SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निग्रंन्य-प्रवचन मूल:-आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे । जे धम्म सुद्धमक्खाति, पडिपुन्नमणेलिसं ॥१७॥ छाया:- आत्मगुप्तः सदा दान्तः छिन्न शोकोऽमाथवः । यो धर्म शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्णमनीदृशम् ।।१७।। अन्वयार्य:- हे इन्द्र मूति ! (जे) जो (आयगृत) आत्मा को गोपता हो, (सया) हमेशा (दंते) इन्द्रियों का दमन करता हो (छिन्नसोए) संसार के स्रोतों को मूदने वाला या इष्ट वियोग आदि के शोक से रहित और (अण्णासवे) नूतन कर्म बंधन रहित जो पुरुष हो, यह (पडिगुम्न) परिपूर्ण (अगलिस) अनन्य (सुद्ध) शुद्ध (धम्म) धर्म को (अवखाति) कहता है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! जो अपनी आत्मा का दमन करता है, इन्टिमों के विषयों के साथ जो विजय को प्राप्त करता है, संसार में परिभ्रमण करने के हेतुओं को नष्ट कर डालता है, और नवीन फों का बंध नहीं करता है, अथवा इण्ट वियोग और अनिष्ट संयोग आदि होने पर भी जो शोक नहीं करतासमभावी बना रहता है, वही ज्ञानी जन हितकारी धर्म मूलक तत्त्वों को कहता है। मूलः---न कम्मुणा कम्म खति बाला, अकम्मुणा कम्म खर्वेति धीरा। मेधाविणो लोभमयावतीता, __ संतोसिणो नो पकरेंति पावं ॥१८॥ छाया:-न कर्मणा कर्म क्षपयन्तिबाला:, अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः। मेधाधिनो लोभमदध्यतीताः, ___सन्तोषिणो नोपकुर्वन्ति पापम् ॥१८॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रमूति ! (बाला) जो अज्ञानी जन है बे (कामुणा) हिसादि कामों से (कम्म) फर्म को (न) नहीं (खति) नष्ट करते हैं, किन्तु (धोरो) बुद्धिमान् मनुष्य (अकम्मुणा) अहिंसादिकों से (कम्म) कर्म (खति)
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy