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________________ १८० निम्थ-प्रवचन छाया:-- मनः साहमिको भीम: दुष्टाश्वः परिधावति । तं सम्यक् तु निगृह्णामि, धर्मशिक्षायै कन्धकम् ।।२।। अन्वयार्थ:-हे मुनि (मणी) मन बड़ा (गाहसिओ) साहसिक और (भीमो) भयंकर (दुगुस्स) दुष्ट घोड़े की तरह इधर-उधर (परिधावई) दौड़ता है (तं) उसको (धमसिक्खाइ) धर्म रूप शिक्षा से (कंथग) जातिवंत अन्य की तरह (सम्म) सम्यक् प्रकार से निगिण्हामि) ग्रहण करता हूँ। __भावार्थ:-हे मुनि ! यह मन अनयों के करने में बड़ा साहसिक और भयंकर है । जिस प्रकार दुष्ट घोड़ा इधर-उधर दौड़ता है, उसी तरह पह मन मी जान रूप लगाम के बिना इधर-उधर चक्कार मारता फिरता है। ऐसे इरा मन को धर्म रूप शिक्षा से जातिवंत घोडे की तरह मैने निग्रह कर रक्खा है । इसी तरह सब मुनियों को चाहिए, कि वे ज्ञानरूप लगाम से इस मन को निग्रह करते रहें। मल:--सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा य, मणगुत्ती चाउन्विहा ।।३।। छायाः- सत्या तथैव मृषा च, सत्यामृपा तथैव च । चतुर्थ्य सत्यामृषा तु, मनोगुप्तिश्चतुर्विधा ॥३॥ अन्ययाः-हे इन्द्रभूति ! (मणगुत्ती) मन गुप्ति (चविहा) चार प्रकार की है । (सपा) सत्म (तहेव) तथा (मोसा) मृषा (य) और (सच्चामोसा) सत्यमृषा (य) और (तहेव) वैसे ही (चउत्थी) चौथी (असच्चमोमा) ! असत्यमृषा है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! मन धारों ओर घूमता रहता है । (१) सत्य विषय में; (२) असत्य विषय में; (३) कुछ सत्य और कुछ असत्य विषय में; (४) सत्य भी नहीं, असत्य भी नहीं ऐसे असत्यमृषा विषय में प्रवृत्ति करता है । जब मह मन असस्य, कुछ सत्य और कुछ असत्य, इन दो विभागों में प्रवृत्ति करता है तो महान् अनर्थों को उपार्जन करता है। उन अनर्थों के भार से आत्मा अधोगति में जाती है। अतएव असत्य और मिथ की ओर घूमते हुए इस मन को निग्रह करके रखना पाहिए ।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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