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भाषा-स्वरूप
१२७ छाया:-असत्यामृषां सत्यां च, अनवद्यामकर्कशाम् ।
समुत्प्रेक्ष्याऽसंदिग्धां गिरं भाषेत प्रज्ञावान् ।।२।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (असच्चमोसं) व्यावहारिक भाषा (च) और (अणवज्ज) वध्य रहित (अकक्कस) फर्कशता रहित (असंदिद्ध) संदेहरहित (समुप्पेह) विचार कर ऐसी (सच्च) सत्य (गिर) भाषा (पन्नव) बुद्धिमान् (मासिज्ज) बोले ।
भावार्थ:-हे गौतम ! सत्य भी नहीं, असत्य भी नहीं ऐसी व्यावहारिक भाषा जैसे वह गांव आ रहा है आदि और किसी को कष्ट न पहुँचे बसी एवं कर्णप्रिय तपा संदेहरहित ऐसी भाषा को भी बुद्धिमान् पुरुष समयानुसार विचार कर बोलते हैं। मूल:---तहेब फरसा भासा, गुरुभूओवघाइणी ।
सच्चा वि सा न बत्तब्बा, जओ पावस्स आगमो ॥३॥
छाया:-तर्थव परुषा भाषा, गुरु भूतोपधातिनी।
सत्यापि सा न वक्तव्या, मतः पापस्यागमः ॥३॥
अम्बयार्थः-है इन्द्रभूति ! (तहेव) इसी प्रकार (फरसा) कठोर (गुरुभूओयघाइणी) अनेकों प्राणियों का नाश करने वाली (सच्चा वि) सत्य है तो भी (जओ) जिससे (पावस्स) पाप का (आगमो) आगमन होता है (सा) वह भाषा (दत्तब्बा) बोलने योग्य (न) नहीं है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! जो मनुष्य कहलाते हैं उनके लिए काटोर एवं जिससे अनेकों प्राणियों की हिंसा हो, ऐसी सत्य भाषा भी बोलने योग्य नहीं होती है। यद्यपि वह सत्य भाषा है, तदपि वह हिंसाकारी भाषा है, उसके बोलने से पाप का आगमन होता है, जिससे आस्मा मारवान् बनती है ।
मूल:--तहेव काणं काणे ति, पंडगं पंडगे ति वा ।
वाहि वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए ॥४||