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________________ ब्रह्मचर्य-निरूपण छाया:-मोक्षाभिकांक्षिणोऽपि मानवस्य, __संसारभीरोः स्थितस्य धर्म । नेतादृशं दुस्तरमस्ति लोके, यथा स्त्रियों बाल मोहसः ॥१५!! अम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (मोक्खामिक खिस्स) मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले (संसारभीरुस्स) संसार में जन्म-मरण करने से डरने वाले और (पम्मे) धर्म में (ठियस्स) स्थिर है आस्मा जिनकी ऐसे (मावस्स) मनुष्य को (वि) मी (जहा) जैसे (बालमणोहराओ) मुखों के मन को हरण करने वाली (स्थिओ) स्त्रियों से दूर रहना कठिन है, तब (एयारिसं) ऐसे (सोए) लोक में (दुत्तरं) विषय रूप समुद्र को लांघ जाने के समान दूसरा कोई कार्य कठिम (न) नहीं (अस्थि) है। भावार्थ:-हे गौतम ! जो मोक्ष की अभिलाषा रखते है, और जन्ममरणों से भरमीत होते हुए धर्म में अपने आत्मा को स्थिर किये रहते हैं, ऐसे मनुष्यों को भी मुत्रों के मनोरंजन करने वाली स्त्रियों के कटाक्षों को निष्फल करने के समान इस लोक में दूसरा कोई कठिन कार्य नहीं है। तात्पर्य यह है कि संयमी पुरुषों को इस विषय में सदैव जागरूक रहना चाहिए । मूल:-एए य संगे समइक्क मित्ता, सहुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासागरमुत्तरित्ता, __ नई भवे अवि गंगासमाणा ॥१६॥ छाया:-एताश्च संगान् समतिक्रम्य, सुखोत्तराश्चंब भवन्ति शेयाः । यथा महासागरमुत्तीर्य, नदी भवेदपि गंगासमाना ॥१६॥
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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