होता है। एवं (अदत्तहारी) नहीं दी हुई वस्तुओं का हरण करने वाला (किंचि) घोड़ा सा भी (सेयवियस्स) अंगीकार करने योग्य व्रत के पालन का (ण) नहीं (सिक्वती) अभ्यास करता है। वह नरक में जा कर दुम्न उठाता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! जो मनुष्य, हसन चलन करने वाले अर्थात् प्रस तथा स्थावर जीवों को निर्दयतापूर्वक हिंसा करता है। और जो शारीरिक पौद्गलिक सुखों के लिए जीवों का उपमर्दन करता है। एवं दूसरों की चीजें हरण करने ही में अपने जीवन की सफलता समझता है। और किसी भी प्रत को अंगीकार नहीं करता, वह यहाँ से परकर नरक में जाता है । और स्व-कृत कर्मों के अनुसार वहाँ नाना मांति के दुख भोगता है ।
मूलः-छिदंति बालस्स खरेण नक्क,
उठू वि छिदति दुवेवि कण्ण । जिब्भ विणिक्कस्स विहत्थिमित्तं,
तिक्वाहिसूलाभितावयंति ।।५।। छाया:-छिन्दन्ति बालस्य क्षरेण नासिकाम,
औष्ठावपि छिन्दन्ति द्वावपि कर्णा । जिह्वां विनिष्कास्य वितस्तिमात्र,
पक्षणः शूलादभितापयन्ति ॥५॥
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¦
निर्मम्य-प्रवचन
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! परमाधामी देव नरक में (बालस्स) अज्ञानी के (सुरेश) छुरी से (नक्कं ) नाक को (दिति) छेदते हैं । ( उट्टे वि) ओठों को भी और (दुवे) दोनों (कन्ने) कानों को (वि) मी (चिदति ) छेदते हैं । तथा (वित्यिमित्तं) बेंत के समान लम्बाई भर ( जिम्मं ) जिल्ला को (विणिकस्स) बाहर निकाल करके ( तिक्खाहि ) तीक्ष्ण (सूला) शूलों आदि से ( अभिताजयंति ) छेदते हैं।
२०६
भावार्थ:--- हे गौतम ! जो अज्ञानी जोन, हिंसा, झूठ, घोरी और व्यभिचार आदि करके नरक में जा गिरते है । असुर कुमार परमाधामी उन पापियों के कान नाक और ओठों को छुरी से लेते हैं । और उनके मुंह में से जिला को बेत जितनी लम्बाई भर बाहर खींच कर तीर भूली हैं।
मूल:- ते तिप्पमाणा तलसंपुढं व्व, राइंदियं तत्थ थणंति बाला । गलंति ते सोणिअपूयमंसं, पज्जोइया खारपइद्धियंगा || ६ ॥
छाया:-- ते तिप्यमाना तलसम्पुटइत्र,
रात्रिन्दिवा तत्र स्तनान्त बालाः ।
गलन्ति ते शोणितपूतमांस, प्रद्योनिता क्षार
प्रदिग्धांगाः ||६||
अन्वपार्थः - हे इन्द्रभूति ! ( तत्थ ) वहाँ नरक में (ते) वे ( तिप्पाणा ) रुधिर झरते हुए ( माला) अज्ञानी (राईदियं ) रात दिन (तलसंपुढं ) पवन से प्रेरित ताल वृक्षों के सूखे पत्तों के शब्द के (व) समान (थति) आक्रन्दन का शब्द करते हैं । (ते) वे नारकीय जीव (पज्जोइया) अग्नि से प्रज्वलित (खारपखियंगा) क्षार से जलाये हुए अंग जिससे ( सोणिअयमंसं ) रुधिर, रसी और मांस (गति) शरते रहते हैं।
भावार्थ:- हे गौतम! नरक में गये हुए उन हिंसादि महान् आरम्भ के करने वाले नारकीय जीवों के नाक, कान आदि काट लेने से रुधिर बहता रहता
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नरक-स्वर्ग-निरूपण
२०७
है और वे रात-दिन बड़े आक्रन्दन स्वर से रोते हैं। और उस छेदे हए अंग को अग्नि से जलाते हैं। फिर उसके कपर लवणादिक क्षार को छिटकते हैं। जिससे और मी विशेष रुधिर पूम और मांस भरता रहता है।
मूलः–रुहिरे पुणो वच्चसमुस्सिअंगे,
भिन्नुत्तमंगे परिवत्तयंता । पयंति णं णेरइए फुरते,
सजीवमच्छे व अयोकवल्ले ॥७॥
छाया:-रुधिरे पुनो वर्चः समुच्छिलाङ्गान्,
भिन्नात्तमाङ्गान् परिवर्तयन्तः । पचन्ति नैरयिकान् स्फुरतः,
सजीवमत्स्यानिवायः कटाहे |७||
अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (पुणों) फिर (वच्च) दुर्गन्ध मल से (समु. स्सिअंगे) लिपटा हुआ है अग जिनका और (भिन्नुत्तमंगे) सिर जिनका छेवा हुआ है ऐसे नारकीय जीवों का खून निकालते हैं और (रुहिरे) उसी खून के तगे हुए कड़ाहे में उम्हें चलकर (परिवत्तयत्ता) इधर-उघर हिलाते हुए परमाघामी (पर्मति) पकाते हैं। तब (णेरइए) नारकीय जीव (अयोकवल्ले) लोहे के काहे में (सजीव गच्छव) सजीव मच्छी की तरह (फुरते) तड़फड़ाते हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिन आत्माओं ने शरीर को आराम पहुँचाने के लिए हर तरह से अनेकों प्रकार के जीवों की हिंसा की है, वे आत्माएँ नरक में जाकर जब उत्पन्न होती हैं, तव परमाधामी देव दुर्गन्ध युक्त वस्तुओं से लिपटे हुए उन नारकीय आत्माओं के सिर छेदन कर उन्हीं के शरीर से खून निकाल उन्हें तप्त कड़ाहे में डालते हैं और उन्हें खूब ही उबाल करके जलाते हैं। असुर कुमारों के ऐसा करने पर वे नारखीय आत्माएं उस तपे हुए कड़ाहे में सप्त तवे पर गली हुई सजीव मछली की तरह तड़फड़ाती हैं।
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२०८
निय-प्रवचन
मूल:--नो चेव ते तत्थ मसीभवति,
ण मिज्जती तिब्वाभिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता,
दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ।।८।। छाया:- नो चैव ते तत्र मषीभवन्ति, न प्रियन्ते तीव्राभीवेदनाभिः ।
तदनुभागमनुवेदयन्तः, दुःखयन्ति दुःखिन इह दुष्कृतेन ||८||
अन्वयार्थः -- हे इन्द्रभूति ! (तस्य) नरक में (ते) ये नारकीय जीव पकाने से (नो वेव) नहीं (मसी भवंति) भस्म होते हैं । और (तिब्वाभिवेयणाए) तीव्र वेदना से (न) नहीं (मिजति) मरते है। (दुसखी) वे दुखी जोव (दुक्कडेणं) अपने किये हुए दुष्कर्मों के द्वारा (तमाणुमार्ग) उसके फल को (अणुवंदयंता) भोगते हुए (दुक्खंति) कष्ट उठाते हैं ।
भावार्थः --हे गौतम ! नारकीय जीव उन परपाधामी देवों के द्वारा पकाये जाने पर न तो भस्मीभूत ही होते हैं और न उस महान् भयानक छेदन-भेदन तथा ताडन आदि ही से मरते हैं। किन्तु अपने किये हुए दुष्कर्मों के फलों को भोगते हुए बड़े कष्ट से समय बिताते रहते हैं।
मूल:--अच्छी निमिलियमेत्तं,
नत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्ध । नरए नेरइयाणं,
अहोनिसं पच्चमाणाणं ॥६।। छाया:-अक्षिनिमीलितमात्र, नास्ति सुखं दुःखमेवानुबद्धम् ।
नरके नैरयिकाणाम्, अनिशं पच्यमानानाम् ।।६।। सम्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (अहोनिसं) रात बिन (पच्चमाणाण) पचते हुए (नरक्ष्याग) नारकीय जीवों को (नरए) नरक में (अच्छी) आँख (निमि
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नरक-स्वर्ग-निरूपण
२०६ लियमेत) टिमटिमावे इतने समय के लिये मी (सुह) सुख (नत्यि) नहीं है। क्योंकि (दुक्खमेव) दुःख ही (अणुबद्ध) अनुबद्ध हो रहा है ।
भावार्थ:-हे गीत ! सदा कष्ट उठाते हुए नारकीय जीवों को एक पल भर मी सुख नहीं है । एक दुख के बाद दूसरा दुष उनके लिये तैयार रहता है। मूल:-~-अइसीयं अहउपह,
अइतण्हा अइवखुहा । अईभयं च नरए नेरयाणं,
दुक्ख सयाई अविस्सामं ।।१०।। छाया:-अतिशीतम् अत्युष्णं, अतितृषाऽति क्षुधा ।
अतिभयं च नरके नरयिकाणाम्, दु:खशतान्यविश्रामम् ॥१०॥ भाषचार्य:-हे इन्द्रभूति ! (नरए) नरक में (नेरयाणे) नारकीय जीवों को (अइसीय) अति शीत (अइउहं) अति उष्ण (मइतण्हा) अप्ति तृष्णा (अइक्षुहा) अति भूख (च) और (अई मयं) अति मय (दुक्खसयाई) संकड़ों दुख (अविस्लाम) विश्राम रहित भोगना पड़ता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! नरक में रहे हम जीवों को अत्यन्त ठह उष्ण भूख तृष्णा और मय आदि सैकड़ों दुःख एक के बाद एक लगातार रूप से कृत-कर्मों के फल रूप में भोगने पड़ते हैं। मूलः-जं जारिस पुव्वमकासि कम्म,
तमेव आगच्छति संपराए । एगेतदुक्खं भवमज्जणित्ता,
बेदंति दुक्खी तमणंतदुक्खं ॥११॥ छाया:-यत्यादृशं पूर्वमकार्षीत् कर्म,
तदेवागच्छति सम्पराये । एकान्तदुःखं भव मर्जयित्वा,
वेदयन्ति दुःखिन स्तमनन्तदुःखम् ॥११॥
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२१०
निग्रन्थ-प्रवचन
अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति | (जं) जो (कम्म) कर्म (जारिस) जैसे (पुरबं) पूर्व भव में जीव ने (अकासि) किये हैं (तमेव) वैसे ही, उसके फल (संपराए) संसार में (आगच्छति) प्राप्त होते हैं । (एगंतदुक्खं) केवल दुःख है जिसमें ऐगे नारकीय (मवं) जन्म को (अज्जणित्ता) उपार्जन करके (दुक्खी) वे दुखी जीव (त) जस (अणंतदुक्खं) अपार दुख्न को (बेदति) मोगते हैं।
भावार्थ:- हे गौतम ! इस आश्मा ने जैसे पुण्य पाप किये है; उसी के अनुसार जन्म-जनान्तर रूप संसार में रमे मख-दख मिलते रहते हैं। यदि उसने विशेष पाप किये हैं तो जहाँ घोर कष्ट होते हैं ऐसे नारकीय जन्म उपार्जन करके वह उस नरक में जा पड़ती है और अनन्त दुखों को सहती रहती है। मूल:-जे पावकम्मेहि धणं मणूसा,
समाययंती अमई गहाय । पहाय ते पासपयट्टिए नरे,
वेराणुबद्धा नरयं उविति ॥१२।। छाया:-ये पापकर्मभिधनं मनुष्याः ,
___ समायन्ति अमति गृहीत्वा । प्रदाय ते पाशप्रवृत्ता: नराः,
वरानुबद्धा नरक मुपयान्ति ॥१२॥ अन्वयार्ष:-हे इन्द्रभूति ! (जे) जो (मणूसा) मनुष्य (अमई) कुमति को (गहाय) ग्रहण करके (पावकम्मेहि) पाप कर्म के द्वारा (धणं) धन को (समाययंती) उपार्जन करते हैं, (ते) वे (नरे) मनुष्य (पासपट्टिए) कुटुम्बियों के मोह में फंसे हुए होते हैं, वे (पहाय) उन्हें छोड़ कर (वैराण बद्धा) पाप के अनुबन्ध करने वाले (नरर्य) नरक में जा कर (उविति) उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! जो मनुष्य पाप बुद्धि से कुटुम्बियों के भरण-पोषण रूप मोहपाश में फंसता हुआ, गरीब लोगों को ठग कर अन्याय से घन पदा करता है, वह मनुष्य धन और कुटुम्ब को यहीं छोड़ कर और जो पाप किये हैं उनको अपना साथी बना कर नरक में उत्पन्न होता है।
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नरक-स्वर्ग-निरूपण
मूल:-एयाणि सौच्चा णरगाणि धीरे,
न हिंसए किंचण सम्वलोए । एगंतदिट्ठी अपरिग्गहे उ,
बुज्झिज्ज लोयस्स वसं न गच्छे ।।१३।। छाया:एतान् श्रुत्वा नरकान् धीरः, न हिस्यात् कञ्चन् सर्वलोके ।
एकान्त दृष्टिरपरिग्रहस्तु, बुध्वा लोकस्य वशं न गच्छेत् ।।१३।। ___ अन्वयार्थ:-हे इदभूति ! (एगतविट्ठी) केवल सम्यक्त्व की है दृष्टि जिनकी और (अपरिग्गहेड) ममस्य' माव रहित ऐसे जो (धीरे) बुद्धिमान मनुष्य हैं वे (एयाणि) इन (गरगाणि) नरक के दुखों को (सोच्चा) सुन कर (सव्वलोए) सम्पूर्ण लोक में (किंचण) किसी भी प्रकार के जीवों की (न) नहीं (हिंमए) हिंसा करें (लोयस्स) कर्म रूप लोक को (ज्झिन) बान कर वस) उसकी साधीमता में (न) नहीं (गच्छे) जावे ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिसने सम्यस्त्व' को प्राप्त कर लिया है और ममत्व से विमुख हो रहा है ऐसा बुद्धिमान तो इस प्रकार के नारकीय दुखों को एक मात्र सुन कर किसी भी प्रकार की कोई हिमा नहीं करेगा। यही नहीं, वह क्रोध, मान, माया, लोम तया अहंकार रूप लोक के स्वरूप को समझ कर और उसके आधीन हो कर कभी भी कर्मों के वाधनों को प्राप्त न करेगा । वह स्वर्ग में जाकर देवता होगा । देवता चार प्रकार के हैं। ये यों हैमूल:--देवा चउबिहा बुत्ता, ते मे कित्तयओ सुण ।
भोमेज्ज वाणमन्तर, जोइस वेमाणिया तहा ।।१४।। छायाः-देवाश्चतुर्विधा उक्ता:, तान्मे कीर्तयन:, श्रण ।
भौमेया व्यन्तरा:, ज्योतिष्का वैमानिकास्तथा ॥१४॥ अम्बयार्थ: है इन्द्रभूति ! (देवा) देवता (चविहा) चार प्रकार के (वृत्ता) कहे हैं 1 (ते) वे (मे) मेरे द्वारा (कित्तयओ) कहे हुए तू (सुण) श्रवण कर (मोमेज वाणमंतर) भवन पति, वाणव्यन्तर (तहा) लपा (जोइस वेमाणिया) ज्योतिषी और वैमानिक देव ।
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२१२
निर्मग्य-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम ! देव चार प्रकार के होते हैं। उन्हें तू सुन । (१) भवनपति (२) वाणच्यन्तर (३) ज्योतिषी और (४) वैमानिक । भवनपति इस पृथ्वी से १०० योजन नीचे की ओर रहते हैं। सामन्यातर १. योजन नीचे रहते हैं । ज्योतिषी देव ७६० योजन इस पृथ्वी से ऊपर की ओर रहते है । परन्तु वैमानिक देव तो इन ज्योतिषी देवों से भी असंख्य योजन ऊपर रहते हैं। मूल:--दसहा उ भवणवासी,
___अट्टहा वणचारिणो । पंचविहा जोइसिया;
दुविहा बेमाणिया तहा ।।१५।। छायाः-दशधा तु भवनवासिना, अष्टधा वनचारिणः ।
पञ्चविधा ज्योतिष्काः, द्विविधा वैमानिकास्तथा ।।१५।। अषयाः -हे इन्द्रभूति ! (मवणबासी) भवनपति देव (सहा) दस प्रकार के होते है । और (वणचरिगो) प्राणव्यातर (अट्टहा) आठ प्रकार के हैं। (जोइसिया) ज्योतिषी (पंचविहा) पांच प्रकार के होते हैं। (तहा) वैसे ही (वेमाणिया) दैमानिक (दविहा) दो प्रकार के हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! मधनपति देव दश प्रकार के हैं। वाणध्यन्तर आठ प्रकार के हैं और ज्योतिषी पांच प्रकार के हैं। वैसे ही वैमानिक देव मी दो प्रकार के हैं । अब भवनति के दश भेद कहते हैं । मूलः--असुरा नागसुवण्णा,
विज्जू अग्गी वियाहिया । दोवोदहि दिसा वाया,
थणिया भवणवासिणो ।।१६। छाया:-असुरा नागा: सुवर्णाः, विद्युतोऽग्रयो व्याख्याता: ।
द्वीपा उदधयो दिशो वायवः, स्तनिता भवनवासिन: ।।१।।
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नरक-स्वर्ग-निरूपण
२१३
अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (असुरा) असुर कुमार (नागसुवाणा) नाग फुमार, सुवर्ण कुमार (विज्जू) विद्यु त कुमार (अग्गी) अग्निकुमार (दोवोदहि) द्वीपकुमार उदधि कुमार (दिसा) दिक्कुमार (वाया) वायुकुमार सथा (यणिया) स्तनित कुमार । इस प्रकार (मवणबासिणो) मवनवासी देव (वियाहिया) कहे गये है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! असुरकुमार, नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, पवनकुमार और स्तनितकुमार यों ज्ञानियों द्वारा दश प्रकार के भवनपति देव कहे गये हैं। अब आगे आठ प्रकार के वाणज्यतर देव यों है । मूल:-पिसाय भूय जवखा य,
रक्खसा किन्नरा किपुरिसा । महोरगा य गंधवा,
___ अविहा बाणमन्तरा ।।१७।। छायाः-पिशाचा भूता यक्षाश्च, राक्षसाः किन्नरा: किंपुरुषाः ।
महोरगाश्च गन्धर्वाः, अष्टविधा व्यन्त राः ।।१७।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति । (वाणमंतरा) वाणव्यन्तर देव (अट्टविहा) आठ प्रकार के होते हैं। जैसे (पिसाय) पिशाच (मूय) भूत (अक्खा) यक्ष (य) और (रक्खसा) राक्षस (य) और (किन्नरा) किन्नर (किंयुरिसा) किंपुरुष (महोरगा) महोरग (म) और (गंधव्या) गंधर्व । ___ भावार्थ:-हे गौतम ! बाणव्यन्तर देव आठ प्रकार के हैं। जैसे (१) पिशाच (२) मूत (३) यक्ष (४) राक्षस (५) किन्नर (६) किंपुरुष (७) महोरग और (८) गंधवं । ज्योतिषी देवों के पास भेद यों हैंमूल:-चन्दा सूरा य नक्खत्ता,
गहा तारामणा तहा । ठिया विचारिणो चेब,
पंचहा जोइसालया ॥१८॥
मटा
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२१४
निग्य-प्रवचन
छाया:-चन्द्राः सूर्याश्च नक्षत्राणि, ग्रहास्तारामणास्तथा ।
स्थिरा विचारिणश्चैव, पंचधा ज्योतिरालया: ॥१८॥ अन्यमार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जोइसालया) ज्योतिषी देव (पंचहा) पाच प्रकार के हैं । (चन्द्रा) चन्द्र (दूर गई (य) और कसा शाह र (तहा) तथा (तागगणा) तारागण । जो (ठिया) ढाईद्वीप के बाहर स्थिर हैं । (वेद) और ढाईद्वीप के भीतर (विचारिणो) चलते फिरते हैं । ___भावार्थ:-हे गौतम ! ज्योतिषी देव पाच प्रकार के हैं--(१) चन्द्र (२) सूर्य (३) मह (४) नक्षत्र और (५) तारागण । ये देव ढाईद्वीप के बाहर तो स्थिर रहने वाले है और उसके मोतर चलते फिरते हैं। वैमानिक देवों के भेद यों हैं .... मूलः--वेमाणिया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया।
कम्पोवगा य बोद्धव्वा, कप्पाईया तहेव य ॥१६॥ छाया:-वैमानिकास्तु ये देवाः, द्विविधास्ते व्याख्याताः ।
वाल्पोपगाश्च बोद्धव्याः, कल्पातीतास्तथैव च ॥१६॥ अन्वयार्थः- हे इन्द्रभूति ! (ज) जो (देवा) देव (वेमाणिया उ) वैमानिक हैं । (ते) वे (दुविहा) दो प्रकार के (विवाहिया) कहे गये हैं। एक तो (कप्पोवगा) कल्पोत्पन्न (अ) और (तहेव य) वैसे ही (कप्पाईया) कल्पातीत (बोषवा) जानना ।
भावार्थ:-हे गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के हैं। एक तो कल्पोत्पल और दूसरे कल्पातीत । कल्पोत्पन्न से ऊपर के दंव कल्पातीत कहलाते हैं। और जो कल्पोत्पन्न है वे बारह प्रकार के हैं । वे यों हैंमूल:--कप्पोवगा बारसहा, सोहम्मीसणगा तहा ।
सणंकुमारमाहिन्दा, बम्भलोगा य लंतगा ॥२०॥ महासुरका सहस्सारा, आणया पाणया तहा । आरणा अच्चुया चेव, इइ कप्पोक्गा सुरा ॥२१॥
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नरक-स्वर्ग निरूपण
छाया: – कल्पोपगा द्वादशधा,
सौधर्मेशानगास्तथा ।
सनत्कुमारा माहेन्द्राः, ब्रह्मलोकाश्च लान्तका ॥२०॥
महाशुकाः सहस्राराः मानताः प्राणतास्तथा । आरणा अच्युताश्चैव इति कल्पोपगाः सुरा ||२१||
२१५
J
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (कप्पोवगा) कल्पोत्पश्न देव (बारसहा ) बारह प्रकार के हैं (सोहम्मीसाणमा) सुबमं ईशान ( तहा) तथा ( सणकुमार) सतरकुमार (माहिदा ) महेन्द्र (बम्मलोगा) ब्रह्म (य) और (लतगा) लांतक ( महासुका) महासु (सहस्सारा) सहस्रा ()()() ( आरणा) आरण (चेक) और (अडवूया ) अच्युत देव लोक (६) ये हैं और इन्हीं के नामों पर से (कप्पोषगा) कल्पोत्पन्न ( सुरा) देवों के नाम भी हैं ।
भावार्थ : हे गौतम! कल्पोत्पान देवों के बारह भेद है और वे यों है(१) सुधर्म (२) ईशान ( ३ ) सनत्कुमार (४) महेन्द्र ( ५ ) ब्रह्म ( ६ ) लांतक (७) महाशुक ( ८ ) सहस्रार ( ६ ) आणत (१०) प्राणत ( ११ ) आरण और (१२) अच्युत ये देवलोक है। इन वर्गों के नाम पर से ही इनमें रहने वाले इन्दों के भी नाम हैं । कल्पातीत देशों के नाम यों हैं
मूल: --- कप्पाईया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया 1
गविज्जाणुत्तरा चैव गेविज्जानवविहा तहि ॥ २२॥
I
छाया:- कल्पातीतास्तु ये देवाः, द्विविधास्ते व्याख्याताः । ग्रैवेयका अनुत्तराश्चंव, ग्रैवेयका नवविधास्तत्र ||२२||
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रमूति ! (जे) जो (कप्पाईयाउ ) कल्पातीत देव है, (ते) ये (दुबिहा) दो प्रकार के (वियाहिया ) कहे गये हैं । (गेविज्ञ ) थेयक (देव) और (अणुत्तरा ) अनुत्तर ( तहि ) उसमें ( विज्ञ) बेयक ( नवविहा) नव प्रकार के है ।
भावार्थ: है गौतम ! कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं। एक तो वैयक और दूसरे अणुत्तर वैमानिक उनमें भी ग्रंवेयक नो प्रकार के और अणुत्तर पांच प्रकार के हैं ।
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1
निर्मश्य-प्रवचन
२१६
मूल:- हेट्टिमा हेट्टिमा चेव, हेट्टिमा मज्झिमा तहा । हेट्टिमा उवरिमा चेव, मज्झिमा हेट्टिमा तहा ॥२३॥ चेब,
मज्झिमा मज्झिमा मज्झिमा उवरिमा
उवरिमा हेट्टिमा चेव, उवरिमा मज्झिमा
तह ||२४||
उवरिमा उबरिमा चेव, इय गेविज्जगा सुरा । विजया वैजयंता य जयंता अपराजिया ||२५||
1
सव्वत्थसिद्धगा चैव, पंचाणुत्तरा सुरा । इइ बेमाणिया, एएऽरोगहा एवमायओ ॥ २६ ॥
छाया:- अधस्तनाधस्तनाश्चैव,
अधस्तनोपरितनाश्चैव
मध्यमामध्यमाश्चंच,
उपरितनाऽघस्तनाश्चैव उपरितनमध्यम | स्तथा ॥२४॥
1
सर्वार्थसिद्धकाश्चैव, इति वैमानिका एते,
तहा ।
उपरितनोपरितनाश्चैव इति मैवेयकाः सुरा ।
विजया वैजयन्ताश्च
"
अश्वस्तनामध्यमास्तथा ।
मध्यमाऽधस्तनास्तथा ||२३||
मध्यमोपरितनास्तथा ।
2
जयन्ता अपराजिताः ||२५||
पंचधानुत्तराः सुराः ।
अनेकधा
एवमाद्यः ||२६||
अभ्ययार्थः – हे इन्द्रभूति 1 (हट्टिमा हेट्टिमा) नीचे की त्रिक का नीचे वाला (चव ) और ( हिडिमा मज्झिमा) नीचे की त्रिक का बीच वाला | ( तहा) तथा (हेमा उवरिमा ) नीचे की त्रिक का ऊपर वाला ( चेथ) और (मसिमाहेठमा ) बीचको त्रिक का नीचे वाला (सहा) तथा ( मज्झिमा मज्झिमा) बीच की त्रिक का बीच वाला (वेव) और (मज्झिमा उवरिमा ) बीच की त्रिक का ऊपर वाला (सहा) तथा ( उवरिमाहेद्विमा) ऊपर की त्रिक का नीचे वाला
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नरक-स्वर्ग-निरूपण
२१७
(चव) और (उबरिमामज्झिमा) ऊपर की त्रिक का बीच वाला (तहा) तथा (जरिमा उरिमा) ऊपर की त्रिक का ऊपर वाला (इइ) इस प्रकार नौ मेदों से (गेविज्जगा) अवेयक के (सुरा) देवता हैं । (विजया) विजय (वजयम्सा) वैजयंत (य) और (जयंता) जयंस (अपराजिया) अपराजित (चेव) और (सम्वत्यसिद्धगा) सर्वार्थसिद्ध ये (गंचहा) पाँच प्रकार के (अणुत्तरा) अनुत्तर विमान के (सुरा) देवत्ता कहे गये हैं। (इइ) इस प्रकार (एए) ये मुख्य मुख्य (माणिया) वैमानिक देवों के भेद कहे गये हैं। और प्रती एकमाओ) आदि में (अणेगहा) अनेक प्रकार के हैं ।
भावार्थ:-हे गौतम ! बारह देवलोक से ऊपर नो वेयक जो हैं उनके नाम यों हैं--(१) भद्दे (२) सुम (३) सुजाय (४) सुमाणसे (५) सुदर्शने (६) प्रियदर्शने (७) अमोहे (८) सुपडिभद्दे और (६) यशोधर और पाव अनुत्तर विमान यों हैं- (१) विजय (२) वैजयंत (३) जयंत (४) अपराजित (५) सर्वार्थसिद्ध । ये सब वैमानिक देवों के भेद बताए गये हैं । मूल:---जेसि तु बिउला सिक्खा, मूलियं ते अइत्थिया ।
सीलबंता सवीसेसा, अदीणा जति देवयं ।।२७।।
(१) किसी एक साहूकार ने अपने तीन लड़कों को एक-एक हजार रुपया देकर व्यापार करने के लिए इतर देश को भेजा। उनमें से एक ने तो यह विचार किया कि अपने घर में खूब धन है। फिजूल ही व्यापार कर कौन कष्ट उठाने, अतः ऐशो आराम करके उसने मूल पूंजी को भी खो दिया। दूसरे ने विचार किया, कि व्यापार करके मूल पूंजी तो ज्यों की त्यों कायम रखनी चाहिए । परन्तु जो लाभ हो उसे एशो आराम में वर्ष कर देना चाहिए । और तीसरे ने विचार किया, कि मूल पूंजी को खूब ही बनाकर घर घसना चाहिए। इसी तरह वे तीनों नियत समय पर घर आये । एक मूल जी को खोकर. दूसरा मूल पूजी लेकर, और तीसरा मूल पूंजी को खूब ही बढ़ा कर घर आया । इसी तरह आत्माओं को मनुष्य-मष रूप मूल धन प्राप्त हुआ है। जो पारमाएँ मनुष्य भव कप मूल धन की उपेक्षा करके खूब पापाचरण करती हैं वे मनुष्य-मव को खो कर नरक और तिपंच योनियों में जाकर जाम धारण करती हैं। और जो आत्माएं पाप करने से पीछे हटती हैं, वे अपनी मूल पूंगी
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२१८
निग्रंप-प्रवचन
छाया:-येषां तु विपुला शिक्षा, मूलक तेऽतिकान्ताः ।
शीलवन्तः सविशेषाः, अदीना यान्ति देवत्वम् ।।२७।। अन्वयार्थ:---हे इण्ट्रभूति ! (जेसि) जिन्होंने (विउला) अत्यन्त (सिक्खा शिक्षा का सेवन किया है । (ते) वे (सोलर्वता) सदाचारी (सीसेसा) उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करने वाले (अवीणा) अदीन वृत्तिवाले (मूलियं) मूल धन रूप मनुष्य-मव को (अइस्थिया) उल्लंघन कर (देवयं) देव लोक को (जति)
भावार्थ:-हे गौतम ! इस प्रकार के देव लोकों में वे ही मनुष्य जाते हैं जो सदाचार रूप शिक्षाओं का अत्यन्त सेवन करते हैं। और त्याग धर्म में जिनको निष्ठा दिनोंदिन बढ़ती ही जाती है। वे मनुष्य, मनुष्य-भव को त्यागकर स्वर्ग में जाते हैं । मुल:--विसालिसेहिं सीलेहि, जक्खा उत्तरउत्तरा।
महासुक्का वदिपंता, मण्णता अपुणच्चवं ।।२८1 अप्पिया देवकामाणं, कामरूवविविणो।
उड्ढं कप्पेसु चिट्ठति, पुव्वा वाससया बहू ॥२६॥ छाया:-विसदृशः शीलः, यक्षा उत्तरोत्तराः ।
महाशुक्ला इव दीप्यमानाः, मन्यमाना अपुनश्चंवम् ।।२८।। अपिता देवकामान्, कामरूपवैक्रयिणः ।
ऊध कल्पेषु तिष्ठन्ति. पूर्वाणि वर्ष शतानि बहूनि ॥२६॥ रूप मनुष्य जन्म ही को प्राप्त होती हैं । परन्तु जो आत्मा अपना वश चलते सम्पूर्ण हिंसा, भूठ, चोरी, दुराचार, ममत्व आदि का परित्याग करके अपने स्याग धर्म में वृद्धि करती जाती हैं। वे सांसारिक सुख की दृष्टि से मनुष्य-मक रूपो मूल पूजी से भी बढ़ कर देव-योनि को प्राप्त होती हैं। अर्थात् स्वर्ग में जाकर वे आत्माएं जन्म धारण करती हैं और वहाँ नाना भांति के सुखों को भोगती हैं।
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मरक-स्वर्ग-निरूपण
२१६
अन्वयार्य:--हे इन्द्रभूति ! (विसालिसेहि) विसदृश अर्थात भिन्न-भिन्न (सोलेहि) सदाचारों से (उत्तरउत्तरा) प्रधान से प्रधान (महासुक्का) महाशुक्ल अर्थात बिलकुल सफेद चन्द्रमा की (ब) तरह (दिप्पंता) देदीप्यमान् (अपुणचवं) फिर चवना नहीं ऐसा (मण्णता) मानते हुए (कामरूपविउविणो) इच्छित रूप से बनाने वाले (बहू) बहुत (पुवावाससया) संकड़ों पूर्व वर्ष पर्यंत (उड) ऊंचे (कप्पेसु) देवलाक में (दयकामाथ) देवताओं के सुख प्राप्त करने के लिए (अप्पिया) अर्पण कर दिये हैं सदाचार रूप व्रत जिनने ऐसी आरमाएं (जक्खा) देवता बनकर (चिट्ठति) रहती हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! बात्मा अनेक प्रकार के समाचारों का सेवन कर स्वर्ग में जाती है । तब वह वहां एक से एक देदीप्यमान् शरीरों को धारण करती है। और वहाँ दश हजार वर्ष से लेकर कई सागरोपम तक रहती हैं। वहाँ ऐसी आत्माएं देवलोक के सुखों में ऐसी सीन हो जाती हैं, कि वहाँ से अब मानो वे कभी मरेंगी ही नहीं, इस तरह से घे मान बैठती हैं । मल:--जहा कुसग्गे उदग, समुण समं मिणे ।
__ एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए ॥३०॥ छायाः-यथा कुशाग्ने उदक, समुद्रण समं मिनुयात् ।
एवं मानुष्यका: कामाः देवकामानामन्तिके ॥३०॥ बन्वयार्य:-हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (कुसग्गे) घास के अग्रमाग पर फी (उदर्ग) जल की वू'द का (समुद्दे ण) समुद्र के (सम) साप (मिणे) मिलान किया जाय तो क्या वह उसके बराबर हो सकती है ! नहीं (एवं) ऐसे ही (माणुस्सगा) मनुष्य सम्बन्धी (कामा) काम भोगों के (अंतिए) समीप (देवकामाणं) देव सम्बन्धी काम मोगों को समझना चाहिए।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिस प्रकार घास के अग्रभाग पर की जल को बूंद में और समुद्र की जलराशि में भारी अन्सर है । अर्थात् कहाँ तो पानी की बंद और कहाँ समुद्र की जल राशि! इसी प्रकार मनुष्य सम्बधी काम मोगों के सामने देव सम्बन्धी काम भोगों को समाप्सना पाहिए। सांसारिक सुख का परम प्रकर्ष बताने के लिए यह कथन किया गया है । मात्मिक विकास की दृष्टि से मनुष्य भव वेवमय से श्रेष्ठ है।
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२२०
निग्रन्थ-प्रवचन
मूलः -- तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया । उवेंति माणुस जोगिऐ दशनाई ॥३१५ छाया: - तत्र स्थित्वा यथास्थानं यक्षा आयुः क्षये च्युताः । उपयान्ति मानुषीं योनि स दशांगोऽभिजायते ||३१||
P
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (तत्य) यहां देवलोक में ( जक्खा) देवता ( जहा ठाणं) यथास्थान (ठिच्चा ) रह कर ( आउस्लए) आयुष्य के क्षय होने पर वहाँ से (च्या) व्यव कर ( माणूस) मनुष्य (जोणि) योनि को ( उवेंति) प्राप्त होता है। और जहाँ जाती है वहाँ (से) वह (दसंगे) दस अंगवाला अर्थात् समृद्धिशासी ( अभिज्ञायई) होता है ।
भावार्थ: है गौतम यह जो आत्माएं शुभ कर्म करके स्वर्ग में जाती हैं, वहाँ अपनी आयुष्य को पूरा कर अवशेष पुण्यों से फिर से मनुष्य योनि को प्राप्त करती है । जिसमें भी यह समृद्धिशाली होती है ।
इस कथन का यह आशय नहीं समझना चाहिए कि देव गति के बाद मनुष्य ही होता है । देव तिर्यंच भी हो सकता है और मनुष्य मी, परन्तु यहाँ उत्कृष्ट आत्माओं का प्रकरण है इसी कारण मनुष्य गति की प्राप्ति कही गई है ।
मूल:-- खित्तं वत्युं हिरण्णं च पसवो दासपोरुसं ।
चत्तारि कामखंघाणि, तत्थ से उववज्जई ॥ ३२ ॥
छाया: -- क्षेत्रं वास्तु हिरण्यञ्च पशवा दासपौरुषम् । कामस्कन्धाः, तत्र स उत्पद्यते ॥ ३२ ॥
चत्वारः
,
(१) एक वचन होने से इसका आशय यह है अन्यत्र कहे हुए हैं । उनमें से देवलोक से व्यय कर कितनी आत्माओं को तो समृद्धि के नौ ही अंग प्राप्त होते हैं को आठ । इसीलिये एक वचन दिया है ।
कि समृद्धि के दश अंग
मृत्यु सोक में जाने वाली
और किसी
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नरक-स्वर्ग-निरूपण
२२१
अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (वित्त) क्षेत्र जमीन (वस्थु) घर वगैरह (थ) और सोना-चांदी (पसवो) गाय-मैस वगैरह (दास) नौकर (पोस) कुटुम्बी अन, इस तरह से (चत्तारि) ये चार (कामखंघाणि) काम मोगों का समूह बहुतायत से है, (तत्य) वहां पर (से) यह (उबवज्जई) उत्पन्न होता है ।।
भावार्य:- हे गौतम ! जो आत्मा गृहस्थ का यथातथ्यधर्म तथा साधुनत पाल कर स्वर्ग में जाती है. वह वहां से च्यव कर ऐसे गृहस्थ के घर जन्म लेती है, कि जहां (१) जुली जमीन अर्थात् बाग वर्गरह, खेत वगैरह (२) ढंकी जमोन अर्थात् मकानात वगैरह (३) पशु भी बहुत हैं और (४) नौकर चाकर एवं कुटुम्बी जन मी बहुत है, इस प्रकार को यह चार प्रकार के काम मोगों की सामग्री है उसे समृद्धि का प्रथम अङ्ग कहते हैं । इस अंग की जहां प्रचुरता होती है वहां स्वर्ग से आने वाली आत्मा जन्म लेती है। और साथ ही में जो आगे नौ अंग कहेंगे वे भी उसे वहाँ मिलते हैं। मल:--मित्तवं नाइ होइ, उचोर म दान ।
अप्पायके महापण्णे, अभिजाए जसोबले ॥३३॥ छाया:--मित्रवान् ज्ञातिवान् भवति, उच्चैर्गोत्रो वीर्यवान् ।
अल्पालङ्को महाप्राज्ञः, अभिजातो यशस्वी बली ॥३३॥ मापयार्य :-हे इन्द्रमूति ! स्वर्ग से आने वाला जीव (मित्त यं) मित्र वाला (नाइव) कुटुम्ब वाला (उत्वगोए) उच्च गोर बाला (वण्णव) कांति वाला (अप्पाय के) अल्प व्याधि पाला (महापणे) महान् बुद्धि वाला (अभिजाए) विनय वाला (जसो) यशवाला (य) और (बले) बल बाला (होइ) होता है।
भाषापः-हे गौतम ! स्वर्ग से आये हुए जीव को समृद्धि का झंग मिलने के साथ ही साथ (१) वह अनेकों मित्रों वाला होता है । (२) इसी तरह कुटुम्बी जन भी उसके बहुत होते हैं (३) इसी तरह वह उच्च गोत्र वाला होता है। (४) अल्प व्याधिवाला (५) रूपवान् (६) विनयवान् (७) यशस्थी (८) बुद्धिशाली एवं (९) बली, वह होता है ।
॥ इति सप्तदशोऽध्याय:॥
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॥ॐ॥
निग्रन्थ-प्रवचन (अध्याय अठारहवा)
मोक्ष-स्वरूप
॥ श्रीभगवानुवाच ॥ मूल:-आणाणिद्दे सकरे, गुरुणमुववायकारए।
इंगियागारसंपन्ने, से विणीए त्ति बुच्चई ।।१।। छापा:-आज्ञानिर्देशकरः, गुरुणामुपपातकारकः ।
इङ्गिताकारसम्पन्न:, स विनीत इत्युच्यते ॥१।। प्रावयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (आगाणिद्देसकरे) जो गुरु जन एवं बड़े-बूढ़ों की न्याययुक्त बातों का पालन करने वाला हो, और (गुरुणं) गुरु जनों के (उवधायकाराए) समीप रहने वाला हो, और उनकी (इंगियागारसंपन्ने) कुछेक भकटी आदि चेष्टाएँ एवं आकार को जानने में सम्पन्न हो (से) वही (विणीए) विनीत है (त्ति) ऐसा (वुमई) कहा है।
भावार्थ:-हे गोतम ! मोक्ष के साधन रूप विनम्र मावों को धारण करने वाला विनीत है, जो कि अपने बड़े-बड़े गुरुजनों तथा आप्त पुरुषों की आज्ञा का यथायोग्य रूप से पालन करता हो, उनकी सेवा में रह कर अपना बहोभाग्य समझता हो, और उनकी प्रवृत्ति निवृत्ति सूचक मकुटी आदि चेष्टाओं तथा मुखाकृति को जानने में जो कुशल हो, वह विनीत है | और इसके विपरीत जो अपना बर्ताव रखने पासा हो, अर्थात् बड़े बूढ़े गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन करता हो, तथा उनकी सेवा की जो उपेक्षा करे, वह अविनीत है या पृष्ट है।
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मोक्ष-स्वरूप
मूलः -- अणुसासिओ न कुपिज्जा, खंति से विज्ज सह संसारंग,
पंडिए ।
हासं कोडं च वज्जए || २ ||
छाया:- अनुशासितो न कुप्येत्, क्षान्ति सेवेत पण्डितः । क्षुद्रे, सह संसर्ग, हास्यं क्रीडां च वर्जयेत् ॥२॥
खुड्डु हि
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रमूति ! (पंडिए) पंडित वही है, जो ( अणुसासिओ) शिक्षा देने पर (न) नहीं (कुप्पिज्जा ) क्रोष करे, और (संति) क्षमा को (सेविज्ञ) सेवन करता रहे। (खुड्ड हि) बाल अज्ञानियों के ( सह) साथ ( संसग्गि ) संसर्ग ( ह्रासं) हास्य (च) और (को) कोटा को ( वज्जर) त्यागे ।
भावार्थ - हे गौतम! पंडित कही है, जो कि शिक्षा देने पर क्रोध न करे और क्षमा को अपना अंग बनाले | तथा दुराचारी और अज्ञानियों के साथ कभी भी हंसी-ठट्टा न करें, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है ।
सूलः -- आसणगओ ण पुच्छेज्जा,
खेव सेज्जागओ कयाइवि ।
२२३
आगमुक्कुडुओ संतो, पुच्छेज्जा
पंजलीउड ||३||
छाया:- आसनगतो न पृच्छेत् नैव शय्यागतः कदापि च । आगम्य उत्कुटुकः सन् पृच्छेत् प्राञ्जलिपुटः ||३||
अभ्ययार्थ- हे इन्द्रभूति ! गुरुजनों से (आसणगओ) आसन पर बैठे हुए कोई भी प्रश्न (ण) नहीं (पुच्छेज्जा) पूछना और ( कयाइवि ) कदापि ( सेज्जागओ) शय्या पर बैठे हुए भी (ण) नहीं पूछना, हाँ ( आगमुक्कुडओ) गुरुजनों के पास आकर उकई आसन से ( सन्तो) बैठकर (पंजलीशो) हाथ जोड़ कर (पुच्छेज्जा) पूछना चाहिए ।
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२२४
निग्ध-प्रवचन
भावार्थ:-- हे गौतम ! अपने बड़े-बूढ़े गुरुजनों को कोई भी बात पूछना हो तो आसन पर बैठे हुए या शयन करने के विछोने पर बैठे हो बैठे कमी नहीं पूछना चाहिए। क्योंकि इस तरह पूछने में गुरुजनों का अपमान होता है। और जान की प्राप्ति भी नहीं होती है। अतः उनके पास जा कर उकडू आसन' से बैठ कर हाथ जोड़कर प्रत्येक बात को गुरु से पूछ । मूल:--जं मे बुद्धाणुसासंति, सीएण फरसेण वा ।
मम लाभो ति पेहाए, पयो तं पडिस्सुरो ।।४।। छायाः-यन्मां बुद्धा अनुशासन्ति, शीतेन परुषेण वा।
मम लाभ इति प्रेक्ष्य, प्रयतस्तत् प्रतिशृणुयात् ॥४॥ अम्वयार्थ - हे इन्द्रभूति ! (बुद्धा) बड़े-बूढ़े गुरुजन जं) जो शिक्षा दें, उस समय यो विधार करना चाहिए, कि (मे) मुझे (सीएण) शीतल (4) अथवा (फरसेण) कटोर शब्दों से (अणुसासंति) शिक्षा देते हैं । यह (मम) मेरा (लामो) लाम है (त्ति) ऐसा (पहाए) समझा कर षट्कायों की रक्षा के लिए (पययो) प्रयत्न करने वाला महानुभाव (तं) उस बात को (पहिस्सुणे) श्रवण करें।
भावा हे गौतम ! बड़े-बूढ़े व गुरुजन मधुर या कठोर पाब्दों में शिक्षा दें, उस समय अपने को यों विचार करना चाहिए, कि जो यह शिक्षा दी जा रही है, वह मेरे लौफिक और पारलौकिक सुस्त्र के लिए है । अत: उनकी अमूल्य शिक्षाओं को प्रसन्नचित्त से श्रवण करते हुए अपना अहोभाग्य समझना चाहिए । मूल:-हियं विगयभया बुद्धा, फरुसं पि अणुसासणं ।
वेसं तं होइ मुढाणं, खंतिसोहिकरं पयं ।।५।। छाया:-हितं विगतभया बुद्धाः, परुषमप्यनुशासनम् ।
द्वेषं भवति मूद्वानां, शान्तिशुद्धिकरं पदम् ।।५।। सम्बयार्प-है इन्द्रभूति ! (चिगयमया) घसा गया हो भय जिससे ऐसा (बुद्धा) तत्त्वज्ञ, विनयशील अपने बड़े-बूढ़े गुरुजनों की (फरस) कठोर (अगु१ Sitting on kneels.
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मोक्ष-स्वरूप
२२५
सासणं) शिक्षा को (पि) भी (भियं) हितकारी समझता है, और (मूढाणं) मूर्ख, "अविनीत" (खतिसोहिकर) क्षमा उत्पन्न करने वाला, तथा आत्म-शुद्धि करने बाला, ऐसा जो (पय) जान रूप पद (त) उसको श्रवण कर (नेस) देष युत (होम) हो जाता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिसको किसी प्रकार की चिन्ता मय नहीं है, ऐसा जो तत्त्वज्ञ, विनयवान महानुभाव अपने बड़े-बूढ़े गुरुजनों की अमूल्य शिक्षाओं को कठोर शब्दों में भी श्रवण करके उन्हें अपना परम हितकारी समझता है । और जो अविनीत मूर्ख होते हैं, वे उनको हितकारी और श्रवणसुखद शिक्षाओं को सुन कर द्वेषानल में जल भरते हैं । मल:--अभिक्खण कोही हवइ, पबंधं च पकूदई ।
मेत्तिज्जमाणो वमइ, सुय लद्धू ण मज्जई ॥६॥ अवि पावपरिक्वेवी, अवि मित्तेसु कृप्पई । सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासई पावगं ॥७॥ पइण्णवाई दुहिले, थद्धे लुद्ध अणिग्गहे ।
असंविभागी अवियत्ते, अविणीए त्ति वुच्चई ।।८।। छाया:-अभीक्ष्णं क्रोधी भवति, प्रबन्धं च प्रकरोति ।
मैत्रीयमाणो वमति, श्रुतं लब्ध्वा माद्यति ।।६।। अपि पापपरिक्षेपी, अपि मिश्रेभ्य: कुप्यति । सुप्रियस्यापि मित्रस्य, रहसि भाषत पापकम् ।।७।। प्रकीर्णवादी द्रोहशीलः, स्तब्धो लुब्धोऽनिग्रहः ।
असंविभाग्यनीतिकरः, अविनयीतत्युच्यते ।।८।। अग्णयार्थ-हे इन्द्रभूति ! (अगिवलणं) बार-बार (कोही) कोष युत (हबर) होता हो (च) और सदर (पबंध) कलहोत्पादक कथा ही (पकुब्बई) करता हो (मैत्तिज्जमाणो) मंत्रीभाव को (वमई) वमन करे (सुर्य) श्रुतज्ञान को (लब्रूण) पाकर (मज्जई) मद करे (पावपरिकलेबी) बड़े-बूढ़े व गुरुजनों की न कुछ मूल को भी निषा रूप में करता (अवि) ही रहे (मित्तेसु) मित्रों पर
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२२६
निग्रंन्य-प्रवचन (अवि) भी (कुष्पइ) क्रोध करता रहे (सुप्पियस्स) सुप्रिय (मित्तस्स) मित्र के (अवि) भी (रहे) परोक्ष रूप में उसके (पावर्ग) पाप दोष (भासई) कहता हो । (पइण्णवाई) सम्बन्ध रहित बहुत बोलने वाला हो, (दुहिले) द्रोही हो (यो) घमण्डी हो । (लुद्धे) रसादिक स्वाद में लिप्त हो (अणिग्गहे) अनि ग्रहीन इन्द्रियों चाला हो (असंविभागी) किसी को कुछ नहीं देता हो (अवियत्त) पूछने पर भी अस्पष्ट बोलता हो, वह (अविणीए) अविनीत है । (ति) ऐमा (बुकचाइ) ज्ञानोअर कदत हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! जो सदेव क्रोध करता है, जो कलहोत्पादक रातें ही नयी-नयी घड़ कर सदा कहता रहता है, जिसका हृदय मंत्री मावों से विहीन हो, शान सम्पादन करके जो उसके गर्व में चूर रहता हो, अपने बड़े-बूढ़े 4 गुरुजनों की न कुछ सी भूलों को भी भयंकर रूप जो देता हो, गपने प्रगाढ़ मित्रों पर भी क्रोध करने से जो कमी न कता हो, घनिष्ट मित्रों का भी उनके परोक्ष में दोष प्रकट करता रहता हो, वाक्य या कथा का सम्बन्ध न मिलने पर भी जो वाचाल की मांति बहुत अधिक बोलता हो, प्रत्येक के माथ दोह किये बिना जिसे चैन ही नहीं पड़ता हो, गर्व करने में भी जो कुछ कोर कसर नहीं रखता हो, रसादिक पदार्थों के स्वाद में सदैव आसक्त रहता हो, इन्द्रियों के द्वारा जो पराजित होता रहता हो, जो स्वयं पेटू हो, और दूसरों को एक कौर भी कमी नहीं देता हो और पूछने पर भी जो सदा अनजान को ही भांति छोलता हो, ऐसा जो पुरुष है, वह फिर चाहे जिस जाति, कुल व कोम का क्यों न हो, अविनीत है, अर्थात् अविनयपील है। उसकी इस लोक में तो प्रशंसा होगी। ही क्यों ? परन्तु परलोक में भी यह अधोगामी बनेगा। मुल:--अह पण्णरसहि ठाणेहि, सुविणीए त्ति वुच्चई ।
नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुछहले ।।६।। छाया:-अथ पञ्चदशभिः स्थानः, सुविनीत इत्युच्यते ।
नीचवृत्यचपलः, अमाय्यकुतूहल: || अन्वयार्प:- हे इन्द्र भूति ! (अह) अब (पण रसहि) पन्द्रह (ठाणेहि) स्थानों, बातों से (सुषिणीए) अच्छा विनीत है (त्ति) ऐसा (बुच्चई) ज्ञानी बन्न पाहते हैं । और वे पन्द्रह स्थान यो हैं। (नीयावित्ती) नम्र हो, बड़े-बूढ़े ।
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मोक्ष -स्वरूप
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गुरुजनों के आसन से नीचे बैठने वाला हो, (अचवले ) चपलता रहित हो (माई) निष्कपट हो ( अऊहले) कुतुहल रहित हो ।
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भावार्थ:- हे गौतम! पन्द्रह कारणों से मनुष्य विनम्र शीलवान् या विनीत कहलाता है - वे पन्द्रह कारण यों हैं (१) अपने बड़े-बूढ़े व गुरुजनों के साथ नम्रता से जो बोलता हो, (२) उनसे नीचे आसन पर बैठता हो, पूछने पर हाथ जोड़ कर बोलता हो; दोलने, चलने, बैठने आदि में जो चपलता न दिखाता हो ( ३ ) सदैव निष्कपट भाव से जो बर्ताव करता हो (४) खेल तमाशे, आदि कौतुकों के देखने में उत्सुक न हो ।
मूलः -- अप्पं चाहिक्खिवई, पबंधं च न कुब्बई । मेत्तिज्जमाणो भयई, सुयं लद्ध न मज्जई ॥१०॥ न य पावपरिस्वी न यो कु अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई ॥ ११॥ कलहडमरवज्जए, बुद्ध अभिजाइए । हिरिमं पडिलीणे, सुविणीए ति बुच्चई || १२ ||
"
छाया: -- अल्पं च अधिक्षिपति, प्रबन्धं च न करोति । मंत्रीषमाणो भजते श्रुतं लब्ध्वा न माद्यति ॥ १० ॥ न च पापपरिक्षेणी, न च मित्रेषुः कुप्यति । अप्रियस्यापि मित्रस्य, रहसि कल्याणं भाषते || ११|| कलहडमरवर्जकः,
बुद्धोऽभिजातकः । होमान् प्रतिसंलीनः सुविनीत इत्युच्यते ॥ १२ ॥
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अग्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (अहिविस्ववई ) बड़े-बूढ़े तथा गुरुजन आदि किसी का भी जो तिरस्कार न करता हो (घ) और (पबंध) कसहोत्पादक कमा (न) नहीं ( कुब्बई) करता हो, (मेन्तिज्जमाणो ) मित्रता को (भयई) निभाता हो, (सुर्य) श्रुतज्ञान को (लद्ध ) पा करके जो (न) नहीं (मज्जई) भद करता हो (य) और (न) नाही करता हो ( पावपरिक्लेवी ) बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों की
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निर्मन्थ-प्रवचन
कुछेक मूल को (य) और (मितेसु) मित्रों पर (न) नहीं ( कुप्यई) क्रोध करता हो ( अपियरस) अप्रिय ( मित्तस्स ) मित्र के ( रहे) परोक्ष में (अत्रि ) भी, उसके (कल्ला ) गुणानुवाद ( मासई) बोलता हो, ( कलहडमरवज्जए) वाक्युद्ध और काया युद्ध दोनों से अलग रहता हो, (बुद्ध) वह तत्त्वज्ञ फिर ( अभिजाइए) कुलीनता के गुणों से युक्त हो, (हिरिमं) लज्जावान हो, (पहिलीणे ) दन्द्रियों पर विजय पाया हुआ हो, वह (सुविणोए) विनीत है। (त्ति ) ऐसा जारी जन (कहते है।
भावार्थ: है गौतम ! फिर तत्दन महानुभाव (५) अपने बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों का कभी तिरस्कार नहीं करता हो (६) टण्टे फसाद की बातें न करता हो ( ७ ) उपकार करने वाले मित्र के साथ बने वहाँ तक पीछा उपकार ही करता हो, यदि उपकार करने की शक्ति न हो तो अपकार से तो सदा सर्वदा दूर ही रहता हो ( ८ ) ज्ञान पा कर घमण्ड न करता हो ( ६ ) अपने बड़े-बुढे तथा गुरुजनों की कुछेक मूल को भयंकर रूप न देता हो (१०) अपने मित्र पर कभी भी क्रोध न करता हो (११) परोक्ष में भी अप्रिय मित्र का अवगुणों के बजाय गुणगान हो करता हो (१२) वाक् युद्ध और काया युद्ध दोनों से को कतई दूर रहता हो, (१३) कुलीनता के गुणों से सम्पन्न हो (१४) लज्जावान् अर्थात् अपने बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों के समक्ष नेत्रों में शरम रखने वाला हो (१५) और जिसने इन्द्रियों पर पूर्ण साम्राज्य प्राप्त कर लिया हो, वहीं विनीत है । ऐसे ही की इस लोक में प्रशंसा होती है और परलोक में उन्हें शुभ गति मिलती है ।
मूलः - जहा हि अग्गी जलण नमसे,
नाणाहुई मंतपयाभिसत्तं । एवायरियं उवचिट्ठइज्जा,
अनंतनाणोवगओ वि संतो ॥१३॥
छाया: - यथाहिताग्निज्वलनं नमस्यति,
एवमाचार्यमुपतिष्ठेत्,
नानाऽऽहृतिमंत्रिपदाभिषिक्तम् ।
अनन्तज्ञानोपगतोऽपि सन् ||१३||
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मोक्ष-स्वरूप
२२९
अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जहा) से (आहिअग्गी) अग्निहोत्री ब्राह्मण (जलणं) अग्नि को (नमसे) नमस्कार करते हैं । तथा (नाणा हुई मंतपयामिसत्तं) नाना प्रकार से घी प्रक्षेप रूप आहुति और मंत्र पदों से उसे सिंचित करते हैं (एवायरियं) इसी तरह से बड़े-बूढ़े व मुरुजन और आचार्य की (अणंतनागोवगओसंतो) अनन्त ज्ञान मुत् होने पर (वि) मी (उचिट्ठाजा) सेवा करनी ही पाहिए।
भावार्थ:- हे गौतम ! जिस प्रकार अग्निहोत्र ब्राह्मण अग्मि को नमस्कार करते हैं, और उसको अनेक प्रकार से घी प्रक्षेप रूप आहुति एवं मंत्र पदों से सिंचित करते हैं इसी तरह पुत्र और शिष्यों का कर्तव्य और धर्म है कि चाहे धे अनन्त ज्ञानी भी क्यों न हों उनको अपने बड़े-बूढ़े और गुरुजनों एवं आचार्य की सेवा शुश्रूषा करनी ही चाहिए । जो ऐसा करते हैं, वे ही सचमुष में विनीत हैं। मूल:-आयरियं कुवियं णच्चा, पत्तिएण पसायए।
विज्झवेज्ज पंजलीउडो, वइज्ज ण पुणुत्ति य ॥१४॥ छाया:- आचार्य कुपितं ज्ञात्वा, प्रीत्या प्रसादयत् ।
विध्यापयेत् प्राञ्जलिपुटः, वन्न पुनरिति च ||१४|| अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (आरिय) आचार्य को (कुपियं) कुपित (णच्चा१) जान कर (पत्तिएण) प्रीतिकारक शब्दों से फिर (पसायए) प्रसन्न फरे (पंजलीउडो) हाथ जोड़ कर (विज्झज्ज) शान्त करे (य) और (ण पुणुत्ति) फिर ऐसा अविनय नहीं करूंगा ऐसा (वइज्ज) बोले ।।
भावार्थ:-हे गोतम ! बड़े-बूढ़े गुरुजन एवं आचार्य अपने पुत्र शिष्यादि के अविनय से कुपित हो उठे तो प्रीतिकारक शन्दों के द्वारा पुनः उन्हें प्रसन्न
(१) कई जगह "णच्या" की जगह 'नच्चा' मी मूल पाठ में आता है । ये दोनों शुद्ध हैं । क्योंकि प्राकृत में नियम है, कि "नो णः" नकार का कार होता है । पर शब्द के आदि में हो तो वहाँ वा आदो' इस सूम से नकार का णकार विकल्प से हो जाता है। अर्थात् नकार या णकार दोनों में से कोई भी एक हो।
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२३०
निग्रंन्य-प्रवचन
चित्त करे, हाथ जोड़-जोड़ कर उनके क्रोध को शारत करे, और यों कहकर कि “इस प्रकार" का अविनय या अपराध आगे से में कमी नहीं करूंगा, अपने अपराध की क्षमा याचना करे । मूल:---णच्चा णमई मेहावी, लोए कित्ती से जायइ ।
हबई किच्चाण सरण, भूयाणं जगइ जहा ।।१५|| छाया:-ज्ञात्वा नमति मेधावी, लोके कीर्तिस्तस्य जायते ।
भवति कृत्यानां शरणं, भूतानां जगती यथा ॥१५॥ अन्वयार्थः -हे इन्द्रभूलि ! इस प्रकार विनय को महत्ता को पच्चा) जान कर (मेहावी) बुद्धिमान् मनुष्य (णमई) विनयशील हो, जिससे (से) वह (लोए) इस लोक में (कित्ती) कीर्ति का पात्र (जायइ) होता है । (बहा) जैसे (भूयाण) प्राणियों को (जगई) पृथ्वी आश्रयभूत है, ऐसे ही विनीत महानुभाव (क्रिच्चाण) पुण्य क्रियाओं का (सरणं) आश्रयरूप (हबइ) होता है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! इस प्रकार विनय की महत्ता को ममा कर बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि इस विनय को अपना परम सहचर सखा बनाले । जिससे वह इस संसार में प्रशंसा का पात्र हो जाय । जिस प्रकार यह पृथ्बी सभी प्राणियों को आश्रयरूप है, ऐसे ही दिनयशील मानव भी सदाचार हप अनुष्ठान का आश्रयरूप है । अर्थात् कृत कर्मों के लिए खदान रूप है । मल:----स देवगंधवमणुस्सपूइए,
चइत्त देहं मलपंकपुब्वयं । सिद्ध वा हवइ सासए,
देवे वा अप्परए महिडिए ॥१६॥
छाया:--स देवगन्धर्व मनुष्य पूजितः,
त्यक्त्वा देह मलपङ्क पूर्वकम् । सिद्धो भवति शाश्वतः,
देवो वापि महद्धिकः ।।१६।।
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मोम-स्वरूप
२३१
अन्वयार्थः -- हे इन्द्रभूति (देवगंधण्यमस्सइए) देव, गंधर्व और मनुष्य से पूजित (स) वह विनयशील मनुष्य (मलपंकपुब्वयं) रुधिर और वीर्य से बनने वाले (देह) मानव शरीर को (चतु) छोड़ करके (सास ए ) शाश्वत (सिद्ध वा ) fa (s) होता है ( ) अथवा ( अप्परए) अल्प कर्म वाला (महिड्डिए) महा ऋद्धिवान (देवे ) देवता होता है ।
भावार्थ :- हे गौतम! देव, गंध और मनुष्यों के द्वारा पूजित ऐसा वह विनीत मनुष्य रुधिर और वीर्य से बने हुए इस शरीर को छोड़कर पाश्वत सुखों को सम्पादन कर लेता है । अथवा अल्प कर्म वाले महा ऋद्धिवान देवों को श्रेणी में जन्म धारण करता है। ऐसा ज्ञानी जनों ने कहा है ।
मूल:---- अतिथ एगं धुवं ठाणं, लोगग्गम्मि दुरारुहं । जत्थ नत्थि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा ॥ १७॥
छाया: - अस्त्येकं ध्रुवं स्थानं, लोकाग्रे दुरारोहम् ।
यत्र नास्ति जरामृत्यु, व्याधयो वेदनास्तथा ॥ १७॥
अन्वयार्थ — इन्द्रभूति (लोगगम्मि) लोक के अग्र भाग पर (दुरारुहं ) कठिनता से चढ़ सके ऐसा ( एगं) एक ( भुवं ) निश्चल ( ठाणं) स्थान (अस्मि) है । (जस्थ ) जहाँ पर (जरामच्चू) जरामृत्यु ( वाहिणो) व्याधियों ( तहा) तथा (वेपणा) वेदना (नरिथ) नहीं है ।
भावार्थ :- हे गोतम ! कठिनता से जा सके, ऐसा एक निश्चल, लोक के अन भाग पर, स्थान है । जहाँ पर न वृद्धावस्था का दुख है और न व्याधियों ही की लेन-देन है तथा शारीरिक व मानसिक वेदनाओं का भी वहाँ नाम नहीं है ।
खेमं सिलमणा बाहं,
मूल:- निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोगगमेव य । जं चरंति महेसिणो || १८ || सिद्धिर्लोकाग्रमेव च । यच्चरन्ति महर्षयः ||१८||
छाया: - निर्वाणमित्यबाधमिति,
क्षेमं शिवमनाबाधं,
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
अन्वयार्थ हे इन्द्रभूति ! वह स्थान (निम्वाणंति) निर्वाण (अनाहं ति) अबाष (सिद्ध) सिद्धि (म) और (एव) ऐसे ही (लोग) लोकाय (खेमं ) क्षेम (सिव) शिव (अणाबाह) अनाबाध, इन शब्दों से भी पुकारा जाता है। ऐसे ( जं) उस स्थान को (महेसिणो) महर्षि लोग ( चरति ) जाते है ।
२३२
भावार्थ :- हे गौतम! उस स्थान को निर्वाण भी कहते हैं, क्योंकि वह आत्मा के सर्व प्रकार के संतापों का एकदम अभाव रहता है । अबाधा भी उसी स्थान का नाम है, क्योंकि वहाँ आत्मा को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती है । उसको सिद्धि भी कहते हैं, क्योंकि आश्मा ने अपना दच्छित कार्ये सिद्ध कर लिया है। और लोक के अग्र भाग पर होने से लोकान भी उसी स्थान को कहते हैं । फिर उसका नाम क्षेम भी है, क्योंकि यहाँ आत्मा को शाश्वत सुख मिलता है । उसी को शिव भी कहते हैं, क्योंकि आत्मा निरुपद्रव होकर सुख मोती रहती है। इसी तरह उसको अनाबाध' भी कहते है क्योंकि वहाँ गयी दुई आत्मा स्वाभाविक सुखों का उपभोग करती रहती है, किसी भी तरह की बाधा उसे वह नहीं होती। इस प्रकार के उस स्थान को संयमी जीवन के बिताने वाली आत्माएँ शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त करती है।
मूल:- नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा ।
एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छति सोग्गई ॥ १६ ॥ छाया: - ज्ञानं च दर्शनं चैव चरित्रं च तपस्तथा । एतन्मार्गमनुप्राप्ताः जीवा गच्छन्ति सुगतिम् ॥ १६ ॥
!
अग्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (नाणं) ज्ञान (च) और (दंसणं) श्रद्धान (चेक) और इसी तरह (चरितं ) चारित्र ( प ) और (तहा) वैसे ही तवो) तप (एयं ) इन चार प्रकार के ( मग्गं) मार्ग को (अणुध्वसा) प्राप्त होने पर ( जीवा ) जीव ( सोग्ाई) मुक्ति गति को (गच्छंति) प्राप्त होते है ।
भावार्थ: है गौतम ! इस प्रकार के मोक्ष स्थान में यही जीव पहुंच पाता है, जिसे सम्यक ज्ञान है, वीतरागों के वचनों पर जिसे श्रद्धा है, जो चारित्रवान है और तप में जिसकी प्रवृत्ति है। इस तरह इन चारों मार्गों को यथाविधि १ Natural happiness.
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मोक्ष-स्वरूप
२३३
जो पालन करता रहता है। फिर उसके लिए मुक्ति कुछ भी दूर नहीं है। क्योंकिमूलः --नाणेण जाणई भावे, दसरणेण य सद्दहे।
चरित्रोण निगिण्हइ, तवेण परिसुज्झई ॥२०॥ छायाः-ज्ञानेन जानामि भावान दर्शनेन च श्रद्धते ।
चारित्रेण निगृह्णाति, तपसा परिशुद्धयति ॥२०॥ अन्याः - है इस भूति ! (नाणेण) ज्ञान से (मावे) जीवादिक तत्वों को (जाणई) जानता है (य) और (दसणण) दर्शन से उन तत्त्वों को (सद्दहे) श्रद्धता है । (चरितण) पारित्र से नवीन पाप (निगिण्डइ) रुकता है। और (तवेण) सपस्या करके (परिसुजाई) पूर्व संचित कर्मों को क्षय कर डालता है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! सम्यकजान के द्वारा जीव तात्त्विक पदार्थों को भलीभांति जान लेता है। दर्शन के द्वारा उसकी उनमें श्रद्धा हो जाती है। चारित्र अर्थात् सदाचार से मावी नवीन कर्मों को वह रोक लेता है। और सपस्या के द्वारा करोड़ों भवों के पापों को वह क्षय कर डालता है। मल:-नाणस्स सव्वस्स पगासणाए,
अण्णाण मोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं,
__एगतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥२१॥ छाया:-ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया, अज्ञानमोहस्य विवर्जनया।
रागस्य द्वेषस्य च संक्षयेण, एकान्तसौख्यं समुपैति मोक्षम् ॥२१॥ अन्वयार्थ:-- हे इन्द्रभूति ! आत्मा (मन्वस्स) सर्व (माणस्स) ज्ञान के (पगासणाए) प्रकाशित होने से (अण्णाणमोहस्स) अज्ञान और मोह के (विवज्जणाए) छूट जाने से (य) और (रागस्स) राग (दोसस्स) उष के (संखएण) क्षय हो जाने से (एगंतसोक्ख) एकान्त सुख रूप (मोक्ख) मोक्ष को (समुवेह) प्राप्ति करता है।
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२३४
निग्रंन्य-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम ! सम्यक्सान के प्रकाशन से, अज्ञान, अथद्धान् के, छूट जाने से और राग-द्वेष के समूल नष्ट हो जाने से, एकान्त सुख रूप जो मोक्ष है, उसकी प्राप्ति होती है। मृल:-सव्वं तओ जाणइ पासए य,
___ अमोहरो होइ निरंतराए । अणासवे झाणसमाहिजुत्ते,
आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्ध ॥२२॥
छाया:-सर्वं ततो जानाति पश्यति च,
अमोहनो भवति निरन्तरायः । अनास्रबो ध्यानसमाधियुक्तः,
__ आयुःक्षये मोक्षमुपैति शुद्धः ।।२२।।
अन्वयार्थ:-हे द्रभूति ! (तओ) सम्पूर्ण ज्ञान के हो जाने के पश्चात (सव्वं) सर्व जगत् को (जाणा) जान लेता है। (य) और (पासए) देख नेता है । फिर (अमोहणे) मोह रहित और (अणासवे) आसप रहित (होइ) होता है । (माणसमाहिबुत) शुक्लध्यान रूप समाधि से युक्त होने पर वह (आजक्खए) आयुष्य क्षय होने पर (सुद्ध) निर्मल (मोक्ख) मोम को (उवेइ) प्राप्त होता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! शुक्लध्यान रूप समाधि से युक्त होने पर वह जीव मोह और अन्तराय रहित हो जाता है । तया वह सर्व लोक को जान लेता है और देख लेता है । अर्थात् शुक्लध्यान के द्वारा जीव चार घनघातिया कर्मों का नाश करके इन चार गुणों को पाता है। तदनम्तर आय आदि चार अघातिया कर्मों का नाश हो जाने पर वह निर्मल मोक्ष स्थान को पा लेता है ।
मूस:-सुक्कमूले जहा रुक्खे, सिच्चमारणे ण रोहति ।
एवं कम्मा ण रोहंति, मोहणिज्जे खयगए ।।२३।।
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मोक्ष-स्वरूप
२३५ छायाः-शुष्कमूलो यथा वृक्षः, सिञ्चमानो न रोहति ।
एतं कर्माणि न रोहन्ति मोहनीये क्षयंगते ।।२३।। सम्वयार्थः-- हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (सुक्काले) सुख भया है मूल जिसका ऐसा (रुक्खे) वृक्ष, (सिंचमाणे) सींचने पर (ण) नहीं (रोहति) लहलहासा है (एव) उसी प्रकार (मोहणिज्जे) मोहनीय कर्म (वयंमए) क्षय हो जाने पर पुनः (कम्मा) फर्म (ण) नहीं (रोहति) उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ-हे गोतम ! जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो उसे पानी से सींचने पर भी वह लहलहाता नहीं है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर पुनः कर्म उत्पन्न नहीं होते हैं। क्योंकि, जब कारण ही नष्ट हो गया, तो फिर कार्य कैसे हो सकता है ? मुल:-जहा दद्धाणं बीयाणं, ण जाति पुर्णकुरा ।
कम्मबीएसु दड्ढेस, न जायंति भवंकुरा ||२४|| छाया:-यथा दग्धानामत राणाम्, न जायन्ते पुनरंकुराः ।
कर्मबीजेषु दग्धेषु, न जायन्ते भवांकुराः ।।२४।। अम्बया :-हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (दाणं) दम्ब (बीयाणं) बीजों के (पुणकुरा) फिर अंकुर (ण) नहीं (जायंति) उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार (दले सु) दाध (कम्मबीएसु) कर्म बीजों में से (मवंकुरा) मव रूपी अंकुर (न) नहीं (जाति) उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ:-है गौतम ! जिस प्रकार जले भूजे बीजों को बोने से अंकुर उत्पात नहीं होता है, उसी प्रकार जिसके कर्म रूपी बीज नष्ट हो गये हैं, सम्पूर्ण क्षय हो गये हैं, उस अवस्था में उसके भव रूपी अंकुर पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं। यही कारण है कि मुक्तात्मा फिर कमी मुक्ति से लौटकर संसार में नहीं आते ।
॥ श्री गौतमउवाच ॥ मूलः...कहि पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्रिया ।
कहिं बोंदि चइत्ता णं' , कत्थ गंतूण सिज्झई ।।२५।। १ णं वाक्यालंकार।
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निर्गन्ध-प्रवचन
छायाः-क्व प्रतिहताः सिद्धाः, क्त्र सिद्धाः प्रतिष्ठिताः ।
क्व शरीरं त्यक्त्वा, कुत्र गत्वा सिद्धयन्तिः ।।२५।। अन्वयार्थ:-- हे प्रमो ! (सिद्धा) सिद्ध जीव (कहि) कहाँ पर (पडिया) प्रतिहत हुए हैं ? (कहि) कहाँ पर (सिद्धा) सिद्ध जीव (पइिंडिया) रहे हुए हैं ? (कहिं) कहाँ पर (बोंदि) शरीर को (चहत्ता) छोड़ कर (कस्य) कहा पर । (गसूण) जाकर (सिसई) सिद्ध होते हैं ।
भावार्थ:-हे प्रमो ! जो आत्माएं मुक्ति में गयी है, वे कहाँ तो प्रतिहत । हुई है ? कहाँ ठहरी हुई है ? मानव शरीर कहाँ पर छोड़ा है ? और कहाँ । जा कर वे आत्माएं सिद्ध होती है ?
॥ श्री भगवानुवाच ॥ मूल:-अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे अ पइट्टिया ।
इहं बोंदि चइत्ता गं' तत्थ गंतुण सिज्झई ॥२६॥
छाया:-- अलोके प्रतिहताः सिद्धाः, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः ।
इह शरीरं त्यक्त्वा, तर गत्वा सिद्धयन्ति ।।२६।। अम्बयार्थः- हे इन्द्रभूति ! (सिद्धा) सिद्ध आत्मा (अलोए) अलोक में तो (परिहया) प्रतिहत हुई हैं । (अ) और (लोयग्गे) लोकान पर (पट्ठिया) ठहरी हुई हैं । (इह) इस लोक में (बोंदि) शरीर को (खइत्ता) छोड़कर (तत्य) लोक के अग्रभाग पर (गंतूण) जाकर (सिज्झई) सिद्ध हुई हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! जो आत्माएं सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों से मुक्त होती हैं, घे फिर शीघ्न ही स्वाभाविकता से कर्व लोक को गमन कर अलोक से प्रतिहत होती हैं । अर्थात अलोक में गमन करने में सहायक वस्तु धर्मास्तिकाय न होने से लोकान में ही गति रुक जाती है । तब वे सिद्ध आत्माएँ लोक
१ ण वाक्यालंकार।
२ A substance, which is the mediuni of motion to soul and matter, and wbich contains innumerable atoms of space, pervadea the whole universe and has no fuorum of motion.
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मोक्ष-स्वरूप
२३७ के अग्रमाग पर ठहरी रहती हैं। वे आत्माएँ इस मानव शरीर को यहीं छोड़. कर लोकान पर सिद्धात्मा होती हैं । मूल: अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसन्निया।
अउल सुहसंपन्ना, उनमा जस्स नस्थि उ ॥२७॥ छाया:-अरूपिणो जीवधनाः, ज्ञानदर्शनसंजिताः ।
असुलं सुखं सम्पन्नाः, उपमा यरम मास्ति ।।२७.
अन्वयार्थ:-हे गौतम ! (अरूविणो) सिद्धात्मा अरूपी हैं । और (जीवथणा) वे जीव घन रूप हैं। (नाणदंससनिया) जिनकी केवलज्ञान दर्शन रूप ही संज्ञा है। (अउल) अतुल (मूहसंपन्ना) मुखों से युक्त हैं (जस्स उ) जिसकी तो (उवमा) उपमा मी (नस्थि) नहीं है ।
भावार्थ:-. हे गौतम ! जो आत्मा सिद्धारमा के रूप में होती हैं, वे अरूपी हैं, उनके आत्म-प्रदेश मान रूप में होते है। ज्ञान दर्शन रूप ही जिनकी केवल संज्ञा होती है और वे सिद्धात्माएँ अतुल सुख से युक्त रहती है। उनके सुखों की उपमा गी नहीं दी जा सकती है।
॥ श्री सुधर्मोवाच ॥ मूलः- एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी,
अणुत्तरदसी अणत्तरनाणदसणधरे । अरहा णायपुत्ते भयवं,
वंसालिए विआहिए ति बेमि ॥२८॥
।
छाया:-- एवं स उदाहृतवान् अनुत्तरज्ञान्यनुत्तरदर्शी,
अनुत्तर ज्ञानदर्शनधरः । अर्हन् ज्ञातपुत्रः भमवान्,
वैशालिको विख्यात: ॥२८॥
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२३८
निग्रंन्य-प्रवचन
सावयार्थ:-हे जम्बू ! (अणुत्तरनाणी) प्रधान ज्ञान (अणुसरदसी) प्रधान । दर्शन अर्थात् (अणुत्तरनाणदसणधरे) प्रधान ज्ञान और दर्शन उसके धारक, और (विआहिए) सत्योपदेशक (से) उन निग्रंथ (णायपुत्ते) सिद्धार्थ के पुत्र (बसालिए) त्रिशला के अंगज (अरहा) अरिहंत (भयवं) भगवान् ने (एव) इस प्रकार (उदाह) कहा है । (ति बेमि) इस प्रकार सुध में स्वामी ने जम्बू स्वामी प्रति कहा है।
भावार्थः - - है जम्बू ! प्रधान ज्ञान और प्रधान दर्शन के धारी, सत्योपदेश करने वाले, प्रसिद्ध क्षत्रिय कुल के सिद्धार्थ राजा के पुत्र और त्रिशाला रानी के अंगज, निर्गय, अरिहंत भगवान महावीर ने इस प्रकार कहा है, ऐसा सुधर्म स्वामी ने जम्बू स्वामी के प्रति निन्म के प्रवचन को समझाया है ।
।। इति चासोः ।
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अकाराद्यनुक्रमणिका ___ संकेत-सुबोषिका (List of Abbreviations)
व-- दशवकालिक सूत्र, अ- अध्याय, गा-गाथा, जीजीवामिगम सूत्र, प्रक - प्रकरण, जह - उद्देशा, उ-- उत्तराध्ययन सूत्र, स्था-स्थानांग सूत्र, प्रश्न = प्रश्नव्याकरण सूध,
सम =समवायांग सूत्र, सू=सूत्रकृतांग सूत्र, प्रष=प्रथम, ना जाताधर्मकथांग सूप, मा-आचासंग सूत्र, हि द्वितीय, भ= भगवती सूत्र, पा-शतक
पृष्ठांक
२०६
१२४
अंग पच्चंग संठाणं अइसीयं अइसण्हं अकलेवर से णिमुसि अक्कोसेज्जा परेमिक्खू अच्छीनिमिलियमेतं अज्ज्ञवसानिमित्त अट्ठरुवाणि वज्जित्ता अट्ठ कम्माई वोच्छामि अट्टाहट्टियचित्ता अद
संवर्भ स्पल (द. अ. . गा. ५८) (जी.प्रक. ३ उहे. ३ गा. १२) (उ. अ. १० मा. ३५) (उ. अ. २ गा. २७) (जी.प्रक. ३ उद्दे. ३ गा. ११) । स्था० वा ) (उ. अ. ३४ मा. ३१) (उ अ. ३३ गा. १) 1 औपपातिक )
२०८
४६
१४५
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अकारानुक्रमणिका
२४१
पृष्ठांक १६६
२१२
१६५
अदि से हासमसज्ज मगन्न मोसं सन्नं २ असुरा नागसुषण्णा असंक्खयं जीविय अह अहि ठाणेहि अह पपणरसहिं ठाणेहिं अह पंचहि ठाणेहि अह सम्वदश्वपरिणा अहीणपंचिदियत्तं अहे वय कोहणं
सन्दर्भस्थल (आ. प्रथ. अ. ३ उद्दे. २) (न. प. ७ गा. ३) (उ. अ. ३६ गा. २०५) (च. अ. ४ गा. ) (उ. प. ११ गा. ४) (उ. अ. ११ गा. १०) (उ. अ. ११ गा. ३) ( नन्दीसूत्र ) (उ. अ. १० गा. १८) (उ. अ. गा, ५४)
२२६ १६५
११७ १५३
११२
२२२
२२६
भाउकायमइगओ आगारिसामाइसंगाइ आणाणिसकरे मायगुत्ते सयादते आयरियं कुवियं आलओ थी जणाइपणे आलोयण निरवलावे आवरणिज्जाण दुण्हं धाबस्सय अवस्स आसणगओ ण पुच्छेज्जा आहञ्च चण्डालिब कट्ट
OM. 9m m. arm
(उ. अ. १० मा. ६) (ज. अ. ५ गा. २२) (ज. अ. १ गा. २) (सू.प्रय.अ.१७ उद्दे. ३ गा.२१) (उ, अ. १ मा. ४१) (उ. ब, १६ गा. ११) ( सम, ३२वा ) (उ. अ, ३३ गा. २०) ( अनुयोगद्वारसूत्र । (उ. अ. १ गा. २२) (उ, अ. १ गा. ११)
२२३
५३
इंगाली, वर्ण, साडी इइ इतरिमम्मि आउ इयो विसमाणस्स इगमन तु अन्नाणं इमं प में अरिप इमं
( आवश्य कसूत्र ) (उ. अ. १० गा. ३) (सू. प्रष. अ १५ गा. १८) (सू. प्रथ, उहे. ३ मा. १) (उ. अ. १४ गा. १५)
१३५
Page #266
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२४२
निर्ग्रन्थ प्रवचन
पृष्ठा १४१
संवर्भस्थल अ. ३४ गा.
(ज.
२३)
इस्मा अमरिस अतवो इहमेगे उ मण्णति
ईसरेण कई लोए
(सू. प्रथ. उद्दे. ३ मा. ६)
उदहीसरिसनामाणं उदहीसरिसनामाणं उदहीमरिरानामाणं उष्फालग दुकवाई य उरिमा उचरिमा चेय उचलेको होइ भोगेसु उवसमेण हणे कोहं
१४२
(उ, अ. ३३ गा. १६) 15. अ. ३३ गा, २१) (उ. अ. ३३ गा. २३) (ज. अ. ३४ गा. २६) (उ. अ. ३६ गा, २१४) (उ. अ. २५ गा. ४१) (उ. अ. म गा. ३६)
१६२
२४
१७६
।
१७५
एए य संगे समाइक्कमित्ता एगतं च पुहत्तं एगया अचेलए हो एगया देवलोएसु एगे जिए जिया पंच एयाणि सोच्चा गरगा। एवं खुणाणिणो सारं एयं च दोसं पळूणं एवं पंचविहं गाणं एवं खु जंतपिल्लण एवं ण से होइ समाहित एवं तु संजयस्सावि एवं धम्मस्स विणओ एवं भवसंसारे एवं सिक्खासमावणे
(उ. अ. ३२ गा. १७) (उ. अ, २८ गा. १३) (3. अ. २ गा. २) (उ. अ. ३ गा. ३) (उ, अ, २३ गा, ३६) (सू प्रथ. अ. ५ उ.२ गा. २४) (स.प्रथ... ११ उ. १ गा.१०) (द. अ. ६ गा, २६) (उ. अ. २८ गा. ५) ( आवश्यक सूत्र ) (सू. प्रथ. अ. १३ गा. १४) (उ. अ. १३ गा. १६) (द, अ.६ उद्दे, २ गा. २) (उ. म. १० गा. १५) (ज, म. ५ गा. २४)
५६
,
१०७ १८४
३५ ११५
७८
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अकारानुक्रमणिका
ए
एवं से उदाहु अंगुत्तर एस धम्मे धुवे जितिए
क
कणकुंडगं चइताणं
कप्पाईया उ जे देवा
कपोवा बारसहा
कम्माणं तु महाणाए कम्णा बंभणो हो
कलहू डमरचज्जए कलहं अभक्खाणं
कसिणं पि जो इमं लोगं
कहं चरे कहं चिट्ठे कहूं कहि पहिया सिद्धा
कामाणुमभिवं
कायसा नयसा मत्त
किव्हा नीला काऊ
किन्हा नोला य काऊ
कुप्पनपणपाखंडी
कुसम जह ओस बिंदुए
कू इअं इअं गीअं
कोहे माणे माया लोभे कोहो अ भाणो व अणि फोटो पीई पणासेइ
ख
त्रणमेतसुक्ला बहु स्वामि सब्बे जीवा वित्तं ऋत्यु हिरण्णं च
ग
जो गिद्ध
पृष्ठांक
२३७
३८
१३२
२१५
२१४
३१
८५
२२७
४६
१५२
५०
२३५
६६
१६०
१४६
१३६
६५
१०६
65
१३५
૪૨
१५४
६२
6.60
२२०
१८८
(उ. अ.
(उ. अ.
(उ. अ. १ गा.
(उ. अ. ३६
गा.
(उ. अ. ३६
गा.
(उ. अ. ३
( उ. अ. २५
(उ.
(
सन्दर्भ स्थल
६ गा.
१६ गा.
(उ.
{ (द.
(इ.
(ज.
(द.
(ज. अ.
(उ.
{
(उ.
अ. ११ गा.
(ज. अ. ३२
(उ.
(उ.
(उ.
(उ.
(उ.
आवश्यक सूत्र
अ.
८
अ. ૪
मा. ७)
गा. ३३ )
१३)
}
मा. १६)
२४३
५)
२२१ )
२०६ )
३६ गा.
१८ )
१७)
गा. ७)
५ )
१६)
७)
५६ )
गा.
अ. ५, गा.
अ. ३४ गा.
अ.
३४ गा.
अ. २३ मा
अ.
१० मा.
अ. १६ गा.
प्रज्ञापना भाषापद
म. 5 गा.
ar.
८ गा.
३)
६३ )
२)
१२)
}
४० )
३८)
१३)
अ. १४ गा.
आवश्य कसूत्र
)
अ. ३ गा. १७)
(उ. अ. २८ गा. ५० )
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्गन्ध-प्रवचन
पृष्ठा
गइलक्षणों उ गत्तभूसणमिळेच गारं पिअ आवसे गुणाणमासओ दब्ब गोम कम्मं तु दुविहं
सम्वर्भस्थल (उ. अ. ३२ गा. ६) (उ. म, १६ गा. १३) (सू. प्रथ. भ. २ .३ गा१३) (उ. अ. २८ गा. ६) (उ. प. ३३ गा. १४)
१७१
११४
१४
(उ. अ. १० गा. १२)
अ. ३३ गा. ६) अ. ३६ गा. २०७)
परिदियकायमगओ चक्नुमचक्स ओहिस्स चन्दा सूरा य मक्खत्ता परित्तमोहणं कम्म चिच्चा दुपयं च चउ चिच्चाण थणं च भारियं चित्तमंतमचित्तं या चीराजिणं नगिणिणं
१८
२८
(उ. अ. १३ गा, २४) (उ. अ. १० गा. २६) (द. अ. ६ गा. १४) (उ. अ. ५ गा, २१)
८२
छिदति मालस्स रेण
(सू.प्रथ.अ. ५ उद्दे. १ गा. २२)
२०६
२२४
१३४
जं जारिस पुष्वमकासि जं पि वरथं व पार्य वा जं मे बुद्धाणुसासंति जणवयसम्मयठवणा जणेण सद्धि होक्खामि जमिणं जगती पुढा जयं चरे जयं चिठे जरा जान न पीछे जरामरणवेगेणं जह जीवा बझंति जह णग्गा गर्मति
(सू.प्रथ.अ. ५ उद्दे.२ गा. २३) (६. अ. ६ गा. २०) (उ, अ.१ गा. २७) ( प्रज्ञापना भाषापद ) (उ. म. ५ गा. ७) (सू. प्रथ.अ.२ उद्दे. १ गा. ४) (द. अ. ४ गा. ८) (द. अ. ८ गा. ३६) (उ. म२३ गा. ६८) ( औपातिकसूत्र )
४२
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
अकारायनुक्रमणिका
२४५
पृष्ठांक
सन्दर्भस्थल
शा. अ. ६ ) ( औपपातिकसूत्र ) (उ. अ, १६ गा. १०)
जह मिउलवासित जह रागेण कडाणं जहा किपागफलाणं जहा कुक्कुडपोअस्तः जहा कुम्मे स अंगाई अहा कुसग्गे उदगं जहा दद्वाणं वीयाणं जहा पोम जले जाम अहा बिरालावसहस्स जहा महातलागस्स जहा य अंउप्प भवा बला यहा सुणी पूइकण्णी जहा सूई ससुत्ता जहा हि अग्गी जलणं जहेह सीहो व मिश्र जाए सखाए निक्खंतो जा जा वच्चा रयणी जा जा पश्चइ रयणी जाति च बुद्धि च इहज जावंतऽविज्जापुरिसा जाय हवं जहामट्ठ जा य सच्चा अवत्तवा जिणवयणे अणुरत्ता जीवाऽजीवा य बंधो य जे आवि अM वसुमंति जे इह सायाणुगनरा जे के बाला इह जीविय जे के सरीरे सत्ता जे कोहणे होइ जगय'
२२८ १६३ १००
ma G.mar. GAANA 2A KM XXnAnal
(सू.प्रथ. अ. ८ उद्दे.१ गा. १६) (उ, अ. ७ गा. २३) (दशाश्रुत स्क.अ. ५ गा.१३)
अ. २५ गा. २७) (उ. अ. ३० गा, १३) (उ. अ. ३० गा. ५) (ल, अ. ३२ गा. ६) (उ. अ. १ गा. ४) (उ.अ. २६ मोल ५६वां) (द. अ. ( उद्दे. १ गा. ११) (उ, अ. १३ गा. २२) (द. अ. ८ गा. ६१)
अ. ४ गा. २४) (उ. अ. १४ गा. २५) (आ. अ. ३ उद्दे. २) (उ. अ. ६ गा. १) (उ. अ. २५ गा. २१) (द. अ. ७ गा. २) (उ. अ. ३६ गा. २५८) (उ. ब. २८ गा. १४) (सू.प्रथ.अ.१३ उद्दे. १ गा. ८) (सू प्रथ. अ.२ उहे. ३ गा. ४) (सू.वि. अ. ५ उ. ३ गा. ३) (उ. अ. ६ गा, ११) (सू.प्रथ.अ. १३ उद्दे. १ गा. ५)
२०४
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्गन्ध-प्रवचन
पृष्ठांक
१५८ १०५
२१०
जे गिद्धे काम भोएसु जे न वंदे न से कुप्पे जे पारिभवई परं जणं जे पावकम्मेहि घणं जे य कंते पिए भोए जे लक्खणं सुविणं पर्ट जेसि तु विउला सिक्खा जो समो सब्बभूएस जो सहस्सं सहस्साणं
सम्भस्थल (उ. अ. ५ गा. ५) (द. अ. ५ उद्दे. २ मा. ३०) (सू.प्रथ.अ. २ उद्दे. १ गा. २) (उ. अ. ४ गा. २) (द. अ. २ गा, ३)
अ. २० मा. ४५) (उ. अ. ७ गा. २१)
___ अनुयोगद्वारसूत्र ) (उ. अ. ६ मा, ३४)
१६६ २१७ २०१
Hd or .
डहरा बुड़वाय पासह गहरे प पाणे बुकेय
(सू.प्रथ.अ. २ उद्दे. १ गा. २) (सू. प्रष. अ. १३ गा, १८)
اوا }
२३०
:
णच्चा णमह मेहावी ण चित्ता तायए मासा परगं तिरिक्खजोणि णो रक्खसीसु गिज्झज्जा
(उ. अ. १ गा. ४५) (उ. अ. ६ गा. १०) । औपपातिकसूत्र ) (ज, अ. ८ गा. १८)
१६१
१५६
तं व सचिमुक्क ती पुट्टो आयकेण तओ से दंई समारभद तत्य ठिचा जहाठाणं तत्थ पंचविहं नाणं सम्हा एवासि लेसाणं सवस्सियं कि सं दंतं तको जोई जीवो जोइठाणं तहा पमणुवाई य तहिआणं तु भावाणं
ज्ञा अ. ६ } अ. ५ गा. ११)
अ. ५ गा. ८) (उ. अ. ३ गा. १६) (उ. प. २८ गा, ४) (उ. प्र. ३४ गा. ६१) (उ, अ. २५ गा. १२) (उ. प्र. १२ मा. ४४)
अ. ३४ गा. ३०) अ. २८ गा. १५)
२
.
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४७
अकाराद्यनुक्रमणिका
पृष्ठांक
१२७
२४
संहय कामका कि तहेव' फरसा भासा तहेब सावज्जणुमोयणी तागि ठागाणि गच्छति तिष्णो हु सि अग्णवं महं तिपिणय सहस्सा सत्तं स तिविहेण दि पाण तिव्वं तसे पाणिणो था तेइंदियकायमइगो तेउकायमगो तेउ पम्हा सुक्का तेणे जहा संधिमुहे ते तिप्यमाणा तलस तेत्तीसं सागरोचम
सन्वभस्मल ४. ब. ७ गा. १२) (द. अ. ७ गा. ११) (द. अ. ७ गा. ५४) (उ. प. ५ गा. २८) (अ. अ. १० गा. ३४) (भ. श. ६ उद्दे. ७) (सू.प्रथ.अ. २ उद्दे.३ गा. २१) (सू. प्रथ, अ. ५ उद्दे. १ गा. ४) (उ. अ. १० मा. १२) (उ. व. १. गा. ७) (उ. अ. ३४ गा. ५७) (उ. अ. ३ गा. ३) (सू.प्रथ.अ. ५ उद्दे. १ गा. २३) (उ, अ, ३३ गा. २२)
२०४
११२ १४६
du
दसणवयसामाइय पोस सणविणए आवस्सए दराहा उ भवणवासी याणे लामें य भोगे य दीहाउ या इढि भता दुक्खं हयं जस्स न होई दुपरिच्चया इमे कामा दुमपत्तए पंडरए जहा दुल्लहा उ मुहादाई दुल्लहे खलु माणुसे भवे देवदाणयगंधवा देवा चस्विहा वृत्ता वेवाणं मणुयाणं च देवे नेरइए अइगओ
For 9 mu.vodrom
-
~
( आवश्यकसूत्र ) । जा. अ. ८ ) (उ. अ. ३६ गा. २०४) (उ. अ. ३३ गा. ५) (उ. अ. ५ मा. २७) (उ. ब. ३२ गा. ८)
अ. ८ गा. ६) (उ. सं. १० गा. १) (व.अ. ५ उद्दे. १ गा. १००) (उ. अ. १० गा, ४) (उ. स. १६ गा. १६)
अ. ३६ गा. २०३) (६. अ. ७ मा, ५)
अ. १८ गा. १४)
མི ༧ རྨ་
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૪s
निन्थ-प्रवचन
पृष्ठा
धम्मे हरए बंमे धम्मो महम्मो आगासं धम्मो अहम्मो आगास धम्मो मंगलमुक्किा धम्म पि सद्दहंतया पिईमई य संवैगे
संवर्भस्थल (उ. अ. १२ गा. ४६) (उ. अ. २८ गा. ७) (उ. अ. २८ गा. ८) (द. अ. गा. १) (उ. अ. १० गा. २०) । सभ. ३२वो )
२७
-
२२५
"
१०१
१२२
२२३
न कम्मुणा कम्म खवैति न तस्स जाई व कुलं व न तस्स दुक्खं विमयंति नस्थि चरित सम्मत्तविहूर्ण न तं बरी कटछेसा करे न पूयणं चेव सिलोय न य पावपरिक्खेवी न वि मुंलिएण समणे न सो परिग्गहो वुत्तो नहु जिणे अज्ज दिसई नाणस्स सन्धस्स पगासणाए नाणसावरणिज्ज नाणेण जाणई भावे नाणं च दसणं चैव नाणं च दंसणं घेव नादंसणिस्स' माणं नामकम्मं च गोयं च नामकम्मं तु दुविहं नासीले न विसीले म नाणावरणं पंच बिह निहा तहेव पयला निद्धधसपरिणामो
(सू. प्रथ. अ. १२ गा, १५) (सू. प्रथ. अ. १३ गा. ११) (उ. ब. १३ गा. २३) (उ. अ. २८ गा. २६) (उ. अ. २० गा. ४८) (सू. प्रथ, अ. १३ गा. २२) (उ. म. ११ गा. १२) (ज. अ. २५ गा. ३१) (द. अ. ६ गा. २१) (उ, अ. १० गा. ३१) (उ. अ. ३२ गा. २) (उ. म. ३३ गा. २) (उ. अ. २८ गा. ३५) (उ, अ. २८ गा. ३) (उ. अ. २८ गा. ११) (उ. अ. २८ गा. ३०) (उ. अ. ३३ गा. ३) (उ. अ. ३३ गा. १३) (उ. अ. ११ गा. ५) (उ. अ. ३३ गा. ४) (उ. अ. ३३ गा. ५) (उ. अ. ३४ गा, २२)
२३३
२३२
१६५
१४०
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
4
अकाराद्यनुक्रमणिका
निम्ममो निरहंकारो
निव्वाणं ति अवाहं ति
निस्सगुवएसई
निस्संकिय निक्कंखिय
नया वित्त अचवले
रक्ष्यतिरिवखाउं
नेरइया सत्तविहा
नो इंदिरा मुतभावा
नो चैव ले तत्थ मसी
प
पंकामा घूमा भा
पंचासवप्पवतो
पंचिदिकायमइगओ
चिदियाणि कोहं पणवाद सुहिले पणे विसग्गे
पावि ते पयाया
परिणीयं बुद्धा
पद्धति नरए बोरे
पढमं नाणं तओ दया
पण्णसमते सया जए
पक्कोमा य
परमत्यथवो वा परिजूरह से सरीरयं
पाणाइवायमलियं
पाणिमुसाबाया
पायच्छित्तं विग
पिम्मेदढ़ घम्मे
पिसाय नूय जक्खा य
पृष्ठांक
६१
२३१
६६
६५
१४३
१६
२०३
१
२०६
२०३
૨૪
११५
६
२२५
Fr
५२
१३४
१६७
५७
१०५
१४४
६४
११६
*
१८३
१८६
१४३
२१३
(उ. अ.
(उ. अ. २३
गा.
(उ. अ. २८ गा.
(उ. अ.
२८ गा.
(उ. अ.
३४ गा.
(ज. अ.
३३ गा.
(उ. अ.
गा.
(उ. अ.
गा.
(तू अध्य.
(उ. अ.
(उ. अ.
संदर्भस्पत
१६ गा.
(उ.
(उ.
(
२४६
३६ गा. १५७ )
३४ गा. २१)
(उ. अ.
१० गा.
१३)
(उ. अ. £ गा. ३६ )
(उ.
अ. ११ मा. ९)
८९ )
८३)
१६)
३६
१४
५ उद्दे. १गा. १६)
सम० ३२१
अ. ४ गा.
१ गा.
३१)
२७)
१२)
१५६ )
१९ )
म. २८ गा.
म. १० गा.
(
(द.
(उ. अ.
(उ. अ.
१५ गा. २५)
(द. अ. ૪ गा. १०)
(सू. प्रथ. अ. २ उद्दे. २ गा. ६)
(उ.
अ. ३४ गा. २६ )
२८ )
२१)
आवश्यक सूत्र
}
(उ.
अ. ३० ग्रा. २)
(उ. अ. ३० गा. ३०)
(उ. अ. ३४ गा. २८)
(उ. अ. ३६ गा. २०६ )
}
२८ )
१७)
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
प
पुढविकायम गओ
पुर्वि न खणे न खणाच पुढदा साली जवा चेन पूरणट्टा जसोकामी
फ
फासरस जो गिद्ध मुवेई
बहिया उड्ठमादाय बहु आगमविष्णणा बाला किड्डा य मंदा य
खाणं प्रकामं तु बेदिकामइगओ
भ
भता अकरिता य
भावणाजोग सुद्धा भोगामिनदोस सिने
म
मज्झिमा मज्झिमा चेन
मणी साहसिनो भीमो
महम्वए पंच अणुब्बए य महासुक्का सहस्सारा
मकारसमा बुद्धा
माणुस्तं च अणिच्च माणुस्सं विग्ग लघु मायाहि पियाहि लुप्पड़
माहणा समणा एगे
मिच्छादंसणरता मितव नाइव होई
पृष्ठांक
१११
१०२
१५.३
१५१
१८६
८०
C
३२
११४
११३
६०
१६८
E?
२१६
१७६
७२
२१४
१०४
४०
३३
१६६
१३६
६६
२२१
{
(उ.
संदर्भस्थल
(उ.
अ.
१० गा. ५ )
(द. अ.
२)
(उ. अ. ६ गा.
४६ )
(द. अ. ५ उद्दे. २ गा. ३५ )
(उ. अ. ३२ गा. ७६ )
(उ.
अ. गा. २३)
६
(उ.
प्र. ३६ गा. २६१ )
स्था० १०वी
''
(उ.
निर्ग्रन्थ-प्र
- प्रवचन
(उ. अ.
(उ. अ.
1
(उ.
भ. ६ गा. ६)
(सू. प्रथ. अ. १५ गा. ५ ) (उ.
अ. ८
गा.
(उ.
ग१०
अ.
५
गा.
३)
अ. १० गा. १०)
३६ गा. २१३ )
२३ गा. ५८ )
(सू. द्वि. अ. ६ गा. ६)
(उ. अ. ३६ गा. २१० )
(६.
भ. १ गा. ५) औपपातिकसूत्र
अ.
३ ग्रा.
(सू.प्र.अ. २ उद्दे १ मा. ३) (सू. प्रथ. उद्दे ३ गा. ८)
( उ. अ. ३६ गा. २५५ ) (उ. अ. ३ गा. १८ )
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
अकारानुक्रमणिका
पृष्ठास
मुसाबाओ प लोगम्मि मुहत्त दुक्खा च हवति भूखमेयमहम्मस्स मूलाज संधप्पभवो दुमस्स मोक्खभिखिस्स व माण मोहणिज्ज पि दुविह
सच स्पल (६. भ. ६ मा. १३) (व. अ. ६ उद्दे. ३ गा. ६) (द. अ. ६ गा. १७) (द. अ. ६ उद्दे. २ गा. २)
___३४
अ.
३३ गा,
८)
१८६
रसेस जो गिद्धिमुधेई तिव्यं रागो य दोसो दि य कम्म रूषेसु जो गिधिमवेइ तिम्वं रुहिरे पुणो वच्चसमुस्सि.
(उ. अ. ३२ मा, ६३)
अ. ३२ गा. ७) (उ. अ. ३२ गा. २४) (सू.प्रय.अ.५ उद्दे. १ गा. १६)
१८७ २०७
लद्धव आरियतणं लणवि उत्तमं सुझं लण वि माणुसत्तणं लामालामे सुहे दुक्खें लोभस्से समणुप्फासो
११८ ११६
अ. १० गा. १७) (अ. अ. १० गा. १९) (उ. अ. १० गा. १६)
१६ गा. ६०) (द. अ. ६ गा. १२)
१४२
१८१
वंके बंकसमायरे बणस्सा कायमगओ वसणालखणो कालो वस्थगंधमलकारं वरं मे अप्पा दंतो वारकाय मगओ वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते विरमा वीरा समदिव्या विसालिसेहि सीहि वेमाणिया उजे देवा
(उ. म. ३४ गा, २५) (उ. अ. १० गा. १) (उ. स. २८ गा. १०) (द. म, २ मा. २) (उ. अ. १ गा. १६) (उ. प. १. गा. ) (उ, ब. ४ गा, ५) (सू.प्र.अ.२ उद्दे. १ मा. १२) (उ. अ. ३ गा. १४) (ज. अ. ३६ मा. २०८)
२१४
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
निन्ध-प्रवचन
पृष्ठांक
वेमायाहि सिमखाहिं वेणियं पि दुविहं वोच्छिद सिणेहमप्पणी
संवर्मस्पल (उ. प. ७ गा. (उ. अ. ३३ गा. (उ. अ. १० गा.
२०)
७) २८)
स
४६
१८०
१६४
संगाणं य परिणामा संति पहि भिक्खूहि संदुमा गरे संबुजाह किं न बुनाह संबुज्महा जंतवा माणु सरंभसमारंभ आरंभ संसारमावण परस्स सहि परिमाएहि सक्का सहे आसाइ समचा सहेर मोसा य सत्थरगहणं विसभक्खणं स देवगन्धवमणुस्स पूइए सद्देसु जा गिडिमुवेइ सद्दघयारउज्जोमओ समणं संजय दंतं समरेसु अगारेसु समयाए समणो होई समाए पहाए परिव्ययंतो सम्मसं व मिच्छत्तं सम्मइंसणरसा अनियाणा सयंभुणा फडे लोए सरागो बीयरागो वा सरीरमाहु नाय त्ति सल्लं कामा विसं कामा सवणे नाणे विणाणे
१८७
( सम, ३खो ) (उ. अ, ५ गा. २०)
. ... उद.१ गा.२१) (सू.प्रथ.अ. २ उद्दे. १ गा. १) (सू.प्रथ.अ.७ उद्दे.१ गा. २१) (उ. अ. २४ गा. २१) (उ. प. ४ गा. ४) (स, प्रप. उ. ३ गा. ६) (६. अ. ६ उद्द. ३ गा. ६) (उ, अ. २४ या. २०) (उ. न. ३६ गा. २६६) (उ. अ. १ गा. ४८) (उ. अ, ३२ गा. ३७) (उ, अ. २८ गा. १२) (उ. अ. २ गा. २७) (उ. अ. १ गा. २६) (उ. अ. २५ गा. ३२) (द. ब. २ गा. ४) (उ. प. ३३ गा. ६) (उ. प्र. ३६ गा. २५६) (सू. प्रय. उद्दे. १ गा. ७) (उ. अ. ३४ गा. ३२) (उ, ब. २३ गा. ७३) (उ. अ. गा, (भ. श. २ उ. १)
१६३
८५ १२ १७
१४५
१६८
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________ अकाराधनुक्रमणिका 253 पृष्ठांक 234 सम्वस्थ सिद्धगा चेव सव्वं तो जाण पासए सध्य विलवि गोयं सध्वे जीवा वि इच्छति साणं सूइ गादि सायगावेस ए य आरंभा सावज्ज जोगविरई साहरे हत्थपाए य' सुआ मे नरए ठाणा सुक्क मूले जहा तक्खे सुतेस यावी पडिबुद्धजीवी सवणरुप्पस उ पश्यया सोचा जाणा कल्लाणं सो तयो दुविहीं वुत्तो मोलसदिह मेएणं सोही उजुअभूयस्स संदर्भस्थल (उ. ब. 36 गा. 215) अ. 32 गा. 106) (उ. अ. 13 गा. 16) (द. अ. 6 गा. 11) (द. अ. 5 उद्दे. 1 मा. 12) (उ. ब. 34 पा. 24) ( अनुयोगद्वारसूत्र ) (सू.प्रथ.अ.८ उद्दे.१ गा.१७) (उ. अ. 5 गा. 12) (दशाश्रुतस्कन्ध अ.५या. 14) (उ, अ. 4 गा. 6) (उ. अ. 6 गा. 48) (द. अ. 4 गा, 11) (उ. प. 5 . ) (उ. अ. 33 गा. 11) (ज. अ. 3 गा, 12) 234 152 18 37 हिसे बाले मुसाबाई हस्थ पायपदिछिन्नं हत्यागया इमे कामा हियं विगयभया बुद्धा हेट्ठिमा हेठिमा चेव 86 158 (उ. अ. (उ. प्र. (उ. अ. (उ. अ. (उ. अ. 5 गा. 6) 8 गा. 56) 5 गा. 6) 1 गा, 26) 36 गा, 212) 224 216