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________________ कषाय-स्वरूप १५५ छायाः-उपशमेन हन्यात् क्रोध, मान मार्दवेन जयेत् । माया मावभावेन, लोभ सन्तोषतो जयेत् ॥१०॥ सम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (उवसमेण) उपशान्त "क्षमा" से (कोह) क्रोष का (हणे) नाश करे (मद्दबया) नम्रता से (माणं) मान को (जिणे) जीते (मजब) सरल (मावण) मावना से माया) कपः को मार सिजना) रोग से (लोभ) लोभ को (जिणे) पराजित करना चाहिए। भावार्थ:-हे आर्य ! इस कोष रूप पाण्डाल को क्षमा से दूर भगाओ और विनम्र भावों से इस मान का मद नाश करो। इसी प्रकार सरलता से कपट को और संतोष से लोभ को पराजित करो। तभी वह मोक्ष प्राप्त होगा जहाँ पर कि गये बाद, वापिस दुखों में आने का काम नहीं। मूल:--असंक्खयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एअं वियाणाहि जणे पमत्ते, के नु बिहिंसा अजया गहिति ॥११॥ छाया:-असंस्कृतं जीवितं मा प्रमादी:, जरोपनीतस्य खलु नास्ति त्राणम् । एवं विजानीहि जनाः प्रभत्ताः, किं नु विहिस्रा अयता गमिष्यन्ति ॥११॥ अन्वयार्ष: है इन्द्रभूति ! (जीविय) यह जीवन (असंक्खयं) असंस्कृत है । अतः (मा पमायए) प्रमाद मत करो (ह) क्योंकि (जरोवणीयस्स) वृद्धावस्था वाले पुरुष को किसी की (ताण) शरण (नरिय) नहीं है (ए) ऐसा तू (वियाजाहि) अच्छी तरह से जान ले (पमत्ते) जो प्रमादी (विहिंसा) हिंसा करने वाले (अजया) अजितेन्द्रिय (जणे) मनुष्य हैं, वे (नु) बेचारे (क) किसकी परण (गहिति) ग्रहण करेंगे।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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