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नियंभ्य-प्रवचन
भावार्थ:-हे आयं ! सम्पूर्ण परित्याग अवस्था में, या गृहस्प की सामायिक अथवा पोषध अवस्था में, अथवा त्याग होने पर कई प्रकार के बढ़िया वस्त्र, सुगंध, इत्र, आदि भूषण वगैरह एवं स्त्रियों और शय्या आदि के सेवन करने की जो मन द्वारा केवल इच्छा मात्र ही करता है, परन्तु उन वस्तुओं को पराधीन होने से भोग नहीं सकता है, उसे त्यागी नहीं कहते हैं, क्योंकि उसकी इच्छ्या नहीं मिटी, वह मानसिक त्यागी नहीं बना हैं :
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मूलः-जे य कंते पिए भोए, लढे वि पिट्टिकुव्वइ ।
साहीणे चयई भोऐ, से हु चाइ त्ति वुच्चइ ।।६।। छाया:—यश्च कान्तान प्रियान् भोगान्, लब्धानपि वि पृष्ठीकुरुते ।
स्वाधीनान् त्यजति भोगान्, स हि त्यागीत्युच्यते ॥६॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (कते) सुन्दर (पिए) मन मोहना (लद्धे) पाये हुए (मोग) भोगों को (वि) मी (जे) जो (पिदिकुम्वइ) पीठ दे देवें, यही । नहीं, जो (मोए) भोग (साहोणे) स्वाधीन हैं उन्हें (धयई) छोड़ देता है । (ह) : निश्चय (से) वह (चाइ) त्यागी है त्ति) ऐशा (वुच्चाइ) कहते हैं।
भावार्थ:-हे गौतम | जो गृहस्थाश्रम में रह रहा है, उसको सुन्दर और प्रिय मोग प्राप्त होने पर भी उन भोगों से उवासीन रहता है, अर्थात अलिप्त रहता हुआ उन मोगों को पीठ दे देता है, यही नहीं, स्वाधीन होते हुए भी उन भोगों का परित्याग करता है। वही निश्चय रूप से सच्चा त्यागी है ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं। मूलः- समाए पेहाए परिश्वयंतो,
सिया मणो निस्सरई बहिद्धा । "न सा महं नो वि अहं पि तीसे,"
इच्चेव ताओ विण एज्ज रागं ।।७।। छायाः-समया प्रेक्षया परिव्रजतः, स्यान्मनो निःसरति अहिः ।
म सा मम नोऽप्यहं तस्याः , इत्येव तस्या विनयेत रागम् ।।७।।