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________________ निग्रन्थ-प्रवचन छाया:--इदं च मेऽस्ति, इदम् च नास्ति, इदं च कृत्यमिदमकृत्यम् । तमेवमेध लालप्यमानं, हरा हरताति कय प्रमाद: ।२४१ । अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (इमं) यह (मे) मेरा (अस्थि) है, (च) और (इम) यह घर (मे) मेरा (नत्यि) नहीं है, यह (किच्च) करने योग्य है (च) । और (इम) यह व्यापार (अकिच्चं) नहीं करने योग्य है, (एवमेव) इरा प्रकार | (लासपमाण) बोलने वाले प्रमादियों के (तं) वायु को (हस) रात-दिन रूप चोर (हरंति) हरण कर रहे हैं (त्ति) इसलिए (कह) कैसे (पमाए) प्रमाद कर रहे हो? ____ भावार्थ:-हे गौतम ! यह मेरा है, यह मेरा नहीं है, यह काम करने का है और यह बिना लाभ का व्यापार आदि मेरे नहीं करने का है। इस प्रकार बोलने वालों का आयु तो रात दिन रूप चोर हरण करते जा रहे हैं। फिर प्रमाद क्यों करते हो? अर्थात् एक ओर मेरे तेरे की कल्पना और करने न करने के संकल्प चाल बने रहते हैं और दूसरी ओर काल रूपी चोर जीवन को हरण कर रहा है अतः शीघ्र ही सावधान होकर परमार्थ-साषन में लग जाना। चाहिए। || इति प्रयोदशोऽध्यायः ॥
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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