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ॐ
निर्ग्रन्थ-प्रवचन
( अध्याय पन्द्रहवां)
मनोनिग्रह
॥ श्रीभगवानुवाच ॥ मूल:- एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामहं ॥ १ ॥
छाया:- एकस्मिन् जिते जिताः पञ्च, पंचसु जितेषु जिता दश । दशघा तु जित्वा, सर्वशत्रून् जयाम्यहम् ||१||
अन्वयार्थ: है मुनि ! (एगे ) एक मन को (जिए) जीतने पर (पंख) पाँचों इन्द्रियाँ (जिया) जीत ली जाती हैं और (पंच) पाँच इन्द्रियाँ (जिए) जीतने पर (दस) एव मन पाँच इन्द्रियां और चार कषाय, यों दसों जिया) जीत लिये जाते हैं । ( दसहा उ ) दशों को (जिविता) जीत कर (पं) वाक्यालंकार (सव्यंसत्तू) सभी शत्रुओं को (मह) मैं ( जिणा ) जीत लेता हूँ ।
भावार्थ:- हे मुनि ! एक मन को जीत लेने पर पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करली जाती है। ओर पाँचों इन्दियों को जीत लेने पर एक मन पाँच इन्द्रिय और क्रोध, मान, माया, लोभ मे दशों ही जीत लिये जाते हैं । मोर इन देशों को जीत लेने से सभी शत्रुओं को जीता जा सकता है । इसीलिए सब मुनि और गृहस्थों के लिए एक बार मन को जीत लेना श्रेयस्कर है।
मूलः - मणो साहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधावई ।
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तं सम्मं तु निगिहामि, धम्मसिक्खाइ कंथगं ॥२॥