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________________ फपाय स्वरूप १५३ धम्ययार्थ:-- हे इन्द्रभूति ! ( कलाससमा ) कैलाश पर्वत के समान ( सुवण्णरूप्परस ) सोने, चांदी के ( असंख्या) अगणित ( पब्वया) पर्वत (ड) निश्चय (म) हों और वे (सिया) कदाचित् मिल गये, तदपि ( तेहि) उससे (लुखस्स) नोमी (नरस्स) मनुष्य की ( किचि ) किंचित् मात्र मी तृप्ति (न) नहीं होती है, (ड) क्योंकि (इच्छा) तृष्णा ( आगाससमा ) आकाश के समान ( अतिया ) अनंत है । भाषार्थ :- हे गौतम! कैलाश पर्वत के समान लम्बे-चौड़े असंख्य पर्वतों के जितने सोने-चांदी के ढेर किसी लोभी मनुष्य को मिल जायें तो भी उसकी तृष्णा पूर्ण नहीं होती है। क्योंकि जिस प्रकार आकाश का अन्त नहीं है, उसी प्रकार इस तुष्णा का भी कभी बन्द नहीं बात है । मूलः --- पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं पसुभिस्सह । पडिपुण्णं नाल मेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे ||७|| छाया: - पृथिवी शालिर्यवाश्चैव हिरण्यं पशुभिः सह । प्रतिपूर्ण नालमेकरम, इति विदित्वा तपश्चरेत् ॥७॥ अन्वयार्थ :- हे इन्द्रमूति ! (साली) शालि (जब) जो यब (बेव) और (पसुमिस्सह) पशुओं के साथ ( हरिण ) सोने वाली (पखिपुष्णं ) सम्पूर्ण मरी हुई ( पुढवी ) पृथ्वी ( एस्स) एक की तृष्णा को बुझाने के लिए ( नाल) समर्थवान् नहीं है। ( ६ ) इस तरह (विज्जा) जान कर (त) तप रूप मार्ग में (बरे) विचरण करना चाहिए । भावार्थ:- हे गौतम ! शालि, जब, सोना, चांदी पृथ्वी भी किसी एक मनुष्य की इच्छा को तृप्त करने जान कर तप रूप मार्ग में घूमते हुए लोभद और पशुओं से परिपूर्ण में समर्थ नहीं है । ऐसा →→→→ I
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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