________________
कषाय-स्वरूप
१५७
भावार्थ:-हे गौतम ! धर्म-साधन करने में आलस्य करने वाले प्रमादी मनुष्यों की इस लोक और परलोक में द्रव्य के द्वारा रक्षा नहीं हो सकती है। प्रत्युत वे अनन्तमोही पुरुष, दीपक के नाश हो जाने पर न्यायकारी मार्ग को देखते हुए भी नहीं देखने वाले के समान है। मूलः -सुतेसु थाबी पडिबुद्धजीवी,
न वीससे पंडिए आसुपपणे । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं,
भारंडपक्खीव चरऽप्पमत्तो ॥१३॥ छाया:-सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी,
न विश्वसेत् पण्डित आशुप्रज्ञः । घोरा मुहर्ता अवलं शरीरं,
भारण्डपक्षीव चराऽप्रमत्तः ॥१३।। मावयार्थः- हे इन्द्रभूति ! (आसुपणे) तीक्ष्ण बुद्धि वाला (पडिबुद्धजीवी) द्रव्य निद्रा रहित तत्त्वों का जानकार (पंडिए) पण्डित पुरुष (सुत्तेसुयावी) द्रव्य
और भाव से जो सोते हुए प्रमादी मनुष्य हैं, उनका (न) नहीं (विससे) विश्वास करे, अनुकरण करे, क्योंकि (मुहत्ता) समय आयु क्षीण करने में (घोरा) भयंकर है । और (सरीरं) शरीर भी (अबलं) बल रहित है । अतः (भारंगपक्लीय) भारंड पक्षी की तरह (अप्पमत्तो) प्रमादरहित (चर) संयम में बिचरण कर।
भाषा:-हे गौतम ! द्रव्य निद्रा से जामत तीक्ष्णबुद्धि वाले पण्डित पुरुष जो होते हैं, ने द्रव्य और भाव से नींद लेने वाले प्रमादी पुरुषों के आचरणों का अनुकरण नहीं करते हैं । क्योंकि वे जानते हैं कि समय जो है वह मनुष्य का आयु कम करने में भयंकर है। और यह भी नहीं है कि यह शरीर मृत्यु का सामना कर सके । अतएव जिस प्रकार मारंड पक्षी अपना चुगा चुगने में प्रायः प्रमाय नहीं करता है उसी तरह तुम भी प्रमादरहित होकर संयमी जीवन विसाने में सफलता प्राप्त करो।