________________
जाद
वैराग्य-सम्बोधन मूलः-एयं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचणं ।
__ अहिंसा समयं चेव, एतावत वियाणिया ।।१।। छायाः—एतत् खलु ज्ञानिनः सारं, यन्न हिस्थति कञ्चनम् ।
___ अहिंसा समयं चैव, एतावती विज्ञानिता ॥१५।।
अन्वयार्थ:-हे आर्य ! (खु) निश्चय करके (गाणिणो) ज्ञानियों का (एक) यह (सार) तत्त्व है, कि (ब) ओ (कंचणं) किसी भी जीव की (न) नहीं (हिंसति) हिंसा करते (अहिंसा) अहिंसा (चेव) ही (समय) शास्त्रीय तत्त्व है (एतादत) बस, इतना ही (वियाणिया) विमान है । यह यथेष्ट ज्ञानीजन है।
भावार्थ:-हे मार्य ! ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात उन शानियों का सारमूत तत्व' यही* किसी जीत की दिशा नहीं करते। वे अहिंसा ही को शास्त्रीय प्रधान विषय समझते हैं । वास्तव में इतना जिसे सम्यक् भान है वहीं यथेष्ट ज्ञानीजन है। बहुत अधिक ज्ञान सम्पादन करके भी यदि हिंसा को न छोड़े, तो उनका विशेष ज्ञान मी अज्ञान रूप है। मूल:-संबुज्झमाणे उ गरे मतीमं,
पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा 1 हिंसप्पसूयाइ दुहाई मत्ता,
वेराण बंधीणि महब्भयाणि ॥१६।। छाया:-संबुद्धयमानस्तु नरो मतिमान्, पापादात्मानं निवर्तयेत् ।
हिंसाप्रसूतानि दुःखानि मत्वा, बैरानुबन्धीनि महाभयानि ॥१६॥ अन्वयार्थ:--हे आर्य ! (संबुज्झमाणे) तस्यों को जानने वाला (मतीम) बुद्धिमान् (गरे) मनुष्य (हिंसप्पसूयाई) हिंसा से उत्पन्न होने वाले (दुहाई) दुखों को (वेराणबंधीणि) कर्मबंधहेतु (महकमयाणि) महाभयकारी (मत्ता) मान कर (पावाउ) पापसे (अप्याण) अपनी आत्मा को (निबट्टएज्जा) निवृत्त करते
भाषार्षः-हे आर्य ! बुद्धिमान् मनुष्य वही है, जो सम्यक्सान को प्राप्त करता हुमा, हिंसा से उत्पन्न होने वाले सुखों को कर्म बंध का हेतु और महामयकारी मान कर, पापों से अपनी आत्मा को दूर रखता है।