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मूल:- कसिणं पि जो इमं लोगं, पडिपुण्णं दलेज्जं इक्कस्स । तेणावि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया || ५ ||
छाया : - कृत्स्नमपि य इमं लोकं प्रतिपूर्ण दद्यादेकस्मै ।
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तेनापि स न संतुष्येत् इति दुःपूरकोऽयमात्मा ॥५॥
अम्वयार्थ :- हे इन्द्र भूति ! (जो ) यदि ( इक्कम) एक मनुष्य को (पंहिपुष्णं ) धन-धान्य से परिपूर्ण ( इमं ) यह (कसिणं पि) सारा ही (लोग) लोक (दलेज्म ) दे दिया जाय तो (तणाति) उससे भी (से) यह (त) नहीं (
होता है। (इइ) इस प्रकार से (इमे ) यह ( आया) आत्मा (दुप्पूर) इच्छा से पूर्ण नहीं हो सकता है ।
नियंण्य-प्रवचन
भाषार्थ :- हे गौतम! वैश्रमण देव किसी मनुष्य को हीरे, पत्रे, माणिक मोती तथा धन-धान्य से भरी हुई सारी पृथ्वी दे दे तो भी उससे उसको संतोष नहीं हो सकता है। अतः इस आत्मा की इच्छा को पूर्ण करना महान् कठिन है ।
मूलः -- सुव्वणरूप्पस उ पव्वया भवे,
सियाह केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि,
इच्छा हु आगाससमा अतिआ || ६ ||
छाया:- सुवर्णरूप्ययोः पर्वता भवेयुः
स्यात्कदाचित्खलु कैलाशसमा असंख्यकाः । नरस्य लुब्धस्य न तैः किंचित्, इच्छा हि आकाशसमा
अनन्तिका ॥६॥