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________________ EE निर्गन्ग-प्रवचन ___ अवार्थ:-हे इन्द्रभूति (एए य) इस (संगे) स्त्री-प्रसंग को (समइक्कमित्ता) छोड़ने पर (सेसा) अवशेष धनादि का छोड़ना (चेव) निश्चय करके (सुहत्तरा) सुगमता से (मवंति) होता है (जहा) जैसे (महासागर) बड़ा समुद्र (उत्तरित्ता) तिर जाने पर (गंगासमाणा) गंगा के समान (नई) नदी (अवि) मी (मवे) सुख से पार की जा सकती है। भावार्थ:---हे इन्द्रभूति ! जिसने स्त्री-संमोग का परित्याग कर दिया है उसको अवशेष धनादि के त्यागने में कोई भी कठिनाई नहीं होती, अर्थात् शीच ही वह दूसरे प्रपंचों से भी अलग हो सकता है। जैसे-कि महासागर के परले पार जाने मान के लिए गंगा नदी को लांघना कोई कठिन कार्य नहीं होता। मूलः-कामणुगिद्धिप्प भवं खु दुक्खं, सवस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइझ माणसि च किंचि, तस्संतगं गच्छइ बीयरागो ॥१७॥ छायाः-फामानुगृद्धिप्रभवं खलु दु:खं, सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य । यत् कायिक मानसिकं च किञ्चित्, तस्मानिकं गच्छति वीतराग: ।।१७।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (सदेवगस्स) देवता सहित (सव्वस्स) सम्पूर्ण (लोगम्स) लोक के प्राणी मात्र को (कामाणुगिद्धिष्पमयं) काममोग की अभिलाषा से उत्पन्न होने वाला (खु) ही, (दुक्ख) दुःख लगा हुआ है (ज) जो (काइअं) कायिका (च) और (माणसिअं) मानसिक (किंचि) कोई भी दुख है (तस्स) उसमे (अंतगं) अन्त को (बीयरागो) वीतराग पुरुष (गच्छइ) प्राप्त करता है। ___ भावार्थ:--हे गौतम ! भवनपति, बागव्यन्तर, ज्योतिषी आदि सभी तरह के देवताओं से लगाकर सम्पूर्ण लोक के छोटे से प्राणी तक को काम
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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