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मोक्ष-स्वरूप
मूलः -- अणुसासिओ न कुपिज्जा, खंति से विज्ज सह संसारंग,
पंडिए ।
हासं कोडं च वज्जए || २ ||
छाया:- अनुशासितो न कुप्येत्, क्षान्ति सेवेत पण्डितः । क्षुद्रे, सह संसर्ग, हास्यं क्रीडां च वर्जयेत् ॥२॥
खुड्डु हि
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रमूति ! (पंडिए) पंडित वही है, जो ( अणुसासिओ) शिक्षा देने पर (न) नहीं (कुप्पिज्जा ) क्रोष करे, और (संति) क्षमा को (सेविज्ञ) सेवन करता रहे। (खुड्ड हि) बाल अज्ञानियों के ( सह) साथ ( संसग्गि ) संसर्ग ( ह्रासं) हास्य (च) और (को) कोटा को ( वज्जर) त्यागे ।
भावार्थ - हे गौतम! पंडित कही है, जो कि शिक्षा देने पर क्रोध न करे और क्षमा को अपना अंग बनाले | तथा दुराचारी और अज्ञानियों के साथ कभी भी हंसी-ठट्टा न करें, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है ।
सूलः -- आसणगओ ण पुच्छेज्जा,
खेव सेज्जागओ कयाइवि ।
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आगमुक्कुडुओ संतो, पुच्छेज्जा
पंजलीउड ||३||
छाया:- आसनगतो न पृच्छेत् नैव शय्यागतः कदापि च । आगम्य उत्कुटुकः सन् पृच्छेत् प्राञ्जलिपुटः ||३||
अभ्ययार्थ- हे इन्द्रभूति ! गुरुजनों से (आसणगओ) आसन पर बैठे हुए कोई भी प्रश्न (ण) नहीं (पुच्छेज्जा) पूछना और ( कयाइवि ) कदापि ( सेज्जागओ) शय्या पर बैठे हुए भी (ण) नहीं पूछना, हाँ ( आगमुक्कुडओ) गुरुजनों के पास आकर उकई आसन से ( सन्तो) बैठकर (पंजलीशो) हाथ जोड़ कर (पुच्छेज्जा) पूछना चाहिए ।