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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(अध्याय चौदहवां) वैराग्य सम्बोधन
11 भगवान् श्री ऋषभोवाच ॥ मूल:--संबुज्झह किं न बुज्झह,
संबोही खलु पेच्च दुल्लहा, णो हूवणमंति राइओ,
नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥श छाया:--सबुध्यध्वं कि न बुध्यध्वं,
सम्बोधिः खलु प्रेत्य दुर्लभा । नो खल्वुपनमन्ति रात्रयः,
नो सुलभं पुनरपि जीवितम् ॥१||
अन्वयार्थ:--हे पुत्रो ! (संबुज्झह) धर्म बोध करो (किं) सुविधा पाते हुए क्यों (न) नहीं (बुजाह) बोध करते हो ? क्योंकि (पेच्च) परलोक में (खलु) निश्चय ही (संबोही) धर्म-प्राप्ति होना (दुल्लहा) दुर्लभ है। {राइबो) गयी हुई राशियां (णो) नहीं (ह) निश्चय (उवणमंति) पोछी आती हैं। (पुणरावि) और फिर मी (जीवियं) मनुष्य जन्म मिलना (सुलभ) सुगम (न) नहीं है।
भावार्थ:-हे पुत्रो ! सम्यक्स्वरूप धर्म बोध को प्राप्त करो ! सब तरह से सुविधा होते हुए भी धर्म को प्राप्त क्यों नहीं करते। अगर मानव जन्म में