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________________ १४४ निर्ग्रन्य-प्रवचन भावना रखता हो वह मर कर कव्यंगति अर्थात् परलोक में उक्षम स्थान को प्राप्त होता है । है गौतम ! पद्मलेश्या का वर्णन यों है: मूल:- पयणुक्कोमाणे य, मायालोभे य पयणुए । पसंतचित्तं दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ॥ १०॥ तहा पयणुवाई य, उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमाउतो, पम्हलेसं तु परिणमे ॥। ११॥ छाया:- प्रतनुक्रोधमानश्च मायालोभौ च प्रतनुकौ । प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, योगवानुपधानवान् ||१०|| तथा प्रतनुवादी च उपशान्तो जितेन्द्रियः । एतद्योगसमायुक्तः, पद्मलेश्यां तु परिणमेत् ॥ ११ ॥ | , अन्वयार्थ:-- हे इन्द्रभूति ! ( पक्की हमाणं ) पतलं हें क्रोध और मान जिसके ( अ ) और ( मायालोमे) माया तथा लोभ भी जिसके ( पयणुए) अल्प है, ( पसंतचित्ते ) प्रशान्त है चित्त जिसका (दंतप्पा) जो आत्मा को दमन करता है, (जोगवं ) जो मन, वच, काया के शुभ योगों को प्रवृत्त करता है, ( उवहाणवं ) जो शास्त्रीय तप करता है, ( तहा) तथा ( पयणुचाई) जो अल्पभाषी है और वह भी सोच-विचार कर बोलता है, (य) और ( उवसंते ) शान्त है स्वभाव जिसका, (य) और ( जिई दिए ) जो इन्द्रियों को जीतता हो, (एयजोगसमाउत्तो) इस प्रकार की प्रवृति वाला जो मनुष्य हो, वह ( पहले सं ) पद्म लेश्या को ( तु परिणमे) परिणति होता है । भावार्थ:-- हे गौतम! जिसको क्रोध, मान, माया, लोभ कम हैं, जो सदैव शान्तचित्त रहता है, आत्मा का जो दमन करता है, मन, वचन, काया के शुभ योगों में जो अपनी प्रवृत्ति करता है, शास्त्रीय विधि से तप करता है, सोच-विचार कर जो मधुर भाषण करता है, जो शरीर के अंगोपांगों को शान्त रखता है । इन्द्रियों को हर समय जो कानू में रखता है, वह पद्मलेश्यो कह लाता है। इस प्रकार की भावना का एवं प्रवृत्ति का जो मनुष्य अनुशीलन करता है, वह मनुष्य मर कर ऊर्ध्वगति में जाता है। हे गौतम ! का कथन यों है शुक्ल लेण्या
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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