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________________ १७२ निर्गन्ध-प्रवचन छाया:-अभवत् पुराऽपि भिक्षवः, आगमिष्या अपि सुग्रताः । एतान् गुणानाहुस्ते, काश्यपस्यानुधर्मचारिणः ॥१०॥ अन्वयार्थ:-हे (भिक्खुवो) भिक्षुओ ! (पुग) पहले (अमविसु) हुए जो (मि) और (आएसा वि) भविष्यत् में होंगे, वे सब (सुब्बप्ता) सुनती होने से जिन (भवंति) होते हैं । (ते) वे सब जिन (एयाइं) इन (गुणाई) मुणों को एकसे (आइ) कहते हैं । क्योंकि, (कासबस्स) महावीर भगवान के (अणुधम्म'चारिणो) वे धर्मानुषारी हैं। भावार्थ:-हे भिक्षुओ ! जो बीते हुए काल में तीर्थकर हुए है, उनके और मविष्यत् में होंगे उन सभी तीर्थंकरों के कथनों में अन्तर नहीं होता है । सभी का मन्तव्य एक ही सा है । क्योंकि वे सुनती होने से राग व रहित जो जिनपद है, उसको प्राप्त कर लेते हैं और सर्वज्ञ सर्वदशी होते हैं। इसी से ऋषमदेव और भगवान् महावीर आदि सभी "ज्ञान-दर्शन-चारित्र से मुक्ति होती है,” ऐसा एक ही साल वाले हैं। ॥श्रीऋषभोवाच ॥ मूलः-तिविहेण वि पाण मा हणे, आयहिते अणियाण संयुडे । एवं सिद्धा अणंतसो, ___ संपइ जे अणागयावरे ॥११॥ छाया:-त्रिविधेनापि प्राणान् मा हन्यात्, आत्महितोऽनिदानः संवृतः । एवं सिद्धा अनन्तशः, संप्रति ये अनागत अपरे ॥११॥ अम्बयाई:-हे पुत्रों ! (ज) जो (आयहित) आत्म-हित के लिए (तिविहेण वि) मन, वचन, फर्म से (पाण) प्राणों को (मा हणे) नहीं हनते (अणियाण) निदान रहित (संबुडे) इन्द्रियों को गोपे (एवं) इस प्रकार का जीवन करने से
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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