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निग्रन्य-प्रबंधन
अन्वयार्प:-हे इन्द्रभूति ! (बहुआगम विष्णाणा) बहुत शास्त्रों का जानने घाला हो (समाहिउप्यायगा) कहने वाले को समाधि उत्पन्न करने वाला हो (म) और (गुणगाही) गुणग्राही हो (एएण) इन (कारणेणे) कारणों से (आलोपणं) आलोचना की (जो सुनने के लिए विग है।
भावार्थ:-हे आय ! आन्तरिक बात उसके सामने प्रकट की जाय जो कि बहुत शास्त्रों को जानता हो । जो प्रकाशक को सांत्वना देने वाला हो, गुणग्राही हो । उसी के सामने अपने हृदय की बात खुले दिल से करने में कोई आपत्ति नहीं है । क्योंकि इन बातों से युक्त मनुष्य ही आलोचक के योग्य है।
मूल:-भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया ।
नावा व तीरसम्पन्ना, सम्बदुक्खा तिउट्टइ ।।१४।। छाया: - भावना योगशुद्धात्मा, जले नौरिवाख्याता।
नौरिव तीर सम्पन्ना, सर्व दुःखात् युट्यति ॥१४॥
अम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (मावणा) शुद्ध मावना रूप (ोगसुद्धप्पा) योग से शुद्ध हो रही है आत्मा जिनकी ऐसे पुरुष (जले णावा व) नौका के समान जल के ऊपर ठहरे हुए हैं, ऐसा (आहिया) कहा गया है। (नावा) जैसे नौका अनुकूल वायु से (तोरसम्पन्ना) तीर पर पहुंच जाती है (ब) वैसे ही, नौका रूप शुद्धामा के उपदेश से जीव (सव्वदुरुस्खा) सर्व दुखों से (तिउट्टइ) मुक्त हो जाते हैं। ____ भावार्थ:--हे गौतम ! शुदभावना रूप ध्यान से हो रही है आत्मा निर्मल जिनकी, ऐसी शुद्धारमाएँ संसार रूप समुद्र में नौका के समान हैं । ऐसा ज्ञानियों ने कहा है । ये नौका के समान शुद्धात्माएं आप स्वयं तिर जाती है और उनके उपदेश से अन्य जीव भी पारित्रवान् होकर सर्व दुख रूप संसार समुद्र का अन्स करके उसके परले पार पहुंच जाते हैं।
मुल:--सवणे नाणे विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे ।
अणाहए तवे चेव बोदाणे, अकिरिया सिद्धी ॥१५॥