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________________ लेश्या-स्वरूप १४३ मात्मा की प्रवृत्ति हो, वह कापोतलेश्मी कहलाता है । ऐसी भावना रखने वाला चाहे पुरुष हो या स्त्री, वह मर कर अधोगति में जावेगा। है गौतम ! तेजोलेश्या के सम्बन्ध में यों हैंमूलः-नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले। विणीयविणा दो, जोगन उदहागावं !!८।। पियधम्मे दढधम्मेऽवज्जभीरू हिएसए । एयजोगसमाउत्तो, तेऊलेसं तु परिणमे ||६| छाया:--नीचवृत्तिरचपल:अमाय्यकुतूहल: । विनीतविनयो दान्तः, योगबानुपधानवान् ।।६।। प्रियधर्मा हद्धधर्मा, अवधभीरुहित षिकः । एतद्योगरामायुक्तः, तेजोलेश्या तु परिणमेत् ॥६।। अन्वयार्थ:--हे इन्द्रभूति ! (मीयावित्ती) जिसकी वृत्ति नम्र स्वभाव वासी हो (अचवले) अचपल (अमाई) निष्कपट (अकुले) कुतूहल से रहित (विणीयविणए) अपने से बड़ों का विनय करने में विनीत वृत्ति वाला (दस्ते) इन्द्रियों को दमन करने वाला (जोगवं) शुभ योगों को लाने वाला (उबहाणवं) शास्त्रीय विधि से तप करने वाला (पियघम्मे) जिसकी धर्म में प्रीति हो, (विषम्मे) हक है मन धर्म में जिसका (अवजमीरू) पाप से करने वाला (हिएसए) हित को दूसने बाला, मनुष्य (तेकलेस) तेजोलेश्या को (तु परिण मे) परिणमित होता है। भावार्थ:-हे आर्य ! जिसको प्रकृति नम्र है, जो स्थिर बुद्धिवाला है, जो निष्कपट है, हँसी-मजाक करने का जिसका स्वभाव नहीं है, बड़ों का विनय कर जिसने विनीत की उपाधि प्राप्त करती है, जो जितेन्द्रिय है, मानसिक, वाषिक, और कायिक इन तीनों योगों के द्वारा जो कमी किसी का अहित न चाहता हो, शास्त्रीय विधि-विधान युत् तपस्या करने में दत्तचित रहता हो, धर्म में सदैव प्रेम भाव रखता हो, चाहे उस पर प्राणातक कष्ट ही क्यों न आ जावे, पर धर्म में जो दृढ रहता है, किसी जीव को फष्ट न पहुंचे ऐसी भाषा जो बोलता हो, और हितकारी मोक्ष धाम को जाने के लिए शुद्ध क्रिया करने की गवेषणा जो करता रहता हो, वह तेजोलेश्या कहलाता है। जो जीव इस प्रकार की
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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