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________________ २८ निग्रंन्य-प्रवचन मूल:--चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खित्त गिहं धणधन्नं च सव्वं । सकम्मबीओ अवसो पयाइ, परंभवं सुन्दरं पावर्ग वा ॥२५।। छाया:-त्यक्त्वा द्विपदं चतुष्पदं च, क्षेत्रं गृहं धनधान्यं च सर्वम् । स्वकर्म द्वितीयोऽवश: प्रयाति, परं भयं सुन्दरं पापकं वा ॥२५।। अम्बयाष:-हे इन्द्रभूति ! (सकम्मबीओ) आत्मा का दूसरा साथी उसका अपना किया हुआ कर्म ही है । इसी से (अबसो) परवश होता हुआ यह जीव (सन्नं) सब (दुपयं) स्त्री, पुत्र, दास, दासी आदि (च) और (च उप्पयं) हाथी, घोड़े आदि (च) और (खित) खेत वगैरह (गिहू) घर (घण) रुपया, पैसा, सिक्का वगैरह (धन) अन्न वगैरह को (चिच्चा) छोड़कर (सुन्दर) स्वर्गादि उत्तम (वा) अथवा (पावर्ग) नरकादि अधम ऐसे (परंभव) परमव को (फ्याइ) जाता है। भावार्थ:-हे गौतम ! स्वकृत कर्मों के अधीन होकर यह आत्मा स्त्री, पुत्र, हाथी, घोड़े, खेत, घर, छाया, पंसा, धान्य, चांदी, सुवर्ण आदि सभी को मृत्यु की गोद में छोड़कर जैसे भी शुमाशुभ कर्म इसके द्वारा किये होते हैं उनके अनुसार स्वर्ग तथा नरक में जाकर उत्पन्न होता है। मूल:—जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं तु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥२६।।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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