________________
मनो-निग्रह
मूलः--संरंभसमारने, रंगम्भिर राव य :
मणं पवत्तमाणं तु, निअत्तिज्ज जयं जई ।।४।। छाया:---संरंभे समारंभे आरम्भे च तथैव च ।।
मन: प्रवर्त्तमानं तु, निवर्तयेद्यतं यति: ।।४॥ सम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जयं) यत्नवान् (जई) यति (सरंभसमारंभे) किसी को मारने के सम्बन्ध में और पीड़ा देने के सम्बन्ध में (य) और (तहेव) वैसे ही (आरम्भम्मि) हिंसक परिणाम के विषय में (पवत्तमाणं तु) प्रवृत्त होते हुए (मणं) मन को (नितिज्ज') निवृत्त करना चाहिए।
भावार्थ:-हे गौतम ! यत्नवान् साधु हो, या गृहस्थ हो, चाहे जो हो, किन्तु मन के द्वारा कभी भी ऐसा बिचार तक न करे, कि अमुक को मार डालू या उसे किसी तरह पीड़ित कर दं। तथा उसका सर्वस्व नष्ट कर हालं । क्योंकि मन के द्वारा ऐसा विचार मात्र कर लेने से वह आत्मा महापातकी बन जाता है। अतएव हिंसक अशुभ परिणामों की ओर जाते हुए इस मन को पीछा घुमाओ, और निग्रह करके रक्खो 1 इसी तरह कर्म बन्धने की ओर घूमते हुए, बचन और काया को भी निग्रह करके रक्खो। मूल:----वत्थगंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य ।
अच्छंदा जे न भुजंति, न से चाइ ति वुच्चइ ॥५॥ छायाः-वस्त्रगन्धमलङ्कार, स्त्रिय: शयनानि च ।
अच्छन्दा ये न भुञ्जन्ति, न ते त्यागिन इत्युच्यते ॥५॥ अन्वयार्थः हे इन्द्रभूति ! (वत्यगंधमलंकार) वस्त्र, सुगंध, भूषण (इत्पीओ) स्त्रियों (य) और (सयणाणि) शव्या वगैरह को (अच्छदा) पराधीन होने से (जे) जो (न) नहीं (मुंजति) मोगते हैं (से) वे (चाह) त्यागी (न) नहीं (ति) ऐसा (बुच्चइ) कहा है।
(१) नियतिज्ज ऐसा मी कहीं-कहीं आता है, ये दोनों शुद्ध है। क्योंकि क. ग, च, द. आदि वर्णों का लोप करने से "अ" अवशेष रह जाता है । उस जगह 'अव णों य अतिः " इस सूत्र से "अ" की जगह "य" का आदेश होता है ऐसा अन्यत्र मी समा लें।