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________________ १४२ निर्गन्य-प्रवचन गुणों की तरफ दृष्टिपात तक न करते हुए उसमें जो एकआष अवगुण हो, उसी | की ओर निहारने वाला हो, और अकार्य करने में बहादुरी दिखाने वाला हो, जिस आत्मा का ऐसा व्यवहार हो, उसे नीरलेश्यी कहते हैं। इस तरह की भावना रखने वाला व उसमें प्रवृत्ति करने वाला चाहे कोई पुरुष हो, या स्त्री वह मर अधोगति में ही जायगा । मुल:---बके बंकसमायरे, नियडिल्ले अणुज्जुए । पलिउंचगओवहिए, मिच्छदिट्ठी अणारिए ॥६॥ उप्फालग दुवाई य, तेणे आवि य मच्छरी । एअजोगसमाउत्तो, काऊलेसं तु परिणमे ॥७|| छाया:- चको वक्रसमाचार:, निकृतिमाननः । परिकुंचक औषधिक:, मिथ्यावृष्टिरनार्यः ।।६।। उत्स्यार्शक दुष्टवादी च, स्तेनश्चापिचमत्सरी । एतद्योगसमायुक्तः, कापोतलेश्यां तु परिण मेत् ॥७॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (वके) वक्र भाषण करना (वकसमायरे) वक्र क्रिया अंगीकार करना, (नियडिल्ले) मन में कपट रखना, (अनुज्जए) टेलेपन से रहना (पलिगंधग) स्वकीय दोषों को ढकना, (ओवहिए) सब कामों में कपटता (मिच्छदिट्ठी) मिथ्यात्व में अभिरुचि रखना (अणारिए) अनार्य प्रवृत्ति करना (य) और (तेणे) चोरी करना (अविमच्छरी) फिर मारसयं रखना (एअजोगसमाउत्तो) इस प्रकार के व्यवहारों से जो युक्त हो वह (काऊलेस) कापोतलेश्या को (परिणमे) परिणमित होता है। __ भावार्थ:-हे गोतम ! जो बोलने में सीधा न बोलता हो, व्यापार भी जिसका टेढ़ा हो दूसरे को न जान पड़े ऐसे मानसिक कपट से व्यवहार करता हो, सरलता जिसके दिल को छकर भी न निकली हो, अपने दोषों को ढंकने की भरपूर चेष्टा जो करता हो, जिसके दिनमर के सारे कार्य अल-कपट से भरे पड़े ही, जिसके मन में मिथ्यात्व को अभिरुचि बनी रहती हो, जो अमानुषिक कामों को मी कर बैटता हो, जो वचन ऐसे बोलता हो कि जिससे प्राणिमात्र को पास होता हो, दूसरों की वस्तु को चुराने में ही अपने मानव जाम की सफलता समझता हो, मात्सर्य से युक्त हो, इस प्रकार के व्यवहारों में जिस
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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