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________________ निर्ग्रन्थ-3 -प्रवचन भावार्थ:- हे गौतम ! सत्पुरुषों की संगति करने से इस जीव को गुणों की प्राप्ति होती है और जो हास्यादि में आसक्त होकर प्राणियों की हिसा करके आनन्द मानते हैं । ऐसे अज्ञानियों की संगति कभी मत करो। क्योंकि ऐसे दुराचारियों के संसर्ग से शराब पीना, मांस खाना, हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, व्यभिचार का सेवन करना आदि दुष्कर्म बढ़ जाते हैं । और उन दुष्कर्मो से आत्मा को महान् कष्ट होता है। अतः मोक्षामिलापियों को अज्ञानियों को संगति कभी भूल कर भी नहीं करनी चाहिए । २०० मूलः --- आवस्सय अवस्सं करणिज्जं, धुवनिग्गहो विसोही अ अज्झ यणछक्क वग्गो, नाओ आराहणा मग्गो || १७|| छाया:- आवश्यकमवश्यं करणीयम्, ध्रुवनिग्रहः विशोधितम् । अध्ययनपट्कवर्गः ज्ञेय आराधना मार्गः ॥ १७॥ अन्वयाचं हे इन्द्रभूति ! ( ध्रुवनिग्गहो) सदैव इन्द्रियों को निग्रह करने बाला (विसोही अ) आत्मा को विशेष प्रकार से शोषित करने वाला (नाओ ) न्याय के काँटे के समान (आराहणा ) जिससे वीतराग के वचनों का पालन हो ऐसा ( मग्गो) मोक्ष मार्ग रूप ( अज्झयणछक्कबरगो) छ: वर्ग "अध्ययन" हैं, पढ़ने के जिसके ऐसा (आवस्यं) आवश्यक प्रतिक्रमण (अवरसं ) अवश्य ( करणिज्जं ) करने योग्य है । भावार्थ- हे गौतम! हमेशा इन्द्रियों के विषय को रोकने वाला, और अपवित्र आत्मा को भी निर्मल बनाने वाला, न्यायकारी, अपने जीवन को सार्थक करने वाला और मोक्ष मार्ग का प्रदर्शक रूप : अध्ययन हैं पड़ने के जिसमें; ऐसा आवश्यक सूत्र साधु-साध्वी तथा गृहस्थों को सदैव प्रातः काल और सायंकाल दोनों समय अवश्य करना चाहिये। जिसके करने से अपने नियमों के विरुद्ध दिन-रात भर में भूल से किये हुए कार्यों का प्रायश्चित्त हो जाता है । हे गौतम ! यह आवश्यक यों हैं ।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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