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________________ निम्रन्थ-प्रवचन अन्वयार्थ:-हे अन्धति ! (हुटिह! अनेक प्रकार से (धम्म) धर्म को (अणुसट्टपि) शिक्षित गुरु के द्वारा सीखने पर भी (बद्धनिकाइयकम्मा) बंधे हैं निकाचित कर्म जिसके ऐसे (अबुद्धिया) बुञ्चिरहित (मिच्छादिट्ठिया) मिथ्या दृष्टि (नरा) मनुष्य (जे) वे केवल (धम्म) धर्म को (सुगंलि) सुनले हैं (घर) परन्तु (न) नहीं (करेंति) अनुसरण करते हैं। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! गृहस्थधर्म और चारित्रधर्म को शिक्षित गुरु के द्वारा सुन लेने पर भी बुद्धिरहित मिथ्यादृष्टि मनुष्य केवल उन धर्मों को सुन कर ही रह जाते हैं। उनके अनुसार अपने कर्तव्य को नहीं बना सकते हैं। क्योंकि उनके प्रगाढ़-निकाचित कर्म का उदय होता है। मूलः-जरा जाव न पीडेइ, बाही जाव न बड्ढइ । जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ।।६।। छाया:-जरा यावन्न पीडयति, व्याधिर्यावन्न वर्धते । यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावद्धर्म समाचरेत् ।।६।। अन्वयार्थ:- हे इन्द्रभूति ! (जाब) जब तक (जरा) वृद्धावस्था (न) नहीं (पीडेइ) सताती और (जाव) जब तक (वाही) व्याधि (न) नहीं (चटई) बढ़ती और (जाविदिया) जब तक इन्द्रियाँ (न) नहीं (हायति) शिथिल होती (ताव) सब तक (धर्म) धर्म का (समायरे) आचरण कर ले । भावार्थ:-हे गोतम ! जब तक वृद्धावस्था नहीं सताती, धर्म घातक व्याधि की बढ़ती नहीं होती, निम्रन्थ प्रवचन सुनने में सहायक थोत्रेन्द्रिय तथा जीव दया पालन करने में सहायक चक्षु आदि इन्द्रियों को शिथिलता नहीं आ घेरती तब तक धर्म का आचरण बड़े ही दृढ़तापूर्वक कर लेना चाहिए। मूलः --जा जा बच्चइ रयणी, न सा पडिनिअत्तइ । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जंति राइओ ॥१०॥ छाया:- या या अजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते । अधर्म कुर्वाणस्य, अफला यान्ति रात्रयः ।।१०।।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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