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निन्ध-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम ! इस मानव जीवन के टूट जाने पर न तो पुनः इसकी संधि हो सकती है, और न यह बन्न हो सकता है । अतः धर्माचरण करने में प्रभाद मत करो। यदि कोई वृद्धावस्था में किसी की धारण प्राप्त करना चाहे लो इसमें भी वह असफल होता है। 'मला फिर जो प्रमादी और हिंसा कारन थाले अजिोकि मनुष्य में, वे गलोर में निकली शरण ग्रहण करेंगे? अर्थात्-वहां के होने वाले दुलों से उन्हें कौन छुड़ा सकेगा ? कोई भी बचाने वाला नहीं है। मुल:--वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते,
इमम्मि लोए अदुवा परस्था । दीवप्पणव अणंतमोहे,
नेयाउअं दट्ट मदट्ट मेव ॥१२॥ छाया:-वित्तेन त्राणं न लभेत प्रमत्तः,
अस्मिल्लोकेऽधवा परत्र । दीपंप्रणष्ट इवानन्तमोहः,
नैयायिक दृष्ट्वाऽप्यदृष्ट्वेव ॥१२॥ भावार्थ:-है इन्द्रभूति ! (पमत्त) वह प्रमादी मनुष्य (इमम्मि) इस (लोए) लोक में (अदुवा) अथवा (परत्या) परलोक में (वित्तण) द्रव्य से (ताणं) त्राण, शरण (न) नहीं (लभे) पाता है (अणंतमोहे) बह अनंत मोहवाला (दीवप्पण? २) दीपक के नाश हो जाने पर (ने' याउअं) न्यायकारी मार्ग को (दट्ट मषट्ठ मेव) देखने पर भी न देखने वाले के समान है।
(१) जैसे धातु ढूंढ़ने वाले मनुष्य दीपक को लेकर पर्वत की गुफा की ओर गये और उस दीपक से गुफा देख भी ली, परन्तु उसमें प्रवेश होने पर उस दीपक की उन्होंने कोई पर्वाह न की। उनके आलस्य से दीपक बुझ गया, तब तो उन्होंने अंधेरे में इधर-उधर भटकते हुए प्राणान्त कष्ट पाया। इसी तरह प्रमादी जीव धर्म के द्वारा मुक्ति पथ को देख लेने पर भी उप्त धर्म की द्रव्य के लोभवश फिर उपेक्षा कर बैठते हैं । वहाँ वे जन्म-जन्मान्तरों में प्राणाम्त जैसे कष्टों को अनेकों बार उठाते रहेंगे ।