SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैराग्य-सम्बोधन १७३ (अणंतसो) अनन्त (सिद्धा) मोक्ष गये हैं और (सम्पइ) वर्तमान में जा रहे हैं (अणागयावरे) और अनागत अर्थात भविष्यत् में जावेंगे। भावार्थ:--हे पुत्रो ! जो आरम-हित के लिए एकेन्द्रिय से लेकर पंषेन्द्रिय पर्यंत प्राणी मात्र की मन, बचन, और कर्म से हिंसा नहीं करते हैं, और अपनी इन्द्रियों को विषय बासना की ओर धूमने नहीं देते हैं, बस, इसी व्रत के पालन करते रहने से भूत काल में अनन्त जीव मोक्ष पहुंचे हैं। और वर्तमान में का रहे हैं। इसी तरह भविष्यत् काल में मी जावेंगे । ॥श्रीभगवानुवाच ॥ मूलः--संबुज्झहा जंतवो माणुसत्त, द४ भयं वालिसेणं अलंभो । एगंतदुक्खे जरिए व लोए, सकम्मुणा विपरियासुवेइ ।।१२।। छायाः-संबुध्यध्वम् जन्तब ! मानुषत्वं, दृष्ट्वा भयं बालिशेनालंभः । एकान्त दु:खाज्ज्वरित इव लोकः, स्वकर्मणा विपर्यासमुवैति ॥१२।। अन्वयार्ष:- (जंतवो) हे मनुजो ! तुम (माणुसत्त) मनुष्यता को (संयुशहा) अच्छी तरह जानो। (भयं) नरकादि मय को (दट्ठ) देख कर (वालिसेणं) मूर्खता के कारण विवेक को (अलंगो) जो प्राप्त नहीं करता वह (सकम्मगा) अपने किये हुए कर्मों के द्वारा (जरिए) ज्वर से पीड़ित मनुष्यों की भांति (एगत दुपखे) एकान्त दुख युक्त (लोए) लोक में (विपरियामुवेइ) पुन: पुनः जन्म-मरण को प्राप्त होता है। भावार्थ:-हे मनुजो ! दुर्लभ मनुष्य भव को प्राप्त करके फिर मी जो सम्यक् शान आदि को प्राप्त नहीं करते हैं, और नरकादि के नाना प्रकार के दुख रूप मयों के होते हुए भी मूर्खता के कारण विवेक को प्राप्त नहीं करते है, वे अपने किये हुए कर्मों के द्वारा ज्वर से पीड़ित मनुष्यों की तरह एकान्त दुखकारी जो यह लोक है, इसमें पुनः-पुनः जन्म-मरण को प्राप्त करते हैं।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy