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________________ निर्गन्य-प्रवचन मूलः दाणे लाभे य भोगे य, उपभोगे वीरिए तहा । पंचविहमंतरायं, समासेण विआयिं ॥१५॥ छाया:-दाने लाभे च भोगे च, उपभोगे वीर्थे तथा । पञ्चविधमन्तराय, समासेन व्याख्यातम् ॥१५।। अन्वयार्थः हे इन्द्रभूति ! (अन्तराय) अन्तराय कर्म (समासण) संक्षेप से (पंचविहं) पाँच प्रकार का (विआहियं) कहा गया है । (दाणे) दानान्तराय (य) और (लाभे) लाभान्तराय (मोगे) भोगान्त राय (य) और (उपभोगे) उपभोगातराय (तहा) वैसी ही (पीरिए) वीर्यान्तराय । भावार्थ:-हे गौतम ! जिसके उदय से इच्छित वस्तु की प्राप्ति में बाधा आये वह अन्तराय कर्म है। इसके पाँच भेद हैं । दान देने की वस्तु के विद्यमान होते हुए भी, दान देने का अच्छा फल जानते हुए. मी, जिसके कारण दान नहीं दिया जा सके वह वामास्तरस्य है। व्यवहार में व मांगने में सब प्रकार की सुविधा होते हुए भी जिसके कारण प्राप्ति न हो सके वह लाभान्तराय है। खान-पान आदि की सामग्री के व्यवस्थित रूप से होने पर मी जिसके कारण खा-पी न सके, खा और पी भी लिया तो हजम न किया जा सके, वह भोगास्तराप कर्म है । मोग पदार्थ बे हैं, जो एक बार काम में आते हैं जैसे भोजन, पानी आदि और जो बार-बार काम में आते हैं उन्हें उपभोग माना गया है जसे वस्त्र, आभूषण आदि 1 अतः जिसके उदय से उपभोग की सामग्री संघटित रूप से स्वाधीन होते हुए भी अपने काम में न ली जा सके उसे उपभोगान्त राय कर्म कहते हैं । और जिसके उदय से युवान और बलवान होते हुए भी कोई फायं न किया जा सके, वह बीर्यास्तराय कर्म का फल है। है गौतम ! यह अन्तराम कम निम्न प्रकार से बंधता है । दान देते हुए के बीच बाधा डालने से, जिसे लाम होता हो उसे धक्का लगाने से, जो खा-पी रहा हो या खाने-पीने का जो समय हुआ हो उसे टालने से, जो 'उपमोम की सामग्री को अपने काम में ला रहा हो उसे अन्तराय देने से तथा जो सेवा धर्म का पालन कर रहा हो उसके बीच रोड़ा अटकाने से आदि-आदि कारणों से यह जीव अन्तराय कर्म बौष लेता है । हे गौतम ! अब हम आठों कर्मों की पृथक-पृथक स्थिति कहेंगे सो सुनो ।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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