SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्गन्य-प्रवचन छायाः-तानि स्थानानि गच्छन्ति, शिक्षित्वा संयमं तपः । भिक्षुका वा गृहस्था वा, ये सन्ति परिनिवृताः ।।९।। __ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (संतिपरिनिव्वुडा) मान्ति के द्वारा चहुँ ओर से संताप रहित (जे) जो (मिक्खाए) भिक्षु (वा) अथवा (मिहत्ये) गृहस्थ हों (संजमं) संयम (स) तप को (सिक्खित्ता) अभ्यास करके (ताणि) उन दिव्य (ठाणाणि) स्थानों को (गच्छंति) जाते हैं । ___ भाार्थ:-हे गौतम ! क्षमा के द्वारा सकल संतापों से रहित होने पर साधु हो या गहस्थ चाहे जो हो, जाति-पाति का यहां कोई गौरव नहीं है। संयमो जीवन वाला और तपस्वी हो वही दिव्य स्वर्ग में जाता है। मूलः–बहिया उड्ढमादाय, नाकक्खे कयाइ वि । पुबकम्मक्खयहाए, इमं देहं समुद्धरे ।।१०।। छाया: वाह्यमूर्ध्वमादाय, नावकांक्षेत् कदापि च । पूर्वकर्मक्षयार्थ, इमं देहं समुद्धरेत् ॥१०॥ अश्वपार्षः-हे इन्द्रमूति ! (बहिया) संसार से बाहर (उड्ढ़) ऊध्वं, ऐसे मोम की अभिलाषा (आदाय) ग्रहण कर (कयाइ वि) कभी मी (नाकंक्ले) विषयाधि सेवन की इच्छा न करे, और (पुटबकम्मक्खयट्ठाए) पूर्व संचित कर्मों को नष्ट करने के लिए (इमं) इस (देह) मानव शरीर को (समुद्धरे) निर्दोष वृत्ति से धारण करके रक्खे । भावार्थ:-हे गौतम ! संसार से परे जो मोक्ष है, उसको लक्ष्य में रख कर के कभी भी कोई विषयादि सनान की इच्छा न करे। और पूर्व के अनेक भवों में किये हुए कर्मों को नष्ट करने के लिए इस शरीर का, निर्दोष आहारादि से पालन-पोषण करता हुआ अपने मानव-जन्म को सफल बनावे । मूल:-दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा । मुहादाई मुहाजीवी, दो वि गच्छति सोग्गई ।।११।। छाया:-दुर्लभस्तु मुधादायी, मुधाजीव्यपि दुर्लभः । मुधादायी मुधाजीबो, द्वापि गच्छतः सुगतिम् ॥११॥
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy