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________________ धर्म निरूपण ७६ है । और वह अन्तिम समय में (छविपदाओ ) चमड़ी और हड्डी वाले शरीर को ( मुच्चई) छोड़ता है । और (जक्स लोगयं ) यक्ष देवता के सदृश स्वर्गलोक को ( गच्छे ) जाता है । भावार्थ :- हे गौतम! इस प्रकार जो गृहस्थ अपने सदाचार रूप गृहस्थधर्म का पालन करता है, वह गृहस्थाश्रम में भी अच्छे प्रतवाला संयमी होता है। इस प्रकार गृहस्थधर्म के पालते हुए यदि उसका अन्तिम समय भी आ जाय तो भी हड्डी, चमड़ी और मास निर्मित इस बारिश को छोड़कर यक्ष देवताओं के सदृश देवलोक को प्राप्त होता है मूल:- दीहाउया इड्डिमंता, समिद्धा कामरूविणो । अगोववन्नसंकासा, भुज्जो अच्चिमालिप्पभा ||८|| छाया - दीर्घायुषः द्धिमन्तः समृद्धाः कामरूपिणः । अधुनोत्पन्नसंकाशाः, भूयोऽचमालिप्रभाः ॥८॥ अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! जो गृहस्थधर्म पालन कर स्वर्ग में जाते हैं वे वहाँ (हाउया) दीर्घायु ( दिता ) ऋद्धिमान् ( समिद्धा ) समृद्धिशाली (कामरूविणो इच्छानुसार रूप बनाने वाले (अगुणोववन्नसंकासा) मानो तत्काल ही जन्म लिया हो जैसे (भुज्जो अविमालिप्पमा) और अनेकों सूर्यो की प्रभा के समान देदीप्यमाग होते हैं । भावार्थ:- हं गौत्तम ! जो गृहस्थ गृहस्थ धर्मं पालते हुए नीति के साथ अपना जीवन बिताते हुए स्वर्ग को प्राप्त होते हैं, वे वहाँ दीर्घायु, ऋद्धिमान, समृद्धिशाली, इच्छानुकूल रूप बनाने की शक्तियुक्त तत्काल के जन्मे हुए जैसे, और अनेकों सूर्यो की प्रसा के समान देदीप्यमान होते हैं । मूल:- ताणि ठाणाणि गच्छति, सिक्खिता संजमं तवं । भिक्खाए वा गिहत्थे वा जे संतिपरिनिब्बुडा ||६|| 1 External Physical body having flesh, blood and bone.
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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