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________________ १५४ निर्ग्रन्थ-प्रवचन छाया:-अघोजति क्रोधेन, मानेनाधमा गतिः । मायया सुगति प्रतिघातः, लोभाद् द्विधा भयम् ।।६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! आत्मा (कोहेणं) क्रोध से (अहे) अधोगति में (वयइ) जाता है (माणेणं) मान से उस को (अहमा) अधम (गई) गति मिलती है, (माया) कपट से (गहपडिग्घाओ) अच्छी गति का प्रतिघात होता है। (लोहाओ) लोभ से (दुहृओ) दोनों मव संबंधी (मयं) भय प्राप्त होता है। ___ भावार्थ:-हे आर्य ! जब आत्मा क्रोध करता है, तो उस क्रोध से उसे नरक आदि स्थानों की प्राप्ति होती है। मान करने से वह अधम गति को प्राप्त करता है । माया करने से पुरुषत्व या देवगति आदि अच्छी गति मिलने में रुकाघट होती है और लोम से जीय इस भव एवं पर-मय संबंधी भय को प्राप्त होता है। मूलः-कोहो पोई पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्वविणासणो ||६|| छाया:-क्रोध: प्रीति प्रणाशयति, मानो विनयनाशनः । माया मित्राणि नाशयति, लोभः सर्वबिनाशनः ।।६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (कोहो) क्रोध (पोइं) प्रीति को (पणासेइ) नाश करता है (माणो) मान (विणय) बिनम को (नासणो) नाश करने वाला है। (माया) कपट (मिसाणि) मित्रता को (नासेइ) नष्ट करता है | और (लोमो) लोभ (सब्ब) सारे सद्गुणों का (विणासणो) विनाशक है। भावार्थ:-हे गौतम ! क्रोध ऐसा बुरा है कि वह परस्पर की प्रीति को क्षणभर में नष्ट कर देता है। मान विनम्र माव को कमी अपनी ओर झांकने तक भी नहीं देता। कपट से मित्रता का भंग हो जाता है और लोभ समी गुणों का नाश कर देता है। अतः क्रोध, मान, माया और लोम इन चारों ही दुगुणों से अपनी आत्मा को सदा सर्वदा बचाते रहना चाहिए। मूल:--उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे । माय मज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।।१०।।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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