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________________ १७४ मूल:- जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाइ मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥ १३ ॥ निर्ब्रम्प-प्रवचन छाया:- यथा कूर्मः स्वाङ्गानि स्वदेहे समाहरेत् । एवं पापानि मेधात्मा साह अभ्ययार्थ: हे आर्य ! (जहा) जैसे ( कुम्मे ) कछुवा ( अंगाई) अपने अंगोपांगों को (सए) अपने (देहे) शरीर में (समाहरे) सिकोड़ लेता है ( एवं ) इसी तरह (मेधादी) पण्डित जन (पावाई ) पापों को (अज्जप्पेण) अध्यात्म जान से (समाहरे) संहार कर लेते हैं । भावार्थ:- हे आर्य ! जैसे कलमा अपना महित होता हुआ देख कर अपने अंगों को अपने शरीर में सिकोड़ लेता है, इसी तरह पण्डित जन मी विषयों की ओर जाती हुई अपनी इन्द्रियों को आध्यात्मिक ज्ञान से संकुचित कर रखते हैं । मूलः -- साहरे हत्थपाए य, मंगं पंचेन्द्रियाणि य । पावकं च परीणामं भासा दोसं च तारिस || १४ || छाया:- संहरेत् हस्तपादी वा मनः पञ्चेन्द्रियाणि च । पापकं च परीणामं भाषादोषं च तादृशम् ||१४|| अपार्थः -- हे आर्य ! (तारिस) कछुवे की तरह ज्ञानी जन (हत्थपाए य ) हाथ और पात्रों की व्यर्थ चलन क्रिया को (मणं) मन की चपलता को (य) और (पंचेन्दियाणि) विषय की ओर घूमती हुई पांचों ही इन्द्रियों को (च) और (पाक) पाप के हेतु ( परीणामं ) आने वाले अभिप्राय को (च) और ( मासादो ) सावद्य भाषा बोलने को (साहरे) रोक रखते हैं । भावार्थ:-- हे आर्य ! जो ज्ञानी जन हैं, वे कछुए की तरह अपने हाथ पावों को संकुचित रखते हैं । अर्थात् उनके द्वारा पाप कर्म नहीं करते है । और पापों की ओर घूमते हुए इस मन के वेग को रोकते हैं ! विषयों की ओर इन्द्रियों को सकिने तक नहीं देते हैं। और बुरे भावों को हृदय में नहीं आने देते और जिस भाषा से दूसरों का बुरा होता हो, ऐसी भाषा भी कभी नहीं बोलते हैं । J
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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