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________________ लेश्या-स्वरूप १४५ मूल:-अट्टरुहाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि शायए । पसंतचित्त दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु ।।१२।। सरागो वीरगो वा, जवसते जिदिए । एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे ॥१३॥ छाया:-आर्त रौद्रे वर्जयित्वा, धर्मशुक्ले ध्यायति । प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, समितो गुप्तश्च गुप्तिभिः ।।१२।। सरागों बीतरागो बा, उपशांतो जितेन्द्रियः । एतद्योग समायुक्तः, शुक्ललेश्यांतु परिणमेत् ।।१३।। सम्बया:--है इन्द्रभूति ! (अट्टरुद्दाणि) आर्त और रौद्र ध्यानों को (वज्जिता) छोड़कर (धम्मसुक्काणि) धर्म और शुक्ल ध्यानों को (झायए) जो चितवन करता हो, (पसंतचित्ते) प्रशान्त है चित्त जिसका (दंतप्मा) दमन किया हे अपनी आत्मा को जिसने (समिए) जो पांच समिति करके युक्त हो, (च) और (गुत्ति सु) तीन गुप्ति से (गुत्ते) गुप्त है (सरागो) जो सराग (वा) अथवा (वीयरागो) वीतराग संयम रखता हो, (उपसंते) शांत है चित्त और (जिईदिए) जो जितेन्द्रिय है, (एयजोगसमाउत्सो) ऐसे आचरणों से जो युक्त है, वह मनुष्य (सुक्कलेसं) शुक्ल लेश्या को (तु परिणमे) परिणमित होता है । भावार्थ:-हे आर्य ! जो आर्त और रौद्र ध्यानों को परित्याग करके सदेव धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तवन करता है। क्रोध, मान, माया और लोम आदि के शान्त होने से प्रशान्त हो रहा है चित्त जिसका, सम्यकज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से जिसने अपनी आत्मा को दमन कर रखा है, चलने, बैठने, खाने, पीने, आदि सभी व्यवहारों में संयम रखता है, मन, वचन, काया की अशुभ प्रसि से जिसने अपनी आत्मा गोपी है, सराग यहा वीतराग संयम जो रखता है, जिसका चेहरा शान्त है, इन्द्रियजन्य विषयों को विष सममकर उन्हें जिसने छोड़ रखे हैं, वही आत्मा शुक्ललेश्यी है। यदि इस अवस्था में मनुष्य मरता है तो वह कध्वंगति को प्राप्त करता है।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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