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________________ १५२ मूल:- कसिणं पि जो इमं लोगं, पडिपुण्णं दलेज्जं इक्कस्स । तेणावि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया || ५ || छाया : - कृत्स्नमपि य इमं लोकं प्रतिपूर्ण दद्यादेकस्मै । T तेनापि स न संतुष्येत् इति दुःपूरकोऽयमात्मा ॥५॥ अम्वयार्थ :- हे इन्द्र भूति ! (जो ) यदि ( इक्कम) एक मनुष्य को (पंहिपुष्णं ) धन-धान्य से परिपूर्ण ( इमं ) यह (कसिणं पि) सारा ही (लोग) लोक (दलेज्म ) दे दिया जाय तो (तणाति) उससे भी (से) यह (त) नहीं ( होता है। (इइ) इस प्रकार से (इमे ) यह ( आया) आत्मा (दुप्पूर) इच्छा से पूर्ण नहीं हो सकता है । नियंण्य-प्रवचन भाषार्थ :- हे गौतम! वैश्रमण देव किसी मनुष्य को हीरे, पत्रे, माणिक मोती तथा धन-धान्य से भरी हुई सारी पृथ्वी दे दे तो भी उससे उसको संतोष नहीं हो सकता है। अतः इस आत्मा की इच्छा को पूर्ण करना महान् कठिन है । मूलः -- सुव्वणरूप्पस उ पव्वया भवे, सियाह केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि, इच्छा हु आगाससमा अतिआ || ६ || छाया:- सुवर्णरूप्ययोः पर्वता भवेयुः स्यात्कदाचित्खलु कैलाशसमा असंख्यकाः । नरस्य लुब्धस्य न तैः किंचित्, इच्छा हि आकाशसमा अनन्तिका ॥६॥
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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