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कषाय स्वरूप
छाया: - पश् चापि आत्मानं वसुमान् मत्त्वा, संख्यां च वादमपरीक्ष्य कुर्यात् । तपसा वाऽहं सहित इति मत्वा, अन्यं जन पश्यति बिम्बभूतम् ||३||
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (जे आवि) जो अल्पमति है, वह (अप्पं ) अपनी आत्मा को (वसुमति ) संयमवान् है, ऐसा ( मत्ता) मान कर और ( संखाय ) अपने को ज्ञानवान् समझता हुआ (अप्परिवख) परमार्थ को नहीं जानकर ( कार्य ) वाद-विवाद करता है । (अहं) मैं ( तवेष ) तपस्या करके ( सहिउत्ति ) सहित हूँ, ऐसा ( मत्ता ) मानकर (अण्णं) दूसरे ( जणं) मनुष्य को (विभूयं ) केवल आकार मात्र ( पसति) देखता है ।
भावार्थ: है आर्य ! जो अल्प मतिवाला मनुष्य है, वह अपने ही को संयमवान् समझता है और कहता है कि मेरे समान संयम रखने वाला कोई दूसरा है ही नहीं । जिस प्रकार में ज्ञान वाला हूँ, वैसा दूसरा कोई है ही नहीं, इस प्रकार अपनी श्रेष्ठता का ढिढोरा पीटता फिरता है। तथा तपवान् भी मैं ही हूँ ऐसा मानकर वह दूसरे मनुष्य को गुणशून्य और केवल मनुष्याकार मात्र ही देखता है । इस प्रकार मान करने से वह मानी, पायी हुई वस्तु से होनावस्था में जा गिरता है।
मूल: -- पूयणट्ठा जसोकामी, माणसम्माणकामए ।
बहु पसवइ पावं, मायासल्लं च कुव्वइ ॥४॥ छाया:- पूजनार्थी यशस्कामी, मानसन्मानकामुकः । बहु प्रसूते पापं मायाशल्यं च कुरुते ||४|
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (पुराणट्ठा) ज्यों की त्यों अपनी शोमा रखने के अर्थ ( लोकामी) यश का कामी और (माणसम्माण) मान सम्मान का ( कामए) चाहने वाला (बहु) बहुत (पाव) पाप ( पसव ) पैदा करता है (च) और ( मायासह ) कपट शल्य को ( कुम्बइ ) करता है ।
भावार्थ हे गौतम! जो मनुष्य पूजा, यश, मान और सम्मान का भूखा है, वह इनकी प्राप्ति के लिए अनेक तरह के प्रपंच करके अपने लिए पाप पेक्षा करता है और साथ ही कपट करने में भी वह कुछ कम नहीं उतरता है।