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________________ ५४ निग्य-प्रवचन उस तीथं में आत्मा के पर्यटन करते रहने से (विमलो) निर्मल (विसुद्धो) शुद्ध और (सुसीतिभूभी) राग-द्वेषादि से रहित वह हो जाता है। उसी तरह मैं भी उस ब्रह और तीर्थ का सेवन करके (दोसं) अपनी आत्मा को दूषित करे, उस कर्म को (पजहामि) अत्यन्त दूर करता हूँ। भावार्थ:-है आर्य ! मिथ्यात्यादि पापों से रहित और मास्मा के लिए प्रवासनीय एवं उच्च भावनाओं को प्रगट करने में सहाय्यभूत ऐसा, जो स्वच्छ धर्म रूप द्रह है उसमें इस आरमा को स्नान कराने से, तथा ब्रह्मचर्य रूप शान्ति-तीर्य की यात्रा करने से शुद्ध निर्मल और रागद्वेषादि से रहित यह हो जाता है। अतः मैं भी धर्म रूप द्रह और ब्रह्मचर्य रूप तीर्थ का सेवन करके आन्या को दुषित काले गाने गगु को सांगोपन उट कर रहा हूँ। बस, यह आत्म-शुद्धि का स्नान और उसकी तीर्थ यात्रा है। ॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ।।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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