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आवश्यक-कृत्य
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मूल:- सावज्जजोगविरई,
उक्कित्तण गुणवओ च पडिवत्ती। खलिअस्स निदणा,
वणतिगिच्छ गुगधारणा चेव ।।१८।। छायाः-सावद्ययोगविरतिः, उत्कीर्तनं गुणवतश्च प्रतिपत्तिः ।
खलितस्य निन्दना, वणचिकित्सा गुणधारणा चैव ॥१८|| अग्वयार्थ:- है हन्द्रभूति ! (सावज्जजोगविरई) सावद्ययोग से निवृत्ति (उक्कित्तण) प्रभु की प्रार्थना (प) और (गुणवओ) गुणवान गुरुकों को (परिवत्ति) विधिपूर्वक नमस्कार । (स्वलिअस्स) अपने दोषों का (निदणा) निरीक्षण (वतिगिम्छ) छिद्र के समान लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त ग्रहण करता हुआ निवृत्ति रूप औषधि का सेवन करना (चेव) और (गुणधारणा) अपनी शक्ति के अनुसार त्याग रूप गुणों को धारण करना।
भावार्थ:-हे गौतम ! जहा हरी वनस्पति, चींटियो, कुंथुए बहुत ही छोटे जीव वगैरह न हों ऐसे एकान्त स्थान पर कुछ भी पाप नहीं करना, ऐसा निश्चय करके, कुछ समय के लिए अपने चित्त को स्थिर कर लेना, यह आवश्यक का प्रथम अध्ययन हुआ । फिर प्रभु की प्रार्थना करना, यह द्वितीय अध्ययन है। उसके बाद गुणवान गुरुओं को विधिपूर्वक दृश्य से नमस्कार करना पह तीसरा अध्ययन है। किये हुए पापों की आलोचना करना चौथा अध्ययन और उसका प्रायश्चित ग्रहण करना पांचवां अध्ययन और छठी बार यथाशक्ति त्याग की वृद्धि करे । इस तरह षडावश्यक हमेशा दोनों समय करता रहे । यह साघु और गृहस्थों का नियम है । मूलः -जो समो सब्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य ।
तस्स सामाइयं होइ, इइ केबलिभासियं ॥१६॥ छायाः—यः समः सर्वभूतेषु, असेषु स्थावरेषु च ।
तस्य सामायिक भवति, इति केवलिभाषितम् ॥१६॥