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भाषा-स्वरूप
__ १२६ मुल:---तहेव सावज्जणमोयणी गिरा,
ओहारिणी जा य परोवघाइणी । से कोह लोह भय।। २ आणदो,
न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ॥६।। छाया:--तथैव सावधानुमोदिनी गिरा,
अवधारिणी या च परोपघातिनी। तां क्रोधलोभभयहास्येभ्यो मानवः,
न हसन्नपि गिरं वदेत् ॥६॥
अन्वयार्थः हे इन्द्रभूति ! (माणबों) मनुष्य (हासमाणो) हँसता हुआ (वि) भी (गिरं) भाषा को (न) न (वएज्जा) बोले (य) और (लहेव) वैसे ही (से) यह (कोह) क्रोध से (लोह) लोभ से (मयसा) मय से (सावज्जणमोयणी) सावध अनुमोदन के साथ (ओहारिणी) निश्चित और (परोवघाइणी) दूसरे जीवों की हिंसा करने वाली, ऐसी (जा) जो (गिरा) भाषा है, उसको न बोले ।
भावार्थ:-हे गौतम ! बुद्धिमान् मनुष्य वह है जो हड़-हड़ हँसता हुआ भी कमी नहीं बोलता है और इसी तरह सावध भाषा का अनुमोदन करके तथा निश्चयकारी और दूसरे जीवों को दुःख देने वाली भाषा कभी नहीं बोलता है। मूल:--अपूच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा ।
पिट्टिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए ॥७॥ छाया:-अपृष्ठो न भाषेत, भाषमाणस्यान्तरा ।
पृष्ठमांस न खादेत, मायामृषां विवर्जयेत् ।।७।। अन्वयार्य:- हे इन्द्रभूति ! बुद्धिमान मनुष्यों को (मासमाणस्स) बोलते हुए के (अन्तरा) बीच में (अच्छिओ) नहीं पूछने पर (न) नहीं (मासिज्ज) बोलना चाहिए और (पिट्टिमंस) चुगली भी (न) नहीं खाएज्जा) खानी चाहिए एवं (मायामोसं) कपटयुक्त असत्य बोलना (विवज्जए) छोड़ना चाहिए ।