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________________ नियंग्य-प्रवचन अन्वयार्थ :- हे पुत्रो ! (इ) इस संसार में (जे) जो (नरा) मनुष्य (साया जुग ) ऋद्धि, रस साता के ( मज्सोदवत्रा ) साथ ( कामेहि) काम भोगों से ( मुच्छा) मोहित हो रहे हैं, और (कवणेण समं) दीन सरीखे (पब्भिया) बेटे हैं वे (आहित ) कहे हुए (समाहि) समाधि मार्ग को (न) नहीं (वि जाति) जानते हैं । fuc -- भावार्थ:- हे पुत्रो ! इस संसार में अनेक प्रकार के वैमबों से युक्त जो मनुष्य हैं वे काम भोगों में आसक्त होकर कायर की तरह बोलते हुए, धर्माचरण में हठीलापन दिखाते हैं, उन्हें ऐसा समझो कि ये वीतराग के कहे हुए समाधि मार्ग को नहीं जानते हैं । मूल :- अदक्खुव दक्खुवाहियं सहसु अदबखुदंसणा | हृदि हु सुनिरुद्धदंसणे, मोहणिज्जण कडेण कम्मुणा ||८|| छाया:- अपश्य इव पश्यव्याख्यातं, श्रद्धस्व अपश्यक दर्शनाः । हंहो हि सुनिरुद्धदर्शनाः, मोहनीयेन कृतेन कर्मणा ||८|| 1 अभ्वयार्थ :- हे पुत्रो ! ( अदवस्तुव ) तुम अन्धे क्यों बने जा रहे हो ! ( दक्खुवाहिय) जिसने देखा है उनके वाक्यों में (सहस्र ) श्रद्धा रखखो और (हंदि अदवखुदंसणा ) हे ज्ञान- शून्य मनुष्यो ! ग्रहण करो वीतराग के कहे हुए आगमों को । परलोकादि नहीं है, ऐसा कहने वालो के (मोहणिज्जेण) मोहवश (कडेण) अपने किये हुए (कम्मुणा) कर्मों द्वारा ( दंसणे ) सम्यक्ज्ञान (सुनिरुद्ध) अच्छी तरह ढका है । भावार्थ: है पुत्रो ! कर्मों के शुभाशुभ फल होते हुए भी जो उसकी नास्तिकता बताता है. वह अन्धा ही है । ऐसे को कहना पड़ता है, कि जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप में अपने केवलज्ञान के बल से स्वर्ग नरकादि देखे हैं, उनके वाक्यों को प्रमाण भूत, वह माने और उनके कहे हुए वाक्यों को, ग्रहण कर उनके अनुसार अपनी प्रकृति बनाने हे ज्ञानशून्य मनुष्यो ! तुम कहते हो कि वर्तमान काल में जो होता है, वही है और सब ही नास्तिरूप हैं । ऐसा कहने से तुम्हारे पिता और पितामह की मी नास्तिता सिद्ध होगी। और जब इनकी हो नास्ति होगी, तो तुम्हारी उत्पत्ति कैसे हुई ? पिता के बिना पुत्र की कभी
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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