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________________ आवश्यक कृत्य छाया:-श्रवणं ज्ञानं विज्ञानं प्रत्याख्यानं च संयमः । अनासवं तपश्चैव, व्यवदानमक्रिया सिद्धिः ॥१५॥ अषयायः—है इन्द्रमूति ! ज्ञानी जनों के संसर्ग से (सवणे) धर्म श्रषण होता है । धर्म श्रवण से (नाणे) ज्ञान होता है । ज्ञान से (विण्णाणे) विज्ञान होता है । विज्ञान (पाखाणे) रामार का हो.है। बहर स्याग से (संज मे) संयमी जीवन होता है । संयमी जीवन से (अणाहए) अनासवी होता है (चेक) और अनाम्नबी होने से (तो) तपवान होता है। तपमान होने से (वोदाणे) पूर्व संचित कर्मों का नाश होता है और कमों के नाश होने से (अकिरिया) क्रियाहित होता है । और सावद्य क्रिया रहित होने से (सिसी) सिद्धि की प्राप्ति होती है। भावार्थ-हे गौतम ! सम्यक् ज्ञानियों को संगति से धर्म का श्रवण होता है, धर्म के श्रवण से ज्ञान की प्राप्ति होती है | ज्ञान से विशेष ज्ञान या विज्ञान होता है । विज्ञान से पापों के करने का प्रत्याख्यान होता है। प्रत्याख्यान से संयमी जीवन की प्राप्ति होती है। संयमी जीवन से अनानव अर्थात् आते हुए नवीन कर्मों को रोक हो जाती है। फिर अनास्रव से जीव तपवान बनता है। तपवान होने से पूर्व संचित कर्मों का नाश हो जाता है । कर्मों के आय हो जाने से सावध क्रिया का आगमन भी बंद हो जाता है। जब क्रिया मात्र रुक गयी सो फिर बस , जोष को मुक्ति ही मुक्ति है । यों, सदाचारी पुरुषों की संगति करने से उत्तरोत्तर सद्गुण ही सद्गुण प्राप्त होते हैं। यहाँ तक कि उसकी मुक्ति हो जाती है। मूल:--अवि से हासमासज्ज, हंता गंदोति मन्नति । अलं बालस्स संगणं, बेरं बड्दति अप्पणो ॥१६॥ छाया:-अपि स हास्यमासज्य, हन्ता नन्दीति मन्यते । अलं बालस्य सङ्गन, वैरं वर्धत आत्मनः ॥१६॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अवि) और जो कुसंग करता है (से) वह (हासमासज्ज) हास्य आदि में आसक्त होकर (हंता) प्राणियों की हिसा ही में (णंदीति) आनन्द है, ऐसा (मन्नति) मानता है। और उस (मालस्स) अज्ञानी की आरमा का (वेर) कर्मबंध (बहति) बढ़ता है।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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