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________________ १५० मूलः -- कोहगे होइ उगट्टभासी, विओसियं जे उ उदीरएज्जा । अंबे व से दंडपहं गहाय, अविओसिए घासति पावकम्मी || २ || निर्व्रन्य-प्रवचन छाया: - यः कोधनो भवति जगदर्थभाषी, व्यपशमितं यस्तु उदीरयेत् । अन्ध इव सदण्डपथं गृहीत्वा. अभ्यपशमितं घृष्यति पापकर्मा ||२|| अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (ज) जो (कोहणे) क्रोधी (होर) होता है वह ( जगह मासी) जगत् के अर्थ को कहने वाला है । ( उ ) और (जे) वह ( विलो - सियं ) उपशान्त क्रोध को ( उदीरएज्जा ) पुनः जागृत करता है । (ब) जसे (मंषे) अपा (दंड) लकड़ी (गाय) ग्रहण कर मार्ग में पशुओं से कष्ट पाता हुआ जाता है, ऐसे ही (से) वह (अविओसिए) अनुपशान्त (पावकम्मी ) पाप करने चाला (घासति ) चतुर्गति रूप मार्ग में कष्ट उठाता है । भावार्थ: है गोतम ! जिसने बात-बात में क्रोष करने का स्वभाव कर रक्खा है, वह जगत् के जीवों में अपने कर्मों से लूलापन, अस्थापन, अधिरता, आदि न्यूनताओं को अपनी जिह्वा के द्वारा सामने रख देता है और जो कलह उपशान्त हो रहा है, उसको पुनः चेतन कर देता है । जैसे अन्धा मनुष्य लकड़ी को लेकर चलते समय मार्ग में पशुओं आदि से कष्ट पाता है, ऐसे ही वह महाकोषी चतुर्गति रूप मार्ग में अनेक प्रकार के जन्म-मरणों का दुख उठाता रहता है । मूलः -- जे आवि अप्पं वसुमति मत्ता, संखाय वायं अपरिक्ख कुज्जा । तवेण वाहं सहिउं त्ति मत्ता, अण्णं जणं पस्सति विभूयं ||३||
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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