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________________ १३० निर्ग्रन्य-प्रवचन ____ भावार्थ:-हे गौतम ! बुद्धिमान् वह है, जो दूसरे बोल रहे हों उनके बीच में उनके पूछे बिना न' बोले और जो उनके परोक्ष में उनके अवगुणों को भी कभी न बोलता हो, तथा जिसने कपटयुक्त असत्य भाषा को भी सदा के लिए छोड़ रक्खा हो । मूल:--सक्का सहेउं आसाइ कंटया, अओमया उच्छया नरेणं । अणासए जो उ सहेज्ज कंटए, वइमए कण्णसरे स पुज्जो ॥५॥ छायाः--शक्या: सोढमाशयावण्टकाः, अयोमया उत्साहमानेन नरेण । अनाशया यस्तु स हेत कण्टवान, वाङमयान् कर्णशरान् सः पूज्यः ॥६॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (उच्छहया) उत्साही (नरेणं) मनुष्य (आसाद) । आशा से (अओमया) लोहमय (कंटया) कंटक या तीर (सहे) सहने को (सक्का) समर्थ है । परन्तु (कण्णसरे) वान के छिद्रों में प्रवेश करने वाले (कंट) कोटे के समान (वइमए) वचनों को (अणासए) बिना आशा से (जो) जो (सहेज्ज) सहन करता है (स) वह (पुज्जो) श्रेष्ठ है। भावार्थ:-हे गौतम ! उत्साहपूर्वक मनुष्य अर्ष-प्राप्ति की आशा से लोह ग्लण्ड के तीर और कांटों तक की पीड़ा को खुशी-खुशी सहन कर जाते है । परन्तु उन्हें वचन रूपी कण्टक सहन होना बड़ा ही कठिन मालूम होता है । तो फिर आशा रहित होकर कठिन वचन सुनना तो बहुत ही दुष्कर है। परन्तु बिना किसी भी प्रकार की आशा के, कानों के छिद्रों द्वारा कण्टक के समान वचनों को सुन कर जो सह लेता है, बस उसी को श्रेष्ठ मनुष्य समझना चाहिए । मूल:-मुहत्तदुक्खा उ हवंति कंटया, __ अओमया ते वि तओ सुउद्धरा । वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥६॥
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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